ताकि बचा रहे पौधों में रस और लकडिय़ों में आग

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    पहल - 114
श्रेणी ताकि बचा रहे पौधों में रस और लकडिय़ों में आग
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम अरुण होता





निलय उपाध्याय का कवि कर्म

 

 

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक निलय उपाध्याय हिंदी कविता में अपनी जगह बना चुके थे। उन्होंने अपनी कविताओं में 'लोकरंग का प्रगाढ़ उपयोगकरते हुए अपनी विशिष्ट पहचान भी बनाई। उन्होंने 'अकेला घर हुसैन का’ (1994), 'कटौती’ (1999), 'जिबह वेला’ (2015), 'मुंबई की मेल’ (2017) कविता संग्रहों के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि 'तुरंताअथवा जल्दबाजी में होना उनके कवि-कर्म का स्वभाव नहीं है। पचीस-तीस वर्षों की अवधि में इनके केवल चार कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि कवि ने कविता-लेखन का अत्यंत गंभीरतापूर्वक निर्वहन किया है। प्रसंगतया उल्लेख किया जा सकता है कि निलय ने दशरथ माँझी के जीवन पर आधारित 'पहाड़शीर्षक एक उपन्यास भी लिखा है। इस कृति के आधार पर सन् 2015 में केतन मेहता के निर्देशन में 'मांझी द माउंटेन मैनफिल्म बनी। इस उपन्यास से सिद्ध होता है कि निलय के यहाँ जीवन की कोई कमी नहीं है। कविता और उपन्यास के क्षेत्र में ही नहीं, यह रचनाकार एक समर्पित पर्यावरण एक्टिविस्ट के रूप में सर्वाधिक रूप में जाना-पहचाना जाता है। पिछले कई वर्षों से 'गंगा बचाओ अभियानका सफल नेतृत्व प्रदान करते हुए अपने अनवरत संघर्ष को परिचित कराता आ रहा है। माउंटेन मैन की तरह निलय में प्रबल जिद है, नई राह बनाने की जद्दोजहद है और है अपार जिजीविषा। बहरहाल, निलय उपाध्याय के अब तक प्रकाशित चार कविता संग्रहों के आधार पर उनके कवि-कर्म के महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करना यहाँ हमारा ध्येय है।

 

                                                                              (एक)

 

निलय उपाध्याय का रचना-काल हमारे कठिन दौर का रहा है। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में बड़ी उथल-पुथल रही जो आज भी जारी है। अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विश्व पूँजीवाद के नाम पर अपना विजय ध्वज फहराना शुरू कर दिया। वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ. का वर्चस्व सामने आया। आर्थिक विकास का ढोंग रचा गया। भूमंडलीकरण के नाम पर मुक्त बाजार व्यवस्था प्रचलित हो गई। इससे उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला। विकास के नाम पर 'बिग बाजारऔर मॉल खड़े किये गये। कांक्रीट का जंगल फलने-फूलने लगा। पूँजी सर्वशक्तिशाली हो गई। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व सामने आया। भूमंडलीकरण की आँधी के बाद बाज़ार का महत्व बढ़ता गया। पूरी दुनिया मानो मंडी में तब्दील हो रही थी। 'ग्लोबल विलेजअर्थात वैश्विक गाँव का नारा भी जोर-शोर से गूँजने लगा लेकिन, इसमें केवल वे ही शामिल हो सकते थे जिनमें क्रयशक्ति मौजूद हो।

भूमंडलीकरण के नाम पर हमारे उदात्त सांस्कृतिक वैविध्य को समाप्त करने की भी साजिश रची जाने लगी। एक ही तरह के खान-पान, वेशभूषा, भाषा, जीवन-शैली आदि को प्रोमोट करते हुए 'भारतीयताके सामने नया संकट खड़ा कर दिया गया। कहा तो यह गया कि इससे 'वसुधैव कुटुंबकम्की भावना प्रसरित होगी। भेद-भाव मिटेगा। लेकिन, मूल लक्ष्य था मुनाफा कमाना। व्यर्थ की चमक-दमक के सामने हमारे पुराने सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य बाधित होने लगे। एक नई संस्कृति पनपने लगी जो उपभोक्ता संस्कृति के नाम से पहचानी गई। इस संस्कृति में सब कुछ बिकाऊ है। मनुष्य भी एक प्रॉडक्ट मात्र है। इस संस्कृति में बाजार मूल्य के अनुपात में महत्व निश्चित होने लगा। चूँकि मनुष्य और मनुष्यता का कोई बाजार मूल्य नहीं होता है तो उपभोक्ता संस्कृति में उनकी रक्षा की कोई चिंता नहीं होती है। ऐसी कविता-विरोधी समय में निलय उपाध्याय की कविताएँ सामने आती हैं। देखना यह है कि इनमें अपने समय की चिंता और विसंगतियों किस रूप में अंकित हुई है। यह भी परखा जाना चाहिए कि भूमंडलीकरण के सच को कवि ने किस रूप में चित्रित किया है। अपने समय के अंतर्विरोधों और दरारों को वह कितनी मजबूती और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत कर पाता है?

