कथा के नए आनुभूतिक प्रस्थान

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    सितम्बर - 2018
श्रेणी कथा के नए आनुभूतिक प्रस्थान
संस्करण सितम्बर - 2018
लेखक का नाम शशिभूषण मिश्र





क़िताबें

 

 

 

 

एक मरा हुआ मनुष्य

इस समय एक जीवित मनुष्य की तुलना में कहीं ज्यादा कह रहा है                                   

उसके शरीर से बहता हुआ रक्त

शरीर के भीतर दौड़ते हुए रक्त से कहीं ज्यादा आवाज़ कर रहा है                                       

एक तेज हवा चल रही है

और विचारों, स्वप्नों, स्मृतियों को

फटे हुए कागजों की तरह उड़ा रही है 

                                      (मंगलेश डबराल)

 

अपने भीतर के सवालों को बरजे बिना बाहर तक आने देने की छूट जहाँ संभव बनती है वहीं से वंदना शुक्ल की कथा यात्रा शुरू होती है। रचनाशीलता की इस कथा-उपस्थिति में इक्कीसवीं सदी की मानव जाति की भूमिका निबद्ध है। ये कहानियाँ  अपने ठाँव से निकल कर अनजान रास्तों में भटकने के बजाए अपने लक्ष्य की ओर जिद्द की तरह बढ़ती हैं। वंदना के रचनाकार के पास बहुचर्चित अतीत भले न हो संभावनाशील भविष्य जरूर है। रचनात्मकता की व्यापक स्वीकृति का रास्ता 'निर्मम होकर खुद को परखे जाने और तराशे जाने की गुंजाइशसे फूटता है और वंदना के यहाँ यह गुंजाइश बहुत है। सिरजने की प्रक्रिया धैर्य की भट्टी में मिधिर मिधिर पकती है लेकिन हमारी पीढ़ी की सिरजने की गति बहुत तेज है; ऐसे में साहित्य सृजन नहीं उत्पाद बनता जाता है। सिरजना केवल लिख देना नहीं है बल्कि लिखने और जीने का साझापन है। वंदना में यह साझापन पूर्णत: तो नहीं अधिकांशत: ज़रूर है। उनके रचना-वय में अब तक चार कथा-संग्रहों की आमद दर्ज हो चुकी है। इस रचे को अवलोकने की अपर्याप्त क्षमता के बावज़ूद कुछ अनुभव साझा कर रहा हूँ। 

कॉफ़ी हाउस का मिटना और जब्बार खां की विवशता  

वंदना शुक्ल की कथा यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है - 'काफ़िला साथ और सर तनहा। कहानी की शुरुआत भोपाल के न्यू मार्केट स्थित कॉफ़ी हाउस से होती है जो अस्सी के दशक में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों, कालेजिया छात्र-छात्राओं से आबाद था। यह सदी का वो दौर था जहाँ कम कमाई में भी लोग खुश थे, जिन्दगी में सुकून था और तब तक भूमंडलीकरण की घुसपैठ भी नहीं हुई थी। काफ़ी हाउस की गतिविधियों में 'पूरा समयकरवटें लेता है। इस कॉफ़ी हाउस के नियमित बैठक किए थे - बशेषर नाथ, खयालात से पक्के गांधीवादी और धुर कांग्रेस समर्थक; दूसरे बैठकीदार कामरेड देश अनुरागी; तीसरे कम्युनिस्ट जफ्फार खां और चौथे पत्रकार बालकृष्ण बाबू। बशेषर नाथ ने जिस पार्टी की सेवा के लिए अपनी पूरी जिन्दगी होम कर दी; अपना घर तक नहीं बसाया उसी पार्टी द्वारा आउटडेटेड घोषित कर दिए जाते हैं। उन्हें कोई सुनना तक नहीं चाहता गुनने और कुछ सीखने की बात तो बहुत दूर की है। कहानी दिखाती है कि राजनीतिक पार्टियों के चरित्र में आजादी के दो दशकों बाद ही कितना बदलाव आ गया था।  गांधी के सपनों को कांग्रेस पार्टी ने कैसे धकिया दिया  इसका जीता जागता प्रमाण बशेषर नाथ हैं। अस्सी के दशक की भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जहां भारत की आजादी के लिए जुलूस निकालने, नारे लगाने, सभाओं में भाषण देने, धरना आंदोलनों में पुलिस की लाठियां खाने वाले बशेषर नाथ जैसे लोगों को मक्खी की तरह काढ़ दिया गया। आगे चलकर काफ़ी हाउस के ही पास वह किताबों का ठेला लगाने लगे, कमाने के लिए नहीं इस उम्मीद से कि लोगों के भीतर अच्छे संस्कार रोपे जा सकें। बहराहाल कांग्रेस पार्टी की सेवा का रास्ता उन्होंने कभी नहीं बदला।

