जीनों की कुदक्कड़ी

  • 160x120
    पहल - 114
श्रेणी जीनों की कुदक्कड़ी
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम स्कंद शुक्ल





विज्ञानवार्ता/चौथी कड़ी

 

 

 

 

प्रिय मीता ,

 

जब तक यह ईमेल तुम्हारी नज़रों के सामने पड़ेगी , कॉर्नेल विश्वविद्यालय के उस भव्य ऑडिटोरियम में तुम्हारा सम्भाषण समाप्त हो चुका होगा। तालियों-सराहनाओं-साधुवादों के बीच जब तुम अपना फ़ोन खोलना, तो एक बार इसे ऊपर-से-नीचे तक देख-भर जाना। बाकी फिर भीतर समेटना तो तभी हो सकेगा, जब तुम्हें रात्रि का एकान्त मिलेगा।

कॉर्नेल ! न्यूयॉर्क का प्रतिष्ठित आईवी लीग विश्वविद्यालय! जहाँ के बारे में हम-तुम न जाने कितनी बार बातें कर चुके हैं! याद है सुमित तुम्हें मेरे नाम की दिलचस्प कहानी? तुम्हारा मुझे बारबरा बुलाना और मेरा चौंक उठना। क्या तुम मेरे मन की उस नायिका के बारे में पहले से जानते रहे हो? साहित्य के विद्यार्थी होकर भी? अथवा यह महज़ एक इत्तेफ़ाक़-भर था।

पादप-विज्ञान में मैं उन्हीं के पदचिह्न देखती हुई आयी थी और आज भी उन्हीं के पीछे-पीछे चल रही हूँ। बारबरा मैक्लिंटॉक। अमेरिकी पादप-विज्ञानी। वे जो पादप-आनुवंशिकी के ऊपर अपना गहरा प्रभाव छोड़ गयीं। ऐसा प्रभाव जो आज तुमसे हज़ारों-हज़ार मील भारत में रहकर भी मैं महसूस कर सकती हूँ कि तुम उसी कॉर्नेल में घूम रहे हो, जहाँ वह भुट्टेवाली महिला शोध करती थी।

महीना सितम्बर का है और बाज़ार भुट्टों से पटा हुआ है। भुट्टे जिनके कारण हम बारबरा मैक्लिंटॉक को याद करते हैं। उन्हीं में से एक के कोमल दानों को मैं आहिस्ता-आहिस्ता चबा रही हूँ और तुम्हें यह पत्र लिख रही हूँ। उनके जम्पिंग जीनों की अवधारणा का सत्य सिद्ध होना। विज्ञान की मुख्यधारा में उसका धीरे-धीरे बहुत समय बाद अपनी पैठ बनाना। फिर लगभग छह दशक बाद इस खोज का चिकित्सा के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार जीतना। मक्के के दानों के दम पर उस औरत ने दुनिया हिला दी थी।

तुम और मैं बचपन से एक ही बिल्डिंग के समीपस्थ एपार्टमेंटों में रहते आये।  संग-संग खेलते एक-दूसरे के साथ। कभी मेरा तुम्हारे घर आना तो कभी तुम्हारा मेरे घर पड़े रहना। तकल्लु कहाँ था हमारे परिवारों के बीच! और जब बड़े उदार-हृदय हो जाएँ, तो बच्चों को तो जैसे सम्पूर्ण स्वतन्त्रता मिल जाती है। दो घर मिलकर एक हो जाते हैं। कौन कहाँ कब मिलेगा, यह कई बार माँ-बाप भी नहीं बता सकते।

मैंने ही कुछ दिनों पहले तुमसे कहा था सुमित : बच्चे जम्पिंग जीनों की तरह होते हैं। वे एक ही परिवार में बँधकर रहें , ऐसा नहीं होता। वे एक गुणसूत्र से दूसरे में मनमर्जी से चल देते हैं। कभी भी, कहीं भी। उन्हें सामाजिकी की जड़ता नहीं होती, उनमें क्रीड़ाभाव होता है। और यह बात आनुवंशिकी के सन्दर्भ में समझने में दुनिया को कितने दशक लग गये!

और जब बचपन एक घर से दूसरे और दूसरे से तीसरे में कूदा करता है, तो कैसे मिश्रित भाव पनपते हैं! नहीं बेटा, उन अंकल के घर न जाया करो! इतना अधिक तो बिलकुल नहीं! अरे वे क्या सोचेंगे! थोड़े समझदार हो जाओ! अब बड़े हो गये हो भाई तुम! हर समय ऊधम अच्छा थोड़े ही होता है!

लेकिन इसी झिझक, इसी संकुचन और इसी भय के साथ एक स्नेहिल-भाव का भी जन्म होता है। एक सुखद अनुभूति कि हमारे प्रेम-सम्बन्धों का दायरा कितना बढ़ गया है। हम अब एक घर में नहीं रहते; दोनों घरों में हमारे रिश्ते गूँजा करते हैं। बच्चे जो हमारे इधर-से-उधर किया करते हैं! वे ही तो हमारे नेह-नीड़ों के अग्रदूत हैं!

