सभ्यता के छद्म को भेदती कथा-दृष्टि
समीक्षा सिरीज/तीन
भय की अनगिनत छायाओं से घिरी होकर भी नियति के साथ समझौता न करने वाली स्त्रियाँ अल्पना की कथा-यात्रा का पाथेय बनती हैं । समय के विकट आँवों में तपाकर वह संघर्ष-कथा का ऐसा शिल्प विकसित करती हैं जो मन की अनंत गहराइयों में ही नहीं धंसता; 'सभ्यता के भीतर के छद्म’ को भी भेद डालता है। 'यातना के महिमामंडन’ के नकार से उपजी इस कथा-दृष्टि में हजारों वर्षों की क्रूर परम्परा की वैधता का अस्वीकार है -''मैं यातना को महिमामंडित करके नहीं देख सकती जबकि साफ़ देख रही हूँ कि अब भी स्त्रियाँ यातना को महिमामंडित करके जी रही हैं। इस यातना को वो अपनी नियति मान रही हैं... क्या यह उनकी नियति है या गुलामी? इसे समझने और समझाने के लिए फिर उसी सामाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ स्त्री की दिमागी कंडीशनिंग को देखना जरूरी है। यह दिखती हुई गुलामी नहीं है। आत्मा की गुलामी है। ऐसी बड़ी और बारीक गुलामी, जिसे गुलाम ही न समझे।’’ अल्पना मिश्र की इस अनुभवमूलक स्थापना को समझने के लिए हमें अपने पास की दुनियाँ को बहुत धीरज से देखना होगा क्योंकि बहुत दूर तक देखने के चक्कर में अपने आसपास की दुनियाँ अक्सर अनदेखी रह जाती है। एक - पितृसत्ता के अभ्यारण्य में लहूलुहान समय के निशान अल्पना की कहानियाँ स्त्री को गरिमाहीन करने की कोशिशों के खिलाफ एक अभियान की तरह आगे बढ़ती हैं। इस अभियान में आपको तनी हुई मुठ्ठियाँ भले न दिखें, टूटने और बिखरने के बावजूद आगे बढ़ती हुई स्त्रियाँ जरूर दिखेंगी। भारतीय सामाजिक-पारिवारिक ढांचे की निर्मिति सदियों से इतनी विभेदकारी रही है कि उसमें स्त्री का स्वत्व लहूलुहान हो जाता है। चाही-अनचाही या जबरन लाद दी गयी नैतिक-सामाजिक वर्जनाओं को ढोते-ढोते उनके मन में पलते भविष्य के स्वप्न विद्रूपित होते जाते हैं। ये कहानियाँ जीवन के ऐसे बीहड़ में चलती हैं जहाँ 'रिश्तों के निर्मम यथार्थ’ परत-दर-परत खुलते चले जाते हैं। खुद की कमजोरियों से मुठभेड़ करती ये स्त्रियाँ सांस्कृतिक प्रश्नों को इस तरह उठाती हैं कि उससे दमनकारी सभ्यता की पूरी प्रक्रिया स्पष्ट होने लगती है। इन जीवन-कथाओं में टकराहटों, सहमतियों-असहमतियों आदि को खुरचते-परखते हुए स्त्री मुक्ति की आहटें साफ सुनी जा सकती हैं पर उन 'जगतगुरुओं’ का क्या किया जाए जो भेडिय़ों की तरह इधर-उधर घात लगाये घूम रहे हैं और इस मुक्ति में सबसे बड़े अवरोधक बने हैं। ऐसे जगतगुरुओं से उनकी पत्नियाँ किस तरह तालमेल बिठाती होंगी यह सोचते हुए माथे पर बहुत बल पड़ता है। कहने को अरुंधति, जगत की पत्नी जरूर हैं पर जगत के लिए वह एक शरीर से ज्यादा कुछ नहीं। जगत की अहमवादी आश्वस्ति कि 'पत्नी आखिर कहाँ जाएगी’, आम भारतीय पुरुष की आश्वस्ति में रूपांतरित हो जाती है। क्या पीछे-पीछे चलना ही अरुंधतियों की नियति है ? स्त्री के भीतर यह समझ कूट-कूट कर भरी गयी है कि उसके पति ही उसके 'जगतगुरु’ हैं। लेकिन दुर्भाग्य कि इन जगतगुरुओं के लिए अरुंधति जैसी पत्नियाँ 'गँवार द ग्रेट’ से ज्यादा कुछ नहीं हैं। बचपन से लेकर अब तक अरुंधति ने जो देखा है और देख रही है उसका अंत कब होगा...? उसके जीवन में बदलाव की पगडंडियाँ जाने कहाँ से खुलेंगी? इस 'कथा के गैर जरूरी प्रदेश में’ पीड़ा की कई कडिय़ाँ हैं जो अरुंधति के जीवन से लेकर कक्षा पांच में पढऩे वाली लड़की की माँ (जो कभी नूतन थीं) और मीनाक्षी शर्मा के जीवन तक जुड़ी हैं। इन पात्रों में दु:ख और पीड़ा के तंतु आपस में इतने घुले-मिले हैं कि उन्हें अलगाना कई बार मुश्किल हो जाता है। इन स्त्रियों के भीतर दु:ख है , अफ़सोस है, चिढ़ और घृणा है और इससे मिले-जुले वह सारे भाव जिनके लिए शायद कोई शब्द पर्याप्त नहीं। ये अपनी पीड़ा किससे बाँटें? विडंबना तो देखिए कि मीनाक्षी शर्मा अपनी व्यथा को एक ऐसी स्त्री से बाँट रही है जिसकी आवाज को जाने कब का घोंट दिया गया है। दूसरी ओर नूतन हैं जो कभी 'नूतन की तरह’ दिखतीं थीं। पति के साथ जाते हुए एक दिन किसी मनचले ने कह क्या दिया कि 'रिक्शे में नूतन जा रही हैं’, उनका का घर से बाहर जाना कम होते-होते 'नहीं’ पर अटक गया। एक ओर है पितृसत्ता का धूर्त चेहरा जगतगुरु तो दूसरी ओर है नूतन का 'कुंठित’ पति। हिन्दुस्तान में 'जाने कितने कुंठित पतियों’ में यह बीमारी गहरे तक बैठी है कि उनके शादी करने से ही उनकी स्त्रियों का उद्धार हुआ है। अगर उन्होंने स्त्रियों का उद्धार न किया होता तो शायद वो किसी लूले-लंगड़े को ब्याह दी गयी होतीं और 'दिन-रात चीथड़े सीते हुए कथरी बनाती मिलतीं’। नूतन के पति महोदय की महानता है कि वह उसे गू-मूत साफ़ करने वाली नहीं बनाते। अल्पना पितृसत्ताओं की इस 'कुंठित बिरादरी’ को नंगा करती चलती हैं और सवाल करती हैं कि क्या ऐसे ही कुंठित मर्दों के साथ खूंटे में बाँध देने की रवायत को 'एक सूत्र’ में बंधना कहते हैं? 