हिंदी कहानी के आसमान की सबसे अलग किरण

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    अप्रैल 2018
श्रेणी हिंदी कहानी के आसमान की सबसे अलग किरण
संस्करण अप्रैल 2018
लेखक का नाम प्रियदर्शन





किताबें

28 जून 1968 को रांची में जन्मे कथाकार पत्रकार प्रियदर्शन 1975 से नियमित लिख रहे हैं। 1996 से 2000 तक वे जनसत्ता में सहायक संपादक थे। अब एन.डी.टी.वी. में कार्यरत हैं। आपने सलमान रश्दी, अरुधंती राय, राबर्ट पेन और पीटर स्कॉट की जीवनियों का अनुवाद किया है। 'उनके हिस्से का जादू' उनका कहानी संकलन है। प्रियदर्शन ने अपनी अलग प्रविधि गढ़ी है




क्या आधुनिक हिंदी कहानी पर अनुभव की प्रामाणिकता और यथार्थ का दबाव इतना ज़्यादा रहा कि वह अपनी किस्सागोई खो बैठी, अपना गल्प भूल गई और एक तरह के सपाट अनुभववाद की शिकार हो गई? और क्या इसका असर सिर्फ कहानी की पठनीयता पर या लेखक के पाठक संसार पर ही पड़ा? या रचनात्मक असर पर हम उस वृत्तांत से भी वंचित हो गए जो अनुभव की सीमाओं का अतिक्रमण करके एक लेखक हमारे लिए रचता है?
क्योंकि बहुत सारी अच्छी और अविस्मरणीय कहानियों के बावजूद यह शिकायत आम और बहुत दूर तक सही है कि हिंदी कथा-साहित्य अमूमन बोझिल वृत्तांतों से भरा मिलता है, उसमें वह किस्सागोई नहीं मिलती जो उर्दू, बांग्ला या मराठी कथा-साहित्य तक में मिलती है। इस लिहाज से हिंदी की कथा आलोचना भी अपने लेखकों के प्रति अतिरिक्त उदार रही। कायदे से यह कथा आलोचना अब तक उस तरह विकसित हो ही नहीं पाई जिस तरह कविता की आलोचना- अपनी सारी सीमाओं के बावजूद- विकसित हुई। यह टिप्पणी ऐसी किसी कथा-आलोचना का सूत्रपात करने की खामखयाली से नहीं लिखी जा रही। वह इस उलझन में डालने वाले खयाल के साथ लिखी जा रही है कि इन पंक्तियों के लेखक के पास वे औजार कितने कम हैं जो कथा-साहित्य के मूल्यांकन में उसके मददगार हों। यही नहीं, इसके साथ यह खयाल भी शामिल है कि ऐसे कथाकार कितने कम हैं जो इस आलोचकीय उद्यम की ज़रूरत को रेखांकित करें और किसी लेखक के सामने यह चुनौती पेश करें कि वह उनकी रचनाओं के सूत्र खोजे।
इस ढंग से विचार करें तो अपने इकलौते संग्रह 'यीशू की कीलें' के साथ हिंदी के कथा-संसार में एक विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब किरण सिंह ऐसी कथाकार के तौर पर सामने आती हैं जिन्हें हिंदी लेखन की प्रचलतित परिपाटी और परंपरा में अनुस्युत कर देखना बहुत मुश्किल काम है। बल्कि उनकी कहानियां पढ़ते हुए यह संदेह होता है कि यह लेखिका हिंदी की कथा-परंपरा या इसके साहित्यिक माहौल से परिचित है भी या नहीं, क्योंकि जो प्रविधियां वह इस्तेमाल करती हैं, जिन कथा-तत्वों की मदद लेती हैं, वे कई बार हिंदी की परंपरा से अगर दूर जाते नहीं, तो उससे अलग छिटके ज़रूर दिखाई पड़ते हैं। उनकी शुरुआती कहानियों में एक 'कथा सावित्री और सत्यवान की' के केंद्र में हिंदी का लेखक-पाठक और लेखन है। कहानी की नायिका को- जो खुद लेखिका भी है- अपने बुरी तरह बीमार पति को जीवित रखने के लिए बहुत पैसे चाहिए। वह नायिका एक प्रतिष्ठित लेखक पर आरोप लगाती है कि उसने लेखिका