दुश्मन

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी उर्दू रजिस्टर
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम अब्दुस्समद, लिप्यंतरण :- ओम प्रभाकर





 


इसे इत्तिफाक ही कहिए कि वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले जिस चीज़ पर मेरी निगाह पड़ी, वो उसकी मनहूस सूरत थी।
गुस्से और नफरत से मेरे तन-बदन की सारी नसें तन गईं। खून का दौरा बढ़ गया। कानों और आँखों से आग की लपटें निकलने लगीं। मुट्ठियाँ अपने आप भिंच गईं, कदम एक दम से बेतरतीब हो गए। अगर मैं उस वक्त खुद-ब-खुद सम्हल न गया होता तो शायद गिर ही पड़ता। यद्यपि ये अवसर मेरे बिखरने का नहीं बल्कि अपने आप पर काबू रखने का और फौरन कुछ कर गुज़रने का था। लेकिन मैं जब तक खुद पर काबू पाता, वो सुनहरी मौका मेरे हाथ से निकल चुका था।
वहाँ बस, कारें ही कारें थीं, बेशुमार कारें, हर साइज़ और हर मॉडल की। उनके आसपास एक-दो, नहीं दर्जनों बल्कि सैकड़ों आदमी भी छुप जाएँ तो उन्हें ढूंढ निकालना असम्भव नहीं तो बेहद कठिन तो था ही। लेकिन मुझे अपने अन्दर यकायक एक असाधारण उत्साह और क्षमता उभरती महसूस हुई। उसके बल पर मैंने फौरन उसे ढू्ढ निकालने की कोशिश शुरू कर दी और तब तक करता रहा जब तक निराशा मेरी हथेलियों और सीने के अन्दर तक न पहुंची कि मैं थक-हार कर चूर-चूर हो गया।
अन्तत: वो मुझे फिर एक बार पराजित कर गया।
ऐसा कई बार हो चुका था और हर बार वो मेरी पकड़ में आते-आते रह जाता कि पूरी होशयारी से मुझे झक्कू दे कर निकल जाता।
यूँ भी मैं एक कामकाजी व्यस्त आदमी हूँ। अपने काम-धन्धों के अलावा किसी अन्य व्यस्तता के लिए मेरे पास वक्त नहीं है। लेकिन उसे सबक सिखाना भी ज़रूरी है। इसलिए मैं हमेशा उसका पीछा करता हूँ। लेकिन वो भी छलावा है कि हर बार मुझे जुल देकर निकल ही जाता है। कभी-कभी तो वो मेरे निशाने पर यूं था कि बस, उसे दबोच ही लेता, लेकिन तौबा, वो तो हवा के झौंके की तरह निकल गया। पता नहीं उसे खबर कैसे हो जाती है कि मैं उसका पीछा कर रहा हूँ या फिर वो बेहद चौकन्ना है और चारों तरफ की खबर रखता है।
अब ये भी तो एक बेहतरीन मौका ही था कि मोटरों के इस घने जंगल में उसे इतनी आसानी से मार गिराता कि किसी को कानों-कान खबर न होती। मैं हमेशा अपनी जेब में एक छोटा सा रिवाल्वर रखता हूँ जिसमें साइलेंसर लगा है। यानी बिला किसी खास तय्यारी के सारी तय्यारी भी थी। लेकिन किस्मत का क्या किया जाए? उसकी क़िस्मत मुस्कराती है और मेरी...?
