पहली, दूसरी और तीसरी दुनिया का सबसे बड़ा सरमाएदार...

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम जितेन्द्र भाटिया





इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां





किसी वैताल की तरह हम बार-बार उन्हीं-उन्हीं डालों की ओर लौटते हैं जहां से हमने अपनी बात को शुरू करने का सिलसिला बनाया था। इतावली लेखक इतालो काल्विनो अपनी प्रसिद्ध किताब 'इनविज़िबल सिटीज़' में दुनिया के काल्पनिक शहरों का एक रूपक है जिसमें तातार सम्राट कुबला खान के दरबार का सबसे चहीता यात्री मार्को पोलो जब अपने द्वारा देखे गए सभी शहरों का विवरण सुनाने के बाद खामोश हो जाता है तो काल्विनो कहते हैं—
''जीती हुई रियासतों के असीम विस्तार पर गर्व कर चुकने के बाद हर सम्राट की ज़िंदगी में एक ऐसा क्षण भी आता है जब सब कुछ जान चुकने का सुकून और उदासी उसके भीतर उमडऩे लगती है। यह खालीपन का वह अहसास है जो बरसातों के बाद हाथियों की गंध और अंगीठियों में ठंडी पड़ती संदल की राख के साथ शाम के वक्त हमारे करीब आता है। जिस जुनून के आगे धरती की गोलाइयों पर बिछी नदियां और पहाड़ कांपने लगते थे, जिसकी इंतहा में एक शिकस्त से दूसरी शिकस्त की ओर बढ़ती दुश्मनों की आखिरी टुकड़ी के टूट चुकने की खबरें हम तक पहुंचती थी और जिसकी बिना पर हमारी विजयी सेनाओं ने पिटे हुए नामालूम बादशाहों से अभयदान के आश्वासन के बदले भेंट में दी जाने वाली दुर्लभ धातुओं, खूबसूरत मृगछालों एवं कछुएनुमा शंखों के सालाना इकरारनामे बटोरे थे, उन्हीं इकरारनामों की मुहरों पर लगा मोम एकाएक भुरभुराकर टूटने लगता है। यही वह क्षण होता है, जब हमें पता चलता है कि असंख्य अचंभों में नहाया हमारा वह साम्राज्य एक बेढंगा, बदशक्ल खंडहर भर बनकर रह गया है, पतन का कोढ़ इस कदर फैल चुका है कि हमारा बहुमूल्य मुकुट भी उसकी रक्षा कर पाने में असमर्थ है और दुश्मन राज्यों पर हासिल की गयी विजय दरअसल हमें उन्हीं की लम्बी, बेअंत शिकस्त का इकलौता वारिस बनाती चली जा रही है...''
यह समझना बहुत मुश्किल नहीं कि शहरों की छवियों और तातार सम्राट कुबला खान के रूपक के पीछे, काल्विनो धरती की किन साम्राज्यवादी ताकतों पर निशाना साध रहे थे। पिछली कई शताब्दियों से ये ताकतें एक तरह से समूची धरती पर राज कर रही हैं। पिछले साठ-सत्तर वर्षों में दुनिया की राजनीतिक आबोहवा में चाहे जो भी परिवर्तन आया हो, लेकिन इन ताकतों का वर्चस्व ज्यों-का-त्यों है। गुलामी और परतंत्रता की परम्परा बेशक समाप्त हो गयी हो, लेकिन साम्राज्यवाद का विस्तार और उसका मिजाज़ अब भी पहले की तरह बरकरार है— सि$र्फ उसकी भाषा और उसकी शब्दावली में मामूली फेरबदल आया है। जैसा कि इस विमर्श में एकदशक से भी पहले हमने लिखा था—
...यह सारी दुरभिसंधि (अंग्रेज़ी की) सदियों पुरानी राजनीतिक गुलामी का ही एक विस्तार है; फर्क सिर्फ इतना है कि बरसों पहले अजनबी घुसपैठिए पिछवाड़े का दरवाज़ा तोड़कर ज़बर्दस्ती घर में घुसे थे, जब कि इस बार उनके हाथों में पोर्टफोलियो, ब्रीफकेस और चेहरों पर मुस्कराहट है और वे हमारे मुख्य दरवाजे की घंटी बजा चुकने के बाद बहुत विनम्रता के साथ भीतर घुसने की इजाज़त मांग रहे हैं...