के जीवन पर कहानी लिखी है और इस तरह उसे सार्वजनिक अपमान और लांछना का विषय बना डाला है। वह एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक से आग्रह करती है कि वह इस मामले में पंचायत बिठाएं और हर्जाना दिलाएं। यह पंचायत बैठती है, लेखिका इसमें अपने और कथा लेखक के बीच हुए पत्र-व्यवहार को सामने रखती है, फोन की बातचीत के टेप पेश करती है, लेखक से बहस करती है और अंतत: मुकदमा जीत कर लेखक से छह लाख रुपये की रकम वसूल कर लौटती है।
एक स्तर पर देखें तो यह बहुत नाटकीय और नकली कहानी जान पड़ती है। क्योंकि हिंदी कथा लेखन की दुनिया में न ऐसे प्रतिष्ठित और अपने लेखन से लाखों की रायल्टी कमाने वाले लेखक हैं और न ही ऐसा कोई मुकदमा संभव है। यथार्थवाद को कहानी का सबसे विश्वसनीय औजार मानने वाली आलोचना इस कहानी को इसी बुनियाद पर तत्काल खारिज कर दे। मगर कहानी में फिर भी कुछ है जो 'हंस' की संपादकीय टीम को विवश करता है कि वह इसे अपने पच्चीस वर्षों की सर्वोत्तम कहानियों के संग्रह में शामिल करें। जाहिर है, आलोचना के पहचाने हुए औजार इस कहानी को समझने में हमारी मदद नहीं करते। कहानी की ताकत उसके कहन से निकलने वाली बहसों और उनसे बनने वाले मुद्दों में है। एक लेखक का अनुभव संसार कैसे बनता है? क्या उसे हक है कि वह दूसरों के जीवन में दािखल हो और उसे अपनी कथा-सामग्री की तरह इस्तेमाल करे? लेकिन अगर वह दूसरों के जीवन में प्रवेश न करे तो वह परकाया प्रवेश कैसे संभव हो जो किसी लेखन को श्रेष्ठ और विश्वसनीय बनाता है? क्या दुनिया के महान लेखक यही काम करते नहीं रहे हैं? क्या स्त्रियां ऐसे किसी लेखन की सबसे आसान और भेद्य शिकार हैं जो बड़ी आसानी से किसी लेखक के प्रेम में पड़ सकती हैं और फिर उसे अपने दिल का हाल बताने लगती हैं- बिना यह जाने कि वे उसकी कहानी का कच्चा माल भर हैं।
दिलचस्प यह है कि इस कहानी की नायिका ऐसी बेबस स्त्री नहीं है। वह जैसे यह पूरा जाल अपनी ओर से बिछाती है- वह एक लेखक के स्वभाव को पहचानते हुए उससे संपर्क करती है, घनिष्ठता बढ़ाती है, उसके साथ एक प्रकाशक के राज़ साझा करती है और अंतत: सबका इस्तेमाल कर लेती है। लेकिन इस इस्तेमाल के बावजूद यह करुण पक्ष अनदेखा नहीं रह जाता कि इस क्रम में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल वह स्त्री ही हो रही है। उसे उसका पति भी इस्तेमाल कर रहा है, उसका मित्र और मददगार हो चुका प्रकाशक भी और उसका राज़दार लेखक भी। यह नए दौर की सावित्री है जो अपने सत्यवान के जीवन की रक्षा के लिए छह लाख रुपये जुटा लेती है- इस आत्मस्वीकार के बीच भी कि कई बार उसकी इच्छा होती है कि उसका पति अब इस दुनिया में न रहे।