'बेतरतीब’ कहानी में पति-पत्नी के संबंधों का पूरा परिसर ही 'बेतरतीब’ है। घर की देहरी के भीतर की घुटन को समझने की उम्मीद भगवतशरण सरीखे मर्दों से करना बेकार है। घुटनों में गठिया, आँखों में मोतियाबिंद पर तब भी सब कुछ ढोना रत्नाशरण जी के हिस्से में है। फिर भी भगवतशरण के लिए रत्ना 'जांगर चुराने वाली’ औरत हैं। वाकई! इन महान पतियों ने तो कभी जांगर चुराया ही नहीं! इस बिरादरी ने तो बच्चों की जिम्मेदारी दूसरों के घर छुछुआकर, घर-दुआर की साफ़-सफाई की जिम्मेदारी बगल वालों के यहाँ कुर्सी तोड़कर पूरी की है और जीवनसाथी की जिम्मेदारी? इसे तो भगवतशरण टाइप के मरदों ने जिस तरह निबाहा है उसे रत्नाशरण जैसी औरतें ही जानती हैं। आस-पास मुंह मारते तो सुना था उन्होंने पर उस दिन तो हद ही हो गयी थी और भगवतशरण को काढ़ फेंका था अपने भीतर से हमेशा के लिए रत्ना जी ने। विश्वास के इस टूटने से कई जोड़ा आँखे छूट गयीं थी उस दिन। गुरूघंटाल 'भगवतशरण’ और 'जगत गुरु’ के समानांतर 'रत्नाशरण’ और 'अरुंधति’ के व्यक्तित्वों को रखकर हम इस 'महान पितृसत्तात्मक परंपरा के सूत्र’ खोज सकते हैं। अल्पना प्रश्न करती हैं - ''मैं हैरान हूँ कि इस दुनिया में क्या किसी औरत के हिस्से बहुत खूबसूरत कुछ है भी? है, तो कहाँ हैं? मुझे कोई उन औरतों से मिलवा दे। मुझे कोई उन पुरुषों से मिलवा दे, जो एक सुन्दर दुनिया बनाने में हमारा साथ देने को तैयार होंगें। कहाँ हैं वे सारे? वे सारे अच्छे लोग जो स्त्रियों को समझने की कोशिश करते हों, उनके लिए स्पेस देते हों,जो उनके साथ मनुष्य का व्यवहार करते हों..’’ (चीन्हा अचीन्हा (कहानी),स्याही में सुर्खाब के पंख, पृष्ठ 173) 'मुक्तिप्रसंग’ कहानी में नैरेटर के पति 'डॉक्टर साहब’ और 'नीड़’ कहानी के 'तीरंदाज’ डॉक्टर साहब उर्फ़ पति महोदय के माध्यम से पुरुष सत्ता की अहंकारी प्रवृत्तियों की नोटिस ली जानी चाहिए। इन साहबों की पसंदगी-नापसंदगी में 'स्त्री का हस्तक्षेप अस्वीकार्य है’। इन तीरंदाजों की परंपरा इतने गहरे तक बजबजा गयी है कि इसके कारण भारत पूरी दुनिया में लिंगानुपात की असमानता, स्त्री साक्षरता की निम्न दर, जीवन प्रत्याशा की दयनीय दशा, स्त्री स्वास्थ्य की चिंताजनक स्थिति, दहेज़-प्रताडऩा और भ्रूण हत्याओं की नर्सरी के रूप में विख्यात हो गया है। ये ऐसा महान (?) समाज है जहाँ रात की बात तो दूर दिन में भी औरतें बाहर निकलने में अपने को असुरक्षित महसूस करती हैं। इतनी बेशर्मी और गिरावट के बावजूद भी भारतीय परिवारों की 'नाक’ इतनी बड़ी और ऊंची क्यों है? और जाने क्यों इसके कट जाने का खतरा हमेशा मंडराता रहता है! सभ्यता समीक्षा करती अल्पना पितृसत्ता की विफलताओं को हमारे समकाल के ज्वलंत सवालों के साथ नाथ देती हैं। दो - कैद जंजीरें और मुक्ति के प्रश्न परिवार-समाज और देश की उपलब्धियों की जितनी भी इबारतें लिखी गयीं उनमें स्त्री-योगदान के अक्षर लगभग नदारद हैं। स्त्री-योगदान की बेदखली समाज में इतने स्तरों पर घटित हुई है कि इसका अंदाजा इतनी आसानी से नहीं लगाया जा सकता। इस बेदखली की बुनियाद भारतीय पारिवारिक ढाँचे के भीतर गहरे तक गड़ी है जिसमें स्त्री के योगदान को दोयम दर्जे का ठहरा दिया जाता है। विवाह स्त्री-शोषण और दमन की प्रयोगशाला है जिसे 'उनकी व्यस्तता’, 'बेतरतीब’, 'भीतर का वक्त’, 'कथा के गैर जरूरी प्रदेश में’, 'इन दिनों’, 'नीड़’ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। जीवन परिस्थितियों की तमाम विपरीतताओं के बावजूद अल्पना की कहानियाँ पाठक से मूल्यवान लेन-देन करती हुई उन अंतर्विरोधों को लक्षित करती हैं जिनकी मौजूदगी हर जगह है। स्त्री के भीतर का वक्त बीतकर भी नहीं बीतता क्योंकि कुछ निशान उसके साथ ताजिंदगी चलते जाते हैं। गार्हस्थ-ढाँचे के भीतर स्त्री की छटपटाहट और कसक को 'भीतर का वक्त’ कहानी जिस बारीकी से प्रस्तुत करती है उससे पूरा परिवेश उभरने लगता है। विवाह के बाद स्त्री-जीवन में उसकी निजता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता और ऐसी स्थिति में वह एक आत्महंता मन:स्थिति में जीती है। 