वर्तमान क्षण का आयाम - मिरोस्लॉब होलुब

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    जुलाई 2018
श्रेणी वर्तमान क्षण का आयाम - मिरोस्लॉब होलुब
संस्करण जुलाई 2018
लेखक का नाम अनु. सुरेश सलिल





 

 

 

चेक भाषा के आधुनिक विश्वकवि, निबंधकार, वैज्ञानिक, मिरोस्लॉव होलुब (1923-2000) का जन्म पश्चिमी बोहेमिया (वर्तमान प्राग शहर) के पिल्ज़े कस्बे में हुआ। पढ़ाई की शुरुआत लैटिन और ग्रीक भाषाओं में हुई। 1942 में स्नातक हो चुकने के बावजूद, विश्व युद्ध के दौरान आजीविका के लिए रेलवे स्टेशन पर मज़दूरी करनी पड़ी। युद्धोपरांत प्राग की चाल्र्स यूनिवर्सिटी में विज्ञान और भेषजशास्त्र का अध्ययन और 1953 में एम.डी. की उपाधि। रोग विज्ञान में विशिष्ट अध्ययन और 1954 में पीएच.डी. की उपाधि। उसी वर्ष पहले कविता संग्रह का प्रकाशन। सन् 1969 तक हर वर्ष होलुब की एक न एक कृति प्रकाशित होती रही। समग्रत: 15 काव्यकृतियाँ, 5 निबंध संग्रह, वैज्ञानिक विषयों के 140 से अधिक शोधपत्र व 3 प्रबंध प्रकाशित। अंग्रेजी अनुवाद में (काव्य संग्रह) 'सलेक्टेड पोयम्स’ : 1967, 'अकोलीं’ : 1971, 'नोट्स आ$फ ए क्लेविज़न’ : 1977, 'सेगिटल सेक्शन’ : 1980, 'इंटर$फेरोन ऑर ऑन थियेटर’ : 1982, 'वैनिशिंग लंग सिंड्रोम’ : 1990 तथा (निबंध संग्रह) 'दि डाइमेंशन आ$फ दि प्रेज़ेण्ट मूमेंट एण्ड अदर एस्सेज़’ 1990 प्रकाशित। हिंदी मे ंअनेक कवियों ने होलुब की कविताएं अनुवाद कीं और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कीं। 'पहलके दूसरे या तीसरे अंक में 'स्कूलशीर्षक कविता (अनु. सुरेश सलिल) प्रकाशित हुई और 1998-99 में 'दुनिया का सबसे गहरा महासागरशीर्षक से होलुब की कविताओं का चयन (अनु. सुरेश सलिल) 'पहल पुस्तकके रुप में प्रकाशित।

प्रस्तुत निबंध अंग्रेजी में प्रकाशित होलुब के निबंध संग्रह का शीर्षक निबंध है। इसमें प्रकटत: घटित होने वाले वर्तमान क्षण और मनोवैज्ञानिक रूप से घटित होने वाले वर्तमान क्षण के अंतर को रेखांकित करते हुए प्रायोगिक मनोविज्ञान की इस स्थापना का, कि वर्तमान क्षण की अवधि तीन सेकेंड की होती है, काव्य-पाठ, संगीत-प्रस्तुति और वक्तृता के संदर्भ में अध्ययन-विश्लेषण किया गया है।

 

यह तथ्य मुझे हरदम चिंतित करता है है कि मैं वर्तमान क्षण (Present Moment) की कल्पना नहीं कर सकता। वर्तमान क्षण से मेरा आशय है एक विशिष्ट सचेतन अवस्था या प्रक्रिया, एक अनुभव। ज्यादा बड़े पैमाने के वर्तमान को समझना अपेक्षाकृत अधिक आसान है। क्षण क्या है, यह क्षण जिसमें मैं विद्यमान हूं - प्रकृति के विपरीत, जो ह्वाइटहेड के एक प्रसिद्ध उद्धरण के अनुसार किसी क्षण में विद्यमान नहीं होती?