देश मौसम की तपन से जूझ रहा था और तभी खबर आई कि सत्ता की भूख के लिए देश पर इमरजेंसी थोप दी गयी है। गिरफ्तारियों, बुद्धिजीवियों की धरपकड़ और पुलिसिया अत्याचार ने इंदिरा के प्रति उनके विश्वास को चकनाचूर कर दिया। इस भयावहता के बीच एक ऐसा दृश्य उभरता है जिससे आपातकाल का पूरा वातावरण सजीव हो उठता है। यह दृश्य है उस गूंगे भिखारी की हत्या का जो बशेषर नाथ की किताबों के ठेले के बगल में बैठा रहता। निर्भाव और शांत रहना उसका स्वभाव था पर आपातकाल की घटना ने उसे बेचैन कर दिया। नौजवान लड़के-लड़कियों के विरोध प्रदर्शन के दिन हुई पुलिसिया बर्बरता को देखकर, ''उस दिन  उसने कुछ खाया भी नहीं, जो रोटियाँ बशेषर नाथ उसके लिए बना कर लाए थे उसने वो भी कुत्तों को खिला दी। वह बहुत उदास और मगीन-सा बैठा घटनास्थल को एकटक घूरे जा रहा था जहां खून के कुछ कतरे अब भी चीख रहे थे..।’’ (काफ़िला साथ और सर तनहा, पृष्ठ-82) दुनिया में उसका अपना भले कोई न था पर बशेषर नाथ उसके लिए किसी अपने से कम न थे। उस दिन शाम को वह उसे घर चलने के लिए बार बार कहते रहे पर वह माना नहीं और अगले दिन जब बशेषर नाथ आए तो उन्होंने देखा कि कुछ पुलिसवाले गूंगे भिखारी की रक्तरंजित लाश को घेरे खड़े थे। उसके माथे और कलाई पर काली पट्टी बंधी थी। उसकी भंगिमाएं, प्रतिक्रियाएं, प्रतिरोध, बेचैनी, उदासी के अर्थ गर्भी संकेतों में आपातकाल की क्रूरता सजीव हो जाती है। वंदना की दृश्य-निर्माण क्षमता जब की है जिसे वह पूरी कहानी में बरतती हैं। उनकी कथा-युक्ति में संकेतों के माध्यम से  कथा कहने की तादाद बहुत है।   

कहानी यहीं त्म नहीं होती  बल्कि उस बिंदु की ओर बढ़ती है जिसके मूल में कॉफ़ी हाउस के मिटने की मारक पीड़ा के साथ एक जिंदादिल शहर के दो हिस्सों में बंट जाने की त्रासदी का मर्म बिंधा है। यह नब्बे का दशक था जिसने जाने कितने मेल-मिलाप के ठिए-ठौर एक झटके में उजाड़ दिए। कॉफ़ी हाउस के नियमित बैठकिए जब्बार खां को नौकरी से रिटायरमेंट के बाद सुदूर भोपाल के जहांगीराबाद में अपने पुस्तैनी मकान में शिफ्ट होना पड़ा। अपने मुल्क से बाहर यात्रा के बाद भोपाल आते ही उन्हें बर मिली कि बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी है और भोपाल में जगह जगह कफ्र्यू लगा है। वह बेचैन थे कॉफ़ी हाउस जाने को मगर 'शहर के हालात ठीक नहीं हैंकहकर उन्हें रोक दिया गया। आख़िरकार बैंक जाने की मुफीद जुगत के बाद जब अपने दिलकश ठीहे पर पहुँचे तो देखा कि कॉफ़ी हाउस का अस्तित्व वहाँ से गायब था। अचानक इतनी फुर्ती से सब कुछ बदल जाएगा ये तो उन्होंने ख्वाब में भी न सोचा था। जो काफ़िला उनके साथ था वह उससे बहुत दूर तक छिटक गए थे। दरअसल यह 'कॉफ़ी हाउस का मिटना भर नहीं था’, उस वज़ूद का मिटना था जिसमें साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों की साँसे धड़कती थीं। उसका उजडऩा संवाद, बतरस, सादगी और मेल-मिलाप की संस्कृति के उजडऩे जैसा था। इस पूरे सन्दर्भ में भूमंडलीकरण के सर्वग्रासी रूप की पहचान की जा सकती है। कहानी दिखाती है कि 'भूमंडलीकरण बुनियादी तौर पर मुनाफ़ाखोर सभ्यता का विस्तार हैजिसमें केवल मुनाफ़ा देने वाली चीजें ही महत्वपूर्ण रह गयी हैं बाकी सब बेकार। वंदना साम्राज्यवादी अर्थतंत्र के नकली चेहरे से मुठभेड़ किए जाने की जरूरत से रू-ब-रू कराती हैं।

कथा का अंत जिस तरह होता है उससे भारतीय समाज की विसंगतियां और उससे उपजा अन्याय पर्दाफाश हो जाता है। जिस मुल्क की रवायत पर गफ्फार खां गर्व करते थे उनका वह गर्व भी खंडित हो जाता है। उन्हें क्या पता था कि वह जिस इला$के में थे अब वह उनके लिए कितना पराया हो गया था। एक शहर के सीने पर सरहदें ही नहीं बना दी गयी थीं दिल भी बाँट दिए गए थे। उदास मन लिए जफ्फार खां कॉफ़ी हाउस के पास अपने पुराने और पसंदीदा बनारसी पान भण्डार की ओर इस ललक से बढ़े कि पान वाले का बेटा पहलवान इतने दिनों बाद देखेगा तो खुश हो जाएगा। पूछेगा अंकल इतने दिन कहाँ थे? पर उस शाम ऐसा कुछ न हुआ ,उसने फुर्ती से पान पकड़ाते हुए जिस तरह बर्ताव किया उससे जफ्फार खां को यकीन हो गया कि वाकई वक्त बदल गया है। अब तक रात इतनी गाढ़ी भी न हुई थी पर वक्त गाढ़ा हो गया था और तभी उन्हें जबरन घसीटते पुलिस की गाड़ी में ठूंस दिया गया। वह कहते रहे -'वह मुसलमान जरूर हैं  लेकिन निखालिस हिन्दुस्तानीहैं लेकिन ऐसे माहौल में इंसानियत पर भरोसा कौन करता! जब्बार खां के चेहरे पर उभरी सीली हुयी खामोश हताशा से वाबस्ता होते ही हम समाज के भीतर ही नहीं अपने भीतर भी बैठे घुप्प अन्धकार को महसूस कर पाते हैं। लोकतान्त्रिक राष्ट्र के विचारशील नागरिकों की असुरक्षा और विवशता की इतनी महीन अभिव्यक्ति पाठक के अन्दर मंत्रबिद्ध बेचैनी छोड़ जाती है।  औपन्यासिक विधान और विस्तार की संभावनाओं से लैस यह कहानी वंदना शुक्ल के कथाकर्म की उपलब्धि है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की तीन बड़ी घटनाओं को एक सूत्र में पिरोकर आवाम की परिवर्तित होती मानसिकता का जायज़ा लेती इस बेजोड़ शिल्प की कहानी को किसी एक नजरिए से नहीं पढ़ा जा सकता। इसमें कई अर्थ-परतें हैं। गहरी राजनीतिक समझ के साथ इस कथा-बीज में भारतीय समाज की बनती-बिगड़ती सामाजिकी की पूरी बनावट समाई है। वन्दना यहाँ भारतीय समाज की विसंगतियों और उससे उपजे अन्याय के साथ समाज के यथार्थ और उसमें जीते 'मनुष्य की नियतिकी निर्मम नोटिस लेती हैं।                   

