सिटीस्केप श्रृंखला की ग्यारह कविताएं

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    पहल - 114
श्रेणी सिटीस्केप श्रृंखला की ग्यारह कविताएं
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम तुषार धवल





कविता/श्रृंखला

 

 

 

 

 

1.

 

सड़क पर का आदमी

सड़क पार का आदमी

हो जाना चाहता है

इसी में हैं

सभी दिन रात।

 

यही जीवन

 

2.

 

हवा में छूटे हुए कदमों की

गतिमान आतुरता में

इन फुटपाथों की भीडि़त नीरवता में

थके लैम्प पोस्ट से रोशनी

केश सुखाने उतरती है

 

दिन का पसीना है

या श्रम की उमस

वह समझ नहीं पाती

कई कथायें जीवन घर्षण की

 

इन आवाजित सन्नाटों में

बेनाम कई नाम अपनी पहचान गँवाकर

यहाँ वहाँ भटकते हैं

 

वही डिस्प्रिन, एंटासिड,

नींद की गोलियाँ

चॉकलेट केरैपर्स बीयर की औंधी बोतलें गुलाब की पन्नियाँ

सरकारी आदेश कोर्ट के कागज़

सौदों की बिसात चरित्र के हलनामे

पाखण्ड की झण्डियाँ

अलख के जनाज़ इश्क के मरकज़ जज़्बातों की गिन्नियाँ

हवा में छूटे हुए कुछ टेक्स्ट मैसेजेज़

 

इन आवाजित सन्नाटों में डूबता नहीं है कुछ भी

 

जीवन का महाकाव्य शहर लिख जाता है फुटपाथ पर

जिसे आसक्त पाठिका सी यह रोशनी

लैम्प पोस्ट से उतर कर

केश सुखाती हुई सारी रात पढ़ती है

 

3.

 

एक मुँह खुला तो है

पर उससे आवाज़ नहीं निकलती

उसमें निवाला डालें कि साँस कि आवाज़

तय नहीं हो पाता।

 

एक बिल्डिंग बनकर तैयार है

पर सालों से अंधेरी है और खाली भी

फुटपाथ पर सोया आदमी उसे कौतुहल से देखता है

उसके गाँव से

और इस शहर से

स्टेशन हर रोज़

और भी दूर होता जा रहा है

 

उसके हाथों और भूख के बढ़ते फासलों को

कोई स्वर्णिम चतुर्भुज कैसे तय करेगा

तय नहीं हो पाता

 

वह किसी जंगल में खो गया है

और कँटीली झाडिय़ों में फँसा हुआ

खूँखार जानवरों से डर रहा है

 

उखड़ी नींदों में वह माँ कराहता है

कहीं छूट गये अपने बच्चों को असीसता है

 

सरकारी आँकड़े कहते हैं वह गरीब नहीं है।

 

4.

 

उसने उज्जैन के कलस को पूजा था

महाकाल की महारात्रि में उसने

चादरें चढ़ाई थी दरगाहों पर

मिन्नतें की थी दफ्तरों की सीढिय़ों पर

कदम घिसा था

थूक सनी मुरादों में

 

वह बस की सीढिय़ों पर लटककर आया था

उसने जीत लिया था टिकट काउंटर पर एक युद्ध

और अब बैठ गया है हारकर

इस कहीं नहीं जाती हुई सड़क के डिवाइडर पर

 

वह अब उस कहीं नहीं के मध्य में है

एक बड़ी चक्की चलती रहती है यहां

जिसमें वह सब पिस जाता है जो किसी

गुलाबी फेहरिस्त में नहीं है

उसके छिलके यहाँ वहाँ

कहीं नहीं के मध्य में

शहर भर में बिखरे नज़र आते हैं

 

काबा और कलीसा के बीच

कई जनाज़े हैं

जिन्हें कन्धों पर ढोता रहता है

पत्थर दिल शहर

 

5.

