इल्म और अक्ल के रास्ते दीन और दुनिया को देखने वाला बादशाह

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    अप्रैल 2018
श्रेणी इल्म और अक्ल के रास्ते दीन और दुनिया को देखने वाला बादशाह
संस्करण अप्रैल 2018
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





क़िताबें/शाजी जमां का उपन्यास 'अकबर'







'पचास बरस की हुकूमत में बादशाह सलामत जिस मुहिम पर गये वहां फतह हासिल की । ना एक जंग हारे, ना ही हिंदुस्तान के बाहर से किसी की हमला करने की हिम्मत हुई।'
'इस साल बादशाह सलामत दीन और दुनिया, दोनों की पेशवाई चाहते थे क्योंकि किसी के नीचे होना उन्हें बहुत बड़ा बोझ लगता था। ... ये बहुत अहम लम्हा था बादशाह सलामत की जिंदगी का। जामा मस्जिद के मिंबर से उन्होंने खुला एलान कर दिया कि वो दुनिया ही नहीं, दीन में भी किसी के नीचे नहीं हैं।'
'सुल्तान जलालुद्दीन अकबर ने जो बहुत सी गलत और इस्लामी शरीयत के खिलाफ बातें लागू कीं उनमें से एक ये थी कि गाय का गोश्त खाना हराम कर दिया गया। इसकी वजह ये थी कि बादशाह बचपन से ही कट्टर मजहबी हिंदुओं के साथ उठता-बैठता था और गाय का एहतराम करना हिंदुओं के अकीदे के मुताबिक दुनिया की सलामती का सबब है और भारत के बहुत-से हिंदू राजाओं की बहुत-सी लड़कियां जो हरम में दाखिल थीं, वो बादशाह के मिजाज में बहुत दखल देती थीं। और बादशाह गोमांस, लहसुन और प्याज के खाने और दाढ़ी वाले और इस तरह के लोगों से परहेज करने लगे थे।'
'अलग-अलग तरह के लोगों का होना खुदाई ताकत है... वो पूरी दुनिया के साथ सुलहे-कुल पर कायम रहें। नेक ख्वाहिशात रखना और नसीहत देना दोनों ही हर इंसान के लिये मुनासिब है। अक्ल के रास्ते पर आने वाला हर इंसान खुशनसीब है और पुरानी रीत की बंजर जमीन में दुखी रहने वाले इंसान मजबूर हैं। खुदा को किसी भी रास्ते से जानना और उसकी इबादत करना अच्छा है। जिस्म की हरकतों को खुदा की इबादत समझने वाले नासमझ को रोकना ऐसा ही होगा जैसे खुदा को याद करने से रोकना।'
शाजी जमां के उपन्यास 'अकबर' से उद्धृत उपर्युक्त विचारों को देखने से अकबर की मानसिक बुनावट समझ में आती है। उनकी बादशाहत पर इतिहास में बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं, जो उन्हें महान सिद्ध करती हैं लेकिन वे युद्ध जीतने और दुनिया के बहुत बड़े भाग पर शासन करने मात्र से संतुष्ट नहीं थे। वे बेचैन आत्मा थे, इसलिये बार-बार अक्ल पर जोर देते हैं। अक्ल पर जोर केवल शासन में ही नहीं बल्कि दीन के मामलों को भी वे अक्ल के द्वारा सुलझाना चाहते थे। यह एक प्रकार की विचित्रता है, यह सामान्य स्थिति नहीं है इसलिये वे अपने पिता और दादा से अलग प्रकार के शासक थे। शाजी जमां ने लगभग बीस वर्षों तक अथक परिश्रम कर अकबर से संबंधित समस्त दस्तावेजों को बारीकी से पढ़ा और उस बेचैनी के कारणों को ढूंढ़ा जो उन्हें अक्ल के रास्ते पर ले जा रही थी। इतिहास में तथ्यों के साथ अकबर के युद्धों, उनकी नीतियों, उनकी शासन व्यवस्था आदि पर विस्तार से विचार होता रहा है पर अकबर के दिमाग में ऐसा क्या चलता रहता था, जो उन्हें अलग तरह का बादशाह बनाता है, इस पर तो विचार उपन्यास में ही हो सकता था। उपन्यासकार के लिये इतिहास के तथ्य बहुत अधिक माने नहीं रखते बल्कि उसके लिये वह मानसिक गहमागहमी अधिक उपयोगी है, जिससे पूरे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। शाजी जमां ने इसी मानसिक उधेड़बुन के माध्यम से अकबर के चरित्र को रचा है, जो पठनीय ही नहीं बल्कि चौंकाने वाला भी है। अकबर सही अर्थों में अपने निर्णयों से चौंकाते हैं, एक ओर वे अपनी प्रजा और इस्लाम मानने वालों को आश्वस्त करते हैं तो दूसरी ओर मुल्ले और मौलवियों से तथा चमत्कारी पीरों से सावधान रहने की चेतावनी भी देते हैं। वे हर धर्म और धर्मावलंबी को इतनी स्वायत्तता देते हैं कि वह बिना किसी भय के अपना पक्ष रख सके। इसी सिलसिले में जब ईसाई पादरी अकबर को ईसाई बनाने में कामयाब नहीं हो सके तब उन्होंने निराशा प्रगट करते हुये उनके दरबार में कुछ न हासिल होने की बात कही तो अकबर को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने पलटकर जवाब दिया 'हम मानते हैं कि हमने आपको सच जानने और समझने के लिये बुलाया ताकि हम उस कायदे को कुबूल करें और मानें जो हमारी नजर में सबसे ज्यादा अक्ल के मुताबिक है। लेकिन अब हम दकन जा रहे हैं जहां हम गोवा के बहुत पास रुकेंगे। वहां हमें दूसरे मामलात की फिक्र कम होगी और आपकी बात पर ध्यान देने का बहुत वक्त होगा। आपको हमारे पास इसलिये भेजा गया है क्योंकि हमारी खास ख्वाहिश है आप से बात करें और आपको सुनें। लेकिन आप ये कैसे कह सकते हैं जो वक्त आपने हमारे साथ गुजारा वो किसी काम का नहीं। पहले मुसलमानों का हमारी सल्तनत में इतना रुतबा था कि अगर कोई कहता कि ईसा मसीह असली खुदा हैं तो उसे सीधे मौत के घाट उतार दिया जाता, जबकि आप अब