निलय के पहला कविता-संग्रह 'अकेला घर हुसैन कासे गुज़र कर परमानंद श्रीवास्तव ने लिखा है - ''यहाँ की कविताएँ हमारे कठिन दौर के हादसों सांप्रदायिक तनाव, शोषण और अन्याय के खास रूपों और उनके प्रतिरोध की वर्गीय चेतना को प्रत्यक्ष करती हैं और कवि के इस दृष्टिकोण की झलक देती हैं कि यथार्थ के जटिल रूपों में बयान के लिए गूढ़तर काव्यशिल्प को अपनाना अथवा जीवन मात्र को निषेधात्मक रूप में देखना जरूरी नहीं है। आंचलिकता और विश्व दृष्टि में यहाँ कोई विरोध नहीं है।’’

निलय उपाध्याय की काव्य-यात्रा में 'सफरका विशेष महत्व है। यह इसलिए नहीं कि उन्होंने समय के साथ सवार होने को बहुत कठिन माना है अथवा यह उनके पहले कविता संग्रह की प्रारंभिक कविता है बल्कि इसमें अपने समय को सही माने में जाना, समझा और प्रस्तुत किया है। समय की शिनाख्त कवि की जागरूकता का संकेत करती है। काल की प्रतिकूलताओं से जर्जर जीवन-स्थितियों और तनावों को उकेरते हुए कवि की चिंता प्रकट होती है -

 

''चूल्हे पर चढ़े दूध-सा जैसे फफक उठता है जीवन

हर एक बूँद के नीचे हिल जाता है यह समुद्र

एक ही हवा है हजार-हजार साँसों में’’

 

कवि को अपनी जड़ों से गहरा लगाव है। सफर के बाद उसे अपनी जड़ों में लौटना है। यहाँ से उसे प्रबल आत्मविश्वास प्राप्त होता है। अत: बाधक शक्तियों के सामने घुटने टेकना उसे कदापि स्वीकार्य नहीं है क्योंकि

 

''मैं सुन सकता हूँ

अंधियारे दर्रों की खौफनाक आहटें

तैर सकता हूँ धारा के खिलाफ

मुझे पता है लहरों का ब्यूह

और कैसे निकलना होता है धँसानों से’’

 

आज के दौर में बाजार अपनी स्थानीयता खो चुका है। बाजार का वैश्विक रूप सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। 'ग्लोबल मार्किटके उत्पादों से बाजार पटा हुआ है। ये वस्तुएँ वहाँ भी जा पहुँची हैं जहाँ बिजली, सड़क, शिक्षा से भी लोग वंचित हैं। बाजारवादी अर्थ-व्यवस्था में मनुष्य किसी वस्तु की तुलना में ठिगना और बौना साबित होता जा रहा है। इतना ही नहीं, इस अर्थ-व्यवस्था में विचार की समाप्ति का भी पूरा प्रयास रहता है। अर्थात सोच-विचार करने की जरूरत नहीं। बाजार ने सोच-विचार कर लिया है और उपभोक्ता के हित के लिए चिंतित होने का दावा बाज़ार का रहा है। अत: बाज़ार के कहे अनुसार जीवन व्यतीत हो तो व्यक्ति को सुख, आराम आदि प्राप्त हो सकते हैं। विज्ञापनों के माध्यम से बाज़ार हमारे ड्राइंग रूम, बेड रूम तक ही नहीं हमारी मानसिकता तक प्रवेश कर चुका है। बाजार के छल-छद्म को समाज सचेतनशील व्यक्ति भली-भाँति पहचानता है। चूँकि यह बाज़ार मानव और मानवताविरोधी है, इसलिए समकालीन कवि उसका विरोध और प्रतिरोध कविता में दर्ज़ करता है। इस संदर्भ में निलय उपाध्याय की कविता 'मुझे पछाड़ दियाका पाठ अनुचित न होगा। पूरे चालीस वर्षों से जीवन का अभिन्न अंग बनकर रहने वाली टिकिया को बाज़ार की चालाकियों ने विस्थापित कर दिया। अपनी पसंद की टिकिया न होने अथवा भरोसेमंद न होने के बावजूद किसी दूसरी टिकिया खरीदने का आशय है बाज़ार की शक्ति के सामने पराजय स्वीकारना है। बदलते समय में तेजी से बदलती जा रही मानसिकता का अंकन करने में कवि सफल रहा है। बाज़ार का खेल है 'दो की खरीद पर तीनइससे हम आवश्यकता न होने पर भी सामानों से घर पाटे जा रहे हैं। अपनी इच्छा, रूचि और पसंद को त्याग कर बाजार के खेल में शामिल होते जा रहे हैं -

 

''इसी बीच

कमबख्त दुकानदार ने मुझसे कहा

इसे ले जाइए और मैं ही ले आया इसे

उसे बिसूरता छोड़

महज इसलिए कि मिल रही थी तीन

दो की खरीद पर’’ (जिबह वेला, पृ. 76)

 

उल्लेख किया जा चुका है कि बाज़ार ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है। 'इस्तेमाल करो और फेंक दो’ (यूज एंड थ्रो) का चलन इधर अधिक बढ़ा है। वस्तुओं का प्रयोग होने के बाद उन्हें फेंक देना एक बात है। लेकिन, इसे जीवन में लागू करना, प्रवृत्ति अथवा मनोवृत्ति बना लेना अत्यंत भयानक बन सकता है। अपना स्वार्थ पूरा हो जाए तो पहचानने से भी इनकार कर देने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ती जा रही है। कवि की चिंता जाहिर हुई है-

 

''मनबोध बाबू

सच सच बताना

क्या कसूर सिर्फ मेरा है

कि रोज़ बाज़ार से लेकर आता हूँ कोई ऐसी कलम

जिसका अर्थ -

स्याही के साथ खतम हो जाता है।’’ (कटौती, पृ. 15)

 

सच है कि बाज़ार आज दुनिया का यथार्थ है। उससे आँखें नहीं बचा सकते। लेकिन, इसका यह आशय नहीं है कि बाज़ार जैसा चाहे, वैसा हम करते रहें। कभी दुनिया में बाज़ार हुआ करता था। आज बाज़ार में दुनिया है। सर्वशक्तिमान बाज़ार प्रभुत्व संपन्न है। समकालीन कवि केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल से लेकर युवतर या युवतम कवियों ने बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था एवं उपभोक्तावादी समय का विरोध किया है। इस दृष्टि से निलय की 'सबकजैसी कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है। केदारनाथ सिंह की - ''नहीं / हम मंडी नहीं जायेंगे / खलिहान से उठते हुए / कहते हैं दाने’’ की तर्ज पर निलय घोषणा करते हैं-

 

