रंजिशें हो ही जाती हैं

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    पहल - 114
श्रेणी रंजिशें हो ही जाती हैं
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम प्रियम अंकित





क़िताब/रंजिश ही सही/कुमार पंकज

 

 

 

 

कहा जाता है कि संस्मरण वही अच्छा, जो बेबाक हो। यानि उसमें सच छिपा न हो, बल्कि खुल कर अभिव्यक्त हुआ हो। अगर संस्मरण करीब के व्यक्तियों की जीवनी के रेखाचित्र के रूप में हो, तो संस्मरणकार के सामने यह चुनौती हमेशा रहती है कि वह सच कहे या संबंधों का निर्वाह करे। सच संबंधों में खटास पैदा करता है और यदि वह कड़ुवा है तो कड़ुवाहट भी पैदा करता है। अब इस समस्या से निबटने का सरल और सहज तरी$का यही है कि अगर करीब के लोगों पर बेबाक संस्मरण लिखने की मजबूरी आ ही जाए, तो उनको चुना जाए जो दिवंगत हो चुके हों। हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा। कुमार पंकज की संस्मरणों की किताब 'रंजिश ही सही....के बारे में भी यही धारणा बनती, अगर उसमें चौथीराम यादव और कुँवरपाल सिंह ( ये संस्मरण जिस वक्त पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे थे तब कुँवरपाल सिंह जीवित थे) पर संस्मरण न होता और दिवंगत करीबियों पर लिखे गये अन्य संस्मरणों में गाहे-बगाहे उन शख्सीयतों की तुच्छता पर निर्मम व्यंग्य न होता जो न सिर्फ जीवित हैं बल्कि साहित्य जगत एवं अपने शहरों की बड़ी हस्तियों के रूप में स्थापित हो चुकी हैं और जिनके बड़प्पन का डंका बहुत दूर तक बजता है।

एक खास किस्म की अभिरूचि के पाठकों को इन संस्मरणों में बहुत कुछ मिलेगा - मज़ेदार। सबसे ज़्यादा मज़ेदार तो इसकी भाषा है। खिलंदड़पन से युक्त। अब खिलंदड़पन आज के दौर को परिभाषित करने वाली एक ज़िद्दी धुन जो ठहरी। मियाँ-बीवी, भाई-बहन, गुरू-शिष्य, मित्र-यार सब संबंधों में खिलंदड़पन जितना पक्का, रिश्ता भी उतना ही पक्का। तो अगर पाठक भी लेखक की कृतियों में खिलंदड़पन खोजे तो किम् आश्चर्यम् ! खिलंदड़ वही जो 'विटको साधे। अगर 'विटनहीं सधे, तो खिलंदड़पन विद्रूप बन जाता है। इन संस्मरणों को पढऩे के बाद लेखक का परिश्रम देखकर पाठक दंग रह जाएगा, 'विटसाधने का लेखक ने बहुत हद तक सफल प्रयास किया है। वैसे बनारस जैसे शहर में जीवन का बड़ा हिस्सा जिसने गुज़ारा हो, 'विटीहोने के लिये उसे ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। 'विटजब संस्मरण में आती है तो अपने साथ कुछ 'मैलिसभी लाती है। इन संस्मरणों में बहुत ज़्यादा 'विटबहुत ज़्यादा 'मैलिसलेकर आती है। खुशवंत सिंह के 'विद मैलिस टुवर्ड्स वन एंड आलकी तर्ज़ पर। दिक्कत यही है कि जिन्हें खुशवंत सिंह पसंद नहीं, उन्हें यह संस्मरण भी पसंद नहीं आएंगे। लेकिन यह तो अपनी-अपनी अभिरूचियों का मामला है। अभिरूचि है, तो ये संस्मरण भी हैं।

