एक भूली हुई दुनिया की जीवित याद

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    जुलाई 2018
श्रेणी एक भूली हुई दुनिया की जीवित याद
संस्करण जुलाई 2018
लेखक का नाम मनोज कुमार पांडेय





किताबें

 

 

चिडिय़ा बहनों का भाई-आनंद हर्षुल

 

1.

आनंद हर्षुल का उपन्यास चिडिय़ा बहनों का भाई पढऩा पल-प्रतिपल जैसे किसी अचरज से गुजरना है। यह हमें एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जिसे हम सपनों में देखते तो हैं पर उस दुनिया को कभी सचमुच में संभव बना सकें इस बात की किसी धुँधली सी संभावना को भी लगातार नष्ट करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि इस सपनों सरीखी दुनिया में सब कुछ भला और सम्मोहक ही है पर उसमें ऐसा बहुत कुछ है जिसके होने से यह दुनिया ज्यादा खूबसूरत, अर्थवान और समृद्ध होती। यह उपन्यास आधुनिक जीवन का कुछ इस कदर प्रतिपक्ष है कि जैसे दूसरी दुनिया की बात लगता है। ऐसी दुनिया जिसे हम पीछे कहीं छोड़ आए हैं और अब यह भी भूल गए हैं कि हमने अपने पीछे क्या छोड़ा है। हम आगे देखने में कुछ इस कदर पागल हुए कि अपने पुरखों को भूल गए। उनका जीवन और उनका संघर्ष भूल गए। उनकी लड़ाइयाँ भूल गए। उनके किस्से कहानियाँ भूल गए।

दरअसल याद रखने को हमने एक तरह की उपयोगितावादी दुनियादारी में बदल दिया। यह उपन्यास इस तरह की दुनियादारी का निषेध है। यह हमें उस दुनिया में ले जाता है जिसे हम न सिर्फ भूल आए हैं बल्कि सामने होने पर भी पहचानना नहीं चाहते। कई अर्थों में यह उपन्यास हिंदी के बेमिसाल लेखक विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थीकी याद दिलाता है जो इसी तरह से आधुनिक सभ्यता और उसकी विद्रूपताओं का एक न भूलने वाला प्रतिपक्ष रचता है। दीवार में एक खिड़की में आधुनिक सभ्यता की विद्रूपताओं का निषेध था इसके बावजूद यह मौजूद तो थी ही वहाँ पर। चिडिय़ा बहनों का भाई में आधुनिकता की पूरी बहस ही सिरे से गायब है। समकालीनता या कालबोध जैसी चीजों की यहाँ उन अर्थों में बात बेमानी है जिन अर्थों में हम करने के आदी रहे हैं।

चिडिय़ा बहनों का भाई पढ़ते हुए जिस चीज पर सबसे पहले ध्यान जाता है वह है इसका प्राकृतिक परिवेश। पेड़, पहाड़, नदी, रास्ते, चिडिय़ा, मछली और मनुष्य और सबके बीच चलता हुआ एक आत्मीय संवाद। यह संवाद हम भूल चुके हैं। इसी भूलने ने इस दुनिया को नरक में बदल दिया है। यह भूलना जैसे कोई शाप है दुनिया पर। यह उपन्यास इस शाप से मुक्ति का द्वार है। यह इस संवाद को पुनर्जीवित करता है। ध्यान यह भी रहे कि यह काम बिना प्रकृति का मानवीकरण किए संभव होता है। प्रकृति या उसके तमाम रूप जिस रूप में हैं उन्हें उसी रूप में रखते हुए। इसीलिए पहाड़ पहाड़ हैं, नदी नदी है और पेड़ पेड़। इन सबमें एकरूपता की जगह पर विविधता है जबकि मानवीकरण के केंद्र में मनुष्य के होने का अहंकार है। या कि सबको अपनी ही तरह बनाकर देखने की अभिलाषा। इस अभिलाषा का निषेध क्या समकालीन समय की एक बड़ी जरूरत नहीं है? इसीलिए यह बहुत ही खूबसूरत बात है कि उपन्यास जितना मनुष्य का है उतना ही देवता, मछली, नदी, तालाब, पहाड़, पेड़, पगडंडी, चिडिय़ा और चाँद का भी। यह ऐसी दुनिया है जहाँ प्रकृति सिर्फ मनुष्य के लिए नहीं है। न ही मनुष्य प्रकृति के लिए। उनके बीच एक साहचर्य का अटूट रिश्ता है पर वे एक दूसरे से आजाद भी हैं। इस साहचर्य भरी आजादी से ही पनपा है वह रिश्ता जहाँ सब कुछ सहजता से मुमकिन है बिना किसी अवांछित गुरुता के। यह मनुष्य और प्रकृति दोनों को इस अहंकार भरी गुरुता से मुक्त करता है।

