स्मृतियों का कोलाज़ बटा शून्य

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    जुलाई 2018
श्रेणी स्मृतियों का कोलाज़ बटा शून्य
संस्करण जुलाई 2018
लेखक का नाम अच्युतानंद मिश्र





 

क़िताबें/

 

किस्सा बेसिरपैर- प्रभात त्रिपाठी

 

 

उपन्यास का सम्बन्ध यथार्थ से है। उन्नीसवीं सदी के बहुत से आलोचकों ने इस बात को विस्तार से स्थापित किया। इस स्थापना में यथार्थ एक पूर्व-व्याख्यायित अवधारणा की तरह था, जिसे उस दौर के आलोचकों ने उपन्यास से जोड़ा। यथार्थ और उपन्यास दोनों का अंत एक अपेक्षित आदर्श की कल्पना में होता था। यह कल्पना जीवन रोमान और उद्दात से भरी होती थी। इन्हीं तीन चीज़ों से 19 वीं सदी के उपन्यासों में केंद्रीय चरित्र का वितान खड़ा किया जाता था। नायक की परिकल्पना के मूल में ये बातें प्रमुख थीं। तालस्ताय, तुर्गनेव और बालज़ाक के उपन्यासों में यह बात बखूबी देखी जा सकती है। बीसवीं सदी के आलोचकों ने इसे उपन्यास की केंद्रीय प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया। यथार्थ की अवधारणा को नये संदर्भों में देखने का बुनियादी काम लुकाच ने किया। लेकिन लुकाच की दृष्टि उन्नीसवीं सदी के यथार्थ के साथ बीसवीं सदी के अन्त: संघर्षों की संगति बिठाने की थी। बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से ही यथार्थ बहुत तेज़ी से बदलने लगा। ऐसे में उन्नीसवीं सदी के यथार्थवादी मॉडल के तहत बीसवीं सदी के उपन्यासों की रचना बहुत कारगर नहीं रह गयी थी।

यथार्थ की पुनर्रचना और पात्रों के उद्दात की आदर्शवादी कल्पना की भावभूमि पर खड़े उपन्यास का क्रमिक विकास संभव नहीं रह गया था। समाज और संस्कृति के तीव्र परिवर्तनों ने यथार्थ की परिकल्पना को ही बदल डाला। बीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते व्यक्ति और समाज के अन्तर्सम्बन्ध बहुत तेज़ी से बदलने लगें। इन बदलावों को एक हद तक लैटिन अमेरिकी उपन्यासों में देखा जा सकता है। यथार्थ के नये अभिप्रायों की तलाश उन्हें एक नये सौन्दर्यबोध की तरफ ले जाती है। सभ्यता के नये औपन्यासिक इतिहास की प्रेरणा, उन उपन्यासों में विलक्ष्ण कथावस्तु निर्मित करती है।

पिछले कुछ वर्षों से हिंदी में लिखे उपन्यास पुरानी परिपाटी को ही दुहराते नज़र आते हैं। समाज के वास्तविक यथार्थ के स्थान पर अनुकूलित या स्थूल यथार्थ ही उपन्यास में बार बार प्रयुक्त हो रहे हैं। सब कुछ इस तरह की क्रमिकता में घट रहा है कि समय और घटनाओं का पूर्वाभास सबसे सरल कार्य रह गया है। सोद्देश्यता की सरलीकृत अवधारणा ने उपन्यास को वर्तमान की भावभूमि से विलगा दिया है। इस दृष्टि से प्रभात त्रिपाठी का दूसरा उपन्यास किस्सा बेसिरपैर हिंदी उपन्यासों की मौजूदा परिपाटी और ढर्रे को तोडऩे का एक सार्थक प्रयत्न करता है। यह उपन्यास हमारी चेतना में पहले से मौजूद कुछ बुनियादी चीज़ों को बदलता है। इस तरह की कोशिश हम एक हद तक मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों में भी देखते हैं, परन्तु उनके उपन्यासों में विचित्र की संरचना पर बल है। प्रभात त्रिपाठी के यहाँ सामान्य के भीतर जो अप्रत्याशित घट रहा है, उस तक पहुँचने की कोशिश है। इस दृष्टि से देखें तो बहुत आसानी से इस बात को समझा जा सकता है कि किस्सा बेसिरपैर यथार्थ की नई जमीन की खोज करते हुए, पाठकों को चौंकाता नहीं है। यह जरुर है कि इस उपन्यास को अगर हम उपन्यास के पुराने प्रारूप में ही देखने और समझने की कोशिश करें, तो यह उपन्यास हमे प्रभावित नहीं करेगा, लेकिन अगर हम अपने भीतर और बाहर के बदलते भूगोल पर नज़र टिकाएं, तो यह उपन्यास अपने विवेचन में हमें समृद्ध करता है।

