पानी की सूत्रधार

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    पहल - 114
श्रेणी पानी की सूत्रधार
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम बाबुषा कोहली





कविता/श्रृंखला

 

 

 

 

नौ बूँदें

 

एक

 

पानी में ईंटें पका कर

बनाए पिरामिड

काज़ पर

 

महज़ कविता नहीं थी वह जहाँ बिम्बों के लेप में

लपेट कर बचाया हमेशा

एक स्वप्न-

 

स्वप्न,

जिसमें फूलों से उलझ कर

टूटते नहीं तितली के पंख

 

दो

 

बाद दसवीं जमात

किताबों में लगाते हुए कबीरी बुकमार्क

कभी मालूम नहीं चलने पाता कि हमारे विषय ने हमें चुन लिया था बचपन में ही

 

कुछ लोगों की आँखों के पटल पर लिखा रहता हमेशा ही पानी का रासायनिक सूत्र

पर यह ज़रूरी नहीं कि दुनिया में हर किसी को आ जाए

केमिस्ट्री पढऩे का सलीका

 

तीन

 

पीड़ा के सघनतम क्षणों में मनुष्य होता है सबसे शक्तिशाली

तब नहीं रह जाती भाषा महज़ वाणी का अलंकार 

पानी का देवता निर्बल के मुख से मुखर होता है

 

जो करनी हो इस बात की परख तो करो

अपने सबसे चोटिल मन से प्रार्थना

किसी अन्य के टूटे हृदय के लिए

 

एक मित्र ने पत्र में लिखा,

 

''चार बरस पहले तुमने कहा था कि कुछ दिन पिता के पास जाकर रहो। क्या तुम जानती थी कि पिता महीने भर और साथ हैं ? पिछले हफ्ते तुमने कहा परेशान न होओ, सब जल्दी ही ठीक होने को है। जानती हो, बेटे का एडमिशन हो गया उसी स्कूल में, जिसके लिए हम संघर्ष कर रहे थे। ऑफ़िस का मसला भी सुलझ गया है। और सबसे प्यारी बात यह कि तिस्ता लौट आयी है।

 

कल तुमने कहा कि बारिश होगी। आधे घन्टे के अंदर ऐसा मूसलाधार पानी कि जी भीतर तक भीग गया। तुम्हारी याद आयी।

 

हाँ, अब सब ठीक है।’’

 

मैं उसे लिख नहीं पाई कि मेरे पाँव में एक काँच गड़ा हुआ है

 

साइंसदान और मलंगों ने ढूँढ़ निकाले पानी से सूत्र

रासायनिक और तात्त्विक 'वादसे भर गई किताबें और जीवन

इधर इस जन्म के लिए

पानी ने मुझे निर्विवाद अपना सूत्रधार चुन लिया

 

एक नदी जड़ी है काँच की मेरे शहर की किनारियों में

मेघ से झरते छज्जे पर मोती काँच के

छाती की छत पर बरसता आषाढ़ काँच का

बहुरूपिया है पानी

 

मैं उसे लिख नहीं पाई कि देख लेती हूँ कुछ-कुछ

मेरी आँखें हैं काँच की

 

चार

 

नदियों को ठसका लग जाये तो कौन देता होगा पानी ?

 

यूँ तो उन चींटियों से क्षमा माँग ली मैंने जिनके बिल पर

बहुत पहले भूलवश पाँव पड़ गया था

उस मिट्ठू से भी

जिसे बाबा ने पिंजरे में रखा था बरसों-बरस

 

धीमे चलती हूँ

कि धरती पर खरोंच न लगे

हौले लेती हूँ श्वास कि हवा को आघात न पहुँचे

 

ठहर-ठहर कर पीती हूँ पानी कि पानी पर दा न पड़े

बिना आहट मरती हूँ कि मृत्यु को

चोट न लगे

 

एक नदी के गले में फँस रही मेरी जूठी

बेर की गुठलियाँ

गला दुख रहा

डॉक्टर गरारे को कहते हैं

सबसे मारक होता है पानी का प्रतिशोध

गर्म पानी की सेंक पर नाचती है बेर की गुठलियाँ

 

बच्चों की उम्र का ईश्वर

पानी से खेलता है

छप..छप..