''एक मुट्ठी अन्न

रोज कम खाएँगे और बचाएँगे बीज’’ (वही, पृ. 24)

बाज़ार भले ही महंगे सामान बनाए लेकिन वे सामान न खरीदे जाएँ तो बाज़ार दुर्बल होगा ही। विज्ञापनों के माया-जाल से अप्रभावित रहा जाए तो बाज़ार को सबसे बड़ा विरोध का सामना करना पड़ेगा। आत्म-निर्भरता ही बाज़ार को सबसे बड़ी हार प्रदान करेगी। अत: कहा जा सकता है कि निलय उपाध्याय की कविताओं में भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावादी संस्कृति, पूँजी का वर्चस्व और इनके दुष्प्रभावों पर चिंता व्यक्त हुई है। साथ ही, इन दुष्प्रभावों से मुक्ति के उपाय की ओर भी संकेत मिलता है। इस कवि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जो कुछ भी बचा हुआ है उसे कैसे बचाए रखा जाए, इसकी चिंता कविताओं में ध्वनित होती है। 'शापित समयमें भी वह उम्मीदें बनाए रखता है। उसे पता है कि तपिश के बाद बारिश होगी और वह बारिश जीवनदायिनी सिद्ध होगी। कवि के शब्दों में-

 

''धरती के दुश्मनों के पड़ताल और विनाश की बारिश

शर्मनाक दिनों को डूबो देने की बारिश

कितनी अच्छी है यह, बुवाई के मौसम में

बीजों की बारिश।’’ (कटौती, पृ. 60)

 

                                                                                  (दो)

 

निलय उपाध्याय के कविता-संसार में मेहनतकश मजदूर श्रमजीवी, आम आदमी आदि की मौजूदगी बड़ी शिद्दत के साथ पाई जाती है। कवि इनसे आत्मीयतापूर्ण संवाद स्थापित करता है। इसी क्रम में कविताओं में यथार्थ के विविध रूप उभरकर आते हैं। जीवन की विडंबनाएँ चित्रित होती हैं। साथ ही, श्रम और सौन्दर्य का समन्वय भी परिलक्षित होता है। आत्मसंघर्ष रूपायित होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो श्रमजीवी एवं मजदूर वर्ग के प्रति कवि की प्रतिबद्धता पाई जाती है। इस वर्ग की आंतरिक दुनिया में कवि का आवागमन सहानुभूतिपरक नहीं बल्कि संवेदनात्मक प्रतीत होता है। तभी तो कवि के अंतर्मन में इस वर्ग के प्रति एक गहरी चिंता जाहिर होती है।

दो जून की रोटी के सिवा और कुछ भी न चाहने वाले मेहनतकश लोगों के लिए कोई भी काम असंभव नहीं होता है। सरसों के फूलों से आकाश गंगा गढऩा हो अथवा हिमालय से नदी पृथ्वी पर उतारना हो, अपने अक्लांत श्रम से सब कुछ संभव करने में कोई कोताही नहीं बरतते। ये मजदूर या श्रमजीवी अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए समर्पित रहते हैं। निलय के सभी कविता-संग्रहों में यह वर्ग अपने तमाम वैशिष्टय के साथ उपस्थित है। इस वर्ग के पास जीवन की आधारभूत वस्तुएं नहीं हैं। फिर भी वह रोता नहीं, हार नहीं मानता अपनी संघर्षशीलता जारी रखता है। कवि ने इस जुझारू वर्ग की खूबियाँ उघाड़ते हुए लिखा भी है-

''देखो -

हमारे पास भी बहुत सारी चीजें नहीं हैं

तन पर ठीक ढंग कपड़ा

अपना एक घर भी नहीं है

हम तो नहीं रोते कभी’’ (कटौती, पृ. 65)

 

कवि ने उपेक्षित लोगों की विपन्न दशा का मार्मिक चित्रण किया है। इन्हें छल-कपट नहीं आता। ईमानदारी और मेहनत से मिलनेवाली मजूरी से वे गुजारा करते हैं। आज के दौर में यह ईमानदारी  'सभ्य समाज’  में मूर्खता का पर्याय भले समझी जाए लेकिन मेहनत और ईमानदारी की कमाई से कवि-मन पुलकित हो उठता है। हालाँकि 'सभ्य समाजतथा महानगर के लोग आम आदमी को उपेक्षाभरी दृष्टि से देखते हैं। इससे कवि मन आहत होता है। मर्माहत भी। इस कारुणिक स्थिति का चित्रण 'दो रुपए का नोटशीर्षक कविता में हुआ है-

 

''मुंबई आया तो लगा

मैं वही रुपया हूँ

वही दो रुपये का नोट भोपाल का

जिसकी ठसक और कीमत तो पूरी है मगर चलन नहीं

घूम रहा हूँ, जररूत के वक्त जेब से

निकलता हूँ और सामने के पहले मुस्कराता हूँ।’’ 

(जिबह वेला, पृ. 56)

 

कवि निलय उपाध्याय की कविता बदलते समय की शिनाख्त करती है। यहाँ आदर्श की स्थापना का कोई मोह नहीं, परिवर्तित समय में बदलती मानसिकता का यथार्थ अंकन है। पेशेगत श्रम को त्याग कर नये पेशे अपनाने के लिए विवश मेहनतकश लोगों का चित्रण करते हुए कवि ने अपनी चिंता व्यक्त की है कि आनेवाला समय कैसा भयानक होगा। हालाँकि इस चिंता का रूपायन वह प्रत्यक्षत: नहीं करता है। पूरी कविता पाठ कर लेने के बाद यह चिंता ध्वनित होती है। चूँकि हमारी सामाजिक व्यवस्था में ''काम करने से किसी का पेट नहीं भरता’’, अत: पेशा से संबंधित कर्म छोडऩे में ही भलाई प्रतीत होती है। यह सच है कि इस बदलाव से समाज में अव्यवस्था फैलेगी और पतनोन्मुखता की ओर समाज अग्रसर होगा-

 

मैं यह तो बताना भूल ही गया कि

अकलू चाचा और लालसा लोहार कल से नहीं आएंगे यहाँ

लगातार छह दिनों तक खाली पड़े उनके हाथों ने

खोल लिया है नया रास्ता

जूता के लिए चमड़ा काटने वाले

अकलू चाचा के सधे हाथ अब गांव में दारू चुआएंगे...