किरण सिंह की कहानियों पर ज़िक्र के लिए इस कहानी को चुनने का मकसद दरअसल उन केंद्रीय चिंताओं को भी सामने लाना है जिनके बीच से उनकी कहानियां बनती है। उनकी सारी कहानियों में एक लैंगिक संवेदना जैसे लगातार सक्रिय रहती है- किसी और उचित पद के अभाव में हम इसे उनकी कथा में निहित स्त्री-कथा कह सकते हैं। दूसरी बात यह कि वे इन कहानियों में मिथकों और कथाओं के पाठ और पुनर्पाठ करती हैं, कई बार उन्हें बिल्कुल पलट भी देती हैं। आखिर वह सावित्री किन्हें भाएगी जो अपने सत्यवान का नाम ले लेकिन दूसरों से रिश्ते बनाए? तीसरी बात यह कि वे इन सारी कथाओं में मूलभूत मानवीय मूल्यों पर जैसे लगातार तीखी बहस बनाए रखती हैं। चौथी बात उनकी कहानियों की वह नाटकीयता है जिसे वे शिल्प के स्तर पर भी संभव करती हैं और कथ्य के स्तर पर भी। इस नाटकीयता का प्रभाव ऐसा तीखा है कि कई बार हम यथार्थ की उपेक्षा करने का सहज आकर्षण नहीं छोड़ पाते। इस नाटकीयता के भी दो पक्ष हैं- एक तरह की उदात्तता वह अपने कथा-विधान में पैदा करती हैं जो बहुधा आम जीवन में हमें नहीं दिखती। इसके अलावा वे जो भाषा चुनती हैं, उसमें उस कथा-परिवेश की सारी खूबियां तो होती ही हैं, लेखिका की वह विरल छाप भी होती है जो उसे बहुत गहन और मार्मिक बनाती है।
जिस कहानी ने किरण सिंह की ओर हिंदी लेखकों और पाठकों का ध्यान सबसे पहले और सबसे ज्यादा खींचा, वह 'संझा' थी। इस कहानी को कई सम्मान भी मिले। 'संझा' एक वैद्य की उभयलिंगी संतान की कहानी है- जिसे इन दिनों किन्नर या तीसरे लिंग के नाम से पुकारने का फैशन है। यह सिहरा देने वाली कहानी है। अपनी यह संतान पाकर वैद्य जी और उनकी पत्नी उसे सुरक्षित रखने के हज़ार जतन करते हैं- घर के पिछवाड़े में दो कमरे और खींच दिए जाते हैं, खिड़कियों पर जाली लगा जी जाती है, 'हवा खाओ या दवा खाओ' कह कर दिन भर बाहर घूमने वाली वैद्य जी की पत्नी बिल्कुल घर तक सिमट जाती है, चिंता में घुलती पत्नी तीन साल की संझा को छोड़ कर चल देती है तो पिता रात में ही पत्नी का शवदाह करने निकल पड़ते हैं कि दिन में किसी के सामने संतान का राज़ न खुले। फिर संझा के अपने द्वंद्व भी हैं, उसकी देह उसकी सहेलियों से अलग बढ़ रही है, उसका सबसे महत्वपूर्ण अंग नहीं है। उसने अपने संरक्षक पिता से सारी जड़ी-बूटियां, सारे लेप, सारी औषधियां बनाना सीखा है- लेकिन वह पाती है कि उसकी अपनी बीमारी का इलाज बस निर्वासन और उत्पीडऩ है।
लेकिन यह कहानी संझा की नहीं है। 27 साल बाद संझा का ब्याह होता है तो वह दुनिया के सामने खुलती है और दुनिया भी उसके सामने खुलती है। जब तक उसके राज़ राज़ हैं, तब तक वह दुनिया की निगाहों में बहुत प्यारी सी औषधियों की जानकार है जो पूरे गांव का खयाल रखती है। लेकिन संझा नाम की वह हिजड़ा पाती है कि नपुंसकता का मर्ज़ कहीं ज़्यादा बड़ा है और वह पौरुष के दर्प के साथ मिलकर पूरे समाज को रोगी बनाता है। अंतत: यह कहानी उस दुनिया की कहानी हो जाती है जिसमें संझा को सहन करने की ताब नहीं है।
ऐसी अनूठी कहानियां किरण सिंह के पास और भी हैं। 'द्रौपदी पीक'  तो जैसे चरम है। पर्वतारोहरण पर हिंदी में पहले भी एकाधिक कहानियां लिखी गई हैं, लेकिन एवरेस्ट छूकर लौटने की यह कहानी अपने-आप में अनूठी है। किरण सिंह जैसे हिंदी के कथा पाठक को एवरेस्ट की वास्तविक यात्रा पर ले चलती हैं। दुनिया की सबसे ऊंची जगह पर पहुंचने की यात्रा सि$र्फ $खतरे से भरे पहाड़ों को पार करके पूरी नहीं होती, उसके लिए पुरानी लाशों को भी फलांगना पड़ता है, अपने विश्वासों को भी जीतना पड़ता है, नए सिरे से जीवन की शर्तें निर्धारित करनी पड़ती हैं।