किस्सा बेसिरपैर व्यक्ति और समाज के बीच के मौजूदा अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल करता है। इस अर्थ में नहीं कि मनुष्य के पास एक क्रमिक सामाजिक बोध है। इस अर्थ में कि वह बोध नष्ट हो रहा है। यह किस्सा उस संक्रमण की ओर इंगित करता है, जहाँ से सामाजिक बोध के विघटन की शिनाख्त की जा सकती है। यहाँ व्यक्ति के भीतर मौजूद दो समय, दो समाज और दो चेतनाओं का अन्तद्र्वन्द्व देखा जा सकता है। बुढ़ापे की दहलीज़ के पार पहुंचा एक आदमी अपने वर्तमान और अतीत को, प्रस्तुत और स्मृति को घुला मिला देता है। इसलिए इस उपन्यास को पढ़ते हुए जो सबसे बड़ी समस्या पेश आती है कि हमारा बाह्य तार्किक समय-बोध कितना बचा रह गया है। उसकी सार्थकता क्या है? जिस सहज तार्किकता को पानी की तरह ढलान पर फिसलते देखने के हम आदि हो चुके हैं, वह दुनिया और समाज की हमारी वर्तमान समझ से हमें जोडने में कितना कारगर है? जिस यथार्थ बोध को हम अपना सहज विवेक मान बैठे हैं वह कहीं यथार्थ का छद्दम तो नहीं रच रहा? यथार्थ का अनुकूलन हमे वास्तविक यथार्थ से कितनी दूर ला देता है? इन बुनियादी प्रश्नों के आलोक में, इस उपन्यास को पढ़ा जा सकता है। यथार्थ की यह वर्तमान बहु-आयामिता विज्ञान के उन नियमों से मुक्त है, जहाँ एक व्यक्ति अपनी चेतना और भौतिक उपस्थिति दोनों के समवेत में एक ही काल और स्थान में मौजूद रहता है।

बुढ़ापे की दहलीज़ पर पंहुचा उपन्यास का मुख्य पात्र जो कथावाचक भी है भौतिक उपस्थिति और चेतना दोनों के स्तर पर हर वक्त दो भिन्न देश-काल में रहता है। और इसलिए दोनों ही ठिकानों का सतत तनाव, उसके यथार्थ का निर्माण करते हैं।

इस उपन्यास की परिधि से थोड़ा बाहर निकलकर अगर हम देखें तो यह जो तनाव है, भौतिक और चेतना के मध्य प्रस्तुत और स्मृति के बीच, वह दरअसल एकायामी यथार्थ या केन्द्रित यथार्थ की पुरातन अवधारणा को खंडित करता है। यहीं से समकालीन मनुष्य के जटिल यथार्थ बोध को समझने और परखने की शुरुआत होती है।