असहमतियां तो जवानी का शगल हैं और बुढ़ापा एक स्वीकार्य

जीवन के ढलान पर पहुँच चुके चेहरों में ठहरे समय की शांत लकीरों की उपस्थितियाँ वंदना शुक्ल की कहानियों का प्रतिपाद्य बनती हैं। बुढ़ापा अपने विश्वस्त रिश्तों द्वारा भी निरस्त कर दिए जाने की पीड़ा का बोध है। वंदना की कहानियाँ पीड़ा के इस बोध को 'मोहभंग’, 'चश्मा’, 'पेडोमीटर’, 'लाफिंग क्लब’, 'मिनाल पार्क और तीन बूढ़े’, 'मुआवज़ा’, 'बन्दरजैसी कहानियों में व्यक्त करती हैं। इन कहानियों में वृद्धावस्था के संकटों और विवशताओं को आधार बनाया गया है। बुढ़ापा 'जियानहीं जाता काटा जाता है और उसे काटने में स्मृतियाँ सबसे बड़ा सहारा बनती हैं। लेकिन स्मृतियों के सहारे कब तक वर्तमान को पीठ दिखाकर मनुष्य भाग सकता है? वृद्धावस्था तक पहुँचते पंहुचते ज़िन्दगी की सलाइयों से उम्मीद के फंदे उतर जाते हैं। नींद भी मानो उचटने का बहाना ढूँढ़ती रहती हो। 'मोहभंगकहानी में राकेश और उनकी पत्नी की दशा कुछ ऐसी ही है। अपने बेटों को बहुत ऊंचा बनाने के लिए वो अपना सब कुछ लगा देते हैं पर बुढ़ापे में जब उन्हें उनकी जरूरत महसूस होती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। सफलता की सीढियां चढ़ते-चढ़ते उनके दोनों बेटे उनसे बहुत दूर हो जाते हैं। कहानी इस विडंबना की ओर हमारा ध्यान खींचती है कि अपने बच्चों को आर्थिक रूप से सफल बनाने के लिए माँ-बाप दिन-रात एक कर देते हैं और उन्हें विदेश में नौकरी मिल जाने को ही अपना सौभाग्य समझते हैं, पर जब वही बच्चे विदेशी संस्कृति में रच-बस जाते हैं तब माँ-बाप  अपने समय और बच्चों की संवेदनहीनता को कोसने लगते हैं। काश! अपने बच्चों को संस्कार देने के लिए इतनी मशक्कत की गयी होती! कहानी वृद्धावस्था के अकेलेपन को ही लक्षित नहीं करती उसके बीच वैकल्पिकता रचती है क्योंकि मानव जीवन अविकल्प नहीं है।

