कार्ल मार्क्स के लिए कविताएँ
श्रेणी | कार्ल मार्क्स के लिए कविताएँ |
संस्करण | सितम्बर - 2018 |
लेखक का नाम | अंग्रेजी से अनुवाद : मंगलेश डबराल |
कविता/देश देशांतर
सन 2018 कार्ल मार्क्स की दूसरी जन्म-शती का वर्ष है। इन दो सौ वर्षों के आरपार उनके दर्शन, विचार और अर्थशास्त्र ने दुनिया के असंख्य परिभ्रमण किये, अनेक क्रांतियों, विद्रोहों, संघर्षों, हलचलों और बहसों को जन्म दिया, और कुछ को विफल होते हुए भी देखा। दुनिया के राजनीतिक, सामाजिक और मानसिक न$क्शे में सबसे ज्यादा और बड़े परिवर्तन मार्क्सवाद ने ही संभव किये और मनुष्य को सबसे बड़ा स्वप्न भी दिया जो अभी तक देखा जा रहा है और आगे भी देखा जाता रहेगा। जटिल दार्शनिक-आर्थिक तर्क-वितर्क के संसार में रहने के बावजूद मार्क्स ने कई कविताएँ लिखीं और उन पर भी बहुत सी कविताएँ लिखी गयीं, जिनमें से कुछ यहाँ दी गयी हैं. हिंदी में मार्क्स पर बहुत कम कविताएँ मिलती हैं और बकौल सुरेश सलिल, हिंदी कविता लेनिन से पीछे नहीं गयी। 'उर्दू में अल्लामा इकबाल शायद पहले बड़े शायर हैं जिन्होंने नज्मों में मार्क्स का ज़िक्र किया, लेकिन उनका अंदाज़ कहीं तारीफ़ और कहीं सख्त आलोचना का है। यहाँ प्रस्तुत रचनाओं में ज़्यादातर मार्क्स के ऐतिहासिक अवदान का रेखांकन हैं, हालांकि कुछ में विडम्बना और आलोचना का स्वर भी है। ये रचनाएँ विभिन्न इन्टरनेट स्रोतों और फिल्मकार तरुण भारतीय द्वारा संचालित वेबसाइट 'रैयोत’ से साभार ली गयी हैं। —अनुवादक
कार्ल हाइनरिख मार्क्स हान्स माग्नुस एन्ज़ेसबर्गर (वामपंथी रुझानों के प्रमुख जर्मन कवि। जन्म-11 नवम्बर 1929। उपन्यास और बच्चों के लिए लेखन भी किया। विडम्बना के बड़े कवि माने जाते हैं और उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी में भी हुए हैं)
विराट पितामह प्राचीन भूरे छायाचित्र में तुम्हारी ये होवा जैसी दाढी मैं तुम्हारे चहरे को देखता हूँ बर्फ जैसा सफेद आभामंडल निरंकुश झगड़ालू कैबिनेट की दराज़ में तुम्हारे कागजात: बूचड़ के भुगतान के बिल उद्घाटन के भाषण गिरफ्तारी के वारंट
तुम्हारा विशाल शरीर मैं उसे 'फरारी के रजिस्टरों में देखता हूं विराट राजद्रोही लम्बा कोट और छाती पर पट्टा पहने हुए टीबी से ग्रस्त अनिद्रा के शिकार ज़लावतन भारी सिगार नमकीन खारे अफीम के आसव और लिक्योर से झुलसा हुआ तुम्हारा पित्ताशय
मैं देखता हूँ तुम्हारा घर रू द्लियोंस में डीन स्ट्रीट ग्रैफ्टन टेरेस विराट बूर्ज्वा परिवार के उत्पीड़क अपनी घिसी हुई चप्पलों में: कालिख और 'आर्थिक बकवास’ सूदखोरी 'बदस्तूर’ बच्चों की अर्थियां घटिया प्रेम प्रसंगों की अफवाहें
तुम्हारे मसीहाई हाथों में कोई मशीन-गन नहीं : मैं चुपचाप तुम्हे देखता हूँ ब्रिटिश म्यूजियम में हरे रंग के लैंप की रोशनी के नीचे भीषण धैर्य के साथ अपने ही मकान को उजाड़ते हुए दूसरों के मकानों की हिफाजत के लिए जिनमें तुम कभी नहीं रहे विराट संस्थापक