यह प्रकृति को भी मनुष्य जितना ही सक्रिय रूप में प्रस्तुत करता है। इसलिए जो कर्ता भाव मनुष्यों पर थोप दिया जाता है वह यहाँ बिल्कुल नहीं है। बल्कि यहाँ पर प्रकृति ज्यादा सक्रिय है। यह सक्रियता उस तरह से दिशाहीन भी नहीं है जैसा कि प्रकृति की सक्रियता के बारे में सोचा जा सकता है। जाहिर है कि प्रकृति की सक्रियता को दिशाहीन रूप में प्रस्तुत करते हुए मनुष्य अपना पाप ही छुपाने का काम करता रहा है। प्रकृति के रंगों को इस रूप में रचने वाला ऐसा उपन्यास हिंदी में इसके पहले दुर्लभ ही रहा है। यह अपने पाठ में प्रकृति के साथ रहने, उसे देखने समझने और बोलने बतियाने की तमीज देनेवाला उपन्यास है। और यह इतनी बड़ी बात है कि अगर मनुष्यता यह तमीज हासिल कर ले तो इस धरती पर हमारी उम्र कई गुना बढ़ सकती है।

उपन्यास के चरित्र प्रकृति से सिर्फ उतना ही लेते हैं जितना उनके जीवन के लिए जरूरी है। चिडिय़ा बहनों के इकलौते भाई भुलवा के घर में तीन लोग हैं तो नदी उसे सिर्फ तीन मछली ही देती है रोज। तालाब रुपई और सोनई पाँच चिडिय़ा बहनों को पाँच पाँच मछलियाँ देते हैं। जामुन के पेड़ से चिडिय़ा बहनें अपने लिए सिर्फ पाँच पाँच जामुन लेती हैं। इस पर भी वह रात होने की वजह से फल तोडऩा ठीक नहीं मानतीं और रात को भूखे ही सो जाती हैं। इसी तरह वे सलफी का रस पीती हैं, सीताफल खाती हैं, आम और अमरूद खाती हैं। यहाँ किसी भी तरह का कोई लालच नहीं है। यहाँ जरूरत से ज्यादा चीजों का संचय नहीं है। झूठ और फरेब नहीं है। पूरे उपन्यास में कोई भी चरित्र एक बार भी झूठ बोलता नहीं दिखाई पड़ता। इसके बावजूद कि दुख यहाँ भी है। इतना कि रोते रोते आँसुओं से तालाब ही बन जाता है।

 

2. 

चिडिय़ा बहनों का भाई! यह भला किसी उपन्यास का नाम हो सकता है! यह नाम पूरे उपन्यास में कई बार अलग अलग अर्थों में खुलता है। बहनें हमारी परंपरा में चिडिय़ा ही रही हैं। हमें छोड़कर उड़ जाने के लिए विवश। इसके बावजूद हम जीवन भर उनकी चिंता के केंद्र में रहते आए हैं। उपन्यास में जब पहली चिडिय़ा बहन जन्म लेती है तो पाती है कि उसके पैदा होने से माँ के सिवा किसी को कोई खुशी नहीं हुई तो वह चिडिय़ा बनकर उड़ जाती है। देखें - ''अभी-अभी पैदा हुई बच्ची अचानक बहुत दुखी हो गई। इतनी ज्यादा दुखी कि देह उसकी इस तरह कसमसाई भीतर ही भीतर कि जैसे भीतर ही भीतर घुल-मिल बह जाना चाह रही हो। चाह रही हो कभी नहीं दिखना पृथ्वी पर।