हम जिस समय और समाज में रह रहे हैं, उसमें व्यक्ति और समाज के बदले रूपों को देखने की प्रक्रिया क्या हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर इस उपन्यास में खोजा जा सकता है। व्यक्ति, समाज की द्वि-आयामिता के साथ एक त्रिकोण बनाता है। एक समाज उसके बाहर है और एक उसके भीतर। आधुनिक समय ने इन दोनों के बीच की दूरी को बढ़ा दिया है। इसी यथार्थ को एक जटिल संरचना के साथ उपन्यास में विन्यस्त किया गया है। कहना न होगा कि इस संदर्भ में उपन्यास एक पाठकीय चुनौती भी पेश करती है।

किस्सा बेसिरपैर इस तथ्य को भी सामने रखता है कि जीवन की वे परिस्थितियां जहाँ एक मुक्कमिल शुरुआत और एक निर्णायक अंत होता था, नष्ट हो चुकी हैं। ऐसे में उपन्यास की कथा में कोई केंद्रीय तत्व या नायक की खोज नहीं की जा सकती। व्यक्ति के रूप में समाज के प्रतिनिधि चरित्र का अंत हो चुका है।

यह कथा पारम्परिक अर्थों में कथा नहीं है, लेकिन यह उसका विलोम भी नहीं है। इसमें एक व्यक्ति के भीतर और बाहर की घटनाओं का कोलाज़ है,परन्तु कथा के लिए जिस अर्थ में क्रमिकता की जरूरत होती है उसका यहाँ निषेध है। खोज तो है, पर क्रमिकता की खोज संभव नहीं, क्योंकि समाज की बुनियादी इकाई के रूप में व्यक्ति का अस्तित्व नष्ट हो गया है।

उपन्यास सत्तर की उम्र में बसर कर रहे व्यक्ति के बहाने समाज के तमाम लोगों के जीवन की परिस्थितियों की व्याख्या करता है। घटनाएँ, स्मृति के खजाने से निकलकर वर्तमान तक फैलने लगती हैं। सत्तर साल का एक व्यक्ति अपनी कामज कल्पनाओं में डूबा है। उन्हीं कल्पनाओं के रास्ते वह समाज की अँधेरी गलियों का चक्कर लगाता है। ऐसा करते हुए वह अतीत और वर्तमान को एक साथ जीता है। वह प्रेम करता है और स्त्रियों को लोलुप नजऱ से देखता है। वह सत्तर की उम्र में उनके पीछे भागता है, और समाज के चेहरे पर पड़ी धूल सा$फ करता है।

'मुमकिन है बेटे की याद, मुझे उस लड़की के दिख जाने की वजह से ही नहीं, बल्कि पैसों के बारे में सोचने की वजह से आई हो। मेरा बेटा आर्टिस्ट बनना चाहता था और कमर्शियल आर्ट के किसी इंस्टिट्यूट में दाखिले के लिए उसे एक लम्बी रकम चाहिए थी। मैं छुट्टी पर था। और मेरे दिन आनंद के साथ कट रहे थे’ (11)

यह उद्धरण समाज, व्यक्ति और सामाजिक मनोविज्ञान के मध्य एक जटिल अंतर्संबंध को सामने रखता है. अगर हम पहली पंक्ति 'मुमकिन है बेटे की याद .....को देखें तो पायेंगे कि अपनी अनिश्चयता में स्त्री और पैसे को एक जगह ले आता है। क्योंकि सत्तर वर्षीय उस बूढ़े के दिमाग में दोनों लालच के ही अविभाज्य पहलू हैं। लेकिन अगली पंक्ति 'मेरा बेटा आर्टिस्ट बनना चाहता था....एक नई स्थिति का खुलासा करती है। लालच और कला मिलकर एक कमर्शियल आर्ट की चेतना निर्मित करते हैं। कला के ये मूल्य अचानक नहीं बदल गये. समाज में उसे धीरे-धीरे बदला गया। समाज के परिवर्तन की यह कथा, मूलत: व्यक्तित्व के विघटन के समानांतर चलती रहती है, इसलिए इस उपन्यास में यह महत्वपूर्ण नहीं कि व्यक्ति की शर्त पर समाज है या कि समाज की शर्त पर व्यक्ति -ये सारी बहसें पुरानी पड़ चुकी है- लेखक की चिंता इस बात को लेकर है कि व्यक्ति और समाज के दायरे क्या अब भी एक दूसरे को छू रहे हैं? उन्हें चिन्हित करने की प्रक्रिया क्या हो?