लेखक का दावा है कि - 'खुदा को हाज़िर-नाज़िर करके कहता हूँ कि इस क़िताब में सिर्फ सच लिखा है और सच के सिवाय कुछ नहीं लिखा है।जैसे अदालत में कोई शहादत देते वक्त करता है, 'माई लॉर्डके सामने। अब 'माई लॉर्डके सामने केवल एक गवाह तो होता नहीं। ज़ाहिर है कि पाठक रूपी 'माई लॉर्डके सामने भी यहाँ केवल एक ही गवाह नहीं होगा। जिन व्यक्तियों पर यह संस्मरण हैं, उनका हिंदी अकादमिक जगत पर गहरा प्रभाव है। इसलिये इन व्यक्तियों से सम्बद्ध कई समानांतर स्मृतियों की शहादत पाठकों के सामने होगी ही।   यह लिखकर लेखक पाठक को आश्वस्त करना चाहता है कि इन संस्मरणों में गप्प कुछ भी नहीं है। यह 'गप्पवादी यथार्थवादरचने की कोशिश नहीं है, बल्कि गवाही है - एक ऐसी गवाही जो पाठक से 'जजमेंटलहोने की माँग करती है। लेकिन साहित्य का पाठक कोर्ट-रूम के जज की तरह 'जजमेंटलनहीं हो सकता। साहित्य का पाठक होने की जो मूलभूत शर्त है, वह है रसिकता। अब जज साहब के साथ दिक्कत यह है कि कोर्ट-रूम के बाहर तो वह रसिक हो सकते हैं, भीतर कतई नहीं। यह हिंदी के पाठक और जज साहब के बीच का महत्वपूर्ण अंतर है, जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। अत: हिंदी का रसिक पाठक इन संस्मरणों को अपनी रसिकता के हुक्के में डालकर किस तरह गुड़-गुड़ करेगा, यह कहना मुश्किल है।

लेखक ने कुँवरपाल सिंह पर लिखे अपने संस्मरण को एक अलग खण्ड 'हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयमे रखा है। यह बात अलग है कि इस खण्ड में एक मात्र यही संस्मरण है। इस तरह इस पुस्तक के चार खण्ड होते हैं। लेकिन 'पूर्वरंगमें लेखक के दिमाग से यह बात उतर गयी है। वह शुरू ही इस बात से करता है कि 'इस पुस्तक के तीन भाग हैं।खैर यह भूल तो तथ्यात्मक है, हिंदी का पाठक अब इतना उदार बन चुका है कि इन छोटी-छोटी तथ्यात्मक भूलों को क्षमा करता चलता है। जो भी हो, कुँवरपाल सिंह पर लिखा यह संस्मरण इस पुस्तक का सबसे मजबूत पक्ष है और इस बड़ी शख्सीयत की प्रतिबद्धता पर समुचित प्रकाश डालता है। कुँवरपाल सिंह होने का अर्थ ही है प्रतिबद्ध होना। कुँवरपाल जी के संदर्भ में लेखक के निम्न कथन से पूर्णतया सहमत हुआ जा सकता है - 'उन जैसा विश्वसनीय और मैत्री धर्म निभाने वाला व्यक्ति आज के ज़माने में दुर्लभ है।कुँवरपाल जी की शख्सीयत को जिस शेर के माध्यम से लेखक ने प्रकट किया है, वह अपने आप में मानीखेज है - 'मेरी ज़िंदगी एक मुसलसल सफर है / जो मंज़िल पर पहुँचे तो मंज़िल बढ़ा दी।आज कुँवरपाल जी हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनका 'मुसलसल सफरहज़ारों युवाओं के दिल में हौसला जगाता है।