व्यावहारिक रूप में, शाश्वतत्व या अनंतता की कल्पना मैं बेहतर रूप में कर सकता हूं, विशेषकर जब आकाश की ओर अथक प्रतीक्षालय की छत की ओर निहार रहा होता हूं। वर्तमान क्षण मेरे लिए हरदम एक आयामहीन आयाम रहा है। इसने मुझे इतना अधिक परेशान किया कि एक बार मैंने एक निबंध लिखा और उसे स्टुडेंट यूनियन की एक साहित्यिक प्रतियोगिता में भेज दिया। मुझे पांचवां स्थान मिला, किंतु मात्र तथ्यात्मक रुप में, क्योंकि पुरस्कारों की घोषणा के तत्काल बाद स्टुडेंट यूनियन तितर बितर हो गई, और इस तरह वर्तमान क्षण का मेरा आभ्यंतर प्रत्यय एक बार पुन: क्षीण हुआ।

अंतत: प्रायोगिक मनोविज्ञान के हाल के एक आँकड़े से मुझे संतोषानुभूति हुई। वर्तमान क्षण की अवधि तीन सेकंड की होती है। हमारी चेतना में, कुछ मामूली वैयक्तिक भिन्नताओं के साथ, वर्तमान क्षण लगभग तीन सेकंड तक प्रवाहित रहता है। इसका आधारभूत प्रयोग बहुत ही सहज है। परीक्ष्य व्यक्ति को प्रकाश या ध्वनि के संक्षिप्त सिग्नल के साथ प्रस्तुत किया जाता है और उस व्यक्ति से उस सिग्नल को दोबारा उत्पन्न करने को कहा जाता है। यदि मूल सिग्नल की अवधि दो सेकंड है, तो दोबारा उत्पन्न किया गया सिग्नल सदैव थोड़ी दीर्घ अवधि का होता है। यदि मूल सिग्नल लगभग तीन सेकंड का है, या कुछेक व्यक्तियों में दो सेकंड से थोड़ा अधिक, तो अचानक विपरीत परिणाम सामने आता है और परीक्ष्य व्यक्ति उस सिग्नल को लगभग ठीक-ठीक प्रतिपादित करता है। यदि सिग्नल की अवधि तीन सकेंड से अधिक होती है, तो परीक्ष्य व्यक्ति में पुर्नप्रस्तुति को छोटा करने की प्रवृत्ति लक्षित होती है। पांच सेकंड अवधि के सिग्नलों की पुनप्र्रस्तुति प्राय: तीन सेकंड के सिग्नलों जैसी होती है और सिग्नल की अवधि के साथ त्रुटियां बढ़ती जाती हैं। इससे पता चलता है कि तीन सेकंड से अधिक अवधि के उद्दीपन सम्पूर्णता में हमारी चेतना द्वारा सम्पोषित नहीं हो सकते, किसी न किसी वजह से उन्हें दुरुस्त करने के लिए हम विवश होते हैं। अत: आत्मगत वर्तमान को परिभाषित किया जा सकता है। वह वैसा ही विशिष्ट और यथार्थ है जैसा हमारे पैरों के जूते का साइज़।

तथाकथित तालमान (Metronome) परीक्षण भी वही परिणाम देता है। हमारे सांगीतिक प्रयासों का बेरहम कमान अधिकारी तालमान, जैसा हमें पता है, एक नियत समयांतराल पर टिकटिकाता है और प्रत्येक आघात एक-सा होता है। तब भी, एक तालमान को सुनते हुए, हम आसानी से अनुभव कर सकते हैं कि पहला आघात सशक्त और बाद वाला उससे कमजोर। आत्मगत रुप में सशक्त और कमजोर आघातों का प्रत्यावर्तन 'टिक्-टॉक्, टिक्-टॉकका समय-संयुक्त संघटन उत्पन्न करता है; दो अनुवर्ती आघात अनबोधन की एक इकाई निर्मित करते हैं और अविच्छेद्य होते हैं। वे परस्पर इस सीमा तक सम्बद्ध होते हैं कि यदि एक 'टिक्या 'टॉकका अचानक लोप हो जाए, तो हम उसे अपने मस्तिष्क में सुनते हैं। किंतु ऐसा उसी अवस्था में होता है, जब दो आघातों के मध्य समयांतराल दो या तीन सेकंड से अधिक न हो। अधिक होने पर, हम आत्मगत बलाघात (accent) और प्रतिरुप (Pattern) निर्मित करने में कतई सक्षम नहीं होते।

