खोजने दो मुझे अपना ख़ुद का वसंत : नीलेश रघुवंशी की कविता
श्रेणी | खोजने दो मुझे अपना ख़ुद का वसंत : नीलेश रघुवंशी की कविता |
संस्करण | जुलाई 2018 |
लेखक का नाम | सुजाता |
विवेचना
नीलेश रघुवंशी
सबसे उदास कविता की बात हो तो नेरुदा का याद आना स्वाभाविक है। मुझे नीलेश भी याद आती हैं। अपनी कविता 'उदास गीत’ में वे लिखती हैं:
हे महाकवि हे औघड़ कवि हे सौंदर्य के संघर्ष प्रेमी कवि जब भी तोड़ती हूँ ख़ुद को दिखते हो तुम सूनी राह में बाँहें फैलाए अँधेरे में राह न दिखाओ पितातुल्य महाकवि लिखने दो मुझे उदास गीत वसंत का खोजने दो मुझे अपना ख़ुद का वसंत।
विद्वत जनों और सुधी पाठकों के लिए कविता की व्याख्या क्या करना !
हिन्दी कविता की किलेबंदी अपनी आँख से देखी गई दुनिया की कविता ख़ुद रचनी होती है। स्त्री-लेखन और पुरुष-लेखन को देखने के अलग-अलग पैमाने और स्वीकृति की अलग-अलग शर्तें हैं। जैसे कि कवयित्री-लेखिका को 'स्पेस’ दिए जाने और उसके मूल्यांकन के मापदण्ड तय करने में इस बात की भूमिका अहम है कि वह कविता लिखते हुए कितनी 'कम स्त्री’ और कितनी अधिक 'हम’ जैसी है। स्त्री को 'अन्या’ (शह्लद्धद्गह्म्)की तरह देखा ही जाता रहा है। सीमोन द बोवा भी कहती हैं कि 'अन्य’ का अस्तित्व हमेशा $खतरे, एक धमकी की तरह देखा जाता है। लेकिन जब पुरुष स्त्री को अपना सहअपराधी बनाता है तो इस धमकी से कुछ हद तक छुटकारा मिल जाता है। 'अपराध’ एक आपत्तिजनक शब्द लग सकता है, इसलिए इसे अपनी वाली मुख्यधारा में मिलाना कहूँ तो निरापद रह सकूंगी। इस तर्ज पर चलते हुए, स्त्री-कविता का मूल्यांकन करते हुए उसे इसलिए बेहतर बताना कि वह 'स्त्रीवादी’या 'स्त्री-विमर्श’ से बच पाई है, हिंदी-आलोचना में अब एक 'क्लीशे’ हो गया है। नीलेश की कविता पर बात करते हुए यह अक्सर किया जाता रहा है।
नीलेश के अद्यतन संग्रह 'खिड़की खुलने से पहले’ के ब्लर्ब पर परमानंद श्रीवास्तव के लेख का एक अंश है जिसमें वे लिखते हैं- ''नीलेश जादुई फंतासी की जगह घर-परिवार, बच्चे का जन्म, प्रसव के दर्द आदि को काव्य का विषय बनाती हैं और उन्हें सादगी का मर्म जानने में ही कविता अक्सर सहायक होती है। राजनीति प्रकट न हो, पर नीलेश समय से इस हद तक बेखबर नहीं हैं कि राजनीति उनके लिए सपाट, झूठ और गलत शब्द हो। इस तरह नीलेश रघुवंशी को पढऩा एक भरोसेमंद साथी को पढऩा है। उनकी इधर की कविताओं में आए ठहराव, कीमियागिरी या उसके उलट सरलतावाद के विरुद्ध नया प्रस्थान है। स्त्रीवाद को विमर्श बनाए बगैर नीलेश रघुवंशी के यहाँ संघर्षरत स्त्री है, जो जटिल समय को 'क्लीशे’ नहीं बनने देती।’’ इसी संग्रह के बारे में फेसबुक पर अपनी टिप्प्णी में विजय कुमार लिखते हैं- ''दो कारणों से मुझे उनकी कविताएँ आकर्षित करती हैं। एक तो यह कि स्त्री के संसार को उन्होंने बहुत बंधी-बंधाई विमर्श लकीरों के भीतर कैद नहीं किया है और उनके यहाँ स्त्री-मनोविज्ञान और सामाजिक-आर्थिक परिवेश, परिवेश की एक ठोस वर्गगत श्रमजीवी दुनिया, दोनो एकसाथ एक समय पर घटित हो रही होती हैं, जैसे कि हमने पचास और साठ के दशक में कुछ चर्चित उर्दू लेखिकाओं के यहाँ देखा था। घर के बाहर एक अकेली लड़की के एलियनेशन को रचते हुए नीलेश ने हिंदी कविता में स्त्री स्वर के रूढ़ एस्थेटिक्स को तोड़ा था, उसमें बहुत कुछ नया जोड़ा था।’’
