कामरेड की पत्नी

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    पहल - 114
श्रेणी कामरेड की पत्नी
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम गोपाल नायडू





कहानी

 

 

 

 

उसके पति की रिहाई का वो दिन आ ही गया, जिसका वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी। फिलवक्त इस कहानी का गवाहदार केवल जेल की ऊंची-ऊंची दीवार, लोहे का भारी-भरकम गेट, गेट के ठीक उपर फहरा रहा तिरंगा झण्डा और वहां उपस्थित पुलिस है। गेट के ऊपरी हिस्से में अंकित 'सत्यमेव-जयतेउसकी निगाहों को चुभ रही था। वह उन शब्दों को पढ़ती और बुदबुदाती 'किस सत्य की जय हो। अगर सत्य की जय है तो मेरे पति के साथ फिर क्यों ऐसा सलूक किया गया।सत्तर साल बीत गए आजादी के झंडे को फहराते हुए। गुनाहगारों और बेगुनाह लोगों से ये झण्डा और सत्यमेव-जयते रूबरू हो गया है। बेगुनहगार जो बेबस ही सजा काटते-काटते असह्य पीड़ा में पिसकर मर गए या रिहाई के बाद उनका कोई मूल्य नहीं रहा।

ठीक सुबह छह बजे वह सेंट्रल जेल के सामने पहुँच गई थी। उसके साथ दो साल की बच्ची थी। इस वक्त नागपुर की गर्मी ठीक पतेले में खौलते हुए आलू की तरह खल-बल कर रही थी। ऐसा लगा यह सुबह नहीं है बल्कि दिन के दस बज रहे हों। जेल के परिसर में कैदी पौधों को पानी दे रहा था। जेल में एक-एककर कैदियों का नाम ज़ोर-ज़ोर से पुकारा जा रहा था। यह आवाज जेल के भीतर और बाहरी परिसर में गूंज रही थी। सोहन, इब्राहिम, शकील, बंडू मेश्राम, नामदेव आत्रम हाजिर हो। वहीं चंजल, दगड़ू, बोरकर आदि मेडिकल जाने के लिए कतार में खड़े हो जाएं। फिलहाल वह आतुर थी जीवन साथी का नाम सुनने के लिए। चक्कर में उसे यह भी भान नहीं रहा कि उसकी दो साल की लड़की रो रही है।

उसकी निगाहें सेंट्रल जेल के भारी-भरकम गेट पर टिकी हुई थी। लेकिन वह केवल अपने पति का नाम सुनने के लिए बेताब थी। उसे किनारे लगे पौधों के बीच से रोने की आवाज सुनाई दी। इन झाडिय़ों में कुछ हलचल हुई। उस ओर उसका ध्यान गया। पौधों के बीच उसकी बच्ची रो रही थी... आई... आई...। पसीने की धार में उसका कुंकु बहने लगा था। साड़ी के पल्लो से माथे पर कुंकु के हिस्से को छोड़ उसने पसीने से तरबतर चेहरे को पोंछा। पौधों को रौंदते हुए वह बच्ची की ओर चल दी। बच्ची को सहलाते हुए शांत करने लगी। उसके दिमाग में केवल एक ही बात घूम रही थी। वह केवल पति का नाम सुनना चाहती थी। जल्द से जल्द उसकी रिहाई हो और वह उससे लिपटकर दिल भर कर रो ले।