बच्ची की देह बहुत तेजी से सिकुड़ी और बदली। अचानक बच्ची की कसमसाती देह ने उसके हाथों और पैरों को बदल दिया चिडिय़ा के पंजों में। मुँह की जगह उभर आया चोंच। पंख उगे उसकी पीठ पर। पीठ पर पहले पंखों का सिरा दिखा। फिर उग आए वे पूरे के पूरे। नवजात चमकीले दो पंख। पंख फडफ़ड़ाए। छुआ एक दूसरे को पंखों ने। पंख जैसे एक दूसरे की ताकत छू रहे हों। फिर धीरे धीरे बच्ची की देह पर उग आए रोएँ पीले-भूरे। लड़की अब चिडिय़ा बन गई थी। पीली-भूरी चिडिय़ा। चिडिय़ा नीले पंखों वाली। माँ सो रही थी। वह प्रसव की थकान के बाद की नींद के भीतर थी। हाँफ रही थी माँ नींद में। नींद में माँ के ओठ कराह रहे थे। माँ देख नहीं पाई बेटी को कि चिडिय़ा बन रही है बेटी।’’

और इसके बाद वह उड़ जाती है। इसके बाद चार और बहनें जन्म लेती हैं जो चिडिय़ा बनकर इसी तरह से उड़ जाती हैं। पहले चिडिय़ा बनी बहनें उन्हें लेने आती हैं। यह क्रम तब टूटता है जब पाँच बहनों के बाद उनका भाई आता है। और इसके बाद वे पाँचों घर छोड़कर न लौटने के लिए उड़ जाती हैं। यह लोककथाओं के शिल्प में दिया गया बयान है। बहनों के चिडिय़ा बन कर उड़ जाने की बात अपने भीतर अनेक अर्थ समेटे हुए है। यहाँ से स्त्री जीवन का यथार्थ कई दिशाओं में खुलता है। इसीलिए यह उपन्यास जितना चिडिय़ा बहनों के भाई का है उतना ही चिडिय़ा बहनों का भी। साथ में उन स्त्री चरित्रों का भी जो चिडिय़ा होने से बच गईं और एक स्त्री के रूप में जीवित रहीं। स्त्री जीवन को सहज ही मिलने वाले दुखों के साथ।

यह उपन्यास स्त्रियों के दुखों से भरा हुआ है। पर यहाँ उनका गद्यात्मक दोहराव न होकर वह कुछ इस तरह से प्रकट होता है जैसे स्त्रियों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों या लोककथाओं में प्रकट होता है। इसमें दुख की एक लय है जिस पर उन्हें जीवन भर चलना होता है। रोना और गाना होता है। दुखों के बयान का यह तरीका दुखों की सघनता को नष्ट किए बिना उसे सहने के काबिल बनाता है। यहाँ दुख की बाढ़ नहीं आती कभी पर दुख हर पल टपकता रहता है भीतर कहीं। अफसोस यह कि जो पुरुष उन्हें प्रेम करते हैं, जीवन भर साथ रहते हैं, बच्चे पैदा करते हैं और परिवार बनाते हैं वे कभी इन दुखों का टपकना नहीं देख पाते। क्या यह उनको दिया गया कोई शाप है कि वे अपने साथी के दुखों से रहें महरूम। और इसीलिए वे सचमुच के सुखों को भी न महसूस कर पाएँ कभी। इस शाप से मुक्ति का रास्ता खुद उनके सिवा और कौन तलाशेगा।

जन्म से ही शुरू हुए स्त्री दुखों का कोई अंत नहीं है। चिडिय़ा बहनों की माँ का दुख देखें - ''कमरे में देह रहती थी पति की हर रात। हर रात उसकी भी देह रहती थी। रहती थी एक चुप देह उसकी। उसकी देह के कहने पर कमरे में नहीं होती थी कोई आवाज। कमरे में कुछ घटता नहीं था उसकी देह के कहने पर। घटता था सब कुछ पति के चाहने पर। पति के चाहने पर हो रहा था सब कुछ। एक बार भुलवा की माँ ने अपनी ओर पीठ किए पति की बाँह पकड़कर खींचा अपनी ओर तो पति ने कहा - वेश्या मत बन। उस दिन से भुलवा की माँ देह की इच्छा को देह के भीतर दबाकर रखना सीख गई है। सीख गई है कि पति अपनी स्त्री के साथ सोना चाहे तो यह उसका अधिकार है। प्रेम है पति का। पर अगर पत्नी सोना चाहे तो इतनी बड़ी निर्लज्जता है कि जैसे वह पति के साथ नहीं, कई पुरुषों के साथ सोना चाह रही हो।’’