और लालसा की भट्ठी में पकेगा

पाइप गन का लोहा  (जिबह वेला, पृ. 15)

 

भीड़ भरी बस में यात्रियों की हालत से कवि-मन दु:खी है। बस में यात्रा कर रहे छोटे बच्चों और बूढ़ों के प्रति संवेदनशील कवि की दृष्टि पाठकों को आश्वस्त करती है। साथ ही, परिवर्तित समय में बढ़ती असंवेदनशीलता से अमानवीय स्थिति की ओर भी संकेत मिलता है। यह कैसा समय आ पहुँचा है कि हमारी संवेदना छीजती चली जा रही है और आत्मकेंद्रित सभ्यता के कब्जे में मानवीयता को हम भुलाते चले जा रहे हैं। बस में सवार अस्सी साल के वृद्ध की स्थिति के माध्यम से कवि की बेचैनी स्पष्ट होती है-

 

हिचकोलों में

हिल जाती है अस्सी साल की हड्डियाँ

अस्सी साल की हड्डियों से उठती हैखांसी की भाप

हे ईश्वरजाने कब पूरी होगी यह यात्रा।  (वही, पृ. 74)

 

प्रगतिशील चेतना के कवि निलय की कविताओं में मानवीय संवेदना, प्रखर यथार्थबोध और शोषित तथा उपेक्षित लोगों के प्रति गहरा लगाव विद्यमान है।'अकेला घर हुसैन काकविता-संग्रह से लेकर 'मुंबई की लोकलतक कवि मजदूरों की स्थितियों से बेहद चिंतित प्रतीत होता है। भोजपुर, बलिया, छपरा, मुंबई के बहाने वह पूरे भारत में मजदूरों की शोचनीय दशा का चित्रण करता है। हजारों फुट धरती के गर्भ में काम करनेवाले हजारों मजदूरों का अंतर्धान हो जाना कवि प्राण को गहरे रूप में प्रभावित करता है। पुन: वह मर्माहत है कि इकतीस साल की उम्र में गाँव का आदमी बूढ़ा ही नहीं होता, बल्कि नीम तले मरे कुत्ते की तरह पड़ा रहता है। इस कवि की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह घोर निराशा के क्षणों में भी आशा का संधान कर लेता है। कवि का यह भाव पराजय में भी विजय की संभावना का संकेत करता है-

 

तुम गंगा के तटवर्ती उन गांवों की लड़की हो

जहाँ पाँव खजूर हो जाते हैं हाथ बबूल

तब भी खड़ी रहती हो खेतों में

ताकि बचा रहे पौधों में रस

और लकडिय़ों में आग

 

                                                                             (तीन)

 

निलय उपाध्याय ने अपनी पीढ़ी के कवियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। इसके कई कारणों में से एक वजह यह भी है कि इस कवि के रचना-संसार में ग्रामीण एवं किसान-चेतना अत्यंत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यंजित हुई है। कहना न होगा कि यह चेतना जीवनानुभवों से उत्पन्न है। दीर्घ साहचर्य का प्रतिफलन है। सच्ची अनुभूतियाँ कवि को अनन्यता प्रदान करती हैं। कवि के लिए गाँव केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं है। यह जितना सामाजिक, सांस्कृतिक महत्व का है उतना ही आत्मीयता से लबालब भरा अपार जीवंतता का प्रतीक भी है। 'जिबह वेलासंग्रह की ही बात हो तो डेढ़ दर्जन से भी अधिक कविताएं ग्राम जीवन पर आधारित हैं। अन्य संग्रहों में भी गाँव बड़ी शिद्दत के साथ मौजूद है। इस संदर्भ में स्पष्ट करना अनुचित न होगा कि संख्या के आधार पर कवि की ग्रामीण चेतना का आकलन नहीं किया जा रहा है। यहाँ जो भाव-गांभीर्य एवं सुंदर अभिव्यक्ति है, वह अनेकत्र उपलब्ध नहीं है। उदाहरणार्थ, कवि की 'जा रहा हूँकविता का अवलोकन किया जा सकता है। 'मैं गाँव से जा रहा हूँकोई स्टेटमेंट भर नहीं है। इसमें गहरी अर्थव्यंजना निहित है। गाँव से जाने का अर्थ गाँव को अपने साथ लिए चलना है। साथ ही, इसका अर्थ खुद को गाँव में छोड़कर जाना भी है। उसका जाना महज एक सूचना भी नहीं है। गाँव में रचा-बसा मनुष्य गाँव से अभिन्न रूप में जुड़ा रहता है। गाँव उसके जीवन स्पंदन हैं।  प्राणवायु है। इतना ही नहीं, पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में शहरोन्मुखी सभ्यता की प्रतिलिपि भी बनती है यह कविता। कवि यह स्वीकार करता है कि वह अपना युद्ध हार चुका है। लेकिन सवाल यह कि कैसा युद्ध है? पक्ष-प्रतिपक्ष में कौन हैं? विजेता कौन है? जाहिर है कि कविता में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। परंतु, सहृदय पाठक को यह पता है कि युद्ध लड़ा गया। विजय और पराजय तो बाद की स्थितियाँ हैं। युद्ध लडऩा और हार जाना महत्त्वपूर्ण होता है न कि बिना युद्ध किए पलायन करना। कवि का गाँव से जाना रात के अंधेरे में मुँह छिपाकर जाना भी नहीं है। जड़-चेतन, खेत-खलिहान आदि सभी उसकी स्थिति से वाकिफ हैं। उसकी गहरी संबद्धता देखी जा सकती है-

 

''खेत चुप हैं खामोश फसल..