उसी समय एक आवाज उसके कानों से टकराई... संदेश कांबले हाजिर हो... संदेश का नाम सुनते ही वह बच्ची को उठाकर जेल के गेट की तरफ दौड़ पड़ी। गेट पर पहुँचते ही पुलिस वालों ने उसे रोकने की कोशिश की। विचारों में खोई वह गेट के सामने लगे रेलिंग से टकरा गई और बच्चे के साथ गिर पड़ी। उसके माथे पर गहरी चोट लगी। खून बहने लगा। हाथों से छिटककर बच्ची जमीन पर गिर गई। बच्ची के चिल्लाने की आवाज आयी। बच्ची हाथ-पैर हिलाते हुए तड़प रही थी। उसे लगा कि बच्ची को कोई खींचकर ले जा रहा है। दरअसल पुलिस वाला उसकी बच्ची को उठा रहा था। 'हड़.... हड़.... मुर्दा... छोड़... छोड़... मेरी बच्ची को...उसे लगा कि बच्ची को लेकर भाग रहा है। जैसे-तैसे उसके मुँह से ये शब्द निकले और उसे चक्कर आ गया। पुलिस वालों ने उसे सहारा देकर उठाया। वह उसी अवस्था में बच्ची को समेटकर बैठ गई। तभी पुलिस के आतंक का वह दृश्य बिम्ब उसके जेहन में उभर आया। संदेश को पुलिस घर से घसीटते हुए ले गई थी। संदेश के दोनों हाथ और पैर पकड़कर पुलिस ने वैन में पटक दिया। वह रोती-बिलखती रही। कोई उसकी मदद के लिए नहीं आया था। जब भी वह पुलिस वालो को देखती है तो आतंकित हो जाती है। लेकिन इस बार पुलिस के व्यवहार से उसे थोड़ी राहत मिली।

धीरे-धीरे समय बीतता गया और अन्य कैदियों के रिश्तेदार और दोस्त भी एकत्रित होने लगे थे। सभी लोग अपने-अपने कैदियों से मिलने के लिए उत्सुक थे। इस दरमियान उसके पति का वकील भी आ गया था। उसने संघमित्रा से कहा 'संदेश की रिहाई की प्रक्रिया पूरी करने में समय लगेगा। तुम आराम से उस पेड़ की छाँव में बच्ची को लेकर बैठ जाओ। और हाँ, यह अखबार भी साथ लेते जाओ। पढ़ लेना। इसमें संदेश की रिहाई की खबर छपी है।

व्याकुल मन से संघमित्रा धीरे-धीरे पेड़ की ओर जाने लगी। पेड़ के नीचे बैठते ही उसने अखबार में छपी खबर पढ़ी। तभी उसके आँखों में उमड़ आए आँसूओं के बादलों ने उसकी देखने की शक्ति को ढँक दिया। वह जेल के गेट को देख नहीं पा रही थी और न ही खुले आसमान को। आंसुओं के बादलों ने पेड़ की पत्तियों के खाली जगह को भी ढक लिया था। उसे सूरज भी नजर नहीं आ रहा था। केवल गर्मी के अहसास से उसे धूप के तेज होने का बोध हो रहा था और वह फूट-फूट कर रोने लगी।

एक गूंगी, अकथ्य वेदना ने संघमित्रा के दिल-दिमाग को हिला कर रख दिया। संदेश के साथ शादी तय होने के बाद उसकी पहली मुलाकात की तस्वीर उभर आयी - वह खेत में काम कर रही थी। उसे किसी ने पुकारा 'संघमित्रा... संघा... संघा.... वह पलटकर देखती है। संदेश पुकार रहा था। वह पहली बार उसके गाँव समुद्रपुर आया था। वह घर नहीं गया। सीधे खेत पहुँच गया। वह हड़बड़ाकर उठी। कपड़े ठीक करते हुए उसकी ओर जाने के लिए कदम उठाए थे कि पैरों में ज्वार की डंठल घुस गई। अंगूठे से खून बहने लगा और बेसुध हो गई थी। संदेश दौड़कर लोटा भर पानी लाया और चेहरे पर छिड़क दिया और हाथ पकड़कर उठाया। खून पोछकर जख्म पर रुमाल बांध दिया। चेहरे को पोछा। संघा सतर्क हो गयी। उसकी आँखों में आँसू छलछला आए थे।

दोनों खामोश थे। दोनों को कुछ सूझ नहीं रहा था। लेकिन संघमित्रा ने बोलना शुरु कर दिया, 'इस साल गेहूं और ज्वार की फसल बहुत अच्छी है। एक क्विंटल ज्वार की कीमत दो-ढाई हजार रुपए मिल जाएगी। इसके पहले ज्वार की कीमत इतनी कभी नहीं थी और कड्बे की कीमत भी बारह सौ रुपए मिल जाएगी। किसी भी हाल में पंद्रह-सोलह पोते ज्वार, गेहूं सात-आठ पोते होंगे। साल भर का रखकर भी गेहूं और ज्वार पच्चीस-तीस हजार, कड्बा चार-पाँच हजार, होली के समय बोकुड़ बेचने से चौदह-पंद्रह सौ रुपए मिल जाएंगे। सहकारी संस्था का कुछ कर्ज कम होगा और हाँ साहूकार का कर्ज पहले फेड़ेंगे।

संदेश ने कहा, 'मैं यह जानने के लिए आया हूँ कि बीए का रिजल्ट आया क्या...?