स्त्री-लेखन और स्त्री-कविता पर ऐसी अनेक टिप्प्णियाँ करते हुए आलोचक और आलोचक-नुमा लोग अक्सर पाए जाते हैं। ऐसे क्लीशे निर्मित करती आलोचना में 'स्त्री के नज़रिए’ की वजह से उसके कथ्य की महत्ता नहीं होती बल्कि उसके कथ्य के मेनस्ट्रीम कथ्य होने, यानी मुख्यधाराई समझ के कथ्य से नज़दीकी की वजह से स्त्री के नज़रिए का महत्व होता है। यहाँ आलोचना एक भयानक काम करती है। स्त्रीवाद और स्त्रीविमर्श को 'क्लीशे’ कहते हुए एक तो यह नहीं बताती पाठक को कि स्त्रीवादी कविता है क्या? स्त्रीवाद या स्त्रीविमर्श ही है क्या? स्त्री विमर्श की बँधी-बँधाई ल$कीरें कौन सी हैं जिनसे कविता बाल-बाल बची है और बचना ही श्रेयस्कर है; जजमेण्ट पास करते हुए आलोचक का दायित्व बनता है कि पाठक को शिक्षित तो करे! नीलेश का पहला कविता संग्रह 'घर निकासी’ 1997 में आया था। तब तक स्त्री कविता ने ऐसे कौन से एस्थेटिक्स गढ़ लिए थे जो आलोचक के अनुसार रूढ़ भी हो गए थे और नीलेश का मूल्यांकन और महत्व इसी आधार पर तय किया जा रहा है कि वे स्त्री-कविता के तथाकथित रूढ़ एस्थेटिक्स को तोड़ती हैं। मुझे अक्सर हैरानी होती है कि आलोचकों ने क्या कभी स्त्रीवाद या स्त्रीवादी आलोचना-दृष्टि या स्त्री-विमर्श को पढ़ा-समझा भी है? वे आखिर कौन सी स्त्री-कविता पढ़ रहे हैं जिसमें उन्हें रूढियाँ (?) दिख रही हैं? जिस हिंदी कविता ने आधुनिक युग में कदम रखने से पहले तक स्त्री-सौंदर्य, प्रकृति-चित्रण और काव्यरूढियों का इतना अधिक एक जैसा प्रयोग किया कि नया कवि नयी कविता तक से जल्दी-जल्दी ऊबने लगा, उपमान मैले होने लगे वही हिंदी कविता अगर पिछले तीस बरस में पहली बार प्रखरता से सामने आई स्त्री-कविता में रूढ़ एस्थेटिक्स और बँधी-बँधाई लकीरें देखने लगी तो संदेह करना चाहिए कि कहीं यह सिर्फ पूर्वग्रह तो नहीं? 2003 में सुमन राजे की किताब 'हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ सामने आई जिसमें दस वर्ष का शोध समय लगा था। इस किताब में सुमन राजे ने नामवर आलोचकों द्वारा नज़र अंदाज़ कर दी गई कवयित्रियों को इतिहास में खोज निकाला है और हिंदी-कविता के इतिहास की दरारों में छिपी उस परम्परा को सामने लाने की कोशिश की है जिसके बारे में आज मैं ख़ुद यह सोचना चाहूंगी कि हम उस परम्परा में ठहरते हैं या कि कहाँ आखिर! जिनका नाम तक भी नहीं लिया गया कभी इतिहास में उन्हें खोज कर सामने रखते हुए वे पुस्तक को उन तटस्थ, उदासीन, विमुख और पूर्वाग्रही आलोचकों को भी समर्पित करती हैं जिनके पास साहित्यालोचन की एक सुदीर्घ परम्परा है लेकिन स्त्री-कविता को देखने-समझने की नीयत नहीं है। अपनी अगली और आखिरी किताब 'इतिहास में स्त्री’ में वे और भी महत्वपूर्ण काम कर गई हैं कि इन पूर्वग्रहों और अनदेखियों के पीछे की वजहों को भी बखूबी पकड़ा और सिद्धांतबद्ध किया। थेरी-गाथाओं को बाहर किया गया। संस्कृत-प्राकृत में रचने वाली कवियों को, रानी-कवियों को, नवजागरण-काल में लिखने वाली कवियों को इतिहास ने अनदेखा किया। लोक को, श्रुत और स्मृत को साहित्येतिहास ने कोई महत्व नहीं दिया जबकि स्त्री-कविता का बहुलांश उन लोक-गीतों में है जिन्हें स्त्रियों ने रचा और गाया। अगली पीढ़ी की औरतों तक जिसे वे सौंपती चलीं। हिंदी कविता इतनी िकलाबद्ध रही आई है कि स्त्री-कविता में सबसे पहले स्त्री होने को खारिज़ करके ही उसपर आगे बात करना या न करना तय करती है। इस दुर्ग के द्वार पर नब्बे के दशक में आई कवयित्रियों ने लगातार दस्तक दी है।