 

पानी की गुडिय़ा हूँ

मेरी चोटी में बँधे पानी के फीते खोलता शैतान

पानी की चिमटियों को तोड़ देता है

 

बाल मेरे खिंचते हैं, बहा लेती पानी

टूट जाता मायावी मेघ

स्वप्न में बरसता है

भर जाती धरती की गोद

 

नन्हा ईश्वर भर लेता आँखों में मुझको

टूटते हैं बुलबुले

पानी अटूट

 

पाँच

 

कालिख सनी रात्रि भी नहीं छोड़ पाती

तारक की धवल देह पर रत्ती भर दा

काली-कोठरी में आयु सम्पन्न कर टूटता वह

अपनी अनुपम उजास के साथ

ज्यों बिजोगिनी की कजरारी कोरों से चटक कर गिरती हुई

पानी की उजली बूँद

 

झरने के वेगमय जल के बल से मछली का गिरना

निष्प्राण-नुकीले पाषाण पर चेतना का प्रथम आभास है

यह मनुष्यों की रक्तरंजित क्रांति से इतर

कुदरत का अपना ही ढंग है

जहाँ चैतन्यता का मोल लहू बहा कर चुकाया जाता है।

 

आह !

गिरता हुआ वह नूरानी नक्षत्र

या कि झरने-से गिरती चाँदी-सी वह मछली

या कि आँखों से छलकी बूँद उजली

सद्गति को प्राप्त नहीं होते

 

विश्व की सामूहिक चेतना की ऊर्ध्वगति हेतु

गिर गए तारे

और मछलियाँ

और अश्रु

 

तारा गिरता है किसी कवि की कविता में;

कहीं दूर जाकर मनुष्यता की अँधेरी खोह प्रकाशित होती है

मछली गिरती है तेल के कड़ाह में; सव्यसाची कौन्तेय के तीर से बिंध कर-

कहीं दूर जाकर धर्म के राज्य की स्थापना होती है

बिजोगिनी की आँखों से गिरती हैं कुछ बूँदें

शुष्क पड़ी पृथ्वी कुछ नम होती है

 

छ:

 

स्वप्न

सोनमछली है

आँखों के पोखर की

सूखेगा जल तो मछली मरेगी

 

जल की कमी

प्रेम का सबसे बड़ा संकट है

 

सात

 

रगों में धीमा-धीमा बीता अगस्त। बरसात के लिफाफे में मेरे नाम कई त रहे कुदरत के। हर दिन एक त पढ़ा, लिखे दो। रखे ड्राफ्ट में। भेजे नहीं।

 

इधर पिछले दिनों से एक चिडिय़ा आ बैठती है लगभग हर दिन बालकनी में। अब हमारी आपस में एक-दूसरे से कई दिनों की जान-पहचान हुई। यूँ जात की वह गौरैया हुई पर अपनेपन में उसे लिनेट पुकारती हूँ मैं। लिनेट अपनी नन्ही चोंच से गमले पर रखे दीये को खुरचती है तो घर भर में उस घिसन की आवाज़ से दिन उग आता है।

 

बाद भीगने के जब वह झटकती है कभी पंख अपने, उसकी देह में छुपे असंख्य मोती गैलरी पर टूट बिखरते हैं। यह दृश्य मैंने एक से अधिक बार देखा है। जैसे हवा के कैनवस पर लिनेट और उसके मोतियों के ज़ाने लुटाने के ढंग को किसी ने बहुत सधे हाथों से उकेरा हो। इस जीती-जागती पेन्टिंग का सम्मोहन मेरे ज़ेहन पर इस $कदर चस्पां है कि इसे जब कभी मेरी आँखों में झाँक कर देखा जा सकता है।

 

जो देख ले।

 