इस जटिल स$फर की कहानी बेहद शुष्क हो सकती थी अगर इसे बहुत जतन से नहीं पिरोया गया होता। दो लोग यात्रा के लिए एक साथ चले हैं- एक नागा साधु और एक तवायफ की बेटी। दोनों जीवन से जैसे दांव लगाने के लिए ही निकले हैं- उनका अतीत उनकी पीठ पर है जो उनके साथ-साथ चल रहा है। स्त्रियों से दूर रहने की प्रतिज्ञा के साथ जी रहे साधु के साथ एक महिला शेरपा शोमा है। इस समूह का नेता एक दोरजी है। दो पुरुषों और दो स्त्रियों की यह टीम सफर के लिए निकलती है।
यह न समझें कि यह रोमांच में प्रेम की जीत की कहानी है। यह पल-पल और तिल-तिल मौत के बीच जीवन को नए सिरे से पाने और जानने की कहानी है। सफर में दूर खड़े दिख रहे लोग बरसों पुराने बर्फ में जमे शव हो सकते हैं और गुफा में पड़ी हुई लाश भी जीने का आधार हो सकती है- यह रोंगटे खड़ी करने वाली सच्चाई इस सफर में मिलती है। कहानी शुरू ही यहां से होती है, 'मृत्यु के समय आंखें नहीं उलटतीं, देखने का ढंग उलट जाता है।' और जो इस सफर पर निकले हैं, वे सब अपने पीछे अपने-अपने दुखों के पहाड़ छोड़ आए हैं- किसी नकली राहत या समाधान की उम्मीद में। लेकिन सफर में जीवन के भ्रम जैसे टूटते-बिखरते जाते हैं। सफर का एक छोटा सा वर्णन कहानी से-
'अचानक घूँघरु ठमक गई। वह चीखने ही जा रही थी कि शोमा ने लपक कर  उसका मुँह दबा लिया। और इशारा किया कि ध्वनि-तरंगों से जरा-मरा टिके छज्जे दरकने लगते हैं।'
उनके ठीक सामने, भूकंप में ज़मीन फटने जैसी कई किलोमीटर लंबी और गहरी दरार थी। उस दरार में लटका हुआ कोई ऊपर झाँक रहा था। उसका एक हाथ, पकड़ कर खींच लिया जाए, इस आस में हवा में फैला हुआ था। अपनी मृत्यु देखती उसकी आँखों की फटी पुतलियों पर और खुले मुँह में बर्फ भरी थी।
   ''यहाँ कदम-कदम पर देहें-रुहें दबी हैं। मैं बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कह रहा। धूप से जब दरारें चिटकती है तब ये जिस्म दिखाई देने लगते हैं, खेत में कटी रखी फसल की तरह। दरारें जब सिमट कर बन्द होने लगती हैं तब इनका भुरकुस बन जाता है। हड्डियों का चूरा नदियों में बह जाता है।''
''गंगा में भी ?''
''सबसे ज्यादा।''
''एवरेस्ट विश्व की सबसे बड़ी मर्चरी...लाशघर है।''
शोमा कहती है, 'पीठ पर कितना भी भार हो, चढ़ जाओगे। मन पर हल्का भी बोझ हो तो चढ़ाई में साँस उखडऩे लगती है।'
एवरेस्ट की इस चढ़ाई के भीतर समाई दो और उपकथाएं हैं- एक नागा साधुओं के उस संसार की जिसकी जानलेवा अमानवीयता और क्रूरता से निकला योगी यहां तक आया है, और एक रसूलपुर की तवायफों की जिनकी उजड़ी हुई, गर्क होती ज़िंदगी के बीच से निकल कर घुंघरू यहां पहुंची है।
याद करने पर भी हिंदी में ऐसी विलक्षण कहानी दूसरी याद नहीं आती।
खास बात यह है कि किरण सिंह लगातार अपनी कथा-भूमि बदलती चलती हैं। वे जैसे पाठकों को विस्मय में डालने पर तुली हैं। अलग-अलग प्रदेशों, संदर्भों और स्थितियों की ये कहानियां निस्संदेह अपने वैचारिक स्रोतों और सूत्रों से बंधी हैं मगर अपने कहानीपन की शर्तों से कोई समझौता किए बिना वे कहानी कहती हैं। अपनी घ्राण शक्ति से कई बार वे उन अनजाने क्षेत्रों में भी दाखिल हो जाती हैं जो उनके अनुभव संसार से बाहर हैं। लेकिन अंतत: वे ऐसी कहानी खोज लाती हैं जो हमें जीवन की किसी विडंबना के सामने दो-चार कर दे।