'चुप रह गए पिता’ मजबूरीका चालाक आँखों वाली स्त्री निर्दयता का और पीली बनियान वाला लड़का प्रेम का प्रतीक हैं। प्रेम की उपस्थिति का अहसास धुंधलके में कहीं छिपा रहता है। कथा की पूरी संरचना अमूर्तन के शिल्प में ढली है। यहाँ अव्यक्त प्रेम, मातृत्व, प्रसव की पीड़ा और मातृत्व का सुख आपस में घुले-मिले हैं। तो क्या इसे अपनी नियति मानकर सब स्वीकार कर लिया जाय या इसी के बीच से कोई रास्ता निकाला जाए। देखा जाना चाहिए कि सीवन की तरह उघड़ चुके यथार्थ के बीच विकल्प की खोज में नैरेटर निकल चुकी है नियति के साथ समझौते को इनकार कर। लड़कियों की पैदाइश पर मातम मनाने वाले उत्तर भारतीय समाज में जाने ऐसे कितने परिवार हैं जिनमें पूत की कामना लड़कियों की आमद का कारण बनती है। हमारे सुदामा प्रसाद जी के घर में इसी कामना के चलते तीन लड़कियाँ आ गयीं। दो लड़कियों के बाद भी ईश्वर की कृपा होते-होते रह गयी और तीसरी भी लड़की! शैलजा उस घर की अनचाही संतान जरूर थी पर वह उन लड़कियों से अलग थी जो अपने साथ हुए अन्याय को सह लेती हैं। उसकी जिन्दादिली और धाकड़पने से सुदामा प्रसाद गर्व से भर जाते। घर में अगर लड़की थोड़ा कम लजाने-शरमाने वाली हो तो यह बात पास-पड़ोस के लोगों के लिए चटकारेदार चर्चा का विषय रहती है। 'जाने कैसे खटेगी ससुराल में’!!! टाइप की शंकाएं सर उठाने लगती हैं। आसपास की दुनिया के हवाले से लड़की का व्याह समय रहते 'निपटा’ देना चाहिए; सो शैलजा के 'निपटाने’ की बारी आ गयी। हमारी महान परम्पराएँ कितने दिन बाप के घर बेटी को टिकने देती हैं? हंसती-फुदकती और असीम जिजीविषा से भरी शैलजा को चूल्हा फूंकने और 'परिवार की गोरुआरी’ करने के लिए एक खूंटे से बाँध दिया गया। और इसी के साथ शुरू होता है प्रताडऩाओं का अंतहीन सिलसिला। मायके में प्रताडऩा के उन असह्य किस्सों को साझा करती है पर हमारी श्रेष्ठ परम्परा स्त्री को चुपचाप सह लेने की हिदायत के साथ फिर ससुराल भेज देती है। कहानी में 'सहना’ और 'विवाह’ एक दूसरे के पर्याय हो जाते हैं। लड़की को घर का भार मानते हुए उसका ब्याह करने की जो आकुलता-व्याकुलता अमूमन परिवारों में दिखाई देती है उसमें अंतत: सारी कीमत स्त्री को ही चुकानी पड़ती है। कहानी इस ओर भी इशारा करती है कि माता-पिता के संबंधों में अंतराल और पुरुष का अधिनायकवादी रवैया इन स्थितियों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। सुदामा प्रसाद की 'झूठी और खोखली व्यस्तता’ भविष्य की कई संभावनाओं को मार देती है। कहानी का अंत जिस तरह से होता है उससे हमारे समाज की विद्रूपताओं का अक्स दिखाई देने लगता है- 'ऐसी, कटी-फटी नीली-पीली देह वाली लड़की ऐसी, कैद से छूट पड़ी लड़की ऐसी, दिल्ली की सड़कों पर,कपड़ों की परवाह किए बिना भागती लड़की ऐसी, कितने शहरों के, कितनी सड़कों पर नंगी भागती पूरे हिन्दुस्तान की लडकियां कामोत्तेजना का केन्द्र हो सकती हैं? बलात्कार की शिकार? ऐसी कितनी ही लडकियां, नंगे होने को देख लिए जाने के डर से कैद से नहीं भाग पाईं।’ (उनकी व्यस्तता, प्रतिनिधि कहानियां, पृष्ठ-98-99) अपने आस-पास के व्यक्ति-समाज, मूल्य-मर्यादा की सूक्ष्म पड़ताल करती कथाकार की मर्मभेदिनी दृष्टि अचूक है। अल्पना अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों को एक साथ फेंट देती हैं। वह सामाजिक निर्मितियों की पूरी श्रृंखला को विश्लेष्य बनाती हुई उस सम्पूर्ण संरचना को अस्वीकृत करती हैं जिसमें परंपरा के झूठे आचार-विचार और मर्यादाएं हैं। अल्पना के लिए स्त्री मुक्ति का सवाल जितना सामाजिक-सांस्कृतिक है उससे कम आर्थिक-राजनीतिक नहीं। इस मुक्ति-सन्दर्भ को चंद्रकला त्रिपाठी के शब्दों में कहें तो- ''देखा जाये तो लेखकीय नजरिये का टकराव इस कारागार से है, मगर इसमें व्यवस्था विरोध की प्रचलित किस्म की मुखरता नहीं है। यहाँ प्रतिशोध की सी नवैयत वाले आशयों की हलकी जुम्बिशें हैं जो पतनशीलताओं को समूचा समझकर परिवेश और मनुष्य में बदलावों की ज्यादा गहरी और मुफीद तैयारियों का जायज़ा लेती हैं ।’’ (आलोचना-48, पृष्ठ-116) स्त्री जब घर की देहरी लांघती है तो उसे तरह-तरह की अड़चनों और रुकावटों को चीरते हुए आगे बढऩा होता है। 