 

महानगर के महावाक्य में

अक्षरों सी धँसी हुई हैं ये इमारतें

कितनी रोशनी

कितना अन्धेरा समेटे

एक आग है जो नज़र नहीं आती

कितना कुछ खोकर आये हैं हम यहाँ

कितना कुछ और खोदेने को

किसी अनजान दौड़ में फँसे अनजान मुसाफिर हैं हम

चलते चलते जड़ें कहीं गिरा आये हैं

जैसे गिर जाती है कोख

 

कितनी बार उजड़ी बसी हैं

उम्मीद की मरम्मत में

बहुत बार त्म हो होकर फिर उगी हैं

 

इन अक्षरों में

ब्रम्ह नहीं

पर ये भी सत्य हैं

 

कुछ छलांगें इनकी खिड़कियों में दर्ज हैं कई उड़ानें भी

कुछ गीत दफन हैं इनकी दीवारों में कई सपने भी

कितने रहस्य छुपाये चुप

मैं देखता हूँ इनकी फटी आँखें  

खेतों का दर्द इनकी नींव में सोया है

बसने के भरोसे पर

कोख गिरा आई हैं कहीं

जहन्नुम में

भटक आई हैं यहाँ तक

किसी ने कहा था

यह सर जहन्नुम का

ज़न्नतों से गुजरेगा

एक दिन। 

 

औंधे सपने इसे बा-उम्मीद रखते हैं।

 

6.

 

गच्चा खा गईं हवेलियाँ कोठियाँ

उसी भरोसे पर जो शहर ने दिया था उन्हें उन हसीन दिनों में

अब इस शहर में इस शहर का शहरी कोई नहीं

उन बातों को भूल जाओ अब

पुराने पीपल के झरे पत्तों पर आहिस्ता चलो

बच बच कर रखो कदम

कोई किस्सा हठात निकलकर चौंका देगा

हिला देगा तुम्हारी नींव को

उन तहखानों में चुड़ैल की आँतों सी उलझी हुईं

कई कहानियाँ हैं

उस गली में कई साए अब भी टहलते हैं

कोई पुराना पता पूछते

उधर पलटक  

पुराने पीपल के झरे पत्तों पर बच बच कर चलो।

 

7.

 

कूड़े की ढेर के पीछे से सर उठाता सूरज

ना जाने किस पर चमकेगा

कौन चुनेगा पन्नियाँ दिन की

कौन ढोएगा उसका ढेर

अपनी पीठ पर खरोंचों का

कोई नक्शा लिए

निकल जायेंगे अनजानी ज़मीनों की तरफ

कोई और ही पढ़ेगा उन नक्शों में

मंज़िलों का पता

 

लौटने का अर्थ हमेशा

'घरनहीं होता

उसमें कई उलझे हुए रास्ते होते हैं

छतों दीवारों के पार निकलते हुए

घर ठहराव नहीं होता हमेशा

 

इस हो रहे दिन का

मुवक्किल कौन है

कौन है मुंसिफ इसका

कोई पूछे इससे

यह कुछ भी सच सच क्यों नहीं बताता

 

8

 

देह पर उबटन लगाये अधकटा चाँद

क्षितिज पर यँू ही

आधी करवट लेटकर घर चला जायेगा

इस आधी रोशनी की सरहद पर

साये बेखौफ टहलते हैं

मिलते हैं गुप्त संकेतों में

नैतिकता के अन्धेरे इलाकों में

कुछ दफ्न हो गया सेक्स से सेंसेक्स के बीच

जिसके मिटने का कोई निशान भी नहीं छूटता

नहीं छूटते हैं चमड़ी पर काबिज़ ज़हर के दाँत

नशा नसों में उतरकर

दिल में बेचैन आहटें भरता है

पार्टियों में झूमता शहर फुटपाथ पर

उल्टियाँ करता है

शराब और ड्रग्स के ओवरडोज़ में

कोई खून की उल्टी करता है

खालिस मुलिसी में

बहुत से भूखे पेट शिथिल आश्चर्य से चुपचाप

देखते हैं यह सब

उनसे पूछो तो कहेंगे

जिसके झपट्टे में जितना दम होगा

उसके हाथ उतनी ही रोटी होगी!