ज़ुल्फ़िकार घोष की कविता 'द ज्यॉग्राफ़ी लेसनके दौरान एक बच्चे ने क्लास में पूछा था कि लोग आपस में इतना झगड़ते ही क्यों हैं ? सवाल छूटते ही साथ बैठे दूसरे बच्चे ने इसका जवाब दिया था,  ''लोगों को अच्छी चीज़ों और कामों के बारे में कम पता है। तो लोग अपनी जानकारी बराबर जीते हैं न। इसीलिए। उनको झगड़ा ही पता है, तो झगड़ते हैं।’’

 

जीवन के सबसे गहन प्रश्नों के उत्तर सबसे सहज-सरल ढंग से मिल जाते हैं।

 

मेरी आँखों में एकदम से लिनेट पंख झटकती है। मोती टूट कर क्लास में बिखरें, इसके पहले मैं बोर्ड की तर मुड़ जाती हूँ। एक झपक बराबर अंतराल के बाद फिर पलटती हूँ, बात आगे बढ़ती है।

 

ग्यारहवीं की एक बच्ची आयी एक दिन अपनी कविताओं की डायरी वापस लेने। दो महीने से मेरे पास रखी थी। डायरी हाथ में लेते अपनी आँखों की सारी उत्सुकता और उत्साह उसने अपनी आवाज़ में धर दिये,

 

''आपने नोट तो लिख दिया है न कविताओं के आगे?’’

''देखो तो।’’

 

मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

 

उसे अपनी डायरी में जगह-जगह पत्तियाँ, गुलाब की पंखुडिय़ाँ और पेंसिल से बनाए पहाड़, सूरज और आसमान उठाए चिडिय़ों के झुंड मिलते हैं। वह मुझसे लिपट जाती है।

 

''मिल गया नोट। अनमोल है मेरे लिए।’’

धीमे से कहती है।

 

ये लड़की, ये कल की लड़की, जुमां-जुमां चार दिन हुए ग्यारहवीं पहुँची लड़की, कैसे ये मेरे इशारे डिकोड कर लेती है। ज़रा अविश्वास से उसकी ओर देखती हूँ। वह एक और बार गले लग जाती है। मैं आँखों पर पलकों का पर्दा गिराती हूँ। लिनेट अपनी पेन्टिंग में कभी भी पंख झटक सकती है।

मज़े-मौज में सरिता को मैं अक्सर छेड़ती रहती हूँ। सरिता, हमारे घर की अन्नपूर्णा, घर में चूल्हे-चौके का ज़िम्मा इनके ही पास है। तुलसी के पास धूप-अगरबत्ती ये अपनी मर्ज़ी से करती रहती हैं। घर में किसी की मज़ाल नहीं जो इन पर रोक-टोक कर सके। रोक-टोक सकते नहीं, सो जब-तब छेड़ती रहती हूँ उसे।

 

''महिला-सशक्तीकरण जानती हो तुम? नारीवाद समझती हो?’’

 

''बकवास न करो तुम हमसे। टिफ़िन में पालक क्यों नहीं त्म हुई?’’

 

''यार! तुमसे कोई ढंग की बात करो तो तुम पालक को क्यों बीच में लाती हो? अच्छा पालक की छोड़ो। तीजा की तैयारी हो गयी?’’

 

''काहे का तीजा? हम छोड़ दिये पर साल। तुम ही तो समझाई थी। और बात सही है, इतना काम करना है हमको तो क्यों भूखे रहें? वो भी उसके लिए, जिसको कोई काम करना नहीं।’’

 

घर में ठहाके गूँजते हैं। अंदर के कमरे से मधु प्रकट होती हैं। मधु के जिम्मे घर के अन्य काम हैं। ये दोनों प्यारी औरतें मेरी जीवनचर्या का बहुत ज़रूरी हिस्सा गढ़ती हैं।

 

''तुम न ! बस बिगाड़ो सबको। धरम-त्योहार छुड़वाओ हमारे।’’

''ल्यो। हम कहाँ कुछ बोले?’’