तुम्हारे सपनों में क्यों नहीं है कोई उछाल? जिस समय नीलेश का पहला काव्य-संग्रह 'घर-निकासी’ आया उस व$क्त हिंदी की आधुनिक स्त्री-कविता अपना आकार ले रही थी। अनामिका, सविता सिंह, गगन गिल के बाद नीलेश सबसे सशक्त कवयित्री हैं हिंदी में जिनके यहाँ 'पहचान की छटपटाहट’ अपने चरम रूप में दिखाई देती है। नीलेश के चारों संग्रहों में 'घर-निकासी’ उनका सबसे सशक्त और सबसे ताज़ा और सबसे ज़्यादा मौलिक संग्रह है। मौलिक इस अर्थ में कि हिंदी-कविता की किसी मुख्यधारा का दबाव और अस्सी-नब्बे की कविता-धारा की कोई छाप यहाँ दिखाई नहीं देती। जब मैं कविता की 'मुख्यधारा’ कहती हूँ तो ऑब्वियसली वह स्त्री-कविता तो एकदम नहीं है। इस संग्रह में वे मरीना स्विताएवा तक से पूछ डालती हैं कि क्या तुम्हे भी कविता-वविता लिखने के लिए ताने सुनने पड़ते हैं?
ओ मारीना क्या तुमसे भी कहा गया बार-बार रहो लड़कियों की तरह क्या तुमने भी सिले कपड़े बनाए स्वेटर या सड़कों पर टहलती देखती रहीं आसमान सहे होंगे तुमने ताने किया होगा तुम्हे भी परेशान फिर भी तुम झाँकती रही होगी खिड़की से ।
ओ मारीना तुम्हारी ही तरह मैं भी बनूंगी कवि। (कविता लिखने वाली लड़की )
और जैसा कि मुख्यधारा को अप्रोप्रिएट करने की आदत है तो 'लड़कियों की तरह न रहना चाहने वाली’ कवयित्री के भीतर की पहचान की छटपटाहट को ओप्रिएट कर लिया गया। और तथाकथित बंधी-बँधाई स्त्रीवादी/स्त्री-विमर्श-कविता के पाले से मुक्ति के अर्थ में व्याख्यायित कर खुश होने लगे। स्त्री-कविता का हाल मानो उस नरगिस जैसा हुआ जो हज़ारों साल उपेक्षा झेलती है और चमन में कोई दीदावर पैदा ही नहीं होता। भूल जाते हैं आलोचक कि वह मरीना की तरह - कवि - होना चाहती है। वह स्त्री जो $कस्बे के अभावग्रस्त जीवन से निकलकर शहर में नौकरी के लिए संघर्ष करती है। अकेली पड़ती है, दुखी-सुखी, आशंकित और कभी सफल होती है। जिसके पीछे एक बड़ा सा परिवार है आठ बहनों और एक भाई का। जिसमें एक माँ हमेशा बेटियों के कभी बसने वाले घरों की चिंता में अपने फुर्सत के पलों में भी काम करती हुई। एक पिता है जिसके संघर्षों और त्यागों की वह साक्षी है जिससे उसे बेहद प्यार है। इकलौता भाई है जिसके कंधों पर अनजाने वह आठ बहनों और बुढ़ाते-थकते माता-पिता का एक अदृश्य बोझ वह कई बार देखती है। इन परिस्थितियों में एक लड़की के मानस को कैसी सामाजिक विडम्बनाओं से गुज़रना पड़ता होगा हम समझ सकते हैं। 'बेटिकट सफर करती लड़की’ इस समस्त विडम्बना को उभार देती है। आखिर टिकट के पच्चीस रुपए बचाकर वह पिता के लिए दवाई और बहन के लिए किताबें ले जा सकती है। टिकटचैकर को देखकर उसका मुस्कुराना और भीतर ही भीतर सिहर जाना कि पकड़ी न जाऊं, इसे पूरी समाज- संरचना पर एक टिप्प्णी क्यों न माना जाए? क्या यह किसी नेता को गाली देने वाली कविता से कम पॉलिटिकल है? उसका यह सोचना मन ही मन कि 'चिडिय़ा भी तो बेटिकट ही आसमान में उड़ती हैं..’ और फिर धप्प से यथार्थ में कूदना कि 25 रुपए में पिता के लिए दवाई और बहन की किताब आ जायेगी। यह सारा द्वंद्व जितना मार्मिक और काव्यात्मक है उतना परतदार। बेरोज़गारी और अभावों में संघर्ष करती लड़की जो समाज की व्याख्याओं में ज़रा मर्दानी हो गई है वह सत्रह साल की उस लड़की को देखकर चिंतित है जिसके सपनों में उछाल नहीं है।
पहाड़ों के ऊपर उड़ती चिडिय़ा नहीं आ पाएगी कभी लड़की की आँखों में।
ओ मेरी बहन की तरह सत्रह साल की लड़की दौड़ते हुए क्यों नहीं निकल जाती मैदानों में क्यों नहीं छेड़ती कोई तान तुम्हारे सपनों में क्यों नहीं है कोई उछाल! (सत्रह साल की लड़की )
यूँ किसी की भी कविता में विरोधाभास मिल सकते हैं। नीलेश के यहाँ भी कहीं दिखते हैं जो हमारी सामाजिक सच्चाइयों और कवि-मन के बीच के संघर्ष से ही उपजे हैं। सिंदूर की डिबिया से कहती हैं कि आओ और मेरी बहन की माँग में सज जाओ। आठ बहनों के परिवार में उनकी पढऩे की िफक्र के साथ शादी की भी िफक्र पूरे परिवार की $िफक्र बन जाती है। सिंदूर और सपनों की उछाल दोनो एक साथ चाहना एक और विडम्बना रचता है जिसे समाज ने स्त्री को सौंपा है। सपनों में उछाल सिंदूर की डिबिया तले अक्सर कुचलती आई है। 'मेहंदी’ और 'हण्डा’ दोनो कविताएँ इसी बात की गवाही देती हैं। 'हण्डा’ कविता पर ही उन्हें भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार भी मिला था। आगे के संग्रहों में एक वैचारिक परिपक्वता है लेकिन वह सादगी जिसे निखरना था वह अपने मकाम तक अभी नहीं पहुँची है।
वह हण्डा
एक युवती लाई थी अपने साथ दहेज में देखती रही होगी रास्ते भर उसमें घर का दरवाज़ा। बचपन उसमें अटाटूट भरा था भरे थे तारों से डूबे हुए दिन।
फिर युवती नहीं रही। तारे भी नहीं। लेकिन उसकी पुकार लिए हण्डा जिसमें कभी अनाज भरा जाता था कभी पानी पूरे घर में लुढ़कता फिरता है ।
भागती हूँ भीतर और बाहर के बीच नीलेश की कविताएँ घोर अस्मिता- चेतस कविताएँ हैं। यहाँ एक स्त्री की भीतर -बाहर की छटपटाहट है। उस 'जेण्डर रोल’ से मुक्ति की छटपटाहट है जिसे समाज ने रूढ़ कर दिया है और जिससे विचलन समाज को स्वीकार नहीं। गौर से देखा जाए तो स्त्री-कविता सबसे पहले समाज के दिए इसी जेण्डर-रोल को अस्वीकार करती है जिसे साहित्य ने भी ज्यों का त्यों स्वीकारा और पोषित किया। 'बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन’ और 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग’ जैसी बातें स्त्री के कहने के लिए थोड़े हैं! स्त्री-कविता वहाँ स्त्रीवादी कविता हो जाती है जहाँ-जहाँ वह 'जेण्डर स्टीरियोटाइप’ को तोडऩे की कोशिश करती है। नीलेश की कविता में दायरों, बंधे हुए जीवन, बंधे हुए रोल, रूटीन से निकल भागने की प्रबल इच्छा की कविता है। वजूद की उत्कट ललक, ख़ुद को पहचाननने के लिए कुछ भी और हो जाने की तत्पर सम्वेदनशीलता है यहाँ। एक लड़की जो किताबें खऱीदना चाहती है कि उनकी रहस्यमयी दुनिया के भीतर उतर सके वह कहती है किताबों सस्ती हो जाओ कि बाईस की उम्र तक एक भी किताब पर लिख नहीं सकी अपना नाम !