पिछली सदी में एक समय ऐसा था जब यूनियन जैक के विश्वव्यापी साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। अब उन रियासतों में से एक भी, ईश्वर द्वारा रानी की रक्षा करने वाले 'गॉड सेव द क्वीन' गीत की धरोहर के रूप में बाकी नहीं बची है। अभी कुछ ही दिन पहले जलियां वाला बाग की ड्यौढ़ी पर श्रद्धा से झुके ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरोन की छवि सभी समाचारपत्रों ने मुखपृष्ठ पर प्रकाशित की थी। लेकिन दृष्टव्य है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह पांच सौ वर्षों के अंतराल पर शाइलॉक जैसे किसी सौदागर की एक और फैंसी ड्रेस पहनकर भारत आए कैमरोन ने जलियांवाला कांड के प्रति महज़ खेद भर प्रकट किया था, उन्होंने अपने पूर्वजों के कृत्यों के लिए क्षमा नहीं मांगी थी और न ही फिर कभी ऐसा न हो देने का कोई संकल्प अपने देश की ओर से हमें दिया था। पंजाब से लौटते हुए उन्होंने उसी सांस में पत्रकारों को यह भी बता दिया था कि रियासतें चाहे चली गयी हों, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के 'ज्वेल इन दि क्राउन' और उसके सबसे नायाब हीरे कोहिनूर को इतने सालों के बाद भारत लौटा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यानी सौदागर हरहाल में सिर्फ सौदागर होता है,उसका नैतिकता, न्याय या स्वाभिमान से दूर का भी कोई रिश्ता नहीं होता। यथा धूमिल—
...उसे तुम्हारी शराफत से कोई वास्ता नहीं है
उसकी नज़र न कल पर थी, न आज पर है
सारी बहसों से अलग, वह हड्डी के एक टुकड़े और
कौर भर (सीझे हुए) अनाज पर है...         ('कुत्ता' कविता से)
हम बखूबी जानते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के ये तमाम आधुनिक अवतार दुनिया में शांति फैलाने या गरीबी हटाने के किसी परोपकारी इरादे से अश्वमेध पर नहीं निकले हैं। यदि इनका वश चलता तो दिल्ली पर आज भी इनका यूनियन जैक फहरा रहा होता। किस्सा यूं हुआ कि एक समय के बाद अंग्रेज़ों के लिए हमारे और उन तमाम दूसरे देशों के 'जन' को संभाल पाना मुश्किल हो गया। इन तमाम विकासशील देशों के 'जन' ने लंबे संघर्ष और बहुत सारी कुर्बानियां देने के बाद अपनी स्वतंत्रता अर्जित की है, इसमें अंग्रेज़ों की दरियादिली या उनकी मेहरबानी का कोई हाथ नहीं रहा है (इसीलिए कुछ लोग आज भी कॉमनवेल्थ को एक मखौल की तरह लेते हैं और पाकिस्तान जैसे कुछ देश तो इसके सदस्य भी नहीं हैं!) अंग्रेज़ों की तरह फ्रांसीसी और डच सरकारें भी एक दिन इसी तरह की स्थितियों में एक-के-बाद एक अपनी रियासतें खाली कर वहां से भागीं। जाते वक्त तिजोरियों को खाली कर चुकने के अतिरिक्त वे अपने-अपने देशों के सामंती मुकुटों के लिए इन उपनिवेशों के तमाम नायाब हीरे चुराकर साथ ले गए, ताकि एक ओर जहां इनकी सम्पन्नता में कोई फर्क न आने पाए, वहीं दूसरी ओर हमें, अपने पैरों पर स्वतंत्रता का यह मुश्किल सफर फिर से 'क ख ग' से शुरू करना पड़े। कुशल सौदागर होने के नाते वे जाने से पहले अपने पहचान-पत्र और विज़िटिंग कार्ड हमारे पास छोड़ गए, ताकि अगली मार्केटिंग कॉल या ज़रूरत के वक्त अगर उन्हें फिर से हमारे घर की घंटी बजानी पड़े, तो दूसरी ओर दरवाज़ा खोलकर इन्हें पहचानने और मेहमान-नवाज़ी की पुरानी परंपरा निभाने में हमें कोई परेशानी न हो।
