वीडियोग्राफी

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    सितम्बर - 2018
श्रेणी वीडियोग्राफी
संस्करण सितम्बर - 2018
लेखक का नाम कैलास चन्द्र





कहानी

 

 

 

 

 

शरद की गुनगुनी धूप की गर्मी कम होती जा रही है धीरे-धीरे। सांझ उतरने को आतुर है। सूरज का विशाल पीला गोला झील के क्षितिज में डूबने बस पहुंचने ही वाला है। झील की ओर से आज ठण्डी हवाओं का झकोर नहीं चल रहा है। इस वजह से सर्दी का प्रकोप नहीं है।

रामसखा दुबे आला दरजे के पद, मुख्य सचिव से सेवानिवृत्त हो चुके हैं करीब तीन साल पहले। नौकरी में रहते यह आलीशान बंगला उन्होंने बनवा लिया था। चारों ओर दरवाजे और पोर्च उनके ऊपर शानदार छज्जे बने हुए थे। सूरज के हर दिशा में घूमते उसकी किरणों को चुराने के लिए। अस्सी बाई एक सौ तीस वर्गफुट कि लम्बे चौड़े प्लाट पर बना था यह शानदार बंगला। कॉलोनी के सबसे आखिरी छोर पर खुद रामसखा दुबे ने यह प्लाट चुना था। यहां भी वे सबसे अलग थलग थे।

पीछे झील का असीम विस्तार दूर तक फैला हुआ था। कभी झील के पानी को वे हाथ डुबो कर छू लेंगे, ऐसा अहसास उनको बार-बार होता था। हालांकि वे पानी की सतह से लगभग पचास फीट ऊपर रहते थे। अभी वे डोलने वाली कुर्सी पर बैठे हल्के हल्के झूल रहे हैं।

वे आज उदास हैं। एकदम टूटे हुए बेदम। पूरे बंगले में सन्नाटा खिंचा हुआ है। कहीं कोई आहट नहीं आ रही है। वे बोल भी गुम हैं- ''चाय पीना हो तो बना दूं, कुछ देर आंख मूंद कर लेट लीजिए दिन भर अखबार चाटते रहते हैं, सिर दर्द कर रहा हो तो मालिश कर दूं’’ - इसी तरह की आत्मीय बोलियां। पर अब कभी नहीं सुन पाएंगे। उनके गले में कुछ अटकता है, फिर आंखें तिर आतीं हैं। पूरे बंगले में वे अकेले पड़ गए हैं। उनका मल्टीनेशनल का जो क्रेज था उसकी वजह से वे आज इतने अकेले और बेजार हो गए हैं। झील के किनारे भीड़ बढऩा शुरु हो गई है। पहले झील के किनारे सपाट, अनगढ़ और बेढंगे थे। एक रसहीन नजारा दिखता था और कोई आता जाता नहीं था। फिर नगर महापालिका को कुछ रचनात्मक सूझा और उसने कई सौ मीटर तक झील के आकार के अनुसार पक्के घाट बनवा दिए। कोई भी सीढ़ी पर बैठकर अपने पांव झील के पानी में डुबो सकता था। घाट से दस फीट पीछे मनमोहक फूलों की दो मीटर चौड़ी उसी आकार की क्यारियां बनी थीं। क्यारियों के पीछे सीमेंट और स्टील की बैंचे लगी हुई थीं।

झील के बीच, तट से लगभग दो सौ फीट दूर बीच में एक पांच सौ मीटर लम्बी और लगभग तीन सौ मीटर चौड़ी एक पहाड़ी पुरइन के पत्ते की तरह पड़ी थी। जिसे ईको फ्रेंडली पार्क की तरह विकसित किया गया था। रंगबिरंगी ईटों के फुटपाथों का जाल बिछा था। सदाबहार पेड़, लताएं और फूलों के पौधों से आच्छादित किया गया था पूरी पहाड़ी को। फूलों की गमक उनके छज्जे तक आती थी, जब हवा मेहरबान होती, तब।