'हूँ... पास हो गई...

- 'मेरी दिली-इच्छा है कि तुम और पढ़ो। खुद के पैरों पर खड़े हो। स्वाभिमान से जियो।

संघा ने हूँ कहकर सिर हिला दिया और कहा, 'कुछ पूछना है। बुरा तो नहीं मानोगे?’

'नहीं।

कहने लगी, 'जब शादी तय हुई थी मैं बहुत खुश थी। समय के साथ यह जानकारी मिली कि तुम और तुम्हारे भाई नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े हुए हो। और हर आए दिन अखबार में पढ़ती हूँ कि नक्सलवादियों ने गांव में किसी का गला रेतकर हत्या कर दी.. तो कहीं विस्फोट कर पुलिस की गाड़ी उड़ा दी... तो कभी किसी आंदोलन के साथ को मुखबिर बताकर हत्या कर दी...

बीच में ही बात को काटते हुए संदेश ने कुछ कहने की कोशिश की। लेकिन संघमित्रा ने उसके मुँह पर उँगली रखकर कहा, मुझे कहने दो -

कहने लगी, 'तुम एक विद्यालय में प्राध्यापक हो। समाज में शिक्षा के प्रकाश को फैलाओगे, वहीं मेरे साथ एक छोटा सा, सुंदर और प्रेम भरा घर-संसार बसाओगे। समाचार पढ़कर मुझे लग रहा है कि ये किसी पागलपन की सनक है। क्या भले मानुष भी ऐसा करते हैं? इस स्थिति में कौन शिक्षा देगा और कौन शिक्षा लेगा। वैसे आदमी के पास समय का अभाव होता जा रहा है। मेरे मन का उत्साह मिट्टी में मिल गया। पिताजी से मैंने ये बात कही थी। लेकिन पिताजी ने धीरज रखने के लिए कहा। लेकिन हर आए दिन ऐसी खबरें रोज अखबार में आती रहती हैं। अब तो इस तरह की प्रत्येक खबर पर मेरी निगाहें ठहर जाती हैं। और मन में कुछ अजीबो-गरीब चित्र बनने लगते हैं। यह समझ से बाहर है।

तभी जेल के गेट के खुलने की आवाज आयी। संघा के हृदय में जमी हुई भावनाएँ पिघलने लगीं। उसने एक गहरी सांस ली और उत्सुकता से निगाहें गेट पर टिका दीं। लेकिन एक सिपाही बाहर आया और उसने वकील को कुछ कहकर गेट बंद कर दिया। वकील वहाँ रखी कुर्सी पर बैठ गया। शायद और समय लगेगा। कुछ समय के लिए भूल ही गई कि वह एक स्त्री, माँ और पत्नी है। उसे अहसास हुआ कि स्त्री होने का अर्थ असहायता और बेबसी का जीवन है। वह फिर से पिछले तीन वर्षों के त्रासद भरे जीवन की यादों में खो गई।

'कैसे तुरंत हम दोनों अलसुबह शादी के बाद खेत में निकल पड़े थे। धीरे-धीरे खेत के बीच पहुँच गए थे। ज्वार के खेत की खुशबू से हमारा तन-मन सराबोर हो गया था। ओस की बूंदें मोती की तरह चमक रही थीं। संदेश के वरिष्ठ और नाटे हाथों में वह हवा के झोंके की तरह हिल रही थी। तभी कोयल के कूकने की आवाज और ज्वारी चिडिय़ों के साथ जंगली पक्षियों की किचिर-मिचिर की लय के बीच वह दोनों बाहें फैलाकर नाचने लगती और इन पक्षियों के स्वर से स्वर मिलाने लगती। लेकिन अब तो समय बेसमय अखबार की कतरनें उस लय और आवाज के बीच रह-रहकर उभर आतीं और वह इस ख्याल से आतंकित हो जाती थी।