'पता' ऐसी ही कहानी है। कहानी शुरू होती हे तो लगता है, हम नक्सली क्रांति के रोमान से भरी एक फिल्मी कहानी पढऩे जा रहे हैं। लेकिन जल्द ही समझ में आ जाता है कि नक्सलवाद बस वह पृष्ठभूमि है जिसके सहारे भारत में हाल के दिनों में कुछ ज़्यादा ही मज़बूत हुई कुलीनता में निहित क्रूरता की यह कहानी कही गई है। पुलिस उत्पीडऩ का शिकार हो एक नक्सली युवक कीचड़ भरे गड्ढे में फेंक दिया जाता है और एक परिवार के हाथ लग जाता है जो उसी कीचड़ के पास रहता है। यह भयावह गरीबी से घिरा परिवार है जो उसी वक्त आई कुदरती आपदा से और ज़्यादा पस्त है। बच्चे कई दिनों के भूखे हैं। इसी दौरान बारिश और जंगल की हरितिमा में खोया और इस पूरे माहौल को स्वर्गिक पा रहा एक कुलीन परिवार वहां आ पहुंचता है और इन बच्चों के साथ उसका सलूक वही होता है जो ऐसे मौकों पर अपेक्षित होता है- उनसे दूरी बरतने का, उनका अपना अखाद्य-अपेय प्रदान करके उन पर कृपा करने का और इस बात पर हैरत करने का कि ये लोग इस माहौल में कितने मगन और सुखी हैं जबकि उन्हे शहरों में तरह-तरह की घुटन का सामना करना पड़ता है। इसी नैसर्गिक माहौल में खाए-पिए-अघाए परिवार को कविता और कहानी सूझ रही है जबकि बच्चे भूख से मर रहे हैं।
किरण सिंह लगातार जैसे अलग-अलग जगह पहुंच कर, खड़ी होकर, अपनी कहानियां चुनती और कहती हैं। वे विषय-वस्तु बदलती हैं, किरदार बदलती हैं, उनकी स्थानिकता बदलती हैं और अंतत: कई बार शिल्प भी बदल डालती हैं। लेकिन यह शायद हैरान करने की नहीं, बल्कि अपनी कहानियों को ज़्यादा से ज्यादा बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने की युक्ति है। अलग-अलग तारीख़ों में बटी कहानी ''जो इसे जब पढ़े'' के कई खाने हैं। एक कहानी दलित, मगर ज़िद्दी सुभावती की है जो अपने प्रेम पर अडिग रहती है और अगड़ी ज़मातों से इनकार की कीमत अपनी पूरी इज़्ज़त और निर्वासन से चुकाती है। दूसरी कहानी उन सुराजियों की है जो दरअसल सुराज की लड़ाई की आड़ में डकैती तक कर लिया करते थे। इन सबके बीच जो असली सुराजी था, उसका गला अंग्रेज़ों ने बिल्कुल रेत-रेत कर काट दिया और सहमा हुआ गांव अपने घर से बाहर नहीं निकला। यह कहानी जातीय दर्प पर भी तीखी चोट करती है। कहानी का तीसरा आयाम स्त्री के प्रेम को छूता है। इन सबके बीच यह कहानी गांव-देहात में घूमती हुई अलग-अलग कालखंडो के सहारे कई मार्मिक कथाएं कहती चलती है।
किरण सिंह की कथा-दृष्टि और युक्ति का कुछ सुराग उनकी कहानी ''ब्रह्मबाघ का नाच'' देती है। कहानी का कथावाचक नायक कहता है, ''कथा की पहली पंक्ति आसमान की चील होती है जो झपट्टा मार कर सुनने आए शिकार को दबोच ले और अपने साथ ले उड़े।'' लेकिन यह युक्ति कब कारगर होती है? इसका जवाब भी कहानी के भीतर है- ''कथा-यज्ञ अपनी सिद्धि में कथाकार की बलि मांगता है। मैंने इस खेल को समझा और अपनी बलि दी। मैंने कथा की सफलता के लिए अपने जीवन को किंवदंती