उनके सामने बैंत की गोल टेबुल पर एक सीडी पड़ी हुई थी जिसकी तरफ देखने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

कुछ जोड़े पहाड़ी पर पहुंच गए थे। कुछ के साथ बच्चे भी थे। झील का घाट लोगों की भीड़ से भरता जा रहा था। पर आज रामसखा दुबे इस नजारे का मजा नहीं ले पा रहे थे। वे भीतर से टूट गए थे। एक  बेचारगी उनकी जिंदगी में सहसा उतर आई थी। कमरों के भीतर से कोई आहट नहीं आ रही थी।

परसों ही उनकी पत्नी गायत्री का देहावसान हुआ था। शाम तक बिल्कुल ठीक थी। यहां तक कि रात दस बजे उनको खाना खिलाने तक। फिर खुद भी खाकर लेट गई थीं और उनको सोते समय गोली और एक गिलास कुनकुना दूध देना वे नहीं भूली थीं।  फिर वे हंसे भी थे यह कह कर - ''तुम अपना काम नहीं भूलती हो गायत्री’’

इस प्रशंसा को सहज भाव से लेते हुए वे भी अपने बिस्तर पर आकर लेट गईं थीं। अलस्ससुबह वे छड़ी लेकर रोज की तरह घूमने निकल गए थे। लौटे तो गेट पर ही हिचकिंया लेता छदामी मिल गया। छदामी उनका सगा भतीजा है। उसे गांव से अरसा पहले उन्होंने ही बुला लिया था। उसे राज्य परिवहन में उन्होंने लगवा दिया था। सुपरवाइजर था वह। पर ड्यूटी पर कम ही दिखता था वह। सीएस का भतीजा, उसे भला कौन बोल सकता था कि छदामी जाओ और जाकर अपनी ड्यूटी करो। भतीजा होने के बावजूद वह बंगले के पीछे बने नौकरों के आवास में रहता था। पर वे आवास भी कम अच्छे नहीं थे।

रोते रोते वह बोला - ''काका! काकी हिलडुल नहीं रही हैं। शायद उनकी सांस बंद हो गई है।’’

'क्या’ - वे चीखें और हड़बड़ाहाट में गिरने को हुए। छदामी ने उनको संभाल लिया। भीतर वाकई गायत्री निष्पंद पड़ी हुई थीं। उनकी सांसे थमी हुई थीं। वे गश खाकर गिरे। पल भर में क्या से क्या हो गया था। कब रात में सोते समय उनकी सांसे थम गईं कोई नहीं जान पाया।

वे एकदम जड़ हो गए थे। दोनों बेटे देश से बाहर। मल्टीनेशनल की ऊंची पगार के पैकेज को कसके पकड़े हुए। काम के बोझ में नीबू की तरह निचुड़े हुए। एक कनाड़ा के ओहिया शहर में दूसरा ग्रेट ब्रिटेन के मैनचेस्टर में। छुट्टी बिल्कुल नहीं। बोर्ड के मैम्बर कब निकाल बाहर करें इसकी कोई गारण्टी नहीं। इसलिए कितना भी बड़ा हादसा हो जाए चिपके रहते हैं इन जानखाऊ नौकरियों से। यहां केवल गायत्री उनके साथ थी। कमर के नीचे से लाचार, दिन भर इस कमरे से उस कमरे व्हील चेयर पर घूमती रहती। सोते समय वे सहारा देकर उसे उसके बिस्तर पर लिटा देते थे। कभी बहुत लाड़ आता तो बिस्तर पर ही गायत्री को चाय बना कर पिला आते थे। गायत्री, उसने खाना बनाने वाली महराजिन नहीं लगाने दी। कहती खाना बनाकर खिलाने में जो अपनत्व और स्नेह झलकता है वह महराजिन कहां से दे सकती है। गायत्री ने रसोई का ऊंचा प्लेटफार्म तुड़वा कर इतनी ऊंचाई करा ली थी कि व्हील चेयर पर बैठे-बैठे वे रोटी बेल सकें। कभी बहुत दुलार आता तो उनको रसोई में ही बुला लेतीं थीं और गरम-गरम फूली रोटियां सेंक कर उनको खिलाती थीं और ऐसे मौकों पर दुबे भारी संकोच में भर जाते थे। कहते - ''तुम थक जाती होगी।’’ सहज लगता होगा इस तरह खाना बनाना। गायत्री मुस्करा देती - ''तुम्हें खुश देखकर मैं सब कठिनाईयों को भूल जाती हूं।’’