जैसे हम-बच्चों ने दोनों घरों को अपने आवागमन से जोड़ा, वैसे ही जम्पिंग जीन कोशिका के भीतर गुणसूत्रों में परस्पर आवागमन करते हैं, मेरे मीत! लेकिन फिर हमारे वैज्ञानिक भी तो मनुष्य ही हैं! परम्परा से जकड़े वे सोचते थे कि गुणसूत्र के जीन वहीं वास करते हैं, जहाँ एक-बार बस गये। वे एक ही घर के सगे हैं। अपना स्थान कभी नहीं बदलते वे! यह एक क़िस्म की आनुवंशिकीय जड़ता में विश्वास था। बारबरा के भुट्टों से इसे झुठला दिया। किसी एक गुणसूत्र के सभी जीन उसी गुणसूत्र पर सदा स्थिर नहीं रहते। वे अपनी जगह बदलते हैं : एक गुणसूत्र से दूसरे में ट्रांसपोजि़ट हो जाते हैं। जीनों की इस बिरादरी को विज्ञान आज ट्रांसपोज़ॉन भी कहा करता है।

हमारा बचपन जब घर बदलता था, तो क्या केवल स्नेह-संचार करता था! याद है किस तरह से मैं तुम्हारा रोबोट अपने घर लेकर चुपचाप भाग आयी थी! फिर मम्मी ने किस तरह झिड़क कर वापस किया था आंटी को सॉरी-समेत। और किस तरह से तुम हमारे फ्रिज में रखी आइसक्रीम चट कर गये थे, जिस दिन मेहमान आये थे। मम्मी की कुढऩ-भरी नज़रों ने तुम्हें देखा था, पर कुछ कह न पायी थीं। बाद में शायद तुम्हारे घर उलाहना पहुँचाई हो।

यही बचपन है, जेनेटिक्स जैसा। वह स्नेह के साथ ऊधम लाता है, शैतानी भी। बच्चे नहीं जानते कि कहाँ-कब-क्या-कितना करना है : वे बस कर जाते हैं! फिर कभी बाद में बड़े उनके किये पर ठहाके मारते हैं , तो कभी उन्हें झिड़के बिना रह नहीं पाते।

जीवन के विकास में बड़ी भूमिका है इन कुदक्कड़ जीनों की। हाँ मक्के में बहुत अधिक, लेकिन मनुष्यों में भी बहुत महत्त्व वाली। जानते हो कितना जीन-समुदाय कूदता है? मक्के का नब्बे प्रतिशत। और हमारा पचास प्रतिशत। अब क्या यह क्रान्तिकारी जानकारी नहीं थी विज्ञान के लिए! जिस तरह से मनुष्य अपने हाथ-पैर-आँखों-कानों-दिल-जिगर-गुर्दों को एक ही स्थान पर स्थिर देखता पूरा जीवन काट देता है, उसी तरह वह कोशिकाओं के भीतर के जीनों को भी सोचा करता है। लेकिन यहाँ! यहाँ तो एक प्रकार की तरलाई है! यहाँ तो एक रूप का बचपना है! यहाँ तो एक क़िस्म की खिलन्दड़ी है! यहाँ तो एक टाइप की कुदक्कड़ी है!

इन कुदक्कड़ जीनों की आवाजाही से हमारा विकास-क्रम सम्भव हुआ है। एककोशिकीय जलचर जीव से आधुनिक विकसित मनुष्य तक की यात्रा क्या सम्भव थी, अगर हमारी कोशिकाओं के भीतर ये जम्पिंग जीन न बनते! जीनों की दौड़-भाग हुई तो जीव का विकास हुआ। जटिल से जटिलतर।  लेकिन गति जब होती है , तो दुर्गति संग साथ लाती है। मनुष्य जब बना, तो उसके रोग भी संग बने। जम्पिंग जीनों से आदमी के विकास के साथ इन रोगों को का होना भी सम्भव किया।

मीता, मैं जानती हूँ कि मेरा पादप-विज्ञान तुम्हें बोर कर रहा है, लेकिन एक बार कॉर्नेल की उस लैब को देख आना, जहाँ बारबरा अपने मक्कों के गुणसूत्रों पर अहर्निश प्रयोग किया करती थी। उस दृश्य को अपनी आँखों में भर लेना और वह तुम्हारी बारबरा के भीतर स्वयमेव दाखिल हो जाएगा। अपने साझे चंचल बचपन की यादों की ख़ातिर तुमसे इतने की माँग करना कोई नावाजिब बात तो नहीं!