उपन्यास में घटनाएँ, चरित्र और स्थान किसी प्रकट और स्पष्ट कार्यकारण नियमों से बंधे नहीं है। हालाँकि बहुत से लोग नियमों की परिकल्पना में जीते हैं। आज भी समाज अलिखित नियमों के द्वारा नियंत्रित होता है। और इसलिए लोग वास्तविकता से कटे हुए एक मनोगत और अनुकूलित वास्तविकता में जीने को अभिशप्त हैं। उदाहरण के तौर पर डॉ. बिन्नाके को देखा जा सकता है। वह कथावाचक की बहन है। उसके भीतर पुराने समय का बोध गहरा है। उसके व्यक्तित्व में क्रमिकता देखी जा सकती है, परन्तु कथावाचक स्वयं को सदैव एक खंडित क्रमिकता में पाता है जिसे उसने समाज के अंतर- बाह्य से अर्जित किया है। कथावाचक की बेचैनी ही इस बात को इंगित करती है कि वह नये और पुराने दोनों में बहना चाहता है। वह अपनी चाहत के दायरे को विस्तारित करता है और घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर 'गांजा चौकपहुँच जाता है। वह बार-बार घर और चौक के बीच एक सामंजस्य स्थापित करना चाहता है, लेकिन यह संभव नहीं होता। वह घर में काम कर रही नौकरानी को कामुक निगाहों से देखता है और उसका किस्सा लेकर बैठ जाता है। उसका बखान करते हुए उसके शराबी पति और उसके मित्र की कथा कहने लगता है। ऐसे में घटनाओं के भीतर घटनाएं छिपी नज़र आती हैं। इन्हीं घटनाओं के विश्रृंखलित विवरणों से सामाजिक यथार्थ की नई चौहद्दियों को देखा जा सकता है।

कथा की पृष्ठभूमि छतीसगढ़ के रायगढ़ की है। रायगढ़ को सही अर्थों में दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता नहीं कह सकते और न ही वह वास्तविकताओं से कटे रेल की छुक-छुक को महसूस करते हुए अँधेरे में डूबा कोई भारतीय ग्रामीण अंचल है। कहने का मतलब यह कि वह परिभाषित दायरे से बाहर छिटक जाने वाले भूगोल में महदूद है। वह गांव और शहर के संधिस्थल पर खड़ा है। सभी पात्र नितांत वर्तमान में जीने को अभिशप्त हैं। वर्तमान के भयानक दबाव से रिसती, उनकी स्मृतियाँ और चोटिल आत्मा, उन्हें बार-बार खुद को अस्वीकार करने की ओर उन्मुख करती है। इस अर्थ में देखें तो यह उपन्यास पिछले तीन दशकों में बदलते हुए भारत की घुटती हुयी आत्मा की शिनाख्त करता है।

'जगह वही थी। समय वह नहीं था। याने तारिख, या कि दिन, या कि वर्ष वही नहीं था। पिछले किस्से की स्मृति पुकार जरुर रही थी, पर बिलकुल सतह पर की दिमागी भागमभाग को उस पुकार में रोकना मुश्किल था।(100)

होने और न होने के बीच, हर व्यक्ति, अपने वर्तमान में इस कदर डूबा है कि वह अपनी स्मृतियों को भी वर्तमान के खजाने में खोज रहा है। स्मृतियाँ कहीं ले नहीं जाती लेकिन वर्तमान के बोझ को ढोने की दुरुहता से बचने के क्रम में एक फौरी राहत तो देती ही हैं।