विराट महर्षि मैं देखता हूँ तुम्हारे शिष्यों ने तुमसे दगा की सिर्फ तुम्हारे शत्रु वैसे ही बने रहे जैसे वे थे: मैं देखता हूँ तुम्हारे चेहरे का हुलिया अप्रैल बयासी की आखिरी तस्वीर में लोहे का एक आवरण : स्वाधीनता का लौह आवरण।
मार्क्स मुझे ऐसे मिला नारायण सुर्वे (मराठी के अग्रणी वामपंथी कवि। जन्म—15 अक्तूबर 1926, निधन—16 अगस्त 2010)। मजदूर आन्दोलनों में बहुत सक्रिय रहे। उनके कविता संग्रह 'माझा विद्यापीठ’ का हिंदी अनुवाद 'मेरा विद्यापीठ’ भी बहुत चर्चित हुआ।)
मेरी पहली हड़ताल के दौरान मार्क्स मुझे ऐसे मिला
जुलूस के बीच मेरे कंधे पर उसका परचम था जानकी अक्का ने कहा- 'पैचाना इसको ये अपना मारकस बाबा जर्मनी में जन्मा, बोरा भर किताब लिखा और इंग्लॅण्ड की मिट्टी में मिला। सन्यासी को क्या बाबा ? सारी धरती एक जैसी तेरे जैसे उसके भी चार कच्चे-बच्चे थे।’
मेरी पहली हड़ताल के दौरान मार्क्स मुझे ऐसे मिला।
फिर मैं एक सभा में बोल रहा था इस मंदी का कारण क्या है ? गरीबी का गोत्र क्या है ?
फिर से मार्क्स सामने आया बोला मैं बतलाता हूँ और फिर धड़ाधड़ बोलता गया।
परसों एक गेट सभा में वह भाषण सुनते हुए खडा था मैंने कहा 'अब हम ही इतिहास के नायक हैं और इसके बाद आने वाले सभी चरित्रों के भी’ तब उसी ने सबसे ज़ोरदार ताली बजायी खिलखिलाकर हंसते, आगे आते हुए कंधे पर हाथ रख कर बोला-- 'अरे कविता- वविता भी लिखता है क्या ? बढिय़ा, बढिय़ा मुझे भी गेटे पसंद था।’
मार्क्स के प्रति सुमित्रानंदन पन्त (छायावादी कविता के प्रमुख स्तम्भ. जन्म-20 मई 1900 निधन - 28 दिसम्बर 1977। प्रमुख रचनाएं: 'पल्लव, ग्राम्या, गुंजन, युगांत, चिदंबरा, लोकायतन। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।)
दंतकथा, वीरों की गाथा, सत्य, नहीं इतिहास, सम्राटों की विजय लालसा, ललना भृकुटि विलास, देव नियति का निर्मम क्रीड़ा चक्र न वह उच्च्छिन्खल, - धर्मान्धता, नीति, संस्कृति का ही न मात्र समर स्थल। साक्षी है इतिहास, किया तुमने दुन्दुभि से घोषित,- प्रकृति विजित कर, मानव ने की विश्व सभ्यता स्थापित! विकसित हो, बदले जब जब जीवनोपाय के साधन, युग बदले, शासन बदले, कर गत सभ्यता समापन! सामाजिक संबंध बने नव, अर्थ भित्ति पर नूतन नव विचार, नव रीति-नीति, नव नियम, भाव, नव दर्शन!
साक्षी है इतिहास, आज होने को पुन: युगान्तर; जनगण का अब शासन होगा उत्पादन यंत्रों पर। वर्गहीन सामाजिकता देगी सबको सम साधन; पूरित होंगे जन के भव जीवन के निखिल प्रयोजन! दिग्-दिगंत में व्याप्त, निखिल युग यु-ग का चिर गौरव हर; जन संस्कृति का नव विराट प्रासाद उठेगा भू पर! धन्य मार्क्स! चिर तमच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु-से प्रकट हुए प्रलयंकर!