''इस तरह नहीं बच पाई है अब तक भुलवा की माँ के पास अपनी इच्छाओं के लिए कहीं कोई जगह इस पृथ्वी पर। बिना इच्छाओं की जगह के भुलवा की माँ अब तक काट रही है इस पृथ्वी पर अपना जीवन। उसकी इच्छाओं के लिए नहीं है जगह इस पृथ्वी पर। इसलिए वह मार रही है अपने ही भीतर अपनी इच्छाओं को। इच्छाओं की वह भ्रूण में ही हत्या कर रही है।’’ इसलिए यह क्यों न मान लिया जाय कि उसकी चिडिय़ा बेटियाँ उसकी ऐसी इच्छाएँ है जिन्हें वह भ्रूण में नहीं मार सकी। मोह आया होगा उसे। उसका संचित अभ्यास ध्वस्त हो गया होगा बेटियों की कामना के सामने। यह क्यों नहीं हो सकता कि अपनी पूरी कामना के साथ उसने बेटियों को जन्म दिया हो बार बार कि उसके पति-पुरुष को मिल सके माफी। कभी तो वह बेटियों पर मोहित हो और कटे उसका शाप। पर इस शाप से मुक्ति इतनी आसान नहीं क्योंकि यह भीतर ही छुपकर बैठा है हमारे। फलत: चिडिय़ा बहनों का दुख चिडिय़ा बनकर तैरता रहता है ऊपर ही ऊपर।

उपन्यास में एक अध्याय भुलवा के मिथकीय पुरखे परसन वीर के बारे में है। परसन वीर बहुत ही साहसी है। अपने लोग का किसी भी कीमत पर खयान रखने वाला नायक है। पर घर में ही उसकी पत्नी की स्थिति देखें - ''परसन वीर की पत्नी ऐसी थी जो न मुस्कराती थी और न सोचती थी। वह बस पति की सुख-सुविधा का ध्यान रखती थी। उसे पति की एक-एक आदत पता थी। पता था पति का एक-एक इशारा।’’ इसके बावजूद की परसन वीर की पत्नी कहीं से भी उससे कमतर नहीं है। ''वह जड़ी बूटियों की अद्भूत जानकार थी। वह पहाड़ों के आसपास जड़ी-बूटियों के लिए भटकती रहती थी। सच तो यह था कि वह थी इसीलिए परसन परसन वीर था। वह थी तो गाँव में बहुत सी व्याधियाँ नहीं थीं।’’

यह स्थिति बार बार प्रकट होती है कि भरपूर सामथ्र्य के बाद भी स्त्रियाँ एक कमतर सोपान पर खड़ी मिलती हैं। यही स्थिति भुलवा की प्रेमिका विराजो के मामले में भी है। जब वह अपने मरते पति को छोड़ कर भुलवा की अनुपस्थिति में ही भुलवा की पत्नी के रूप में रह जाना चाहती है और भुलवा की माँ कहती है कि '' 'फर्ज तो है बेटी... मरते पति को इस तरह छोड़कर आना ठीक नहीं...मैं भी यही कहूँगी।कहा भुलवा की माँ ने।’’ इस बात पर विराजो पलटकर जवाब देती है कि ''काहे का फर्ज...जब तक अच्छा रहा, पाँच सौ निशान उसने मेरे शरीर को दिए...अब निशान उसके शरीर पर अपने आप फूट रहे हैं...मेरा ही दिया श्राप है, जितनी बार उसने पीटा मुझे, मैंने उतनी बार उसे श्राप दिया है...पाँच सौ बार दिया है श्राप... पाँच सौ जगह से गल रहा है उसका शरीर।’’ यह पहली बार है जहाँ स्त्री का गुस्सा और घृणा उपस्थित है। इस स्थिति का विस्तार उपन्यास में सिर्फ एक बार मिलता है। जब परसन वीर पहाड़ की चोटी पर पहुँचता है तो रात में उसे राक्षस स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा मिलता है। राक्षस उसे हर रात बच्चा न पैदा करने के लिए ताने देता है। यह ताना मार पीट में बदल जाता है जिसमें स्त्री भी बराबरी से हिस्सा लेती है। 

 

3. 