उपन्यास में यथार्थ की तलाश दो बिन्दुओं के मध्य बनती रेखा में नहीं बल्कि अर्ध-वृत्त में किया जाता है। यह अर्ध-वृत्त हमारे बोध के सरलीकरण को चुनौती देता है। इस उपन्यास का महत्व ही इस बात में है कि यह पाठक को कठिन के प्रति गंभीर बनाता है। हर पात्र अपने साथ घटनाओं का एक सिलसला कायम करता है। ये घटनाएँ एक दूसरे के जीवन में प्रवेश भी करती हैं और उससे छिटक कर कथावाचक की स्मृतियों में कैद भी हो जाती हैं। इस अर्थ में हर घटना दो बार घटती है। एक बार अतीत में और दूसरी बार वर्तमान में- सक्रिय स्मृतियों में। लेकिन जब वे वर्तमान में- सक्रिय स्मृतियों में, घटती हैं, तो वे अपने साथ मौजूद परिदृश्य को भी उद्घाटित करती हैं। ऐसा करते हुए वे अपने मूल अतीत से विच्छिन्न होती जाती हैं।

इस उपन्यास के अधिकांश चरित्र समाज के निम्न मध्यवर्गीय दायरे से आये हुए लोग हैं। वे अपने वर्ग-चरित्र का अतिक्रमण करते हैं। अपराध और जीवन जीने के संघर्ष के बीच का सहज समझौता, मनुष्यता के संदर्भ में हमारे आदर्शवादी मूल्यों की खिल्ली उड़ाता है। उदाहरण के तौर पर बाबूलाल को देखा जा सकता है। लेखक दो बाबूलाल का जिक्र करता है। दोनों का अतीत उनके वर्तमान से अलग है। परन्तु सवाल यह है कि जब दो अलग लोग हैं तो उनके नाम भी अलग रखे जा सकते थे। यह तो बहुत आसानी से किया जा सकता था। मसलन दूसरे बाबूलाल का नाम चुन्नीलाल या कुछ और भी रखा जा सकता था, लेकिन लेखक ऐसा नहीं करता। आखिर क्यों? क्या दोनों बाबूलाल की भिन्नता से एक नये तरह की समग्रता नहीं बनाती? जिसमे वे दोनों एक दूसरे का अतिक्रमण करते हुए एक दूसरे में घुलने लगते हैं। मूल उद्देश्य यही है कि एक की कथा कहते हुए पाठक बार-बार दोनों के विषय में विचार करे। एक की कल्पना को वह दूसरे की उपस्थिति में विलयित कर दे। क्योंकि समय ने सबको नाम और चेहरे से मुक्त कर दिया है। अलग-अलग सी स्थितियों से जुड़े हर आदमी को उसकी निजता से काट दिया गया है। ऐसी स्थिति में, वह अपने आत्म को ही पहचान नहीं पाता। आत्म की यह विस्मृति लोगों को व्यवस्था की नज़र में महज़ एक पुर्जा बना देती है। पुर्जा बने रहने का संघर्ष ही,जीवन संघर्ष का स्थानापन्न हो जाता है।

'मैंने फिर अपनी आँखें खोल दीं. तब अपने निचले ओठ को देखकर मुझे लगा, कि वह मोटा और भद्दा लग रहा है। दो पल गौर से देखने के बाद मुझे लगा, कि मैं अपने शहर के मशहूर सट्टेबाज के उस नवधनाढ्य औरतबाज भांजे को देख रहा हूँ, जिसने पिछले पांच बरस में पांच करोड़ की जायदाद खड़ी कर ली है। इस भांजे के मामा से तो मेरी अच्छी पहचान थी, पर रईस भांजे को मैंने सिर्फ एक ही बार देखा था। आँखें मूंदे रहने पर भी, दर्पण में इसे अपने चेहरे की जगह देखना डरावना था। मुझे लगा कि अदृश्य खूनखराबों, हत्याओं डकैतियों और चोरी से भरे इस कामुक किस्से का मैं एक ऐसा चरित्र हूँ, जिसकी अपनी कोई निजी शख्शियत नहीं है, जो पत्थर की मूरत की पत्थरदिली के साथ, अपने लालचों से भरे इस किस्से में बहता हुआ, इतना असहाय हो चुका है, कि उसके अपने शहर के छंटे हुए बदमाश, जैसे उसके अपने चेहरे पर अख्तियार कर चुके हैं।(115)