धरती से आसमान तक तना है मौन भीतर के मौन..

हांक लगा रहे हैं मेरे पुरखे.... मेरे पितर .....

उन्हें मिल गई है मेरी पराजय

मेरे गांव से जाने की खबर’’ (जिबह वेला, पृ. 18)

कवि का गाँव से जाने का आशय यह भी है कि वह पुन: गाँव में आना चाहता है। एक कविता है भी कवि की जिसका शीर्षक है 'मैं गाँव आऊँगा।इस कविता में भी तमाम अप्रत्याशित स्थितियाँ के बावजूद गाँव के प्रति कवि का मनोभाव स्पष्ट है। उसकी दृष्टि में सामाजिकता और सामूहिकता का दूसरा नाम गाँव है। रक्षा-बंधन के अवसर पर भले ही बहनें राखी न भेजें लेकिन संबंधों की ऊष्मा अब भी जीवित है। इसलिए, होली हो या दीपावली अथवा कोई अन्य त्योहार कवि शहरी तथा महानगरीय जीवन यंत्रणा को पीछे धकेलते हुए अनायास लिखता है - 'हम गाँव जाएंगे। गाँव के संदर्भ में 'मैंसे 'हमकी यात्रा कवि-दृष्टि का परिचायक है।

ग्रामीण-जीवन में कृषि-संस्कृति का विशेष महत्व है। निलय उपाध्याय ने अभाव-असुविधाओं, समस्याओं तथा ऋणग्रसित किसानों के मार्मिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। किसान को अपनी खेती पर गर्व होता है। खेती के नाम पर भले ही वह नि:स्व बन जाए, पूरी तरह से लुट जाये लेकिन, किसान बने रहने में वह अपना सम्मान समझता है। शहरी चकाचौंध से आकर्षित होकर अथवा किसान विरोधी सरकारी नीतियों के चलते कोई किसान मजदूर बनने के लिए विवश हो जाता है तो उसकी असहनीय पीड़ा कवि महसूस करते हुए लिखता है कि अपने दरवाजे पर धंसा खूंटा उखाड़कर, नाद तोड़कर अपने आत्मीय बैल बेचता है और महाजन का कर्ज चुकाता है। इतना ही नहीं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों तथा संपूर्ण प्रकृति से अपने रागात्मक संबंधों से अप्रभावित होकर यंत्रवत् जीवन बिताने को मजबूर हो जाता है। उसकी जीवन यंत्रणा को मूर्त करते हुए निलय लिखते हैं-

 

''कान परवह कसकर लपेटता है गुलबंद

फेफड़े की पूरी ताकत से मारता है पैंडल,

समय से पहले पहुँचता है और जीवन का मोल देकर

छुपा लेना चाहता है यह राज कि डूब गई है.. सदियों से खेती के तट पर

बंधी उसकी नाव’’   (वही, पृ. 13)

 

गाँव में अपनी रोजी कमाने में असमर्थ किसान को देखकर उसके खेत बिसूरने लगते हैं उसका हँसुआ, खुर्पी, कुदाल आदि उससे छूट जाते हैं। खेती से बेदखल होने पर उससे उसका अस्तित्व समाप्त होने को है। पेट की ज्वाला के चलते वह महानगरों की झोपड़ और कीचड़ भरी पट्टी में पहुंचा दिया जाता है। इस प्रक्रम में उसकी बेदखली केवल शारीरिक नहीं होती बल्कि मानसिक होती है। कवि के शब्दों में-

 

''बरगद की छांव के मेरे दिन गए

नदी की धार के मेरे दिन गए

मां के आंचल सी छांव और दुलार के मेरे दिन गए

सरसों के फूलों और तारों से भरा आसमान

मेरा नहीं रहा’’       (वही, पृ. 15)

 

पिछले बीस वर्षों में तीन लाख से भी अधिक किसानों की आत्महत्या भयानक कृषि संकट का भी द्योतक है। कवि की गाँव और किसान संबंधी कविताओं से गुज़र कर कवि की चिंता एवं किसानों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय मिल जाता है। साथ ही, मेहनतकश किसानों की संघर्षशीलता भी उनकी कविताओं में चित्रित होती है।

 

                                                                              (चार)

 

