अंधेरा

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी कहानी
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम प्रमोद बेडिय़ा








वह चढ़ रहा था। गली के उस तरफ जो मकान था उसकी जर्जर ईंटों को सीढिय़ों की तरह इस्तेमाल करते हुए, उस पर चढ़ रहा था। सधे, दक्ष और कुशल कलाकार की तरह, क्योंकि ईंटें वजन संभाल पाने लायक नहीं थीं।
कुलीन लोगों के लिए तो यह दक्षता आश्चर्यजनक थी।
मैं चकित था और छत पर निकला ही था। ओठों में सिगरेट और दिमाग में खुमारी लिए। रात के ग्यारह बजे होंगे। उस दिन किसी ठेकेदार ने विदेशी शराब की बोतल दी थी और मैं हमेशा दी हुई शराब ही पीता था। खरीदी बोतल से खुमारी नहीं आती। शराब को रंडी की तरह इस्तेमाल करना तो कोई ठेकेदारों से सीखे। वैसे इस बोतल के साथ एक के साथ एक मुफ्त वाली स्कीम-सी थी, याने असल मिलना बाकी था।
यों तो मैं अपने दफ्तर में कार्य कुशल, दक्ष और बुद्घिजीवी समझा जाता था। बातों में गांधी, हिटलर, मार्क्स, लेनिन, विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ का जिक्र करता था। ईमानदारी के बारे में आजकल कोई उत्सुकता है नहीं, सो उस तरफ से मैं छुट्टा था। बीवी सो चुकी थी, वैसे उसके जागने का कोई मतलब भी नहीं था, क्योंकि शराब के बाद वह भी अनुत्तेजित जिंस ही लगती थी। बच्चे अपने कमरे में सोए थे; सो दो-तीन पैग (गिने नहीं) लेकर सिगरेट जलाए हुए छत की खुली हवा में टहलते हुए, उस तरफ मुंडेर तक जाकर खड़ा हुआ ही था।
* * *
सो, वह उस मकान की दीवार पर आसानी से चढ़ कर, मदारी की तरह कदम उठाते हुए आगे बढऩे लगा। मैंने सिगरेट बुझा दी, क्योंकि उसकी चकमक से मेरे होने का अहसास होता, वरना तो घुप्प अंधेरा ही था। यह सब तो मुझे मुहल्ले में इधर-उधर जलती हुई बत्तियों के धुंधलके में दिख रहा था। डर भी था कि किसी परि-पड़ोसी के नजर में आते ही वह चिल्लाया तो मेरी रोमांचपूर्ण धड़कन खत्म हो जाएगी।
दरअस्ल, रोमांच की घडिय़ां विलीन होती जा रही हैं। मुझे तो पगले बक्से के लटके-झटके भी बड़ी ही मूर्खतापूर्ण जुगुप्सा जगाते लगते हैं। वे पके, खाए-धाए लोगों के लिए हैं भी नहीं। तथाकथित नई पीढ़ी के लिए हैं। लेकिन वे तो अतीत से विस्मृत और भविष्य से अनुत्सुक होते जा रहे हैं। क्या मुझ जैसे लोगों के पास कुछ स्मृतियां हैं; होती तो इस रोमांचक कंपन में विलीन कैसे हो पाता!
कहते हैं पहले के लोगों में (मां भी कहती थी) कुछ-कुछ देखा भी है कि कैसे वे स्मृतियों के सहारे जीते थे। कुछ नहीं तो किसी पूर्वज की आदतों पर गर्व करते, जीवन-यापन के उदाहरण देते नहीं थकते, उनके रोजमर्रा के साधारण से प्रसंग अनायास ही चर्चित होते। स्मृतियां थीं कि हजारों बार उसी चाबी से उसी ताले को खोलते रहने पर भी, बिन किसी आपातक्षय के, वर्षों काम करतीं। अब तो चप्पलों के तलवों सी यादें भी घिस जाती हैं।
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नौकरी मिली थी, उस समय मैं कुछ क्रांतिकारी किस्म के विचार रखता था। लगता था कि विचारों से देश-दुनिया को बदला जा सकता है। उस समय का एक वाकिया याद आता है। एक कबाड़ का व्यापारी, जो बगल के किसी गांव का था और चोरी के 'स्क्रेप' खरीद-बेच कर करोड़पति हो चुका था, मेरे पास किसी 'विशेष' काम से आया और एवज में मुझे अच्छी-खासी रकम की पेशकश की। दरअसल मुझे किसी का तरीका पसंद या नापसंद आता है। देना था तो जरा कतिवाई से देता, लेकिन उसने सीधे ही मेरी टेबल पर फेंक दिया, मैंने उसे दफ्तर से बाहर कर दिया। वह सीधे थाने गया और दूसरे दिन दरोगा जी ने मुझे बुलाया और कहा कि फलानी जगह के ठिकाने प्रसाद जी आपके पास किसी काम से गए थे, लेकिन आपने उन्हें धक्का देकर बाहर निकाल दिया, वे दिल के मरीज हैं और डॉक्टर का प्रमाण-पत्र भी जमा कर गए हैं, सो कहिए आपके साथ क्या किया जाए? इच्छा तो हुई कि कहूँ कि मेरे पास तो वे डॉक्टर का प्रमाण-पत्र नहीं लाए थे, लेकिन पांच सौ रुपए दरोगा को देकर मुस्कराते हुए चला आया। बाद में पता चला कि दरोगा जी पहले उसी गांव में थे और साझेदारी में धंधा चलता था।