कार्ल मार्क्स के लिए कसीदा जॉन फोर्ब्स (जन्म-1 सितम्बर 1950, निधन 23 जनवरी 1998। ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख कवियों में शुमार। कविता की पत्रिका 'स्क्रिप्सी’ के सम्पादक रहे।)
तुम एक बदनसीब दुल्हन के बूढ़े पिता, जिसके विवाह का केक आखिरकार ढह गया हो। तुमने जो सत्य बतलाया था वह
हमें मुक्ति नहीं दिलाता—वह शब्दों से बना हुआ भार उठाने वाले लीवर की तरह है, जिसका इस्तेमाल
कोई सीख नहीं पाया। जिस मशीन से जुड़ा था कभी वह, उसकी महज़ र$फ्तार बढती है और उसके हर नए रैप नृत्य का वीडियो इसका एक बेहतरीन दृश्य होता है, जहां देहें एक ही जगह नृत्य करती रहती हैं तेज़ और तेज़
घूमती हुईं। लेकिन अभी यह माहौल मेरे लिए अनुकूल है। मुझे यहाँ बैठने और लिखने और धूम्रपान करने के लिए
पैसे मिलते हैं अदोर्नो के नए विचार के पन्ने पलटते हुए बल्लार में सर्दी के दिन, जहां वयस्क बेरोजगारी 22 फीसद है
और तुम्हारी जटिल कारण और कार्य सम्बन्ध की भव्य रूपरेखा कुछ इस तरह काम करती है:
एक शक्तिशाली कार लो, उसके ऐक्सलरेटर का तार फर्श से जोड़ दो, ब्रेक बाहर निकालो और गियर और स्टीयरिंग
व्हील भी और उसे बहुत तेज़ी से आगे की तरफ जाने दो। कोई मूर्ख से मूर्ख टैटू किया हुआ बदमाश
-मॉल में घूमता हुआ कोई नायाब जांबाज़ हीरा— भी जानता है कि आगे क्या होगा। यह बहुत मजेदार है
अगर तुम गाडी के भीतर नहीं बैठे हो। जैसे मैं नहीं हूँ, मगर वे पुतले बैठे हैं जिनका वे प्रयोग के लिए इस्तेमाल करते हैं।
कार्ल मार्क्स के प्रति फ्रांसिस एडम्स
(उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश कवि, नाटककार और उपन्यासकार। जन्म-22 सितम्बर 1862, निधन 4 सितम्बर 1898। ऑस्ट्रेलिया में रहकर पत्रकारिता भी की। 'रात की सेना का गीत’ चर्चित संग्रह)
उस ख़याल के कारण नहीं, जो प्रखर और अविचल सुलग रहा, वह ताप जिसे ताप ने लाल से कर दिया सफेद, आवेग स्मृति में डूबी और अकेली रातों का, जिसको धैर्य भरे दिन भी देखते-सुनते हैं - न उन तीरों के कारण, जो आत्मा के भीतरी प्रकाश से छूट रहे और जिनसे हथियारों से लैस शत्रु को डर लगता है - बल्कि वह है प्यार हमारा, उज्जवल और अलौकिक जिसके कारण हम गा रहे तुम्हारे गान, ओ कामगार, चिन्तक, शायर, पैगम्बर!
जन के अग्रदूत तुम—निष्ठा के पूर्ण प्रतीक, रक्त-शिरा की अंतिम बूँद, बुद्धि के अंतिम चंचल अणु तक, तुम जिसके माथे पर प्रभामंडल चमक रहा, वही दे रहा हमको आशा, वह 'पक्की आशा’ - तुमने दी हमको आत्मा अपनी, अपना सम्पूर्ण ह्रदय; हम भी अपना हृदय औ अपनी आत्मा करते तुमको अर्पित.