पोर्टिको में थोड़ी देर रूक कर मैंने अपनी साँसों पर काबू किया, बालों पर कंघी की, कपड़ों को खींचा-ताना, चेहरे पर इधर-उधर उभरी पसीने की बूंदों को पोंछा और उसके अप्रिय खयाल को झटक कर फैंकने की कोशिश की, कि जिसकी बदौलत मेरे शांत जीवन में एक उबाल सा आ गया है। मुझे इसका पूरा अहसास है कि उस पर नज़र पड़ते ही या उसका खयाल आते ही शायद मेरी शक्ल भी बदल जाती है और मैं एक बुद्धु या पोंगा दिखाई देने लगता हूँ। लोग मेरे मुँह पर नहीं मगर दिल ही दिल में ज़रूर हँसते होंगे। मगर मैं क्या करूँ? मैं जान-बूझ कर तो किसी को खुद पर हँसने का मौका देता नहीं। हाँ, उसे देखकर या उसके बारे में सोच कर ही मेरा मूड खराब हो जाता है और मेरे हाथ, पाँव, मुँह कुछ इस तरह के हो जाते हैं कि अनजाने-अनचाहे ही मैं लोगों का लॉफिंग स्टाक बन जाता हूँ।
मुझे उससे बेपनाह नफरत है।
ये नफरत शुरू कैसे हुई? मुझे ठीक-ठीक याद भी नहीं कि वो बात भी नफरत ही के बेहद घने और काले जंगल में छुप गई है और मैं क्षोभ और गुस्से की चौतरफा दीवारों में घिर गया हूँ। वैसे ईमान की बात ये है कि कभी कभी ये इच्छा भी मेरे दिल के किसी कोने से झाँकती है कि मैं इन दीवारों से एक बार निकल ही आऊँ और खुली और साफ हवा में कुछ देर साँस लेकर देखूं। लेकिन अब ये बात शायद खुद मेरे बस में नहीं रही। इन दीवारों ने मेरे अन्दर इस म•ाबूती से जड़ें जमा ली हैं कि अब अपना होना भी मुझे अपनी आँखों से दिखाई नहीं देता। ये दीवारें तो शायद अब उसी वक्त गिरेंगी, जब मैं कभी उसे मार गिराऊँगा। उसके रहते हुए न ये दीवारें गिर सकती हैं और न मैं खुली हवा में आजा़द सांसे ले सकता हूँ।
उससे मेरी नफरत का मामला भी विचित्र है। मेरी जिन्दगी के सीधे-साफ रास्ते में उसकी नफरत ने कुछ ऐसी तोड़-फोड़ की है कि पूरा रास्ता ही ऊबड़-खाबड़ हो कर रह गया है कि जिस पर चलना अब मेरे लिए बहुत कठिन हो गया है। इस नफरत ने मुझसे मेरी ज़िन्दगी का अमन-चैन और खुशियाँ छीन ली हैं। मेरी ज़िन्दगी के शर्बत में इसने ज़हर घोल दिया हैं। मैं जब कुछ खाता हूँ तो जैसे नफरत ही खा रहा होता हूँ।  कुछ पीता हूँ तब भी वही नफरत होती है। कैसी अजीब बात है कि जब मैं बड़ी रुचि से अपने हाथों अपने लिए एक निवाला बनाता हूँ, व्यंजनों से उठती खुशबुओं के साथ उसे अपने मुँह में रखता हूँ कि यकायक उसका खयाल आ जाता है तो वो ही निवाला कंकरों और काँटों का हो जाता है। ठण्डा, साफ और मीठा पानी उसकी मनहूस सूरत की हल्की सी झलक याद आते ही नीम से भी ज्यादा कड़वा हो जाता है।
मैं खूब जानता हूँ मेरा व्यक्तित्व बहुत कुछ बदल चुका है। मैं सर से पाँव तक विषैला हो चुका हूँ और मैं खुद को इस दुरावस्था से निकालने की कोशिश भी करता हूँ लेकिन कामयाब नहीं हो पाता। अब तो बस एक ही तरीका रह गया है मुक्ति पाने का कि वो किसी तरह खत्म हो जाए और वो भी मेेरे ही हाथों।
किसी हद तक अपने आप पर काबू पाकर मैंने चौकन्ना नज़रों से चारों तरफ देखा। दूर-दूर तक उसके होने के कोई लक्षण नज़र नहीं आ रहे थे; लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे यकीन था कि उसे यहीं कहीं होना चाहिए। इन्सानों, मोटरगाडिय़ों और इमारतों के इस जंगल से भला वो कैसे निकल भाग सकता है? भले ही कुछ देर के लिए वो छुप जाए, भले ही कुछ पलों के लिए वो मेरी और सबकी निगाहों से ओझल हो जाए,  लेकिन जाएगा कहाँ? मुमकिन है उसकी बदिकस्मती और मेरी खुशकिस्मती उसे आज यहाँ ले ही आई हो? मुमकिन है उसकी ज़िन्दगी का आख़िरी दिन आज