मैं रखना चाहती हूँ किताब को उतने ही पास जितने नज़दीक रहते हैं मेरे सपने (किताब)
वजूद की छटपटाहट इतनी तीव्र और अत्यधिक है कि वह बार-बार अभिव्यक्त होती है नीलेश के यहाँ।
भागती हूँ भीतर और बाहर के बीच ... मैं भीतर और बाहर के बीच रहना चाहती हूँ, इसलिए न पूरी तरह भीतर हो पाती हूँ न बाहर...(भीतर और बाहर)
न इस पार रह पाती हूँ , न उस पार जा पाती हूँ थक चुकी हूँ अब अपने ही ढब से जीना चाहती हूँ मुझे एकदम नया दिन चाहिए जिस पर चलूँ मैं नंगे पाँव (नया दिन)
देखना चाहती हूँ शाम को आते और पूरी तरह आते आकाश और अवकाश दोनो एक साथ हों मेरे पास (आकाश और अवकाश)
बारिश के साथ कदमताल करना चाहती हूँ लेकिन मैं ऐसा कर नहीं पाती इसमें मेरा क्या दोष है (दोष)
कभी लिखती है मैं डाकिया बन जाना चाहती हूँ या ठण्डी नींद कविता में -लोगों को आते-जाते देखती हूँ और देखते-देखते ऊब जाती हूँ/ एक जैसा दिन, एक जैसी शामें, रातें और दोपहरें ...और
बहुत दिनों से जाना चाहती हूँ यात्रा पर लेकिन जा नहीं पा रही हूँ एक हरे भरे मैदान में तेज़ बहुत तेज़ गोल चक्कर काट रही हूँ यात्रा के चक्र को पूरा करते ख़ुद को अधूरा छोड़ रही हूँ।
घर-गिरस्ती-चारदीवारी में तैनात रहते बँधे-बँधाए तरीकों में नहीं रहना चाहती वह।
मैंने अपनी सारी जड़ें धरती के भीतर से खींच ली और चिडिय़ा की तरह उडऩे लगी मैं इस दुनिया को चिडिय़ा की आँख से देखना चाहती हूँ
प्रेम के विषय में बात करने की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि आम धारणा के हिसाब से स्त्रीवादी प्रेम-विरोधी होती हैं। सब फेमिनिस्ट चूँकि पुरुष-विरोधी हैं, जो कि गलत सोच है, इसलिए प्रेम पर बात करने के लिए अयोग्य हैं। 'भय बिनु होय न प्रीति’ और प्रेम की पहली ट्रेनिंग में माँ सिखाती है कि कोई बात नहीं जो पिता इतना सख्त हैं और प्रतिबंध लगा कर रखते हैं आखिर वे बहुत प्यार करते हैं, जताना नहीं जानते। यही भाई, पति और पुत्र करते हैं और स्त्री को बुरा नहीं लगता। वह असहज नहीं होती। सवाल नहीं करती क्योंकि सवाल कभी माँ ने भी नहीं किए थे। जीव-विज्ञानी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिकों ने सिर्फ व्याख्याएँ कीं। स्त्रीवाद ने पहली बार प्रेम पर सवाल उठाए और वाजिब ही उठाए। स्त्रीवादी लेखिका शुलमिथ फायरस्टोन लिखती हैं कि गैर-बराबरी के बीच प्रेम एक अभिशाप बन जाता है तो गहरी ज़रूरत होती है इस बात को समझने की कि प्रेम पितृसत्ता के हाथ का औजार तो नहीं? मेरी वोल्सटनक्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, सीमोन द बुवा ने अपने अपने तरीके से स्त्री की निर्मिति में प्रेम के प्रशिक्षण पर सवाल उठाए और इसे समझाने की कोशिश की जब तक स्त्री का सामाजिक दर्जा दोयम है तब तक एक में दूसरे के व्यक्तित्व के विलय वाला प्रेम सबसे ज़्यादा खतरनाक है स्त्री के लिए। नीलेश इसे समझती हैं।
तुम गये भी तो आँधी की तरह मैं बची रही लौ की तरह तब भी। (तब भी)
एक कविता में वे लिखती हैं- जाने से पहले हम क्यों नहीं रोए जी भर जैसे रोते हैं अकेले में ...यह प्रेम में सहज मनुष्य हो जाने की इच्छा है। दोनो रोएँ। एक कंधा दे दूसरा आँसू बहाए यह नहीं। अकेले में रोते हैं, यह सच्चाई भी पता है। तो प्रेमी-प्रेमिका सहज हो सकें और रो सके एक दूसरे के सामने। प्रेम के बारे में स्त्री कविता एक स्टेटमेण्ट भी है अपने व$क्त और समाज पर। प्रेम पर उतनी ही कोमल भी।
एक किलकारी की तरह खुलती है नींद खुलेगा हमारा भेद एक दिन मंगल गीत की तरह
बराबरी पर खड़ी स्त्री की कामनाएँ कितनी मोहक हैं। लेकिन प्यार करते करते अपने प्रेमी की दौड़ में शामिल हो जाना और चिढ़ जाना भी है नीलेश के यहाँ। चिढऩा भागने से और उसे सांसारिक प्यार कहकर पहचानना भी है (दौड़ते दौड़ते प्यार ) अपने वजूद को बचाए रखने की अद्भुत ललक भी है।
मुझे प्रेम चाहिए घनघोर बारिश-सा।
लेकिन ठिठुरती सर्दी में अलाव सा, कड़कती धूप में घनी छांव सा, काले बादलों में छिपे चाँद सा, अंधेरे में टिमटिमाती रोशनी सा प्रेम चाहने में क्या खास है? एक क्लीशे ही है। यह क्लीशे टूटता है जब वे आखिर में कहती हैं -
मुझे प्रेम चाहिए सारी दुनिया रहती हो जिसमें...