खुद शंकर देवता भुलवा को नाचा सिखा रहे हैं। इसके बावजूद उन्हें भुलवा को नाचा सिखाने में बारह साल लग जाते हैं। नहीं तो यह काम तो एक वरदान से भी हो सकता था। वे बारह साल लगातार बिना रुके भुलवा को नाचा सिखाते हैं। जिसमें उनका साथ भूत, प्रेत और पिशाच देते हैं। भुलवा के नाचा सीखने के साथ उनकी मुक्ति जुड़ी हुई है। और यह भी कि यह नाचा तब तक नहीं पूरा होगा जब तक इसमें विराजो शामिल नहीं होगी। और बाद में तो शंकर देवता पाँच चिडिय़ा बहनों को भी वृहन्नला में बदल देते हैं ताकि वह नाचा में शामिल हो सकें। भुलवा को इसकी भी एक कहानी सुनाते हैं देवता। बताते हैं कि यह भुलवा का बारहवाँ जन्म है। और उसे इस जन्म में नाचा सीखकर उस चक्र को तोडऩा है जो पिछले ग्यारह जन्मों से चल रहा है। उसे पिछले ग्यारह जन्मों की गलतियों से बचना है। उसे न सिर्फ खुद मुक्त होना है बल्कि अपने साथ दूसरों को भी मुक्त करना है और यह काम होगा नाचा के माध्यम से।

एक और बात है जो इस स्थिति को गजब तरीके से पूरा करती है। शंकर देवता ने उसे अधूरी कहानी सुनाई है। इस कहानी को अब उसे नए सिरे से रचना है। अपनी कमियाँ भी उसे खुद ढूँढऩी हैं और यह काम करते ही रहना है। उसे अब जीवन भर नाचा करते रहना है। यहाँ पर जीवन और कला आपस में मिलकर एक हो जाने वाले हैं। यह कला का जयघोष है। यह संस्कृति का वह रूप है जो तमाम भूत प्रेत और पिशाचों को फिर से मनुष्य में बदलने की क्षमता रखता है। और अगर कला में यह क्षमता नहीं है तब उसके होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है। दूसरे कोई कला तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक उसमें स्त्री जीवन के सुख-दुख न शामिल हों। बल्कि उसे उन सबको अपने भीतर शामिल करना होगा जो हाशिए पर हैं या पीड़ा के समुद्र में फेंक दिए गए हैं। उपन्यास की गवाही मानें तो हमारी कलाओं में समूची प्रकृति को शामिल होना होगा। तभी कलाएँ जीवित होंगी और तभी उनमें वह जादू प्रकट होगा कि वह भूतों, प्रेतों और पिशाचों को फिर से मनुष्य में बदल सकें।

चिडिय़ा बहनों का भाई की एक उपलब्धि यह भी है कि यह श्रम को कई बार कला की तरह से स्थापित करता है। चाहे भुलवा द्वारा रोज तीन मछलियों के मारने का प्रसंग हो या परसन वीर के पहाड़ चढऩे-उतरने का प्रसंग हो या कि भुलवा और उसकी चिडिय़ा बहनों के पहाड़ पर चढऩे उतरने के प्रसंग हों या कि परसन वीर द्वारा गाँव वालों के साथ मिलकर पहाड़ को समतल करने के प्रसंग हों या परसन वीर द्वारा पत्थरों से आग पैदा करने के प्रसंग हो। इस तरह के और भी तमाम प्रसंग उपन्यास में बिखरे हुए हैं। यहाँ श्रम हवा बहने के तरह सहज और खूबसूरत है। जैसे जब परसन वीर पहाड़ जब पहाड़ पर विजय प्राप्त करता है तो खूबसूरत नीले शेर में बदल जाता है। देवता मनुष्यों के लिए अन्न की खोज में भटकता है और अन्न के चार बीज उसे एक घसियारे के पास मिलते हैं जो अनंत काल से घास काटे जा रहा है। घसियारे को यह बीज घोड़़े की लीद से मिले थे।