'लाफिंग क्लबवृद्धावस्था के संकटों से घिरे व्यक्ति की कहानी है जिसमें हम देख पाते हैं कि जीवन साथी के जाने के बाद बुढ़ापा हंसने और रोने का र्क भूल जाता है। कहानी पढ़ते हुए भय की लकीरें तारी होने लगती हैं। सेवानिवृत्त हो चुके सक्सेना जी का जीवन पत्नी की मृत्यु के बाद सहसा ठहर सा जाता है। उनकी बुझी हुई आँखों से बहती अश्रुधार भीतर तक भिगो जाती है। जीवनसाथी के न रहने के बाद यदि परिवार का भी साथ न मिले तो व्यक्ति की जिजीविषा भी दम तोड़ देती है। मनोवैज्ञानिक संवेदना की इतनी तरल और सूक्ष्म अन्विति वाली कहानियाँ लेखकीय धैर्य की मांग करती हैं बेहतर होता यदि वंदना ऐसा कर पातीं। इस सन्दर्भ में 'चश्माएक संश्लिष्ट कथा है। किस्सागो में यह 'लाफिंग क्लबऔर 'मोहभंगसे आगे निकलती कहानी है। वंदना इस कहानी में अनकहे की बुनियाद रचती हैं। साठ वर्षीय वृद्ध 'मालती देवीकथरी पर निढाल पड़ी बार बार करौंटा बदल रहीं थी क्योंकि जीवन में पहली बार अकेले घर से बाहर निकलना है, तीरथधाम के लिए। दिमाग में घूम घूमकर बहू के बतकहाव का मरकहापन उन्हें भेद रहा था पर इससे ज्यादा वह परेशान थीं अनजान लोगों के साथ अकेले इतनी दूर जाने को लेकर। अंतत: उनके बेटवा रग्घू ने एकठो टीन की टुटही बकसिया और झोला के साथ बस में रवाना कर दिया। खिड़की से सटी सीट पर से मालती देवी टूटे चश्मे से धुंधलाई दुनिया निहारती जा रही थीं और उनके भीतर की दुनिया गतिमान थी। पूरा कथानक यात्रा तक ही सिमटा है पर उसमें उजास के कई रंग  हैं जिनसे मालती देवी की दुनिया बदल जाती है। पराए मरद की इतनी निकटता उसने पहली बार महसूस की थी। वह सोचने लगी-  बाबू (पति) होते तो..। उसे याद आया एक वाकया जब देवर के बियाह में नयी उम्र की बिटिया-दुल्हनों ने उसे नाचने को खड़ा कर दिया था। बाबू इतने नाराज हो गए थे कि बीच व्याह में उसे लेकर घर चले आए और घर जाकर...। इतनी सी यात्रा में उसका इतना याल रखा जाना उसका पहला अनुभव था। औरत का भी इतना सम्मान होता है! मालती देवी  को जीवन में पहली बार किसी से आत्मीय संस्पर्श मिला था। वह सोचने लगी आदमियों में भी इत्ता फरक होता है क्या? कित्ता तो डरती थी वह अपने पति से। वह राहगीर था और उसे आगे उतरना भी था मगर उसने महसूस कर लिया था कि इस उमर में अकेली बुढिय़ा इस टूटे चश्मे से कैसे दुनिया देख पाएगी। उसने अपना चश्मा मालती को देते हुए कहा जरा पहनकर देखो तो कैसा दिखता है। और जैसे ही मालती ने चश्मा पहना आँखों में बुझती लालटेन भक्क से जल गयी। कुछ बुदबुदाई थी वह- भोत अच्छा...। मालती चश्मा लेने में अरे ना करती रही और वह सहयात्री बस से नीचे उतर गया। सुबह होने को थी मालती उस चश्मे से एक नयी सुबह देख रही थी-सुन्दर और सा। कहानी अपने छोटे से कथानक के बावज़ूद हमारे भीतर बहुत कुछ बदल जाती है। घर से बाहर निकलना कितना ज़रूरी है यह हम मालती के माध्यम से देख सकते हैं। मालती न निकली होती तो शायद मरद के बारे में उसकी धारणा न टूटती और शायद उसके भीतर वह आत्मविश्वास भी न जग पाता। 'मिनाल पार्क और तीन बूढ़ेकहानी का स्थापत्य ही 'काफ़िला साथ और सर तनहासे नहीं मिलता पूंजी-बाज़ार और मनुष्यता की चिर परिचित जंग भी दोनों कहानियों में एक सी है। वहाँ काफ़ी हाउस मिटाया जाता है और यहाँ हराभरा सुन्दर पार्क। बाजारवादी लोभी मानसिकता के लिए मिनाल पार्क बेमतलब है क्योंकि 'फालतू लोगयहाँ बैठकर टाइम पास करते हैं और काफ़ी हाउस भी बेमतलब के गप्पबाजों का अड्डा था इसलिए उसे मिटाकर उसमें शोरूम खोल दिया गया। वृद्ध त्रय की चिंताएं उस उजाड़ के बीच बढ़ गयी थीं क्योंकि उनके टहलने, गप्पियाने, सुकून से सांस लेने की दिलकश जगह का वजूद जमीदोज हो चुका था।

वंदना की कहानियों के अधिकाँश वृद्ध पुरुष पात्र शहरी या महानगरीय जीवन का हिस्सा हैं और किसी न किसी नौकरी से सेवानिवृत्त के बाद पार्क की तलाश में नज़र आते हैं। पार्क ऐसी जगह बन चुकी है जहां वृद्ध अपने सुख-दु:ख साझा करते हैं।  घर ऊब और घुटन के प्रतीक बनते जा रहे हैं। वंदना की अधिसंख्य कहानियाँ पढ़े जाने के बाद यह कहा जा सकता है कि चाहे बूढें हो या जवान - हर चेहरे पर हताशा चस्पा है। फूटती हुई खिलखिलाहट का स्वर यहाँ लगभग नदारद है। ऐसा क्यों?  हम अपने ही जीवन के बीच बिला चुकी हंसी को खोजने की कोशिश करें तो शायद इसका उत्तर हमें मिल जाए।

परम्पराओं को तोडऩे की ज़िद और बाँदी का जीवन

''माँ परंपरा की ओट में 'माँबना दी गयीं और मैं परंपराओं को तोडऩे की ज़िद में 'माँबनी।’’

स्त्री जीवन के तमाम अँधेरे कोनों तक धंस कर उसके मन पर पड़े जख्मों की निशानदेही करती कहानी है- 'बाँदी’, जिसे पढऩा विकल अनुभव से गुजरने जैसा है। राजस्थान के राजपूताने के एक रसूखदार राजपूत परिवार  में 'रिसालको बाँदी के रूप में राणी सा के साथ दहेज़ में भेजा जाता है और यहीं से उसके यातनापूर्ण जीवन की शुरुआत होती है। हवेली में उसकी देह अपनी थी पर अधिकार दूसरों का।  'रिसालअकेली स्त्री नहीं है जो इस परंपरा की भेंट चढ़ती है बल्कि ऐसी कई रिसालें हैं जिनकी ज़िन्दगी यातना की दीवारों में सदा के लिए महदूद कर दी जाती है। रिसाल की त्रासदी को परंपरा की त्रासदी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। वह जब भी बेचैन होती और सुबकने लगती तो वृद्ध बाँदी गुलाब कँवर उसे समझाते हुए कहती- ''री छोरी, रोण धोण से कुछ कोणी फायदा...बाँदी अइयां ही नसबी लैके होवै री बावरी...।’’ (बाँदी और अन्य कहानियाँ, पृष्ठ-73 ) ठाकुर सा रिसाल के दीवाने हो चुके थे और इस दीवानगी की कीमत चुकाने के लिए उसे रोज रात को ठाकुर सा के पास जाना पड़ता था -'मरद की फितरत अण बाँदी की किस्मतअइसा होबै। राणी सा यानी सुदर्शना देवी लाख चाहकर भी ठाकुर विश्राम सिंह के कुल को दीपक नहीं दे पायीं रिसाल ने उस कुल को नया जीवन दिया। हवेली को कानोकान भनक  न लगी सिवाय ठाकुर सा, ठकुराइन और गुलाब कँवर के। ठकुराइन ने रिसाल को ठाकुर सा से दूर करने की ऐसी दुरभिसंधि रची कि वह सदा के लिए उनसे दूर हो गयी। हवेली की रवायत थी कि बाँदी का उपयोग कोई कर्मचारी कर ले तो ठाकुर खानदान छूता तक न था। उस दिन रिसाल गिड़गिड़ाती रही पर राणी सा फैसले पर  अटल थीं। उस दिन के बाद से ठकुराइन को कुढऩ से निजात तो मिल गयी पर रिसाल की जिन्दगी नरक बन गयी।