और प्रेम एक उदात्त भाव में बदल जाता है। मानव-प्रेम में। प्रेम के लिए उत्कट चाह और बराबरी व सहजता की चाह; यही नीलेश को हिंदी की आधुनिक स्त्री-कविता की प्रखर काव्य परम्परा में खड़ा करता है।
फुरसत के कामों से भरे हुए खाली हाथ परमानंद श्रीवास्तव उल्लेख करते हैं कि घर-गिरस्थी, हाट-बाज़ार, सफर और समय की अनंतता के बीच नीलेश कब पर्सनल को पोलिटिकल बना देंगी कहना मुश्किल है। वे अनजान कैसे रह गए कि यह 'पर्सनल इस पॉलिटिकल’ दरअस्ल द्वितीय चरण के प्रखर स्त्रीवादी आंदोलन का एक प्रमुख नारा था। स्त्रियों के निजी अनुभवों से निकले छोटे छोटे मुद्दे दरअसल उन बड़े संरचनात्मक और व्यवस्थापरक मुद्दों तक ले जाते हैं कि जहाँ पराए शहर में किसी स्त्री के भीतर घर-भर की चिंता-फिकिर करती, व्रतोपवास करती अपनी माँ की छवि देखकर नीलेश कहती हैं -
मेरी माँ की तरह ओ स्त्री उम्र के इस पड़ाव पर भी घबराहट है क्यों, आखिर क्यों ?
नौकरी शुदा औरत की दिक्कतों पर बार-बार उनकी नज़र ठहरती है। ऑफिस में उनींदी और उदास होती औरत का दफ्तर के लोग मखौल बना सकते हैं, चिढ़ते हैं, सर पीटते हैं लेकिन 'स्त्री की नींद’ उसके घर और द$फ्तर के बीच कभी न खत्म होने वाले कामों के बीच कैसे कसमसाती है यह नीलेश पकड़ पाती हैं। एक और कविता है-
स्वप्न और दुस्वप्न के चलते बनेगी वह माँ फाइलों को लेकर चढ़ते-उतरते देखते हैं हम सब उसे एक आशंका के साथ ।
माँ बनना कोई फुरसत का काम नहीं है। आसान काम नहीं है। उस स्त्री के लिए और भी कठिन जो नौकरीशुदा है। पहली रुलाई तक की डायरी शीर्षक से नीलेश की 21 कविताएँ हिंदी कविता में पहली बार प्रसव, जन्म और मातृत्व के अनुभवों की प्रामाणिक कविताएँ हैं। केदारनाथ सिंह इनके विषय में ठीक ही लिखते है कि - ''पहली रुलाई तक की डायरी जैविक स्त्री बोध का क्रमिक दस्तावेज़ है, जो शायद हिंदी में पहली बार इतनी प्रामाणिकता के साथ दर्ज हुआ है। इस काव्यात्मक डायरी को जो बात सबसे अधिक विश्वसनीय बनाती है, वह अजन्मे शिशु के साथ माँ की वह चुहल है जो प्राय: इसके हर टुकड़े में मिल जाएगी।’’ यह चुहल म•ोदार है कि 'मैं लिख रही हूँ डायरी और तुम बंदर बने हुए हो’ लेकिन केदार जी की बात में मुझे यह जोडऩा है कि यह सिर्फ जैविक स्त्री बोध के क्रमिक दस्तावेज़ नहीं हैं। सामाजिक-लर्निंग में बनने वाली माँ के भीतर की जैविक स्त्री की टकराहटें भी हैं। यह निजी नहीं, पॉलिटिकल हैं। 'जन्म और यातना’ शीर्षक से इस शृंखला की कविता में वे कहती हैं-
एकदम से शक्ल ही बदलती जा रही है मेरी बहुत शर्म आती है, कहीं भी आने-जाने में मोटी अम्मा बनाकर रख दिया है तुमने तो
या फिर यह चिंता कि 'कौन से कपड़े ठीक हो सकते हैं इन दिनों ऑफिस के लिए?’ या दुनिया की बातें - लड़का हो तो माँ का रूप चुरा लेता है, लड़की हो तो निखार देती है लेकिन मेरे पास रूप है ही नहीं तो क्या तुम चुराओगे, क्या ही निखारोगे! या गर्भावस्था में रज्जो जीजी के चांटे याद आना जो सिलाई-बुनाई न सीखने के लिए कवयित्री ने बचपन में खाए। यह सिर्फ चुहल नहीं है। नहीं हो सकती। और वह कविता ! 