ऐसे ही उपन्यास में आई दो जुड़वा बहनों सोनई रुपई की कहानी बहुत रोचक है। उन जुड़वा बहनों को दो जुड़वा भाइयों से प्रेम था। पर इस बीच एक अय्याश राजा उन्हें देखता है और उन पर मोहित हो जाता है। जिस दिन राजा उनके दरवाजे पर बारात लेकर आने वाला होता है उसी दिन दोनों बहनें अपने प्रेमियों के संग पहाड़ पर भाग जाती हैं। राजा के सैनिक उनके प्रेमियों की हत्या कर देते हैं जिनके शोक में वे इतना रोती हैं कि पहाड़ की चोटी पर दो जुड़वा तालाब बन जाते हैं जिसमें राजा के सभी सैनिक डूब जाते हैं। वे बहनें जुड़वा तालाबों में बदल जाती हैं। ऐसे और भी अनेक प्रसंग हैं जैसे विराजो के लिए बेचैन भुलवा जब पहाड़ पर भाग जाता है और उसकी माँ जब उसे खोजने नदी के पास जाती है तो नदी से यह भी पूछती है कि मछली मारते समय क्या आज भुलवा ज्यादा उदास था?

नदी कहती है यह तो उसे पता नहीं। फिर कुछ सोचकर कहती है कि ''देखो मैं दिखाती हूँ...यह उसका प्रतिबिंब है...वह दिख रहा था ऐसा...यह आज का प्रतिबिंब है जो मेरी सतह पर उभरा है भुलवा के मछली मारते समय...’’ यह अलग बात है कि उस प्रतिबिंब में भुलवा माँ को उदास नजर आता है तो नदी को रोज की ही तरह का लगता है। इसी तरह उपन्यास में एक और प्रसंग बहुत ही महत्वपूर्ण है। जब भुलवा का पहली बार अपनी प्रेमिका विराजो से शारीरिक मिलन होता है। वह पूरा प्रसंग जैसे स्वप्न दृश्य की तरह से उतरता है। पहले भुलवा संबंध बनाता है और असफल होता है। फिर मिरचुक भूत भुलवा के शरीर में शामिल होकर निष्ठुर होकर संबंध बनाता है और आखिर में चंद्रमा पूरी सौम्यता से और सहजता से संबंध में उतरता है। और जब यह घटित होता है तब पृथ्वी के चंद्रमा के आगे आसमान का चंद्रमा एक धब्बे में बदल जाता है। चंद्रमा की रोशनी में घटित यह पूरा दृश्य कल्पना की उस असीमित उड़ान का बेहतरीन उदाहरण है जिस उड़ान ने इस उपन्यास को संभव बनाया है।

इसी प्रसंग में चंद्रमा मिरचुक भूत को टुकड़े टुकड़े करके केंचुओं में बदल देता है। जो मिट्टी में शामिल और सक्रिय होकर मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाते हैं। इस पूरे प्रसंग की कई व्याख्याएँ मुमकिन हैं पर कई बार व्याख्या सौंदर्य को नष्ट करने का भी काम करती है। इसलिए बेहतर यही है कि इसे पढ़ा जाय और इस जादू को अपने भीतर उतरने दिया जाय। इसी तरह से चिडिय़ा बहनों का बृहन्नला में बदलने का प्रसंग भी है जिन्हें नाचा में स्त्री चरित्रों को अभिनीत करना है। अब वे स्त्री नहीं हैं पर अब उन्हें स्त्री के दुखों को स्वर और चेहरा देना है। विडंबना यह है कि यह वे तब संभव कर पाएँगी जब उन्हें वह रूप मिला है जो लोक में स्त्री से भी ज्यादा दुख उठाता है। शंकर देवता कहते हैं कि उनमें यह ताकत नहीं है कि वे उन्हें फिर से स्त्री बना सकें। देवता यह भी कहते हैं कि कई बार उनके वरदान फलित नहीं भी होते। देवता की यह स्वीकारोक्ति उन्हें थोड़ा कम देवता बनाते हुए मनुष्य के निकट ले आती है।

 

4. 

