पांच कविताएं - अनुराधा सिंह

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    जुलाई 2018
श्रेणी पांच कविताएं - अनुराधा सिंह
संस्करण जुलाई 2018
लेखक का नाम अनुराधा सिंह





कविता

 

 

पाताल से प्रार्थना

 

सिरसा पटियाला और करनाल में

बच्चियां कुओं में गिर पड़ी हैं

हालाँकि उन्हें जन्म लेने में कुछ घंटे दिन या महीने

शेष थे अभी

 

सबसे बड़ी की उम्र

दो घंटे बारह मिनट है

दादी जन्म के दो घंटे बाद पहुँच पायी थी अस्पताल

इस बीच पी चुकी थी वह दूध एक बार

गीली कर चुकी थी कथरी दो बार

लग चुकी थी माँ की छाती से कई-कई बार

अब कुएँ भर में सिर्फ वही पहने है

एकपाड़ घिसी चादर

चूँकि जन्म ले चुकी थी मरते वक्त

अब उसे ही है आवरण का अधिकार

 

सिरसा पटियाला और करनाल में

बच्चियाँ कुओं से बाहर आकर

जन्म लेना चाह रही हैं

शेष इच्छाएं गौण हैं

सबसे पहले उन्हें बाकायदा पैदा किया जाये, ससम्मान

 

उनकी नालें जुड़ी हैं अब भी नाभि से

वे उन्हें रस्सी बना कुएं से बाहर आना चाह रही हैं

वे उन्हें आम की शाख पर डाल झूला पींगना चाह रही हैं

वे उन रस्सियों पर गिनती से कूदना चाह रही हैं

 

सिरसा पटियाला और करनाल में

कुछ बच्चियों के फेफड़े नहीं बने अभी

हवा और रोशनी की प्रार्थना गा रही हैं समवेत

जबकि उन्हें पता है

आसमानों का ईश्वर पाताल के बाशिंदों की नहीं सुनता

कुछ के पाँव नहीं बने अभी, कुछ की उंगलियाँ

कुओं के बाहर आ पंक्तिबद्ध

अस्पतालों में जाना चाहती हैं

आँखें अक्सर बंद हैं सबकी

फिर भी देखना चाहती हैं सोनोग्राफी मशीनें

ऑपरेशन थिएटर, फोरसेप्स और नश्तर

छूना चाहती हैं ग्लिसरीन के इंजेक्शन,

सीसा, गला घोंटने वाली उंगलियाँ

करना चाहती हैं रा ताज्जुब

कितना लाव-लश्कर खड़ा किया है रे!

एक बस हमारी आमद रोकने के लिए

इस दुनिया में

 

(साल 2006 में कन्या भ्रूण हत्या जोर-शोर से हिंदुस्तान भर में जारी थी, पंजाब के पटियाला करनाल तथा हरियाणा के सिरसा में कुछ निजी अस्पताल दर्ज हुए जिनके पिछवाड़े सोद्देश्य खोदे गए कुओं में से सैकड़ों की तादाद में अजन्मे कन्या भ्रूण और नवजात बच्चियाँ बरामद हुईं।)

 

विदा अपवित्र औपचारिकता है

 

खूंटा स्थायित्व नहीं बंधने की जगह है

खूँटे को ठौर मान लेने में कितना समय लगता है

कितना समय लगता है यह समझने में

कि पानी में पत्थर की परछाई नहीं

पत्थर था

मैंने तुम्हारे बंद दरवाजे पर

एक अधूरी प्रेम कविता लिख छोड़ी थी उस दिन

 

तो अब हाथ खींच रही हूँ

उसे पूरा करने की जवाबदेही से

 

जेठ में बाघ प्यासे मर रह हैं गीर वन में

सुदूर पश्चिम में एक चंपा सूख रही है

तुम्हारी गाथा को मेरे होने का पूर्णविराम नहीं चाहिए था

 

विदा कहना अपवित्र औपचारिकता है

कहाँ-कहाँ जाकर तर्पण किया मैंने तुम्हारे साथ

कहाँ-कहाँ जाकर छोड़ा स्मृति में थामा हुआ हाथ

कहाँ-कहाँ बैठ माथे से पोंछे तुम्हारे होंठ

किस-किस मोड़ से मुड़ आई हूँ बिना पलटे

 

इतने सारे काम और एक शब्द 'विदा

यह भी छोड़े जा रही हूँ नियंत्रण रेखा पर अनकहा।

 

नट रस्सी पर नहीं भरोसे पर चलता है

 

तुम जानते थे न भाषा बहुत है मेरे पास

उससे खेलना नहीं जानती मैं

तुमसे बरतते समय खो देना चाहती थी पूरा शब्दकोष

कि भाषा के एकाधिक अर्थ प्रेम की हत्या कर देते हैं

फिर भी शब्दों को ढाल बनाया तुमने

मौन को हथियार

तुम जानते थे न टूटी हुई चीज़े बस बाँधी जा सकती हैं या चिपकाई

फिर भी तुम तोड़ते गए

फिर भी मैं बाँधती गयी

सो नाते में गाँठ डाल देने का अभियोग है मुझ पर

तुम जानते थे न बाँधना और चिपकाना

संशय का सूत्र है

क्या किसी नट को गाँठ लगी रस्सी पर चलते देखा है?

