मद्यपी-श्वपच् बनाम कुत्ता बनाम आदमी

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी कहानी
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम उदय भानु पांडेय








उस नवजवान के स्वराघात इतने तटस्थ थे कि यह समझा पाना लगभग असंभव था कि वह कार्बी है या दिमासा, या गारो या खासी, नगा अथवा मार। बस इतना समझा जा सकता था कि वह ट्रायबल है और दिन डूबने के पहले नशे में धुत होकर उलटा-सीधा बकता हुआ मेरे घर के आगे से निकल जाता था। मेरा घर आदिवासी मोहल्ले में था, लेकिन वहाँ नशे में धुत होकर कोई चीखता-चिल्लाता नहीं था, हालाँकि शाम होते ही पैमानों में शराब ढाली जाती और जब गुलाबी नशा हवा में लहराता, पड़ोसी नवजवान अपनी हसीन बीबियों को आदिवासी लहजे में उर्दू शेर सुनाते। मेरा चेला अजुत रंगफार और अपनी बीवी से कहता, ''ओ डार्लिंग :
खुद भी पिएँ तुम्हें भी पिलाएँ तमाम रात,
जागें तमाम रात जगाएँ रात!!
वह  'तमाम' को 'टमाम', 'रात' को 'टाट' और 'तुम्हें' को 'टुम्हें' कहता, लेकिन, उसकी आवा•ा ऊँची बिलकुल नहीं होती। उसके हमप्याले केवल फुसफुसाकर बोलते। अपने मोहल्ले में, वह भी दिन डूबने के पहले, किसी पियक्कड़ का यह प्रलाप मुझे अजीब लगता। हमारे इलाके में लगभग हर आदिवासी गृहस्थ के घर में कुत्ता होता था, लेकिन केवल मायकेल का कुत्ता उस पियक्कड़ का मुखर विरोधी था। बाकी सारे कुत्ते दिनभर ऊँघते रहते थे और जब वह मद्यपी निकलता उसे वे साफ इगनोर कर देते थे। पड़ोसी मायकेल स्वर्गियरी का देशी कुत्ता बड़ी तल्खी के साथ भौंकता हालांकि पियक्कड़ आदिवासी न शोर मचाता था, न ही गाली बकता और उसकी चाल भी लगभग सामान्य होती। हम लोग स्वर्गियरी को यह कहकर छेड़ते कि बाकी लोग भलेही बदतमीज़ी बरदाश्त कर लें बोरो का देशी कुत्ता समझौता नहीं कर सकता। जब कुत्ते का तेवर ज़्यादा गरम होता, पियक्कड़ उसे यह कहकर हिंदी में डपटता, ''चुप स्साला। तुम कुत्ता का बच्चा है, हम मानू (मनुष्य) का बच्चा है। हमसे तुम क्या फुटानी देखाता है रे रस्साला? हम खुवा बस्तु (खाने वाली चीज़) ही खाता है। इसे कार्बी लोग हर्लांग बोलता है, दिमासा जू कहता है, आहोम लोग अकर देसवाली-बिहलासपुरिया हंडिय़ा और रिखी मुनी इसे सोमरस बोलता है। तुम समझता है कि नहीं?''
इसके बाद वह थोड़ा रुकता जैसे कुत्ते से अपने प्रश्नों का उत्तर चाहता हो। कुत्ता भी थोड़ा रुकता जैसे उसे पियक्कड़ की भाषा में बड़ा रस मिल रहा है। जब डायलाग खत्म होता स्वर्गियरी का ब्लैकी पूरी ताकत के साथ रपटता, लगता वह अपनी ज़ंजीर तोड़ देगा। तब पियक्कड़ अपनी नाटकीयता के चरमोत्कर्ष पर होता और गुर्राकर ब्लैकी को धमकाता - ''केला, तुम बेसी-बेसी फुटानी मारता है। अब्भी तुमको दाव से टुकरा-टुकर करेगा,चूल्हा जालएगा और सिंहो सर का घर से यूपीवाला मसाला लेकर राँधकर मांग्सो बनाकर खाइ देगा। कुटुस फिनिश। बस्स, तुम्हारा सारा फुटानी सेस हो जाएगा!!''