गायत्री अब इस दुनिया में नहीं है। उनकी टेबुल पर वीडियोग्राफी की सीडी पड़ी है।

हृदय के गम्भीर रोग के कारण वे हवाई यात्रा कर नहीं सकते थे और गायत्री अपंग थी। उसे किसके साथ बेटों के पास वे भेजें। क्योंकि कई बार वह इस प्रसंग को लेकर भावुक हो चुकी है। दो साल पहले पिंकी पैदा हुई थी छोटे बेटे के घर। वाट्सअप पर बेटे ने पिंकी की तमाम फोटो और वीडियो भेजे थे। इससे गायत्री का हुलास और जियादा बढ़ गया था। अभी तक उन्होंने न बहू का मुंह देखा था और न नातिन पिंकी का। सजीव सी लगने वाली बेजान मूवी में भला क्या रस मिलता। यही हाल बड़े बेटे संदीप का था।

पर इसके लिए जिम्मेदार तो वे ही हैं। इतनी आला दरजे की पोस्ट पर वे हैं तो उनके बेटे कैसे इस गरीब और पिछड़े देश में नौकरी कर सकते थे। उनका टारगेट तो मल्टीनेशनल ही था। ऊंची पढ़ाई के लिए टिप्पस भिड़ा कर उनके लिए स्कालरशिप दिला कर उनको विदेश भिजवाया और वे विदेश के होकर ही रह गए।

कई बार गायत्री ने उनसे कहा होगा कि छदामी के साथ उनको वहां बेटों के पास भेज दें। पर वे छदामी के पक्ष में राजी नहीं हुए। वे उसे आज भी पोंगा ही मानते हैं। भले राजधानी में रहते उसे अरसा हो गया है। गोया घर की पूरी संभाल वही करता है। सब्जी-भाजी से लेकर और तमाम दीगर काम वहीं निपटाता है। गायत्री इसीलिए अक्सर उसे घर पर ही खाना खिला देती हैं। रात-बिरात उनके ब्लडप्रेशर की गोलियां वही तो लाकर देता है। पर हवाई यात्रा में गायत्री के साथ भेजना... न बाबा न। कहीं भी मुंह उठा कर चल दे वह। कोई ठिकाना नहीं। वे भरोसे के किसी काम में उसका भरोसा नहीं करते।

अब वे निचाट अकेले हैं।

सांझ पूरी तरह उतर आई है। हवा में ठण्डक बढऩे लगी है। बरसाती में अंधेरा हो गया है। गायत्री होती तो एक दो चक्कर इस बीच लगा लेती और अंधेरे में बैठे रहने पर टोकती - ''लाईट क्यों नहीं जलाई। ऐसा अंधेरे में बैठना ठीक नहीं।’’

अब भला कौन टोकेगा उनको।

हिचकी का एक समां बंध गया उनके गले में। कुछ फंसने को हुआ। लगा कि वे जोर से रो पड़ेंगे।

''काका! चाय पिएंगे क्या।’’ पीछे छदामी था। उन्होंने बरबस अपने को रोका। धीरे से हूं कहा। छदामी लौटने को हुआ फिर रुक कर बोला - ''काका! अब तो आप भी भाईयों के पास चले जाएंगे।’’ उसे अपनी फिकर हो रही थी।