बिना खतरे के ये बातें लोगों के बीच जा कर कह सकते हैं और अपने दीन का प्रचार कर सकते हैं।' यह खुलापन अकबर की देन है, धर्म की यह स्वतंत्रता उनकी अपनी दीनी ईमान की देन है, वे हर धर्म को यह अवकाश देते थे कि वह दूसरों की उपेक्षा करके या तलवार के बल पर अपनी ताकत न दिखाये बल्कि वह अपनी विशेषताओं के बल पर स्वाभाविक रूप में लोगों की भावनाओं को जीते। वे किसी भी प्रकार की धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध थे इसीलिये अपने बेटे मुराद को उन्होंने पत्र लिखकर चेतावनी दी थी कि 'मजहब का फर्क सल्तनत के काम में आड़े ना आये। बदला लेने में खून खराबा ना हो। ऐसी किताबें पढ़ो जिनसे इल्म हासिल हो और इल्म को जिंदगी में अमल में लाओ। साधु-संतों, जटाधारी और नंगे पांव रहने वालों का दिल जीतो।' ये नसीहत उन्होंने अपने प्रिय बेटे मुराद को दी थीं, वे मुराद को बहुत प्यार करते थे और प्यार में उसे पहाड़ी कहा करते थे, उसका जन्म फतेहपुर सीकरी की पहाडिय़ों पर हुआ था। कहना न होगा कि इसी तरह की नसीहतें उनके दादा बाबर ने उनके पिता हुमायूं को अपनी वसीयत में लिखी थीं ' बेटा! हिंदुस्तान की सरजमीं में हर मजहब को मानने वाले लोग रहते हैं। अलहम्दोलिल्लाह इस मुल्क की बादशाहत तुम्हें सौंपी गई है। अपने दिल से भेदभाव दूर करके इंसाफ  करो। खास तौर पर तुम गाय की कुर्बानी ना करो। इससे तुम हिंदुस्तान के लोगों का दिल जीत लोगे और लोग बादशाहत से जुड़ेंगे। सल्तनत में रहने वालों की इबादतगाहों को गिराओ मत। इतना बराबरी का इंसाफ  करो कि लोग अपने बादशाह से खुश हों और बादशाह लोगों से। इस्लाम जुल्म की तलवार से नहीं, नरमी से आगे बढ़ेगा। शीया-सुन्नी झगड़ों की तरफ  से आंख मूंद लो वरना इस्लाम कमजोर होगा।'
आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व की ये नसीहतें आज और अधिक मौजूं हो उठी हैं, जब हिंदू और मुस्लिम कट्टरता अपने क्रूर और भयावह रूप में सामाजिक समरता के लिये खतरा बनती जा रही है। हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद दोनों शब्द जुड़े हुये हैं लेकिन धर्मनिरपेक्षता को जितना खतरा आज है, इससे पहले कभी नहीं रहा। मुगल बादशाहों और अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक बुनावट में किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की, बल्कि उसे मजबूत ही किया। लेकिन अब उसे समाप्त करने की हरदम कोशिश की जा रही हैं। शिक्षण संस्थानों में ऐसे लोगों को बैठाया जा रहा है, जो एक धर्म का प्रचार करते हैं, जबकि शिक्षण संस्थान तो इस प्रकार की संकीर्ण मानसिकता के विरोधी होने चाहिये। उनमें वैज्ञानिक सोच को प्रमुखता दी जानी चाहिये ताकि विवेक और तर्क का बोलवाला हो। जो संस्थाएं मजबूती के साथ अपना काम कर रही थीं, उन्हें कमजोर किया जा रहा है और उन्हें ऐसी संस्थाओं के रूप में ढाला जा रहा है जो एक धर्म में रंगी विचारधारा को आगे लेकर आ रही हैं । पाठ्यक्रमों में परिवर्तन कर इस देश की गंगा जमुनी संस्कृति को नष्ट करने के प्रयास किये जा रहे हैं। एक प्रकार से आतंक जैसा वातावरण निर्मित कर दिया गया है, जिसमें कोई आदमी अपनी बात खुलकर कह सकने में भय का अनुभव करता है। फेसबुक और अन्य सोशलमीडिया तक पर पहरा बैठा दिया गया है। लोकतंत्र में कुछ ऐसे माध्यम जरूरी होते हैं जहां सरकार के विरुद्ध लिखने की छूट होती है। मीडिया और सोशलमीडिया की पाबंदी आपातकाल में जनता ने देखी थी और उसके परिणाम सरकार ने देखे थे। इन स्थितियों में मुगल बादशाहों के दस्तावेज चौंकाते हैं जो राज्य तो तलवार के बल पर जीतते रहे लेकिन धर्म के मामलों में तलवार के प्रयोग से बचते रहे। बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर और शाहजहां ने जिस प्रकार हर क्षेत्र में मानक बनाये, उसके मूल में उनकी उदार नीति ही थी। इतिहास केवल अतीत का लेखा-जोखा ही नहीं है बल्कि वह हमें सबक भी सिखाता है। उत्तर पूंजीवादी समय में भी वे सबक हमारे जैसे बहुधर्मावलंबी देश के लिये उपयोगी और प्रासंगिक बने हुये हैं। मुस्लिम आक्रांता कहकर मुगल बादशाहों की देन को नकारना अपने को धोखे में रखना है। शाजी जमां उन तथ्यों को बार-बार रेखांकित करते हैं जिनके आधार पर आधुनिक भारत की नींव रखी गई है। इतिहास का यह सफल प्रयोग है।  वे इतिहास नहीं लिख रहे थे और न ऐतिहासिक उपन्यास बल्कि इतिहास की उजागर घटनाओं के पीछे जो महत्वपूर्ण सूत्र छिपे हुये थे, वे उन्हें ढूंढ़ते हुये उपन्यास को आगे बढ़ाते हैं।