वही अखबार की कतरनें, सिर कलम करना, हाथ-पैर धड़ से अलग कर देना, विस्फोट..., और यही ख्याल कि कहीं इस तरह की हरकत मेरे साथ... यह सिलसिला लगातार पिछले तीन सालों से जीवन की डोर में गांठ की तरह फंसा हुआ था। हमेशा सोचती रहती कि न जाने इस गांठ से निजात पा सकूंगी या नहीं। और साथ ही संदेश के बारे में अम्मा के वे शब्द, 'अरे कलवे तुझे तो रोटी का तवा भी देखकर डर जाएगा। तूने मेरी कोख से नहीं, कोयला खदान की कोख से जन्म लिया है। तभी तो शरीर काला-किट्ट और एंड-बैंड है। हाथ-पैर नाटे और शरीर कोयले की चट्टान की तरह बलिष्ठ है।अम्मा जब भी संदेश को यह बात कहती तो उसे बहुत ही गुस्सा आता और मन ही मन सोचने लगती आखिर संदेश तो उसका बेटा है। फिर क्यों कोयला खदान... और मैं रोज इस बलिष्ठ चट्टान के साथ रहती हूं। और रहता है दिल और दिमाग में आतंक और भय। तभी उसने तय कर लिया था कि पलंग के नीचे एक मोटा डंडा रखा करूंगी ताकि उसने कुछ भी उस तरह की हरकत कि तो उसके सिर पर डंडा जड़ दूं।

संघा इस गहरी अनुभूति के साथ धरती की इस लीला और परिस्थितियों की बेडिय़ों में उलझती जा रही थी। वहीं मायावी और निर्लिप्त मन से इस भाव को समझने की कोशिश कर रही थी कि जीवन सार्थक या निरर्थक है। सुखदायी या तकलीदेह है। हर पल सिर कलम करना... हाथ-पैर धड़ से अलग कर... विस्फोट... आदि... कतरनों के बीच वह खुद को अखबार के एक कतरन की तरह देखती है और समझती रहती। एकांत में, वह केवल सूने और निरर्थक जीवन के भविष्य की प्रत्येक गतिविधियों के बारे में सोचे जा रही थी। अंतत: जीवन, जन्म-मृत्यु, भाई-बहिन, माँ-बाप, पति-पत्नी के अलावा उसका अस्तित्व है या नहीं। इसी पशोपेश में उलझती रहती और इससे मुक्ति की राह तलाशती रहती।

संघा को याद आता है कि अक्सर संदेश पीएचडी के लिए बस्तर जाता था। उसका पीएचडी का विषय भी उस परिसर में 'नक्सलवादी आंदोलन का असर वहाँ की बोली भाषापर था। वह सोचती कि कहीं वह पीएचडी के आड़ में उस गतिविधि में शामिल तो नहीं था। अगर ऐसा होता तो वह मुझे क्यों साथ बस्तर ले जाता। शादी के कुछ समय बाद ही उसने मुझे बस्तर चलने के लिए कहा था। तभी अचानक मेरे जहन में बिजली कौंध गई और लगा कि मेरे हाथ काट दिए गए हैं। सिर कलम कर दिया गया। और फर्श पर हाथ और गर्दन तिलमिला रहे हैं। मैं लगातार कटे हुए हाथ से बहते खून को देख रही हूँ। इसी भय से वह चिल्ला उठी। उसी समय संदेश ने मुझसे पूछा, क्या हो गया है? मैं डरी-सहमी, कांपती रही। बहुत ही प्यार से उसने मेरी पीठ थपथपाई और कहा, 'क्या हो गया? कहो? मैं चुपचाप उससे सटकर बैठ गई। संघा अहसास कर रही थी कि संदेश कितना मासूम और रहमदिल है। अगले ही पल उसे लगा कि कहीं वह गलत तो नहीं सोच रही है। और शक की सीमा भी नहीं है। उसने खुद के हाथों में चिमटी ली कि कहीं सपने में तो नहीं है। दूसरे दिन हम दोनों बस्तर के लिए निकल गए। बस्तर के कोंडा गांव में हम दोनों दो दिन ठहरे थे। हम अड़ोस-पड़ोस के इलाके में साथ-साथ घूमने निकल जाते थे।