आ ही गया हो, हो सकता है झंझट से मुक्ति पाने का आज मेरा भी आखिरी दिन हो। यूँ भी मैं बाहर निकलता हूँ तो इसी तय्यारी के साथ कि आज वो जहां भी नज़र आया, मैं उसे खत्म कर दूँगा। मैंने पूरी सावधानी और उत्साह और साहस के साथ एक बार फिर उसकी तलाश शुरू कर दी। सबसे पहले मैंने बाहरी हिस्सों को एक बार फिर छान मारा। वहाँ बेशुमार गाडिय़ाँ खड़ी थीं। मैंने हर दो गाडिय़ां के बीच की खाली जगहों को बड़े ध्यान से देखा। मेरी निगाहें सदर दरवाज़े पर भी टिकी रहीं और हर आने जाने वाले का मुआइना करती रहीं। बस, सिर्फ और सिर्फ उसे ही ढूँढती रहीं।
इस उठक-बैठक और दौड़-भाग से मैं काफी थक गया था मगर उस दुष्ट का दूर-दूर तक पता नहीं था। खुदा जाने उसे आसमान खा गया या ज़मीन निगल गई।
यहाँ तो वो था नहीं, हाँ, अन्दर कहीं छुपा हो सकता है। तो अन्दर भी मैं उसे कहाँ छोडऩे वाला था। मैं तो उसे पाताल से भी खींच कर उठा लाऊंगा। मैं एक नए संकल्प के साथ अन्दर घुसा। लॉबी में ज़्यादा भीड़ नहीं थी। एक ही बार में मेरी चौकन्ना निगाहों ने सब को खंगाल डाला। वो यहाँ नहीं था। यकीनन डाइनिंग हॉल में होगा। मैं बड़ी सावधानी से डायनिंग हॉल में दाखिल हुआ। हॉल बहुत बड़ा था और इस वक्त वहाँ औसत से ज़्यादा भीड़ थी; लेकिन मुश्किल ये थी कि वहाँ एक अजीब किस्म का अँधेरा था गो कुछ कुछ उजाला भी था। मैं झुंझला पड़ा। लेकिन मेरी झुँझलाहट ठीक थी। लोग रोशनी से भाग कर ही तो धुँधलके में आते हैं, अंधेरे में रोशनी का दृश्य देखने। मैं भी तो यहाँ इसी इरादे से आया था, ये और बात है कि यहाँ आकर मेरा मकसद बदल गया। यहाँ उसे ढूंढ निकालना वाकई मुश्किल था। खुशिकस्मती से मेरी मेज़ दूसरे किनारे पर थी। आँखें फाड़-फाड़ कर, धीरे-धीरे चलता हुआ मैं अपनी मेज़ की तरफ बढ़ा। नफरत की निगूढ़ ताकत से अँधेरे में भी देखने की ताकत मुझमें आ गई थी और मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता था कि मैंने वहाँ छाए अंधेरे में भी वहां मौजूद एक-एक चेहरे को देख लिया था।
लेकिन... ये.... क्या?
मेरे पाँव अचानक लडख़ड़ा गए। रुकावट इतनी गहरी और अचानक थी कि मैं गिरते-गिरते बचा। मेरा दायाँ हाथ जेब के अन्दर रखे रिवाल्वर पर तत्काल म•ाबूती से जम गया। बस, तुरत, फुरत ही मेरा पूरा जिस्म आने वाले खतरे का मुकाबला करने के लिए पूर्णत: तय्यार हो गया।
वो मेरी ही मेज़ पर बड़े इत्मीनान से बैठा था। मुझ पर निगाहें पड़ते ही मेरे स्वागत के लिए उठ खड़ा हुआ।
- आइए, आइए भाई साहब, मैं आप ही का इन्तज़ार कर रहा था।
- तुम... तुम यहाँ?
बौखलहाट, नफरत, तेज़ गुस्सा और फिर से भौंचक्का कर देने वाला दृश्य और इस सब के ऊपर उसकी ये धृष्टता... मेरी तो बोलती ही बंद हो गई, उसकी दुस्साहसी और ढीठ नज़रों ने मेरी ज़बान पर ताला ही लगा दिया। मैं स्तम्भित था कि वो यहाँ मेरी मेज़ पर पहुँचा कैसे?... आसमान से टपका या धरती फोड़ कर आया या फिर मेरी पीठ और सीने को चीरता हुआ धप्प से यहाँ आकर बैठ गया... और वो भी मेरी ही मेज़ पर...।
हाँ, मैं - और यहाँ क्यों नहीं? हम एक-दूसरे से अजनबी हैं क्या? उसने कहा। वो मुस्करा रहा था। और उस वक्त मेरे अन्दर गुस्से और नफरत का ऐसा बवण्डर उठा हुआ था कि जिसके चलते मेरी बची-खुची हिम्मत भी पस्त हो गई और मैं सिर्फ उसे घूरता ही रह गया।
- मैंने सोच रखा था, भाई साहब कि कभी आपको यकायक सरप्राइज़ दूँगा और संयोग से वो खुश वक्त आज आ ही गया और वो भी आप ही की मेज़ पर। हैरत की बात है न, भाई साहब..? कहिए कैसी रही?