जल्दी घर वापस आओ। यहाँ सब तुम्हारी राह रस्मों के लिए देखते हैं। आगामी सोलह को हमारी मँगनी है और फिर शादी। ज्यों दो जम्पिंग जीन एक-साथ किसी बन्धन में बँधने जा रहे हों। लेकिन यह बन्धन भी हमें इस बिल्डिंग से दूर नहीं ले जा सकेगा। हम यही रहेंगे। दो गुणसूत्र-से हमारे दो परिवार। उसमें जीनों-से सभी सदस्य। उसमें यों ही चलती रहेगी मेरी-तुम्हारी कुदक्कड़ी!

तुम साहित्य के यायावर हो और मैं विज्ञान का ट्रांसपोज़ॉन। कॉर्नेल कॉर्नवाली मेरी हीरोइन की कर्मस्थली है, जहाँ मैं कभी न जा पायी। लेकिन आज जब तुम वहाँ हो, लगता है कि मैं ही बारबरा मैक्लिंटॉक से मिल रही हूँ।

तुम्हें माथे पर ढेर सारा प्यार। बार-बार।

 

तुम्हारी ,

बारबरा।

 

( हम-सभी जीवित प्राणी कोशिकाओं से बने हैं और इन कोशिकाओं के भीतर वास है गुणसूत्रों (क्रोमोज़ोमों ) का। अपने नाम के ही अनुरूप ये गुणसूत्र डीएनए के वे धागे हैं, जिनके कारण हमारे हमारे तमाम गुणों और प्रकृतियों का होना सम्भव हुआ है। हाथी हाथी जैसा क्यों है, यह उसके गुणसूत्रों के कारण है। इसी तरह के चींटी और पीपल का अपना रूप-रंग-आकार-प्रकार जिस डीएनए के कारण है , वह क्रमश: इन जीवों के गुणसूत्रों पर ही तो है।

गुणसूत्र डीएनए से बने हैं। डीएनए के तमाम टुकड़े जो गुणसूत्रों पर स्थित हैं, जीन कहलाते हैं। इन्हीं जीनों का एक पीढ़ी से दूसरी में जाना गुणधर्मों का एक पीढ़ी से दूसरी में जाना होता है। पुत्र जब पैदा होता है, तो वह माँ-बाप-सा दिखता है। कारण कि उसके गुणसूत्रों का निर्माण थोड़े से मातृ और थोड़े से पितृ जीनों से हुआ है। इसलिए वह थोड़ा सा मम्मी-सा है और थोड़ा सा पापा-सा।

इन बातों जानने के बाद भी बड़े दिनों तक विज्ञान मानता रहा कि जो जीन जिस गुणसूत्र पर जहाँ स्थित हैं, वे सदा वहीं रहते हैं। वे अपना स्थान नहीं बदलते। यह एक क़िस्म की आनुवंशिक जड़ता थी, जो विज्ञान में स्वीकार्य थी। लेकिन फिर बारबरा मैक्लिंटॉक ने मक्कों पर अपने प्रयोगों से सिद्ध किया कि ऐसा नहीं है। जीन एक गुणसूत्र से दूसरे में और एक ही गुणसूत्र में एक स्थान से दूसरे पर जा सकते हैं। फिर धीरे-धीरे अन्य वैज्ञानिकों ने पाया कि ऐसा होना कोई विरली घटना नहीं है, बल्कि आम है। मक्के के पौधे में पचास प्रतिशत जीन इस तरह की आवाजाही करते हैं, जबकि मनुष्यों के पचास प्रतिशत। इन जीनों को आज हम जम्पिंग जीन या ट्रांसपोज़ॉन के नाम से जानते हैं।

इन जीनों के कारण ही धीरे-धीरे जीवन का जटिल विकास-क्रम सम्भव हुआ है। शरीर को बीमार करने वाले जीवाणुओं को मारने के लिए जब आप एंटीबायटिक खाते हैं, तो वह कई बार काम नहीं करती। जम्पिंग जीनों के कारण जीवाणुओं के भीतर एंटीबायटिक-प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो गयी है। इसी तरह ज्यों-ज्यों जीवन एककोशकीय से विकसित होता हुआ बहुकोशिकीय होता चला गया, जम्पिंग जीनों ने उसके विकास और उसके रोगों को उत्पन्न करने में बड़ी भूमिका निभायी। आज मनुष्य अगर मनुष्य है, तो इसमें इन जीनों का बड़ा योगदान है। साथ ही उसे होने वाले कई रोगों में इन जीनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

आनुवंशिकी के क्षेत्र में क्रान्तिकारी खोज के लिए उन्हें 1983 के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। चिकित्सा के क्षेत्र में बिना किसी के साथ साझेदारी के अकेले नोबल पुरस्कार पाने वाली वे इकलौती महिला-वैज्ञानिक हैं। )

- जारी

स्कंद शुक्ल पहल के नियमित स्तंभकार हैं। प्रतिष्ठित चिकित्सक हैं।

संपर्क - लखनऊ

 

 

Login