आख्यान में लीला उदय प्रकाश की कहानियों का पाठ

  • 160x120
    सितम्बर - 2018
श्रेणी आख्यान में लीला उदय प्रकाश की कहानियों का पाठ
संस्करण सितम्बर - 2018
लेखक का नाम अमिताभ राय





 

मीमांसा

 

 

'दरियाई घोड़ाकी पहली कहानी है - 'मूँगा, धागा और आम का बौर। उसका पहला अनुच्छेद है - ''दु:ख बहुत चमकीला था। धूप की तरह। इतना साफ कि कोई भी उसे देखकर जान सकता था कि यह दु:ख ही है। वहाँ जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा खाली पड़ा था जिसमें मेरी एक बहुत पुरानी किताब खुली हुई पड़ी थी। किताब के खुले पन्नों पर धूप गिर रही थी और दु:ख चमक रहा था।’’ ये पंक्तियाँ उदय प्रकाश के कथा साहित्य के लिए आधारभूत संरचनात्मक विशेषता का काम करती हैं। उनके पूरे कथा साहित्य में मनुष्य के दु:ख की निरन्तरता बनी हुई है। दु:ख कभी पीड़ा के रुप में है, कभी यंत्रणा के रूप में, कभी शोषण के परिणाम के रूप में तो कभी-कभी आत्मपीड़ा के रुप में भी। उपर्युक्त पंक्तियाँ पूरे कथा साहित्य की संरचनात्मकता के साथ ही, अपनी तात्कालिकता में भी बहुत व्यंजक हैं। दु:ख चमकीला था, धूप की तरह। यहाँ यह निर्धारित नहीं किया गया है कि यह धूप जाड़े की है या गर्मी की। यह विवरण से ज्यादा भाषा के सामथ्र्य का मसला है।

नयी कहानी में अनुभव की जिस प्रामाणिकता पर इतना बल दिया गया है, वह भी यहाँ खण्डित होता है। नयी कहानी की संरचना से, पहले ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह और उसके बाद स्वयं प्रकाश आदि तमाम कहानीकार टकरा चुके थे। वह टकराहट एक दूसरे स्तर पर थी। इस 'कोई भीके विस्तार का सन्दर्भ हम ग्रहण करें तो बतौर कहानीकार उदय प्रकाश की टकराहट अपनी पहले की पीढ़ी से न होकर 'नयी कहानीसे थी। अनुभव की प्रामाणिकता से थी। जबकि अमूमन ऐसा होता है कि टकराहट अपनी पहले की पीढ़ी से होती है। ऐसी प्रक्रिया हिन्दी साहित्य में पहली बार निर्मित नहीं हुई थी। रीतिकाल से भारतेन्दुयुगीन, द्विवेदीयुगीन और छायावादी कवि टकराते थे। रीतिसंरचना और साहित्य से टकराहट के साथ छायावादी कवि युगीन साहित्य और संरचना से भी टकराता है अर्थात् यह टकराहट द्विस्तरीय रही है। उदय प्रकाश कहानीकार के रुप में उस प्रक्रिया से बाहर निकलते हैं। उनकी रचनात्मक टकराहट अपने तत्काल पूर्ववर्तियों को बाइपास करती है। यह क्यों हुआ। हमें उनकी कहानियों की संरचनात्मक समझ के लिए नयी कहानी के पास क्यों जाना पड़ता है? उदय प्रकाश ने 1980 के आसपास कहानियाँ लिखनी शुरु की। उस समय उदारीकरण, उग्र पूंजीवाद, जीवन में सूचनात्मकता का वैसा आतंक नही था, जैसा 1991 ई. में मुक्त बाजारवाली अर्थव्यवस्था के अपनाने के बाद निर्मित हुआ। बाद में सूचनात्मकता उदय प्रकाश की कहानियों की संरचनात्मक विशेषता बनती भी है। उदय प्रकाश उन साहित्यकारों की पहली सूची में थे, जिनका जन्म आजाद भारत में हुआ था। सन् 1960 तक का समय आजादी के बाद भी रूमानियत और ऋणात्मक रूमानियत का था। नयी कहानी का नयी कविता के अनेक सन्दर्भों पर आलोचकों ने बातचीत की है। उनकी रूमानियत पर कभी गौर नहीं किया गया। रूमानियत का सीधा सम्बन्ध भावुकता से है। नयी कविता अथवा नयी कहानी निर्माण की भावुकता से बहुत गहरे प्रभावित थी। राजनीति में इसे नेहरू के आर्थिक मॉडल में भी देखा जा सकता है। अनुभव की प्रामाणिकता भी उस रूमानियत का ही हिस्सा थी कि हम अपने अनुभव को ही लिखेंगे। जैसे कोई यह प्रतिज्ञा ले रहा हो कि आज से मैं सिर्फ सच बोलूंगा या जैसी भीष्म ने प्रतिज्ञा ली थी। उदय प्रकाश और उनकी पीढ़ी के तमाम कथाकार निर्माण की भावुकता से बाहर निकल जाते हैं। रूमानियत से बाहर निकलने के कारण वे उस रूमानियत के सामने या सामानान्तर खड़े हो जाते हैं।

दु:ख को कोई भी पहचान सकता है- यह पाठक और आलोचक दोनों के लिए है। ये दोनों अनुभव की अनिवार्यता से बाहर निकलते हैं। रचना भी। अपना अनुभव है तो ठीक है, अपना अनुभव नहीं, तो क्या? क्या वह जीवन और समाज का अंग नहीं। दार्शनिक स्तर पर, रूमानी सन्दर्भों के बाहर इस विचार का विकास, उस विचार का सीमान्त जान पड़ता है, जिसमें दुनिया की विशालता के भीतर व्यक्ति का अनुभव बहुत सीमित है। इस अनुभव की सीमितता के साथ, अनुभव की प्रामाणिकता की डोर पकड़े हम बहुत दूर तक नहीं जा सकते।

उपर्युक्त उद्धरण में उदय प्रकाश एक बात और कहते हैं, जो कहानी की संरचना में आ रहे बदलाव को ही रेखांकित करती है। 'किताब के खुले पन्नों पर धूप गिर रही थी और दु:ख चमक रहा था।दुख जीवन से निकलकर किताब में चला गया है। धूप स्टेज पर पडऩे वाले स्पॉट लाइट की तरह है। इस स्पॉट लाइट में दुख चमक रहा है। तो इसके क्या मायने हैं। किताब भी अपनी नहीं है। पिता की है या किताब के रचनाकार की है। पढऩे पर कुछ अंशों में अपनी भी हो सकती है। पर अभी पढ़ी नहीं गयी है। न अनुभव अपना और न अनुभव का सन्दर्भ अपना। तब फिर इसके मायने बदल जाते हैं। विशाल और सार्वजनिक तत्व राजनैतिक, आर्थिक और समाज सम्बन्धी नये सन्दर्भों में बहुत निजी हो जाते हैं। पूँजीवादी दुनिया के प्रसार के साथ क्रमश: दुनिया मेंं संचार माध्यमों, वैभव की अट्टालिकाओं, 'पूँजी के सिमटने और पूँजीवाद के गहन प्रसारको देखा गया है। इस प्रसार के साथ या समानांतर गरीबी, दुख, शोषण के भी बढ़ते जाने के नये सीमान्त तैयार हुए हैं। 'कोई भीइन अति व्यापक सीमान्तों के बीच अवस्थित एक इन्डीविजुएल है। अब यह इन्डीविजुएल सामाजिक है, असामाजिक है, जंगली है, सभ्य है, इसे नहीं जाना जा सकता। कम से कम पूँजीवादी संस्थाओं और उसके प्रभाव के भीतर तो नहीं ही।

इस कोई के साथ एक समस्या यह भी है कि उपर्युक्त विशाल धुव्रान्तों के बीच बसे जन में संवेदनात्मक अर्हता का प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है। जैसे धूप की चमक का अर्थ सबके लिए समान नहीं है, वैसे ही दुख भी सबको इतना उद्वेलित करे कि वह चमकदार दिखाई पडऩे लगे, यह आवश्यक नहीं। कन्ज्यूमर बिहेवियर के तहत अगर दुख को वस्तु की तरह देखें, तो वह इतना पर्सनल हो जाएगा कि उसकी प्रवहमानता समाप्त हो जाएगी। अगर दुख सिर्फ हमारा होगा, दूसरों के दुख से जुडऩे की उसमें क्षमता नहीं होगी, तो वह मानवता की ऐतिहासिक सरणियों में प्रवहमान नहीं होगा। यह दुख दर्शन, चिन्तन, सूचना की तरह हमारे समक्ष आएगा। एक सन्दर्भ देखिए- ''राहुल की स्मृति में वह फिल्म, नहीं... कोएट्जी के उपन्यास 'एक देश के हृदय मेंका अंश कौंध गया, जिसमें एक नीग्रो लड़का अपने गोरे मालिकों की हत्या के बाद उनकी बेटी से बलात्कार करते हुए, शताब्दियों से गुलाम बना डाली गयी, दमित और पराभूत अश्वेत जाति का बदला लेता है। लेकिन उसका प्रतिशोध उस लड़की के लिए मज़े और सुख का साधन बन जाता है।’’ (पीली छतरी वाली लड़की) यह सूचनात्मक दुख, पीड़ा, यंत्रणा या शोषण के अनेक सन्दर्भों से जुड़े होने के बावजूद या उसके साथ है, सामाजिक को प्रवाहमान अथवा उदार नहीं बना पाता क्योंकि यहां दुख की सूचनात्मकता, उसकी अनिवार्य भवितव्यता को स्थानापन्न कर रही है। यहां स्पष्ट है दुख, पीड़ा, यंत्रणा मात्र अनुभव का हिस्सा नहीं हैं। वे सूचना का, ज्ञान के विशाल भंडार का अंग हैं। वह ज्ञान अथवा सूचना, जो भूमंडलीकरण, उग्र पूँजीवाद और उत्तर आधुनिक संचार क्रांति के युग में निर्मित हुआ है। कुछ अन्य सन्दर्भों में इसे निर्मित भी किया गया है। दुख अपनी संवेदनात्मकता के साथ, जो इनकी प्रारम्भिक कहानियां में था और सूचना अथवा ज्ञान मीमांसा के रुप में, जो परवर्ती कहानियों में है, इससे हमारी संवेदनात्मक संरचना पर क्या फर्क पड़ता? दुख जब संवेदना के रूप में आएगा तब उसमें प्रशरण की क्षमता होगी, सूचना अथवा ज्ञान मीमांसा के रुप में होगा, तब उसमें प्रशरण की क्षमता नहीं होगी। ज्ञान मीमांसीय स्रोत के रूप में उसमें विस्तार होगा। दुख, पीड़ा, शोषण पहले ही किताब में चला गया था। पूँजीवादी विस्तार के साथ। नयी शताब्दी और सहस्राब्दी में पहुंचकर तो वह जीवन से और भी छिटक गया है। राहुल अपने सीमित और क्षणिक अनुभव पर भरोसा नहीं करता। अपनी भावना और राग पर भरोसा नहीं करता। राहुल के मन में संदेह अपने भरोसे और राग के खण्डन से उत्पन्न नहीं होगा। उसका संदेह सूचनात्मकता और ज्ञान मीमांसीय स्रोतों पर आधारित है। यह जीवन और साहित्य में भी, पाराडाइम शिफ्ट का सूचक तो है ही। यह एक तथ्य है, उस का मूल्यांकन नहीं। पूँजीवादी और राजनैतिक संस्थाएं एवं सत्ताएं इनका मूल्यांकन नहीं होने देना चाहती। क्यों? क्योंकि तथ्य को प्रसंग के साथ जोड़कर कोई भी दिशा दी जा सकती है। तथ्यों का सत्ताओं और संस्थाओं द्वारा मोड़ा जाना आसान है। 'और अंत में प्रार्थना’, 'पॉल गोमरा का स्कूटरमें जो यथातथ्यता है, सत्ता और संस्थाएं उसको कितनी आसानी से अपने पक्ष में कर लेती हैं। इसी कारण कलात्मक उत्कृष्टता और संवेदनात्मक संरचनागत वैशिष्ट्य के बावजूद ये कहानियां न युगीन सत्यों के मूल्यांकन को प्रस्तावित कर पाती हैं और न हस्तक्षेपकारी भूमिका में आ पाती हैं।

 

                                                                                   2.

उदय प्रकाश के साथ कहानी- संग्रह और कहानी प्रकाशित हैं - दरियाई घोड़ा ø1982), तिरिछ (1996), पॉल गोमरा का स्टूर (1997), ...और अंत में प्रार्थना (1998), पीली छतरी वाली लड़की (2001), दत्तात्रेय का दुख (2002), मोहनदास (2006), मैंगोसिल (2006) इनकी कहानियों को उनके विकास क्रम में देखें तो भी हमें अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। कालक्रमानुसार इनकी आरम्भिक कहानियों के रचे जाने तक उत्तर आधुनिक सन्दर्भों, संचार माध्यमों आदि की आक्रामकता से समाज का सामना नहीं हुआ था। फिर भी इन आरम्भिक कहानियों में भी विद्वान आलोचक उत्तर आधुनिक सन्दर्भ देखते हैं। जिस या जिन प्रवृत्तियों का विकास अभी हुआ ही नहीं था, कहानी में खोजना...! हो सकता है उदय प्रकाश नजूमी हों! खैर... मेरी समझ से कहानी की संवेदनात्मक संरचना में यह उत्तर आधुनिकता के प्रारम्भिक चरणों का संकेत नहीं, आधुनिकता का उत्तर राग है। आधुनिकता उत्तरआधुनिकता में जिस एक प्रवृत्ति और उससे जुड़ी संस्थाओं का निरन्तर विकास हुआ है, वह पूँजीवाद है। औद्योगिकता की उत्तरोतर समृद्धि ने पूंजीवाद और उसकी विभिन्न संस्थाओं को निरन्तर वर्चस्वशाली स्थितियों पर पहुंचाया है। यह ठीक है कि उत्तर आधुनिक दौर में पूँजीवाद अपने वर्चस्वशाली स्थितियों के चरण पर पहुँच चुका है, लेकिन इसके ठीक पहले के आधुनिकतावादी दौर में भी पूँजीवाद की वीभत्सता कम न थी।

कहानियों के पूरे विस्तार को, विकास को ध्यान से देखा जाए, तो उनकी कहानियों में विकास के दो चरण स्पष्ट हैं। एक आधुनिकतावादी पूँजीवादी संरचनाओं के उत्तर राग के साथ विकसित हुआ है, तो दूसरा इन उत्तर आधुनिक स्थितियों के साथ। मोटे तौर से यह विभाजन 'पॉल गोमरा का स्कूटरनामक संग्रह से दिखायी पड़ता है। 'दरियाई घोड़ाऔर 'तिरिछकी संवेदनात्मक संरचना आधुनिकता का उतर राग है। इसके बाद के संग्रहों में उत्तरआधुनिकतावादी संवेदनात्मक संरचनाएं तीव्रता के साथ उभरती हैं। इन दोनों संवेदनात्मक संरचनाओं में बहुत ज्यादा फर्क है। वास्तव में उनकी कहानियों की संवेदनात्मक संरचना का केन्द्र समाज और उनकी विसंगतियाँ नहीं हैं। उनका केन्द्र समाज में रह रहे सामाजिकों की त्रासद स्थितियां हैं। अप्रत्यक्ष रूप से वे समाज और उसकी विसंगतियों के कारण ही है, अप्रत्यक्ष ही। बीच-बीच में वे सन्दर्भ के रूप में उन्हें रखते हैं। कहानी का केन्द्रीय सूत्र सामाजिक ही है। समाज में सामाजिक रहता है, तो समाज अवचेतन के रूप में आएगा ही। पर समाज ट्रिगर प्वाइंट नहीं है। सामाजिकों और उनकी त्रासदियों के इर्द-गिर्द निर्मित ये कहानियां विभाजन के उपर्युक्त आधारों पर निर्मिति के कारण बिल्कुल अलग दिखायी पड़ती हैं। आधुनिकता के उत्तर राग के आधार पर लिखी कहानियों में संवेदनात्मक संरचना ज्यादा ठोस हैं। इसकी तुलना में बाद की कहानियों में पाठकीय लोकप्रियता के बावजूद इन्हें वैसी सिद्धि नहीं मिली है। इसके बहुत ठोस और ऐतिहासिक कारण है। आधुनिकता के साथ जिस पूंजीवाद का विकास हुआ था, उसके विकास क्रम में उसकी सफलता-असफलता, सुरुचि-वीभत्सता के साथ समाज और सामाजिकों के रगड़घस्स का एक लम्बा दौर पूरा हुआ है। भारत और वैश्विक स्तर पर उस दौर के पूँजीवाद की अच्छाइयों और बुराइयों का गहरा विश्लेषण हो चुका है। उसकी बुराइयां या असफलताएं और मानव जीवन पर पडऩे वाले उसके प्रभाव ज्यादा बेहतर रुप में हमारे चेतन-अवचेतन का अंग हैं। यही बात उत्तरआधुनिक दौर के उग्र पूंजीवाद के बारे में नहीं कही जा सकती। उदय प्रकाश की पिछली कहानी लगभग 6-7 वर्ष पूर्व (2017 अगस्त के संदर्भ से) प्रकाशित हुई थीं। इस समय तक भारतीय समाजों में उत्तरआधुनिकता की उम्र, अगर थी, तो महज 20 वर्षों की थी। इसमें भी समाज से ज्यादा यह बौद्धिक और अकादमिक दुनिया की चीज थी। इसके सन्दर्भ बाहर से आ रहे थे। इसका समाज में रचना-पचना आज भी शेष है। इसीलिए उदय प्रकाश की कहानियों में जैसे उत्तरआधुनिकतावादी भावों का विकास होता गया, जैसे-जैसे उत्तरआधुनिक तकनीकों का कहानी में ज्यादा इस्तेमाल होता गया है, वैसे-वैसे उनकी कहानियों के आकार में तो विस्तार होता गया, परन्तु संवेदनात्मक संरचना की ठोस पकड़ ढीली होती चली गयी। इसीलिए संवेदनात्मक संरचना में आधुनिकता के उत्तरराग वाली रचनाएं ज्यादा ठोस और पकी हैं। उत्तरआधुनिकता के साथ विकसित रचनाएं अभी पकी नहीं हैं। यह उत्तरआधुनिकता के साथ संरचनात्मक सामंजस्य के अभाव के कारण है। इसका सम्बन्ध उदय प्रकाश से ज्यादा भारतीय समाज के साथ उत्तर आधुनिक स्थितियों के सामंजस्य का है। पर उदय प्रकाश उसको पहले कैसे अपनी संवेदनात्मक संरचना का हिस्सा बना पाते हैं? इसका एक उत्तर यह भी हो सकता है कि उदय प्रकाश ने जो देश-विदेश का साहित्य प्रचुर मात्रा में पढ़ा है, वह इसके लिए सूचना है। ज्ञान मीमांसीय संदर्भ है। संरचनात्मक स्वीकार्यकता के बावजूद समाज उन ज्ञानमीमांसीय संदर्भों के अनुकूल नहीं हुआ था, उतना परिपक्व नहीं हुआ था, इसीलिए संवेदनात्मक संरचना और जीवन के वर्णन के बीच एक फाँक रह जाता है। इस फाँक को उत्तर आधुनिकता के साथ विकसित तमाम कहानियों में हम देख पाते हैं।