और हम दोनों एक दिन सुबह-सुबह निकल पड़े। पहाड़ी की ओर जाने वाली पगडंडी की दिशा में। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए ऊंचाई पर पहुँच गए थे। घने जंगल में महुए के फूलों की गंध महक रही थी। और तरह-तरह के पक्षियों की चहचाहट शांत जंगल में संगीत के धुनों को फैला रही थी। इन पक्षियों के सहवास से ही जंगलों की शान थी। शायद यही कुदरत का नियम है। पहाड़ी की तलहटी में एक छोटा गांव नजर आ रहा था। उस गांव के खेतों से गीतों के सुर उड़कर हमारे पास आ रहे थे। फिसलन भरी राह पर पड़ी सावधानी से हम दोनों पैर गड़ा-गड़ाकर उतर रहे थे। राह में जो भी चट्टान दिखी कि आराम से बेठ जाते थे। वहीं तो टीलों के बीच से एक पानी का सोता बह रहा था। हम दोनों पानी में खड़े होकर कुछ देर तक एक-दूसरे को देखते रहे। संघा महसूस कर रही थी कि सोते से उठ रहे बुलबुलों के साथ अखबार की कतरनें उठ रही हैं। हम दोनों के बीच एक विशाल चट्टान का रूप ले रही थीं कतरनें। इस तस्वीर से संघा के मन में शोक और विषाद की एक लहर उठी। वह इस द्वंद की बुनियाद को पकड़ नहीं पा रही थी। इसी दिक्कत की वजह से यथार्थ के रूपों के बीच फर्क नहीं कर पा रही थी। समय-समय पर उसके इस द्वंद की व्याख्याएं बदलती रहती थीं। और इस उलझन की वजह से उसे समझने में दिक्कत हो रही थी।

वह दु:ख के ऐसे दर्द भरे पलों में न जाने किस आनंद के आवेग में दौड़ती-दौड़ती पहाड़ों के बीच बने चौरस खेतों के किनारे पहुँच गई। पीछे-पीछे संदेश भी दौड़ते हुए पहुँच गया। वे दोनों मन को छू लेने वाले इस दृश्यों को देखकर खिलखिला कर हंस पड़ते थे। शहर, शहर है। गाँव, गाँव है। जंगल, जंगल है। समय और परिस्थिति की वजह से मन के भीतर अर्थ बदल गए हैं। इन तस्वीरों को देखकर तब्दीली उसके भीतर होने लगी। फिलहाल हमारे भीतर प्रकृति ने एक नया और विशिष्ट रास्ता निर्मित किया है। बस पहाड़ी से उतरकर हम उस गांव पहुंच गए। देखकर हमें खेतों पर काम कर रही आदिवासी महिलाएं हंस पड़ी। महिला के जीवन से जुड़े सवालों पर आदिवासी महिलाओं ने उससे बेहद ही रोचक ढंग से बातचीत की। व्यवस्था और गरीबी के संदर्भ में अर्थपूर्ण और प्रेरित करने वाले गीत गाएं। उसी पल लगा कि संदेश अच्छा काम कर रहा है।

तभी जेल का गेट खुलने की जोरदार आवाज होती है। वह जेल परिसर में होने के आभास से विचलित हो जाती है। लेकिन उसे जिस पल का इंतजार था आखिर वह आ ही गया। वकील गेट पर कागजों का आदान-प्रदान कर रहा था। वकील ने संघा को आवाज दी। संघा से कहा इस कागज पर साईन कर दो। संघा ने साईन कर दिया और कुछ ही समय में संदेश बहुत ही भावुक मुद्रा में नि:शब्द संघा के कंधे पर सिर रखकर-फफक-फफककर रो दिया। उसी समय बिटिया ने बाबा-बाबा पुकारा और बस क्या था। संदेश कुछ पलों के लिए सब कुछ भूल गया। उसने बिटिया की गोदी में उठाया और चूमने लगा। वकील ने संदेश को बधाई दी और अच्छे भविष्य की उम्मीद जताई। और वह वहां से चला गया। वकील के पीछे-पीछे ये लोग भी चल दिए।