चिडिय़ा बहनों का भाई पढ़ते हुए कई सारे सवाल मन में आते रहते हैं। पहला तो यही कि क्या उपन्यास का कोई ठेठ भारतीय रूप हो सकता है। यह भी कि इस उपन्यास को उपन्यास की बजाय एक बहुत लंबी लोककथा कहा जाए तो क्या इसके बारे में बात करने का कोई दूसरा तरीका खोजना होगा। यह भी कि हिंदी में जिस रूढ़ किस्म के यथार्थवाद की ढोल लंबे समय से पीटी जा रही है क्या वह अब तक फट कर चिथड़े चिथड़े नहीं हो गई है। क्या अभी उन्हीं चिथड़ों को समेट कर फिर फिर से बजाने की कोशिश की जाए या फिर नए रास्तों की तलाश की जाए जैसा कि इस उपन्यास का लेखक करता है। यह बार बार याद दिलाता है कि हमारे पास किस्सा कहने की कितनी अद्भुत शैलियाँ मौजूद हैं। पर जब हम यह कह रहे होते हैं उसी समय यह सवाल भी उतनी ही ताकत से उठता है कि क्या इस शिल्प में समकालीन दबावों का बोझ उठाने की कुव्वत है?

यहीं पर यह भी सवाल उठता है कि इस उपन्यास का समकालीन पाठ किस तरह से किया जाय। निस्संदेह इसमें ऐसी तमाम चीजें हैं जिनके समकालीन अर्थ खुलते हैं। पर ऐसी भी बहुत सारी चीजें हैं जो अपने आदिम रूप में ही हमारे सामने मौजूद हैं। और जब हम समकालीनता की बात कर ही रहे हैं तो यह भी कि उपन्यास में ऐसे वाक्य मुश्किल से मिलते हैं जो जस का तस समकालीन अर्थ देते हों। उनका होना भी कई बार ऐसा लगता है कि जैसे वे लेखक को धता बताते हुए प्रकट हो गए हों। जैसे भुलवा की खोज के दौरान एक अनुमान यह भी प्रकट होता है कि ''तैरते-तैरते पहुँच गया होगा समुद्र तक। पार कर समुद्र को पहुँच गया होगा किसी दूसरे देश। हो सकता है कि सीमा उल्लंघन के अपराध में किसी और देश में मछुवारों के साथ वह बंदी बन गया हो...।’’ यह प्रसंग पढ़ते हुए एक बार तो ऐसा लगा जैसे उपन्यास का कोई चरित्र अपने समय से बहुत आगे भविष्य में चला गया हो। ऐसे ही एक जगह स्कूल का जिक्र भर है अन्यथा स्कूल, अस्पताल या थाना-कचहरी जैसी चीजों के यहाँ होने की दूर दूर तक कोई जरूरत नहीं है।

यहीं पर सवाल की शक्ल में पूछा जा सकता है कि क्या जरूरी है कि जब लोक से रूप लिया जाय तो अंतर्वस्तु भी वहीं से ली जाय। और अगर इसका उल्टा हो तो क्या रूप बने। क्या तब भी यह जादू जस का तस असर करेगा या इसके रूप और मारक क्षमता में कोई परिवर्तन आएगा। बाकी सवाल यह भी पूछा ही जा सकता है कि यह क्यों जरूरी हो कि किसी रचना का कोई समकालीन अर्थ खुले ही। क्या ऐसा किए बिना कोई रचना हमें समृद्ध नहीं कर सकती जैसा कि यह उपन्यास करता है। पाठ के समय उपन्यास की डिटेलिंग एक और चीज है जिसका जादू बहुत गहराई से असर करता है। यह कई बार बहुत धीमी गति से आगे बढ़ती है तो कई बार तेज गति से। कई बार यह एक ही स्थिति को अलग-अलग तरह से बयान कर दृश्य रचती है जो सीधे आँखों में उतर जाता है। तब हम पढ़ते-पढ़ते पढ़े जा रहे को देखने की भी सामथ्र्य हासिल कर लेते हैं।

 

चिडिय़ा बहनों का भाई (उपन्यास) - आनंद हर्षुल - राजकमल प्रकाशन - पहला संस्करण-2017 - मूल्य  : 450 रुपये

अभी हाल ही में प्रकाशित पहल के एक अंक में लेखक की कहानी प्रकाशित हुई थी। वर्धा में रहते हैं, हिन्दी समय से जुड़े हैं।

 

 

 

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