अकबर का आरंभिक जीवन विडंबनाओं से भरा हुआ है । उनके जन्म के लगभग दो वर्ष पहले मई, 1540 में उनके पिता हुमायूं को कन्नौज के युद्ध में शेरशाह ने परास्त कर भगा दिया था। युद्ध में पराजित हुमायूं के पास दोपहर में 'सत्रह हजार लोग थे और जब उन्होंने भागते-भागते नदी पार की तो वो अकेले थे, न सर पर कुछ था ना पांव में। इस जंग में पांव ऐसे उखड़े कि वो फिर कभी शेरशाह के जीते जी अफगान ताकत का मुकाबला नहीं कर पाये।' दिल्ली से दूर उमरकोट के राणा प्रसाद के यहां 15 अक्टूबर, 1542 को अकबर का जन्म हुआ तब हुमायूं उनसे तीस मील दूर थे। जिस काबुल को उनके पिता ने उनके सौतेले भाई कामरान को दिया था, वह नहीं चाहता था कि हुमायूं यहां आयें। भाइयों के झगड़े के कारण हुमायूं भागते फिर रहे थे लेकिन कोई ऐसी सुरक्षित जगह नहीं थी, जहां वे रह सकें। शाजी जमां ने उस भयावह स्थिति का जिक्र किया है, जब कामरान और हुमायूं-दोनों भाइयों के बीच काबुल को लेकर युद्ध हुआ, तब कामरान ने बच्चे अकबर को किले की सफील पर बैठा दिया था जहां सबसे अधिक गोलाबारी हो रही थी 'जन्नत आशियानी हुमायूं बादशाह का ध्यान उस दिन की तरफ  चला गया जब मिर्जा कामरान काबुल पर कब्जा किये बैठे थे और खुद उनकी फौज का बाहर घेरा था। पौने पांच बरस के बेटे जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर अंदर काबुल में मिर्जा कामरान के पास थे। शाही लश्कर के ना जाने कितने ऐसे थे जिनका खानदान अंदर काबुल में था और वो खुद काबुल पर हमला कर रहे थे। मिर्जा कामरान ने उनके घरों को लूट लिया, उनके बच्चों को मार-मार कर फसील पर से फिंकवा दिया और उनकी औरतों को छातियों से बांध कर लटका दिया। एक रोज जन्नत आािशयानी हुमायूं बादशाह की फौज शहर पर हमला कर रही थी। अचानक मीरे आतिश सुंबुल खान को लगा कि जिस तरफ  सबसे ज्यादा गोलीबारी हो रही है वहां कोई बैठा है। हकीकत पता चली तो हुमायूं बादशाह के होश उड़ गये। मिर्जा कामरान ने गोलीबारी का सामना करने के लिये जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर को किले की फसील पर बैठा दिया था।' कहना न होगा कि कामरान अकबर के चाचा थे लेकिन सत्ता के संघर्ष में रिश्तों का कोई अर्थ नहीं होता। कामरान के लिये अकबर अपने सौतेले भाई हुमायूं का बेटा था जो उनसे काबुल छीन लेना चाहता था। 'भाईचारे का हुकूमत से कोई ताल्लुक नहीं। अगर भाई की तरह बर्ताव करना चाहते हैं तो तख्त छोड़ दीजिये। अगर बादशाह की तरह बर्ताव करना चाहते हैं तो भाईचारा छोड़ दीजिये।' जो लोग कट्टरता की आड़ में इतिहास की नई व्याख्या कर अकबर और महाराणा प्रताप के युध्द को हिंदू मुस्लिम नजरिये से देखना चाह रहे हैं, यह पाठ उनके लिये जरूरी सबक की तरह है। सत्ता के संघर्ष में न कोई हिंदू है और न मुसलमान। हल्दीघाटी के युद्ध में सारी लड़ाई अपने फूफा अकबर के लिये जयपुर के राजा मानसिंह ने लड़ी थी। महाराणा प्रताप और मानसिंह दोनों राजपूत थे लेकिन दोनों के हित अलग-अलग थे। पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार हिंदुत्व का उभार हुआ है, उसमें एक अजीब प्रकार की कट्टरता आई है, जो उसके स्वभाव में नहीं है फिर भी उस पर लादी जा रही है। इसका दुष्प्रभाव यह है कि इससे कुछ नासमझ लोग त्वरित निर्णय कर इतिहास को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। मेवाड़ के कुछ अनाम इतिहासकार हल्दीघाटी के युद्ध को राणा प्रताप के पक्ष में दिखाकर अपनी मूंछों पर ताब दे रहे हैं। सवाल यह है कि हम इतिहास से क्या सीख रहे हैं? इतिहास सबसे बड़ी नसीहत है। हुमायूं भागते-भागते फारस पहुंचे तो वहां के शाह तहमास्प ने पूछा था कि आपकी पराजय के कारण क्या हैं?  हुमायूं ने तुरंत जवाब दिया 'भाइयों की दुश्मनी।' हल्दीघाटी जैसे युद्ध अब हार-जीत पर तय नहीं होंगे बल्कि इस आधार पर तय होंगे कि देशी राजाओं की आपसी फूट ऐसे युद्धों के हार का कारण बनी थी। शाजी जमां ने मानसिंह के उदयपुर जाने की घटना का जिक्र किया है, जो आपसी फूट और परस्पर घृणा का नायाब उदाहरण है। 'चित्तौड़ की फतह के बाद और हल्दीघाटी की फतह से पहले जब कुंवर मानसिंह मेवाड़ पहुंचे तो उदय सागर तालाब के किनारे गोठ का इंतजाम हुआ। कहते हैं जब मानसिंह खाने पर बैठे तो पाया कि महाराणा प्रताप सिंह मौजूद नहीं हैं। पूछने पर जवाब मिला, महाराणा के पेट में गिरानी है।
'गिरानी की दवा मैं खूब जानता हूं। अब तक तो आपकी भलाई चाही लेकिन आगे होशियार रहिये। कुंवर मानसिंह का ये जवाब जब महाराणा प्रताप सिंह तक पहुंचा तो उन्होंने ठाकुर भीम सिंह के जरिये कहलवा दिया, आप अपनी ताकत से आयेंगे तो मालपुरे तक पेशवाई की जायेगी। अगर अपने फूफा के जोर से आयेंगे तो जहां मौका होगा वहां खातिर करेंगे। महाराणा प्रताप सिंह ने सीधे मानसिंह के फूफा जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का जिक्र किया। मानसिंह बिना खाये उठ गये। अन्न का अनादर ना हो इसलिये बस कुछ दाने उठाकर पगड़ी में रख लिये और कहा, आपके सम्मान की रक्षा के लिये हमने अपने सम्मान का बलिदान दिया और अपनी बहन-बेटियां तुर्कों को दीं। परंतु यदि यही आपकी इच्छा है तो अब आप संकटों में ही रहें क्योंकि ये देश तो अब आपको अपने में रख नहीं सकेगा।