प्रेम मुक्त करता है और ये बात रिसाल के जीवन में साबित भी होती है। लाखन सिंह के प्रेम ने उसे नए स्वप्न का साहस दिया लेकिन यह 'साहसहवेली के लिए चुनौती की तरह था जिसे राणी सा ने अपने खानदानी तौर तरीकों से कुचलवा दिया और अब रिसाल के सामने हवेली में रहने का एक ही विकल्प बचा था कि वह अपनी को गिरवा दे पर उसने दूसरा विकल्प चुना और बेटी को जनम दिया। रिसाल का परंपरा से यह प्रतिशोध था। अपने अतीत को वह हवेली की उन दमघोट परम्पराओं की जमीन में बहुत गहरे दबा आई थी। असुरक्षा और भविष्य की अनिश्चितता के बावज़ूद अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए उसने बेटी को अपने से बहुत दूर एक नयी दुनिया में रखा। जिस ठीहे से उसकी यात्रा शुरू हुई थी वह उससे बहुत आगे निकल जाती है और मुक्त कर जाती है अपनी अगली पीढ़ी को गुलामी की जंजीरों से सदा सदा के लिए। वंदना की कहानियों के चरित्रों में इस तरह की संघर्षशीलता विरल है।

कश्मीरी आवाम का दर्द और जेनी की संघर्षशीलता

आतंकवाद की विभीषिका झेलते कश्मीर की हताहत ज़िन्दगी का अक्स उभारती कहानी 'स्मृतियों का कोरसवंदना की कथा-दृष्टि के विस्तार का सूचक है। कश्मीरी आवाम की पीड़ा और भय के मंजर के बीच कश्मीरी युवती 'जेनीकी जीवटता से एक आस जगती है कि अगर इसी तरह वहाँ के युवक मिलकर आवाज़ उठाएं तो बदलाव की संभावना बन सकती है। झेलम नदी के किनारे उड़ी गाँव में अपने माता पिता और भाईयों से भरे परिवार में जेनी कितनी खुश थी पर एक दिन 'उन लोगोंने सब तहस नहस कर दिया और और पूरा परिवार पलायन के लिए विवश हो गया। कहानी के केंद्र में अवस्थित 'जेनीया 'जैनबकी विडम्बना यह है कि वह हिन्दू माँ और मुस्लिम पिता की संतान है। घाटी से जबरन विस्थापित की जाने वाली हिन्दू कौम के साथ ही उसका परिवार भी माँ के धर्म न परिवर्तित करने के कारण दहशतगर्दों के निशाने पर आ जाता है। विस्थापन का दंश झेलता उसका पुश्तैनी घर ही नहीं छूटता; लहलहाते सेब और अखरोट के बगीचे भी छूट जाते हैं। कैसे बीतते होंगे खुद से वो लोग जिनकी जिन्दगी की सड़क से इन्तजार के पदचिन्ह मिट जाते हैं? पूरे परिवार ने गुलमर्ग में एक रिश्तेदार के यहाँ पनाह ली और जेनी को वहाँ से दूर जम्मू भेज दिया गया लेकिन वहां भी घर खाली करने का फरमान जारी कर दिया गया लेकिन इस बार जेनी का परिवार वहाँ से नहीं गया। जेनी की उतरी हुई जुबान से खदबदाते शब्द निकल रहे थे 'आखिर एक रात उन लोंगों ने हमला कर दिया और अब्बू और छोटे भाई को बंधक बनाकर उन्हीं के सामने अम्मी के साथ...। यह बताते हुए जेनी की नज़रें झुक गयी थीं।’(स्मृतियों का कोरस, काफ़िला साथ और सर तनहा, क.सं., पृष्ठ-43) 

कश्मीर में कितने परिवार तबाह हो गए, कितनों को मार दिया गया कितनी ही औरतों ने आत्महत्या कर ली। जेनी का परिवार शरणार्थी कैम्प में रहने के लिए मजबूर हो गया। ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर घाटी में हिंसा और वहशीपन कमजोर पडऩे के बजाए और मजबूत क्यों हुआ है? इसके लिए हमारी सरकारें कितनी जिम्मेदार हैं? कैम्पों में रहने वाले शरणार्थियों में खौ और फ़िक्र मुस्तकिल तौर पर ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाते हैं। जेनी के गुस्से में कश्मीर की हकीत छलक पड़ती है- ''आप बाकी महफूज़ इलाकों में रहने वाले बाशिंदे क्या जाने कि हम मुजाहिरों की तकली क्या होती है? हजारों मील दूर बैठे अखबारों और टी.वी. में आधी अधूरी बरों को देख अंदाजे लगा लेना और उन घटनाओं का भुक्तभोगी होना-इन दोनों में जमीन आसमान का र्क है ।’’ (उपर्युक्त, पृष्ठ-40) कहानी सवाल उठाती है कि आख़िरकार कब तक लोग अपने घरों से भागते रहेंगे? आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी सरकारों के भरोसे तो कुछ हो नहीं पाया तो क्या कश्मीरी आवाम को इसकी पहल नहीं करनी चाहिए? कहानी राजनीतिक मुद्दों से अलग प्रयासों की जरूरत पर जोर देती है।