बनाया।'' इस कहानी में कहानी के भीतर कहानी चल रही है जिसमें कथावाचकों के जीवन होम हो रहे हैं। वे जैसे किंवदंतियों में जीते हैं। किंवदंतियां टूटती हैं तो मर जाते हैं या फिर मार दिए जाते हैं। इसके कथावाचक ने भी खुद को एक किंवदंती में बदल रखा है। वह लगभग मृत की तरह जीता है- कथा उसमें जान डाल देती है। यह कहानी बाघ नाच दिखाने वाले कलाकारों की है जो पाते हैं कि उनकी कला का मोल तभी तक है जब तक वे दूसरों के भीतर डर पैदा करते हैं। सबसे आकर्षक मौत का डर है जिसे पैदा करने वाला कथाकार किंवदंती और देवता में बदल जाता है- लेकिन यह देवत्व ही एक दिन उसे मार भी डालता है। बरसों बाद उसका बेटा ही यह कहानी सुनाता है- लेकिन जैसे अपनी ही बलि देकर।
''यीशू की कीलें'' भारतीय राजनीति में बढ़ते सड़ांध की कहानी है- या इतनी भर नहीं है- इस सड़ांध की सबसे आसान शिकार बनाई जा रही दो औरतों की भी कहानी है। इसके अलावा यह उस आहत प्रजातंत्र की भी कहानी है जिसे उसके नेताओं ने छला है। किरण सिंह की बाकी कहानियों की तरह यह कहानी भी बिल्कुल भीतर तक उतरती है। जेल में बंद अरिमर्दन सिंह के चुनाव प्रचार के लिए उनकी मुस्लिम पत्नी निकलती है- बल्कि निकलने पर बाध्य की जाती है। उसके साथ भारती नाम की एक और लड़की है। ये लोग अलग-अलग मोहल्लों में जाती हैं और पाती हैं कि अपने राजनीतिक नेतृत्व को लेकर लोगों में कितना गुस्सा है, कितना डर है और कितना अनमनापन भी है।
लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकती-  उसमें अचानक राजनीति की नई साजिशों के अलग-अलग सूत्र दिखने लगते हैं। इनमें एक तरफ अवसरवाद और क्रूरता की पराकाष्ठा है तो दूसरी तरफ स्त्री उत्पीडऩ की सिहरा देने वाली कहानी। यहां फिर से लेखिका नाटकीयता की हदों को छूती दिखाई पड़ती है, मगर इतने विश्वसनीय ढंग से कि इस लोमहर्षक वृत्तांत को हम जस का तस कबूल करने पर मजबूर होते हैं।
दो कहानियों के जिक्र के बिना यह चर्चा पूरी नहीं होगी। किरण सिंह के भीतर जीवन और स्मृतियों की पुर्नव्याख्या की जो कोशिश हर जगह  दिखती है, वह ''शिलावह'' में अपने चरम पर है। हंस में दो किस्तों में छपी यह कहानी हमारे जाने-पहचाने मिथक-संसार की जैसे धज्जियां उड़ा देती हैं। कहानी के एक हिस्से में दशरथ की स्त्री-लोलुपता और कैकेयी की पीड़ा है तो दूसरे हिस्से में अहिल्या और इंद्र की कहानी को नया संदर्भ दिया गया है। जो प्रचलित कहानी है, उसमें इंद्र के छल से बलात्कृत हुई अहिल्या अपने पति ऋषि गौतम के शाप से पत्थर में बदल जाती है जिसे राम आकर पुनर्जीवन देते हैं। लेकिन किरण सिंह यह कहानी नए सिरे से कहती हैं। वे बताती हैं कि प्रकृति का देवता इंद्र कभी बहुत ताकतवर हुआ करता था और उसका अहिल्या से प्रेम था। खुद अहिल्या अपने समय की बहुत सशक्त स्त्रियों में थी जिससे देवता भी डरते थे और ऋषि मुनि भी। अहिल्या से गौतम ने जबरन विवाह किया। यह कहानी बहुत विस्तार में बताती है कि कैसे इंद्र को पीछे छोड़ राम के अवतार की कल्पना की गई और उसे धरती पर उतारा गया, ताकि वर्णाश्रम धर्म की ठीक से स्थापना हो सके। स्त्रियों को दास बनाने, घर तक सीमित रखने की कहानी किरण सिंह के मुताबिक यहीं से शुरू होती है। यह कहानी पढ़ कर किरण सिंह के साहस पर दंग रह जाना पड़ता है। अगर इस कहानी की खबर अभी के कुछ संगठनों को लग जाए तो वे किरण सिंह को तसलीमा नसरीन बनाने में कोई कसर न छोड़ें।