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उसने एजवेस्टस शीट के बने बड़े-से कमरे के कार्निश पर बिल्ली की तरह पैर रखते हुए बढऩा शुरू किया। मैं रोमांचित था, लगा कि इतनी-सी जगह पर मैं पल भर नहीं टिक पाता। उसके गिर जाने की कल्पना से मुझे डर-सा लगने लगा, लेकिन वह आराम से आगे बढ़ रहा था।
मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं उसे रोकूँ कि अरे भाई गिर जाओगे तो क्या होगा। मर-मरा जाओगे तो नई मुसीबत खड़ी होगी, लेकिन वह आराम से बढ़ रहा था। पता नहीं ऐसे कामों में इतना सधापन कैसे आता जाता है। देश आजाद हुआ था तो काफी लोगों ने आजादी की लड़ाई में ऐसे दुस्साहसी कदम उठाए थे। अब तो ऐसे विचार छाया की तरह आते हैं। आएंगे तो लोग हँसेंगे। कैसी अजीब बातें होती रहती हैं - काले धन को लाने के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों ही तत्पर हो रहे हैं; लेकिन मतांतर हैं, आपधापी है, तर्क हैं, युक्तियां हैं - लेकिन सब आम लोगों की समझ से परे हैं। धन याने पैसा तो काला नहीं होता। तस्वीरों में भी, लक्ष्मी के हाथों से सिक्के गिरते हैं - चकमक-चकमक - लेशमात्र भी काला नहीं। काला याने गंदा, जाली-बाजार में अचल है। मन ही काला होता है। साफ-साफ समझ में आता है कि किन हाथों ने इसे अंजाम दिया है, लेकिन वे हाथ सुरक्षित रहते हैं। खास कुछ भी नहीं रहा, सब आम हो गया है। पहले मुहल्ले का कार्यक्रम भी खास लोगों द्वारा ही संचालित होता था, अब तो बड़े से बड़े कार्यक्रम भी आम हैं और आम लोगों द्वारा ही चलते हैं। लिहाजा सब कुछ आम हो गया है। ज्यादातर लोग खुश हैं। ऐसी खुशहाली पहले कभी नहीं देखी। टी.वी. के पर्दे से लेकर आम सड़क तक इतनी खुशहाली कहां से आ रही हैं! लगा कि उलझन बढ़ती जा रही है। शायद नशा कम हो गया था। दौड़ कर अंदर से दो पेग, गिलास में लेकर मुंडेर तक आया तो देखा कि वह बगल वाले मकान की खिड़की से झांक रहा था। खिड़की की मुंडेर एकदम जर्जर थी, लेकिन वह अपना वजन कमर के ऊपर रखे हुए कलाबाजी खाते हुए चल रहा था।
मुझे हँसी आ रही थी, लेकिन वह पूरा मकान 'मनसा वाचा कर्मणा' इतना गरीब था कि उसे पता चलता तो वह शर्मा जाता कि उससे भी गरीब कोई है। वह एक पुरानी कोठी की तरह था, जिसका मालिकाना विवादास्पद था और कम से कम पंद्रह छोटे-मझौले परिवार मालिक को उपकृत करते हुए वहां रहते थे। वे काफी गरीब और निकम्मे थे। निकम्मापन भी गरीबी पैदा करता है, यह यहाँ के लोगों को देखकर समझा जा सकता है। निकम्मेपन का संबंध अपनी-अपनी प्रतिभा से भी होता है। लेकिन वे अपनी परिस्थियियों में उलझ कर ओतप्रोत हो चुके थे; शायद उन्हें कोई मलाल भी नहीं था।
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उसे भी यह बात समझ में आ गई थी। बड़ी फुर्ती से वह खिड़की के कांच की मंद रोशनी में झांक कर घूमा और वापस लौटने लगा। मेरे गिलास में 'नीट' था, सो कड़वी घूंट उतारनी पड़ रही थी, लेकिन उन रोमांचक क्षणों से अलग होना दुश्वार था।
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हां तो मैं बात खुशहाली की कर रहा था। जवानी के दिनों का आलम यह था कि घर से पकवान खा कर निकल रहे हों तो बाहर आकर दाल-रोटी ही बताएंगे। अभी तो खुलेआम गुलछर्रे उड़ते हैं। लेकिन पूरी आबादी का इस खुशहाली के आलम से कोई रिश्ता नहीं है। दो तिहाई आबादी तो उदास और भूखी है, लेकिन इस हिस्से के इजहार ने उस हिस्से के दुखों पर पर्दा डाल रखा है। 1953 में पंचवर्षीय योजना के समय कुछ ऐसा वातावरण बनाया गया था कि यह लागू होते ही चारों ओर हरियाली छा जायेगी। वह हरियाली तो नजर नहीं आयी उसके परदे ने अपने तले के सूखे को ढक लिया है।