निस्संदेह, मनोवैज्ञानिक वर्तमान क्षण का अन्वेषित आयाम महत्वपूर्ण व्यावहारिक परिणामों वाला हो सकता है। उदाहरण के लिए, कलाओं में वह एक सार्विक मूलभाव (Universal key) के जैसा होगा। विशेषकर क्लासिक अथवा रोमांटिक परम्परा की प्रत्येक सांगीतिक रचना में उसकी आधारभूत गति निहित होती है- एक संगीतकार जिसका या तो निर्वाह करता है अथवा उसे तोड़ता है। इस गति का वर्तमान क्षण के आयाम से कुछ न कुछ संबंध होना चाहिए। ऊपर जिन मनोवैज्ञानिक खोजों का उल्लेख हुआ है, उनसे अवगत संगीतविदों ने पिछले दिनों मोत्सार्ट के संगीत का परीक्षण किया। कई स्वतंत्र रूप से किये गये परीक्षणों से सिद्ध हुआ कि मोत्सार्ट के सांगीतिक 'मोटिऔसतन दो या तीन सेकंड के होते हैं। पारम्परिक कविता के उत्तुंग प्रांतर में हुए शोधों ने भी इस 'वर्तमानकालिक ढाँचे’ (Present-time frame) की पुष्टि की है। ग्रीिफयस से लेकर ह्यूमो फॉन हाफ्यान्स्ठल तक 75 फीसद जर्मन कविताओं में सघोष पढ़ी जाने वाली पंक्तियों की अवधि दो से तीन सेकंड के मध्य होती है। चार सेकंड से अधिक अवधि की पंक्तियां या तो छोटे खंडों में विभक्त होती हैं या उन्हें विभक्त किया जा सकता है और आवृत्तिकर्ता, पंक्ति के मध्य में, हल्की किंतु सुस्पष्ट यति देता है। गोटे की कविताओं की पाठ-प्रस्तुतियों के विश्लेषण से पता चलता है कि कम वर्णों वाली किसी पंक्ति को सुस्पष्ट रुप से अधिक धीरे-धीरे, अथवा अपेक्षाकृत दीर्घ यति के साथ पढ़ा जाता है। ग्रीक और लैटिन महाकाव्यों की षट्पदियां, सशक्त यतियों के जरिये, दो-तीन सेकंड के खंडों में विभक्त हैं और वहीं काल-इकाई (time unit ) अंग्रेजी, फ्रांसी, जापानी, चीनी आदि भिन्न भाषाओं की छंदोबद्ध कविता में भी लक्ष्य की गई है। (एफ. टर्नर एवं ई. पॉपेल, 'पोयट्री’, 1983)

टर्नर और पॉपेल की यह तीन सेकंड की काव्य 'प्रणालीकिसी भी भाषा-पद्धति की पारम्परिक काव्य-सरणियों की 'संवाहक तरंग’ (Carrier wave) की भूमिका अदा करती प्रतीत होती है। एक भाषिक कला के रुप में कविता अनुमानत: बायें मस्तिष्क पिंडक द्वारा संसाधित होती है। किंतु उक्त 'प्रणालीपर आधारित वृत्त या चंद आशय को किसी चित्र अथवा राग की तर्ज पर वहन करता है और दायें मस्तिष्क के संसाधन को बायें मस्तिष्क की सक्रियता में समाकलित कर देता है। इस प्रकार 'वह छंदोबद्ध भाषा हम तक एक 'स्टीरियोविधि से आती है - (मस्तिष्क गोलार्धों के) बायीं ओर की शाब्दिक युक्ति और दायीं ओर की लयात्मक अंत:शक्ति के साथ-साथ गुजरते हुए।साथ ही, छंद या वृत्त 'स्पष्टतया वक्ता को श्रोता-समूह से समक्रमिक (synchronise) करता है और एक ''लयबद्ध भागीदारी’’ को उभाड़ता है, जो ''सामाजिक एकात्मकता’’ के लिए अनिवार्य है।लोगों की विशाल उपस्थिति और तन्मयता, कविता अधिक से अधिक यही कर सकती है।