'ठाकुर भीमसिंह ने कहा, तुम जिस हाथी पर चढ़कर आओगे उसी पर भाला मारूं तो मेरा भी नाम भीमसिंह है। कुंवर मानसिंह उदय सागर से तमतमा कर चल दिये तो ठाकुर भीमसिंह ने पीछे से कहा, अपने फूफा को लेकर जल्दी आना। कहते हैं कि कुंवर मानसिंह के जाते ही महाराणा ने पूरा खाना और सोने चांदी के बर्तन तालाब में फिंकवा दिये। जिस जगह पर खाना लगा वहां पर दो गज जमीन खुदवा कर गंगाजल छिड़का गया और सभी राजपूतों ने नहाकर कपड़े बदले।' कहना न होगा कि मानसिंह के सामने जिस भाषा का प्रयोग किया गया वह भाषा मेल-मिलाप की नहीं थी और उनके जाने के बाद जिस प्रकार की कार्यवाही की गई वह नफरत से बजबजा रही मानवीय प्रवृति की निशानी है। महाराणा प्रताप की दृष्टि से देखें तो राजपूत होकर मानसिंह द्वारा अकबर का साथ देना गलत था लेकिन मानसिंह और उनके परिवार का जो रिश्ता अकबर के साथ था, वह अब केवल राजपूत और मुगलों का रिश्ता नहीं रह गया था। इतिहास को समझने के लिये राजपूत राजाओं के इस पक्ष को भी देखा जाना चाहिये कि अकबर की 34 बेगमों में से अधिकांश राजपूत राजाओं की बहन बेटियां थीं। यही कारण था कि अकबर का बेटा सलीम जयपुर राजपरिवार की बेटी से था तो उसका बेटा खुर्रम जोधपुर के राजघराने की बेटी से। यह भी दिलचस्प है कि इन रिश्तों की पैरवी फारस के शाह तहमास्प ने हुमायूं से की थी 'जो अफगान हैं उन्हें कारोबार में लगायें। जो राजपूत हैं उनसे रिश्ते बनायें, शादी करें क्योंकि जमींदारों का दिल जीते बिना हिंदुस्तान में रहना मुमकिन नहीं।' अकबर ने इस परंपरा का निर्वाह किया। 'अपनी चचेरी और फुफेरी बहन और आगरा के शेख बुध की बहू के अलावा आमेर के राजा भारमल, बीकानेर के राय कल्याणमल, नगरकोट के राजा जयचंद और डूंगरपुर के रावत आसकरण के खानदान से शादी का रिश्ता जोड़ चुके थे। बीकानेर में तो वो दो शादियां कर चुके थे।' शादियों का ये रिश्ता बहुत दिनों तक कायम रहा, ये शादियां कहीं राजनीतिक संबंधों के कारण थीं तो कहीं मेल-मिलाप की रणनीति के तहत।
शाजी जमां ने इस बात का जिक्र बहुत मजबूती के साथ किया है कि अकबर को डिस्लेक्सिया की बीमारी थी इसलिये न वे पढ़ पाये और न पढऩे-लिखने में उनकी कोई रुचि थी लेकिन हर रोज रात में घंटों बैठकर ध्यान से किताबें सुनना उन्हें अच्छा लगता था। अपने पिता और दादा के इतिहास से लेकर धार्मिक किताबों के प्रति उनका जबर्दस्त आकर्षण था। उनकी स्मृति गजब की थी, वे एक बार जिस बात या घटना को सुन लेते उसे कभी भूलते नहीं थे। डिस्लेक्सिया की बीमारी के बावजूद उनकी तर्क शक्ति और मेधा में कोई कमी नहीं थी। वे गाने वाले की आवाज दूर से सुनकर उसकी उम्र बता सकते थे, कई प्रकार के वाद्ययंत्रों को बजाने की कला उन्हें आती थी, वे अप्रतिम निशानेबाज थे, सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव रखते थे तथा हर अच्छी बात को जानने के लिये उतावले रहते थे। उनकी तर्कशक्ति के बारे में ईसाई पादरियों ने अपने पत्रों में खूब लिखा है। ईसाई पादरियों का मानना था कि अकबर उनकी बात मानकर ईसाई हो जायेगा लेकिन सहजता से किसी बात को स्वीकार कर लेना अकबर की फितरत में ही नहीं था। वे हर बात को अपनी तर्कशक्ति पर कसकर देखते थे। शाजी जमां ने इस तथ्य का कई बार जिक्र किया है कि जिस बादशाह ने ईसाई पादरियों को खुद बुलवाया था, वह उनकी बातों को ध्यान से सुनता तो है लेकिन विश्वास नहीं करता 'एक रोज बादशाह सलामत ने पादरियों के छोटे-से गिरजाघर में आकर ईसा मसीह और बीबी मरियम की तस्वीर के सामने अपना ताज उतार कर हिंदू, मुस्लिम और ईसाई तरीके से इबादत की। बादशाह सलामत ने कहा, खुदा की हर तरह से इबादत होनी चाहिये। फिर बादशाह सलामत वहीं जमीन पर पादरियों के साथ बैठकर बोले, हम समझते हैं कि ईसा मसीह की करामात एक इंसान से बढ़कर हैं लेकिन हमें बहुत शक है कि खुदा के बेटा कैसे हो सकता है? बाकी सब कानून से हम मुतमईन हैं। बस ये बात समझ में आ जाये तो हम ईसाई हो जायेंगे।' अकबर की इन बातों को सुनकर ईसाई पादरियों को यह भरोसा हुआ कि वे उन्हें ईसाई बना लेंगे लेकिन उनके तर्क करने और दीन के मामले में लगातार बोलने के कारण उनका मन पूरी तरह आश्वस्त नहीं था। 18 जुलाई, 1580 ईसवी को रूडॉल्फ  एकुआवीवा ने ईसाई समाज के प्रमुख पादरी को चिट्ठी लिखकर कहा 'बादशाह सलामत के धर्म बदलने पर हमें शक है। पहले तो ये कि वो हर चीज पर शक करते हैं और इसलिये काफी नहीं कि उन्हें दीन के राज दीन की किताब के जरिये समझा दिये जायें, बल्कि वो अपनी अक्ल से इसे समझना चाहते हैं।' कहना न होगा कि अक्ल से धर्म को नहीं समझा जा सकता, धर्म भावना और भावुकता की वस्तु है। कश्मीर से लेकर दुनियाभर में जिस आतंकवाद को फैलाया जा रहा है, वह तर्काधारित नहीं है, उसके पीछे पेट्रो डॉलर के साथ एक ऐसी भावुक कल्पना है जो तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। कोई धर्म बेगुनाहों का खून बहाने के लिये नहीं कहता, हर धर्म मानवीयता को ही अपना आधार मानता है लेकिन चाहे मुस्लिम कट्टरपन हो या हिंदू कट्टरता-दोनों