पुस्तक के बाकी खण्ड हैं - 'हिंदी विभाग : इलाहाबाद विश्विद्यालय’, 'हिंदी विभाग : काशी हिंदू विश्वविद्यालयऔर 'शहर। जैसा कि पहले दो खण्डों के नाम से ही विदित है इस खण्ड के संस्मरण देश के दो नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से जुड़ी शख्सीयतों पर लिखे गये हैं। यह बात सच है कि आज देश के तमाम नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों के विभिन्न विभाग प्रदान की जाने वाली शिक्षा के लिये उतना चर्चित नहीं होते, जितना विभागीय शिक्षक-गुटों की आपसी खींचातानी और रस्साकशी के लिये। यह विभागीय राजनीति विद्यार्थियों के मन में मिथकीय सरंचना का रूप ले लेती है और इस राजनीति में लिप्त शिक्षक छात्र-छात्राओं के मनो मस्तिष्क में मिथकीय किस्म की चमक और धमक हासिल करते हैं। विश्वविद्यालीय अकादमिकता के पतन की जो गाथायें पिछले तीस चालीस वर्षों में हम सुनते और महसूस करते आये हैं, यह संस्मरण अपनी ऊर्जा उन्हीं से ग्रहण करते हैं। लेकिन यह ऊर्जा निराकार रह जाती, अगर लेखक में साहस न होता। यह साहस जार्ज बर्नार्ड शॉ द्वारा रचित 'आम्र्स एण्ड मैनके पात्र कप्तान ब्लंश्ली वाला साहस तो नहीं है, जहाँ यह पात्र बड़े हास्यास्पद तरीके से गोलियों की अंधाधुंध बौछार के बीच निहत्था ही कूद पड़ता है - यह फैसला तो किताब के पाठक ही करेंगे।

पुस्तक के पहले खण्ड में इलाहाबाद की तीन मशहूर शख्सीयतों लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी और जगदीश गुप्त पर संस्मरण हैं। ये तीनों विभूतियाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापक के रूप में प्रतिष्ठित थीं। रामस्वरूप चतुर्वेदी और जगदीश गुप्त क्रमश: मशहूर आलोचक एवं कवि भी थे। लेखक ने जिस दौरान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की, तब ये तीनों विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। इस दृष्टि से वे लेखक के गुरूजन भी हुए। वाष्र्णेय जी के इर्द-गिर्द अनुशासन की जो आभा रहती थी उसे लेखक ने यों व्यक्त किया है - ' वाष्र्णेय जी से लोग डरते थे। छात्र-छात्रायें तो एक तरफ, विभाग के जूनियर अध्यापक भी उनके सामने आने से बचते थे।आज यह पढ़कर आश्चर्य होता है कि किसी विश्वविद्यालय में ऐसा अध्यापक भी हो सकता है जिससे लोग इतना खौफ खाते हों। लेखक ने वाष्र्णेय जी कुछ उन मुद्राओं का बखूबी वर्णन किया है जिनके द्वारा उन्होंने हिंदी विभाग में अपनी धाक जमाई थी - ''यों वाष्र्णेय जी अपने विरोधियों को ठण्डा करने में पूर्ण सक्षम थे लेकिन अपने 'पालक बालकोंका कल्याण करने में किसी भी हद तक जा सकते थे। मुझे याद है एक 'चातकउपनाम वाले सज्जन को, जो वाष्र्णेय जी के पीरे-दर-खर-बावर्ची थे, हाईस्कूल से लेकर एम.ए. तक थर्ड डिविज़िनर थे, हास्यास्पद व्यक्तित्व के मालिक थे, चिपचिपी कवितायें लिखकर हिंदी का चीर-हरण करते रहते थे, वाष्र्णेय जी ने बड़ी दबंगई से भरवारी ( इलाहाबाद ) के एक डिग्री कॉलेज में स्थाई प्रवक्ता नियुक्त कर दिया था। अध्यक्ष के रूप में उनकी पैनी नज़र हर तरफ रहती थी।’’ वाष्र्णेय जी के प्रति लेखक का श्रद्धामिश्रित विस्मय का भाव हमेशा बना रहा है, उससे उबरने की लेखक ने तमाम कोशिश की है मगर निष्फल। सच है गुरू के ऋण से उऋण होना मुश्किल है।               गुरू तो रामस्वरूप चतुर्वेदी भी रहे हैं, लेकिन उन पर लिखित संस्मरण में लेखक श्रद्धामिश्रित विस्मय से उबरने में सफल रहा है। रामस्वरूप जी की गंभीर मुद्रा और उनकी 'चस्काचार्यवाली मुद्रा दोनों का समुचित विवरण लेखक ने मनोरंजक भाषा में दिया है। एक उत्कृष्ट आलोचक और सौम्य व्यक्तित्व के मालिक रामस्वरूप जी भी विश्वविद्यालयी खींचातानी और जलनखोरी से अप्रभावित नहीं रह पाये, इसका एक दिलचस्प विवरण लेखक ने दिया है - ''इससे पहले इलाहाबद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद के लिये हुई चयन-समिति में, जिसमें नामवर सिंह विशेषज्ञ थे, जो निर्णय हुए थे, उससे चतुर्वेदी जी इतने क्षुब्ध हुए थे कि तभी दशकों पुरानी चतुर्वेदी-नामवर मित्रता के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि जिस वरिष्ठता की आड़ लेकर चतुर्वेदी जी को माताबदल जायसवाल के मु$काबले प्रोफेसर पद से वंचित किया गया था (योग्यता में चतुर्वेदी जी यदि राजा भोज थे तो माताबदल जायसवाल...), उसी वरिष्ठता को आधार बनाकर चतुर्वेदी जी ने एक साठोत्तरी लेखक/अध्यापक को, जो अभ्यर्थियों मे सर्वाधिक योग्य था, प्रोफेसर पद से वंचित करने की कोशिश की। इतिहास अपने को दोहराता है। कुलाधिपति के यहाँ से चतुर्वेदी जी को भी निराशा/असफलता हाथ लगी थी और साठोत्तरी लेखक भी प्रोफेसर पद से वंचित रखा गया। अंतर मात्र इतना ही है कि चतुर्वेदी जी को बाद में दोबारा मौका मिला लेकिन बेचारा लेखक तो सेवानिवृत्त ही हो गया।’’