'जब ठान लिया कि नौकरी करनी है तो फिर जान की बाजी लगाकर’ इसमें आगे बढ़ जाना है। मर्यादाओं के अडिय़ल ढर्रों को नेस्तनाबूद करती 'मुक्तिप्रसंग’ कहानी स्त्री-संघर्ष के दृश्यों को जीवंत कर देती है। नौकरी के लिए बस में यात्रा करती नैरेटर का सामना जिन 'कमीने अधेड़ों, कुंठित बुड्ढों या फिर सेक्सियाये आदमियों’ से होता है वह हिन्दुस्तान के तमाम कस्बों, शहरों में अकेले नौकरी के लिए जाती स्त्री की हकीकत बन जाता है। 'भारतीय समाज के ये बेचारे बूढ़े बुजुर्ग’! रोज-दर-रोज इनका सामना करती स्त्री आखिर कब तक दबे! और क्यों दबे? दुनियां जहान की जलालतें-मलालतें झेलती स्त्री का यह भाषाई-लहज़ा उस कुंठा का प्रतिकार है जिससे वह चारो ओर से घिरी हुई है। उनकी कहन भंगिमा का टंच नमूना यहाँ टंगा दें - 'यह बदबू पसीने की कम और उसके मुँह में भरे तम्बाकू की ज्यादा है। यह तो ऐसे गंधा रहा है जैसे टट्टी लपेटे बैठा है।’ (मुक्तिप्रसंग, छावनी में बेघर, पृष्ठ-12) एक-एक परिवर्तन की इतनी खरी अभिव्यक्ति, उसकी बनती-चटकती आकृति का इतना पारदर्शी बोध, आदमी के टुच्चेपन और कमीनेपन का ऐसा तल्ख़ अनुभव और भाषाई प्रत्यक्षबोध कम जगह मिलेगा। अल्पना के इस कथाकार की दृष्टि जिन्दगी को पहचानने, उसकी विडंबनाओं पर उंगली रखने और समय की आहटों को जस का तस रख देने में समृद्ध हुई है। इस कथा का पूरा शिल्प बेधक व्यंग्यबोध से लबालब है। यहाँ कथ्य में जितना ठोसपन है, कहन में उतनी ही ताजगी; भाषा में जितना टटकापन है शिल्प में वैसी ही जिन्दादिली। वह लीक पीटने वाली अभिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता को संभव बनाती हैं। इस भाषा की इतनी अर्थ परतें हैं कि उससे रचना के कई अंतर्पाठ उद्घाटित होने लगते हैं। कहानी इस सवाल को बेसबब नहीं छोड़ती कि - 'जगह कोई देता नहीं, जगह लेनी पड़ती है।’ इसीलिए नैरेटर बस में मीना के लिए जगह नहीं बनातीं। उनकी दृढ़ मान्यता है कि 'व्यक्ति को अपने लिए जगह खुद बनानी चाहिए।’ खुद जगह बनाने में जो सुख मिलता है वह निहायत व्यक्तिगत होता है। इस सुख में ही 'मुक्ति’ का सन्दर्भ निहित है। स्त्रियों का आत्मनिर्भर होकर कामकाजियों की श्रेणी में आना उनके लिए दोहरी तलवार पर चलने जैसा है, किन्तु यह भी सत्य है कि स्त्री ने अपने 'स्व’ की पहचान इसी रास्ते से की है। निर्णय की दृढ़ता से ही मुक्ति का रास्ता फूटता है- 'अब वे उन्हें घर बैठने को कहें भी तो वे नहीं बैठेगीं। वह मुक्ति की सांस क्या घर बैठे मिलेगी?’ कथा की आधारभूत संरचना में विन्यस्त हैं- स्त्री-पुरुष संबंधों के अनुभव संसार जिनमें स्त्री समाज-नियंत्रित हदबंदियों को लांघकर एक नए स्वप्न के साथ आगे बढ़ती है। पति-पत्नी के प्रेम व अन्तरंग संबंधों में भी पुरुष की इच्छाओं को प्राथमिकता मिलती है। बढ़ती उम्र में डॉक्टर साहब की अजीब हरकतें उनकी पत्नी के लिए असह्य है फिर भी 'न’ कह पाने का साहस उनमें नहीं है। स्त्री निर्णयों और रुचियों में यहाँ भी कुंडली मारे बैठी है पितृसत्ता। कहानी इस पीड़ा को शब्दांकित करती है कि 'डॉक्टर साहब टाइप पतियों’ की कल्पनाओं के आगे स्त्री की कल्पनाएँ किस गह्वर में दुबक जाती हैं! स्त्री और पुरुष की शारीरिक भिन्नता और पृथक प्राथमिकताओं के कारण अधिकांशत: उन दोनों की इच्छाओं का तालमेल नहीं हो पाता। स्त्री चाहती है प्रेम, अपने साथी का सहज भाव से आलिंगन व अपनत्व भरी छुअन। रतिक्रीड़ा स्त्री के प्रेम का सर्वोच्च बिंदु अवश्य है किन्तु उसका मार्ग इतना सीधा नहीं जितना पुरुष के लिए। पुरुष के लिए प्रेम में काम की अनिवार्यता है जबकि स्त्री के लिए प्रेम की पराकाष्ठा है काम। इसीलिए स्त्रियाँ अपने पति से प्रेम की कामना पूर्ण नहीं कर पातीं और प्रेम की अतृप्ति उनके अन्दर काम का भी क्षरण कर देती है; इसके कारण पुरुष स्त्री से दैहिक संतुष्टि प्राप्त नहीं कर पाता काम के लिए असंतुष्ट बना रहता है। कहानी की इस पंक्ति से गुजर आप भी स्त्री-मन के कोनो में छिपी चाह को भांप सकते हैं कि - 'आखिर अगर प्रेम जैसा कोई अलग अहसास नहीं, तो उसकी अतृप्ति इतनी बड़ी क्यों है?’ (मुक्तिप्रसंग, छावनी में बेघर, पृष्ठ-16) तीन - शिक्षा-व्यवस्था की दुर्गति और विकास के दुष्ट मानदंड नयी सदी की कथा-यात्रा में शिक्षा व्यवस्था के जितने प्रसंग और अनुभव अल्पना मिश्र की कहानियों में मिलेंगे उतने अन्य जगह मिलने मुश्किल हैं । कई असहज सवालों से जूझती हुई ये कहानियाँ शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त गंभीर खामियों को अपना कथ्य बनाती हैं । व्यवस्था की असंवेदनशीलता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि आज भी गांवों और कस्बों में हजारों की तादाद में चलने वाले विद्यालयों में लड़कियों के लिए शौचालय तक नहीं हैं। 