'ढेर सारे काम’। बच्चे के जन्म का समय नज़दीक आने पर नवजात के कपड़ों की व्यवस्था, मालिश वाली और आया ढूँढऩा, शिशुपालन की किताबें पढऩा, दूधवाले की जान खाना,नाम ढूढ़ते रहना, घर ठीक-ठाक करते रहना, दिन भर इन्हीं चकल्लसों में उलझे रहना। गर्भवती स्त्री के मनोविज्ञान को समझेंगे तो पता चलेगा इसे 'नेस्टिंग इंस्टिंक्ट’ कहते हैं। वह सारी घबराहट जो एक शिशु जन्म के पहले हो सकती है क्योंकि जीवन अब पूरी तरह बदलने वाला है वह सब यहाँ अभिव्यक्त हुई है। इसका चरम उस कविता में है जहाँ कवयित्री अभिव्यक्त करती है एक ऐसी यात्रा में होने की पीड़ा जिसे ज़ंजीर खींच कर रोक देने का मन करे। नवें महीने तक आते-आते अगर गर्भवती स्त्री यह कह दे कि 'बुरी तरह से तंग कर रखा है तुमने, सच कहूँ तो बोर कर दिया है’ तो मातृत्व को लेकर तमाम ममिमामण्डन की बखिया उधड़ जाएगी। इस कविता और ऐसी कविताओं की बात ही नहीं होगी। जबकि मेरे हिसाब से यह हिंदी की स्त्री-कविता में एक विशिष्ट कविता है। शिशु-जन्म से जुड़ा यह भाव-बोध नया नहीं है, लेकिन इसे कह पाना इस समाज में एक साहस का काम है। एक महिला-मित्र से मैंने एक बार कह दिया था कि 'भ्रूण भी एक तरह का ट्यूमर ही है’ तो उनकी भावनाएँ बुरी तरह आहत हुई थीं। उन्हें यह मातृत्व का अपमान लगा था। लेकिन सच यही है कि मौका मिले तो स्त्रियाँ न अपने जीवन में मासिक-धर्म चाहतीं न नौ माह के पीड़ादायक स$फर का दर्दनाक अंजाम। मेडिकली तो एक सच यह भी है कि बच्चे के जन्म के तुरंत बाद भी कुछ दिनों तक माँ 'बेबी ब्लूज़’ के एक दौर से गुज़रती है जो भावनात्मक रूप से तोडऩे वाला होता है, जिसमें वह अपने जीवन के सब कष्टों का ज़िम्मेदार उस अजनबी को मानती है जो उसी की कोख से जन्मा है उसी का अंश है, जिसके आने से वह इतनी मुहताज हो गई है कि चलकर अपने लिए पानी का ग्लास नहीं ले सकती, नहा-धो नहीं सकती, अपने और बच्चे के लिए पूरी तरह निर्भर है। अभी हिंदी स्त्री-कविता में प्रामाणिकता से ये अनुभव भी दर्ज किए जाने बाक़ी हैं। बल्कि,कोख से जुड़े तमाम अनुभव।
खुटने से डरते हो ? नीलेश का काव्य संसार जंगल, पेड़ और जल की चिंताओं में कभी डूबता है और ख़ुद को पानी का अपराधी पाता है तो कभी यांत्रिकता को कोसता है कभी उस सभ्यता को बच्चे के बड़े होने पर उसके लिए गिटार और बंदूक का फर्क खत्म कर देती है। 'जनरल बोगी’ के दृश्य हैं यहाँ। कामवाली बाई, मालिश वाली, मल्लाह, किसान, मज़दूर और हर कामगर उनकी सम्वेदनाओं के दायरे में है। 'वो जो घर बनाते हैं, उसके स्वप्न भी नहीं आते उन्हें/ जिस कुएँ को खोदते हैं उसका जल भी नहीं तैरता नींद में 'दिन-रात खुटने वाले सर्वहारा हैं जो खुटने में भी ही-ही, खी-खी की जगह तलाश सकते हैं। 'खुट जाएँ’ अपने शिल्प और कहन के अंदाज़ में एक शानदार कविता है। 'पिता’ सम्बन्धी उनकी सभी कविताएँ बेहद सशक्त हैं। 'पिता पर बुढ़ापा अच्छा नहीं लगता..’ जैसे हम सबके मन की बात हो जिन्होंने पिता को आंधियों में एक मज़बूत बरगद की तरह खड़ा देखा है। ढाबे की आठ कविताएँ सीधे दिल से निकलती हुईं। माँ तो लगातार साथ है। भुजरिए उगाती,व्रतोपवास करती, बेटियों के घरों की चिंता में घर के काम निबटाती। चारों संग्रहों में 'घर-निकासी’ बेहतरीन है। हर अधेड़ स्त्री अपनी माँ जैसी और हर लड़की में अपनी बहन को देखती है कवयित्री। अभावों में संघर्ष और स्पेस का संघर्ष दोनो परतों पर कविता साथ चलती है।