ही भावुकता की थोथी बुनियाद पर खड़ी होकर अपना झंडा फहरा रही हैं। जिस दिन उन्हें तार्किक आधार पर समझाने की कोशिश की जायेगी उसी दिन उनकी भावुकता की जमीन खिसकने लग जायेगी। एक समय तक गुंडे और माफियाओं की सांठगांठ से राजनेता अपनी रोटियां सेकते थे लेकिन अब धार्मिक मठों, साधु-संतों और मुल्ले-मौलवियों की सांठगांठ से राजनेता अपनी विजय सुनिश्चित कर रहे हैं। गुजरात में आसाराम बापू और हरियाणा में रामरहीम की करतूतों को अनदेखा कर राजनेता उन्हें वोट बटोरने वाले संत के रूप में देखते रहे। अब जब उनके काले कारनामे जनता के सामने आये और उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी तो राजनीतिक आका पीछे हट गये और बेशर्मी से उनके संबंधों को नकारने लगे। यह धर्म और राजनीति का घिनौना खेल है, जिसे पांच सदी पहले अकबर देख रहे थे इसलिये वे साफ कहते हैं कि 'उनकी सल्तनत में हर कोई अपने मजहब को मानने के लिये आजाद है।' तथा ईसाई पादरियों को कहते हैं कि 'ये मुल्ले बहुत दगाबाज और बदमाश हैं।' इस प्रकार की मान्यता अनुभव और तर्क के आधार पर ही निर्मित हो सकती है। जो लोग अफवाहों को इतिहास और इतिहास को अफवाहों में तब्दील करने का इरादा रखकर इस देश को हिंदू देश बनाना चाहते हैं, उन्हें अकबर को फिर से पढऩा चाहिये और देखना चाहिये कि शासक की न तो कोई जाति होती है और न कोई धर्म। अच्छा शासक हर धर्म का सम्मान करता है। अच्छे शासक की नजर में सब धर्म बराबर हैं। जब बराबर होंगे तो फिर नफरत के लिये कोई जगह ही शेष नहीं बचेगी लेकिन अब तो जानबूझकर नफरत फैलाई जा रही है और इतिहास को बदलने की लगातार कोशिशें की जा रही हैं। पहली चिट्ठी के दो दिन बाद फिर पादरी एकुआवीवा ने चिट्ठी लिखकर बादशाह के बारे में बताया 'पादरी मोन्सेराते की राय में और मेरी भी, बादशाह को खुदा का बुलावा है लेकिन कमजोर। हमें ये इसलिये लगता है कि वो ना अपने दीन से खुश हैं, ना मुल्लों से और मानो ऐसा सोचते हैं कि उनका दीन ठीक नहीं है। हमें ऐसा इसलिये भी लगता है कि अलग-अलग दीन के बारे में उनके सवाल पैने होते हैं, जिसका एक ही मकसद होता है, ये जानना कि सबसे सही दीन कौन-सा है? दूसरी बात ये कि बादशाह का झुकाव दूसरे दीन से ज्यादा हमारे दीन की तरफ  है क्योंकि वो उन्हें सही लगता है... लेकिन उन्हें हमारे दीन की बुनियादी बातों पर गहरा शक है, जैसे हमारा ये अकीदा कि खुदा, ईसा मसीह और मुकद्दस रूह तीनों एक ही हैं, ईसा मसीह का मानव अवतार, उन्होंने जो दुख उठाये और उनकी मृत्यु। इन बातों को समझने के लिये उन्हें काफी रुकावटों से ऊपर उठना पड़ेगा... पहली रुकावट तो ये है कि वो खुदा की बात पर मुनासिब ध्यान नहीं देते। दूसरा, वो मुकद्दस किताबों पर यकीन नहीं करते और अगर करते भी हैं तो उन्हें उन किताबों की सचाई पर शक है जो हमारे पास हैं। इसलिये वो अपनी अक्ल के जरिये दीन के रहस्यों को समझने और पहुंच से दूर खुदाई रौशनी तक पहुंचने की कोशिश करना चाहते हैं।' कहना न होगा कि ईसाई पादरियों की चिठ्ठियों से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें अकबर पर भरोसा इसलिये नहीं है कि वह अक्ल की बात करता है और अक्ल के द्वारा धर्म को समझना चाहता है। अक्ल की बात करने वाले या अक्ल का प्रयोग करने वाले व्यक्ति से धर्म प्रचारकों को हमेशा निराशा ही मिलती है। अकबर अक्ल की बात को छुपाते नहीं है बल्कि वे बार-बार इस बात पर जोर देते हैं इसलिये पादरी निराश हैं। जो आदमी अपने दीन पर प्रश्न लगा रहा है, अपने मुल्ले मौलवियों पर विश्वास नहीं कर रहा है, जिसने 1578 के बाद अजमेर शरीफ  की जियारत करना बंद कर दिया हो, उस बादशाह से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कोई पादरी आये और बिना किसी ठोस आधार के उसे अपने धर्म में दीक्षित कर ले।
यह बड़ा दिलचस्प है कि शाजी जमां ने अकबर के उस पक्ष को विशेष रूप से उभारा हैं, जिसका जिक्र अक्ल के रास्ते धर्म को देखने और नया धर्म ईजाद करने के संदर्भ में किया गया है। उपन्यास के कवर पर लिखे गये इन वाक्यों का महत्व उपन्यास पढ़ते हुये समझ में आता है कि 'एक बादशाह जिसकी तलवार ने साम्राज्य की हदों को विस्तार दिया, जिसने मजहबों को अक्ल की कसौटी पर कसा, जिसने हुकूमत और तहजीब को नये मायने दिये, उसी बादशाह की रूहानी और सियासी जिंदगी की जद्दोजहद का संपूर्ण खाका पेश करता एक अभूतपूर्व उपन्यास।' यह उपन्यास अभूतपूर्व क्यों है? इसलिये कि इसमें बादशाह अकबर से अधिक उस अकबर की मानसिक स्थिति की परख ज्यादा है जो रूहानी और सियासी जिंदगी को अक्ल के रास्ते चलकर देख रहा था। उपन्यास की शुरूआत इस घटना से होती है 'पूनम की चांदनी रात में अबुल मुजफ्फर जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बादशाह चीख रहे थे कि हिंदू गाय खायें। मुसलमान सूअर खायें। जो नहीं खायें तो हुडिय़ार को कड़ाही में रांधो और जो हुडिय़ार से सूअर हो जाये तो