किरण अग्रवाल की कविताएं

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    पहल - 114
श्रेणी किरण अग्रवाल की कविताएं
संस्करण पहल - 114
लेखक का नाम किरण अग्रवाल





कविता

 

 

 

देवी

 

मासूम थे शब्द

लेकिन जिस तरकश से निकले

वह मासूम नहीं था

फ़ितरत थी उसकी

बनैले से बनैले बाणों को स्वयं में समाहित करने की

बिद्ध हुईं सम्वेदनाएँ/सम्प्रभुताएँ/परम्पराएँ

 

मासूम थे शब्द

जैसे बिल्ली का कोई मासूम बच्चा

जैसे किसी स्त्री की नाक से लेकर मांग तक सिंदूर पुता हुआ

क्षितिज पर पसरे सूर्यास्त की सिंदूरी आभा

 

मासूम थे शब्द

जैसे तुतलाकर पूछा गया किसी मासूम का कोई पैना प्रश्न

एक तूफान उठा चाय के कप में

फैल गया पूरे सोशल मीडिया पे

 

दबड़ों से बाहर निकल पड़े तमाम लोग हाथों में डंडा लिए

- स्त्री और पुरूष/बुद्धिजीवी

कोई गड़े मुरदे उखाडऩे

कोई पुरानी खुंदस निकालने

कोई अपनी रोटियाँ सेकने

कोई अपनी वर्जित कामनाओं को हवा देने

अपने साम्राज्य की प्राचीरों को ढहने से बचाने

बहती गंगा में हाथ धोने

हालाँकि वहाँ कोई गंगा नहीं थी

और अगर थी भी तो जंजीरों से जकड़ी हुई

बह रहे थे जिसमें आस्था के जलते हुए दीपक, मुरझाई फूल मालाएँ,

मृत आकांक्षाएँ, टूटी हुई देव प्रतिमाएँ

और ऐसा ही बहुत कुछ

 

वैसे कुछ लोग ऐसे भी थे वहाँ जो चाहते थे सत्य की खोज करना

वे जानना चाहते थे कि तरकश से निकल वे शब्द

सोयों को जगाने के लिए थे

या किसी को आहत करने के लिए

या फिर किसी की मखौल के पटाके फोड़े अपनी सत्ता का जयनाद

करने हेतु

 

कुछ विरल इस सत्य के उस पार जाना चाहते थे

वे देख रहे थे/वे सुन रहे थे/वे समझ चुके थे

कि उद्देश्य कुछ भी रहा हो तरकश से निकले शब्दों का

कहीं न कहीं रूढ़ हो चुकी परम्पराओं के तहखाने का कोई जंग

लगा दरवाजा

हल्का सा हिला था

स्वयं को ही न सुनाई दे जाए अपनी आह

इससे पहले ही चूडिय़ों की खनक ने गीतों के स्वरों में उसे डुबोया था

अँधेरे तहखानों की चौकीदारी करता ऊँघता हुआ रात का प्रहरी

सजग हो उठा था

'जागते रहोऽऽऽ जागते रहोऽऽऽआने वाले उजाले के सीने पर

चोट करती गूंजी रही थी उसकी आवाज

खुश था पुरुष

बाड़े में सेंध लगाने की कोशिश नाकाम हो चुकी थी

स्त्रियों के पैरों की बेडिय़ाँ और अधिक कस गई थीं

फिर भी खुश थी स्त्री

या ऐसा लग रहा था कि वह खुश है

वह देवी थी

कम से कम उस एक क्षण

सोलह सिंगार किये, गहने-कपड़ों में लदी हुई साक्षात् देवी

वह देश की महान परम्परा का एक हिस्सा थी!

 

तूफान अब शान्त हो चुका था

चाय ठंड़ी

लौट गए लोग अपने-अपने काम-धंधे पर

अपने-अपने बिलों में

 

कल पुन: सुबह होगी

स्त्री उगते हुए सूरज को अध्र्य देगी

कल पुन: शाम होगी

स्त्री डूबते हुए सूरज को अध्र्य देगी

फिर एक दिन इतिहास स्वयं को दोहराएगा एक नई रोशनी में

स्त्री पद्मावती हो जाएगी

प्रेम जिसके लिए निषिद्ध होगा

 

कमीनी

 

वह सुन्दर थी

वह मासूम थी

वह जितनी मासूम थी

उतनी ही कमीनी थीं उसकी कविताएँ

जिनके सम्पर्क में आते ही

लोगों के दिल बेकाबू हो जाते

 

चूंकि कमीनी थीं कविताएँ

इसलिए पीछा करतीं उनका अनगिनत आँखें

फेसबुक पर भी थे उनके असंख्य फॉलोवर्स

वैसे यह कहना मुश्किल था

कि वे आँखें उसकी मासूम सूरत का पीछा करती थीं

या उसकी कमीनी कविताओं का

यह भी हो सकता है कि वे कमीनी कविताएँ

उसकी मासूमियत को मारक बना देती हों

या उसका भोलापन कविता में मारकता उड़ेल देता हो

 

अक्सर कमीनों में गजब का आकर्षण होता है

क्योंकि वे भीतर के सच की जीती-जागती तस्वीर होते हैं

 

हवा के एक छोटे से चुम्बन से खिल उठती थीं वे प्यार की तरह

भीतर के ज्वार में जलती थीं जंगल की आग की तरह

फिर सुलगती थीं विरह में आहिस्ता-आहिस्ता अंधेरी रात की तरह

उनका स्पर्श चाहते थे हजार-हजार हाथ

उनको सुनना चाहते थे हजार-हजार कान

कविता और वह दोनों एक जैसे थे

 

जंगल की तरह

 