टर्नर और पॉपेल अपने शानदार निबंध में छंदोबद्ध कविता के 'सांस्कृतिक सामान्य प्रत्यय’ (cultural universal ) के लिए एक सशक्त पक्षवाद तैयार करते हैं और मुक्तछंद को उसके दायरे से बाहर रखते हैं।

चेक टीवी कार्यक्रम 'दि संडे नाइट पोएम्समें मैं किंचित् लघुशोध का दायित्व वहन कर चुका है। कविताएं नेज़वाल (Nezval ) की थीं और भलीभांति उनका पाठ किया गया था। एक पंक्ति लगभग ठीक तीन सेकंड में समाप्त होती

। छोटी पंक्तियों को धीमी पाठ-गति से अथवा यतियों के द्वारा बढ़ाया गया था और लंबी पंक्तियों को एक द्रुततार   ताल के द्वारा घटाया गया था। मैं लगभग घबराया हुआ था और महसूस कर रहा था कि मुझे क्षमायाचना करनी होगी। लेकिन दरअसल किस बात के लिए? प्रतिष्ठित कवि, सहज भाव से, पुराने समय से चले आ रहे नियम से यथावत् जुड़ा हुआ था और अपनी मुक्त बंद कविता में उसे घटित किया था। मैं गलत हो सकता हूं, हरदम की तरह, किंतु इस विचार से इधर-उधर नहीं हो सकता कि कम से कम कुछेक भाषाई और सांस्कृतिक संदर्भों में यह 'पंक्तिसार्थक 'सबस्ट्रक्चर्समें प्रविभाजित हो सकती है, किंतु बुनियादी तौर पर एक अच्छी मुक्तछंद कविता तीन सेकंड के 'अनुभव खंडोंसे परिचालित होती है। वे अनुभव खंड 'बौद्धिक श्वसन यतियों’ (Intellectual breathing pauses), सादृश्यताओं, अनुनादों से एकल इकाइयों में प्रवर्तित होते हैं। इसके अतिरिक्त, मुक्तछंद, हमारे सांस्कृतिक संदर्भ में, छंदोबद्ध कविता की एक सुदृढ़ परम्परा में परिचालित होता है और पारम्परिक काव्य-संरचनाओं की पृष्ठभूमि के विपरीत एक प्रतिवाद या निषेध के रुप में न देखा जाकर प्राचीन 'काव्य-स्वभावके एक रुप-भेद के रुप में देखा जाता है। मुक्त छंद की सामाजिक भूमिका के बारे में, टर्नर और पॉपेल के निष्कर्ष के विपरीत, हमारे अनुभव में मुक्तछंद, कविता में व्यापक सामाजिक सरोकार एक औजार के रुप में आविर्भूत हुआ, पारम्परिक छंदों के कोमलकांत और मंद-मधुर प्रभाव से अनावृत, राजनीतिक विश्ष्टिताओं के एक संवाहक के रूप में। यह, निजी अनुभवों के बजाय, अभिप्रायों-सामान्य अभिप्रायों के 'अनुभव-खंडों’ - पर केंद्रित बौद्धिक विश्लेषण का एक उपकरण है। अधिकारसंपन्न, संतुष्ट वर्ग के किसी ऐसे संस्थान किंवा प्रतिष्ठान की जानकारी मुझे नहीं है, जो (जैसा टर्नर - पॉपेल का प्रस्ताव है) मुक्तछंद को पसंद करता हो। यथास्थिति के पैरोकार ऐसे बहुत से लोगों को मैं जानता हूं जो महज पारम्परिक किस्म की लयबद्ध कविताओं में ही अपनी साहित्यिक अभिरुचियों की शरणस्थली तलाशते हैं।