एक दूसरा सन्दर्भ भी यहां दिखायी देता है। आज यह मानी हुई बात है कि पूँजीवाद जैसे-जैसे विकसित होता गया, विध्वंसक होता गया, इस विकास में एक महीन बात और दिखायी पड़ती है। उत्तरआधुनिकता के पहले विकसित हुए पूँजीवादियों में भावुकता सिरे से समाप्त नहीं हुई थी। इस तथ्य के आलोक में भी हम उदय प्रकाश की कहानियों को पढ़ सकते हैं। क्या उदय प्रकाश की कहानियों में भावुकता को क्रमश: खत्म होता हुआ नहीं देखते हैं? 'दरियाई घोड़ाका अखिरी दृश्य है - ''जब प्लेटफार्म पर था तब याद आया कि दादा के नाखून बढ़ गये थे और उनमें मैल भरा हुआ था। मैंने अपने मुँह के दोनों छोरों पर उंगलियां फैलाई, उन्हें खींचा... और मेरा जबड़ा फैल गया। दरियाई घोड़े की तरह। मैं फूट-फूट कर रो रहा था, प्लेटफार्म पर। भीड़ के बीच अब तमाशा था मैं।’’ उसे तमाशा समझने वाली संस्थाएं, सत्ताएं और सामाजिक कौन हैं? या थे? यह पूंजीवादी सामंती गठजोड़ ही तो हैं। चाहे सामाजिक के रूप में हो या संस्था के रूप में। उसका रोदन, अपने पिता को याद करना या उन्हीं की तरह दरियाई घोड़ा बनना भावुकता नहीं तो और क्या है? 'दद्दू गणनाधिकारीका तिवारी जिस अहंकार के कारण पिटता है, उसमें एक किस्म की भावुकता भी है। 'टेपचूका टेपचू उस भावुकता में मारा ही जाता है। एक किस्म की भावुकता की अन्तर्वर्ती धारा 'तिरिछमें भी पसरी हैं। जैसे-जैसे हम इनकी कथायात्रा में आगे बढ़ते जाते हैं, यह भावुकता खत्म होती है। 'पीली छतरी वाली लड़कीमें जब राहुल और अंजलि भागते हैं, तो राहुल भयभीत है। उसका भय उसकी भावुकताहीनता को दर्शाता है। भावुकता या रोमांटिक व्यवहार हमें एक स्तर पर निर्भय बनाती है जबकि हमारी व्यवहारवादी बुद्धि हमें डरपोक और दुनियादार बनाती है। व्यवहारवादी बुद्धि से त्रस्त, डरे और दुनियादार लोग कभी परिवर्तन नहीं कर पाते या परिवर्तन का स्वप्न नहीं देख पाते। प्रेयसी के साथ भाग भी जाएं, तो भविष्य का स्वप्न देखने के स्थान पर माक्र्सवाद जैसे भावुक और परिवर्तनकारी विचारधाराओं के साथ जलाये जाते हुए देखता है। यह पात्र या सामाजिक के रूप में नायक द्वारा नहीं, कहानीकार के रुप में उदय प्रकाश द्वारा भावुकता का गहरा निषेध है।

'राम सजीवन की प्रेम कथामें जब उदय प्रकाश राम सजीवन का या राम सजीवन के प्रेम का मजाक बनाते हैं, विचारणीय है कि मजाक क्यों उड़ाया जा रहा है? यह बहुत गम्भीर प्रश्न है। सिर्फ उदय प्रकाश की कहानियों के संदर्भ में ही नहीं, पूरे कथा साहित्य के संदर्भ में। अगर राम सजीवन को एक इंडीविजुएल के रुप में रिड्यूस किया, तो मेरी नजर में यह भी एक गम्भीर समस्या है, परन्तु अगर उसको इंडीविजुएल के रूप में रिड्यूस करके उसका मजाक उड़ाया जा रहा है, तो समस्या कई गुणा ज्यादा गम्भीर हो जाती है। क्यों? इसकी सबसे पहली वजह यह प्रश्न है कि क्या साहित्य का काम मखौल उड़ाना है? सामाजिक और इंडीविजुएल में रिड्यूस करना है? या उन सामाजिकों की हताशा, निराशा, दुख-दर्द, पीड़ा, यंत्रणा, विक्षोभ, असंतोष को पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में पहचानने की कोशिश करना है? क्या राम सजीवन पैदाइशी वैसा है या समाज विशेष में पलने के कारण वैसा हो गया है, जैसा वह है? राम सजीवन गाँव से महानगर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करने आया है। गांव में आज भी स्त्री-पुरुष की आपसी बाचतीत निषिद्ध है, मैत्री निषिद्ध है। उस परिवेश में जहां प्रेम का मतलब शादी करना और बच्चे पैदा करना है, वहां से राम सजीवन आता है। अपनी बौद्धिकता अर्जित करता है। बौद्धिकता अर्जित करना या ज्ञानमीमांसीय प्रसार में जाना सामाजिक का संदर्भ नहीं है, इंडीविजुएल का संदर्भ है। बौद्धिकता अर्जित करना उसकी इंडीविजुएलिटी का मसला है और वह अर्जित करता है। गांव के बंद समाज से निकल कर जब वह एक अति उन्मुक्त वातावरण में आता है, जहां लड़के-लड़कियां साथ, एक ही छात्रावास के दो हिस्से में रहते हैं, जहां कपड़े और शरीर का भी वैसा बन्धन नहीं है, जैसा गांवों में होता है, वहां संजीवन का एकतरफा प्रेम में पड़ जाना एक समाज की समस्या है कि एक इंडीविजुएल की? और जब हम राम सजीवन को इंडीविजुएल के रूप में रिड्यूस कर उसका मजाक उड़ाते हैं, तो क्या हम उन्हीं पूंजीवादी शक्तियों का हथियार नहीं हो जाते, जो ग्रामीण व्यवस्था को पिछड़ा और जाहिल मानती हैं? क्या आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के कारण विकसित शहर केन्द्रिकता ने गांव और देशज परम्पराओं को और हास्यास्पद, और पिछड़ा, बेवकूफाना नहीं बना दिया है? समस्या यह है कि ऐसे में उदय प्रकाश व्यवस्था को इंडीविजुएल के सामने रख देते हैं। मेरे समक्ष दिक्कत यह है कि मैं सामाजिक के स्वतंत्र और स्वायत्त आस्तित्व को स्वीकार नहीं पाता। इंडीविजुएल के साथ कुछ छूट अवश्य है। समाज बड़ी इकाई है और सामाजिक उसकी लघुतम इकाई। इसीलिए मैं हमेशा सामाजिक और इंडीविजुएल में फर्क करता हूँ। इसकी मुख्य वजह 'व्यक्तिकी पश्चिमी अवधारणा का भारतीय समाज के विकास के परिप्रेक्ष्य में अस्वीकार है।

सामाजित विद्रूप को वे अपनी पूरी जटिलता और गिजगिजाहट के साथ सतह पर उभार देने की क्षमता रखने वाले रचनाकार हैं। यह इनके कहानीकार की केन्द्रीय विशेषता है। जैसे-जैसे ये कहानीकार के रुप में विकास करते हुए उत्तर आधुनिक संवेदनात्मक संरचनाओं और टूल्स का कहानी में विकास करते हैं, भावुकता का निषेध करते हैं, वैसे-वैसे इनकी कहानी में सामाजिक इंडीविजुएल में ज्यादा रिड्यूस होता जाता है। 'आचार्य की कराह’, 'पूँछ में पटाका’, 'उत्तर आधुनिक उपभोक्तावादआदि तमाम कहानियां उनकी इसी प्रवृत्ति का वाचक है।

विचारणीय है क्या इससे उदय प्रकाश की कहानियों की संवेदनात्मक संरचना को कोई फर्क पड़ा है? इसको समझने के लिए दो-तीन प्रसंगों को आमने सामने रखना चाहिए। 'मूंगा, धागा और आम का बौरमें उदय प्रकाश ने एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण किया है, जिसमें वातावरण अत्यन्त बोझिल है, सन्नाटे से भरा है। नैरेटर पूछता है - ''अगर मां होती तब भी क्या घर में ऐसा सन्नाटा होता। तब भी क्या हम इतने ही अलग-अलग होते। एक बहुत घिसा-पिटा वाक्य याद आ रहा था सब लोग धागा टूटते ही मूंगों की तरह अलग-अलग छिटक गये। हम मूँगे थे। माँ धागा थीं। जो टूट गयी।’’ वह पिता के बारे में भी प्रश्न करता है, जो खुद बिखरे भी हैं और उस सन्नाटे का हिस्सा भी हैं। वह रेवती के माध्यम से अपना सन्नाटा और सूनापन दूर करना चाहता है। कर नहीं पाता। क्योंकि एक दिन ''साइकिल के क्रैरियर पर पीछे, मैंने देखा रेवती बैठी थी। उसने भैया को पकड़ रखा था। साइकिल के हैंडिल पर आम का बौर था।’’ 'मूंगा’, 'धागा’, 'आम का बौरसब प्रतीक में बदल जाने की क्षमता रखते हैं। आम का बौर परिवर्तन की एक महीन सम्भावना को प्रस्तुत करता है। महीन ही सही, पर है। कहानी के आखिरी दृश्य में बहुत सारी स्थितियों, भावों और संवेगों को संयोजित कर दिया गया है। रोजमर्रेपन के बीच पसरी है दो समानान्तर दुनिया। अपनी ऊब को, सन्नाटे को वह रेवती के माध्यम से तोडऩा चाहता है, जबकि रेवती की दुनिया भी उतनी ही रोजमर्रेपन का शिकार है। नैरेटर का संवाद इसका प्रमाण है। रेवती सम्भवत उसके बड़े भाई से प्रेम करती है या उसके माध्यम से अपने रोजमर्रेपन को तोडऩा चाहती है। इसमें दो समानान्तर स्थितियां निर्मित की। लेखक किसी के पक्ष में यहां भी नहीं जा रहा। वह तटस्थता के साथ चीजों को रख देता है। परन्तु लेखक का वर्णित जब मुझ जैसे पाठकों तक आता है, तो दृश्य की विषयनिष्ठता छिपी नहीं रह पाती। यह परिवर्तन की महीन सम्भावना के कारण है। 'दद्दू गणनाधिकारी’, 'पुतला’, 'टेपचूआदि तमाम कहानियों में परिवर्तन की महीन रेखा विषयनिष्ठ रूप में ही सही, किन्तु है। 'टेपचूमें तो यह प्रत्यक्ष ही है। टेपचू जब विरोध-विद्रोह करता है, तो सत्ता की क्रूरताएं ज्यादा तीखी हो जाती हैं। सत्ता की क्रूरता, दमन और उसके बाद भी उसका ठंडापन इस एक पंक्ति में द्रष्टव्य होता है- ''पुलिस पलटन का चेहरा खूँख्वार जानवरों की तरह दहक रहा था। चुंगी नाके पर एक ढाबा था। पुलिस वाले वहीं चाय पीने लगे।’’ यह उदय प्रकाश के भाषा का सामथ्र्य है। एक सामाजिक को यातना दिये जाने के समानान्तर सत्ता और व्यवस्था के पुर्जे के रूप में पुलिसवालों के चेहरों का दहकता और वहीं ठण्डेपन के साथ चाय पीना, सत्ता की क्रूरता नहीं तो और क्या है? 'भाई का सत्याग्रहमें पुलिसवाले और गुण्डे मिलकर जिस तरह से नैरेटर के भाई की पिटाई करते हैं और एक पैर से लाचार सामाजिक का दूसरा पैर भी काटना पड़ता है, यह व्यवस्था के रूप में समाज के और भ्रष्ट तथा पतित होने को दर्शाता है। नैरेटर कहता है कि ''ऐसी घटना जो हिन्दुस्तान में इन दिनों हर सीधे, ईमानदार और शान्त नागरिक के साथ घटती रहती थी।’’ घटना थी भारतीय लोकतन्त्र के पतन का दृश्य। लोकतंत्र का; व्यवस्था, तन्त्र और शासन से निकलकर अपराधियों के हाथ में चला जाना एक त्रासदी उत्पन्न करता है - ''भारतीय लोकतंत्र का ग्रास रूट का आधार यही अपराधी ठेकेदार होते हैं। बूथ कैप्चरिंग, फर्जी मतदान, विरोधी उम्मीदवार की हत्या या अपहरण का अनिवार्य भारतीय लोकतान्त्रिक दायित्व यही लोग निभाते हैं... तो यही था भारतीय स्वतन्त्रता का पचास साल पुराना वटवृक्ष, जिसकी जड़ों में मुजरिम ठेकेदार और व्यापारी तथा शिखर पर तमाम घोटालों और भ्रष्टाचार में डूबे हुए लोग थे।’’ इस तथ्य से आज कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। समस्या कहानीकार के रुप में उदय प्रकाश के उस ठण्डेपन से हैं, जो विवरण की पूरी संरचना के बीच विद्यमान रहता है। इस कहानी में भी जो शरीर से असमर्थ है, वह लड़ता है। जो स्वस्थ हैं, वे रोते हैं। तात्पर्य यह कि उदय प्रकाश की कहानियां अपनी संवेदनात्मक संरचना में जो निरन्तर भावुकता का त्याग करती हैं, उसके कई परिणाम हमें कहानियों में दिखायी पड़ते हैं। पहला कि इसके कारण कहानियों की प्रतिरोधात्मक क्षमता समाप्त हो जाती है। क्रमश: समाप्त होती है। दूसरे उदय प्रकाश इस प्रतिरोधात्मकता को विवरण, सूचना, अन्तर्विरोध आदि से भरना चाहते हैं। कुछ लोग जो इनकी कहानियों में कभी इब्बार रब्बी (पॉल गोमरा का स्कूटर), मैनेजर पाण्डे आदि (आचार्य की रजाई), वी.एन. राय (दिल्ली की दीवार) आदि से जोडऩे की कोशिश करते हैं, वह सत्य है या नहीं, इससे एक पाठक के रूप में मुझे क्या मतलब? असली समस्या यहाँ भी सामाजिक मनुष्य का इंडीविजुएल के रूप में रिड्यूस हो जाना है।