जगदीश गुप्त पर लिखे गये संस्मरण में लेखक तटस्थ मुद्रा अपनाने में सफल हुआ है। यहाँ न श्रद्धा है और न ही विस्मय। जगदीश जी के साहस की प्रशंसा भी है, उनके सांप्रदायिक और संघी झुकावों की कटु आलोचना भी है, नयी कविता के बीच में उनके कवित्व की आलोचना को भी समुचित स्थान यहाँ मिला है। जगदीश जी के जीवन का जो छोटा सा रेखाचित्र यहाँ खींचा गया है, उससे कुछ पाठक असहमत ज़रूर होंगे, मगर यह स्पष्ट है जगदीश जी के प्रति लेखक ने कोई विद्वेष नहीं पाला है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध जो खण्ड है, उसमें जिन व्यक्तियों पर संस्मरण हैं, वह लेखक के छात्र जीवन से जुड़े व्यक्ति हैं, अगर इनमें से किसी ने लेखक का कुछ बिगाड़ा भी है, तो किसी किस्म की रंजिश लेखक ने उनसे नहीं पाली है (उदाहरण के लिये वाष्र्णेय जी के कारण ही लेखक की नियुक्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में नहीं हो पायी थी, लेकिन लेखक ने वाष्र्णेय जी बक्श दिया है)।

बनारस हिंदू विश्विद्यालय से जुड़ी शख्सीयतों पर लिखे संस्मरणों में लेखक किसी को नहीं बख्श्ता। क्यों? इसलिये कि ये सभी उसके सह-कर्मी रहे हैं और सह-कर्मी घाव देते हैं। घाव जितना दर्दनाक, रंजिशें उतनी ही ज़्यादा। इसलिये सह-कर्मियों से रंजिशें हो ही जाती हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़ी शख्सीयतों पर लिखे इन संस्मरण को ज़्यादतर ज़हर बुझे तीर की तरह फेंकने की कोशिश की गयी है। मानो इन सभी शख्सीयतों ने अपना समूचा जीवन पदोन्नति से जुडी और स्त्रियों के प्रति आकर्षण से जुड़ी कुण्ठाओं को पालते-पालते बिता दिया। लेखक को इनके सिवाय इन शख्सीयतों के व्यक्तित्व का कोई और सबल या दुर्बल पक्ष नज़र नहीं आया। आखिर यह संस्मरण लिखे ही क्यों गये? इन शख्सीयतों का चरित्र-हनन करने के लिये! 'बड़प्पनअगर मानवीय गुण है, तो 'छोटापनभी मनवीय लक्षण है। साधारण व्यक्तियों का 'बड़प्पनऔर 'छोटापनस्मृतियों में ज़्यादा 'स्पेसऔर 'समयनहीं घेर पाता। दिक्कत यह है कि बड़ी शख्सीयतों के बड़प्पन की गाथाएं मौखिक से लेकर लिखित परंपराओं और स्मृतियों में ज़ोर-शोर से रची जाती हैं, लेकिन उनके 'छोटेपनका ज़िक्र करने से हमेशा कतराया जाता है। इन संस्मरणों को पढ़कर कैंब्रिज स्कूल के अनिल सील का इतिहास-लेखन याद आता है। सील ने अपनी सारी ऊर्जा गाँधी, नेहरू, पटेल इत्यादि को सत्ता के दलाल के बतौर स्थापित करने में लगा दी। अनिल सील से सहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन अनिल सील का यह योगदान तो रहा ही कि उन्होंने आधुनिक भारत के इतिहास को व्यक्ति-पूजा के मंदिर का प्रवेश द्वार होने बचा लिया।