अब हम सामान्य दैनंदिन वक्तृता पर आते हैं, जिसमें विशेषज्ञों (म्युनिख के पापेल स्कूल के) ने मोटामोटी मिली सेकंड विरामों, जो कुछ मामलों में दसियों सेकंड तक जा सकते हैं, का अनैच्छिक अन्निवेश लक्ष्य किया है। ये विराम प्रत्येक तीन सेकंड पर शाब्दिक प्रवाह को विघटित करते हैं। उनका कहना है कि इस 'बौद्धिक श्वसन विरामके दौरान उत्तरवर्ती वक्तृता इकाई (speech unit) पूर्व-योजित (pre-programmed) होती है; कतिपय सौभाग्यवान व्यक्तियों में विचारणा अथवा चिंतन भी पूर्व-योजित हो सकता है। इसी रुप में यह बच्चों पर भी लागू होता है; बशर्ते घरेलू या स्कूली दबावों और निंदा की आशंका से वे सिटपिटाये हुए न हों। चीनी वक्ताओं पर भी यह विश्लेषण लागू होता है, क्योंकि आत्मगत वर्तमान क्षण भाषा, व्याकरण और वाक्य विन्यास से मुक्त होता है। अपवाद हैं वे, जो परिशुद्धता की दृष्टि से अपने वक्तव्य को लिखित मसौदे से पढ़ते हैं। बौद्धिक श्वसन विरामों द्वारा वक्तृता का खंडीकरण इतना तात्विक है कि उसका अनुकरण लगभग असंभव है। आशु वक्तृता का ढोंग करते रटे-रटाये वक्तव्य का अरुचिकर स्वरुप इसी तथ्य में निहित है कि उसमें कालगत इकाइयों, संरचना और स्वाभाविक विरामों का अभाव होता है।

मनोवैज्ञानिक वर्तमान का आयाम संभवत: सिर्फ वक्तृता से संबंधित नहीं है; वक्तृता निरुपण-निदर्शन और मूल्यांकन के लिए उपयुक्त एक 'िफनॉमेननहै। मैं यह सोचने की हिम्मत जुटा रहा हूँ कि वर्तमानकालिक ढाँचे (Present-time pranos) चिंतन और अनुभूति की प्रक्रिया में भी विकसित हैं और चेतना में निहित सभी कुछ उन नन्हें पहलुओं में घटित होता है। आप किसी के मस्तिष्क में तो प्रवेश कर नहीं सकते, किंतु कम से कम यह तो पूछा ही जा सकता है कि जब आप चिंतनरत होते हैं, तो आपके भीतर विचार क्या अबाधिक रुप में, एक-से प्रवाहित होते हैं, संक्षिप्त परीक्षणों, विरामों पूर्ववर्ती विचारों की समीक्षाओं, नये विचारों का प्रसरण उनमें सन्निहित नहीं होता?

और; हम आिखरकार कितनी देर तक प्रसन्न रहते हैं? कसे जूतों को उतारने के अपने सुपरीक्षित और पुन: पुन: दुहराये जा सकने वाले मॉडल का उपयोग करते हुए, नहीं कह सकता कि उन्हें उतारने के बाद दस मिनट भी मैं प्रसन्न रह पाया। 'आह!’ 'अब ठीक!के साथ-साथ जूतों के कसे होने की लानत-मलामत करने की कुछ सेकंडों की अवधि भले प्रसन्नता की अवधि मान ली जाए! और फिर अगले दो सेकंड... मुझे भरपूर रुप में लगता है कि हम मात्र खंडों और अंतरालों में घटित होते हैं। प्रोजेक्टर पर चढ़ी फिल्म स्ट्रिप के झिलमिलाते फडफ़ड़ाते फ्रेमों के जैसे फ्रेमों से हम संघटित हैं - फर्श पर बिछे सर्पिल फंदों में लहरें दबाते, उठते-गिरते हुए। यही तो है क्षण-भर पहले की विगत की स्थिति!

और चूँकि हम आश्वस्त हैं पूरी तरह के विगत, विगत है और वह संशोधित होगा, और आगत, आसन्न आगत भी, निश्चय ही बेहतर-इनी-गिनी चूकों वाला- होगा; चूँकि हम अपने स्वयं के विगत से पूरी तरह पृथक हैं और उनके प्रति आलोचनात्मक और अपने आसन्न आगत के प्रति आशावान, अत: कुछेक सेकंडों का वर्तमानकालिक ढाँचा (Present-time pranos) हमारे अहम् की अप्रतिबंधित अभिव्यक्ति है। इन अर्थों में, हमारे अहम् की अवधि भी तीन सेकंड ठहरती है - शेष सब या तो आशा है या एक उलझन-भरा प्रसंग। सामान्यत: दोनों।

 

 

 

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