उदय प्रकाश ने कहानीकार के रूप में एक लम्बी यात्रा पूरी की है। इस यात्रा की लम्बाई के भी कई आयाम हैं। पूँजीवाद के संदर्भ में आधुनिकता के उत्तरराग और उत्तरआधुनिकता की चर्चा ऊपर की गयी है। इस लम्बी यात्रा में इस दौरान उनके वर्णन के पैटर्न में बदलाव के कारण, संवेदनात्मक संरचना में बदलाव के कारण संरचना में तीन बदलाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इस परिवर्तन को मैं कालक्रमानुसार नहीं देख रहा हूं। संग्रह और उसमें आये कहानियों के आधार पर देख रहा हूँ। 'दरियाई घोड़ाकी कहानियाँ तथा 'तिरिछकी 'छप्पन तोले का करधनतक की कहानियाँ एक ही संरचना की कहानियां हैं। इन कहानियों में थोड़ी आत्मकेन्द्रियता, सामाजिकता, भावुकता, अनुभव के बीच रचा-बसा समाज है और इस देखे भाले समाज के बीच रह रहा है सामाजिक है। बार-बार कैंसर वार्ड का जिक्र आता है। सम्भवत: यह इनकी निजी ट्रैजडी भी थी। इस दौर की अधिकांशत: कहानियों का नैरेटर बालक है अथवा कम उम्र का नौजवान। यह एक तथ्य भी भावुकता की महीन रेखा निर्मित कर देता है। 'तिरिछसंग्रह के ही 'हिन्दुस्तानी इवान दानिसोचिव की ज़िन्दगी का एक दिनशीर्षक कहानी से उदय प्रकाश की कहानियों की संरचना बदलती हैं। मसलन कहानी उत्तम पुरुष से अन्य पुरुष में चली जाती है। बालक या युवा द्वारा नैरेशन की पद्धति वे छोड़ देते हैं। अपने जीवन का जो अनुभव था, उसको वे पहले की कहानियों में व्यक्त कर चुके थे। अब वे अनुभव के इस दायरे से बाहर निकलते हैं और इसके बाद के अपने सीमित अनुभव (पूर्ववर्ती की तुलना में) को अध्ययन और सूचना के विशाल भंडार से मिलाकर कहन की एक नयी शैली विकसित करते हैं। वह पहले से ज्यादा डरावनी और विडम्बनामूलक तो है, पर उसमें 'तिरिछ’, 'छप्पन तोले का करधन’, 'पुतला’, 'टेपचूआदि की आत्मीयता खण्डित हो गयी है। इसी संग्रह की 'राम सजीवन की प्रेम कथासे उदय प्रकाश कहानी को बहुसान्दर्भिक बनाने की कोशिश करते हैं। कहानीकार के साथ आलोचक और अध्येता भी चलने लगता है। इसका मतलब यह नहीं है कि पहले के कहानीकार अध्येता और आलोचक नहीं थे। साहित्यकार सदैव सभ्यता और समाज का गम्भीर आलोचक होता है, पूर्ववर्ती ज्ञान का भी आलोचक और अध्येता होता है। परन्तु उसका धरातल संवेदनात्मक ही होता था। बतौर कहानीकार उदय प्रकाश ने इस संवेदनात्मक अर्हता को ज्ञानमीमांसीय आवश्यकता से बदला। मेरी बात इसी सन्दर्भ में थी और कहानीकार के रूप में इनके नवाचार का यह एक आधार बिन्दु भी है। इस बात को उदाहरण के रुप में उनकी कहानी 'हिन्दुस्तानी इवान दानिसोविच की जिन्दगी का एक दिनके विश्लेषण से हम परख सकते हैं। क्या हम एक पाठक के रूप में बाह्य नहीं है कि इस कहानी को समझने के लिए रुसी कथाकार से थोड़ा परिचित हों। न होंगे, तब भी संवेदनात्मक संरचना का एक सिरा हमारे हाथ लगेगा ही, पर कहानी ज्ञानमीमांसा के जिन गलियारों तक जाती है, उससे हम वंचित भी रहेंगे। क्या यही बात हम प्रेमचंद, अमरकांत, शेखर जोशी, हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन, अज्ञेय आदि तमाम पूर्ववर्ती रचनाकारों के बारे में कह सकते हैं? खैर, नवाचार की यह बात 'हिन्दुस्तानी इवान दानिसोविच की जिन्दगी का एक दिनके साथ भी कही जा सकती है। या यों कहें कि यहां से बहुत स्पष्ट रूप में इनकी कहानियों में दिखने लगती है। कई बार तो मुझे लगता है कि 'तिरिछही उदय प्रकाश का न केवल श्रेष्ठ संग्रह है, अपितु कहानीकार के रुप में उनकी संवेदनात्मक संरचना को धारण करने वाला प्रस्थान बिन्दु भी है। फिर 'पॉल गोमरा का स्कूटरकी शीर्षक कहानी से पुन: एक बार वे अपने वर्णन की शैली में बदलाव करते हैं।

इन बदलावों का कारण क्या है? पाठक के रुप में इन बदलावों को देख पाना भी सम्भवत: पर्याप्त होगा, परन्तु आलोचना कर्म करते हुए इतने से हमारा काम नहीं चल सकता। नरसिंह राव सरकार ने भारत को मुक्तबाजार वाली अर्थव्यवस्था के युग में धकेल दिया। राजनीति और अर्थशास्त्र/तंत्र ही आधुनिक जीवन की नियामक शक्तियां हैं। ये दोनों की आधुनिक जीवन में परिवर्तन के कारण्क और उत्प्रेरक हैं। इतिहास के गम्भीर अध्येता इस बात को जानते और समझते हैं कि ये दोनों शक्तियां अगर एक ही दिशा में कार्य करें, तो समाज के विकास का ढांचा क्या होगा? इस मुक्त बाजारवाली अर्थव्यवस्था के युग में राजनीति और अर्थतंत्र का उद्देश्य पूंजीवादी सत्ता को अपार शक्ति प्रदान करना है। ऐसा हुआ भी है। लेकिन खासियत यह है कि यह छुपा हुआ, प्रच्छन्न नहीं है। इस खुले खेल में जनता भी इसके विरोध में नहीं है। वह व्यवस्था के रूप में इसे बदलना नहीं चाहती। वह ज्यादा मानवीय व्यवस्था नहीं चाहती, अपना हिस्सा चाहती है। बस इस एक बात से समाज की पूरी अन्तर्वस्तु बदल दी है। पूंजीवाद तो हमेशा से अपना लाभ देख रहा था। उनके अनुसार समाज, जन और साहित्य की जनवादी शक्तियां अवरोध के रूप में उसके मार्ग में कांटे की तरह थी। समाज और जन जब उस व्यवस्था में अपना हिस्सा चाहने लगता है, तो अवरोध और प्रतिरोध समाप्त प्राय हो गया। समाप्त नहीं हो गया है, क्योंकि जन का छोटा हिस्सा ही सही, विरोध में है। इस विरोध के प्रति पूंजीवाद एक व्यावहारिक नजरिया रखता है। साहित्य के प्रति वह पहले से ही एक व्यावहारिक नजरिया रखता आया है। साहित्य और जन के प्रति राजनीति और अर्थतंत्र के व्यावहारिक नजरिये ने, समाज और साहित्य की प्रतिरोधहीनता ने समाज की अन्तर्वस्तु स्पष्ट रुप से बदली। इसने समाज के भीतर के नैरेटिव को बदला। तब समाज में मानवीय मूल्य हाशिये पर गये, उसकी संवेदनात्मकता क्षरित हुई। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी, कोई जगह खाली नहीं रह सकती। इस खाली जगह के कारण,समाज के भौतिक धारतल पर शहरीकरण और मध्यवर्ग का तीव्र विस्तार हुआ। इससे विचार का स्थान उपभोक्ता पदार्थों ने लिया। सूचनाओं ने लिया। उदय प्रकाश की कहानियां इस सूचनात्मकता को अपने केन्द्र में रखती हैं। उदय प्रकाश की कहानियों की संवेदनात्मक संरचना भी और शैली भी इसीलिए कई बार बदली है।

इसके अतिरिक्त कहानी की अन्तर्वस्तु के बदलाव को हम एक अन्य रुप में देख सकते हैं। 'टेपचूकहानी में नैरेटर कहता है- ''मैंने भी पहले ही अर्ज किया था कि यह कहानी नहीं, सच्चाई है। आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज़्यादा हैरतअंगेज होती है। और फिर ऐसी वास्तविकता जो किसी मजदूर के जीवन से जुड़ी हुई हो।... हमारे गांव मडऱ के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं- साला जिन्न है।... आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहां, जब, जिस वक्त आप चाहें मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं।’’

'वॉरेन हेस्टिंग्स का सॉंडमें नैरेटर कहता है - ''इस कहानी में इतिहास उतना ही है जितना दाल में नमक होता है। अगर आप इसमें इतिहास खोजने की कोशिश करेंगे तो आपके हाथ में रेत की ढूह या कनेर की टहनी भर आएगी।... असल में जब इतिहास में स्वप्न, यथार्थ में कल्पना, तथ्य में फैंटेसी और अतीत में भविष्य को मिलाया जाता है तो आख्यान में लीला शुरु होती है और एक ऐसी माया का जन्म होता है जिसका साक्षात्कार सत्य की खोज की ओर की एक यात्रा ही है। इसलिए हर लीला और प्रत्येक माया उतनी ही सच होती है, जितना स्वयं इतिहास।’’

'और अंत में प्रार्थनामें नैरेटर कहता है- ''इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। कफ्र्यू लागू है। जो कोई 'प्लॉटकी खोज में निकलेगा, उसे गोली मार दी जाएगी। मार्क ट्वेन’’

अगर इन उद्धरणों को सामने रखकर छोड़ दिया जाए, तो भी पाठकों को प्रत्यक्ष होगा कि कहानियों में उन्होंने एक लम्बी यात्रा पूरी की है। 'यह कहानी नहीं है, सच्चाई हैसे जो यात्रा शुरु हुई थी वह 'आख्यान की लीलामें होते हुए पात्रों की काल्पनिकता तक पहुंच जाती है। 'टेपचूकहानी का वक्तव्य और 'और अन्त में प्रार्थनाका वक्तव्य तो बिल्कुल विरोधी दिखायी पड़ता है। जब कहानीकार कहता है कि 'और अन्त में प्रार्थनाके सभी पात्र काल्पनिक हैं, तो 'टेपचूमें यह दावा किया गया है कि 'जहां, जब जिस वक्त आप चाहें मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं। जबकि एक ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ सामाजिक हर जगह मारा ही तो जा रहा है। अपनी घटनात्मकता के अधिकांश बिन्दु पर अथवा सम्पूर्णता में डॉ. वाकणकर हमें काल्पनिक नहीं लगे। फिर कहानीकार को ऐसा करने की आवश्यकता क्यों हुई? निश्चित ही इस प्रश्न का इतना स्पष्ट और एकरेखीय उत्तर नहीं पाया जा सकता। साथ ही इन तीनों का सम्बन्ध केवल शैली से भी नहीं। ये कहानी के फॉर्म से सीधे तौर पर जुड़े हैं। संवेदना और शिल्प को जो अलग-अलग कर पढ़ा जाता है, वह भी अलग नहीं है। इसीलिए इसका सम्बन्ध कहानी के सभी पक्षों से है। कहानीकार स्पष्टत: कह रहा है कि किसी मजदूर के जीवन से जुड़ी वास्तविकता 'किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरतअंगेज होती है।वास्तविकता की इस अन्तवर्ती एकसूत्रता के कारण ऊपर से जो विरोधी दिखायी दे रहा था, वह समाप्त हो जाता है। फिर कहानीकार ने वास्तविकता को काल्पनिक कह वास्तविकता के सन्दर्भ में विभ्रम क्यों फैलाया? इस तथ्य को समझने के लिए 'वॉरेन हेस्टिंग्स का साँड़वाले सन्दर्भ को विश्लेषित करना होगा। इन्होंने उत्तर आधुनिकता के बाद जो कहानियां लिखी, वे वास्तव में 'आख्यान में लीलाकी तरह है। आख्यान में लीला का निर्माण 'इतिहास में स्वप्न’, 'यथार्थ में कल्पना’, 'तथ्य में फैंटेसीऔर 'अतीत में भविष्यकी मिलावट से हुआ है। इस मिलावट की जरूरत क्यों पड़ी, जबकि कहानी के पात्र और घटनाएं काल्पनिक हों? 'वॉरेन हेस्टिंग्स का साँड़की घटनाएं और पात्र ज्यादा काल्पनिक लगते हैं, 'और अंत में प्रार्थनाकी तुलना में। समझने की बात यह भी है कि अतीत में वर्तमान को नहीं मिलाया जा रहा है, अतीत में भविष्य को मिलाया जा रहा है। तब यह विशिष्ट निहितार्थों के निर्देशित करने लगता है। यह कहानीकार की आकांक्षा, उसकी यूटोपिया को दर्शाने लगता है। मानवता, समाज और सामाजिकों की बेहतरी की आकांक्षा ही अतीत में भविष्य की मिलावट का ध्वन्यार्थ हो सकता है। इसके अतिरिक्त उसकी जरूरत क्या होगी? उसकी सार्थकता क्या होगी? कहानी की सफलता और सार्थकता, कहानी के नैरेटिव के बीच निर्मित होगी और वह नैरेटिव जीवन, समाज के किस बिन्दु को कितनी सकारात्मक ताकत से झकझोर पाता है, उस पर निर्भर करेगा। पर उदय प्रकाश की कहानियों के नैरेटिव और उसकी कहानी के प्रति सैद्धान्तिक समझ में एक फाँक है। यह फाँक जिसे आधुनिकता के उत्तर राग के दौर की कहानियां कह रहा हूँ, उसमे ंकम है या नहीं है। उत्तर आधुनिकता के साथ जिस संवेदनात्मक संरचना का इन्होंने विकास किया, उसमें सूचनाओं का विशाल भण्डार है। जैसे जैसे हम उत्तर आधुनिक समयों में आगे बढ़ते गये हैं, जैसे-जैसे संचार और बाजार का दखल हमारी जिन्दगियों में बढ़ता गया है, वैसे वैसे हमारा जीवन ही सूचनापरक होता गया है।

साहित्य में, अगर बहुत मोटा विभाजन करें, तो समाज सम्बन्धी प्रवृत्तियों, उसमें सामाजिकों की स्थिति के सन्दर्भ में दो विचार हो सकते हैं - पहला वे जो समाज और उसमें हो रहे हलचलों को हूबहू प्रस्तुत करते हैं। दूसरा वे जो हस्तक्षेप करना चाहते हैं, उसे बदलना चाहते हैं। दूसरी श्रेणी के रचनाकारों में पहली प्रवृत्ति भी पायी ही जाती है। उदय प्रकाश स्थितियों को, समाज की पूरी बजबजाहट को त्वरित प्रतिक्रिया के साथ प्रस्तुत करते हैं। वर्णन, चिन्तन-मनन की वृत्तीय परिकल्पना में अगर रचनाकार त्वरित प्रतिक्रिया के साथ रचनाओं को प्रस्तुत करता है, तो यह त्वरित प्रतिक्रियात्मकता पुन: रचना को घटनाओं और सूचनाओं का अम्बार भी बनायेगी। उदय प्रकाश में इस कारण सूचनात्मकता और घटनात्मकता है। साथ ही, इस सूचनात्मकता और घटनात्मकता के कारण ही इनके नैरेटिव और उनकी कहानी की सैद्धान्तिक समझ में फाँक भी है।

चूँकि उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि 'वॉरेन हेस्टिंग का साँड़में रचनाकार 'अतीत में भविष्यवर्तमान के मेल से जिस यूटोपिया का निर्माण करना चाहता है, इस सूचनात्मकता-घटनात्मकता में ही कहानी के समाप्त होने की वजह से वह खण्डित हो जाता है। न केवल खण्डित होता है, अपितु कथानक भी अवमूल्यित होता है।

कथानक के अवमूल्यन से सम्बन्धों की पुनर्रचना की सम्भावना कम होती है। मुझे ऐसा लगता है कि आज के उत्तर आधुनिक, उग्र पूँजीवादी वैश्विक संरचनाओं में सूचना ने संवेदना को स्थानापन्न किया है। यह समाज के स्तर पर है और जैसे-जैसे हम इस व्यवस्था में आगे बढ़ते हैं, हमारी संवेदना क्षरित होती है। उदय प्रकाश उस संवेदनाशून्य होते समाज के रचनाकार हैं। बड़ा जटिल प्रश्न हैं कि क्या रचनाकार का कार्य सिर्फ वर्णन तक सीमित है? रचनाकार रचता है। क्या रचता है?