बच्चन सिंह के बारे में लेखक का प्रेक्षण है - ''बच्चन सिंह ने अपनी किताब 'क्रांतिकारी कवि निरालानंददुलारे बाजपेयी के निर्देशन में लिखी थी और सच तो यह है कि नंददुलारे बाजपेयी की समीक्षा-पद्धति का बड़ा गहरा असर बच्चन सिंह पर है। नंददुलारे बाजपेयी की क़िताबों के शीर्षक बड़े भ्रामक होते थे; जैसे नंददुलारे बाजपेयी की पुस्तक 'हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दीसे यह आशा होती है कि इसमें 20वीं शताब्दी के हिंदी साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं की चर्चा तो होगी ही, लेकिन ऐसा कुछ है नहीं। बच्चन सिंह की किताबों की हालत भी कुछ-कुछ वैसी ही है। मिसाल के लिये 'आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्दकिताब ले लीजिये। बिल्कुल आधी-अधूरी क़िताब है। बच्चन सिंह द्वारा लिखे गये 'हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहासपर तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। बच्चन सिंह ने महाभारत की कथा को आधार बनाकर कई उपन्यास भी लिखे हैं। इनमें उनके उपन्यास 'पाँचालीपर हुई संगोष्ठी की याद आ रही है। विजयशंकर मल्ल, भोलाशंकर व्यास, त्रिभुवन सिंह, काशीनाथ सिंह, रामकीर्ति शुक्ल, बलिराज पाण्डेय, अवधेश प्रधान - सभी वहाँ थे। इस उपन्यास को पढ़कर मुझे बड़ी खीज हुई थी। मैंने अपने वक्तव्य में 'पाँचालीउपन्यास के साथ वही किया जो कौरव-सभा में दु:शासन ने पांचाली के साथ किया था। बच्चन सिंह हत्प्रभ तो हुए लेकिन मेरे प्रति नज़र मैली नहीं की, आखिर स्वयं आलोचक थे।’’

अब ज़रा नामवर जी ने बच्चन सिंह पर जो टिप्पणी की थी उस पर भी लेखक की ही जुबानी एक नज़र डाल ली जाए । नामवर जी की इस टिप्पणी से बच्चन सिंह बहुत दु:खी हुए, जब उनकी पचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित सम्मान समारोह मे नामवर जी ने कहा था - ''बच्चन सिंह ने पहले 'निरालापर लिखा, फिर 'बिहारीकी ओर मुड़े और अब तक इन दोनों के बीच झूलते रहे। मैंने ऐसी मूर्खता नहीं की। यह 'निरालाको ही पकड़े रहते। उन्हीं में रूपवाद खोजते या जो इच्छा होती, खोजते। आलोचना पढ़कर आलोचना नहीं लिखी जाती, इसके लिए रचना में जाना पड़ता है। फल में फल नहीं लगता है। लोग यह कह रहे हैं कि आप शतायु हों। प्रसाद ने 'चन्द्रगुप्तमें लिखा है - 'समझदारी आने पर यौवन चला जाता है’, लेकिन यौवन चले जाने पर समझदारी आ ही जाए, यह ज़रूरी नहीं।’’