मुझे इस बात पर हँसी आती थी कि वह मुझे सिंह  न कहकर सिंहो कहता और नशे की हालत में भी कुत्ते के मांस में यूपीवाला मसाला डालने की योजना कभी नहीं भूलता।
मैंने लगभग अपनी पूरी ज़िंदगी आदिवासियों के बीच बिताई है। मुझे इस बात पर तनिक भी हैरानी नहीं होती कि लोग कुत्ते का मांस कैसे खा जाते हैं। बहुत पहले मैंने एक कुत्ते की बदक़िस्मती अपनी आँखों से देखी थी। सदर बाज़ार के बीच धरमनाला नदी के पुल पर एक दबंग-सा नवजवान कंधे पर बोरा उठाए चला जा रहा था। अचानक बोरे में हरकत हुई और चीखकर नवजवान ने बोरे को पटक दिया। बोरे में जो प्राणी था उसे पटककर नवयुवक लाठी से पीटने लगा। बा•ाार के लोगों ने हँसकर बताया कि यहाँ कुत्ते कम होते जा रहे हैं और श्वपचों की संख्या बढ़ती जा रही है। मैं इस बात पर हैरान था कि स्थानीय नागरिक कुत्तों को बड़े लाड़-प्यार से पालते हैं कि फिर भी कुछ लोग कुत्तों का मांस क्यों खाते हैं। ट्रायबल हिन्दू व्यंग्य से कहते, ''क्या करिएगा सिंहो साहब, यह आर्यावर्त नहीं है। यहां जीवो जीवस्य भोजनम् वाला धरम चलता है। ''
मुझे जो बात हैरत में डालती थी वह यह थी कि शराबी का डायलाग हूबहू एक-सा रहता था और ब्लैकी का व्यवहार भी जस-का-तस रहता। जब आदमी सड़क पार कर जाता ब्लैकी चुप हो जाता।
शहर बहुत खूबसूरत था - इस बात में कोई संदेह नहीं। आतंकवाद आने के बहुत दिनों बाद तक सामाजिक जीवन में शराफत बाकी थी। न यहां भाषायी दंगे हुए थे और न ही सांप्रदायिक टकराव था। सिंहासन पहाड़1 पर अदरख की खेती को लेकर थोडो और कार्बी युवकों में थोड़ा तनाव आया था, लेकिन धीरे-धीरे आदिवासियों की सारी जन-गोष्ठियाँ सिमटकर एक हो गयी थी। कई बार अल्फा का नाम लेकर लोगों ने सनसनी फैलानी चाही थी, पर गुंडा टैक्स लगाने वाले लोगों को पकड़ लिया गया था। मेरा परिवार उत्तर प्रदेश और कनाडा में स्थापित था। मैं अकेला अपने घर में रहता था और वानप्रस्थ अवस्था में प्रसन्न था। लेकिन नयी सदी की शुरुआत होते ही हिन्दी- दाँ दोस्त यह गुनगनाने लगे थे:
कुछ मत बोलो दर्द बढ़ेगा,
ऊबो और उदास रहो।
ऊब और उदासी मेरे हिस्से में भी थी, लेकिन मुझे आदिवासियों की स्नेह-श्रद्घा का रक्षाकवच मिला हुआ था। मैं उन्नीसवीं सदी के किसी ऐसे अभागे सामंत की तरह था, जो निर्धन और शक्तिहीन होने के बावजूद अपनी हवेली में निर्भय होकर रहता हो। मैं साइड बिज़नेस से दूर था और मेरी ग़रीबी ही मुझे निर्भय बना रही थी। जो लोग चंदा उगाहते थे या गुंडा टैक्स बटोरते थे वे मुझसे बचकर निकल जाते और रू-ब-रू होने पर सलाम ठोंक कर असमिया में पूछ लेते कि खाना खाया या नहीं अथवा पत्नी, बच्चों और नाती-नातियों ने फोन वगैरह किया या नहीं। मैं मदिरा और राजनीति-दोनों से दूर था और मेरा अधिकांश समय बगवानी में व्यतीत होता था।
मैं सुबह सैर के लिए निकलता तो शराबी अक्सर लकड़ी फाड़ते या खेत गोड़ते हुए दिखता। उसे मैं प्राय: यह कहकर छेड़ता कि लकड़ी चीडऩे से सुअर का सारा गोश्म हजम हो जाएगा! वह मुक्त निर्झर की सी हँसी हँसता और दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता। उसे दिन में देखकर यह कतई नहीं लगता कि वह दिन डूबने के पहले से पीना शुरू करता है और रात के आठ बजे तक जाम पर जाम उँडेलता रहता है। उसका पेट सटा हुआ था, पुट्ठे तगड़े और माथा चौड़ा था। जब वह बा•ाार में निकलता मुझे लगता था वह मुझसे आँखें चुरा रहा है, या शायद यह सोचता होगा कि शिक्षा विभाग वाले लोग साधु-संत हैं और मेरे पीने-पिलाने की बात उन्हें तनिक भी रास नहीं आती। ब्लैकी के भौंकने पर वह जिस तरह खुलकर डायलाग अदायगी करता था, शायद तब वह सोचता होगा कि सिंहो सर पढऩे-लिखने में लगे होंगे और उसकी गुफ्तगू तो खाली उस कुत्ते से हो रही है, जो उसके शराब पीने का खुलकर विरोध करता है। पढ़ाकू आदमी कहाँ सड़क पर कान लगाकर बैठेगा?