विधा चाहे जो हो, उससे ऊपर उठकर विचार करना चाहिए कि क्या रचता है? मेरे विचार से वह सम्बन्धों की पुनर्रचना करता है। जो समाज में है, उसको हूबहू प्रस्तुत कर देना पुनर्रचना तो नहीं है। सम्बन्धों की इस पुनर्रचना में रचनाकार का सामाजिक व्यक्तित्व, दायित्व होता है, उसकी विचारधारा होती है, सामाजिक दायित्व के साथ बदलाव की महीन आकांक्षा भी होती है। बदलाव की महीन आकांक्षा उत्प्रेरक का कार्य करती है - 'अतीत में भविष्यकी मिलावट की तरह। इसके बिना साहित्य में सम्बन्धों की पुनर्रचना सम्भव नहीं। चूंकि कहानीकार के रूप में इसके यहां कथानक अर्थात् घटनात्मकता-सूचनात्मकता की कार्य-कारण श्रृंखला अवमूल्यित होती है, इसीलिए सैद्धान्तिक समझ के बावजूद यूटोपियाई आकांक्षाएं इनकी कहानियों में उभर नहीं पाती। घटनात्मकता-सूचनात्मकता के स्तर पर वास्तविकता की अचूक पकड़ के बावजूद। इसीलिए आख्यान में लीला होने के बावजूद उत्तर आधुनिकता के साथ विकसित कहानियाँ किसी त्रासदी पर समाप्त होती हैं।

इसके बावजूद हर कहानी में त्रासदी और विडम्बना के बहुत बड़े, विस्तृत वातावरण के मध्य उम्मीद की एक टिमटिमाते लौ पकडऩे की कोशिश रचनाकार करता है। 'पॉल गोमरा का स्कूटरमें वह उसकी एक कविता उद्धृत करता है- ''जो प्रजातियां लुप्त हो रही हैं,/यथार्थ मिटा रहा है जिसका अस्तित्व/हो सके तो हम उनकी हत्या में न हों/शामिल/ और संभव हो तो संभालकर रख लें/उनके चित्र.../ये चित्र अतीत के स्मृति चिन्ह हैं...

'वारेन हस्टिंग्स का साँडमें कहता है - ''वह साँड़ अभी मरा नहीं है।’’ वह साँड अभी नहीं मरा, तो इसके क्या निहितार्थ हैं? किन्तु इस आख्यानपूर्ण लीला में विडम्बना, विद्रूप के चित्र इतनी सघनता से आ चुके होते हैं, कहानी के दीर्घ आकार में विद्रूपताएं, विडम्बनाएं इतनी प्रदीर्घ हो चुकी होती हैं, कि उम्मीद की यह बारीक लौ एक साहित्यिक ट्रिक लगने लगती है। जैसे पहले मां-बाप या परिवार का कोई सदस्य किसी बच्चे को पीट दें, फिर चॉकलेट देकर उसको बहला ले। तब प्रश्न यह उठता है कि व्यवस्था के बीच फँसे ये पात्र कोई प्रतिरोध क्यों नहीं प्रस्तुत कर पाते? आधुनिकता के उत्तर राग वाली कहानियों में टेपचू है, दद्दू तिवारी है। ये लड़ते हैं। हार जाते हैं। 'जीप के पीछे रस्सी से बांधकर डेढ़ मीलघसीटा गया टेपचू जिस ठसक के साथ चाय माँगता है, यह अन्तर्विरोध के बावजूद मानवता के काम की भावना है। लेखक कहता है - ''टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, ''एक चाय इधर मारना छोकड़े, कड़क।’’ वह चीखा।’’ सामान्य स्थितियों में डेढ़ मील दौडऩे वाले इन्सान को भी चाय की नहीं, पानी की आवश्यकता होगी। या आवश्यकता महसूस होगी। और फिर टेपचू तो खूनमखून है, बेहद चोटिल है। यह ज्ञान या संवेदना का अभाव है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता। हाँ, इतना अवश्य है कि इसमें एक किस्म का हिरोइज्म है। वह सिपाहियों को चाय पीता हुआ देखता है, तो धीमे या पीड़ा से  कराहते या लडख़ड़ाते स्वर में नहीं बोलता, कड़क कर बोलता है। इस अन्तर्विरोध के बावजूद उसका कड़कना, तन कर खड़े होना मानवता के प्रति हमें आश्वस्त करता है।

स्वयं प्रकाश जी ने एक पुस्तक-लोकार्पण समारोह में बोलते हुए कहा कि आज की कहानी और हमारे समय की कहानी में फर्क है। हमलोग चरित्रों के माध्यम से कुछ साबित करना चाहते थे। आज चरित्र छूट गये हैं, पूरा परिवेश ही कहानीकार निर्मित करता है। यह बात ऊपर से बहुत ठीक लगती है। हमें प्रभावित भी करती है। गहराई से देखने पर यह अपूर्ण है, क्योंकि यह बड़ी प्रवृत्तियों के सामूहिक बोध का एक हिस्सा भर है। चरित्र तो आज की कहानियों में भी हैं और उदय प्रकाश की कहानियों में भी। मोहनदास, डॉ. वाकणकर, सुरेश, राहुल आदि चरित्र नहीं तो और क्या हैं? टेपचू, दद्दू आदि की तुलना में ये चरित्र व्यवस्था के समक्ष निरन्तर हारते हुए आखिर में टूट जाते हैं या उसी व्यवस्ता का एक अंग बन जाते हैं। मोहनदास और वाकणकर तो टूटते हैं, पर कोई अनैतिक या ऐसा काम नहीं करते, जिससे मानवता का एक सिरा शर्मसार हो जाए। परन्तु 'थर्ड डिग्रीमें सुरेश, फकीरा और गोपाल की चोरी तथा एस.एच.ओ. पांडेय और अमरीक के धोखे की बात सुन गुस्सा आ जाता है। गुस्से की प्रतिक्रिया हुई - ''उसने हरप्रीत को लिपटाकर उसे नीचे बिछा लिया और कहा- ... बताओ अमरीक जैसा पड़ोसी और पुराना दोस्त भी दगाबाज निकला। कैसा जमाना आ गया है।’’

इस सन्दर्भ से एक बात मेरे मन में उभरती है कि क्या एक अन्याय का उत्तर दूसरा अन्याय है? एक शोषण का उत्तर दूसरी प्रतिशोधकीय हिंसक व्यवस्था है क्या? समाज की जिस गन्दगी, अव्यवस्था, शोषण, अनाचार का शिकार सुरेश होता है, वह प्रतिकार में खड़े होने के बजाए एक ऐसी स्त्री को छलता है, उसके साथ यौन हिंसा करता है, जो पुरुषवादी व्यवस्था में खुद ही पति द्वारा छली गयी है। वह सम्बन्ध प्रेम के कारण नहीं बना रहा है। वह सम्बन्ध पहले चोरी के सामान का पता लगाने के लिए बनाता है, फिर पता लगने पर गुस्से में हिंसा पर उतारु हो जाता है।

'पीली छतरी वाली लड़कीमें राहुल की प्रतिक्रिया देखिए - ''और अब वह पूरी ताकत के साथ, दबी-कुचली जातियों की समूची प्रति हिंसा के साथ, शताब्दियों से उसके प्रति अन्याय का बदला ले रहा था। थप्प... थप्प। उसका हर आघात एक प्रतिशोध था। उसकी हर हरकत बदले की कार्रवाई थी।’’ आज उत्तरआधुनिक दौर में वर्गीय विभाजन खण्डित हो गया है। उसका स्थान अस्मितामूलक विमर्शों ने लिया है। इन विमर्शों ने चिन्तन के लघु वृत्तों का निर्माण किया, जो अब चिन्तन की अन्तवत्र्ती धारा का कार्य करते हैं। उसके लिए प्रसंग का निर्माण करते हैं। ये सार्वभौमिक नहीं, लोकलाइज्ड होते हैं। इसे संकुचित कहना एक किस्म का वितण्डावाद है। जो इन लोकलाइज्ड अध्ययन प्रणालियों ने राहुल की प्रतिक्रिया पर अनेक प्रश्न उठाएं हैं। क्या दलित विमर्श के अनुसार एक ब्राह्मण लड़की के प्रति की गयी यौन हिंसा सही हो जाती है। भले ही राहुल अंजलि को उपर्युक्त प्रतिक्रिया बताता नहीं है। भले ही लेखक ने जो भी परिस्थितियां निर्मित करने की कोशिश की हो। फिर इसी लोकलाइज्ड अध्ययन प्रणाली में हम दलित प्रसंग की जगह स्त्री प्रसंग से इस कहानी को पढ़ें तो क्या निहितार्थ होंगे इस हिंसा के? क्या यह बलात्कार नहीं है? स्त्री का बलात्कार। हम क्यों दलित विमर्श के प्रसंग से ही चीजों को देखें? 'थप्प-थप्पकी ध्वनि उत्पन्न कराना क्या सामन्ती जाहिलियत का ही दूसरा नग्न रुप नहीं है? हम ज्योंही प्रसंग या अवगाहन बिन्दु बदल देते हैं, पूरी सामाजिक प्रक्रिया और उसके निहितार्थ बदल जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं सेक्स को सामन्ती या मध्यवर्गीय पैराडॉक्स के अनरुप देख रहा हूं। राहुल सेक्स करता है, दोनों की सहमति है, कोई हर्ज नहीं है। वह शादीशुदा है कि नहीं या शादी के पहले क्यों- इन बातों का भी कोई फर्क नहीं। साथ ही यह 50-60 साल के वृद्ध का सेक्स नहीं है। यौवन के प्रथम चरण का सम्भवत: प्रथम सेक्स है। इस उत्तेजना में भी वह मानवीय दृष्टि से क्रूरता का परिचय देता है या कुंठा का या प्रतिक्रिया के क्षणिक रुप का। राहुल की इस हिंसा की जानकारी अंजली को नहीं। वह सुख में निमग्न है - ''आश्चर्य यह था कि जितनी गहरी प्रतिहिंसा की तीव्रता के साथ राहुल पराभूत जातियों की तरह से प्रत्याघात करता, वह देखता कि अंजली की आंखें किसी तृप्ति के सुख में मुंद-सी गयी हैं और उसके होंठों पर एक हल्की-सी स्मित की रेखा खिंच गई है...! आह! आह!’’ 'आह! आह!’- यह क्या है? क्या यह वही सामन्ती जाहिलियत नहीं, जिसका जिक्र उपर है। या हम कोई 'सी ग्रेडया उससे भी आगे पॉर्न का दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं। यह प्रेम है, विश्वास है। यह दो व्यस्कों की आपसी रजामन्दी है। 'थप्प थप्पया 'आह! आह!वाली मानसिकता का मूल्यांकन अगर स्त्री अस्मिता, वैचारिकी से की जाए, तो उसके परिणाम हमारी प्रचलित अवधारणा के विपरीत ही आयेंगे उससे भी आगे मानव जाति ने जो विकास किया है, समता के जो सैद्धान्तिक उत्कर्ष निर्मित किये हैं और उसका जो व्यावहारिक आधार तैयार किया है, वह उसकी अवहेलना है। खैर, लेखक का निहितार्थ है कि राहुल की प्रतिहिंसा से अंजली को अत्यधिक सुख हो रहा है। है तो यह डेरोग्रेटी ही, फिर भी! यहां इस प्रतिहिंसा और सुखानुभूति की अभिव्यक्ति की प्रतिक्रिया राहुल में भी होती है।1 इसी तरह अमरीक की पत्नी हरप्रीत की प्रतिक्रिया भी महत्वपूर्ण है- ''हरप्रीत ने आनंद में आंख मूंदते हुए कहा, और तुम कौन-सा फर्ज निभा रहे हो, सुरेश। बताओ तो इस वक्त तुम अमरीक के साथ क्या कर रहे हो?’’

इन विवरणों से स्पष्ट है कि सम्बन्ध चाहे जिस कारण बन रहे हों (अपनी मर्जी से, शरीर की जरूरत या प्रतिरोध और प्रतिक्रिया से), उसमें विचार और प्रतिक्रिया ही है, संवेदना या भावुकता नहीं है।

संवेदना और भावुकता से क्षरित सामाजिक जब लेखकीय दायित्व निभाता है, तो वह चरित्रों का पूर्ण विकास नहीं करता। पूरा परिवेश ही चरित्र का कार्य करने लगते हैं। इसीलिए इनकी कहानियों में चरित्र हैं, पर वे निर्मित नहीं हो पा रहे। वे चरित्र उन विवरणों में टंके पड़े हैं। वे प्रतिरोध नहीं करते, उनमें घटनाओं पर प्रतिक्रियात्मकता भी नहीं हैं। वे बस स्थितियों को झेलते चले जा रहे हैं। रचनाकार जब किसी चरित्र को निर्मित करता है तो अपने उद्देश्य के अनुकूल। चाहे वह यूटोपियाई हो या डिस्टोपियाई, चाहे वह यथार्थवादी हो या (रोमैटिक या किसी अन्य प्रकार का)। वह घटनाओं और स्थितियों का चयन करता है। वह सब कुछ जो सामने पड़ जाए, उसका विवरण प्रस्तुत करता नहीं चलता। उदय प्रकाश के पहले और बाद के दौर की कहानियों में आकार का जो फर्क उत्पन्न हुआ है, कहानियां जो लम्बी हो गयी हैं, उसका मुख्य कारण उद्देश्यहीन, प्रतिरोधहीन, चरित्रविहीन विवरण है। समाज के भौतिक धरातल पर घटनाओं का अकूत भण्डार है। उद्देश्य और चरित्र निर्मित करने की क्षमता के कारण रचनाकार इस अकूत भण्डार को कैननाइज करता है। एक अन्य सन्दर्भ है जिसके कारण रचनाएं बड़ी हुई हैं। उदय प्रकाश परवर्ती और अपनी अपेक्षाकृत लम्बी कहानियों में समान सन्दर्भों को बार-बार लाते हैं। एक ही तथ्य कई-कई बार एक ही कहानी में आता हैं। पर क्यों? क्या वे यह मानते हैं कि कहानी में इतनी यात्रा पूरी कर लेने के कारण पाठक इन प्रसंगों को भूल गया होगा? यह महत्वपूर्ण है और पाठक को यह बात याद रखनी चाहिए। जो बलाघात के बिन्दु के रूप में वे इनका बारम्बार उपयोग करते हैं। इससे कहानी का अहित ही होता है, क्योंकि इससे रचनाकार रचना की स्वायतत्ता को खण्डित करता है। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि वे मुख्य कहानी को छोड़ अवान्तर प्रसंगों पर निरन्तर टिप्पणियां करते चलते हैं। यह परवर्ती दौर की सभी कहानियों में आद्यन्त है। खैर, विवरणों के बीच टंके पड़े इन अस्तित्वहीन चरित्रों को जब उदय प्रकाश अतिशय विडम्बनात्मक स्थितियों तक पहुंचा रहे होते हैं, तो वे हर कहानी को एक स्वायत्त इकाई बनाने की कोशिश करते हैं। स्वायत्त इकाई बनाने की कोशिश में वे अनुभव से ज्यादा ज्ञानमीमांसा के स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं। हर कहानी की स्वायत्त रूप में निर्मित करने की आकांक्षा और साथ ही उसे ज्ञानमीमांसा के स्रोतों द्वारा परिपूर्ण अथवा परिपुष्ट करने की कोशिश, कहानी की संवेदनात्मक संरचना के हिसाब से एक नवाचार था। इसलिए इनकी कहानियों ने एस स्तर पर पाठकों को आकर्षित भी किया। यह आकर्षण सिर्फ पाठकों के लिए नहीं था। इसमें परवर्ती रचनाकारों को भी आकर्षित किया। इस नवाचार में त्रुटियां बेशक रह गयी हों, परन्तु इससे उसका महत्व एकदम से खण्डित भी नहीं हो जाता। इस विवरणात्मक शैली को परवर्ती लेखकों ने कुछ कतर ब्यौत के साथ अपनाया है।

                                                                                 3

यहां एक तथ्य पर और विचार करना चाहिए कि कथानक के अवमूल्यन, सम्बन्धों की पुनर्रचना के दबाव से मुक्त इनका कथा साहित्य इतने विवरणों और सूचनाओं के फैलाव के मध्य नवीन शिल्प का निर्माण कैसे करता है। कहानी की पठनीयता कैसे निर्मित करता है? व्यापक पाठकीय स्वीकृति कैसे अर्जित करता है? यह भी ध्यान देने की बात है कि उदय प्रकाश को ऐसी पाठकीय स्वीकृति इस दौर में मिली है, जब साहित्य का आयतन निरन्तर सिकुड़ रहा है। पूंजीवादी विकास के चरणों में जब पूंजीवाद की प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो जाती है और पूंजीवाद कला तथा साहित्य के प्रति बहुत ही व्यावहारिक रुख अपनाने लगता है, तब साहित्य का दायरा भी सिकुडऩे लगता है। इस सिकुड़ते दायरे में साहित्य की प्रतिरोधी भूमिका, इस हारते हुए लड़ाई के समक्ष उसके खड़े रह पाने, अड़ सकने की क्षमता, मनुष्यता की भवता का सन्दर्भ होगा। इसीलिए साहित्य या जनपक्षी कलाएं हार कर भी मनुष्य के होने को सम्भव बनाती हैं। तब क्या उदय प्रकाश की कहानियों की पाठकीय स्वीकृति ही उसके जनपक्षी होने का प्रमाण है? लोकप्रिय रचनाकारों (पॉपुलर राइटर्स) की पहुंच तो हमेशा ही शिष्ट साहित्यकारों (क्लैसिकल राइटर्स) से ज्यादा होती है। तो क्या सारे लोकप्रिय आख्यान रचनाकार शिष्ट साहित्य लेखकों से ज्यादा जनपक्षी होते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। अधिकांश लोकप्रिय साहित्य रचनाकार पॉपुलर पैराडाइम के तहत जनपक्षी, जनवादी मूल्यों की हत्या कर देते हैं। तब गैर लोकप्रिय साहित्यकारों की पठनीयता के प्रसंग और निहितार्थ दोनों अलग होंगे।