साहित्य तथा संस्कृति को प्रकृति से भिन्न नहीं किया जा सकता है। प्रकृति के बिना जीवन भी निराधार है। पिछले कई दशकों से पर्यावरण संकट गहराता जा रहा है। इस संकट ने निलय जितना रु-ब-रू हैं उतना ही उनका कवि भी संवेदनशील तथा जागरूक है। नदी, वृक्ष, आकाश, पृथ्वी, समुद्र, धरती आदि पर कवि की रचनाएँ पाई जाती हैं। कहा जाना चाहिए कि कवि की प्रकृति और पर्यावरणीय चिंता उसके समकाल की अनुवर्ती है। स्वस्थ एवं संतुलित पर्यावरण के बिना मानव जीवन संकटाकीर्ण हो उठेगा - ऐसा कवि का मानना है। प्रकृति और मानवीय संबंधों से नई ऊर्जा अन्वेषित करती हैं इस कवि की कविताएँ। यह अलग बात है कि मशीनी सभ्यता ने मनुष्य को प्रकृति तथा स्वस्थ पर्यावरण से दूर धकेलने का लगातार प्रयास जारी रखा है। मनुष्य को प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। इससे पर्यावरण एवं मानव-जीवन के सहज संबंध बाधित हो रहे हैं। प्रकृति के विनाश से नगर सभ्यता की विभीषिकाएँ सामने आ रही हैं। प्रकृति पर मनुष्य के एकाधिकार भाव ने वीभत्स वातावरण सृजित किया है। विषाक्त वातावरण में पल रही मानव जाति के समक्ष संकट के बादल गहराते जा रहे हैं। अत: यह कवि न केवल अपनी कविता की दुनिया में बल्कि निजी जीवन में भी पर्यावरणीय सचेतनशीलता को उजागर करता दिखाई देता है। कवि को पता है कि लहलहाती हरी-भरी प्रकृति और प्रदूषणमुक्त नदियों के बगैर जीवन में शांति एवं समृद्धि नहीं मिल सकती। पर्यावरण संकट की चिंता में मग्न कवि पर्यावरण के विनाशकारी तत्वों से कहता है - ''सुनो / तुम्हारे शहर में पानी कहाँ से आता है / जिस हवा में साँस लेते हो वो कैसी है / तुम्हारा घर हवादार है / अरे भाई, / उन तरंगों को भाषा से पहचानो / जो तुम्हारे शरीर से होकर गुजर रही है / और तुम बेखबर हो।’’ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ने जल, जंगल, जमीन, नदी, पहाड़, खेत-खलिहान आदि को बुरी तरह से प्रभावित किया है। पशु-पक्षियों की विलुप्त प्रजातियाँ पर्यावरणविदों के लिए गहरी चिंता का विषय है। पर्यावरण के निरंतर प्रदूषण से न जाने कितने पेड़-पौधे, पशु-पक्षी विलुप्ति के कगार पर होंगे। इसलिए, कवि एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में अपने सभी कविता संग्रहों में अपनी पर्यावरणीय चिंता और चेतना को उजागर करता है। पर्यावरण असंतुलन से उत्पन्न स्थितियों का संकेत करते हुए कवि ने लिखा है - ''पेड़ नंगे हो चुके हैं / जंगल उजाड़... / इस साल भी / परती ही रहेंगे खेत’’ (वही, पृ. 27) खेत परती रहे तो मनुष्य, सियार, नीलगाय, हिरण तथा तमाम तरह के पक्षी, जीव-जंतु की दुखद स्थिति का अनुमान किया जा सकता है। अस्मिता का संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। प्रकृति का दोहन जारी रहा तो वह समय दूर नहीं जब ये सारे जीव-जंतु अजायब घर में ही प्रदर्शित होंगे। निलय उपाध्याय की प्रकृति और पर्यावरण संबंधी कविताओं से गुजऱ कर यह कहा जा सकता है कि प्रकृति को बचाना और पर्यावरण का संरक्षण करना इस कवि की बड़ी चिंता है। धरती संकट में हो तो हम सभी संकटाग्रस्त रहेंगे। अत: डालियाँ कटने का दर्द समझें, नदी का नाले में तब्दील होने का कष्ट महसूस करें। पक्षी तथा वनस्पतियों की प्रजातियों को विलुप्ति से बचाने का प्रयास करें। इस कवि का 'अभियानउपर्युक्त सपनों को पूरा करने की खातिर जारी है।

 

                                                                            (पाँच)

 

कविता में लोक मौजूद हो यानी उसकी अभिव्यक्ति हो तो कविता दीर्घजीवी होती है। जो कवि लोक में जीता है, रचता-बसता है और तत्पश्यात् उस लोक को कविता में उतारता है। उसकी कविता एक लंबे अरसे तक पाठक समाज में आदर प्राप्त करती रहती है। लोक-संदर्भों को अपने समकाल के संदर्भों में विनियोग करने की कला बहुत कम कवियों के पास होती है। यहाँ उल्लेख करना अनुचित न होगा कि निलय ने भोजपुर, बनारस, मुंबई के लोकानुभवों का खूब उपयोग किया है। इन अंचलों की खांटी आंचलिक संवेदना को अपने समय और समाज को सही मायने में जानने-समझने का आधार बनाया है। स्थानीयता को महत्व देते हुए उसके वैश्विक महत्व को रेखांकित भी किया है।

कवि ने अपने परिवेश के भूगोल को जीवित करने के साथ-साथ लोक-जीवन को भी उकेरा है। ऐसे दर्जनों शब्दों से निलय उपाध्याय के पाठक रू-ब-रू होते हैं जो लोक से कविता में घुले-मिले पाये जाते हैं। लोक में जीवन धारण करते हुए, उससे अभिन्न रूप से जुड़ते हुए जो लोकधर्मिता प्रस्तुत होती है, उसमें सौंदर्य ओतप्रोत होता है। कवि अपने लोक का सृजन अपनी धरती, अपनी जड़ और अपने समय से प्रगाढ़ रूप से सम्बद्ध होकर करता है। उसकी लोक चेतना उसे अपने समकालीन कवियों से विशेष स्थान प्रदान करती है। 'रधिया का भाईशीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती हैं -

 

''पूछेगी गाँव के आम पर

कैसे मंजर आए हैं इस साल

भाभी की आँखों में कितना पानी बचा है

रधिया के लिए’’    (अकेला घर हुसैन का)

 

उल्लेख किया जा चुका है कि निलय का कवि कोरे आदर्श में विश्वास नही करता है। वह बदलते समय में हो रहे बदलावों को भी रेखांकित करता है। माँ और दादी छठ के मौके पर कैसेट के बिना घाट तो चली जाती हैं लेकिन भाभी और बहनों के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है। भाभी घाट पर न गई। बहनों ने घाट पहुँचकर भी गाने से इनकार कर दिया। हमारे लोक पर भी बाज़ार का कब्जा होने लगा है। बहुत कुछ बदलता जा रहा है। सब कुछ जाने कहाँ खोते चले जा रहे हैं -

 

''व्रत और उपासना में प्रवेश कर रही हैं ढेर सारी चीजें

बदल रहा है जीव, मनौतियों से तीव्र हो कर टहल रही हैं अराजकताएँ

आखिर यह कैसे सोच लेता मैं कि इतना जरूरी हो जाएगा यह कैसेट

और तीन दिनों का निर्जला व्रत रखने वाली मेरी भाभी

नहीं जाएंगी घाट पर’’    (कटौती, पृ. 12)

 