इस अंश को अगर हम गौर से पढ़ें तो यह जानना कठिन नहीं रह जाता कि पांच वर्ष जहाँ पांच करोड़ की राशि जुटाने में लगते हैं, वहीं पांच वर्ष एक लोकतांत्रिक सत्ता के बने रहने के भी होते हैं। लोकतंत्र के वर्तमान और व्यक्तित्व के विघटन के बीच मौजूद समय की यह समानता क्या दर्शाती है? बहुत सांकेतिक और सूक्ष्म अर्थों में लेखक दोनों को जोड़ता है। प्रकट अर्थ में 5 करोड़ की राशि बनाने के समय को पाठक सत्ता के पांच वर्ष की अवधारणा से जब जोड़कर देखता है तो पाता है हत्याएं सिर्फ लोगों की नहीं हो रही है। हत्याएं उन मूल्यों की भी की जा रही जिनकी बुनियाद पर ही समाज और मनुष्यता की नींव रखी जाती है। इन स्थितियों ने मनुष्य को महज़ एक व्यवस्था का पुर्जा बना दिया है। आत्मविवेक और सामाजिक चेतना उसका साथ छोड़ रही है, उसके चेहरे की निशानदेही नहीं की जा सकती। वह हर चेहरे में, फिर समाज में और अंतत: भीड़ में बदल रहा है। ऐसे अनेक चेहरों से यह उपन्यास भरा हुआ है। उनके नामों का कोई विशेष अर्थ नहीं, वे महज़ कथा कहने की सुविधा भर हैं। हकीकत में इनके नाम इनकी किसी विशेष पहचान इंगित नहीं करते। ये अपनी पहचान से मुक्त हो चुके हैं। उनका जीवन बोध खाने और पचाने के अतिरिक्त कोई अर्थ नहीं रखता।

इसे पढ़ते हुए हम काफ्का की कहानी मेटामोर्फिसिस को याद कर सकते हैं। कथावाचक एक दिन पाता है कि वह एक कीड़े में बदल गया है, उसका कायांतरण हो चुका है। लेकिन उसका आलोचकीय विवेक नष्ट नहीं हुआ है, इसलिए वह अपने इस बदलाव को देख पाता है। काफ्का की इस कहानी से जब हम प्रभात त्रिपाठी के उपन्यास तक आते हैं तो पाते हैं न सिर्फ गंगा और वोल्गा बल्कि ब्रह्मपुत्र और अमेज़न नदी भी सूखने के कगार पर पहुँच चुकी है। समाज का समूचा जल-तत्व लोगों की आँखों में कबका सूख चूका है। और वह शख्श जिसके कान खराब हैं, वह भयानक खबरों को सुनकर लकड़बग्घे की तरह हंस रहा है। इस हंसने में मौजूद उसके करुण रुदन को अब देखना संभव नहीं रह गया है। उसका आलोचनात्मक विवेक नष्ट हो चुका है। वह काफ्का के धूसर और मलिन यथार्थ से भी छिटककर दूर निकल चुका है।