 

                                                                                   4

कहानी सम्बन्धी विकास, संरचना आदि के सन्दर्भों में दो बातें हमने देखी। एक आधुनिकता के उत्तर राग और उत्तरआधुनिकता के साथ विकसित कहानी, दूसरी, कहानी की संरचनात्मक बदलाव के साथ प्रवृत्तिगत बदलाव। कहानी के फॉर्म के हिसाब से इन्होंने चार प्रकार की कहानियां लिखी हैं - अत्यन्त लघु कथाएं, कहानियां, लम्बी कहानियां, कुछ आत्मकथ्य या आत्मकथाएं। सबसे पहले अत्यन्त लघु कथाएं। इसके सन्दर्भ में जो पहला प्रश्न मेरे मन में उभरता है कि ये कहानियां क्यों हैं? कविताएं क्यों नहीं? इन्हें अगर ये अपने कविता संग्रहों में डाल देते तो इसे कविता मानने में क्या परेशानी होती? सबसे पहला फर्क तो नेरेटिव के कारण उत्पन्न हुआ है। वास्तव में इन अत्यन्त छोटी कहानियों के निर्माण में इनके कवि की भूमिका रही है। ये अत्यन्त छोटी कहानियां अपनी प्रतीकात्मकता, सम्प्रेषण और प्रभाव में कविता और कहानी के बीच की सेतु हैं।

फिर उन्होंने आत्मकथाएं लिखी हैं। यहां प्रश्न है कि आत्मकथाएं कहानी-संग्रह में क्यों हैं? हर अच्छी आत्मकथा में कथात्मकता का अंश होता ही है। फिर वे भी कहानी, उपन्यास के रुप में क्यों न पढ़ी जाएं? क्या 'सरोज स्मृतिको काव्यात्मक आत्मकथा कहा जाए? प्रसाद जी ने तो कुछ पंक्तियों की ही अपनी आत्मकथा प्रेमचंद को दी थी। 'हंसके आत्मकथा विशेषांक के लिए। प्रश्न तो यह भी है कि 'नेलकटर’, 'डिबिया’, 'अपराधआदि तमाम रचनाएं, जो 'आत्मकथाएंशीर्षक से दी गयी हैं, वे अगर कहानी के रुप में ही संग्रह के भीतर होतीं, तो उसकी संवेदनात्मक संरचना के हम तक पहुंचने में क्या बाधा आती? उदय प्रकाश की कहानियों के सन्दर्भ में इस पर विचार करना महत्वपूर्ण है। यह सिर्फ फॉर्म का मसला नहीं है। यह उस प्रक्रिया का मसला है, जिससे संवेदनात्मक संरचनाएं निर्मित होती हैं।

कहानी की संरचना पर उदय प्रकाश ने जो 'टेपचूमें लिखा है, वह इस सन्दर्भ में बहुत महत्व का है। आत्मकथाएं लिख कर वास्तविकता का सन्दर्भ उदय प्रकाश निर्मित करते हैं। इससे निजता का सन्दर्भ भी निर्मित करते हैं। निजी सन्दर्भ जब कहानी के रूप में हम तक नैरेट होकर आते हैं, तब घटना के कहानी का साहित्य मात्र की घटना बनने में पडऩे वाले फर्क को देखना भी आवश्यक है। वे कथाकार, कवि, साहित्यकार परम देदीप्यमान होते हैं, जो कैंसर पीडि़त मां की व्यथा से पीडि़त होने के स्थान पर उस पर कहानी कविता लिखने लगें। पति की अर्थी सामने रख कविता लिखे। कोई पीट रहा हो, दर्द से मन और शरीर फट रहा हो और साहित्य की रचना में रत हो। सृजन की भौतिकता दर्द, पीड़ा, खुशी, अभाव, दैन्य की भौतिक अवस्था के अतिक्रमण के बाद प्रारम्भ होती है। दर्द की भौतिक अवस्था में तो सिर्फ पीड़ा होती है। यह इलिएट के निर्वेयक्तिकता का सिद्धान्त नहीं है। न ही कला की श्रेष्ठता का।

दूसरे नौ वर्ष के बालक के देखने की दृष्टि में जो कच्चापन होगा, वह वयस्क और परिपक्व रचनाकार के रचने में कम होगा या क्रमश: कम होता जाएगा। उदय प्रकाश ने आत्मकथाएं बहुत परिपक्व उम्र में रची हैं। बालक जिन चीजों को न देख पाया होगा, न समझ पाया होगा, उदय प्रकाश ने अपनी कल्पना द्वारा उसे पूर्ण किया होगा। वे 'डिबियामें कहते हैं- ''इतने वर्षों बाद मैं भी तो, उस एक अनुभव के लिए, एक दूसरा आदमी बन चुका हूं।’’ कल्पना द्वारा रिक्त स्थानों को भरने के कारण ही यह कहानी की श्रेणी से लगती है, सत्य घटनाओं के बावजूद।

'आत्मकथाएंके साथ इन्होंने बहुत सी आत्मकथात्मक/संस्मरणात्मक कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों का 'मैंबेहद संवेदनशील है। पूरी कहानी इस तरह गढ़ी गयी है कि कहानी के बढऩे के साथ उसकी संवेदना और भी स्पष्ट होती जाती है। इस संवेदनशीलता के समानान्तर या सामने जो दूसरे पात्र हैं, उनकी संवेदनहीनता भी स्पष्ट होती है। इस संवेदनशीलता के समानान्तर या सामने जो दूसरे पात्र हैं, उनकी संवेदनहीनता भी स्पष्ट होती है। वे क्रूर नहीं, पर संवेदनहीन हैं। दुनिया की व्यावहारिकता से लैस हैं। इन दोनों को एक साथ अनुस्यूत करते समय रचनाकार तटस्थ नहीं रह पाता। वह नैरेटर के पक्ष में जो रचता है, वही उसकी संवेदनात्मक पक्षधरता जैसा है। उसके बावजूद नायक सतयुग का कोई हरिश्चन्द्र नहीं है। वह आज के भौतिकवादी युग का ठोस चरित्र है, जिसमें संवेदना और राग के साथ क्रूरता के भी अंश हैं। 'दरियाई घोड़ेका सन्दर्भ द्रष्टव्य है- ''अमरेंद्र, कक्का, हरीश दा तो दुश्मन थे मेरे, मुझे लगता है हरीश दा को अगर पता चल जाता कि दादा को खून की जरूरत है ऑपरेशन के वक्त, तो शायद वे खुद अपना खून दे देते। लेकिन तब इस लड़ाई में मैं हार जाता। फिर जिंदगी भर के लिए वे मेरे दुश्मन हो जाते। अच्छा हुआ कि डॉक्टर मदान जब ऑपरेशन थियेटर के बाहर घबराया हुआ निकला तो उसे मैं ही मिला। नहीं तो सारा खेल बिगड़ जाता। या हो सकता है हरीश दा, कक्का और अमरेंद्र को मालूम रहा हो कि दादा को खून की जरूरत पड़ सकती है इसीलिए वे ऑपरेशन के वक्त खाना खाने के बहाने टरक गये हों। मेरे भीतर एक उथल-पुथल थी। मैं किसी भी तरह खुद को बड़ा होते देखना चाहता था।’’

इस उद्धरण से हम एक और बात समझ सकते हैं। लेखक हार-जीत की भाषा का खूब इस्तेमाल करता है। 'छप्पन तोले का करधनमें भी कहता है- 'दादी युद्ध जीत रही थीं। और कहानियों में भी जीत-बार की भाषा और शब्दावली का वह इस्तेमाल करता है। इन सन्दर्भों से एक बात बहुत साफतौर पर से स्पष्ट होती है कि चाहे जो जीते, चाहे जो हारे, परन्तु जिस सीमित परिधि में से कहानियां अपना आकार ग्रहण करती हैं, उस सीमित दायरे में भी हारती मनुष्यता ही है। इस हार-जीत वाली शब्दावली की तुलना में 'छप्पन तोले का करधनका ही यह प्रसंग देखिए- ''लेकिन यह स्मृति बहुत दूर की थी। वह आज वाली दादी से नहीं जुड़ती थी। अब दादी मुझको पहचानना भूल चुकी थीं। शायद उन्होंने मुझे भी शत्रु मानकर अपनी स्मृति से बाहर निकाल फेंका था। वे हर किसी को भूल गयी थीं। इस संसार की भाषा भी।’’ यह मनुष्यता की कितनी बड़ी पराजय है कि मनुष्य भाषा भूल जाए। भाषा के भूलने का अर्थ है उसका अनभिव्यक्त रह जाना। भाषा ने मनुष्य और पशु को अलगाया था। साथ ही मनुष्य की एक और बड़ी पराजय उसकी स्मृति का छिन जाना है। अब दादी स्मृति विहीन हो गयी है अर्थात यहाँ अपनेपन, परम्परा, अनुभव, सभ्यता के तमाम सन्दर्भ समाप्त हो गये हैं। यहाँ हार-जीत की बात नहीं की जा रही है, परन्तु मनुष्यता की है वह सबसे बड़ी पराजय।

इसके अतिरिक्त उदयप्रकाश ने कहानियां और लम्बी कहानियां लिखी है। कहानियों में इन्होंने जो परिवर्तन किये, जो नवता निर्मित की है, उस पर पीछे भी बात कर आया हूँ। लम्बी कहानियां आकार में लम्बी क्यों हुई इस पर भी बात की है। यहाँ लम्बी कहानियों की औपन्यासिकता पर विचार करना उद्देश्य है। 'मैंगोसिलके ब्लर्ब पर टिप्पणी है- ''इस संग्रह में संकलित तीनों रचनाएं 'लघु उपन्यासहैं या 'लम्बी कहानियां’, इस 'गम्भीरविमर्श को आलोचकों के ज़िम्मे छोड़कर पाठक 'कहानियोंकी तरह ही इसका आनंद लें।’’ सबसे पहली बात कि उदय प्रकाश की कहानियां आनन्द लेकर पढ़ी नहीं जा सकतीं। हम कहानियों को पढ़ते हुए उत्तेजना और अवसाद की गहरी तथा सान्द्र मन:स्थितियों तक की यात्रा करते हैं। वह सामान्य पाठक में भी उद्वेलन निर्मित करता है। यह उद्वेलन हमें विचारवान बनायेगा ही। हम विमर्शों के दायरे में जाएंगे ही।

मेरी दृष्टि में ये कहानियां हैं। इसका सबसे प्राथमिक कारण यह है कि इसमें उपन्यास की बहुआयामिता नहीं है। वर्णन का विस्तार तो है, परन्तु उस विस्तार को प्रसंगों में कीलित करने वाले बिन्दु बहुत कम हैं। जो वर्णन हैं, वे एकरेखीय हैं। कहानीकार आगे बढ़ता जाता है, तो इतने पृष्ठों में एक गति रहती है, परन्तु बहुआयामिता के कारण जो विस्तार आता है, वह या तो नहीं है या बहुत कम है। इस बहुआयामिता में स्थितियों की जो आन्तरिक रगड़घस्स और अन्र्तद्वन्द्वों तथा तनावों का निर्माण नहीं हो पाता। जब तक लेखक एक पात्र का निर्वाह करना चाहता है, तब तक करता है, फिर उस पात्र को वहीं छोड़ देता है। वर्णन आगे बढ़ जाता है। 'वॉरेन हेस्टिंग्स का साँड़में मोहनी ठाकुर का छूटना या तमाम ऐसे सन्दर्भों का छूटना इसी श्रेणी का है। इससे एक किस्म की सहूलियत होती है। साथ ही वर्णन की जिस पर रेखीयता की बात उपर की है, वह भी निर्मित होती है। इन्हीं कारणों से आकार में काफी बड़ी होने के बावजूद ये लम्बी कहानियाँ ही है। उदय प्रकाश ने 'पीली छतरी वाली लड़कीके ब्लर्ब पर लिखा है - ''लेकिन याद रखें यह लम्बी कहानी है, उपन्यास नहीं। इतने सारे पृष्ठों के  बावजूद इसमें से जो चीज अनुपस्थित है, वह है 'औपन्यासिकताया 'एपिकैलिटी‘‘

उपर्युक्त बातें तो उपन्यास और कहानी की जो लम्बी यात्रा हमने तय की है, उसके  सन्दर्भ से है। परन्तु आज अधिकांश उपन्यास जिस वर्तमानता बोध, तथ्य-संग्रह, सूचनात्मकता, एकरेखीयता, अन्तर्विरोधहीनता, ब्यौरेपन में सम्पन्न हो रहे हैं, उन उपन्यासों के सन्दर्भ से तो कोई पाठक या आलोचक चाहें, तो इसे उपन्यास कह भी सकता है। पर जिस औपन्यासिकता (एपिकैलिटी) की बात उदय प्रकाश कर रहे हैं, वह केवल इन सन्दर्भों से तो निर्मित नहीं होती। उसमें अन्तद्र्वन्द्व, अन्तर्विरोध, मानवता के प्रति सकारात्मक भाव, उसको किसी या किन्हीं कोण पर बदलने की आकांक्षा, वर्तमानता से आगे जाकर सार्वभौमिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक बनाने की वांछित इच्छा, स्थायी भावों की ओर अग्रसर विवेक होना चाहिए। उदय प्रकाश ने इसीलिए 'पीली छतरी वाली लड़कीके उसी ब्लर्ब में लिखा है- ''यह तो इसी समय और यथार्थ में अभी भी जिये जा रहे जीवन का एक ब्यौरा भर है।’’ उनकी यह बात स्थापित करती है कि फॉर्म को लेकर उनका मस्तिष्क कितना महीन है।

चूँकि इनकी सारी कहानियां समय और यथार्थ में जिये जा रहे जीवन की वर्तमानता को अपना प्रस्थान बिन्दु बनाती हैं, इसीलिए कॉन्टेन्ट के धरातल पर यह निर्धारित करना मुश्किल है, कि वे अच्छे हैं या बुरे। क्योंकि अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य, सदाचार-दुराचार समाज की अवधारणाएं हैं। इनमें फेरबदल होता रहता है। ये मनुष्य के शताब्दियों के सामूहिक जीवन के साहचर्य, सहकार, संघर्ष, स्वीकार, स्थगन, अस्वीकार का नतीजा होती हैं। कहानी क्या, साहित्य मात्र को, सिर्फ कॉन्टेन्ट के धरातल पर देखना वैसे भी उचित नहीं। 'मूंगा, धागा और आम का बौरका यह प्रसंग देखिए- ''हमारे पास कोई खेल नहीं था। जो भी खेल हम मिल कर शुरु करते, थोड़ी देर में ही पता चल पाता कि यह खेल नहीं है। हम शायद इसके जरिये समय गुजारना चाहते हैं - या उस पूरे सन्नाटे को कहीं से तोडऩा चाहते हैं।... सन्नाटा हमारे भीतर भी था। कम-से-कम मेरे भीतर तो निश्चित ही।’’ यह कहानी में चित्रित मानवीय भवता के प्रस्थान बिन्दु जैसा है। यह अच्छा है या बुरा, इसका निर्णय न भी किया जाय, तो मनुष्य जीवन में आ रहे बदलाव को तो प्रस्तुत करता ही है। यह जो सतह पर बदलाव दीख रहा है, वह तो एक बड़ी बात है ही। पर पाठक के रूप में हमारी जिम्मेदारी बदलाव के कारकों और उत्प्रेरकों की पहचान है। इस सतह के नीचे या पीछे उनकी कहानियों में मनुष्य के होने (अपने गुण-दोष के समुच्चय में), उसके वैचारिक उत्कर्ष के दबाव (जो सदियों-शताब्दियों के हैं), उसके भौतिक यथार्थ (जिसमें उसके रोजमर्रे का जीवन है, सुख-दु:ख है) का तनाव है। उनकी कहानियों में, ये तीनों एक दिशा में एक बिन्दु पर संघात नहीं करते। ये तीनों एक बिन्दु पर गड़े बाँस को रस्सी के सहारे तीन अलग दिशाओं में खींचते हैं। तीनों का दबाव बराबर है। ये बाँस को टूटने भी नहीं देते और सामाजिक की भवता, वैचारिक उत्कर्ष और भौतिक यथार्थ को अलग भी नहीं होने देते। यह स्थिति गहरी विडम्बना-बोध उत्पन्न करती है। शिल्प में गजब का संतुलन निर्मित करती है। तनाव की यथास्थितिवादिता के कारण बदलाव को भी ये कहानियाँ प्रस्तावित नहीं करतीं। तीनों तरफ से रस्सियाँ खींचते-खींचते मनुष्य दमपस्त हो जाता है, पसीने और रक्त की बूँदों से उसका बदन झिलमिलाने लगता है, पर वह इंच भर भी आगे नहीं बढ़ पाता।