कहने की ज़रूरत नहीं कि दुनिया में उपनिवेशवाद की शुरूआत व्यवसाय से ही हुई है। ईस्ट इंडिया कम्पनी इस धरती की सम्पदा को सस्ते दामों पर खरीदने और मैनचेस्टर की मिलों में बन रहे कपड़े के लिए नए बाज़ार ढूंढने के इरादे से हुगली नदी के मुहाने पर अपना जहाज लेकर आयी थी। कोलम्बस भी सोने-चांदी और जवाहरातों की खोज में गलती से अमरीका जा पहुंचा था। यदि वह गलती से वहां न पहुंचा होता, तब भी उसके इरादों में कोई फर्क होने की संभावना नहीं थी। इतिहासकार अर्ल हैमिलटन ने दक्षिणी अमेरिकी के देश बोलीविया (जो उस समय पोटोसी नाम से जाना जाता था) से स्पेन के सैनिकों द्वारा 1503 और 1660 के बीच में स्पेन लाए जाने वाले सोने और चांदी का ब्यौरा देते हुए लिखा है कि स्पेन के सिर्फ एक बंदरगाह सैनलुकार दी बारामेडा पर ही 185000 किलोग्राम सोना और सोलह हजार टन चांदी उतारी गयी थी, जो पूरे यूरोप की समस्त खदानों की संभावित क्षमता से भी तीन गुना अधिक थी।  इस खजाने को प्राप्त करने के लिए 'इतने निहत्थे आदिवासियों, इंकाओं और इंडियन्स की बर्बर हत्या की गयी थी कि नदियों का पानी कई-कई दिनों तक लाल बना रहा था।' ऑस्ट्रेलिया और न्यू•ाीलैंड पर सोने की तलाश में उतरी श्वेत सेनाओं ने भी वहां के माओरी निवासियों के साथ इससे बेहतर सुलूक नहीं किया था और दक्षिणी अफ्रीका में श्वेतों की बर्बरता की कहानी भी इससे बहुत अलग नहीं मिलेगी। दक्षिणी अमरीका में इंकाओं के भव्य सूर्य मंदिर में बदहवास स्पेनी सेना के प्रवेश का दर्दनाक विवरण देते हुए लिखा गया है कि 'सिपाहियों ने जो कुछ सामने दिखा उसे नष्ट कर दिया। बहुमूल्य रत्न-जडि़त प्रतिमाएं और पच्चीकारी वाले बर्तन हथौड़ों और छैनियों से तोड़े गए, ताकि उन्हें ले जाने लायक आकार का बनाया जा सके। जो टूटा नहीं, उसे एक भट्टी के हवाले कर दिया गया ताकि उससे सोने की ईंटें बनायी जा सकें। दीवारों पर ठुंकी बेशकीमती कलाकृतियों, पारम्परिक पक्षियों, जानवरों और तमाम भव्य आकृतियों को पिशाचों ने बेदर्दी से पिघलाकर मटियामेट कर डाला...'
दरअसल उपनिवेशवाद की इस भव्य विश्वव्यापी इमारत की गहराई में हमारे पूर्वजों का गाढ़ा खून, उनकी जिंदा तोड़ी गयी हड्डियों और उनकी समूची सांस्कृतिक परम्परा के विनाश की करुण कथा कण कण में बिखरी मिलेगी। जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था कि जिसकी मुट्ठी में इतिहास होता है, वही भविष्य का भी नियंत्रण करता है। लेकिन दुखद वस्तुस्थिति यह है कि प्रकृति से लड़ाई लडऩे वाला दुनिया का एकमात्र जीव—मनुष्य, अपने इतिहास से कभी कुछ नहीं सीखता। और इसीलिए शायद उसके भविष्य के बारे में आश्वस्त हो पाना भी काफी मुश्किल हो जाता है।
पिछली सदी के भोगौलिक उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद अब जिस नए आर्थिक उपनिवेशवाद से हमारा सामना हो रहा है, उसमें सरकारों, राजनीतिक सत्ताओं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके अधिकृत या अनधिकृत दलालों की पहचान आपस में इस कदर गड्मड् हो चुकी है कि एक को दूसरे से पहचानकर अलग करना भी शायद मुश्किल होगा। अर्थशास्त्री पर्लिट्ज़ की बात को दोहराएं तो सिंहासन पर दरअसल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आसीन हैं और सरकारों की वास्तविक भूमिका दलाल या कि रेड लाइट मुहल्ले के 'दल्ले' से बहुत अधिक सम्मानजनक या भिन्न नहीं रह गयी है। पिछली कड़ी में हमने जनतांत्रिक रास्तों से सत्ता में आयी सरकारों के इस अवमूल्यन को लेकर चिंता व्यक्त की थी। लेकिन इससे आगे, दुनिया का अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व भी क्या हमारे मन में किसी तरह की कोई उम्मीद जगाता है?