भारतीय मीडिया के अंतर्विरोध और सिकुड़ता नागरिक-बोध  

भारतीय लोकतंत्र में मीडिया के मौजूदा हालत पर अमर्त्य सेन की टिप्पणी अवलोकनीय है कि- ''भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव तथा असमानताओं समेत समस्याओं के कारण उत्पन्न चुनौतियों का मुकाबला करने में भारतीय मीडिया विफल रही है। यह विफलता उसके पूर्वाग्रहों का फल है, जिसके चलते उसने बुनियादी चिंताओं से अपना मुँह फेर लिया है ।’’ (भारत और उसके विरोधाभास, पृष्ठ-264) मीडिया की विफलताओं को गहरे आशय के साथ व्यक्त करती कहानी 'सहर होगी किसी स्याह रात के बादइस चिंता से मुख़ातिब है कि जनता की आवाज़ उठाने वाला भारतीय मीडिया कितने गहरे तक कारपोरेट ताकतों की जद में है। वंदना इसे आदमखोर सभ्यता कहती हैं। कहानी की मुख्य किरदार हिना जो पेशे से पत्रकार है; इस आदमखोर सभ्यता से टकराने की पहल करते हुए अपनी अम्मी की इस समझाइश- 'बस अपने घर परिवार की हिफाजत करो और खामोशी से सब देखती रहोको एक सिरे से नकार देती है। अपने को जोखिम में डालकर भी वह निरंकुश होती ताकतों के खिला आवाज़ उठाती है जिसके परिणामस्वरूप उसे जान से मारने की कोशिश की जाती है। इन सबके बावज़ूद एक सवाल उसे परेशान करता रहता है कि - जिस समाज के लिए वह लड़  रही है क्या वह इस लायक है कि उसके लिए इतनी कोशिश की जाए! जिस लड़की के साथ हुए अन्याय के खिला वह खड़ी होती है वही अदालत में अपराधियों के खिला बयान देने से मुकर जाती है। एक तरफ है डरा हुआ समाज और दूसरी तरफ है झूठी बहसों और सनसनीदार खबरों को परोसती मीडिया। हिना का सहकर्मी आसिफ़ उसे समझाते हुए कहता है कि 'जिस मीडिया की रोशनी में तुम आगे बढ़ रही हो उसका सच जानती हो? ये मीडिया रोबोट की तरह एक आत्मा रहित देह है, एक बहरा पथ प्रदर्शक जिसके सिर्फ आँखे और जुबां है।रचना अंत तक इस सवाल को बेसबब नहीं छोड़ती कि परिस्थितियां अनुकूल बनाने में दिक्कतें आती रहती हैं पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया जाए।

भेडिय़ाधसान समय में एक धीमी सी आवाज़

किसी समाज में कला और कलाकारों का अपदस्थ होते जाना सांस्कृतिक क्षरण का प्रतीक है। भेडिय़ाधसान समय में कलाएं और कलाकार लगातार पीछे छूटते जा रहे हैं। इस पीछे छूटते की पीड़ा की शिनाख्त करती वंदना की तीन कहानियाँ -'एक धीमी सी आवाज़’, 'पुतलीघर’ 'आवाजेंउन कारणों तक पहुँचने की कोशिश करती हैं जिनके चलते किसी समाज में कलाओं की दुनियाँ सिमटती जाती है। अपने जमाने के मशहूर गवैये उस्ताद इकराम खान की पीड़ा का सबब यही है कि पूरी दुनियाँ में अपनी खास पहचान रखने वाला भारतीय शास्त्रीय संगीत अपनी जीवंत परंपरा खोता जा रहा है। संगीत के घराने मिटते जा रहे हैं और कुछ बेहद मशहूर नामों को छोड़ दिया जाए तो इस क्षेत्र में आजीविका का संकट बढ़ता गया है। ऐसी कई विधाएं जिन्हें साधने में कलाकारों ने अपना जीवन लगा दिया वो संकट में हैं। 'एक धीमी सी आवाजकहानी के मुख्य पात्र उस्ताद इकराम मुहम्मद खान गुज़रे जमाने की जब भी याद करते हैं उनकी मुंदी आँखों के नीचे अँधेरे की गाढ़ी परत छा जाती है। क्या तो ज़माना था उनका...शाबाशी, तारीफें, मुहब्ब्तें उन पर न्योछावर की जाती थीं। सम्मान और इनामात दिखाने की बात पर उनकी पीड़ा छलक आयी - 'जब इंसान के भीतर वो नकार ही दन हो चुका  हो, वो जगहें उजड़ गयीं, वो मुहब्बतें वो चाहने वाले ही नहीं बचे तो इन बेजान निशानियों का भला क्या करेंगे बताइए जरा?’ (बाँदी तथा अन्य कहानियां, पृष्ठ-46) 'आवाजेंके उस्ताद हमीदुल्लाह खान उर्फ छुट्टन मियाँ ने संगीत-साधना से जो अनुभव अर्जित किया उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में प्रयासरत हैं । शास्त्रीय संगीत की लोकप्रियता के कम होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि 'सफलता के शार्टकट तलाशने वाली पीढ़ीइतनी मेहनत नहीं करना चाहती इसकी तालीम में अपना समय नहीं लगाना चाहती। छुट्टन मियां के लिए यह एक इबादत है 'जिसके लिए हौसला चाहिए, रियाज और जुनून चाहिए तब कहीं जाकर गवैये का ओहदा मिलता है।इन दोनों कहानियों में हम देख पाते हैं कि 'कला का चेहरा उतरा हुआ है। इस उतरे हुए चेहरे की 'पीड़ा भरी  कहानीको 'पुतलीघरमें पढ़ा जा सकता है। हालांकि यह कहानी उपर्युक्त कहानियों से थोड़ी भिन्न है। इसमें सड़क के किनारे बनी कठपुतली कालोनी के ढहाए जाने के बीच लोक कलाकारों की निरुपायता का मार्मिक चित्रण किया गया है। एक तरफ कठपुतली कलाकार और दूसरी तरफ ढहाने वाले लोग मानो कठपुतलियों का कोई युद्ध चल रहा हो; रक सिर्फ इतना कि लोक कलाकार  पेट की आग मिटाने के लिए यह युद्ध दिखाते हैं  और दूसरी ओर वो लोग हैं जो गरीबों के पेट पर लात मारने के लिए युद्ध कर रहे हैं। कठपुतली तो वो भी हुए जिनके भीतर न तो धरम-ईमान है और न भावना-संवेदना। दूसरों के इशारों पर काम करने वाले भी तो कठपुतली है? तो फिर क्या र्क रहा जिन्दा और मुर्दा होने में? सड़कों पर गंधाती बस्तियों में रहने को अभिशप्त इन कठपुतली नाच दिखाने वालों की किसे फिकिर है? सत्ताधारियों और समाज के महाप्रभुओं के कदमताल की ठोकर से जो ध्वंश हुआ है उसके कारण जीवन के बुनियादी सवाल हाशिए पर चले गए हैं।  कहानी 'रीबी और विवशताकी इस दशा के लिए जिम्मेदार 'दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रसे मुखामुखम है।