लेकिन यह कहानी सिर्फ मिथकों की पुनर्रचना के लिए ही नहीं, यह देखने के लिहाज से भी उल्लेखनीय है कि किरण सिंह अपनी कहानियों में कितने सधे हुए और सावधान ढंग से उतरती हैं। वे बिल्कुल उस माहौल को अपनी कल्पना से ज़िंदा कर देती हैं जिसमें उनके चुने हुए मिथ एक नई कथा में परिवर्तित होते हैं। यह सूक्ष्म कल्पनाशीलता भी उन्हें हमारे समय का बड़ा लेखक बनाती है।
दूसरी कहानी पहल के इसी अंक में छपी कहानी 'राजजात की भेड़ें' है। इस कहानी में फिर किरण सिंह एक अलग इलाके में दिखाई पड़ती हैं। इस बार वे अपने साथ पहाड़ के विस्थापन की कथा लाई हैं। पहाड़ से विस्थापन की कहानियां ढेर सारी हैं लेकिन जैसे जीवंत और कलेजा चीर देने वाले ब्योरे लेकर किरण सिंह आती हैं, उनसे फिर से इस लगातार घट रही त्रासदी का एक मानवीय और करुण चेहरा सामने आता है- ऐसा चेहरा, जिसका वर्णन पहाड़ के लेखकों के यहां भी दुर्लभ है। वहां विस्थापन के बाद बच रहेपरिवारों की तिल-तिल हो रही मौत है, लोककथाओं और विश्वासों के लगातार क्षीण पड़ते धागों के सहारे जीवन का मूल्य बचाने की हांफती हुई कोशिश है और फिर व्यवस्था का वह पाखंड है जो अपने विरुद्ध किसी भी प्रतिरोध को कुचल डालता है और अंतत: नीचे उतरने और शहर जाने की विवशता है।
किरण सिंह के संग्रह में ऐसी और भी कहानियां हैं। लेकिन इन सारी कहानियों की लगातार प्रशंसा के बीच यह प्रश्न पीछा नहीं छोड़ता कि आिखर ये कहानियां इतनी अच्छी क्यों लगती हैं और इनमें कोई फांस है या नहीं?  बेशक, अपनी कुछ कहानियों में किरण सिंह कहीं-कहीं दुरूह जान पड़ती हैं। 'शिलावह' उनकी बहुत महत्वपूर्ण कहानी है- कई तरह के जाल बुनती और काटती- लेकिन हम पाते हैं कि किरण सिंह खुद इसके शिल्प के जाल में उलझी हुई हैं। कहानी का एक सिरा दूसरे सिरे से कुछ अलग है। इस कहानी को धीरज से पढऩा पड़ता है। (हालांकि ऐसी बहुत सारी बड़ी कहानियां हैं जो धीरज से पढ़े जाने की मांग करती हैं।)
दूसरी बात यह कि कहीं-कहीं किरण सिंह अपनी नाटकीय कथा-युक्तियों में यथार्थ का अतिक्रमण करते-करते कुछ पल के लिए कहीं-कहीं अविश्वसनीय भी जान पड़ती हैं। 'पता' या 'कथा सावित्री और सत्यवान की' जैसी कहानियों में यह संकट दिखाई पड़ता है।
लेकिन इन कहानियों की खूबियां इतनी हैं कि इन छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज़ करने की इच्छा होती है। किरण सिंह की कहानियों में जैसे 'क्लोज़ अप' बहुत हैं। वे पुरानी, बहुत फैली हुई कथाएं चुनती हैं लेकिन इस विस्तार में जाने की कोशिश में वे अपने चरित्रों को कतई नहीं भूलतीं। उनकी सारी कोशिश हर त्रासदी को चेहरों और चरित्रों के मार्फत पकडऩे की होती है। इससे उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय आख्यान बनने से बचती हैं।