नट रस्सी पर नहीं भरोसे पर चलता है

मुझे तो तुम्हारी सड़कों पर चलने का अभ्यास तक नहीं

फिर भी चली न दोधारी पर

किसी दिन गिनना तुमने कितनी बार तोड़ा

मैं खोलूँगी जितनी बार बाँधा था मैंने

इस आखिरी खोलने से पहले

 

सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

 

लिखित लिख रहे थे

प्रयोग बनते जा रहे थे

अंकों और श्रेणियों में ढल रहे थे

रोजगार बस मिलने ही वाले थे

कि हम प्रेम हार गए

अब सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

 

पिताओं की मूछें नुकीली

पितामहों की ड्योढिय़ाँ ऊँची

हम काँटेदार बाड़ों में बंद हिरनियाँ

कंठ से आर पार बाण निकलने

की जुगत नहीं जानती थीं

बस चाहतीं थी कि वह आदमी

इस दुनिया को बारूद का गोला बना दे

हम युद्ध में राहत तलाशतीं

अपनी नाकामी को

तुम्हारी तबाही में तब्दील होते देखना चाहती थीं

 

हाथों में नियुक्ति पत्र लिए

कृत्रिम उन्माद से चीखती

घुसती थी पिताओं के कमरे में

उसी दुनिया को लड्डू बाँटे जा रहे थे

जिसने बामन बनिया ठाकुर बता कर

हमसे प्रेमी छीन लिए थे

सपनों में भी मर्यादानत ग्रीवाओं में चमकता

मल्टीनेशनल कंपनी का बिल्ला नहीं

बस एक हाथ से छूटता दूसरा हाथ था

ये विभाग स्केल ग्रेड क्लास

तुम्हारे लिए अहम् बातें होंगी

हमने तो सरकारी नौकरी का झुनझुना बजाकर

दिल के टूटने का शोर दबाया था

 

हमसी कायर किशोरियों के लिए

जातिविहीन वर्गविहीन जनविहीन दुनिया

प्रेम के बच रहने की इकलौती संभावना थी

क्षमा कीजिए, पर मई 1992 में सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

 

सपने हथियार नहीं देते

 

सपने में देखा

उन्होंने मेरे हाथ से कलम छीन ली

आँख खुलने पर खबर मिली

कि दुनिया में काग बनाने लायक जंगल भी नहीं बचे अब

सपने में सिरहाने से तकिया उठा ले गया था कोई

सुबह पता चला कि आजीवन

किसी और के बिस्तर पर सोई रही में

वे सब चीज़ेजो मेरी नहीं थीं

बहुत ज़रा देर के लिए दी गयीं मुझे सपनों में

बहुत ज़रा ज़रा

मछलियां पानी से बाहर आते ही जान नहीं छोड़़ देतीं

औरतों के सपने उन्हें ज़रा देर के लिए मनुष्य बना देते हैं

यही गज़ब करते हैं

सपने के भीतर दुनिया को मेरे माथे पर काँटों का ताज

और पीठ में अधखुबा खंजर नहीं दिखाई देता

डरती हूँ मैं उन लोगों से जो यातना को

रंग और तबके के दड़बों में छाँट देना चाहते हैं

लेकिन पहले डरती हूँ अपने सपनों से

जो अपने साथ कोई हल या हथियार नहीं लाते

उसी आदमी को मेरी थरथराती टूटती पीठ सहलाने भेजते हैं

जिसे अपने चार शब्द सौंप देने का भरोसा नहीं मुझे

और सबकी नींद खुलने पर भी शायद याद रहे

तुम्हारे जाने की वजह तुम्हारा आना थी

 

मैंने हाथ तब हटाया

जब छू गयी तुम्हारी उँगली औचक

मैंने आँख तब झुकायी

जब मुझे किसी दृश्य की दरकार न थी

 

प्रेम करने की कोई प्रचलित वजह नहीं थी मेरे पास

सिवाय इसके कि तुम थे

और चाह रहे थे मेरा होना अपने प्रेम में।

 

 

 

अनुराधा सिंह मुम्बई में रहती हैं। इसी 2018 में उनका पहला कविता संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से आया है। बेनडिक्ट एंडरसन, माया एंजिला और लैंग्सटन ह्यूज के अनुवाद किये हैं। मो. 9930096966

 

 

 

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