वो मुझ पर हमले पर हमले किए जा रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसके ताबड़तोड़ हमलों का जवाब कैसे दूँ?
मेरे जिस्मों-ज़ाँ और दिमाग की सारी ताकतें मेरी आँखों में सिमट आई थीं और मेरी आँखें यकीनन आग उगल रही होंगी। लेकिन इस धुंधलके में उस आग को देखे कौन? वो तो निश्चित है कि नहीं देखेगा। धृष्टता ने उसकी आँखों पर परदा जो डाल रखा है।
मेरी खामोशी का - जो इस वक्त बिल्कुल अनायास थी, पता नहीं, उसने क्या मतलब निकाला और फिर बड़े विश्वास से बोला - एक बात कहने का दुस्साहस करता हूँ भाई साब। यों तो ये मेज़ आपकी है और उस पर आप ही का हक है, लेकिन आज का मेजबान मैं रहूंगा। देखिए, प्लीज इससे इन्कार मत कीजिएगा। मैं आपको कसम देता हूँ।
आधे अँधेरे में उसकी निगाहों की आवाज़ तो मुझ तक नहीं पहुँच सकी, लेकिन अपनी चेतना को किसी तरह एकत्र करके मैंने सोचा कि ये शख्स वाकई बड़ा पक्का बेहया है। इसे किसी बात का ज़रा सा भी लिहाज़ नहीं। किस बेिफक्री और इत्मीनान से वो मुझसे खाम्ख्वाह अपनाइनत बरतने की कोशिश कर रहा है।
मैं अभी कुछ भी तय नहीं कर पाया था कि उसने इशारे से बैरा को बुलाया और खाने-पीने की कई चीज़ों का ऑर्डर दे दिया। खाना जब तक आए-आए, वो दुनिया भर की बातें करता रहा। कुछ बातें मेरे पल्ले पड़ रही थीं, कुछ नहीं, क्योंकि मेरे दिमाग में तो एक बात थी कि ये वही व्यक्ति है, जिससे मैं बेइन्तिहा नफरत करता हूँ। मैंने इसे हर हाल में जड़-बुनियाद से खत्म करने का संकल्प लिया हुआ है। सिर्फ इसे मारने के लिए ही मैं अपनी जेब में हर वक्त लोडेड रिवाल्वर रखता हूँ। मैंने तय कर रखा है कि जहाँ कहीं इसे देखूँगा खत्म कर दूँगा। लेकिन आज वही व्यक्ति मेरे सामने इस कदर नज़दीक, मेरी ही मेज़ पर बड़े इत्मीनान से बैठा है। मेरी रिवाल्वर में साइलेंसर लगा है और वातावरण में ऐसा आधा-पूरा अँधेरा है कि ऐसे छोटे-मोटे काम उसकी आड़ में बड़ी आसानी से किए जा सकते हैं। मेज पर सजे हुए खानों की दिलकश खुशबू मेरे नथुनों में पहुंची तो मुझे अहसास हुआ कि मुझे बहुत देर से भूख भी लगी हुई है। लेकिन उस हरामज़ादे के ऑर्डर किए हुए खानों को मैं कैसे खा सकता हूँ? लेकिन वो भी एक ही काइयाँ था। बैरे के सामने ही वो आग्रहपूर्वक बोला - शुरू कीजिए न भाई साहब, आज मेरी जाने कब की माँगी हुई मुराद पूरी हो रही है। मैं हमेशा आपका शुक्रगुज़ार रहूँगा। लीजिए प्लीज़ शुरू कीजिए। खाना ठण्डा हो रहा है। मुझे लगा मेरे सारे हथियार मेरे हाथों से गायब हो चुके हैं और फिर न जाने कैसे मैंने खाना खाना शुरु कर दिया... सिर झुकाए।







अब्दुस्समद को उर्दू का उस्ताद कहानीकार माना जाता है। हाजीपुर बिहार के रहने वाले हैं। 15 साल की उम्र में पहली कहानी लिखी। साहित्य अकादमी और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया है।

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