यह काम आसान नहीं है। इस काम में उनकी मदद उनकी बहुत समृद्ध भाषा करती है। यह समृद्धि दो स्तरों की है। वे बिल्कुल सटीक वाक्य लिखती हैं- हालात के हिसाब से कभी घास और कभी नश्तर बनती भाषा उनके पास है। इस भाषा में लोक स्मृति, बोली-बानी का जो गाढ़ा रंग शामिल है, वह कई जगहों पर जैसे सूक्तियां और मुहावरे बनाता चलता है। दूसरी बात यह कि वे कहानियों के परिवेश के हिसाब से भाषा को बहुत कौशल के साथ बदलती हैं। पूर्वांचल की कथा भाषा अलग होती है, पहाड़ की अलग, राजनीतिक दर्प की भाषा अलग होती है पारिवारिक सरोकार की अलग।
यहां यह जोडऩा भी ज़रूरी लग रहा है कि ये कहानियां बहुत शोध और परिश्रम से लिखी गई कहानियां हैं- लेकिन किसी शोध को कहानी में कैसे बदला जाए, यह भी बताती हैं।
इन कहानियों के बीच से किरण सिंह के अपने वैचारिक आग्रहों को भी पहचाना जा सकता है।
जैसे वे हर तरह की सत्ता को तार-तार करती चलती हैं। पितृसत्ता, राजसत्ता या धर्मसत्ता के प्रति लगभग एक विद्रोह है जो उनकी कहानियों के केंद्र में है। जाहिर है, हाशिए का पक्ष उनका अपना पक्ष है। इन कहानियों में दलितों-पिछड़ों या अल्पसंख्यकों के साथ बरते जा रहे भारतीय सौतेलेपन के भी अभिप्राय जैसे अचूक ढंग से मिलते हैं। सत्ता के इन तमाम रूपों ने सबसे ज़्यादा स्त्री को कुचला है, यह समझ बहुत साफ है और ये कहानियां स्त्री का अपना पक्ष भी रचती हैं। यह अनायास नहीं है कि लगभग इन सारी कहानियों के केंद्र में ऐसी स्त्रियां हैं जो घुटने नहीं टेकतीं, किसी भी ढंग से लडऩे को तैयार मिलती हैं। दरअसल यह क्लीशे लगता वाक्य यहां दुहराने की तबीयत होती है कि मानवीय उद्यम में बहुत गहरी आस्था इन कहानियों के मूल में है।
कहानी 'संझा' पर मिले रमाकांत स्मृति सम्मान के अवसर पर दिए गए अपने वक्तव्य में किरण सिंह ने कहा था, 'यहां बस इतना जान लीजिए कि मेरे लिए कहानी, वह आग है जो उस तरफ लगी हुई जंगल की आग को बुझाने के लिए, इस तरफ से लगा दी जाती है। मैं अपने को और दूसरों को नष्ट करने वाला मानव बम नहीं बनना चाहती। मैंने अपने क्रोध को रचनात्मकता में तब्दील किया है। मेरी कहानियाँ, सामंती सोच वाले समाज से, मेरा रचनात्मक प्रतिशोध हैं। मेरा व्यक्तिगत मत है कि स्त्री की अधिकांश क्रिया, क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया होती है। स्त्री या तो रक्षात्मक रहती है या आक्रामक, वह सहज मनुष्य नहीं रहती। मेरे लिए कहानी, विकटतम स्थितियों में भी जिन्दगी जीने का लालच है। मैं अपनी कहानियों की शुरुआत नहीं जानती लेकिन अन्त जानती हूँ। विकटतम स्थितियों में भी मेरी नायिकाएँ न हारेंगी न मरेंगी। वे डरेंगी पर वे लड़ेंगी। ....नियति यदि बदनियति पर उतरी तो उसे मनुष्य के इस्पाती इरादों से टकराना होगा।
इस वक्तव्य का समापन लेखिका ने इन शब्दों से किया था- 'मैं स्त्री हूं और हिंदी में लिखती हूं। मैं एक लुप्त होती प्रजाति हूं। मुझे संभाल कर रखिए।'


जिज्ञासु पाठकों से आग्रह है कि वे 'साखी' पत्रिका के ताज़ा अंक में किरण सिंह की कहानियों पर नीरज खरे का लेख भी पढ़ें।
- संपादक









संपर्क- मो. 09811901398, गा•िायाबाद

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