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वह घूम चुका था और वापस उसी घर की तरफ बढऩे लगा, जिस पर चढ़कर वह यहाँ तक आया था। इस घर के मालिक प्रेमबाबू वापस आ चुके थे, चूंकि पड़ोसी थे, तो पता था कि वे इस समय भांग के नशे में धुत्त रहते हैं। वे भीतर जा चुके थे और उनकी पत्नी बाहर की तरफ बने चौके में जाने आ रही थी, शायद प्रेमबाबू के लिए खाना परोसने।
अब बड़ी खतरनाक स्थिति आने वाली थी, क्योंकि वह औरत सीधे देखते हुए चौके की तरफ बढ़ रही थी और वह आदमी कार्निश पर पैर रखता हुआ, बंदर की तरह लपकता हुआ उसी मकान में कूदने वाला था शायद। मैं अपनी आने वाली भूमिका को लेकर चिंतित था।
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गिलास में 'नीट' ज्यादा था, सो खुमार भी ज्यादा चढऩे लगा। न्याय की जरा सी भी रोशनी नजर नहीं आती थी। क्या-क्या गुल खिलते हैं! मंत्रियों के अग्रज तो 'भाई' की तरह होते हैं। जो चाहें कर लें। 'कर न सके सोई कर ले, मन नहीं घबराता।' अच्छा इस भाईगिरी की शुरुआत कैसे हुई होगी! प्राचीन युग में तो पता नहीं, लेकिन आधुनिक युग में तो अमेरिका से ही हुई होगी! अभी के सबसे बड़े भाई-ओबामा भाई हैं - सारी दुनिया को हिंदी फिल्मों के निर्देशक की तरह नचाते हैं। सारी दुनिया के 'भाई'। 'भाई' बगैर गति नहीं। भाई ने हाथ हिलाया तो युद्घ शुरू हो गए, भाई ने उंगली हिलाई तो शांति कपोत उडऩे लगे। गजब की चीज है ये 'भाई'। युद्घ के मारक अस्त्रों का उत्पादन ज्यादा हो गया तो लड़ाई शुरू। असली बात कहने में सबकी फटती है। हर देश के प्रधान को कठपुतली की तरह डोर पर नचाना तो कोई 'भाई' से सीखे। पहले तो आतंकवाद को सींच दिया, अब खत्म करने पर तुले हैं। जनता-साली भी अजीब शै है। सोचती है अपना क्या जाता है। पेट भर रहा है, मकान बन रहे हैं, गाडिय़ां आ रही हैं - बगीचे बन रहे हैं - कदाचार का आनंद ही अनूठा होता है। वैसे यह जनता सारी नहीं है, अल्पसंख्यक हैं, लेकिन मीडिया, अ$खबार और नेताओं की वजह से यही हिस्सा भाग्यविधाता है, लेकिन ये भारतमाता की संतान नहीं है - कंप्लान ब्वाय हैं, और इन्हें 'भाई' चाहिए।
गुजरात में नरसंहार हुए वह एक ही उदाहरण है, लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें अभी तक फंसाया जा रहा है। उस समय कुछ भावुक-सा हो गया था और एक कवितानुमा सी चीज लिखी थी-
गली के नुक्कड़ पर
पड़ा है टूटा हारमोनियम
फातिमा का
कुत्ता गला फाड़े रो रहा है
बच्चे तो चीरते वक्त ही
रो चुके थे।
छोडिय़े, मैं भावुक होने लगा। चीज ही ऐसी है।
*
और वह रोमांचक क्षण आ गया। कुछ ऐसा हुआ कि प्रेम बाबू की बीवी अंदर से खाने की थाली लेकर बाहर आ रही थी और चोर शायद कूदने की तैयारी में था, उसी बरामदे, और उसी समय श्रीमती प्रेम की नजर उस पर पड़ी और वे चिल्लाई -
चोर - चोर ऽ ऽ रे.. - चोर ऽ ऽ र...
मैं पीछे हो गया, फिर से अपने को प्रस्तुत करने के लिए ओट से देखा - प्रेमबाबू का दौड़कर आना, चोर का उस ऊँची दीवार से वापस गली में कूदना और मेरा मुंडेर पर प्रकट होना -

'क्या हुआ!' - यह मैं था।
'पता नहीं, यह चिल्लाई।' - प्रेमबाबू
'वह भाग रहा है।' - मैं
तब तक दो मकानों के बाद वाले मकान से अंजन ने पूछा -
'क्या हुआ चाचाजी?'
'भाग गया, चोर था।' - मैं
'हां, भाग रहा है, पकड़े-पकड़ो।' - अंजन चिल्लाया।
लेकिन वह भाग चुका था
लगा कि अंजन भी मेरी तरह शुरु से ही खड़ा था।

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