कार्ल मार्क्स, अली सरदार जाफऱी ( साहित्य में तरक्कीपसंद आन्दोलन के प्रमुख शायर और आलोचक। जन्म—19 नवम्बर 1913 निधन - 1 अगस्त 2000। प्रमुख संग्रह—परवाज़, ज़म्हूर, पत्थर की दीवार। मीर और ग़ालिब के दीवान का सुन्दर सम्पादन किया। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।)
'नीस्त पैग़म्बर ब लेकिन दर बग़ल दारद किताब’ 1 -जामी
वह आग मार्क्स के सीने में जो हुई रौशन वह आग सीन-ए-इन्साँ में आफ़ताब है आज यह आग जुम्बिशे-लब जुम्बिशे-क़लम भी बनी हर एक ह$र्फ नये अह्द की किताब है आज ज़मानागीरो-खुदआगाहो-सरकशो-बेबाक 2 सुरूरे-नग़मा-ओ-सरमस्ती-ए-शबाब 3 है आज हर एक आँख में रक़साँ है कोई मंज़रे-नौ हर एक दिल में कोई दिलनवाज़ ख्वाब है आज वह जलव: जिसकी तमन्ना भी चश्मे-आदम को वह जलव: चश्मे-तमन्ना में बेनक़ाब है आज।
कार्ल मार्क्स - वामिक़ जौनपुरी (उर्दू के अहम् तरक्कीपसंद शायर। जन्म-23 अक्टूबर 1909, निधन—21 नवम्बर 1998। प्रमुख कृतियाँ: जहाँनुमा, ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल, गुफ्त्नी-नागुफ्तनी। सोवियत लैंड नेहरू पुरकार के अलावा भी कई सम्मान।)
मार्क्स के इल्म ओ फ़तानत का नहीं कोई जवाब कौन उस के दर्क से होता नहीं है फैज़-याब उसकी दानाई का हासिल नाख़ुन-ए-उक्दा-कुशा ताबनाकी-ए-ज़मीर-ओ-ज़ीरकी का आफ्ताब चाहने वालों का उस की ज़िक्र ही क्या कीजिए उसके दुश्मन भी सिरहाने रखते हैं उस की किताब माद्दी तारीख़-ए-आलम जिस की तालीफ़-ए-अज़ीम दास कैपिटाल है या ज़ीस्त का लुब्ब-ए-लुबाब पढ़ के जिस के हो गईं हुश्यार अक़वाम-ए-गुलाम इश्तिराकी फ़ल्सफा का खुल गया हर दिल में बाब कितने दोज़ख़ उस के इक मंशूर से जन्नत बने कितने सहराओं को जिस ने कर दिया शहर-ए-गुलाब मार्क्स ने साइंस ओ इंसाँ को किया है हम-कनार ज़ेहन को बख्शा शुऊर-ए-ज़िंदगानी का निसाब उस की बींनिश उस की वज्दानी-निगाह-ए-हक़-शनास कर गई जो चेहरा-ए-इफ्लास-ए-ज़र को बे-नक़ाब 'ग़सब’-ए-उजरत को दिया 'सरमाया’ का जिस ने लक़ब बे-हिसाब उस की बसीरत उस की मंतिक़ ला-जवाब आफ्ताब ताज़ा की उस ने बशारत दी हमें उस की हर पेशन-गोई है बरफ्गंदा नक़ाब कोई कुव्वत उस की सद्द-ए-राह बन सकती नहीं वक्त का फ़रमान जब आता है बन कर इंक़िलाब अहल-ए-दानिश का रजज़ और सीना-ए-दहकाँ की ढाल लश्कर मज़दूर के हैं हम-सफीर ओ हम-रिकाब काटती है सेहर-ए-सुल्तानी को जब मूसा की ज़र्ब सतवत-ए-फ़िरऔन हो जाती है अज़ ख़ुद ग़र्क-ए-आब आज की फ़िरऔनियत भी कुछ इसी अंदाज़ से रफ्ता रफ्ता होती जाएगी शिकार-ए-इंक़िलाब लड़ रहा है जंग आख़िर कीसा-ए-सरमाया-दार जौहरी हथियार से करता नहीं जो इज्तिनाब अपने मुस्तक़बिल से तागूती तमद्दुन को है यास दीदनी है दुश्मन-ए-इंसानियत का इजि़्तराब हज़रत-ए-इक़बाल का इब्लीस-ए-कोचक खौफ़ से लरज़ा-बर-अंदाम यूँ शैताँ से करता है ख़िताब पंडित ओ मुल्ला ओ राहिब बे-ज़रर ठहरे मगर टूटने वाला है तुझ पर इक यहूदी का इताब वो कलीम-ए-बे-तजल्ली वो मसीह-ए-बे-सलीब नीस्त पैग़म्बर ओ लेकिन दर बग़ल दारद किताब।
बताइए मार्क्स मल्लिका सेनगुप्त ( बांगला की अग्रणी नारीवादी कवि। जन्म—27 मार्च 1960, निधन—29 मई 2011। सिर्फ इक्यावन वर्ष जीने वाली मल्लिका अपने बेबाक़ राजनीतिक स्वर और लैंगिक विमर्श के लिए जानी जाती हैं। प्रमुख संग्रह—कथामानबी, लडकी का अ आ क ख, बृष्टिमिछिल बारूदमिछिल आदि)
उसने गीत काते, कम्बल बुने उस द्रविड़ स्त्री ने आर्य मालिक के खेत में गेहूं बोया, उसके बच्चे पाले वह कामगार नहीं है तो कौन है? बताइए मार्क्स, कौन कामगार है, कौन नही? उद्योगों के नए कामगार मासिक वेतन पाते क्या सिर्फ वही करते हैं काम? इस औद्योगिक युग ने ही दी है कामगार की घरवाली को झुग्गी-झोपड़ी का जीवन वह पानी भरती है, फर्श धोती है,खाना बनाती है दिन भर की थकान से चूर रात मे अपने बच्चे को पीटती है और रोती है वह भी नहीं है कामगार! फिर बताइए मार्क्स, क्या है काम? बगैर पैसे का श्रम है घरेलू काम तब क्या स्त्रियाँ रहेंगी घर में और क्रांतिकारियों के लिए पकायेंगी भोजन और कामरेड अकेले उठाएगा हंसिया और हथौड़ा? आपको शोभा नहीं देता ऐसा अन्याय अगर क्रान्ति हुई तो धरती पर उतरेगा स्वर्ग तब क्या स्त्रियाँ बन जायेंगी क्रांति की नौकरानियाँ?