 

मैंने शरारत से अपने आपको धार्मिक-शरी घोषित करने की चेष्टा की।

 

''चलो बैठो। तेल मलें सिर पर तुम्हारे। बहुत भेजा काम पर लगाती हो।’’

 

''भेजा कहाँ लगाते हैं ज़ियादह काम पर? जिस हिस्से से हम काम लेते हैं, वहाँ के लिए कोई तेल-मरहम नहीं।’’

 

मधु तेल-मालिश करने बैठ जाती है।

 

स्कूल से लौटते समय वॉचमैन भैया मिल गए। दुआ-सलाम हुई।

 

''समय बुरा है। लेखकों को सरकार जेल में बंद कर रही।’’

मैंने कहा।

 

अच्छा, यहाँ ये बताना भी ठीक रहेगा कि कविता सुनाने के अपने शुरुआती दिनों में मैंने पेड़, चाँद, नदी और अपने वॉचमैन भैया को ही कविताएँ सुनायीं।

तो जब मैं उन्हें बुरे समय की बर देती हूँ, वह मुझसे पलट कर कहते हैं,

 

''बुरा समय कि अच्छा। यानी सरकार भी डरती है न लेखक लोगों से। चलो, अच्छा है न, अब बच्चे लोग भी जान जाएँगे कि कौन किससे डरता है।’’

 

मैं वॉचमैन भैया के आश्वस्त चेहरे को देखती हूँ। वो ख़ाली समय में थर्माकोल से कलाकृतियां बनाते हैं और अपार्टमेंट के बच्चों के संग क्रिकेट खेलते हैं।

 

कल पैथोलॉजी सेंटर में ब्लड-टेस्ट करवा रही थी अपनी सारी ता$कत जुटा कर नखरे दिखाते और हर$कतें करते हुए। पैथो-भैया को मुझ पर लाड़ आ गया। और ज़रा देर वहाँ बैठती तो वह मेरे लिए चॉकलेट ले आता। नीडल निकाल कर जैसे ही $खून लेने की तैयारी शुरू किया, मैंने जो कारगुजारियाँ कीं, वह लम्बे बालों और दाढ़ी वाला अंगुलिमाल-सा दिखता आदमी पिघल गया। बोला, ''इतने सालों से $खून लिया करता हूँ सिरींज में, एक आप मुझे नर्वस कर देती हैं।’’

 

''अच्छा, निकाल लीजिए आप। मेरे रोने से न डरा कीजिये।’’

 

भला और क्या कह कर उसे राहत दिलाती। परछाई जैसे एक आदमी की बगल में मुँह छुपाकर मैंने $खून निकलवाया।

 

एक कऱीबी कहता है, ''बात-बात पर रो देती हो। कितनी कमज़ोर हो तुम।’’

 

ग्यारहवीं की लड़की, वॉचमैन भैया, सरिता, मधु, पैथो-भैया.. सब मेरी आँखों में उस लिनेट की पेन्टिंग देख सकते हैं जो बारिश में भीग कर मेरी गैलरी में पंख झटकती है। लेकिन उस अकेले की आँखों में पहले ही इतने दृश्यों की भरमार है कि वह भीगे पंखों वाली चिडिय़ा की पेन्टिंग से चूकता है। वह यह भी नहीं देख नहीं पाता कि मेरे इर्द-गिर्द जो दुनिया है, वहाँ संघर्ष ज़रूर हैं, लेकिन नरतें नहीं।

 

यूँ हर कोई हर कुछ नहीं देख पाता। और फिर यह भी है कि देख भी क्यों ले जाये ?