संदेश सपरिवार घर लौट आया। उसके अड़ोसी-पड़ोसी उसे विचित्र निगाहों से देखने लगे। कोई भी इन लोगों से अच्छे से बात नहीं करता था। यहां तक की उस नन्ही बच्ची से भी। कल तक यह बच्ची उस पूरे फ्लैट का खिलौना हुआ करती थी। आज न जाने वह किस जुर्म की सजा भुगत रही है। एक दिन संदेश ने कहा कि हम यह मोहल्ला छोड़कर कहीं दूसरे इलाके में चले जाएंगे।

लेकिन संघा ने मना कर दिया। कहा, 'नक्सलवादी होने के आरोप में गिरफ्तारी हुई है। आम लोगों के बीच नक्सली लोगों को व्यवस्था ने आतंकी के रूप में रखा है। इस इमेज को नक्सलियों ने भी दूर करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं। वैसे भी आम लोग खुद के सवालों से रूबरू नहीं होते हैं। इस बात की जानकारी तकरीबन पूरे शहर में मालूम हो गई है। हम किस-किस का मुंह बंद कराएंगे। किस-किस को कहेंगे कि पीएचडी के लिए उस इलाके में तुम्हारा आना-जाना था। और इसी वजह से कोर्ट ने तुम्हें रिहा भी किया है। खैर, तुम्हें कॉलेज में काम पर वापस रख लिया गया है। अब तुम कॉलेज जाओ और पढ़ाओ। और तुम जाने भी जाते हो एक अच्छे प्राध्यापक के रूप में। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।

संदेश ने केवल, 'हाँकहा।

इसी तरह इस तनाव भरी जिंदगी के एक-एककर दिन गुजरने लगे। उन दोनों को यह दुनिया निर्दयी लगने लगी। वे तीनों इसी निर्दयी दुनिया में गुजर-बसर करने लगे। संदेश बीच-बीच में उसके रिसर्च के सिलसिले में बस्तर जाने लगा। इस बार वह बस्तर में बहुत दिन रहकर लौटा था।

तभी उसे संघा कहने लगी, 'शादी के बाद मुझे तुमसे बहुत डर लगता था। अखबार की कतरनें... लेकिन समाज भी आंदोलन से बहुत दूर है। कैसे समझ पाएगा आंदोलन के उसूलों को... और समाज...।

तभी संदेश ने इस प्रक्रिया पर विराम लगाया और कहने लगा, 'जानता हूँ तुम्हें मेरे परिवार के बारे में जानकारी मिली तब से तुम डरी हुई थीं। इसी पशोपेश में जी रही थीं। खैर अब तुम उस भय से मुक्त होने लगी हो। पहले की अपेक्षा तबीयत भी ठीक रहने लगी है।

संघा ने कहा, 'हाँ, सब कुछ तुम्हारे व्यवहार से समझ आने लगा। एक बात कहूँ, तुम बुरा तो नहीं मानोगे।

'नहीं, अभी भी तुम्हारे मन में शक है। कहो, अच्छा लगेगा।

'यही कि जब भी तुम्हें अम्मा कहती, कोयले खदान की कोख से तुमने जन्म लिया है तो मुझे बहुत बुरा लगता है था। लेकिन अब नहीं। वो इसीलिए कि हमारी बिटिया भी जंगल में बिताए दिनों के समय मेरे गर्भ में रूप ले रही थी। इसीलिए मैं इसे 'जंगल की बिटियाकहने लगी। इस बिटिया को मैं जंगल की शेरनी बनाऊंगी। तुम रिसर्च का काम जारी रखो।और नम आँखों से दोनों एक-दूसरे को निशब्द देखते रहे।

 

कहानीकार गोपाल नायडू चिंतक, कार्यकर्ता और शिल्पी है। संपर्क- मो. 9422762421, नागपुर

 

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