नींद से बाहर के सपने और कथा के कुछ और ठिकाने

भारतीय सन्दर्भ में देखा जाए तो परिवार 'स्त्री की नियतिका निर्धारण करने वाली ऐसी सरंचना रही है जिसकी बागडोर पितृसत्ता के नियंत्रण में रहती है। नियंत्रण की 'यह स्थिति तब और कठोर हो जाती हैजब स्त्री विवाह-संस्था में प्रवेश करती है। 'नींद से बाहर के सपनेकहानी की 'केतकीऔर 'चश्माकहानी की 'मालती देवीपितृसत्ता के कठोर नियंत्रण में मर-खप जाने वाली स्त्रियाँ हैं। घर-गिरहस्ती में हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें अपने पति से धिक्कार, अपमान ही मिला। केतकी उम्र के ढलान पर थीं तो भी क्या मजाल की कभी पति के उठने से पहले उनका तोरा न किया हो और मालती देवी तो सब करके भी मार खाती रहीं। दोनों ही तरसती रहीं कि कभी तो उनके पति सीधे मुंह बात कर लें। अपनी बेटी की डिलिवरी के समय केतकी का कुछ समय के लिए हैदराबाद जाना होता है। जाने कितने समय बाद तो वह हंसी थीं और जाने कितने दिनों बाद दोपहर में लेटने का सुख नसीब हुआ था। इतने दिनों में बाबू जी की जीवन की गाड़ी ही मानो बेपटरी हो गयी थी। जब केतकी का वापस आना होता है तब वह देखती हैं कि सुबह सुबह बाबूजी के हाथ में ट्रे है जिसमें चाय के दो कप हैं। उसे केतकी की ओर बढ़ाते हुए वह पूछते हैं- कैसी है तू? और यहीं कहानी त्म होती है। कहानी का अंत बाबू जी के बदलाव का स्पष्ट संकेत करती है जिससे सहमत होना थोड़ा मुश्किल है। यदि बाबूजी में अगर थोड़ा भी बदलाव आया होता और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ होता तो अपने जीवनसाथी के इतने दिनों बाद घर आने से पहले इतनी निश्चिंतता से सो न गए होते! वंदना जिस तरह से अंत दिखाती हैं वह बनावटी लगता है स्वाभाविक नहीं। दूसरी बात ये कि इन कहानियों में कथा-स्थितियों का दोहराव और वर्णन सचेतता का अभाव है। 'चश्माकहानी  में भी स्क्रिप्ट को गहराई से अवलोकित किए जाने की कमी दृष्टिगत होती है। खुद को 'गमट्टी और बूढ़ीमानने वाली मालती देवी जिनका दिल इसी बात पर बैठा जा रहा है कि जीवन में पहली बार अकेले घर से निकली हैं उनका इस तरह केबिन के पास जाकर ड्राइवर सहित उन लड़कों को हड़काना कि 'जे गाने बंद करो...जे बस है कोई सिनेमाघर नहींस्वाभाविक नहीं लगता। यह फिल्मों में तो संभव है पर कहानी में नहीं। बावज़ूद इसके वंदना शुक्ल की कहानियाँ आमहम पारिवारिक संरचना को अतिक्रमित करती हैं। उनकी कहानियों में कुछ ऐसे शब्द हैं जिनकी आवाजाही निरंतर चलती रहती है जैसे-अचानक, बहराई, नमूदार, जिद्द, गोया, सरक, अलस्सुबह, हरहराई आदि। 'अचानकतो उनका तकियाकलाम है। इन कहानियों के शिल्प और भाषिक क्षमता में निखार है जिसके कारण ये पठनीय बनती हैं।