'सुनयना तेरे नैन बड़े बेचैन’ कहानी की इस विवशता को महसूसने की जरूरत है कि इस देश में गाँव-देहात में पढऩे वाली लड़कियां आठ-आठ घंटे तक पेशाब रोके रखना कैसे सीख जाती हैं? स्कूलों में काम करने वाली महिलाओं को लगातार अपनी ईमानदार भूमिकाओं को प्रमाणित करना पड़ता है। कई-कई शिक्षिकाएं तो इसी काम में दिन-रात जुटी रहती हैं। शिक्षा व्यवस्था में जाने कितने जगतगुरु घुसे हुए हैं जो अबोध बच्चियों को अपना शिकार बनाते हैं और उनकी कुत्सित हरकतों से बच्चियों की मानसिक शक्ति पर प्रतिगामी असर पड़ता है। टूर के लिए जा रही बस में बैठी कक्षा पाँच की बच्ची हैरान है, जगत की इस अजनबी छुअन से और इस तरह उसके भीतर एक डर स्थायी रूप से बैठ जाता है जिसकी परिणति है- उसकी स्कूल न जाने की ज़िद। सचेतता और चौकन्नेपन की जरूरत का अहसास कराती इस कथा में इस सन्देश में तबस्सुर किया जाना चाहिए कि अभिवावकों को अपने बच्चों से निरंतर आत्मीय संवाद की जरूरत होती है। हम अक्सर बच्चों की प्रतिक्रियाओं को पढऩे से बचने की प्रवृत्ति मान लेते हैं और उसमें अन्तर्निहित मनोवैज्ञानिक हरकतों की अनदेखी करते जाते हैं। जगत की सच्चाई का पर्दाफाश न हुआ होता, अगर लड़की ने सिसकते हुए अपनी माँ से यह न कहा होता कि 'मास्टरजी की पैन्ट से पेशाब की बदबू आती है।’ यह सुनकर माँ कुछ बोल न सकीं और उस पर दहाड़ते पिता सन्न रह गए। 'मिड डे मील’ शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति का हलफनामा है। इसे कहानी मानना नासमझी होगी; यह अल्पना के रचनाकार की विदग्ध व्यंग्य-क्षमता से उपजी यथार्थ-कथा है जिसमें पूरा तंत्र और पूरा समय करवटें ले रहा है। 'कीचड़’ से बने और कीचड़ से सने इस स्कूल के बारे में यह कथन चर्चित है कि-'हेडमास्टर साहब पेड़वा के नीचे सोये रहते हैं।’ पंखा कहीं नहीं है, न बरामदे में न कमरे में। लू वाली गरमी हो या बरसात वाली उमस; सरकार के बजट में पंखा नहीं आया तो नहीं आया। कम्प्लेंट करते करते शिक्षक थक-हार गए हैं और इस सच को समझ गए हैं कि- 'खर्रा लिखने से क्या होगा, बीएसए साहब के सामने सशरीर उपस्थित होने का अलग अर्थ है।’ (मिड डे मील, छावनी में बेघर, पृष्ठ-21) स्कूलों में चलाये जाने वाला मिड डे मील सरकार की उन चुनिन्दा महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक है जिसमें लूट की अपार संभावनाएं हैं। ऊपर से लेकर नीचे तक विकास की इस बहती गंगा में हाथ धोने में लोग जी-जान से जुटे हैं। खिलाए जाने वाली सामग्री का हाल देखिए (हवाले से हेडमास्टर साहब) - 'जाने कौन मेर गेहूँ आता है कि पकता ही नहीं और चीनी! ऊपर के लोग छोड़ें तब न यहाँ आये।’ (उपर्युक्त, पृष्ठ-22) विद्यालय के कुछ दृश्यों से बने एक कोलाज पर जरा नज़र इनायत करिए - हेडमास्टर साहब पतीले में दलिया बना रहे हैं। चपरासी अभी यहाँ नियुक्त नहीं हुआ है, न मेहतर है और न बर्तन मांजने वाला और हैण्ड पम्प तो जाने कब से खराब पड़ा है। इधर दलिया खदबदा रही है और दूसरी ओर बच्चों का कीड़ामार अभियान जारी है। दलिया की व्यवस्था करें कि पढाएं और वैसे भी पढ़ाने-लिखाने की किसे फिकिर है? फिकिर करके भी क्या कर लेंगे! कौन आज तक इस स्कूल में पढ़ाई-लिखाई देखने आया है? ब्रजनंदन मास्टर आदेश दे रहे हैं और शिवचरन मास्टर अखबार के टुकड़ों में नापकर दलिया डाल रहे हैं। आदेश के बावजूद बच्चों में लाइन किसी ने नहीं बनाई है और एक दूसरे के ऊपर गिर-पड़ रहे हैं। अब हेडमास्टर साहब और ब्रजनंदन तो खाते नहीं, अपना कच्चा हिस्सा ले जाते हैं। लेकिन शिवचरन के घर में कोई नहीं, जो कच्चा ले गए तो बनाना पड़ेगा। गैस-वैस का खर्चा झमेला अलग; इसलिए वो खा रहे हैं। खाने के बाद अचानक उन्हें जूठा पतीला दीखता है और उनके भीतर से एक दयनीय चीख फूटती है- 'पतिलवा के मांजी? अखबार के छोटे टुकड़े में मिली दलिया गपर-गपर खा लेने के बाद सात-आठ साल की लड़की अखबार के टुकड़े पर बने चित्र को देख रही है। चित्र में एक उड़ता हुआ खूबसूरत हैलीकाप्टर है और इधर उधर नीले रंग का सूट-टाई पहने बेहद स्मार्ट लोग खड़े हैं। उसके नीचे लिखा है- 'ए सीन फ्रॉम द मैट्रिक्स? नोट रियली, इट्स बुश’स सिक्योरिटी डिटेल।’ अगर यह अंग्रेजी की जगह हिन्दी में लिखा होता तो भी लड़की नहीं जान पाती कि यह हैलीकाप्टर और ये दुनिया की सबसे जबरदस्त सुरक्षा व्यवस्था किसके लिए,क्यों कर है? कहानी में व्यंग्य की धार और लोटपोट करने वाले शिल्प से 'रागदरबारी’ की याद आना स्वाभाविक है। 