उन्होंने गीली आंखों से गोल टेबुल पर पड़ी सीडी को देखा। ये सब इस छदामी की कारस्तानी है। उनको पहले से मालूम होता तो वे कभी अंत्येष्टि की वीडियोग्राफी नहीं करने देते। बैण्ड बाजे का इंतजाम भी उसी का था। शवयात्रा को वरयात्रा में बदल दिया था। हांलाकि शामिल लोगों में काफी लोगों ने इस आयोजन की तारीफ ही की थी। एक परम्पराग्रस्त दुखद संस्कार को उन्होंने उत्सव में बदलने का आयोजन किया था। पर दुबे भीतर से कितना रो और बिलख रहे थे कौन जानता था।

छदामी चाय ले आया था।

''ये वीडियो तुमने बनवाया है।’’

''हां काका। छोटे भइया ने आदेश दिया था कि वे मय्यत में शामिल नहीं हो पाएंगे। इसलिए अम्मा के अंतिम संस्कार का वीडियो बनवा कर भेज दो। मैंने वीडियो भेज दिया है और व्हाट्सअप पर भी वीडियो की कापी दोनों भाईयों को भेज दी है’’ - छदामी ने सफाई दी।

''हमें क्यों नहीं बताया’’ - वे हल्के से गुर्राने को हुए।

''छोटे भाइया ने मना किया था कि पापा को मत बताना। सो नहीं बताया।’’

उन्होंने बेध्यानी में गरम चाय का प्याला होंठों से लगा लिया। चहक गए। प्याला नीचे गिरते गिरते बचा।

उस पूरी रात वे सो नहीं पाए। इस विशाल बंगले में अकेले कैसे रहेंगे। क्या वे बेटों से कहें कि वे नौकरी छोड़ कर देश वापस लौट आएं। पर क्या वे मानेंगे उनकी बात। मल्टीनेशनल का मोह क्या उनको छोडऩे देगा नौकरी?

इस सब के लिए वही तो जिम्मेदार हैं। उन्होंने नीचे झुक कर देखा ही नहीं कभी। इस बीच सहसा उन्होंने सोचा कि कुछ दिनों के लिए गांव में जाकर रहने लगें। पर पिछले साल जब वे वहां गए थे तो बड़े भइया कुछ भकुरे से हो रहे थे। बड़े भइया को लगा था कि शायद रामसखा पैतृक जायदाद में हिस्सा बंटाने के लिए आ गए हैं। बड़े भइया का परिवार बड़ा था। इसलिए दुबे का स्वागत बड़े ठण्डेपन से हुआ था। भौजी जमुनी देवी ने तो कह ही दिया था - ''लाला! इतने खेतों में भी कम ही पड़ता है।’’

वे तीसरे दिन ही लौट आए थे अपने बंगले में। लौटकर गायत्री को बताया था। गायत्री ने कहा था - ''कह देते हम एक इंच जमीन लेने नहीं आए है। वे निश्चित रहें।’’ पर वे क्या कह पाए। एक झटके से उन्होंने गांव लौटने का विचार त्याग दिया।

तब से अब तक यह विचार उनके भीतर लौट कर दुबारा नहीं आया है। गायत्री के इस दुनिया से चल जाने के बाद एक लम्बा समय गुज़र गया है। इस बीच उनका अकेलापन और गहरा होता गया है। वे मौन और एकांत के साथ जिए जा रहे थे केवल अपनी बेबसी पर सोचते-विचारते।

इन्हीं परिस्थितियों में जब एक दिन उनका रक्तचाप बहुत बढ़ गया तो छदामी को डा. बतरा को बुलाना पड़ा। डा. बतरा ने उनको दवाएं दीं और नींद का इंजेक्शन लगा दिया। उन्होंने गहरी नींद में अनायास सपने में देखा कि उनकी अंत्येष्टि में भी वीडियो बनाया जा रहा है और बस अंतर इतना है कि उनकी अर्थी के सामने दोनों बेटे नाच रहे हैं।

 

 

 

 

 

कैलाशचंद्र कम ज्ञात अनूठे कथाकार हैं। उनकी कई कहानियां 'पहलमें छपीं। रीवा में रहते हैं।

 

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