का घर का परदेश : देश देश की कहानियाँ

वन्दना की कई कहानियाँ विदेशी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखी गयी हैं। इन कहानियों के देशकाल भले ही अलग अलग हों और मान्यताओं  में चाहे जितनी भिन्नता हो, इनकी संवेदना एक जैसी है। ये कहानियां व्यक्ति और समाज के छोरों को न केवल छूती हैं बल्कि उन्हें जीती भी हैं। कथाकार के शब्दों में कहें तो ये कहानियाँ अपने देश के छोर, यहाँ की सोच और संस्कृति का सिरा नहीं छोड़तीं यानि इनमें सरहदों के पार की संस्कृति से मनुष्यता के स्तर पर एक तुलनात्मक आकलन भी सन्निहित है। चीनी सरकार ने अपने देश की बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए एक संतान का जो कानून बनाया था उससे कईयों की जिन्दगी तबाह हो गयी। 'माँकहानी 'इस कानून के मानवीय पहलू कीनोटिस लेतीहै। इस कानून के लागू होने से चीन में बच्चों के लापता होने की घटनाएं बेतहाशा बढ़ गयीं। यह अकेले और बेसहारा बूढों की कतार में खड़े होने की बदकिस्मती झेलती एक माँ की दर्द भरी दास्ताँ है जिसमें वह अपने बच्चे को ढूंढते हुए आजिज आ गयी है और कहती है - ऐसी जिन्दगी से बेहतर तो मौत है और उसके पति भाग्यशाली रहे। शायद यही उनका इस निष्ठुर व्यवस्था के प्रति प्रतिशोध था। इस तथकथित 'कड़े प्रावधान वाले कानूनका सबसे बड़ा अन्तर्विरोध यह है कि दूसरा बच्चा होने की दशा में बड़ा जुर्माना भरकर दंड से बचा जा सकता है। कम्युनिष्ट देश में रीबी का ऐसा मज़ाक बनाया जाएगा यह सोचना विचलित करता है। वंदना ने विदेशी पृष्ठभूमि पर जितनी कहानियां लिखीं हैं उनमें सबसे अधिक सिंगापुर पर केन्द्रित हैं। 'मशीन’, 'पंछी ऐसे जाते हैं’, 'आखेटजैसी महत्वपूर्ण कहानियाँ सिंगापुर के समय और समाज का आख्यान हैं। 'मशीनभारतीय  मूल के एक परिवार में दो वर्ष के कांट्रैक्ट पर काम करने वाली बेबी केयर मेड को को केंद्र में रखकर लिखी भाव संपृक्त कथा है। कहानी एक तरफ विकसित सभ्यताओं में भावनाओं और संवेदनाओं के मशीनीकृत होते जाने की प्रवृत्ति पर चोट करती है वहीं दूसरी तरफ इस्नावती (इस्ना) की भीतरी दुनियाँ को टटोलते हुए कई सवालों से जूझती है। दो वर्षों तक लगातार साथ रहते हुए इस्नावाती ने जिस शिशु का लालन-पालन किया, स्नेह, दुलार उलीचा उससे दूर जाने में क्या उसे पीड़ा नहीं हुई होगी? जिस घर में उसे इतना अपनापा और सम्मान मिला उसमें एक वर्ष और रुकने के कांट्रैक्ट को सुनकर वह निर्भाव कैसे रह सकती थी? पर वह 'निर्भावरही क्योंकि इन दो वर्षों में उसने जितना गहरा लगाव महसूस किया था उससे आगे बढऩा शायद संभव न था। भावनाओं को लुटाते हुए 'भावुकता पर निर्मम नियंत्रणउसके काम की मज़बूरी थी। इस बिंदु पर कहानी तो ख़त्म हो जाती है पर इस्नावाती मन के भीतर तक धंस जाती है। भीतरी उथल पुथल वंदना के कथा-चरित्रों की अनिवार्य प्रवृत्ति है। 'आखेटसभ्य कहे जाने वाले मुल्कों की कृत्रिम जीवनशैली को उभारती मानवेतर संवेदना की कथा  है। 'पेडोमीटरयूएसए में बस गए भारतीय मूल के दत्ता जी की जीवटता की कहानी है। कहानी प्रेरणास्पद जरूर है पर 'लाफिंग क्लबकी घुसपैठ यहाँ बहुत है। 'मछलियाँजादुई यथार्थ के शिल्प में बुनी गयी इण्डोनेशियाई परिवार के बिखरने की कथा है जिसमें लड़की (नैरेटर) के पिता अपनी नाव में रोज की तरह निकलते हैं पर दिन बीतने पर भी वापस नहीं आते और ऐसे ही दिनों के बीतने का सिलसिला बन जाता है। माँ बौराई रहती उनके इन्तजार में मगर उनका आना सपना हो गया। हम देख पाते हैं कि रीबी, विवशता और उदासी का रंग पूरी दुनिया में एक सा होता है -क्या देश और क्या परदेश। दूसरे पिता के आते ही माँ की ज़िन्दगी...। फिर माँ रात में गायब होने लगी और सुबह निढाल लौटती और एक दिन वह भी सुबह नहीं लौटी। उसी नदी में पिता बहुत दूर खो गए थे जिसमें माँ की लाश मिली थी। यहाँ नदी की गतिविधियों, मछलियों की हरकतों, पिता के जाने और माँ के कभी न आने के बीच अस्पष्टता है, रहस्य है; पर वह यथार्थ का हिस्सा है। यहाँ भाषा की अनेकानेक भंगिमाओं में पूरा दृश्य एक दु:स्वप्न की तरह उभरता है।  'का घर का परदेशसंग्रह की कहानियों के सन्दर्भ में योगेन्द्र आहूजा की टीप काबिलेगौर है कि, 'ये कहानियां किन्हीं सनसनियों, रोमांचों और हिंसाओं का बयान नहीं, बल्कि उनके बीच जो खामोशी से और बेमालूम तरीके से हलाक होता है, उसे अपने निजी अंदाज़ में दर्ज करने की कोशिश हैं।वंदना की कथा यात्रा अपना बहुआयामी विस्तार करेगी इसकी उम्मीद की जानी चाहिए।

 

सन्दर्भ : प्रस्तुत आलेख वंदना शुक्ल के चार कहानी संग्रहों - उड़ानों के सारांश, अंतिका प्रकाशन दिल्ली, काफ़िला साथ और सर तनहा,अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, बाँदी और अन्य कहानियां, बोधि प्रकाशन, जयपुर, का घर का परदेश, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली के अलावा संबोधन पत्रिका, फरवरी, 2018 में छपी कहानी 'बन्दर’ ; कथाबिम्ब पत्रिका में प्रकाशित  कहानी 'चश्मा’; वागर्थ के अप्रैल 2018 अंक में प्रकाशित कहानी 'पुतलीघरके आधार पर तैयार किया गया है।

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