पड़ोसियों से इस बात पर कभी-कभार चर्चा होती तो बुज़ुर्ग लोग बताते कि पामेरियन, ब्रिटिशहाउंड, बुलडॉग और अलसेशियन तक श्वपचों से डरते हैं और जब कोई कुत्ताखोर सड़क से निकलता है, कुत्ते उसके शरीर की बू से जान लेते हैं कि वह खतरनाक प्राणी है और तब वे अपनी दुम दबाकर भाग खड़े होते हैं। यह पियक्कड़ अगर कुत्ताखोर भी हो तब भी कोई अवतारी पुरुष है, नहीं तो ब्लैकी इस तरह कभी नहीं गुर्राता।
इस तरह की हलकी-फुलकी दिलजमई ही पहाड़ी कसबे को जीवंत बनाए रखती थी। ट्रायबल नागरिक कभी भी शराब पीने के लिए मुझ पर कोई दबाव नहीं डालते थे और न ही बोतल को देखकर इस तरह बिदकते कि उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। मैं समझता कि यह दृष्टिकोण बड़ा स्वस्थ-संतुलित है। फिर बाज़ार में गुंडा टैक्स शुरू हो गया और गाहे-बेगाहे लोगों को किडनैप किया जाने लगा। अपहरणकर्ता मोटी या मझोली राशि की फिरौती लेकर उसे छोड़ दिया करते। एक बार सिलभटा में जब पिकनिक का खाना तैयार हुआ, आठ-दस नवजवान हाथों में इसलहा लेकर नमूदार हो गये। उन्हें न तो गहना चाहिए था और न ही रुपया-पैसा। उन्होंने सबके हिस्से का खाना सरपोट लिया, फिर धन्यवाद देकर जंगल में घुस गये। ऐसी छिटपुट वारदात के बावजूद हमारा शहर शांत था।
लेकिन, तभी एक हादसा बरपा हुआ। मैं अक्टूबर महीने में फूल और तरकारियों के लिए अपने बगीचे में काम कर रहा था। जुलाई-अगस्त की गर्मी खत्म हो गयी थी और लोग अपने-अपने घरों की सफाई करने में जुटे थे। अचानक मुझे ब्लैकी के भौंकने की आवाज़ सुनाई पड़ी। मैंने सोचा पियक्कड़ घूमने निकल आया है, लेकिन उसका यह भौंकना कुछ अलग क़िस्म का था। अचानक मेरा गेट खुला और एक जंगी आदमी बगीचे में घुस आया। मुझे उसकी शक्ल कुछ-कुछ मिस्टीरियस लग रही थी, लेकिन वह पियक्कड़ या लफंगा नहीं दिख रहा था। इसी शक्ल का एक लड़का कभी-कभी मेरे लिए पुनर्नवा का साग या हिरण का मांस लाता था। मुझे लगा यह उसका भाई है, लेकिन उसके पास कोई थैला नहीं था। मैं साठ के खांचे में था और जवानी का वह तेवर अब नहीं बचा था जिसके तहत बदतमीज़ लड़कों पर घूँसे बरसाने लगता। मेरा आदिवासी शहर, जैसा की मैं पहले अर्ज़ कर चुका हूं, मेरे लिए किसी क़िले से कम नहीं था। वह नवजवान बिना कुछ बोले अंदर चला आया था और उसकी गोल मंगोल आंखों में एक अजीब क्रूरता स्पष्ट दिखाई पड़ती थी। मुझे पूरा यकीन था कि मैं उस पर भारी पडूँगा। मैं कुछ सख्ती से पूछा, ''क्या चाहिए तुम्हें? तुम क्यों इस तरह घुस आए हो घर के अंदर?'' अतिक्रामक कुछ बोलता इसके पहले ही शराबी दौड़कर मेरे पास पहुँच गया। उसके पाँवों में बला की फुरती थी। उसने बिल्लियों जैसी आवाज़ मुँह से निकाली और अजनबी को छाप लिया। तीन चार पंच के बाद अजनबी पूरी तरह धराशायी हो चुका था। फिर उसने उसी जेब से पिस्तल बरामद की उसे एक लात लगाई, ''स्साला, ट्रायबल की नाक काटता है तू? गुंडा-टैक्स व्यापारियों और नेताओं से वसूला जाता है या शरीफ लोगों से? आज तू जिंदा नहीं लौटेगा।''