कवि की तीव्र इच्छा है कि आने वाली पीढ़ी लोक से जुड़े। उसकी चिंता है कि जामुन के छाल सी स्याही उसके बच्चों के जीवन में अथवा उनकी रगों में नहीं दौड़ती है। बबूल के लासे सा किसी गोंद से वे अपरिचित हैं। दरअसल, अपने लोक से अनभिज्ञ होने का आशय है पूरी तरह उखड़ जाना है। लोक ही वह अस्त्र है जिसके सहारे बाजार और उपभोक्ता समय से जूझा जा सकता है। यह नई पीढ़ी है कि परजीवी बनती जा रही है। लोक से जुडऩे के प्रबल आग्रह को निम्नलिखित कवितांश में देखा जा सकता है -

 

''पृथ्वी के वैभव से अलग हो रहे हैं मेरे बच्चे

सृजन से अलग हो रहे हैं मेरे बच्चे

अपनी जरूरतों का कुछ भी नहीं रचते मेरे बच्चे

गुल्ली और डंडा भी नहीं’’   (वही, पृ. 14)

 

इस संदर्भ में 'जड़ों की ओरकविता का भी विशेष महत्व है। इस कविता में कवि की दृष्टि अत्यंत स्पष्ट है कि अपनी जड़ों की ओर लौटने का अर्थ अतीत जीवी होना नहीं है बल्कि अराजक हिंसा, क्रूर व्यवस्था का सामना करने के लिए ऊर्जा संग्रहण है। किसी धनुष की प्रत्यंचा की तरह, जरा पीछे खींचकर आगे छूटने को सन्नद्ध होने की तरह एक ठोस प्रयास है जड़ों में लौटना, यह मध्यकालीन व्यामोह में फंसना कदापि नहीं है।

 

                                                                              (छ:)

 

निलय उपाध्याय की कविताओं में राजनीतिक प्रश्न, राजनीति संबंधी सोच-समझ और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति आग्रह उद्घाटित हुए हैं। भ्रष्टाचार, अवसरवादिता, स्वार्थपरता आदि से व्यथित समाज की दुर्गति के लिए वे मंत्री, विधायक, राजनेता, उद्योगपति तथा अफसरों की साजिशों को भी उजागर करना नहीं भुलाते हैं। सफेदपोश राजनेताओं की चालाकियों को कवि ने बड़ी बेबाक ढंग से प्रस्तुत किया है। जनतंत्र को मजाक बनाकर छोड़ा गया है। मतदान तमासा बनकर रह गया है। चुनाव लडऩा और उसमें विजयी होना जाति, धर्म, धन आदि पर निर्भर करता है। 'विजय रथ.....’  जैसी कविताएँ कवि की राजनीतिक सचेतनशीलता को पुष्ट करती हैं।

कवि ने राजनीति का अत्यंत घृणित चेहरा 'सूचना तंत्रशीर्षक कविता में उकेरा है। देश की सुरक्षा के लिए समर्पित सैनिक की मृत्यु को भी राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना घोर अमानवीयता है। उसकी मृत्यु के मूल कारण या सचाई को बिना बताए अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए तत्पर रहनेवाली व्यवस्था का पर्दाफाश किया है -

 

''एक युद्ध मनोरंजन में तब्दील होकर

अलग हो जायेगा अपनी विभीषिका

अपने भय

और अपनी राजनीति से’’     (जिबह बेला, पृ. 117)

 

कवि ने विज्ञान, बाज़ार आदि से भी व्यवस्था के चक्रव्यूह से उत्पन्न विभिषिकाओं से सचेत कराने का प्रयास किया है। औपनिवेशिक कालीन चरित्र स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों बाद भी मुखौटा लगाए बैठे हैं। कवि ने व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा भी है - ''व्यवस्था के दर्शन से अक्सर बाहर निकल जाता है जीवन, जीवन से बाहर निकल जाती है व्यवस्था।’’ यह व्यवस्था बेरोजगारी की फौज खड़ी कर रही है। असमय ही युवकों को बाद्र्धक्य दशा में धकेल रही है। अमीर को अधिक अमीर और गरीब को घोर दरिद्र बनाने में इस व्यवस्था की बड़ी भूमिका है। राजसत्ता तथा राजनेताओं पर व्यंग्य करते हुए कवि ने व्यक्त किया है -

 

''तेरी एक दिन की यात्रा के लिए

बरसों चबायेंगे हम

लोहे का चना

मंत्री जी मेरे गाँव आना।’’     (अकेला घर हुसैन का, पृ. 12)

 

चुनाव के प्रत्याशियों को भली-भाँति मालूम है कि देश की जनता को कैसे लुभाया जा सकता है। मतदाताओं को भरमाने और भटकाने की कला में भी वे निपुण होते हैं। निलय उपाध्याय ने राजनेताओं के छद्म को न तो अनदेखा किया है और न ही उसे उकेरने में किसी तरह का कोई संकोच किया है। दरअसल कवि की जनपक्षधरता ने सामाजिक तथा आर्धिक विकास के बाधक तत्वों को बड़ी शिद्दत के साथ जन के समक्ष प्रस्तुत किया है।

                                                                           

                                                                              (सात)

 

निलय उपाध्याय के अद्यतन कविता-संग्रह 'मुंबई की लोकलमें कवि के अनुभव संसार की सुंदर अभिव्यक्ति है। इस संग्रह की कविताएँ मुंबई की 'लाइफ लाइनमुंबई की लोकल के विभिन्न चित्र यथासंभव नये दृष्टिकोण से अंकित हुए हैं। ये चित्र अलग-अलग होते हुए भी एक सुंदर कोलाज निर्मित करते हैं। मुंबई की लोकल की कठिन यात्रा, रोमांचक यात्रा, उत्साह से भरपूर यात्रा, आदि के शब्द-चित्रों के साथ यात्रियों की अपार जिजीविषा और संघर्षशीलता को भी मूर्त किया गया। मुंबई की लोकल से मुंबई के निवासियों की गहरी आत्मीयता है। लोहे की बनी लोकल ट्रेन को कवि ने अपनी सामथ्र्य से एक जीवंत चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है। बड़ी तेजी से बदलते समय, भारतीय समाज, संस्कृति के साथ-साथ आर्थिक, सांस्कृतिक तथा वैश्विक संदर्भों को भी इस संग्रह में उजागर किया गया है।