मैं कार्ल मार्क्स हूँ जेन लेविट (अमेरिकी युवा कवि। अध्यापिका के रूप में स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम। एक संग्रह 'द ऑफ-सीज़न’ प्रकाशित।)
दुनिया में हैं बहुत सारे लोग ज़्यादातर नहीं हैं मेरे परिचित जो परिचित हैं उनमें से कुछ कभी-कभी कहते हैं मुझसे अपने बालों की सज-धज इस तरह रखो या वहां बार से पीने के लिए क्यों नहीं कुछ ले आतीं तुम? मैं कहती हूँ शुक्रिया आपके सुझाव के लिए या मैं जा सकती हूँ एक पेग लेने उस बार तक भले ही मैं थकी हुई होऊँ दिन भर एक कुर्सी पर बैठ कर बच्चों को तिरस्कार से देखती हुई समझती हुई खुद को मार्क्स और बच्चों को अवाम मैं कहती हूँ अगर मैं मार्क्स होती,तो बताइए क्या कहती आपसे, सर्वहारा लोगो? वे कहते हैं पूंजीवाद ज़ालिम है! बूज्र्वा वर्ग का नाश हो! वे सही कहते हैं इसलिए मैं अपने शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ और कॉपी के कागजों से बनी सफेद दाढी मे उन पर चिल्लाती हूँ उठो! फिर मैं घर जाने वाली ट्रेन लूंगी आँख-भर ऊंचाई की भूरी इमारतें देखती रहूंगी मुझे लगेगा जैसे लगता है यों ही कभी-कभी अनुभव वाद आता नहीं मेरे कुछ काम न मनो-विश्लेषण और न योगाभ्यास इससे अनजान बने रहना मुश्किल है कि कैसे रहा जाए इस दुनिया में और वह इससे अनजान बने रहने से कितना अलग है कि तुम कौन हो अगर नहीं हो उसके बहुत करीब।
मार्क्स और फ्रायड रामधारी सिंह दिनकर (छायावादोत्तर कविता के प्रमुख व्यक्तित्व। जन्म—23 सितम्बर 1908, निधन—24 अप्रैल 1974। राष्ट्र कवि के संबोधन से सम्मानित। प्रमुख कृतियाँ : उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कुरुक्षेत्र, हुंकार, आदि। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त।)
प्रेम के नैराश्य की कविता लिखो तो मार्क्स कहते हैं कि यह सब बुर्जुआपन है. युवतियों को देख कर देखो मुकुर तो फ्रायड इसको 'ओडिपस कंप्लेक्स कहते हैं।
कार्ल मार्क्स- एडमंड क्लेरीह्यू बेंटले (ब्रिटेन के एक लोकप्रिय उपन्यासकार और व्यंग्यकार। जन्म—10 जुलाई 1875, निधन—30 मार्च 1956। वे अपनी छोटी व्यंग्य कविताओं के लिए चर्चित थे जिन्हें हिंदी में आग्नेय, भारत भूषन अग्रवाल और प्रभाकर माचवे के लिखे 'तुक्तक’ जैसा कहा जा सकता है।)
कार्ल मार्क्स जब कर रहे थे पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रहार तो इस कदर खोये हुए थे अपने धोखेबाजों के बीच कि गरीब बेचारे खोज नहीं पाए उनका कोई सुराग।
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