पिछले पच्चीस वर्षों में इस दुनिया ने आर्थिक उपनिवेशवाद को दुनिया के सुदूरतम इलाकों और तीसरी दुनिया के सबसे अविकसित या पिछड़े हुए प्रदेशों तक में पहुंचते देखा है। इस लेखमाला के चलते-चलते ही हमारे नागरिक जीवन में कितने दूरगामी परिवर्तन आ गए। छोटे-छोटे शहरों में भी आज विशालकाय और आधुनिक 'मॉल' स्थापित हो चुके हैं जिसके चलते खरीददारी की पुरानी पद्धति हमेशा के लिए बदल चुकी है। आम शहरी के लिए आज मोबाइल फोनों, सीलबंद पानी की बोतलों और प्लास्टिक के डेबिट और क्रेडिट कार्डों के बगैर जिंदगी की कल्पना कर पाना भी मुश्किल होगा। व्यापार की शक्तियां आज मोबाइल फोनों, इंटरनेट और टी वी के ज़रिए हमारी दुनिया के व्यक्तिगततम हलकों में भी प्रवेश करने और हमारे सारे आर्थिक निर्णयों को प्रभावित करने में सक्षम हैं। हमारे से पहले की दुनिया में ऐसा नहीं था। पिछली शताब्दियों के दौरान देशों के चक्रवर्ती सम्राट अपनी सारी उम्र ज़र और ज़मीन' की भौगोलिक लड़ाइयों में गुज़ार देते थे। इसकी इंतहा में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे 'अविकसित' प्रदेशों में तो शताब्दियों पहले हमलावरों ने स्थानीय बाशिंदों और मूल निवासियों का एक सिरे से सफाया ही कर दिया था। आज की लड़ाइयों में मैदान-ए-जंग में उतरने की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है, संचार साधनों की 'मानस-शक्ति' से ही सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। यही नहीं, इस घमासान की मार पुराने ज़माने की लड़ाइयों से कहीं अधिक गहरी और कालजयी है। गांव से शहर तक फैले इस आंदोलन की मंशा यह है कि गांव के छोटे से खोखे में या उसके आसपास पीने का स्वच्छ पानी मिले या न मिले, वहां किनले/एक्वाफिना की ठंडी बोतल, एयरटेल का सिमकार्ड और मर्दों वाली फेयरनेस क्रीम की ट्यूब ज़रूर मिलनी चाहिए। गोलियों, बंदूकों और तलवारों की आपाधापी के बगैर भी ये ताकतें आज तय कर रही हैं कि हमें कौनसा पानी पीना है, कौनसा मोबाइल खरीदना है और कौन से साबुन से नहाना है। इसे एक कदम आगे इनकी मंशा यह भी है कि ये आपके लिए मुकर्रर करें कि आप कौनसा सीरियल देखेंगे, कौनसी भाषा बोलेंगे और अंतत: क्या सोचेंगे या कौनसी किताब अपने हाथ में उठाएंगे। इस सम्पूर्ण सांस्कृतिक घेराबंदी के चलते आपके सामने भी पांच सौ साल पहले पेरू या निकारागुआ या पोटेसी में स्पेनी सेना से मुखातिब इंका और माया वंशजों की तरह अपना सब-कुछ इन लुटेरों के हवाले कर देने के सिवाए कोई चारा बाकी नहीं रह गया है। शायरी की ज़बान में बात करें तो—
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं!