'दलिया खबान’ के कुछ मिनटों बाद ही लड़की की उल्टी से कुछ पीला पीला गिरता है और वहीं पर वह बेहोश हो जाती है। मिड डे मील खाने वाले बच्चों के सन्दर्भ में यह सर्वथा स्वीकृत हो चुका सत्य है। बहरहाल, लड़की का पिता अपनी मजूरी छोड़कर उल्टी से पस्त पड़ चुकी अपनी बेटी को लेकर सरकारी अस्पताल पहुँचता है। हमारे सरकारी अस्पतालों के सामने बरसात के दिनों में छोटे-छोटे दलदलों के दृश्य अकसर देखे जा सकते हैं जिनसे फिसलते-फिसलते बचते हुए किसी तरह जुगाड़ से अन्दर घुसने की जद्दोजहद करना आम बात है। तो अवधा भी गिरते-गिरते बचा और इमरजेंसी वार्ड में दाखिल होता है। बेटी को लादे हुए बरामदे में कुर्सीनुमा बेंच पर जैसे ही वह बैठने की कोशिश करता है तभी उसे पता चलता है वह बेंच एक पाँव से लाचार है और किनारे का सहारा लेकर जैसे-तैसे टिकाई गयी है। सरकारी अस्पतालों की नर्सों की बेरहम और कड़कड़ाती आवाज यहाँ भी गूँज रही है। इस आवाज की ताकत के चलते अवधा को इमरजेंसी वार्ड से जनरल वार्ड की ओर भागना पड़ता है। हमारे देश के कुछ सरकारी अस्पतालों को छोड़ दिया जाये तो 'थोड़ा भी कमाने-धमाने वाले लोग’ जनरल वार्ड में अपने बच्चों को भर्ती करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। पर अवधा जैसे मजदूर क्या करें? अल्पना जिस हास्य-व्यंग्य मिश्रित शैली में व्यवस्था के हालत की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं वह केवल सरकारी व्यवस्था की पंगुताओं को उजागर नहीं करता बल्कि नागरिकता के न्यूनतम बोध और भेडिय़ाधसान प्रवृत्ति को भी लक्षित करता है। जनरल वार्ड में पहुँचते ही अवधा ने देखा कि लोग ठुंसे पड़े हैं; कोई तम्बाकू ठोंक रहा है, कोई बीड़ी सुलगा रहा है; औरतें अजीब रोती जैसी आवाज में बोल रही हैं। वहाँ एक भी बेड खाली नहीं है और उलटी-दस्त की दुर्गन्ध से भरे उस वार्ड में लोग जमीन पर लेटे हुए हैं। बाथरूम का दरवाजा अकड़ जाने के कारण बंद नहीं हो पा रहा है। इस निर्मम स्थिति में अवधा को रानी (पत्नी) की याद आती है जिसे अभी तक इस घटना की जानकारी हुई भी हो या न हुई हो! रानी के बारे में सोचते हुए श्रम कानूनों, मजदूरों, गरीबों की विवशता का पुर्जा-पुर्जा खुलने लगता है। रानी का फैक्टरी का काम ही ऐसा है कि कभी-कभी उसे 12 से 16 घंटे भी लग जाते हैं। एक बार जो कामगार अन्दर गया तो अपना घंटा खत्म होने पर ही बाहर निकलेगा फिर चाहे कोई भी आपत्ति आ गयी हो। गेट पर चाहे जितनी बार सूचना दे दी जाए, अन्दर जाकर बताता कौन है! फैक्टरी का काम नहीं रुक जायेगा? कैजुअल लेबर क्या खा ले और क्या बचा ले इसीलिए रानी ने फैक्टरी में चाय तक पीनी छोड़ रखी है। अवधा के इस विवश स्वीकार्य के बीच उसके मुँह से कुछ शब्द फूटते हैं जिन्हें समझे बिना लेखकीय दृष्टि के विस्तार को नहीं थाहा जा सकता- 'जब से फैक्टरी में लगी है; लडऩा ही ख़त्म हो गया है।’ विकास की आड़ में मजदूरों के अधिकारों का गला घोंटकर जिस तरह से दुनिया भर में एमएनसीज का विकास हुआ है उसमें कामगारों की हालत बेहद दयनीय हो गयी है। रानी अपना स्वभाव भूल गयी है और लडऩे की शक्ति बचती कहाँ है! इस कारुणिक प्रसंग के बीच इस स्वर को भी सुना जा सकता है कि पूरा देश मारे गए लोगों और मुआवजे का पर्याय बन गया है। अल्पना केवल व्यवस्था की खामियों की ओर इशारा नहीं करतीं, बल्कि अपील करतीं हैं कि व्यवस्थाएं तब तक नहीं बदल सकतीं जब तक जनता खुद जागरूक और जिम्मेदार नहीं बनती। कथा में जल की बर्बादी के कई दृश्य बार-बार उभरते हैं। इस बर्बादी में क्या सरकारी विभाग और क्या जनता कोई पीछे नहीं है। महान बातों को कथा की अंतर्वस्तु में ठूंसने के बजाए वह जीवन के बेहद बुनियादी मुद्दों को उठाती हैं। समकालीन दौर में विरल है ऐसा बेधक अंदाज और संशिलष्ट शिल्प। चार- प्रेम परिवार और समाज वाया स्याही में सुर्खाब के पंख मुख्य कथा के साथ उपकथाओं का शिल्प अल्पना की कथा-स्थितियों की अनिवार्य विशेषता है। 'स्याही में सुर्खाब के पंख’ इस अनिवार्य विशेषता से उपजी कथा है। इक्कीसवीं सदी के उत्तर आधुनिक बोध की व्यथा-विसंगति और विडम्बना के ताने-बाने में बुनी एक ऐसी रचना जिसे अल्पना की कथा-यात्रा की उपलब्धि कहा जा सकता है। इसके कथानक में सोनपती बहन जी और निरुपमा दी की समानांतर कथाओं के साथ छोटी छोटी उपकथाएँ एकसाथ चलती हैं। सोनपती बहन जी 'पितृसत्ता का स्त्री चेहरा हैं’ जिसके चलते वह 'शिक्षा के सबसे जरूरी पाठ की तरह याद’ रखी जाती हैं।’ वह शिक्षा का सबसे जरूरी पाठ शायद इसलिए हैं कि उन्होंने अपनी चारों बेटियों को जिस कठोर और निर्मम नियंत्रण में रखा है वह दूसरी स्त्रियों के लिए असंभव-सा है। इसीलिए किसी भी कठोर समझाईश में वह हर माँ के लिए अचूक अस्त्र थीं और बाकी लड़कियों के लिए एक जरूरी पाठ। दरअसल जिस तरह के समाज के बीच सोनपती बहन जी रहती हैं उसमें अकेली स्त्री के भय के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है। कहानी में उनके बारे में दूसरा स्वीकृत सत्य यह है कि 'वह माचिस को साथ रखना कभी नहीं भूलती थीं; आग का अपने पास होना उनके लिए किसी सुकून की तरह था।’ पैथालाजी सेंटर वाले डॉक्टर सुनयन धीर सारस्वत की बेटी वैशाली सारस्वत का किसी लड़के के साथ भाग जाना उस कस्बेनुमा शहर के लिए एक बड़ी घटना थी। 'वैशाली सारस्वत के चड्ढा बनने के समय ही’ उन्होंने अपनी चारों लड़कियों के अनुशासन में थोड़ी कमी क्या देखी झोले से माचिस निकालकर सभी के पैरों में इस तरह दागा कि उनके किसी भी तरह बहकने के सारे संदेह मिट गए। उनका माचिस लिए रहना और बच्चियों के लिए इतना निर्मम बने रहने के मूल में सामाजिक भय है। पर क्या भावनाओं का दमन करके किसी में सुधार लाया जा सकता है? सोनपती बहन जी के इस पूरे यत्न में पितृसत्ता की मानसिक कंडीशनिंग को साफ़ देखा जा सकता है। काश! वह इस सच को स्वीकार कर लेतीं कि उनकी बेटियां जीती जागती मनुष्य हैं और उनके भीतर भी हर लड़की की तरह इच्छाओं का संसार हिलोरें मारता है; तो शायद इतनी लोमहर्षक घटना न घटी होती। जिस तरह चारों बेटियों ने एक साथ आग लगाकर...! जिस माचिस की तीली से वह उन पर अटूट नियंत्रण रखती थीं उसी माचिस की तीली से चारों ने खुद को इस दमन से सदा के लिए मुक्त कर लिया। इस कथा के साथ दूसरी कथा है निरुपमा दी की। एक बिंदास लड़की जो झूठी मर्यादाओं को ठेंगा दिखाकर प्रेम करती हैं। नैरेटर से उम्र में निरुपमा बड़ी हैं इसलिए 'दी’ का संबोधन पूरी कहानी में है। निरुपमा के बारे में जनश्रुति थी कि डॉक्टर सुनयन धीर सारस्वत के बेटे संग उनका टांका फिट है। इस मस्तमौला अंदाज की प्रेमचर्या देखने के लिए सड़कें ठहर जातीं। प्रेम का किस्सा लम्बा है और इस लम्बी दास्तान का जिस अंदाज में बखान किया गया है उससे अल्पना की कथा प्रस्तुति को नयी शक्ति मिलती है। उनके रचाव में दृश्य निर्माण की अपार क्षमता है। परवाह में बेपरवाही वाले इन दृश्यों की दाद देनी पड़ेगी। अंतत: निरुपमा दी को इस 'प्रेम में उन्हें धोखा भी मिलता है’ और 'लड़की की नियति में प्रेम के साथ अनिवार्यत: जुड़ा बदनामी का दंश भी’। जहाँ परंपरा ही इस बात को सिखाती हो कि 'भले घरों की लड़कियां प्रेम नहीं करतीं’ ऐसे में जाहिर है प्रेम करने वाली निरुपमा की गिनती आवारा लड़कियों में हुई और इस आवारापन में अपनी शोहदगी दिखाने पहुँचा नगरपालिका के चेयरमैन ठाकुर बलवान सिंह का सपूत। 'एक लड़की जो प्रेम करने की हद तक बिगड़ चुकी हो’ उसे पब्लिक प्रापर्टी मान लेने में दबंगों को कैसा संकोच। निरुपमा को भीड़ के बीच सरेआम बेज्जत करने की हहराई इच्छा पूरी न हो सकी उलटे वो पुलिस के हत्थे चढ़ गए। इस प्रकरण में हुई मारपीट, खूनखच्चर के बाद अस्पताल, पुलिस और ठाकुर की दबंगई-गुंडागर्दी की पाई-पाई का हिसाब कथाकार लेती हैं। जीवन के चारों ओर पसरी छुट्टा अराजकता और लफंगई के ये दृश्य हर शहर के चौराहों, स्कूलों के सामने के दृश्य प्रतीत होने लगते हैं। व्यवस्था और समाज की क्रूर शक्तियां निरुपमा जैसी धाकड़ लड़कियों को फिर से मजा चखाने की ठान लेती हैं और फिर दबंग मंडली के साथ सरेआम सड़क पर नंगई का खेल चलता है, कपड़े फाडऩे से लेकर मांग में सिन्दूर भरने तक। सोनपती बहनजी की जीवन-कथा और उसके समानांतर निरुपमा दी की संघर्ष-कथा के बीच व्यवस्था, समाज, लोकतंत्र,प्रशासन के अनंत चेहरे भद्दे रंगों से पुते कुरूप दिखाई देते हैं। निरुपमा समाज के लिए अपच हैं तो सोनपती जी के साथ कौन सा समाज खड़ा है? कहानी इस मुद्दे पर अडिग है कि - संकट से चौतरफा घिरे होकर भी उससे बाहर निकलने की इच्छाशक्ति के साथ अपने हिस्से की लड़ाई खुद लडऩी पड़ती है। कहानी अपनी परिणति के निकट जैसे-जैसे पहुंचती जाती है उसका रूप फैंटेसी में बदलता जाता है जिसमें विवश यथार्थ और उसके बीच भविष्य का पलता स्वप्न एक साथ मिल जाते हैं। कथा के अंतिम शीर्षक को 'एक ही ख्वाब जो बार बार देखा गया’ नाम दिया गया है जिसमें कहानी अपनी असल भूमिका की ओर बढ़ती है। रेलवे स्टेशन पर लड़कियों का हुजूम धीरे-धीरे एकत्र हो रहा है। निरुपमा दी और नैरेटर खुद भी उस हुजूम का हिस्सा हैं और फिर लड़कियों के आने का तांता लग गया- 'हमने अब तक जाना ही नहीं था कि हमारे शहर में इतनी लड़कियां हैं। आज हम सब एक दूसरे को देखकर हैरान थे। इतनी लड़कियां एक साथ बोल दें तो स्टेशन हिल सकता था।’ (स्याही में सुर्खाब के पंख, पृष्ठ-44) इस बिंदु पर आकर कहानी एक व्यापक आयाम को छूती है और खुद से सवाल करती है कि -'इस दुनिया की वह कौन सी जगह थी, जहाँ सब जाना चाहते थे? कथा की अंतिम पंक्ति एक संभावना छोड़ जाती है कि 'हम किसी एक जगह पर मिलने वाले हैं।’ कौन सी है वह जगह जिसका ख्वाब बार बार देखा जाता है पर हर बार अधूरा रह जाता है? शायद ऐसी जगह तभी बन पायेगी जब स्त्रियाँ एक दूसरे के पक्ष में खड़ी होंगीं। एक दूसरे से मिलेंगी, संगठित होंगी। स्त्री मुक्ति आन्दोलन की पुरोधा के रूप में अग्रणी सिमोन द बोउवार अपनी बहुचर्चित व बहुपठित किताब 'द सेकंड सेक्स’ की भूमिका में लिखती हैं - ''स्त्रियों को तो वही मिला जो पुरुष ने इच्छा से देना चाहा। ...इसका प्रमुख कारण औरतों के पास अपने आपको एक इकाई के रूप में संगठित करने के ठोस साधनों का अभाव है। उनका न कोई अतीत है और न इतिहास, न अपना कोई धर्म है और न ही सर्वहारा की तरह ठोस क्रिया-कलापों का एक संगठित जगत। स्त्रियों के बीच सामूहिकता की भावना का अभाव है...समूह के बदले औरत अकेली और पुरुषों के बीच बिखरी हुई है।’’ (स्त्री उपेक्षिता, पृष्ठ-19 ) कहानी जीवन का यह सूत्र थमा जाती है कि 'सबसे ज़रूरी है अपने भीतर छिपी निरुपमाओं को चीन्हना।’ पांच-इक्कीसवीं सदी के सवाल और कथा की भूमिका इक्कीसवीं सदी के भूमंडलीय समय ने अगर स्त्रियों के सामने नए रास्ते निर्मित किए हैं तो नए संकट भी खड़े किए हैं; रोजगार के लिए घर से बाहर निकली स्त्री की सुरक्षा का संकट उनमें से एक है। 'मेरे हमदम मेरे दोस्त’ कहानी पति के अत्याचार से तंग आकर तलाक लेने वाली नौकरीपेशा स्त्री के आस-पास की दुनिया की निर्मम सच्चाई खोलती है। 'गैरहाजिरी में हाजिर’ भी एक नौकरीपेशा स्त्री के संघर्ष की दास्तान है जिसमें लेखकीय नजरिया इस सवाल से बराबर जूझता है कि आखिर कब तक इस तरह का असुरक्षाबोध स्त्री के भीतर बना रहेगा? स्त्री जीवन के तमाम अँधेरे कोनों को अनावृत्त करती लेखिका स्त्री चेतना में पड़े गहरे जख्मों की निशानदेही करती हैं। 'गुमशुदा’ शहरी जीवन की संवेदनहीनता और भौंडेपन को लक्ष्य करती उन प्रवृत्तियों को सामने लाती कहानी है जिसके कारण शहरी जीवन में संवेदनहीनता पसर गयी है। यह शहरी संवेदनहीनता भोलू और उसकी माँ की मानवीयता का भी गला घोंटने से पीछे नहीं हटती। 'महबूब जमाना और ज़माने में वे’ और 'पुष्पक विमान’ पूंजी के दुश्चक्र में फंसे गरीब-गुरबों पीड़ा, बाजार तंत्र का साक्षात्कार कराती ऐसी कहानियां हैं जिनमें पैसे के आगे कानून , पुलिस,न्याय व्यवस्था सब बेमानी हो जाते हैं। 'महबूब ज़माना और जमाने में वे’ वंचित और शोषित तबके के रोजीरोटी के संघर्ष को अपना उपजीव्य बनाती है। अल्पना की कहानियाँ जीवन के कई छोरों को टोहती एक ऐसी दुनियां के लिए प्रस्थान करती हैं जहां युद्ध में शहीद हो गए जवान हैं, युद्ध के लिए भेज दिए गए फौजियों के छावनी में बेघर परिवार हैं। 'छावनी में बेघर’ एक ऐसी व्यवस्था की विभीषिका को बयाँ करती है जिसके बारे में अमूमन समाज को जानकारी नहीं होती। शहीद हो चुके जवानों की पत्नियों को बांटे गए पेट्रोल पम्प से लेकर तमाम लाभ दिए जाने के मामले में जो विद्रूपित सच्चाइयाँ हैं कहानी उन्हें सामने लाने का जतन करती है। जवान के शहीद होने के बाद जिनके घरवाले दौड़ -भाग कर ले जाते हैं उन्हें तो समय पर सुविधाएं मिल जाती हैं किन्तु जिनके लिए कोई भाग-दौड़ करने वाला नहीं उनका..? सैनिक के पीछे छूट गए परिवारों की सुध लेने वाला कौन है ? रचनाधर्म और संवेदन धर्म के साहचर्य से बनी ये कहानियां अपने भीतर की गहराई में उतरकर खुद को अवलोकने और ठहरकर उसके अर्थ को सुनने-गुनने की मांग करती हैं। अल्पना मिश्र बखान से लबालब भरे गद्य और चिंतनशील कविताई के घोल से ऐसी कथा-देह रचती हैं जिसके पोर-पोर में विषम परिस्थिति से जूझने का साहस बिंधा है।
संपर्क - मो. 9457815024, बांदा
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