संवेदनात्मक संरचना में इस प्रकार का संतुलन (भौतिक यथार्थ, वैचारिक उत्कर्ष और भवता के बीच) एक पाठक के रूप में हममें झनझनाहट तो उत्पन्न करता ही है। पाठकों की जो प्रतिक्रियाएं जगह-जगह दर्ज हैं, वह इसी झनझनाहट की त्वरित प्रतिक्रियाएं है, न कि कोई सार्थक संवाद अथवा गहन आलोचना। इस संतुलन ने कथा के गठन में अद्भुत उत्कर्ष प्रदान किया है। ये कहानियाँ मनुष्यों की त्रासद नियतियों की केन्द्रीयता के बावजूद कलात्मक उत्कर्ष प्राप्त करती हैं। इसलिए भी ये पाठकों को आकृष्ट करती हैं। पाठ की रोचकता बनाये रखने में उनकी समर्थ भाषा और वर्णन शैली की भी अनिवार्य भूमिका है। ये वर्णन में रोचकता बनाये रखते हैं। एकाधिक सन्दर्भों और तथ्यों के दुहराव के बावजूद। एक बात के बाद दूसरी बात सीधे नहीं कही जाती अपितु वह अधिकांशत: बतकही जैसी होती है। तदुपरान्त यह भी ध्यातव्य है कि बतकही करते हुए, जो विवरण प्रस्तुत करते चलते हैं, उनके बीच सायास एक पंक्ति टाँक देते हैं। ये पंक्तियां पूरे नैरेटिव के अर्थ को बदलती हैं। उसे ज्यादा उर्वर बनाती हैं। पूरे विवरण की अर्थहीनता को स्पॉटलाइट की तरह प्रकाशित करती हैं। यही वह स्थल होता है, जहां कहानीकार पाठकों को उसकी पूरी कल्पनाशीलता के साथ आमंत्रित करता प्रतीत होता है। इसी प्रवृत्ति का एक दूसरा रूप हम देखते हैं इन पंक्तियों में - ''दादा असहाय थे इस कदर’’। (दरियाई घोड़ा) यह एक पंक्ति का वाक्य, संवेदनात्मक संरचना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह असहायता के समानान्तर पूरी कहानी में बिखरे दादा के दबंग, कठोर, झगड़ालू, अहंकारी स्वभाव को रोशन कर देता है। साथ ही ये प्रसंग के दूसरे पक्ष की भी रचना करते हैं। इन भावों के साथ दादा के खिलंदड़ी और खुशमिजादी भी अतिरिक्त चमक से उभारती है। यह अर्थ को दोनों तरफ से भासमान करता है। अर्थ के सात यह करुणा भी उत्पन्न करता है। एक पंक्तियों के ये एक पूरे पैराग्राफ है। यह इनकी कहानियों में सर्वत्र बिखरे हैं। इसीलिए प्रवृत्ति सरीखे हैं। एक ऐसा ही वाक्य 'अरेबा-परेबासे देखिये- 'सेमलिया अब नहीं है।

कहानी को विवरणों से लैस करता कहानीकार जहाँ पहुंचाकर धड़ाम से पटकता है, वहां पाठक संवेदनात्मक रूप से काफी चाज्र्ड होता है। वह निर्मित स्थितियों के दबाव में धंस चुका होता है। इसलिए भी वह विश्लेषण नहीं कर पाता। भाषा के इन्द्रजालिक सम्मोहन में हम कहानी के साथ बहते हैं। पाठक जब इस बहाव से बाहर निकलकर, तट पर बैठ उसे देखने की कोशिश करता है, तब स्थिति दूसरी होती है। यह कहानीकार के रुप में उदय प्रकाश के वर्णन-शैली और भाषा की ताकत भी है। कहानियों में उदय प्रकाश की एक प्रवृत्ति यह भी दिखायी पड़ती है कि कहानी का एक बड़ा हिस्सा वे विवरण में खर्च करते हैं। कहानी का आन्तरिक सारतत्व कहानी के परवर्ती हिस्सों में होता है। इन विवरणों के माध्यम से वे सारतत्व तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। कहानी में अवान्तर प्रसंगों की भरमार होती है। पाठक को उसमें से प्रसंग छाँटना पड़ता है। यह विवरणाधिक्य पर जिस चरित्रविहीनता की बात की है, उसका भी परिणाम है। इनकी कहानियों का अधिकांश हिस्सा समतल विवरण होता है, अधिकांश कहानियों (विशेष रूप से परवर्ती कहानियों में) परिवेश गायब होता है, मात्र स्थितियां रह जाती हैं। इस अतिशय विवरण से वे कहानियों में परिवेशहीनता की पूर्ति भी करते हैं। स्थितियों को इतनी दूर तक कहानी के रूप में ढाल पाना कोई आसान काम नहीं। यह कहानी लेखन की नयी प्रविधि थी। इसमें एक ओर मनुष्यों पर नयी निर्मित स्थितियों का दबाव था, जिसे लेखक सामाजिक के रूप में रिसीव कर रहा था, परन्तु इस तीव्र घटनात्मकता में हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा था। दूसरी ओर लेखक के रुप में इन नयी स्थितियों के विकास के मद्देनजर नयी संवेदनात्मक संरचना का विकास कर रहा था। परिवेशहीन, चरित्रविहीन विवरणप्रधान इन कहानियों को जब पाठक समाप्त करता है, तब यह खालीपन या झनझनाहट पाठक और सामाजिक के रूप में वह महूसस करता है। इन नयी प्रकृति की और नयी प्रविधि से रची गयी कहानियों के लिए बहुत सचेत होने की भी आवश्यकता है।

कहानीकार के रूप में उदय प्रकाश की ताकत का अंदाजा इस बात से भी होता है कि इनकी कहानियों में कोई भाव इकहरा नहीं आता। वह कई सहयोगी, विरोधी या तटस्थ भावों का समुच्चय होता है। उदय प्रकाश के कुछ अन्तर्विरोधों की चर्चा भी मैंने ऊपर की है। किन्तु मेरी दृष्टि में कहानीकार के रूप में उदय प्रकाश की सबसे बड़ी ताकत उनकी भाषा है। यह जो अर्जित भाषा है, वह विवरणों से भरी है, वह चरित्र और परिवेश का निर्माण नहीं करती। उसमें लेखक अपने निहितार्थों को बहुत ही सक्षमता के साथ प्रस्तुत करता है। इन विवरणों के माध्यम से उदय प्रकाश व्यंग्यार्थ निर्मित कर पाते हैं। व्यंग्यार्थ निर्मित कर पाना भाषा की श्रेष्ठ उपलब्धि है। उदय प्रकाश श्रेष्ठ कहानियों में, उसके छोटे अथवा विभिन्न हिस्सों में भी तथा पूरी कहानी में भी, सामान्य कथन, अभिधार्थ, लक्षणार्थ का अतिक्रमण कर जाते हैं। जहां ऐसा हो पाता है और सामाजिकों की निजता के भीतर अथवा उसके बावजूद वह किन्हीं अंशों में समाज को छूती है, वहाँ कहानियां बेहतर हैं। ऐसे संदर्भों में, कहानियों में कहानीकार को विश्लेषण की आवश्यकता नहीं होती। अथवा उन्हें बारम्बार यह कहने की आवश्यकता नहीं होती कि यह वह समय है, जब...। यह भी इतिहास का एक सिरा छूता है, परन्तु संवेदनात्मक संरचना के धरातल पर यह बहुत स्थूल है। वह भाषा की उपलब्धि नहीं है। 'हिन्दुस्तानी इवान दानिसोविच की जिन्दगी का एक दिनमें नैरेटर कहता है - ''उसका नाम राम सहाय श्रीवास्तव था। उसने दक्षिण दिल्ली के बैरसराय गांव में एक दस फुट गुणे बारह फुट का कमरा किराये पर ले रखा था। पच्चीस साल पहले वह इस कमरे में अकेला था। इसलिए कमरा बड़ा था। लेकिन पच्चीस सालों के बीतते न बीतते उसमें छह लोग रहने लगे थे इसलिए कमरा बहुत सँकरा हो गया था। कमरे को छोटा बनाने में उसके परिवार का हाथ था।’’ यहाँ कमरा का बड़ा या छोटा होना महत्वपूर्ण नहीं है। एक आदमी के लिए जो कमरा बड़ा प्रतीत होता था, परिवार के बढऩे के साथ वह छोटा होता गया। यह सामान्य बात है। सापेक्षिक सन्दर्भ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि समय बीतने के बावजूद, नौकरी के बावजूद, वह न्यूनतम सहूलियतें इस व्यवस्था में पा सकने में अक्षम है। यह भाषा की स्थूलता नहीं है। इसी तरह 'छप्पन तोले का करधनका पूरा अनुच्छेद देखिए। रात में अंधेरा सब ओर होता है, पर नैरेटर के घर का अंधेरा दूसरे घरों की तुलना में ज्यादा गाढ़ा और घना है। क्यों? जबकि भौतिकता में यह सम्भव नहीं है। यह भाषा की रात है। इस गाढ़ा और ज्यादा का ही परिणाम है कि वह दुरारूढ़ कल्पनाएं करता है। ऐसी कल्पनाएं जो वास्तविकता की जमीन से नहीं पैदा हुए हैं। ये यथार्थ को उपजाने या उसके लिए प्रोत्साहित करने वाली कल्पनाएं नहीं हैं। ये यथार्थ को अतिक्रमित करने वाली कल्पनाएं हैं। यह अतिक्रमण सार्थक है या निरर्थक - इसको परखा जाना तो अभी सम्भव नहीं, पर इस अतिक्रमण के ऐतिहासिक कारण और ध्येय हैं। जिस समाज में अंधेरे की तुलनात्मकता की आवश्यकता हो, वहां इस आवश्यकता पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। घर के भीतर, बाहर की तुलना में, अंधेरा है और घर की तुलना में अंधेरी कोठरी में ज्यादा अन्धकार है। इस उद्धरण में, जो दो उपमान आये हैं, उनका यथार्थ जगत से सम्बन्ध नहीं है। केवड़ा नहीं तो उसके गन्ध का प्रश्न नहीं। मछली के पसीने को देख और पहचान पाना असम्भव है। इन असम्भव स्थितियों के बीच शुरु कहानी में होती व्यंग्यार्थ का महत्व काफी बढ़ जाता है।

इनकी कहानियों को पढ़ते हुए हमें ऐसे 'क्योंसे टकराना पड़ता है। ये 'क्योंहमें अकसर कहानी के पाठ से बाहर फेंक देता है। कहानी के बाहर जाने पर वह पुन: पाठक से सामाजिक हो जाता है। ऊपर इसके बारे में कहा भी है। यहां एक कठिनाई यह है कि कहानी के निर्मित फॉर्म के बाहर सामाजिक के रूप में उसके अनुभव का अपना भी एक विशिष्ट दायरा होगा, उसकी समझ होगी, मजबूरियां होंगी। वह उसके माध्यम से इन्हें तौलता है। कहानी की आन्तरिक संवेदनात्मक संरचना के कारण नहीं। यहां यह प्रश्न भी उठता है, तब इनकी कहानियों का पाठक कौन होगा? व्यापक पाठकीय स्वीकृति के बावजूद इस पर विचार करना आवश्यक है। यह प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनकी कहानियाँ केवल जीवन का सहज प्रवाह नहीं है। जीवन के विवरण के साथ  ही इसमें सन्दर्भ बिन्दु के रुप में साहित्य, दर्शन मनोविज्ञान, समाजविज्ञान आदि के तथ्य सर्वत्र हैं। मसलन 'पॉल गोमरा का स्कूटरका यह सन्दर्भ देखिए - ''दिल्ली आने, आई.टी.ओ. पुल के राष्ट्रीय अखबार में नौकरी ज्वायन करने के बाद से ही उनमें अपने नाम को लेकर गहरा अंर्तद्वंद्व था, उसी तरह का आत्मसंघर्ष जैसा मुक्तिबोध की कविताओं 'ओरांग उटांगया 'ब्रहमराक्षसमें दिखाई देता है।’’ 'उसी तरहका प्रयोग स्थापित करता है कि इसका पाठक समुदाय कौन होगा? वैसे तो कहानी कोई भी पढ़ सकता है। इसके बावजूद कहानी की संवेदनात्मक संरचना यह मांग करती है कि पाठक मुक्तिबोध को पढ़ा हुआ हो। अर्थात् उसको न पढऩे वाले पाठक के लिए कुछ तो छूट ही जाएगा। 'हिन्दुस्तानी इवान दानिसोविच की ज़िंदगी का एक दिनका यह संदर्भ भी दृष्टव्य है - ''उसने सोल्जेनित्सिन के किसी उपन्यास के बारे में भी कुछ नहीं सुना था। इसलिए उसे इवान दानिसोविच के बारे में भी कुछ पता नहीं था।’’ इस तरह के तमाम सन्दर्भ पाठकीय स्वीकृति के बावजूद पाठकीय अर्हता को सीमित करते हैं। किसी के द्वारा पढ़ लिये जाने की भाषिक क्षमता के बावजूद। साथ ही व्यापक स्वीकृति का अर्थ भी बदला है। चूंकि साहित्य मात्र की स्वीकृति ही समाज में अत्यन्त संकुचित हुई है, वैसे में व्यापक स्वीकृति के तात्पर्य फिर से गढऩे होंगे। उदय प्रकाश के सन्दर्भ में व्यापक स्वीकृति का अर्थ प्रेमचन्द और अमरकान्त जैसे लेखकों की व्यापक स्वीकृति के अर्थ से अलग है और होगा।

अपनी कहानियों में उदय प्रकाश खिलंदड़ी का प्रयोग संरचना के धरातल पर करते हैं। इसका उपयोग ये दो रूपों में करते हैं। एक स्तर पर वे सामाजिक से निरपेक्ष होकर समाज की किसी विडम्बना, अन्तर्विरोध को हलकी व्यंग्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। ऐसे स्थल तो कहानी की संवेदनात्मक संरचना को ज्यादा उभारते हैं। किन्तु अधिकांश स्थलों पर उनकी यह प्रवृत्ति सामाजिकों को हास्यास्पद बना देती है। दद्दू तिवारी के सन्दर्भ में लिखते हैं - ''दद्दू तिवारी उसके ट्रक का नम्बर पूछते, लिखते, नीचे अपना दस्तखत करते...डी, बूंदी, टी...आई...डब्ल्यू...ए...आर...डी. तिवारी।’’ क्या यह खिलंदड़ई कहानी की संवेदनात्मक संरचना की विशेषता बन पाती है? 'और अंत में प्रार्थनामें प्रधानमंत्री में पाइल्स और फिस्चुला की परिकल्पना करना इसी प्रवृत्ति का द्योतक है। ऐसे सन्दर्भ लगभग इनकी तमाम कहानियों में है। इसका पूरा कथा साहित्य पढ़ जाइए, टेपचू, दद्दू जैसे कुछ शुरुआती धनात्मक चरित्रों के एक भी पात्र नहीं मिलता जिसका दृष्टिकोण सकारात्मक हो। जो सकारात्मक हैं, वे भी स्थितियों के गुंजलक में फंसकर दम तोड़ देते हैं।