इस आर्थिक लड़ाई के लिए दो बेहद सकारात्मक शब्द ईजाद हुए, 'उदारीकरण' और 'वैश्वीकरण', जबकि इन दोनों ही शब्दों को चलाने के पीछे दुुनिया के प्रति उदार होने या इसे किसी वैश्विक परिवार या 'वसुधैवकुटुम्बम्' में तब्दील कर देने का कोई इरादा दूर-दूर तक मौजूद नहीं था। इसी श्रृंखला में हमारे अतिथि लेखक स्टीफेन गॉडफ्री के दो टूक शब्दों में, वैश्वीकरण वास्तव में दुनिया के पिछड़े हुए, अस्थिर और अविकसित या विकासशील प्रदेशों में नए बाज़ारों के खोले जाने का ही दूसरा नाम है। दुखद यह भी है कि इस तेज़ी से बदलते पूंजीवादी समाज में एक बहुत बड़ा सर्वहारा, साधनहीन, भूमि से बेदखल तबका भी है जो उपभोक्ता समाज की आपाधापी में शामिल नहीं है, जो अपनी जड़ों से कटकर दिग्भ्रमित सा इस तमाशे को देख रहा है और जैसा कि अरुंधती राय लिखती हैं, जिसके असंतोष को झेल पाना आने वाले समय में प्रभुताशाली वर्ग के लिए और भी मुश्किल होता चला जाएगा।
आर्थिक उपनिवेशवाद की आंधी पिछले बीस सालों में इस कदर तेज़ हो चली है कि व्यक्ति तो छोडि़ए, संस्थाओं और सरकारों तक के पास इसका मुकाबला करने इच्छा या मनोशक्ति बाकी नहीं बची है। भारत की ही बात करें तो सरकार में वामपंथी दलों की हिस्सेदारी होने तक हमें कम-से-कम एक मानसिक अंकुश कहीं-कहीं दिखाई देता था। लेकिन उसके विलग होने के बाद न सिर्फ निजीकरण के कदमों में तेज़ी आयी है, बल्कि सरकार की अंतर्राष्ट्रीय नीति से एक दूरी रखने के स्थान पर अब उसके खेल में मोहरा बनने के लिए तत्पर दिखाई दे रही है। जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथी दलों की हाज़िरी सरकार को संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ साठ-गांठ पक्की करने में आड़े आ रही थी (और जिस के कारण अंतत: वामपंथियों को सरकार से हटना भी पड़ा), कुछ उसी तरह पिछली सदी में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सोवियत यूनियन की उपस्थिति अमरीका के वर्चस्व पर बार-बार प्रश्न चिन्ह लगाती जा रही थी। देखा जाए तो संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए सोवियत यूनियन के विघटन से बेहतर कोई खबर हो ही नहीं सकती थी क्योंकि इससे एक तरह से दुनिया में अमेरिका के झंडे तले पूंजीवाद को स्थापित करना संभव हो चला था। क्यूबा से एक यथास्थिति सी कायम हो चुकी थी और दक्षिणी अमरीका के एकाध विद्रोही स्वरों को भाड़े के आतंकियों और तानाशाहों के ज़रिए तोडऩा बहुत मुश्किल नहीं था। अब इसके बाद सिर्फ चीन बचता था, जिसकी नीतियों में वैसे भी काफी घालमेल था, और जिसे साधने के लिए उसके निकटतम पड़ोसी भारत से दोस्ती बढ़ाना बेहद ज़रूरी था, फिर इसे चाहे पुरानी प्रेमिका (पाकिस्तान) रूठकर चीन के साथ 'फ्लर्ट' करने पर आमादा ही क्यों न हो जाए। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के ये पैंतरे आज लगभग हर देश जानता और समझता है। लेकिन फिर भी अपने तात्कालिक स्वार्थ के अनुसार हर सरकार फेंस पर बैठी दिखाई देती है क्योंकि लगभग हर क्षेत्र में औद्योगिक प्रगति का बैंड बज चुका है और विकसित देशों के सारे उत्पादन को तीसरी दुनिया के सस्ते कारखानों में धकेल चुकने के बाद भी कुल आय में कहीं कोई बढ़ोत्री नज़र नहीं आ रही है। विकासशील देशों की सरकारों की बोलती यूं भी बंद हैं क्योंकि उनकी नकेल विश्व बैंक के हाथ में है जो उनकी मंडियों को विश्व बाज़ार के लिए खोल देने के बाद ही कर्ज़ के लिए अपनी तिजोरी खोलने की मंजूरी देता है।
ऐसे में यदि सवाल किया जाए कि इस समय दुनिया का सबसे प्रभुताशाली देश कौनसा है तो इसका जवाब ढूंढने के लिए आपको अक्ल के घोड़े नहीं दौड़ाने पड़ेंगे। यह वह देश है जिसकी राजनीतिक और सामाजिक नीतियां आज दुनिया के विकसित देशों को ही नहीं, इस धरती पर तीसरी दुनिया के तमाम विकासशील देशों के भविष्य को भी अपने म•ाबूत शिकंजों में इस कदर जकड़े हुए है, कि उसकी इजाज़त के बगैर कोई पत्ता नहीं हिल सकता, कोई परिंदा पर नहीं मार सकता। गौरतलब यह है कि पांच सौ साल पहले अपने प्रदेश के जायज़ उत्तराधिकारियों—रेड इंडियनों—का अमूल सफाया कर चुकने के बाद से ही इस देश ने अपनी ज़मीन पर कोई लड़ाई नहीं लड़ी है, लेकिन दुनिया के किसी भी निकट-सुदूर कोने में, किसी भी उद्देश्य के लिए लड़ी जाने वाली किसी भी लड़ाई में इसका प्रत्यक्ष या छिपा हुआ हाथ हमेशा रहता है। यह देश दुनिया के हर छोटे-बड़े मुल्क को अपनी सुविधा के अनुसार शांति और अमन की सीख सिखाता है और अमन की इस स्वघोषित परिभाषा को