हिंदू मुसलमान मिलकर खायें, जो गाय हो जाये तो हिंदू मुसमान मिलकर खायें। जो सूअर हो तो मुसलमान खायें और जो गाय हो तो हिंदू खायें तो कुछ दैवी चमत्कार होगा। खौफजदा अमीर उमरा बादशाह सलामत के लफ्जों को तो समझ रहे थे लेकिन इन लफ्जों के पीछे के मायने को नहीं।' यह स्थिति सामान्य नहीं थी, यह मानसिक बुनावट का एक विशेष लक्षण था जिसे 'दलपत विलास' के लेखक ने 'हालते अजीब' कहा है, वह उस समय बादशाह अकबर के पास ही था, उसने न केवल उनकी चीख को सुना बल्कि बादशाह की मानसिक स्थिति को भी देखा था। शाजी जमां कहते हैं कि  'उस दौर के इतिहासकारों ने जिस तरह की हालत का जिक्र किया है उसे आज बाइपोलर डिस्ऑर्डर माना जा सकता है। मुमकिन है कि इस कैफियत से गुजरने वाले इंसान की सोच बाकी लोगों की समझ से बाहर हो, लेकिन इस आधार पर इसे सिर्फ  दीवानगी नहीं माना जा सकता। यह एक ऐसी समझ भी हो सकती है जो आम समझ से ऊपर हो। दुनिया में बहुत सारे प्रतिभाशाली और अलग तरह से सोचने वाले लोगों को बाइपोलर डिस्ऑर्डर रहा है। जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर की 'हालते अजीब' को आज की जबान में टेंपोरल एपिलेप्सी भी माना जा सकता है। यह मुमकिन है कि टेंपोरल एपिलेप्सी के दौरे के बाद इंसान का दिमाग बिल्कुल रौशन हो जाये और कई अनसुलझे मुद्दे सुलझ जायें।' यह घटना मई 1578 की है, जब गुजरात विजय से लेकर हल्दीघाटी तक की दुर्गम लड़ाइयों को वे जीत चुके थे, बादशाह की हर गतिविधि को दर्ज करने के लिये एक दफ्तर की स्थापना कर उसमें दो वाकयानवीस रख चुके थे साथ ही अनुवाद के लिये एक नये दफ्तर की शुरूआत भी कर चुके थे। इस घटना के बाद वे केवल एक बार 1579 में अजमेर शरीफ जियारत के लिये गये, उसके बाद फिर कभी नहीं गये। सलीम के जन्म के बाद जो फतेहपुर सीकरी से रोज 10-12 कोस पैदल चलकर ख्वाजा के दरवार में पहुंचा हो, वही बादशाह 'हालते अजीब' के बाद एकदम बदल गया। अपराजेय बादशाह को लगने लगा कि 'उन्हें अब इस दुनिया में कोई ख्वाहिश नहीं है। ये कि बीवी, बच्चे और सल्तनत उनके लिये मायने नहीं रखते हैं।' तरह-तरह के धर्मों की किताबें सुनने के बाद उन्हें यह बोध हुआ कि सबको मिलाकर एक नया धर्म शुरू करना चाहिये। उनके इस विचार को सबसे अधिक अबुल फजल और बीरवल ने समर्थन दिया। दोनों ही उनके सबसे अधिक विश्वसनीय व्यक्तियों में से थे। सामंती शासन में विरोध के लिये कोई जगह नहीं होती, विरोधियों को शत्रु मानने और उन्हें कुचलने की मनमानी दरबारों में होती आई है। अपने लोगों से घिरे अकबर को भी लगने लगा था कि वे जो सोचते हैं, वही सही है इसलिये उन्होंने हिज्री सन् को खत्म करके नया सन् चलाया 'हिज्री सन् अब खत्म कर दिया गया और एक नया सन् शुरू हुआ जो बादशाह की तख्तनशीनी के साल से शुरू होता है, यानी 963 हिज्री में। महीनों के नाम वैसे ही हैं जैसे फारस के पुराने बादशाहों के थे... चौदह त्यौहार हैं जो पारसियों के जश्न के मुताबिक हैं लेकिन मुसलमानों के जश्न और उनकी खूबियों को रौंद दिया गया। सिर्फ  जुमे की नमाज बाकी रही क्योंकि कुछ बूढ़े बेवकूफ  लोग पढ़ा करते थे... पीतल के सिक्कों और सोने की मोहर पर तारीखे अल्फी का इस्तेमाल हुआ जिससे जाहिर था कि मोहम्मद के दीन की मियाद जो एक हजार बरस थी, अब खत्म होने को थी। अरबी पढऩे और सीखने को जुर्म माना जाने लगा और मोहम्मदी शरीया, कुरान की तफ्सीर को और उसे पढऩे वालों को बुरा माना गया।'
'दीने इलाही' की शुरूआत क्रांतिकारी परिवर्तन की निशानी थी। इस्लाम इस तरह के परिवर्तन की इजाजत नहीं देता। हिंदुत्व के अंधे उभार के इस दौर में 'दीने इलाही' स्वीकार करने वालों की इस घोषणा को जरूर देखना चाहिये 'मैं फलां फलां वल्द फलां फलां अपनी मर्जी से और पूरे नेक इरादे से अपने बुजुर्गों से देखे सुने दीन इस्लाम को पूरी तरह छोड़ रहा हूं और अकबर शाह के दीने इलाही को अपना रहा हूं ओर मुकम्मल अकीदत की चार मंजिलों को कुबूल करके अपनी जायदाद, जिंदगी, इज्जत और दीन का त्याग करने को तैयार हूं।' यह कुबूलनामा सामान्य नहीं है, इसमें दीन इस्लाम को पूरी तरह छोडऩे की शपथ भी है जो किसी भी मुसलमान के लिये कठिन है। धर्म के प्रति कट्टरता इस्लाम के प्रसार-प्रचार में सहायक रही है लेकिन अकबर ने इस कट्टरता पर न केवल प्रश्नचिह्न लगाया बल्कि उसे खत्म भी किया। 'दीने इलाही' का क्या हश्र हुआ मैं इसकी तह में न जाकर इसे अलग रूप में देखना ज्यादा पसंद करूंगा, इसलिये भी कि इस उत्तर पूंजीवादी दौर में कट्टरता की ओर लौटते समाजों को अकबर की इस घोषणा से सबक सीखना चाहिये। किसी भी प्रकार की कट्टरता मनुष्यता विरोधी ही होती है। उस समय के हाजिरजवाबी शायर मुल्ला शेरी ने व्यंग्य करते हुये लिखा-
बादशाह इस साल पैगंबरी का दावा करेंगे,
गर खुदा ने चाहा तो वो अगले साल खुदा बन जायेंगे ।'