जंगल 'सुन्दरथा - 'स्याहथा - 'सघनथा

और एक रहस्यमय धुंध में लिपटा हुआ

 

वह जंगल की तरह खुलना चाहती थी

परत-दर-परत अपनी विराटता में

एक-एक डग आगे बढ़ाती हुई

 

वह जंगल के पक्षियों सी राग भैरवी और मल्लहार गाना चाहती थी

वह जंगल की हवा सी बादलों को गुदगुदाना चाहती थी

कभी धूप बन, कभी बारिश तो कभी चाँदनी

वृक्षों के बीच फिसल जाना चाहती थी

वह उस अतेन्द्रिय आरकेस्ट्रा का हिस्सा होना चाहती थी

जिसे जंगल की नदियाँ, झरने, पेड़-पौधे, फूल-पत्थर, वनस्पतियाँ,

वन्य प्राणी,

सूरज-चाँद-तारे, धरती और आसमान मिलकर रचते थे

 

वह विज्ञान का अभिज्ञाता था

वह दुनिया की कई-कई भाषाओं में निष्णात था

साथ ही संगीत के विविध सुरों पर उसकी अच्छी पकड़ थी

वह सोचती थी कि इन खूबियों के बरक्स जंगल की भाषा को समझने में

उसे कोई परेशानी नहीं होगी

कि जंगल का संगीत उनके जीवन को

एक नई ऊँचाई पर ले जाएगा

 

वह उसके साथ जंगल पार करना चाहती थी

अपने भीतर खुलता हुआ

बजता हुआ किसी गुमनाम धुन सा

जिन्दगी के ईजल पर रंगों की चित्रकारी करता

 

वह उसके साथ जंगल पार करना चाहती थी

वह जिस्म-एक जान होने से पहले

लेकिन वह स्खलित हो गया जंगल के मुहाने पर ही

वह सो गया तृप्त

वह जागती रही हताहत

 

वह जागती रही/एक बंद किताब/जो अब कभी नहीं पढ़ी जाएगी

किसी गन्दी नाली में पड़ी हुई

जहाँ वह उसे फेंक गया था

जंगल शुरू होने से पहले ही

वह जंगल की तरह खुलना चाहती थी

और एक दिन भटक गई सीमेंट और ग्रेनाइट के जंगलों में

 

वहाँ पक्षी के नाम पर सिर्फ कबूतर थे

टिड्डियों के दल की तरह

जो घरों में घुसकर दहशत फैलाते थे

आतंकी हमलावर बनकर

या फिर कौअे

एक कबूतर ग्यारहवें माले की उसकी बालकनी पर आकर बैठ गया

और उसे अच्छा लगा

जंगल एक बार फिर से उसकी नसों में दौडऩे लगा

उसने सिर उठाकर सामने देखा

बकरे की आंत सी सुबह टंगी हुई थी काले पड़ चुके आसमान में

उसने एक लम्बी सांस खींची

तो ढेरों धुँआ उसके फेफड़ों में भर गया

तभी एक जानी-पहचानी महक ने

उसके नथुनों को हौले से छुआ

उसने इधर-उधर देखा

चारों ओर ऊँची-ऊँची इमारतें थीं विशालकाय दैत्यों जैसी

उसने स्वयं को टटोला

जंगल की खुशबू उसके भीतर से आ रही थी...

 

प्यार सेक्शन 377 के दिनों में

 

उसने प्यार किया था

जन्म के बाद सबसे पहले उसने माँ से प्यार किया

पिता उसे बहुत बुरे लगते थे

वे शराब पीकर आते और जोर-जबरदस्ती कर माँ को बेरहमी से पीटते

उसने अपने भाई-बहनों से प्यार किया

स्कूल गया तो अपने गुरूजनों और सहपाठियों-सहपाठिनों से प्यार

किया

फिर बचपन पीछे छूटने लगा

उसके तन-मन में कुछ-कुछ होने लगा

प्यार उसके ऊपर एक वेग से आया रपटा की तरह

और उसे बहा ले गया

उसे पता नहीं थी कि वे सेक्शन 377 के दिन थे

और उसने प्यार किया

उसने सेक्शन 377 के दिनों में प्यार किया

और इसकी उसे सजा मिली

उसे प्यार करने की सजा मिली

 

उसने सच बोला था

माँ कहती थी सदा सच बोलो

स्कूल में उसे पढ़ाया गया था सदा सच बोलो

आरै उसने सच बोल दिया था

इसकी उसे सजा मिली

सच बोलने की उसे सजा मिली

प्यार करने की उसे सजा मिली

 

हवा बदल रही है अब

कानून बदल रहे हैं

फिर भी देखा जाता है इन प्रेमियों को हिकारत की नजरों से

मानों वे कोढ़ हों कोई

या रेशमी साड़ी में पैबन्द

या फिर परिवार और समाज के चेहरे पर एक बदनुमा दाग

और सोचती हूँ मैं

जो लोग स्त्रियों पर करते हैं बलात्कार

चाहे घर के भीतर या चाहे घर के बाहर

ढूँढञते हैं हर अवसर उन्हें तहत-नहस कर देने का

जिन्हें अँगूठा चूसती बच्चियों पर भी रहम नहीं आता

वे प्यार की बातें करते हैं

वे भी नैतिकता और अनैतिकता की बातें करते हैं

वे धर्म की बातें करते हैं

वे संस्कृति की बातें करते हैं

वे एक उज्जवल समाज की बातें करते हैं

 

मुझे हँसी आती है

फिर रोना आ जाता है मुझे...

 

 

 

 

वरिष्ठ कवियत्री किरण अग्रवाल पहल में पहले प्रकाशित हो चुकी है

संपर्क - मो. 9068699956, 9997380924, रुद्रपु

 

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