कारगर ढंग से कायम रखने के लिए इसे आतंककारियों, तानाशाहों और माफिया शहंशाहों की मदद लेने और उनके साथ साठ-गांठ करने में भी कोई गुरेज नहीं होता। राष्ट्रों की संस्थाएं और तमाम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थान इसकी जेब में रहते हैं और जिन सिद्धांतों के सख्ती से पालन की अपेक्षा यह दुनिया के तमाम देशों से करता है, वह इसकी स्वयं की नीतियों पर कभी लागू नहीं होते हैं। अंग्रेज़ी की कहावत के अनुसार कहा जा सकता है कि दुनिया में सारे देश समान हैं, लेकिन कुछ देश दूसरों से ज़्यादा समान हैं (all countries are equal, but some countries are more equal than others) और यह देश तो उन सारे दूसरे देशों से भी अधिक 'ईक्वल' या समान है! अमेरिका द्वारा नियंत्रित संस्थाओं विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ) पर निशाना साधते हुए अरुंधती रॉय कहती हैं—
विडंबना यह है कि आज दुनिया की दो सबसे अपारदर्शी और मनमानी करने वाली संस्थाएं (विश्व बैंक और आई एम एफ) दुनिया की गरीब सरकारों को पारदर्शिता और जवाबदेही का सबक सिखाती घूम रही हैं। तीसरी दुनिया की सारी आर्थिक नीतियां आज विश्व बैंक की मुट्ठी में हैं और वह वित्तीय सहायता के कारगर औज़ार से देश-दर-गरीब देश, स्थानीय मंडियों और बाज़ारों के ताले तुड़वाकर उन्हें बाहर वालों के लिए मुहैया करवा रहा है। उसकी कार्य प्रणाली को देखकर लगता है कि आर्थिक परोपकार से अधिक दूरदर्शी धंधा आज इस दुनिया में नहीं बचा है।
लातिन अमेरिका के विख्यात लेखक एदुआर्दो गेलिएनो अपनी चर्चित कृति 'लातिन अमेरिका के खुले ज़ख्म में अपने महाद्वीप के पांच सौ वर्षों के लूट-पाट के इतिहास का रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण प्रस्तुत करते है (इस पुस्तक का भारतीय संस्करण अंग्रेज़ी में असद ज़ैदी के सौजन्य से कुछ वर्ष पहले उनके प्रकाशन 'थ्री एस्सेज़' द्वारा प्रकाशित हुआ है)। गेलिएनो की किताब उनके देश उरुग्वे और चिली में लम्बे समय तक प्रतिबंधित रही। सैनिक क्रांति के दौरान उन्हें जेल भी हुई और वे देश-दर-देश भटकते भी रहे। अपनी पुस्तक में गेलिएनो दो टूक शब्दों में बताते हैं  कि लातिन अमेरिका की अस्थिरता और उसके कई देशों में आरोपित तानाशाही किस तरह संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की सरकारों या उनके द्वारा प्रायोजित पैसे के आधार पर फैलायी जाती रही है। 1973 में चिली में साल्वादोर अलेंदे की जनतांत्रिक सरकार का तख्ता पलटकर वहां सैनिक क्रांति लायी गई जिसके परिणामस्वरूप देश की सड़कें खून में नया गयी। इससे पहले इसी वर्ष उरुग्वे में भी एमरजेंसी की स्थिति लाकर ट्रेड यूनियनों और सारी राजनीतिक गतिविधियों को ठप्प कर दिया गया था। 1976 में अर्जेंटीना में फौजी जनरल विडेला सत्ता में लाए गए। इन तीन देशों में तानाशाही शासनों तले दशकों तक यातना, अपहरण, हत्या और देश-निकाले की वारदातें आम रही। गेलिएनो कहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका का 'कॉग्रशनल रेकॉर्ड ऑफ युनाइटेड स्टेट्स' लातिन अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका के सीधे हस्तक्षेप के अकाट्य सुबूतों से भरा पड़ा है। बहुत से अभियुक्तों और व्यक्तियों ने स्वीकार किया है कि 1970 से चिली में जनतांत्रिक सरकार के दुश्मनों को करोड़ों डॉलरों की अमरीकी सहायता मिलती रही थी। गेलिएनो के शब्दों में —
कई बरसों के बाद जब राष्ट्रपति कार्टर लातिन अमेरिका में चल रही नृशंस हत्याओं पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं तो उनसे सहानुभूति होती है! वहां स्थापित किए गए तानाशाह स्वयं-स्फूर्त नहीं थे, उन्हें दमन के तरीकों की शिक्षा-दीक्षा अमेरिका और पनामा क्षेत्र में पेंटागन और सरकार द्वारा चलायी जा रही अकादमियों में मिली थी। ये कार्यक्रम आज भी उसी तरह चल रहे हैं और इनके पाठ्यक्रम में भी कोई परिवर्तन नहीं आया है। लातिन अमेरिका में कार्यरत तानाशाह सरकार के फौजी बहुत अच्छे विद्यार्थी रहे हैं और उनहेंने अपना काम बहुत अच्छे तरीके से सीखा है। कुछ वर्ष पहले विश्व बैंक के प्रेसिडेंट रॉबर्ट मैकनामेरा अपने एक वक्तव्य में गलती से इस साठगांठ का खुलासा कर बैठे थे, ''ये (लातिन अमेरिका के तानाशाह) हमारे नए नेता हैं। मुझे बताने की ज़रूरत नहीं कि सत्ता में बैठे उन नेताओं का कितना महत्व है जिन्हें अच्छी तरह मालूम है कि हम अमरीकी क्या सोचते और कैसे काम करते हैं। इनके साथ हमारी दोस्ती बेशकीमती है!''