पियक्कड़ के मुँह से व्हिस्की की बू अभी भी आ रही थी। मुझे लगा कहीं खून-खराबा न हो जाए। मैंने उसे दृढ़तापूर्वक रोका। अब तक मुहल्ले के लोग जुट गए थे। स्वर्गियरी का ब्लैकी एक झटके में ज़ंजीर तोड़कर मेरे अहाते में घुस आया था। उसने अजनबी की जांघों को  दांतों से पकड़ लिया।
''रुक बे। आज तू सौ िफसदी जेंटिलमैन लग रहा है। इसकी जाँघों को छोड़ दे। मैं इस हरामी की इसी पेड़ से बांध देता हूं।''
पुलिस आयी और अजनबी को ले गई। मैं पड़ोसियों को अंदर ले आया। ब्लैकी अपनी जुबान में पियक्कड़ से बात कर रहा था।
''रुक बे, तू मुझे चुम्मा खाना चाहता है?'' वह उस ब्लैकी से बोला, जो उससे लिपटकर उसका मुँह चाट रहा था। मैंने बिस्कुट का एक पैकेट शराबी के हाथ में दे दिया। ब्लैकी अब उसकी गोद में बैठकर बिस्कुट कुतरने लगा। शराबी ने हँस कर कहा, ''सिंहो सर, वह गाना याद है न - जानवर आदमी से ज़्यादा वफादार है?''
उसके बाद मैं अपने रक्षक और पड़ोसियों की खातिर करना चाहता था। स्वर्गियरी से मैंने ब्लैकी को घर भिजवाने की बात कही, लेकिन ब्लैकी ने अपनी भाषा में जाने से इनकार कर दिया। मैंने उसे खूब दुलराया और बिस्कुट खिलाए। कई सालों बाद मैंने बोतल खोली और घंटों तक महफिल जमी रही। बच्चे कनाडा से कभी-कभार विदेशी शराब की एकाध बोतलें मेरे पास छोड़ जाते थे या मेरे आदिवासी चेले विदेशों से रेनिशवाइन, क्लैरेट और वोदका ले आते - केवल सम्मान जताने के लिए2। ये बोतलें कई सालों बाद खुलती थीं और मैं प्राय: सॉफ्ट ड्रिंक ही लेता। लेकिन, आज महफिल खूब जमी और मैंने भी जाम उठाया। जब सब चले गए मैंने अपने शहर, गुवाहाटी, लखनऊ और कनाडा के लिए फोन खड़काए। सभी ने यही राय दी कि अब 'वतन' की ओर रुख किया जाना चाहिए कि अब असम के आदिवासी शहर हिन्दीभाषियों के लिए एकदम असुरक्षित हो गए हैं। मुझे रात भर नींद न आयी।
दूसरे दिन सुबह खबर मिली कि बीस बिहारी मेहनतकशों की हत्या कर दी गयी है। मेरी रक्त-शिराओं में पीड़ा की लहर दौड़ गयी, कल शाम की घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया था। मैं अपने आपको इस शहर का एक हिस्सा मानता था, न तो मुझे वह लखनऊ रास आता था जहाँ मैं जन्मा-पला-बढ़ा था और न ही कनाडा का वह शहर जहाँ की जलवायु मुझे लंबी उमर दे सकती थी और जहाँ मेरे दो बेटे जमे हुए थे।