यह शेर एक प्रकार से विरोध की दबी आवाज का संकेत है, जो खुलकर सामने नहीं आ पा रही थी। जाहिर है कि इस्लाम को छोड़कर पैगंबरी का दावा करना किसी भी व्यक्ति के लिये असंभव था, चाहे वो बादशाह अकबर ही क्यों न हों? एक स्थापित धर्म की जगह दूसरे धर्म की स्थापना के सामान्य कारण नहीं हो सकते। ये हालते अजीब जैसी स्थितियों में आने के बाद व्यक्ति को इस ऊर्जा से भर देती है कि दुनिया में उसे रूहानी जज्बा मिल गया है। अब वह जो चाहे वह कर सकता है। अकबर जैसे बादशाह के लिये यह सोचना संभव भी था क्योंकि उन्होंने अपने पूरे शासनकाल में कोई युद्ध हारा नहीं, बड़े से बड़े दुश्मन को उन्होंने हराया। कई चमत्कारी काम किये जैसे गुजरात विजय करके केवल नौ दिन में फतेहपुर सीकरी लौट आये। यह चमत्कारी विजय थी। उनके अंदर असीम साहस और युद्ध कौशल था, जिसके बल पर उन्होंने निष्कंटक राज्य किया।
'दीने इलाही' से उत्साहित उनके दरबारियों ने तथा लाभाकांक्षी लोगों ने ऐसी अफवाहें उड़ानी शुरू कर दी कि लोग अकबर को रूहानी ताकत मानने लगे और 'एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरता जब लोग उनसे पानी नहीं फुंकवाते। खुदा ने तकदीर में क्या लिखा है, ये समझते हुये अब वो अपने मुबारक हाथों में पानी लेकर मांगने वाले की मुराद पूरी करते हैं। इस इलाही तिलस्म से कई ऐसे लोग ठीक हुये हैं जिनकी बीमारी को बहुत नामी हकीमों ने लाइलाज बताया है।' यह एक प्रकार का चमत्कारवाद है। जिस चमत्कारवाद से अकबर अपने बेटे मुराद को सचेत करते हैं, वे उसमें स्वयं फंसते चले जा रहे थे। आगरा में कई लोगों की मान्यता थी कि जब तक झरोखे से वे अपने बादशाह के दर्शन नहीं कर लेंगे तब तक पानी भी नहीं पियेंगे। इस प्रकार की मान्यताएं केवल बादशाह को खुश करने के लिये होती हैं और ताकतवर आदमी भी ऐसी स्तुतियों के सामने विवेक खो देता है। मैं यह तो नहीं कहता कि अकबर ने अपना विवेक खो दिया था लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि चमत्कारवाद व्यक्ति पूजा की ओर ले जाता है, जो धर्म से अधिक खतरनाक है। मिर्जा अजीज कोका ने बादशाह को पैगाम भेजकर कहा 'इससे पहले भी ताकतवर बादशाह रहे हैं लेकिन किसी को ये ख्याल नहीं आया कि पैगंबरी का दावा करें। जब तक नाजिल की गई किताब, चुने हुये साथी और करामात ना हो, लोग कभी कबूल नहीं करेंगे।' अजीज कोका की मां जीजी अंगा ने बादशाह को अपना दूध पिलाया था इसलिये बादशाह उनकी बहुत इज्जत भी करते थे। फिर भी अजीज कोका के मन में डर रहा होगा इसलिये वे पैगाम देकर परिवार सहित हज करने चले गये।
ऐतिहासिक पात्रों पर उपन्यास लिखना कठिन है। इसमें यह जोखिम हमेशा बनी रहती है कि उपन्यास इतिहास से इतर न जाये और यह भी कि यदि इतिहास ही लिखना है तो फिर उपन्यास क्यों? शाजी जमां ने बहुत परिश्रम कर जो तथ्य जुटाये हैं, वे तथ्य उपन्यास का आधार बने हैं। कभी कभी आधार मूल इमारत से बड़े नजर आने लगते हैं तो उसे देख पाना कठिन हो जाता है। इस उपन्यास में भी तथ्यों, पात्रों, घटनाओं और स्थितियों के प्रति इतना लगाव और मोह है कि उपन्यासकार कई बार उनका चयन करने में समर्थ नहीं रहा है। शाजी जमां ने जो सामग्री इकट्ठी की, वह निश्चित ही उनकी मेहनत का परिणाम है लेकिन यह एक प्रकार का मोह ही है कि वे हर उस तथ्य का इस्तेमाल करना चाहते हैं जो उनके पास उपलब्ध है। वे मूलत: इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं इसलिये इतिहास के प्रति उनका मोह होना स्वाभाविक ही है। पर उपन्यास में यदि वे संयम से काम लेते तो उपन्यास और अधिक सुगठित और पठनीय बन सकता था। मैं इस आरोप को सच नहीं मानता कि उन्हें बादशाहों के नाम के आगे सम्मानसूचक शब्द नहीं लगाने चाहिये थे जैसे फिरदौस मकानी बाबर बादशाह, जन्नत आशियानी हुमायूं बादशाह तथा बादशाह सलामत जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर। इन शब्दों का प्रयोग उस समय होता था इसलिये उपन्यासकार के लिये ऐसा करना जरूरी नहीं तो उचित तो कहा ही जा सकता है। यह उपन्यास इतिहास से इसलिये अलग है कि इसमें अजेय बादशाह की उन बेचैनियों को दर्ज किया गया है जो सब कुछ पा लेने के बाद अपने धर्म से संतुष्ट नहीं है। उन्हें अब इस जीवन का नहीं बल्कि मरने के बाद का भय सताने लगा था। इसलिये पोप को वे संदेश भिजवाते हैं कि 'कहना कि उनके हुक्म से मुझे कुछ लिखकर भेजा जाये जिससे मैं खुदा तक पहुंचने के रास्ते को समझूं और अपनी सल्तनत की हुकूमत करने में खुदा से डरूं और उसके सामने सर झुकाऊं। ऐसा इसलिये कि जब जमीन-आसमान खत्म हो जायें और हमें कयामत के रोज के खौफनाक हिसाब के लिये खुदा के सामने पेश किया जाये तो हम अपनी छोटी सी जिंदगी का कोई अच्छा हिसाब दे सकें।' यह चिंता बड़ी थी, जिसका कोई समाधान न किसी पोप के पास था और न बादशाह के पास। 
उपन्यास में यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभरकर आया है कि अकबर तीन भाषाएं जानते थे, एक प्रकार से कहें तो वे त्रिभाषा फार्मूला अपने शासन काल में ही लागू करवा चुके थे। राजकाज की भाषा फारसी थी, घर में वे तुर्की बोलते थे और ब्रज भाषा पर उनका जबर्दस्त अधिकार था। ब्रज भाषा में रचा गया अपना दोहा उन्हें आखिरी वक्त की तन्हाई में खूब याद आता था -