'मुंबई की लोकलमें यात्रियों को उनके गंतव्य स्थल तक पहुँचाने भर का चित्रण नहीं है बल्कि इसमें लाखों यात्रियों की जीवन-साधना का भी अंकन हुआ है। मुंबई की लोकल केवल यात्रा संपन्न नहीं कराती, यह यात्रियों के सपनों को भी पूरा करती है।

लोकल ट्रेन के बहाने महानगर तथा देश के जन-जीवन को चित्रित करने का चुनौतीभरा काम निलय के कवि ने सफलतापूर्वक पूरा किया है। मुंबई के वैचित्र्य उसके निरालेपन, देश के विभिन्न प्रांतों से आकर मुंबईकर बन जाने वाले लोगों को समझ लिया जाए तो समय को भी समझा जा सकता है। कवि ने मुंबई की मेल से अपने रिश्ते के बारे में लिखा है - ''अपने गाँव में मिट्टी थी, यहाँ पत्थर पर उगना था यहाँ जीवन के अथक संघर्ष में, चढ़ाव और उतार में मेरा मुंबई की जिन चीजों से रिश्ता बना, मुंबई की लोकल अनमोल थी, बेमिसाल थी। मुंबई की लोकल के साथ एक अनोखा रिश्ता हर उस मुंबईवासी का है जो जीवन की जंग में शरीक है और अभी असफल है। जन्म के बाद जैसे माँ का दूध पिए बिना जैसे कोई जवान नहीं हो सकता ठीक वैसे ही मुंबई में लोकल के बगैर किसी की जीवन-यात्रा पूरी नहीं हो सकती।’’ (दो शब्द, पृ. 7)

मुंबई यथार्थ का वह ठोस पत्थर है जो सुहागरात भी नहीं मनाने देती है तो मुंबई की लोकल में पड़े शव के दाह-कर्म के लिए तत्परता से आगे बढ़ते हैं। 'सबकी अपनी लोकलकी कुछ रोचक पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं - ''मुंबई में/ हर आदमी के पास लोहे की / एक पटरी होती है / और एक लोकल / सवार होती है / आकांक्षाएं / स्वप्न / और अनगिनत चुनौतियाँ / जो ले जाती हैं उसे’’ (पृ. 52)

कवि की नारी दृष्टि पर प्रकाश डालने के लिए 'मुंबई लोकल की औरतेंकविता पर्याप्त प्रतीत होती है। मुंबई लोकल की औरतें गम नहीं खातीं। गुस्सा आए तो नाक में दम कर देती हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए पति की अनुमति आवश्यक नहीं समझती हैं। इन्हें देखकर मुंबई की लोकल कामना करती है-

''इन लड़कियों को ले जाकर छिड़क देती

बीज की तरह

गाँव-गाँव शहर-शहर पूरे देश में

खत्म हो जाती औरतों की याचना

समानता

और स्वतंत्रता की’’    (पृ. 14)

इस संदर्भ में 'अकेला घर हुसैन कासंग्रह की 'औरतें रो रही थीऔर 'माँशीर्षक कविताओं का पाठ हो तो कवि की नारी दृष्टि की गहराई और व्याप्ति समझी जा सकती है।

 

                                                                           (आठ)

 

निलय उपाध्याय वैविध्य के कवि हैं। उनके रचना-संसार में गाँव से लेकर महानगर के चित्र अंकित हैं। इनकी कविताएँ 'लोकलहैं और 'ग्लोबलभी। हाशिए के समाज के पक्षधर कवि की राजनीतिक सजगता है। यह कवि निजता का नहीं सार्वभौमिकता का है। इसकी कविताएँ लोकधर्मी भी हैं। आज के दौर में कविता में लोकधर्मिता का बड़ा अभाव परिलक्षित होता है। कविता के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है जिनमें भले सब कुछ हो लेकिन 'कविताके गुण नहीं हैं।

यहाँ न किसान की उपेक्षा है और न श्रमिक की। सर्वहारा के जीवन-चित्र अंकित हुए हैं और पूँजीपति का शोषणतंत्र भी। संघर्ष एवं जिजीविषा इसके कवि-कर्म के प्राणतत्व हैं। यह कवि हर हाल में उम्मीद बनाए रखता है। विपरीत स्थिति में भी कवि खोज लेता है -

 

''जिन्होंने खुशी नहीं देखी

जिन्हें नींद नहीं आई

हवा

उनके घरों से भी गंध ले आई है

चावल सीझने की’’     (अकेला घर हुसैन का)

 

उसे पूर्णतया विश्वास है कि फिर से यह धरती 'सुजलां सुफलां मलयज शीतलांहोगी-

 

''थम जाएगा यह शोर

बज उठेंगे चोंच में चीनी लेकर चींटी के पांव

और चूल्हे पर फूलती रोटी की तरह फूट जाएगी

हम सबकी खामोशी

एक बार फिर रची जाएगी यह दुनिया

एक बार फिर गोल होगी यह पृथ्वी’’   (कटौती, पृ. 20)

 

(यह आलेख प्रस्तुत करने के लिए निलय उपाध्याय के चार कविता-संग्रहों –'अकेला घर हुसैन का’, 'कटौती’, 'जिबह वेला’, 'मुंबई की लोकलके अलावा सोशल मीडिया में उपलब्ध कविताओं को  भी आधार बनाया गया है।)

 

 

 

 

 

 

संपर्क - 2-एफ, धर्मतल्ला रोड, कस्बा, कोलकाता-700042, मो. 9434884339

 

 

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