दृष्टव्य है कि 1976 और 1977 के बीच जब संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस ने कई देशों को आर्थिक सहायता देनी बंद कर दी थी, तब भी चिली की जनरल पिनोशे की तानाशाही सरकार को संयुक्त राज्य से 29 अरब डॉलर की सीधी राशि मिली थी और अर्जेंटीना के तानाशाह जनरल विडेला को भी उसी समय संयुक्त राज्य के निजी बैंकों से 5 अरब डॉलर और विश्व बैंक से 4.15 अरब प्राप्त हुए थे।
गेलिएनो की इसी पुस्तक की भूमिका में चिली की सुप्रसिद्ध लेखिका इसाबेल अलेंदे कहती हैं—
कि जब चिली में 1970 में आम-चुनाव के ज़रिए साल्वादोर एलेंदे की समाजवादी सरकार सत्ता में आयी, ''तो हमें उसी समय समझ जाना चाहिए था कि यह सरकार प्रारंभ से ही अभिशप्त है, इसका कोई भविष्य नहीं है। उस वक्त दुनिया में शीत-युद्ध का माहौल था और हेनरी किसिंगर के अनुसार अमरीका अपने पिछवाड़े में किसी वामपंथी प्रयोग को सफल होता नहीं देख सकता था। क्यूबा की क्रांति ही बहुत काफी थी, अब किसी अन्य समाजवादी योजना को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था, फिर चाहे वह योजना जनतंत्र के रास्ते से ही क्यों न आयी हो। 11 सितंबर 1973 के दिन सैनिक तख्तापलट के ज़रिए चिली के एक शताब्दी पुराने जनतांत्रिक इतिहास को नष्ट कर जनरल ऑगस्तो पिनोशे को सत्ता में बिठा दिया गया। दूसरे देशों में भी इसी तरह की सैनिक कार्रवाइयां हुई और देखते ही देखते प्रदेश की आधी जनता आतंक और भय की चपेट में आ गयी। लातिन अमेरिका की जनता पर दक्षिणवादी आर्थिक और राजनीतिक ताकतों के ज़रिए यह रणनीति वाशिंगटन में तैयार की गयी थी। हर जगह सेना के भाड़े के सैनिकों ने गिने चुने सत्ताधारियों के कहने पर खुलकर अत्याचार किया। व्यापक स्तर पर दमन और यातना के लिए कॉन्सन्ट्रेशन कैम्प बनाए गए, हर जगह सेंसरशिप लागू की गयी और सैंकड़ों लोगों को संदेह के आधार पर बिना किसी मुकदमे के गोली से उड़ा दिया गया। हज़ारों लोग 'लापता' हो गए और अनगिनत अपनी जान बचाने के लिए शरणार्थियों की तरह देश से भागने लगे।''
पांचवें दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका का वियतनाम में हस्तक्षेप एक लंबे संघर्ष का कारण बना। अमरीका का मानना है कि दक्षिणी वियतनाम में अपनी कठपुतली सरकार को कम्युनिस्टों से बचाने के लिए उसे मैदान में उतरना पड़ा। सिपाहियों और सामान्य नागरिकों सहित बीस वर्ष तक चले इस युद्ध में आठ से इकतीस लाख लोगों तक के मारे जाने का अनुमान है। इनमें करीब पांच लाख साधारण नागरिक और 58 हजार अमरीकी सिपाही भी शामिल थे। युद्ध की विभीषिका ने वियतनाम जैसे संवेदनशील देश का चेहरा हमेशा के लिए बदल दिया। पूरी दुनिया के अलावा स्वयं अमरीका में समय-समय इस युद्ध को लेकर गहरा प्रतिरोध उभरा लेकिन अमरीकी सरकार ने अपनी ज़िद में लाखों जानों को फूंक डाला। इस समय का स्मरण करते हुए 'ए पीपल्स हिस्ट्री ऑफ युनाइटेड स्टेट्स' पुस्तक के लेखक-ऐक्टिविस्ट हॉवर्ड ज़िन कहते हैं—