इसकी दो मुख्य वजहें हैं। पहला प्रतिरोधहीनता और दूसरा उनका व्यक्तिवादी दृष्टिकोण। फिर ये दोनों भी आपस में जुड़े हुए हैं। प्रतिरोध पर मैंने पहले भी बात की है। 'पुतलामें अपने शोषण का प्रतिकार वह उन लोगों की शक्लें पुतले की बनाकर लेता है। रावण, मेघनाद, कुम्भकरण के समाज सम्बन्धी मुहावरे में उनको परिवर्तित करना प्रतिकार नहीं तो और क्या? राहुल, ओपी तथा अन्य लड़के जब लड़ते हैं गुण्डों से, तो यह प्रतिरोध ही तो है। कोई चाहे तो पूछ सकता है कि इससे क्या हो गया? मैंने बारम्बार यह बात कही है कि साहित्य व्यवस्था बदल नहीं सकता। वह उस बदलाव की मानसिक मनोभूमि निर्मित कर सकता है। उसकी आकांक्षा उत्पन्न कर सकता है। इन कहानियों के सन्दर्भ में, न इससे कुछ बदल सका था और न बदल सकने की कोई गुंजाइश थी, क्योंकि ये किन्हीं क्रियाओं की त्वरित और क्षणिक प्रतिक्रियाएं थी। इसीलिए यह व्यवस्था को परिवर्तित कर सकने वाले प्रतिरोध का उत्प्रेरक तत्व नहीं बन पाता। दूसरी बात यह है कि नैरेटर के रूप में वे कहानियों में पूरी तटस्थता निर्मित नहीं कर पाते। इस तटस्थता का हनन समाज के वंचित, दमित और पिछड़ों के लिए होता, तो स्थिति कुछ और होती। किन्तु वे कहानीकार के रूप में नैरेटर (मैं या वाचक) के पक्ष में तटस्थता खो देते हैं। इसीलिए यह समाज के व्योम की जगह निजता की लघुता में जा पड़ता है। दृष्टि को सीमित कर लेना कोई अपराध नहीं है। तीसरी बात राम सजीवन के माध्यम से समझी जा सकती है- ''यह वही क्षण था जहां भाषा व्यर्थ होती है। मौन मधु हो जाए... यह वाक्य उसके दिमाग में तैरा। फिर सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की पंक्ति उभरने लगी- मौन ही भाषा है। राम सजीवन ने खुद को कोसा कि कैसे-कैसे प्रतिक्रियावादी कवियों की रचनाएं उनके दिमाग में आ रही हैं। लेकिन बड़ी कोशिशो के बाद भी बाबा नागार्जुन और आलोकधन्वा की कोई कविता याद नहीं आ रही थी। उन्हें क्रांतिकारी प्रेम कविताओं के लिए या तो विदेशी क्रांतिकारी कवियों या देशी प्रतिक्रियावादी कवियों का मोहताज होना पड़ रहा था।’’ इस कहानी में इन्होंने भाषा की जो टेक पकड़ी है, वह मूल रूप से इस कार्य में सिद्ध हो रही है कि कैसे कम्युनिस्टों, उसकी चेतना और भाषा के अन्तर्विरोध को प्रस्तुत किया जाये। कहानी सामाजिक के, विचारधारा के अन्तर्विरोध को तो दिखला सकती है, उसको डीक्लास या डीमीन नहीं कर सकती।  राम सजीवन का मजाक उड़ाना, 'आचार्य की कराहमें आचार्य का मजाक उड़ाना वास्तव में उनको डाीमीन करता है। 'हिन्दुस्तानी इवान दानिसोविच की ज़िन्दगी का एक दिनमें एक विकलांग बालक के गिरने के अलग तरीकों का वर्णन मुझमें एक पाठक के रूप में वितृष्णा पैदा करता है। इसे खेल लेखक या नैरेटर कर रहा है। यह डायरेक्ट स्पीच में नहीं लिखा गया है। इन्डायरेक्ट स्पीच में लिखे जाने के काण यह लेखक का कथन है। लेखक का इस प्रकार मजाक उड़ाना मानवता को ही डीमीन करता है। ऐसा उनकी कहानियों में बहुत बार हुआ है। डीमीन करने के स्थान पर अगर ये अन्तर्विरोधों तक खुद को केन्द्रित रखते तो ज्यादा बड़ी बात होती। इस प्रकार के अन्तर्विरोधों के निर्माण के लिए नकारात्मक सन्दर्भों के साथ हमें सकारात्मक पक्षों को भी उभारना पड़ता है। आचार्य की कराह उनकी सकारात्मकता के साथ उभरती, तो ठोस और मारक होती।

उदय प्रकाश की कहानियों में इस प्रकार की तमाम असंगतियों की वजह इनका व्यक्तिवादी रूझान है। 'वॉरेन हेंस्टिग्स का साँड़में एक स्थान पर नैरेटर कहता है - ''यह किसकी जीत थी, कंपनी की या बंगाल की? हेस्टिंग्स की या चोखी की? कोई नहीं जानता?’’ यह प्रश्न मानवता को अवमूल्यित करता है। वॉरेन हेंस्टिंग्स एक सत्ता है, चोखी एक इंडीविजयुएल। सत्ता के समक्ष इंडीविजुएल हारता है। उसका हारना तय है। सामाजिक का काम संघर्ष करते रहना है। इस संघर्ष से अनुकूल स्थितियों का निर्माण होता है। अनुकूल स्थितियाँ अकसर परिवर्तन करने में सफल हो जाती हैं। परन्तु सामाजिक के रुप में चोखी ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं है, क्योंकि वह एक इंडीविजुएल है। जिसे पता भी नहीं कि उसका पिता अंग्रेजों से लडऩे वाला था या उसका गुलाम था। उसका पिता कौन था उसे तो यह भी पता नहीं। वह तो एक गरीब श्रमजीवी की बेटी है। जब उसे इंडीविजुएल में परिवर्तित कर दिया गया तब उसके कन्धे पर बंगाल की जीत-हार का बोझ डालना न न्यायोचित है, न मानवीय। उनकी सभी कहानियों में सामाजिक निरन्तर इंडीविजुएल में परिवर्तित होता चला जाता है। अपनी सामूहिकता से कटता हुआ। सामाजिक इंडीविजुएल में रिड्यूस हो रहा है, इसीलिए ज्यादा हॉन्ट करता है। अगर इसे समाज की प्रवृत्ति के रूप में रखा जाता तो इसके निहितार्थ दूसरे होते। जैसे-जैसे हम इनकी कहानियों की यात्रा के साथ आगे बढ़ते हैं, इनकी व्यक्तिवादिता प्रकट और वार्धक्यमान होती जाती है। 'छतरियाँमें नैरेटर कहता है कि 'जब उपला या पत्थर शिकता है, तो किस तरह कहीं और छुपने के लिए भागता है। छुपने के लिए कोई न कोई चीज जरूर चाहिए। इसीलिए तो यह इतना अपूर्व और सुंदर है, लेकिन बेवकूफ भी उतना ही।’’ यहीं भी दृष्टिकोण तो व्यक्तिवादी ही हैं, क्योंकि समाजाघृत प्रगतिशील और समूहवादी संस्थाएं तथा सामाजिक इस तरह छुपते नहीं हैं। इस व्यक्तिवादी दृष्टि के कारण विषय अथवा समस्या चुनने की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है। जो समस्या अथवा विषय चुना है उदय प्रकाश ने और उसके प्रति उनका जो ट्रीटमेंट हैं, वे भी व्यक्तिवादिता की ओर ही इशारा करते हैं। उदय प्रकाश मृत्यु को महत्व देते हैं, टूट जाने को महत्व देते हैं, सामाजिक के बिखर जाने को महत्व देते हैं। इसीलिए कहानी पढऩे के बाद पाठक अवसाद से भर उठता है। अकेला रह जाता है। यह उनकी ताकत भी बताता है।

इस व्यक्तिवादी समझ के कारण ही प्रतिरोध का जो ऊपरी या वायवीय ढाँचा उदय प्रकाश तैयार करते हैं, वह ध्वस्त हो जाता है। 'मोहनदासमें ये हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, शमशेर को पात्र बनाते हैं। ये कवि और लेखक हिन्दी में अपनी प्रतिरोधी चेतना के लिए जाने जाते हैं।

लेखक के रूप में जब तक उदय प्रकाश सामूहिकता का, सामूहिक चेतना का और समूह के माध्यम से परिवर्तन और प्रतिरोध को प्रस्तावित नहीं करेंगे तब तक प्रतिरोध की चेतना भी ध्वस्त होती रहेगी। इस प्रवृति का एक अपवाद इनकी कहानी 'तिरिछमें दिखायी पड़ता है। जहाँ गांव के तथाकथित पिछड़े लोग 'एक बहुत बड़े खतरे से पिताजी को निकालने की कोशिशकरते हैं, वहीं शहर के लोग निरन्तर उस आदमी को मारते हैं और मरने के लिए अकेला छोड़ते जाते हैं।

 

                                                                                         5

उदय प्रकाश की कहानियों में विडम्बना के गहरे स्रोत हैं। कहानियां अपने आखिरी प्रभाव में भी विडम्बना के सान्द्र राग को निर्मित करती हैं और कहानी के छोटे-छोटे हिस्से में भी। पहले छोटे-छोटे हिस्से में देखिए। डॉक्टर के बताने पर, कि जो नसबन्दी के लिए लेकर आता है, उसे भी बीस रुपए मिलते हैं, वह डॉक्टर से पूछता है- ''क्या मैं इसमें अपने लड़के का नाम भर दूँ?’’ डॉक्टर दयापूर्वक हंसने लगा और मुंडी हिलाई। लेकिन इवान नहीं कह सका कि 'आप बहुत अच्छे हैं, शुक्रिया। वह चुप ही रहा। या इसके थोड़े आगे डॉक्टर कहता है - ''आप कभी नहाते नहीं हैं, क्या?’’ डॉक्टर ने पूछा तो इवान ने जवाब दिया - ''टाइम ही कहां मिल पाता है, सर?’’ और हंसने लगा। इन छोटे-छोटे सन्दर्भों को व्यवस्था के व्यापक परिदृश्य के समानान्तर रखकर उदय प्रकाश विडम्बना निर्मित करने की कोशिश करते हैं। एक साफ-सुथरा धुला-पुछा मंहगे कपड़े पहना डॉक्टर जब उससे न नहाने की बात कहता है, तो संवेदनशील पाठक के लिए इसे बर्दाश्त करने की नौबत आ जाती है। वह सहज नहीं रह पाता। डॉक्टर की दयापूर्वक हंसी के उत्तर में वह उसे अच्छा नहीं कर पाता। पूरी कहानी में पसरी ये समानान्तर स्थितियाँ जिन विडम्बनाओं का निर्माण करती हैं, वे एक बिन्दु पर घनीभूत नहीं हैं। पसरी हैं। उसका विस्तार कहानी के विस्तार के साथ बढ़ता जाता है, जैसे गरीब आदमी के जीवन में त्रासदियां, विडम्बनाएं और अभाव जीवन के बढ़ते जाने के साथ बढ़ता जाता है।

'वॉरेन हेस्टिंग्स का सांड़में एक स्थान पर आता है - ''मुझे यकीन होता जा रहा है कि वे जानवर नहीं, गूंगे मनुष्य हैं जिनका शरीर हमसे कुछ अलग प्रकार का है।’’ जो अंग्रेज सत्ता इनसानों से जानवरों-सा व्यवहार करती रही है, वही जानवरों को गूँगा मनुष्य कह रही है। यह गहरा विडम्बनाबोध है। ऐसे दृश्य इनकी कहानियों में सर्वत्र हैं, लगभग सभी कहानियों में हैं। कहीं-कहीं ये विडम्बना निर्मित करने के लिए कुछ शॉर्टकट का उपयोग भी करते हैं। किन्तु यह छोटे-छोटे दृश्यों में ही होता है।

इन छोटे-छोटे दृश्यों के अतिरिक्त इनकी लगभग सभी कहानियां अपने सम्पूर्ण संवेदनात्मक संरचना में विडम्बना को केन्द्रीय विशेषता के रूप में प्रस्तुत करती हैं। मोहनदास या डॉ. वाकणकर की नियति क्या हमें गहरे विडम्बना बोध से नहीं भरती? 'तिरिछमें पिता का हश्र क्या हमें विचलित नहीं करता? या पॉल गोमरा की अन्तिम परिणति हमें विडम्बनामूलक दुख की गहरी खाई में नहीं धकेल देते! या राम सजीवन या 'दरियाई घोड़ाका नैरेटर या हीरालाल या रामसहाय (इवान दानोसिविच) सब हममें गहरी विडम्बना का बोध निर्मित करते हैं। राम सहाय (इवान) घर में पैसे न होने के कारण एक दिन में जितनी त्रासदियाँ झेलता है, उसके बाद जिन्दगी पर भरोसे लायक कुछ नहीं रह जाता। वह अपनी नसबन्दी कराकर अपने भूखे बच्चे के लिए कुछ अन्न प्राप्त करता है और कुछ पैसे। इसमें से कुछ वहीं अस्पताल के कर्मचारी घूस में ले लेते हैं। ये एकल कर दिये गये सामाजिक, व्यववस्था के समक्ष निरन्तर बौने होते चले जा रहे हैं। राम सहाय पैसे लेकर ऑटो में बैठता है, तो बेहोश हो जाता है। उसका घर निकल जाता है। कहानी में इस बात का स्पष्ट कथन नहीं है कि राम सहाय ने पैसा नसबन्दी कराकर प्राप्त किया है। पर जब वह ऑटो में बेहोश होता है, और उसके घर का मोड़ गुजर चुका होता है, तो स्पष्ट है कि उसके ये पैसे खत्म हो जाने हैं। मसला इस बात का नहीं है कि उसे किसी विधि से फौरी राहत मिली है अपितु मसला इस बात का है कि एक इनसान के रूप में व्यवस्था में उसे न्यूनतम बुनियादी जरुरतें हासिल है या नहीं?

यहाँ ठहरकर यह भी विचार करना चाहिए कि यह निर्मित विडम्बना व्यवस्था जन्य है या उनकी निजी महत्वकांक्षाओं, कार्यों का परिणाम है। कुछेक स्थलों पर ऐसा है जहां वह व्यवस्था का परिणाम नहीं प्रतीत होती। जैसे 'दरियाई घोड़ामें नैरेटर का दुख व्यवस्था से ज्यादा पिता की बीमारी का है या बीमारी के बाद उसके पिता का रुतबा, दबदबा समाज में घटने से है। परन्तु दूसरे हाथ पर जब कैंसर के इलाज के लिए उसे जमीन और घर बेचना पड़ता है, तो व्यवस्था की समानान्तर निश्चित रुप से खड़ी हो जाती है। परन्तु इवान, मोहनदास, डॉ. वाकणकर, रामसजीवन, हीरालाल, सुरेश आदि अपनी करनी का परिणाम नहीं भोगते। इसे व्यवस्था निर्मित करती है, सामाजिक उस त्रासदी का भोक्ता है। जब तक व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी, तब तक मनुष्यता छीजती रहेगी। चाहे समाज के कुछ लोग समृद्ध होते जाएं, चाहे हमारा जीडीपी ग्रोथ बढ़ता जाए, चाहे जितने भी लकदक बाजार बनते जाएं।

यहां इस प्रसंग में एक आखिरी सन्दर्भ विचारणीय है। यह गहरा और विस्तृत विडम्बना बोध करुणा उत्पन्न कर पाता है या नहीं? मेरे विचार से अवसाद में रस लेने की प्रवृत्ति कहानी के किसी हिस्से में या पूरी कहानी में आद्यन्त बनी रहती है। यह रस लेने की प्रवृत्ति, विवरण का वितान और चयनित एवं निर्मित संवेदनात्मक संरचना ही विडम्बना को करुणा में स्थानान्तरित नहीं होने देती। अधिकांश कहानियों के त्रासदी पर समाप्त होने के बावजूद पाठकों में क्षणिक अवसाद या दुख तो उत्पन्न होता है, पर वह करुणा की अन्र्तवर्ती धारा निर्मित नहीं कर पाती। करुणा से उत्पन्न सात्विक राग इनसान को जोड़ता है और पाठकों को भी कथात्मक संवेदनात्मकता से जोड़ पाता है। इससे जो उद्दातीकरण होता है, वह साधारणीकरण है या नहीं, सो तो नहीं कर सकता, पर मानवता के प्रति रागात्मक सामान्यता का निर्माण अवश्य करता है। मनुष्य पदार्थ और कन्ज्यूमर की तुलना में मनुष्य बनता है। साथ ही उदय प्रकाश मानवता के स्याह पक्ष के रचनाकार हैं। इसका गाढ़ापन इतना सान्द्र है कि मुक्ति का कोई मार्ग, प्रकाश का बिन्दु स्रोत भी दिखायी नहीं देता। यही सबसे बड़ी त्रासदी।

 

                                                                                          6

अब कुछ बातें विषयगत भी जरूरी हैं। 'पॉल गोमरा का स्कूटरमें नैरेटर कहता है - ''इस तरह स्कूटर प्रतीकात्मक रूप से इस नव-औपनिवेशिक, भू-मंडलीकरण उपभोक्तावादी, बाजारू साम्राज्यवाद का सशक्त प्रतिरोध है। अगर गांधी जी को यह मानने की स्वतंत्रता थी कि इंगलैंड के विशाल मशीनी उद्योगों के विरुद्ध चरखा एक यंत्र नहीं बल्कि दस्तकारों और बुनकरों या मनुष्यों के हाथ का ही नैसर्गिक विस्तार है, तो हिन्दी भाषा के फक्कड़ कवि पॉल गोमरा को भी यह मानने का अधिकार था कि आज के युग में स्कूटर दरअसल मनुष्यों के पैरों का ही अत्यंत मानवीय विस्तार है।’’ हमारी सामान्य समझ के अनुरूप इस कहानी का स्कूटर भी पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार का अंग है। स्कूटर या बाजार में उपलब्ध कोई भी सामान खरीद लेने से दैनंदिन जीवन में व्याघात होता है। निम्नवर्ग या निम्न मध्यवर्ग के पास इतने पैसे कभी नहीं होते कि वह बाजार से स्कूटर या अन्य चीजें मनोरंजनार्थ खरीद सकें या उस खर्च को अपना मनोरंजन मान लें। इस आघात को कम करने के लिए सामाजिक ऐसे तर्क गढ़ता है। उदय प्रकाश की कहानियों के फॉर्म की विशेषता है कि वे प्रथम पुरुष में नहीं, उत्तम पुरुष में लिखी गयी हैं। ज्यादातर कहानियां। उत्तम पुरुष में रचनाकार नैरेटर के रुप में खुद के विचारों को ज्यादा सशक्त रुप से अभिव्यक्त कर पाता है। प्रथम पुरुष वाली रचनाएं भी रचनात्मक रुप से लेखक की ही रचना होती हैं, पर उत्तम पुरुष वाली रचनाओं में रचनाकार नैरेटर के रुप में ज्यादा प्रत्यक्ष होता है। ऐसा मानते ही हम यह स्वीकार करते हैं कि रचनाकार का स्थितियों के साथ तार्किक संगति आवश्यक है। इस रुप में उदय प्रकाश ने अपने समय में उभर रहे बड़े बाजार, बाजार में मनुष्य की नियति को अपना विषय बनाया है। विकास और बाजार की अंधी स्थितियों में भाषा असमर्थ हो जा रही है। साधारण आदमी और पिछड़ता जा रहा है- ''विडंबना यह थी कि पॉल गोमरा को लगातार महसूस हो रहा था कि &&&उनकी भाषा में बहुत कम शब्द हैं। जो शब्द हैं भी, वे किसी और सभ्यता और समय के शब्द हैं।’’ मशीनी और उपभोक्तावादी संस्कृति मानवीयता का सार तत्व सोख ले रही है।