 

एक बीच का तबका है

जो ज़हर पीकर सो रहा है

सुबह दफ्तर पहुँचने की हड़बड़ाहट में

उसने अनजान रहना चुन लिया है।

 

9.

 

कितने पैरों से चलकर

कहाँ जाता है

यह घायल शहर

इसकी रातों में रोशनी क्या बुदबुदाती है

डिटर्जेन्ट की धुली अपलक देखती

अपने भीतर एक सन्नाटा खंगालती

वह बेज़ार खड़ी रहती है

और शहर चलता ही चला जाता है

हौसलों का जुलूस यह

घुटे मातम की चाल में किसी अन्धेरे में

खो जाता है

एक रात है जो

रात बीतने पर शुरु होती है

और यहीं रह जाती है

उसे सूरज से धो दो

उसे रोशनी से पोंछ दो

उसकी नंगी पीठ पर ललचाता टैटू कर दो

वह नहीं जाती

पेशाब की आवारागन्ध

कूड़े में गिराभ्रूण

रिरियाते खुजली भरे कुत्तों की दुर्गंध

मौलश्री के आहातों में

सिंगलमॉल्ट की ऑन द रॉक्सग्लासों से

टकराती रहती है

 

कई द्वन्द्वों का यह निद्र्वन्द्व उपसंहार

अपने हवा बन्द हिस्सों में रिसता रहता है

जैसे रिसता है पेट्रोलगाड़ी के इंजन में

जैसे रिसती है जहरीली गैस

किसी सोते हुए मासूम शहर पर

 

एक सपना यहाँ से रिस आता है

एक मौका वहाँ से

और नाउम्मीदी के हजारों वाकयात चले आते हैं

अपनी अनन्त रातों में

यूँ ही घायल पैरों से

बिना थमे चलता है

कितने पैरों से

यह आवारा शहर

इसके इश्क की दास्तान

हम में से कोई नहीं जानता।

 

 

10.

 

शहर अधूरा ही पहनता है हमें

अपनी तमीज़ में

उसकी तंग गुम्बदो ंपर

अधूरी एडिय़ों के निशान हैं

 

जो गिर गये

उन्हें कौन गिनता है

एक भगदड़ जज़्ब है

उसके ठसाठस समय में

सपनों में कोलाहल है

उसकी पीठ पर लदी हैं

बजबजाती मक्खियों की उफनी हुई बस्तियाँ

और चट्टानी छाती पर लावे के तल से

कोई झरना फूटता है

 

उसकी आँखों में मारीचिका

और बदन में पिस्टन डाल गया है कोई

फेंफड़ों में हवा के वाल्व जाम हो रहे हैं

घिसे जूते काटते हैं उसे

अपनी बेतहाशा फूटती राहों पर

हाँफता हुआ बेदम है

 

सुनो उसके शोर भरते गीतों में उसकी तड़प को

भभकती चकाचौंध और

चीजों से भरे दिमाग में

उसकी जकडऩ को

वह ठहरना चाहता है

रुककर मुस्कुराना चाहता है

अपने नये नागरिक के जन्म पर

असीसना चाहता है

हारती हुई उम्मीदों को

घर से छिपते हुए प्रेमियों को

वह प्यार करना चाहता है

 

शहर कुछ कुछ हमसा होना चाहताहै

 

11.

 

जब रात की पार्टी तम हो जाती है

और रोशनी

दुकानों की गिरी शटर के पीछे लौट जाती है

तब

अपने मेकअप उतारकर

परत दर परत

उकडूं बैठा शहर

औन्धे अन्धेरे में

चुपचाप रोता है

 

 

 

तुषार धवल कवि और चित्रकार हैं। 'सिटी स्केपएक लंबी श्रृंखलाबद्ध कविता है जो छोटे बड़े टुकड़ों में है और अभी भी लिखी जा रही है।

संपर्क - कोलकाता

 

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