पीथल सूं मजलिस गई तानसेन सूं राग,
हंसबो रमिबो बोलबो गयो बीरबर साथ ।
यह केवल अतीत का चर्वण नहीं है, अपने सुखद दिनों की भावुक याद भी नहीं है बल्कि यह वह आत्मीयता का भाव है, जिससे वे केवल बड़े बादशाह ही नहीं बल्कि बड़े मनुष्य भी सिद्ध होते हैं। शाजी जमां ने कई उदाहरण और नायाब पत्रों के माध्यम से अकबर के मानवीय पक्ष को उभारा है। उनके दरबारी करीबी अबुल फैज फैजी ने अकबर के कहने से नलदमयंती, योग वशिष्ठ के साथ भगवत गीता तथा गणित की किताब लीलावती का फारसी में अनुवाद किया था। उन्होंने एक सौ किताबें लिखीं। उन्होंने कुरान पर एक तफ्सीर लिखी जिसमें एक भी नुक्ता नहीं था। फैजी जब बीमार हुये तो बादशाहत की सारी औपचारिकता छोड़कर वे उन्हें देखने उनके घर गये। फैजी की हालत देखकर 'बादशाह सलामत ने अपना ताज उतार कर जमीन पर फेंक दिया और जोर-जोर से रोये।' अपने करीबी दरबारी की बीमारी पर बादशाह का दुखी होना ओैर रोना सामान्य स्थिति तो बिल्कुल भी नहीं है। कहते हैं कि बादशाह दूसरों के सामने रोकर अपनी कमजोरी प्रगट नहीं किया करते तो यह भी सच है कि बादशाह किसी दरबारी को देखने के लिये उसके घर भी नहीं जाते। इसी प्रकार दूसरी घटना को भी उपन्यास में इस तरह उभारा गया है कि उसे पढ़कर सहसा विश्वास नहीं होता। 'अकबरनामा' के लेखक और बादशाह के बहुत करीबी शेख अबुल फजल को शहजादे सलीम ने ओरछा नरेश वीरसिंह बुंदेला के द्वारा मरवाया था। सलीम को यह शक था कि अबुल फजल उनके विरोधी हैं और बादशाह को उनके बारे में उल्टा-सीधा भरते रहते हैं जिससे बादशाह उनसे नाराज रहते हैं । बादशाह को जैसे ही मालूम हुआ तो 'कहते हैं बादशाह सलामत को अपनी औलाद के गुजरने का इतना अफसोस नहीं था जितना कि शेख अबुल फजल के गुजरने का। बादशाह सलामत ने कहा, हाय शेखू जी, बादशाहत लेनी थी तो मुझे मारा होता। शेख को क्यों मारा?' शेख अबुल फजल के प्रति इस प्रकार की आत्मीयता बादशाहत में छुपे एक ऐसे आदमी की निशानी है जो अपने विश्वसनीय लोगों को अपनी औलाद से भी अधिक चाहता है।  अपने एक और करीबी बीरबल की मृत्यु पर बादशाह इतने दुखी हुये कि उन्होंने एक खत अब्दुर्रहीम खानेखानां को लिखकर न केवल बीरबल की मृत्यु की खबर दी अपितु उनके ऐसे गुण भी गिनाये जो किसी भी बादशाह के करीबी के लिये जरूरी होते हैं। उन्होंने लिखा 'वे करीबी दोस्तों में अव्वल थे, दरबार में हमारे करीबी थे, एक खुशमिजाज बेटे थे, एक बेहतरीन साथी थे, वफादार और नेक ख्वाहिशात रखने वाले इंसान थे, सल्तनत की पाक पनाहगाह की रौनक थे, समझ-बूझ और इल्म वाले इंसान थे, पुरकशिश महफिलों के साथी थे, वफादार और सच्चे दोस्त थे, सच्ची वफा के बागबां थे, लगातार सचाई के रास्ते की जुस्तजू में थे, जिम्मेदारी निभाने की चाहत रखते थे, दुनिया की पहचान रखते थे, मेलजोल, साथ और इंसानी मिजाज के राज जानते थे, परेशानियों में डूबे मन को समझते थे, अच्छी गुफ्तगू करने वालों की महफिल में ऊंचा मकाम रखते थे, खुशनुमा महफिलों के साथी थे और अक्लमंद दरबारी थे।' अकबर ने इस पत्र में बीरबल के लिये अपना दिल खोलकर रख दिया, कोई बादशाह अपने करीबी दरबारी की इतनी प्रशंसा नहीं करता। लेकिन ऊपर दिये गये उध्दरण अकबर की उस दरियादिली को बताते हैं, जो उन्हें उदार चित्त के कारण मिली थी। स्वार्थी, दंभी और चालाक बादशाह इस प्रकार के संबंधोंं का निर्वाह नहीं करते। उपन्यास में ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्हें गिनाया जाये तो एक लंबी फहरिस्त ऐसे संदर्भों की बनेगी जिनमें बादशाह अपनी बादशाहत को छोड़कर एक सामान्य आदमी के रूप में दिखाई देते हैं। बादशाह अकबर ने जीवन में कभी हार का मुंह नहीं देखा, जिनका पैर चूमने की ख्वाहिश बहुत से देशी राजाओं की थी लेकिन यह अवसर कम ही लोगों को प्राप्त होता था । 
अजेय बादशाह अकबर की रूहानी जिंदगी के ऐसे पन्ने जो अब तक उनकी बादशाहत की चकाचौंध के पीछे छुपे हुये थे, उन्हें शाजी जमां ने इस उपन्यास में ऐतिहासिक संदर्भों के साथ उभारा है, जिससे यह उपन्यास बादशाह अकबर की विजय गाथाओं के साथ उनकी धर्मनिरपेक्ष दृष्टि और हर प्रकार की कट्टरता के विरोध में खड़े अकबर की कहानी कहता है, जो राजधर्म से जुड़े नेताओं के लिये आज अधिक जरूरी है ।




शाज़ी ज़माँ- दिल्ली के सेंट स्टीफेंस से इतिहास में स्नातक शाज़ी ज़मां ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में अपनी शुरुआत 1988 में की। बीबीसी लंदन, जी न्यूज, आज तक और स्टार न्यूज से जुड़े रहे। एबीजी न्यूज नेटवर्क के समूह संपादक रहे। अकबर के पहले भी दो उपन्यास प्रेमगली आते सांकी और जिस्म जिस्म राजकमल से प्रकाशित हुए है।


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