ख़तरों से भरी बात 'घर-निकासी’ संग्रह को पढ़ते विस्मित हो जाते हैं हम कि कुछ भी कविता में कहा जा सकता है। आगे के संग्रहों में वे लयात्मक आख्यानों की तरफ अधिक मोह से ग्रस्त दिखाई देती हैं। नीलेश के पास जो मन और भाषा की सादगी, भोलापन, ईमानदारी और मौलिकता है जो उनके पहले संग्रह में अकूत दिखाई देती है वह नीलेश को यह सामथ्र्य देती है कि वे जीवन के किसी भी सामान्य से क्रियाकलाप को कविता का रूप दे दें। अपनी कविता की ताकत को पहचानना कवि के लिए बेहद ज़रूरी है। लिखने वाली स्त्री कुछ भी और होने से पहले स्त्री है। नीलेश भी। यह ज़रूरी भी है। और यह शर्म की बात नहीं है। एक चिंतित माँ इन संग्रहों में लगातार झाँकती रहती है। 'मेरा बेटा कभी न शामिल हो उन्मादी भीड़ में।’ 'स्त्री की नीद’, 'सुंदरियों’ जैसी कविताओं में जो सशक्त स्वर आता है वह फेशियल कराती औरतों और फेशियल करती औरतों के बीच एकसूत्रता का बिंदु भी पा लेगा। पहली रुलाई तक की डायरी वाली शृंखला में एक प्यारी सी कविता है- 'खतरों से भरी रात’।
अगर लड़का हो तो इस ड्राइवर जैसे बिलकुल मत बनना और अगर लड़की हो तो मेरी तरह सूनी सड़क पर अकेली कभी मत चलना
संसार में बहुत बुरे लोग हैं, घिनौने! कुछ भी हो सकता था! रात को सड़क पर अकेले चलते हुए एक बेहूदा ड्राइवर की संदिग्ध हरकत से रूबरू होना कड़वा अनुभव और एक सामाजिक- सच है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। इससे बचना और एक अनजान दादाजी के सहारे घर तक पहुँचना एक अच्छा अनुभव है लेकिन सच नहीं है क्योंकि 'ज़रूरी नहीं, हर बार दादाजी मिल ही जाएँ’ कविता की अंतिम पंक्ति कहती है। हमारी दुनिया और समाज जेण्डर्ड है। $खतरा भी यहीं है क्योंकि तमाम मासूमियत को मुख्यधाराई आलोचक आसानी से अप्रोप्रिएट कर लेते हैं। लेख के आरम्भ में उद्धृत पंक्तियाँ उस 'पेट्रनाइज़’ करने की मानसिकता की ओर भी सही संकेत करती हैं। इसलिए स्त्री-कविता के पाठ/अंतर्पाठ की आलोचना से क्या ही उम्मीद की जाए फिलहाल बस यात्राओं के लिए बे$करार, जकड़बंदियों से आज़ाद होने की बेचैनी से भरी स्त्री को, कवि-माँ को अजन्मे शिशु की कल्पनाओं में भी सावधान रहना होगा कि शिशु 'सफेद फ्रॉक में फुलझड़ी छोड़ती परी नन्हीं सी है या घोड़े पर सवार रॉकेट छोड़ता नन्हा राजकुमार...?’ अपनी अस्मिता के प्रति सचेत नीलेश इधर की कवयित्रियों से भी सजग हैं इसलिए 'जब भी खुद को तोड़ती हूँ’ वाली डी-कंस्ट्रक्शन की प्रक्रिया को आगे और प्रखर होना होगा।
सुजाता लिखित यह दूसरी किश्त है। पिछली बार उन्होंने अनामिका से शुरु किया था। अगली बार वे सुमन केशरी पर लिखेंगी। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं और ''चोखेर बाली’’ उनकी गंभीर विमर्शों वाला लोकप्रिय ब्लॉग है। संपर्क - दिल्ली
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