कथावाचक अपनी कामज कल्पनाओं के रास्ते, सड़कों को नापता हुआ गांजा चौक पहुँचता है। वह पेशे से लेखक है, लेकिन वह समाज के वास्तविक दृश्य का अंग नज़र आता है, वह करुणा और क्रूरता के द्वैत से बना है। लगातार बन रहे अपने ख्यालों की दुनिया में अपनी जागृत चेतना के साथ, वह मौजूद है। लेकिन उसकी मौजूदगी ही हर बार उसे स्मृतियों की ऊँची नीची पहाडिय़ों पर ले जाती है, जहाँ से लोगों के धूमिल चेहरों के बीच बुनी गयी घटनाएँ विश्रृंखलित यथार्थ की समकालीन परिपाटी को रचती हैं। कामज भावनाएं लालच और तृष्णा से भरी वास्तविक दुनिया के दरवाजों की तरह हैं। लेखक हर बार अपनी दुनिया में लौटने के लिए इन्हीं दरवाज़ों से प्रवेश करता है। वह बार-बार अनेक चरित्रों की भीतरी दुनिया में अपनी भावुकता के रास्ते चलकर दरवाजे से प्रवेश करता है और पाता है कि वह तो किसी और ही दुनिया की यात्रा पर निकला था। मनुष्य के रूप में और समाज के एक अंग के रुप में उसने प्रेम चाहा था, लेकिन उसका प्रेम एक लालच में बदल रहा है।

यह उपन्यास पारम्परिक अर्थों में उपन्यास नहीं है, लेकिन उपन्यास का यह निषेधात्मक स्वरुप भी अख्तियार नहीं करता। यह बदलती मनुष्यता और विघटन के दौर से गुजर रहे समाज की करुण कथा है। जहाँ करुणा का मूल्य के रूप में अंत हो चुका है। क्या हम इसे प्रचलित अर्थों में आत्मकथात्मक उपन्यास कह सकते हैं? आत्मकथात्मक की बजाय यह आत्म को बचाने की जद्दोजहद से भरा उपन्यास है, क्योंकि सारे चेहरे कथावाचक के आत्म में संघर्षरत हैं। वह बार-बार उनकी शिनाख्त करता है। वह चेहरों पर टंगे मुखौटों को बार बार गिरने से बचाने का प्रयत्न करता है। लेकिन हर बार वह पाता है कि यह संभव नहीं है।

समाज के भीतर चल रहे संक्रमण को देखने की कोशिश इस उपन्यास को लीक से हटकर बनाती है, लेकिन यह उपन्यास एक कठिन पाठ की मांग रखता है। पाठकीयता के तथाकथित रोचक और लोकप्रिय मूल्यों को एक हद तक इसमें नकारा गया है। काम भावनाओं को केंद्र में रखकर लिखी गयी घटनाएं पाठक के जेहन में सनसनी नहीं बल्कि भयानक खबर की तरह प्रवेश करती हैं।

इस उपन्यास के बहुत से पात्र ऐसे हैं, जिनके रोज़गार के विषय में लेखक न बता सकने की अपनी असमर्थता जाहिर करता है। उसका पड़ोसी पहले चाय का ठेला लगाता था। वह अब एक ऐसे धंधे में चला गया है, जिसे समझना कठिन है। वह अपराधियों के लिए गांव-गांव घूमकर गारंटर ढूंढता है। यह विचित्र मगर हकीकत है। व्यवस्था ने हर आदमी को दलाली के पेशे से जोड़ दिया है। जीने का संकट इतना बड़ा हो गया है कि नैतिकता के मूल्य बहुत सहजता से पीछे छूटने लगे हैं। कोढ़ी के तौर भीख माँगना भी एक व्यापक धंधे का रूप ले चुका है। व्यवसायिकता के दायरों ने सभी मूल्यों को ग्रस लिया है। ऐसे में मनुष्यता का बोध या मनुष्य के भीतर का सौन्दर्यबोध किस तरह बचेगा? उपन्यास को पढ़ते हुए, हम इस मुकाम पर पहुँचते हैं कि जीवन के जो कलात्मक मूल्य हैं, रोजमर्रा का जो मानवीय संघर्ष है, वही मनुष्यता का सौन्दर्यबोध और भविष्य की उम्मीद बचाता है।