मुझ पर हमले की खबर ने पूरे शहर में सनसनी फैला दी। हालचाल पूछने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था, लेकिन उसी समय स्वर्गियरी ने मुझे बताया कि मेरा रक्षक स्वर्ग सिधार गया है। मुझे लगा कि आतंकवादियों ने उसे मार दिया क्योंकि उसने किसी आतंकवादी को धर-दबोचा था और यह सब मेरे लिए हुआ। मैं खाते-पीते परिवार का लड़का लखनऊ की सरजमीं छोड़कर असम आया और पूरी जिंदगी यहीं आदिवासियों के बीच बिता दी, लेकिन यहां अब मुझे ही नहीं, मुझे बचाने वालों को भी मारा जा रहा है।
जब मैं रनजीत को अंतिम सत्कार देने पहुंचा उसकी माँ उसके शव के पास बैठी बिलख रही थी। मैंने बुढिय़ा को बाहों में भर लिया।
''मैं साठ से ऊपर हूँ, मुझे ही जाना चाहिए था, लेकिन मुझे बचाते-बचाते बेचारा आपका इकलौता बेटा ही चला गया।''
माँ ने मेरे आँसुओं को पोंछते हुए कहा, ''वह सभी को बचाता था और तुम्हारी ही तरह राजनीति से दूर रहता था। बस मेरा बेटा बड़ा सेंटीमेंटल था। कल शाम जब वह घर वापस लौटा बहुत गुस्से में था। कहता था लोग राक्षस हो गये हैं - बुज़ुर्गों तक की जान ले लेते हैं, मास्टरों को भी मारते हैं, बच्चों को भी नहीं बख्शते हैं और सरकार सुख की नींद सोती रहती है। आज सुबह उसे हार्टअटैक हुआ...''
शवयात्रा में पूरा शहर उमड़ पड़ा। मितभाषी ट्रायबल भी आज मुखर हो रहे थे। रनजीत क्वाँरा था। किसी ने दिल तोड़ा था, इसीलिए वह एकाकी रह गया था। माँ की सेवा करता था और किसी की बहू-बेटी को बुरी नज़र से नहीं देखता। इस शहर में शवयात्रा शांत होती है - कोई नहीं रोता, लेकिन रनजीत के लिए कई लोग रो रहे थे। लेकिन, इन रोनेवालों में सबसे आगे था ब्लैकी। वह रनजीत की कब्र पर बैठ गया और रोने लगा।
ब्लैकी पूरे तीन दिनों तक कब्र पर जाकर बैठता और रोता रहा। फिर सवर्गियरी रनजीत की माँ को अपने घर ले आया। जो शहर आतंकवाद के कारण पिछले एक साल से घोंघे की तरह अपने खोल में समाया रहता था वह बुढिय़ा के लिए उमड़ पड़ा। कोई चावल लाता, कोई सब्ज़ी कोई दाल। पचासों आदिवासियों ने उसे अपने साथ रहने का न्यौता दिया, लेकिन स्वर्गियरी ने उसे जाने न दिया।
मेरे पास शुभचिंतकों के संदेश आते रहे, लोग पूछते रहे कि लखनऊ कब वापस लौटोगे। मैंने अपने दोस्तों और परिवारवालों से कह दिया, ''मैं अपना शहर नहीं छोड़ रहा। जहाँ शराबी और कुत्ते भी शरीफ हों उस शहर को छोड़कर कौन जाएगा?''
इसके बार मैं अपना शहर तो न छोड़ सका, लेकिन मेरी शामें धुआँ-धुआँ सी रहने लगीं। ब्लैकी ने भी मुहल्ले के और कुत्तों की तरह शाम को भौंकना बंद कर दिया।




1. सिंहासन पहाड़ : असम के कार्बी आंग्लांग जिले का एक पहाड़ जहाँ मणिपुर के थाडो कबीले के कई परिवार रहते हैं।
2. असम के आदिवासी शराब की बोतल देकर बड़ों को सम्मान जताते हैं।

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