लेखक का और नामवर सिंह का बच्चन सिंह के बारे में जो कथन है, ज़रा उसकी तुलना कीजिये। बच्चन सिंह के बारे में लेखक का और नामवर जी का दृष्टिकोण समानधर्मा है, केवल अंदाजे बयाँ अलग है। नामवर जी के कथन में भाषा और व्यंग्य की बाजीगरी और चातुर्य अधिक है, जो होना ही था। आखिर नामवर, नामवर हैं। लेखक की बच्चन सिंह के बारे में जो राय है, यदि वह सच्चाई, बेबाकपन और साहस का नमूना है, तो इस दृष्टि से नामवर जी के उपरोक्त उद्गार बीस ही साबित होंगे। भत्र्सना सिर्फ इस आधार पर करना बेमानी है कि वे पचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित सम्मान-समारोह में ऐसा बोल गए, जबकि उन्हें वहाँ शालीनता का परिचय देना चाहिए था। संगोष्ठियों का इतिहास हमें बताता है कि शालीनता की परवाह नामवर जी ने कभी नहीं की। 'परवाह न करने वालाऐसा आलोचक हिंदी में दूसरा नहीं होगा । लेकिन, अगर यह सच्चाई, बेबाकी और साहस से इतर कुछ ऐसा है कि नामवर जी की यह राय भत्र्सना के $काबिल है, तो लेखक को किस आधार पर बक्श दिया जाए? यह सवाल पाठकों के ज़ेहन में आयेगा ज़रूर।

खैर, इस पुस्तक का अंतिम भाग, $कौल लेखक, उन तीन शहरों का साहित्यिक इतिहास है जहाँ हिंदी-उर्दू की सम्मिलित धारा अविरल बहती रही और यों गंगा-जामुनी तहज़ीब परवान चढ़ती रही। इस खंड में पुस्तक अपने उद्देश्य में सबसे ज़्यादा सफल रही है। यह बेहद पठनीय और रोचक होने के साथ-साथ यह बताता है कि किसी शहर का होना और उजडऩा क्या होता है!

अंत में पूरी किताब के संदर्भ में यह कहना लाज़मी है की रंजिशें यों ही नहीं होतीं। जैसा की कहा जा चुका है, घाव जितना गहरा, रंजिशें उतनी ही ज़्यादा। ये घाव लेखक को किस-किस रूप में मिले, इसका विवरण इन संस्मरणों में दूर-दूर तक नहीं है। घावों को ढक-तोप के रखना घाव खाने वाले की हीनता-ग्रंथि की अभिव्यंजना करता है। ऐसा लोक-लाज के भय के चलते भी हो सकता है । लोक-लाज का इतना लिहाज़, तो यह सारा साहस किस काम का! लेखक इन संस्मरणों का शीर्षक रखता है - 'रंजिश ही सही...। लेकिन रंजिश से मिली चोटों, तकली$फों को सचेत रूप से भाषा की कीमियागीरी द्वारा वह छिपा ले जाने की कोशिश करता प्रतीत होता है। दूसरों से रंजिशें तो हो ही जाती हैं, इसके कई कारण होते हैं। लेकिन इन रंजिशों को संस्मरण जैसी विधा में ईमानदारी से वही व्यक्त कर सकता है, जो अपने प्रति दूसरों की रंजिशों को बरतने की भी कला जानता हो। दूसरों के प्रति ईमानदार निर्ममता तभी बरती जा सकती है, जब खुद के प्रति निर्ममता बरतना आता हो। इन संस्मरणों में लेखक अपने प्रति निर्ममता नहीं बरतता। उल्टे वह अपने प्रति मोहब्बत में गिरफ्तार है, ग्रीक नार्सिसस की तरह, जो अपने ही बिम्ब की मोहब्बत में गिरफ्तार था। अपनी छवि को वारों और हमलों से बचा कर रखने का कौशल हर संस्मरण-लेखक को हासिल होता है। यह पुस्तक भी इसका अपवाद नहीं है।

 

प्रियंम अंकित नयी पारी में पहल में लिखने वाले युवा आलोचक।

संपर्क - 9359976161, आगरा

 

 

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