यह विकास साधारण मनुष्यों की 'आंख जो देख रही थी और दिमाग जो सोच रहा था, उसके बीच की संगति और तर्क गड़बड़ा देता है। संवेदनात्मक संरचना के धरातल पर इनके वर्णनों में अतिरेक भले है, परन्तु विषय के धरातल पर यह अतिरेक कुछ प्रस्तावित कर पाने में समर्थ है। यह अतिरेक समाज के बुनियादी ढाँचे में आए परिवर्तनों को स्पष्ट करता है। 'दाल रोटी खाएंगे प्रभु के गुण गाएंगेमें मुफलिसी के बावजूद अपनी दार्शनिकता के कारण जो संतोष का भाव रहता है, उसको भी ध्वस्त करता है। यह समाज के स्वप्न को भी ध्वस्त करता है, जो इनसान की बराबरी का स्वप्न दिखाता है। इन स्थितियों को कुचलकर उत्तर आधुनिक उग्र पूँजीवादी वैश्विक बाजारवादी व्यवस्था, विकास की जो नयी स्थिति उत्पन्न करता है, उसमें सामाजिक, झूठ, फरेब, जालसाजी, येन केन प्रकारेण भौतिकता के घोड़े पर सवार होना चाहता है। मूल्य, उसूल, सिद्धान्त, इनसान के रूप में उसकी अस्मत, यह नयी व्यवस्था छीन लेना चाहती है। सामाजिक इसके लिए खुशी-खुशी तैयार भी हैं। यह पूँजीवाद की ताकत है या हमारी कमजोरी? या इसके पीछे वह क्रूर विचार तो नहीं कि इनसान का शोषण तो हर स्थान पर, हर व्यवस्था में होता रहा है, यहाँ शोषण कर कम से कम भौतिक समृद्धि तो मिल रही है। यह एक तर्क हो सकता है। इस तर्क की सीमाएं बहुत ज्यादा हैं। एक तो यह पूँजीवादी व्यवस्था का षड्यन्त्र है। दूसरे इसकी पहुँच और प्रभाव के दायरे में कम लोग आ सकते हैं। तीसरे यह सामाजिकों की सामूहिकता को तोड़कर उन्हें एकल एकक में बदल दे रहा है। चौथ व्यवस्था के रूप में इसकी निर्मिति अत्यन्त विध्वंसक है। 'पॉल गोमरा का स्कूटर’, 'वॉरेन हेंस्टिंग्स का साँड़’, 'भाई का सत्याग्रह’, 'मोहनदास’, 'थर्ड डिग्री’, 'और अंत में प्रार्थनाआदि जितनी भी कहानियां हैं, वे सब पूंजीवादी व्यवस्था की सोची-समझी निर्मितियाँ हैं। उसकी सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि वह सामाजिक को उसकी सामूहिकता से काट देता है और नितान्त अकेला कर देता है। पूंजीवाद की सफलता इसमें भी है कि फिर सामूहिकता से कटा इंडीविजुएल अपनी सफलता को इन्ज्वॉय भी करने लगता है। उदय प्रकाश की कहानियों की विशेषता यह है कि वे कहानियों में उपर्युक्त सन्दर्भों को यथास्थिति में प्रस्तुत करते हैं। उसके विवरणों से कहानी को भर देते हैं। इसका एक घाटा यह हुआ कि साहित्य और साहित्यकार की हस्तक्षेपकारी भूमिका समाप्त हो गयी। जबकि हिन्दी साहित्य का इतिहास उठाकर देखिए, हमें सर्वत्र उसकी हस्तक्षेपकारी भूमिका दृष्टिगोचर होती है। कुछ सौ वर्षों को छोड़कर। इससे साहित्य और कहानियां कला रुपों में ढल सकने की क्षमता अर्जित कर सकती हैं। समाज के साथ सार्थक चहलकदमी नहीं कर सकतीं।

उदय प्रकाश ने 'राम सजीवन की प्रेम कथामें विकास के इस मॉडल की कितनी सटीक आलोचना की है - ''गांव का मंझला किसान वर्ग शहरके निचले मंझले वर्ग से भी नीची कोटि का साबित हो रहा था। किसी दफ्तर का छोटा-मोटा बाबू भी जीवन स्तर और सभ्यता के लिहाज से ज्यादा कुलीन और चमकदार दिखाई देता था।’’ इसी कहानी में वे यह भी कहते हैं - ''इस विराट् लकदक शहर में जहां इतनी बड़ी दुकानों, कोठियों, कारों की चमाचम धूप थी, उन्हें अपने गांव का बड़े से बड़ा किसान भी कुली-कबाड़ी दिखायी देता।’’ विकास का जो मॉडल हमने अपनाया है, विशेष रूप से नव उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के अपनाने के बाद, यह निहायत ही शहर केन्द्रित है। शहर के विकास के सामने गांव दिनानुदिन पिछड़ते चले जा रहे हैं। देश का सारा पैसा चार-पाँच महानगरों और लगभग 25राजधानियों में खर्च हो रहा है। इन 25-30 केन्द्रों से जो स्थान जितनी दूरी पर है, वह उतना पिछड़ रहा है। ये 25-30 शहर और महानगर अपने लकदक बाजारों, बहुमंजिला इमारतों, बिजली-पानी-सड़क की सुविधा, यातायात की व्यवस्था में गाँवों से इतना आगे और अलग हैं कि लगता ही नहीं कि हम एक ही भारत में है। साथ ही इन शहरों में भी अमीरों और गरीबों के बीच इतनी खाई है, कि उस शहर के भीतर भी वे कई दुनिया बना लेते हैं। उदय प्रकाश कहानीकार के रुप में इस बाजार और विकास के उल्टी पंक्ति में खड़े या उससे बाहर छिटक गये लोगों को अपनी कहानी का विषय बनाते हैं जो इस दृष्टि से वे प्रगतिशील ही नजर आते हैं। जनता के पक्ष में खड़े रचनाकार।

नव उदारवादी व्यवस्था में विकास के जिस मॉडल का निर्माण हुआ है, उसका परिणाम है- ''लेकिन पिछले पाँच-सात सालों में सुबह की इस बस में दूधवाले, सब्जीवाले और रोजाना दिल्ली-गाजियाबाद के बीच अपडाउन करने वाले बाबुओं, कर्मचारियों, मजदूरों की तादाद इतनी बढ़ गई थी कि लोग बस के भीतर ही नहीं, दरवाजों, छत, पायदान, पीछे की जाली और डंफर पर भी लटके रहते थे। दिनोंदिन अधेड़ावस्था से बुढ़ापे की ओर खिसकते हिंदी के असफल नगण्य और बहिष्कृत कवि पॉल गोमरा की थकान, उम्र, स्मृतियों, चिंताओं और रोगों से भरे बीमारी और गरीब शरीर के लिए बस की यह लंबी यात्रा दु:साध्य होती जा रही थी।’’ (पॉल गोमरा का स्कूटर) शहर में, आम इनसान निम्न मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के लोग के रहने की औकात नहीं रह गयी है। इसलिए वह शहर के सीमान्त की ओर खिसकता जा रहा है। इस तरह शहर फैलता जा रहा है और गाँव सिकुड़ता। शहरों की उत्तर आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति में, वर्चस्वशाली वर्ग और मजबूत होता जा रहा है। वर्चस्वशाली वर्ग के लिए आम जनता बस बाजार का माल खपाने वाले उपभोक्ता हैं। इस संस्कृति में या सांस्कृतिक अपसंस्कृति में किसी विधि से आया धन आपको सबकुछ दे सकता है जिसकी आपको आकांक्षा है। अन्यथा आप कीड़े-मकोड़ें की तरह हैं। आप अपना नाम बदल सकते हैं। आपकी पत्नी ब्यूटी पार्लर जा सकती है। आप स्कूटर, घड़ी, कार और न जाने क्या-क्या खरीद सकते हैं। इस उपभोक्तावाद से हम सांस्कृतिक अपसंस्कृति निर्मित करने वाली शक्तियों का हाथ और मजबूत करते हैं।

शहर और शहर के हाशिये का समाज ही इनकी कहानियों का केेन्द्रीय विषय है। 'तिरिछकी प्रारम्भिक पंक्तियां हैं - ''इस घटना का सम्बन्ध पिताजी से है। मेरे सपने से है और शहर से भी है। शहर के प्रति जो एक जन्म-जात भय होता है, उससे भी है।’’ यहाँ सामाजिक और उसके सम्बन्धों की श्रेणियां हैं। पिता जैविक सम्बन्ध, सपना निजता, शहर समाज की मुख्यधारा और भय-व्यवस्था जन्य अपसंस्कृति का वाचक है। एक सामाजिक रुप में वह इतने प्रकार के वैयक्तिक और सार्वजनिक सम्बन्धों का भोक्ता है। ये योजक चिन्हों की भाँति जुड़े हैं। पर शहर के प्रति भय क्यों? शहर के प्रति यह भय ही उनकी चिन्ता का केन्द्र है। 'हीरालाल का भूत’, 'तिरिछ’, 'टेपचूया 'दद्दू तिवारी: गणनाधिकारीजैसी कहाीिनयों में जहां ये गांव का जिक्र करते हैं, तो वह पाश्र्व का ही काम करता है। ऐसी कहानियों में ये मुख्यत: सामन्ती अन्तर्विरोधों को रेखांकित करते हैं। सामन्ती व्यवस्था में इनसान की हैसियत शून्य होती है। दो जून के भोजन के एवज में जीवन का सारा सत्व निचोड़ लेना, सामन्ती समाज की आधुनिक युग में भी विशेषता है। भारतीय समाजों में सामन्ती अवशेष अभी समाप्त भी नहीं हुए थे कि आधुनिकता आ गयी। आधुनिकता का अभी ठीक से प्रसार भी नहीं हुआ था कि उत्तर आधुनिकता का विगुल बज गया। इस तरह सामन्तवाद कभी समाप्त नहीं हुआ। वह अब बाजार और पूंजीवादी व्यवस्था के साथ नाभिनाल जुड़कर लगातार जीवित है। अब यह राजनैतिक सामाजिक व्यवस्था से ज्यादा एक मानसिक दशा बन चुका है, लोकतन्त्र की खोल में गाँव की पृष्ठभूमि इसको ज्यादा तीखेपन से उभारती है। 'हीरालाल का भूतमें एक स्थान पर नैरेटर कहता है - 'ऐसे सर्वव्यापी हीरालाल ने वह घटना न देखी हो, ऐसा हो नहीं सकता।’ 'सर्वव्यापीशब्द विडम्बना की समानान्तर परत तैयार करता है। इसमें निरीह के शोषण और सामन्ती व्यवस्था के समानान्तर सामन्ती व्यवस्था की सबसे मजबूत अवधारणा भी है। ईश्वर के सर्वव्यापकत्व की। इसके अतिरिक्त जो सारा विवरण कहानी में है वह मध्ययुग की सबसे मजबूत अवधारणा के समानान्तर सबसे कमजोर इनसान को प्रस्तुत कर जिस गहरी विडम्बना को उत्पन्न करता है, वह एक संवेदनशील आधुनिक मनुष्य के लिए गहरी चोट है। इस चोट को उदय प्रकाश अपनी प्राय: सभी कहानियों में उभारते हैं। चाहे वह 'मोहनदासहो या 'पीली छतरी वाली लड़की।

                                                                                           7

अन्त में कुछ बात और। पहली बात यह कि ऊपर मैंने बताया था कि तथ्य को प्रसंग के साथ जोड़कर कोई भी दिशा दी जा सकती है। वहीं सूचनात्मकता के संदर्भ में भी बात की थी। संवेदना, करुणा में प्रसरण की क्षमता होती है। प्रसरण का अर्थ है- विषय, संदर्भ, तथ्य आदि के सामाजिक तक पहुंचने की क्षमता। पाठकों का जुड़ाव उससे कम होना चाहिए। उदय प्रकाश की कहानियों के साथ सूचनात्मकता, तथ्यात्मकता के बावजूद पाठकों का गहरा लगाव है। पठनीयता भी आद्यन्त बनी हुई है। यह मेरी बात का ही आन्तरिक प्रतिरोध दिखायी पड़ता है। यह भी तथ्य है, उस तथ्य का विश्लेषण नहीं। इस अन्तर्विरोध के निर्माण में उसकी लेखकीय क्षमता तो है ही, साथ ही नयी निर्मित स्थितियां भी हैं। इनके बारे में ऊपर जिक्र किया जा चुका है। साथ ही व्यंग्य की जो एक महीन धार उनकी कहानियों में है, वह भी पाठकीय अभिरुचियों का विकास करती है।

दूसरी बात का संबंध इसी घटनात्मकता से है। सूचनात्मकता, तथ्यात्मकता के बावजूद ये पाठकीयता और पठनीयता का निर्माण कर पाये हैं, परंतु एक संवेदनात्मक संरचना के भीतर घटनाओं की अनिवार्यता निर्मित नहीं कर पाते। अनिवार्य या उत्कृष्ट कहानियों में घटनाओं अथवा घटनात्मकता का वैकल्पिक संदर्भ नहीं होता है अर्थात् कार्य-कारण श्रृंखला और आन्तरिक प्रक्रिया में विकल्प नहीं होता अर्थात् जीवन के जिन सूत्रों को कहानीकार उठाता है वे अपनी भवता और परिणति में अनिवार्य होते हैं। ऐसा मेरा विश्वास है। ऐसी कहानियों की बड़ी विशाल सूची बनायी जा सकती है। इनकी कहानियों में विवरण और सूचना तो है, घटनात्मक अनिवार्यता नहीं। घटनात्मक अनिवार्यता की बात छोडि़ए, इन्होंने तो अपनी कहानियों में निष्कर्षों को भी वैकल्पिक बनाया है। इसने भी इनकी कहानियों को विस्तार दिया। साथ ही संवेदनात्मक संरचना की अनिवार्यता को भी खंडित किया।

उदय प्रकाश की कहानियों पर विस्तार पूर्वक बात करने के बाद एक आखिर बात। कहानीकार के रूप में उदय प्रकाश ने एक नयी जमीन उभारी है। वह खुरदुरी है, उसमें कुछ असंगतियां भी हैं, संवेदनात्मक संरचना भी परिपक्व नहीं है, संवेदना को सूचना से स्थानापन्न करने के कारण विवरणों, सूचनाओं की भरमार भी है, इसके बावजूद उदय प्रकाश हमारे युग के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। श्रेष्ठता को लेकर विवाद हो सकता है, क्योंकि उनकी जमीन को तोड़ बाद में कई रचनाकारों ने उनसे बेहतर रचनाएं दी हैं। परन्तु नवोन्मेषण, नवाचार, नयी भाषा और नये कथा प्रयोगों के कारण ये हमारे प्रतिनिधि हैं। नवोन्मेषक हैं। भाषा, वर्णन शैली तो छोडि़ए इनसे पहले तीन-तीन निष्कर्ष एक कहानी के किसने दिये हैं। इनके द्वारा विकसित टेकनीक, शैली, भाषा की स्पष्ट छाप परवर्ती रचनाकारों पर देखी जा सकती है। यह भी कहानीकार के रूप में इनके सामथ्र्य को प्रस्तावित करता है।

 

 

 

 

अमिताभ राय युवा आलोचक हैं। 'पहलमें इसके पूर्व कई बार प्रकाशित। दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन करते हैं। 'अंधेरे मेंका एक महत्वपूर्ण पाठ भारतीय ज्ञानपीठ ने हाल के दिनों में छापा है। उल्लेखनीय यह है कि हिन्दी में पाठ्यालोचन जबकि एक दुर्लभ कारोबार हो गया है, अमिताभ उसी दिशा में काम कर रहे हैं। संपर्क मो. 09582502101, गाजियाबाद

 

 

Login