एक स्थान पर नल ठीक करने वाले मिस्त्री का विवरण आता है, किसी अन्य स्थान पर पाखाना साफ करने वाले श्रमिकों का विवरण आता है। आप देखेंगे कि इन विवरणों में सहजता का सौंदर्य है। नल ठीक करते मिस्त्री के काम के प्रति कथावाचक का आकर्षण, इस बात को इंगित करता है कि वह जीवन सौंदर्य और सहजता के मूल्यों को अपने भीतर बचाए रखना चाहता है। जब एक दोपहर उसकी कामवाली बदहवास सी उसके पास आती है और अपने शराबी पति के अस्पताल में भर्ती होने की बात कहती है तो वह झट से न सिर्फ एक हज़ार रुपये उसे दे देता है बल्कि धूप में उसे खोजते हुए अस्पताल भी पहुँच जाता है।

क्या इन तमाम विश्रृंखलताओं से भरे विवरणों को देखने के पश्चात उपन्यास में किन्हीं सामाजिक मूल्य की तलाश संभव है? उपन्यास का सामाजिक उद्देश्य न भी हो, फिर भी वह किसी सामाजिक अर्थ की तलाश तो करेगा ही। वह अर्थ क्या है? कथावाचक का भटकाव और उसके भीतर की बेचैनी आखिर किसे बचाना चाहती है। उपन्यास का आखिरी हिस्सा इस ओर मुड़ता है। कथावाचक की पत्नी-प्रेयसी मीता गुजर चुकी है। इस बाह्य यथार्थ के बावजूद मीता जीवित है। स्मृतियों के यथार्थ में वह सुरक्षित है। मीता की तलाश ही इस उपन्यास का प्राप्य है। लेखक बार- बार अपने भीतर की मीता को बाहर खोजता है। खोजता हुआ वह स्मृतियों में डूब जाता है। स्मृतियों का कारवां चल पड़ता है। लेकिन वह स्मृतियों में कैद नहीं होना चाहता। वह जीता वर्तमान में ही है। वह स्मृति-जीवी नहीं है लेकिन वह स्मृतियों में बची थोड़ी सी आग अपने वर्तमान के लिए बचा लेना चाहता। यह वर्तमान जो सिर्फ उसका नहीं, समय और समाज का है, जहां वह बार- बार आवाजाही करता है। वह दुनिया के सुन्दर देखना चाहता है। मीता को स्मृतियों के रास्ते में वर्तमान तक लाने का संघर्ष ही, उसकी बेचैनी का सबब है। साथ ही यह अस्वीकार भी कि मीता मर नहीं सकती। यह एक यूटोपिया को पकड़े रहने की जिद है। लेखक इस यूटोपिया का लगातार पीछा करता है।

यह उपन्यास नितांत वर्तमान के दायरे में सिमटा हुआ है। भविष्य यहाँ अनुपस्थित है। लेकिन एक वृहद् वर्तमान की परिकल्पना वहां जरुर है। व्यक्ति और व्यक्तियों के मुकाम पर खड़ा यह उपन्यास आखिरी पत्ते के चित्रकार की खोज में मुब्तिला है। इसका असमाप्त अंत ही वह भविष्य है, जहाँ का किस्सा अभी लिखा जाना है। वह बार-बार लालच के दलदल से निकलकर प्रेम की ओर लौटना चाहता है। एक दिन जब वह नहीं लौट सकेगा उस दिन किस्सा बेसिर पैर खत्म हो जाएगा लेकिन तब तक यह किस्सा बदस्तूर जारी है, बिना किसी आदि अंत के। बीच से होकर बीच तक।

 

 

 

युवा कवि, आलोचक अच्चुतानंद मिश्र 'पहलके लगभग स्थायी लेखक हैं। उत्तर आधुनिक विचारों और विचारकों पर एक सिरीज कर चुके हैं।

संपर्क मो. 09213166256, गाज़ियाबाद

 

 

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