 

फिर ज़रा देर के लिए दूर की दीन-दुनिया देखने के लिहाज़ से $फेसबुक लॉगिन करती हूँ। तब लगता है कि इस ब्रह्मांड की हर शै, हर मनुष्य, हर जीवित-मृत, हवा-नदी-समन्दर-पेड़, आकाशगंगा, संगीतज्ञ-कवि-पेंटर-खिलाड़ी सब के सब या तो लाल झंडे के तले हैं या भगवा झंडे के तले।

चिंता में पड़ती हूँ। पता नहीं मेरे इर्द-गिर्द के लोग किस दुनिया से आ रहे हैं। वे सब आख़िर कहाँ चले जाएँ जिनके झंडे का रंग आसमानी है।

 

लिनेट अभी-अभी मेरी आँखों के भीतर पंख फडफ़ड़ा कर उड़ गयी है मेरी छात्रा की डायरी में बने आसमान की ओर।

 

ड्रा$फ्ट बन्द रह गए एक लाइन के ख़त में मैंने पूछा था एक बार,

''तुमने कभी आसमान को गौर-से देखा है?’’

 

आठ

 

डेल्टा में जमा हो रहते नदी के अवसाद

बहने नहीं पाता जल, फडफ़ड़ा के मर जाता।

 

तरल का वेग नष्ट करने वाले त्रिकोण

बन जाते हत्यारे जल के, जल की हलचल के

किनारियों पर जमती चली जाती काई परत-दर-परत

ज्यों मिनटों पर जमा होते मिनट खड़े कर देते पहाड़ घँटों के, माह के,

बरसों के, सदियों के।

 

तितली-वनस्पतियाँ, बादल-चट्टानें, मन-मनुष्य फिसलते अपनी-अपनी आयु के भीतर, और समय अडोल।

 

कोई सावन का अंधा फिसल गिरता हरे के अँधेरे में

टूटती नहीं हड्डियाँ

मन टूट कर डेल्टा में घुल जाता

 

और जल अडोल

 

नौ

 

[ जिस स्वप्न को देखते हुए  नींद में ही

 बह निकलें आँखें

जानना,

       वह स्वप्न नहीं था ] 

मूक नहीं आकाश

दिन, रात और ऋतुएँ

वचन हैं उसके

 

वह होता है प्रकट सूर्य के जलने में

चन्द्रमा के गलने में

नक्षत्र-उल्काओं की छींक में

आकाशगंगा की कराह में

 

न मिट्टी है गूँगी

वह बोलती है गेहूँ की बालियों में

चिनार के तने में

गुलबंसा के सुर्ख में वह प्रकट होती है

 

जल नहीं चुप्पा

खिलता आषाढ़ की वर्षा में

किसान के माथे की सलवट में

प्रकट होता है वह नदियों की माहवारी में

 

अग्नि नहीं मौन

वह होती है प्रकट चूल्हे में,

देह में, खदानों में

मृत्यु में

 

वायु

श्वास की विस्मृति में प्रकट होती है

 

एक बार की बात है

मैंने अपनी जिह्वा की नोक पर रखे शास्त्र

दीमकों के मध्य विसर्जित किये थे

 

एक बार की बात है

मैंने हथेली पर धर लिया था आकाश

वक्षों पर थाप ली थी मिट्टी

पसलियों में भर ली थी आग

जल की पट्टियों से बाँधे थे अस्थि-पंजर

अपने ही पुतले में फँूक मार भर लिए थे प्राण

 

तब से हर दिन

उठती हूँ सोती हूँ उठती हूँ सोती हूँ

उठती हूँ सोती हूँ सदियों से..

जागती नहीं

 

अपनी अंगड़ाइयों में चटकाती हूँ नसें

समय टूटता है खंड-खंड

 

आकाश की उजली त्योरियाँ चढऩे के पहले

मैं हो भी सकती हूँ

वायु की विस्मृति में विलीन

 

वायु में घुलने की संभावना के भी पहले

मध्य-रात्रि

 

मैं आँखों की कोर में बूँद के बराबर प्रकट होती हूँ

 

 

 

 

बाबुषा कोहली जानी मानी कवियत्री और फिल्म निर्माता हैं। वे धीमी चलती हैं, कम प्रकट होती है और हिन्दी की एक विरल प्रतिभा है। 'पहलउनको रेखांकित करती है।

संपर्क- जबलपुर

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