अगस्त 1965 में जब पहली बार वियतनाम में अमेरिका का हस्तक्षेप बढ़ा था तो अमेरिका की 61 प्रतिशत जनता ने इसका समर्थन किया था, लेकिन 1971 के आते-आते यह जनमत नाटकीय ढंग से उलट चुका था। अब 61 प्रतिशत लोगों का मानना था कि अमरीका की लड़ाई गलत है। अप्रैल 1971 के अंत में, युद्ध से लौटे गई हजार सिपाहियों ने वाशिंगटन में इकट्ठे होकर युद्ध के विरोध में प्रदर्शन किए। जैसा कि उनमें से एक ने कहा भी कि ''यह देश के इतिहास में पहला मौका है जब किसी लड़ाई के जारी रहते हुए उसी लड़ाई में हिस्सा लेने वालों ने इसके बंद किए जाने की मांग की है!''
बुजुर्गों के इस वाशिंगटन अभियान में बहुत से सिपाही व्हील चेयरों और बैसाखियों पर थे। अभियान के अंतिम पड़ाव पर कोई एक हज़ार सैनिकों ने अपने मैडल उस फेंस के पार उठा फेंके जिसे उन सिपाहियों को कैपिटल भवन तक पहुंचने से रोकने के लिए पुलिस ने वहां खड़ा किया था। और मैडल फेंकते समय उनमें से हरएक ने व्यक्तिगत वक्तव्य की शक्ल में कुछ-न-कुछ कहा। ''मुझे इन मेडलों पर गर्व नहीं है!'' एक सिपाही का कहना था, ''इन्हें पाने के लिए मैंने जो कुछ किया मुझे उस पर शर्मिंदगी है। मैं एक साल वियतनाम में था और इस दौरान हमने एक भी कैदी को ज़िंदा नहीं पकड़ा...''
पिछली शताब्दी के अंत में मध्य एशिया में सयुक्त राज्य की लड़ाइयों का कच्चा चिट्ठा जग जाहिर है और इस श्रृंखला की पुरानी कडिय़ों में हमने इनके बारे में विस्तार से लिखा भी है। कभी फिलिस्तीन का विरोध करने वाले मालामाल अमेकीकी यहूदियों की शह पर, कभी अपने पुराने अस्त्रों के इस्तेमाल की •ारूरत पर, कभी उस प्रदेश के बहुमूल्य तेल के खज़ानों की खातिर, तो कभी अपने पुराने साथी सद्दाम हुसैन के विश्वासघात का बदला लेने के लिए ये लड़ाइयां लड़ी जाती रही हैं और इनकी कीमत यह सारा विश्व अपने खून से देता रहा है। 'पहल' में ही इस पूरे प्रकरण का जायज़ा लेते हुए हमने लिखा था—
''...बरबादी का कारोबार फिर चल निकला और आखिरकार एक निहायत एकतरफा और शर्मनाक कार्रवाई के बाद दुनिया भर में शांति की बहाली के अग्रदूत बुश और ब्लेयर एक मृतप्राय विदेशी मुल्क को 'आज़ाद' करा ही लेते हैं! सद्दाम से बदला पूरे करने के लिए उसके बेटों की लाशों की वीभत्स नुमाइश लगाई जाती है और सी एन एन तथा फॉक्स नेटवर्क के टी वी स्क्रीन सैनिक पोशाक में कॉकपिट से बाहर आते बुश का चेहरा दिखाकर तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंजने लगते हैं। वाह!...''
अमरीकी सरकार सिर्फ सैनिक कार्रवाई ही नहीं, सांस्कृतिक संस्थाओं की मदद से भी दुनिया भर में पूंजीवाद का प्रसार और प्रचार करती है। साहित्य एवं संस्कृति को अपनी मुट्ठी में करने के विश्वव्यापी एजेंडे के तहत यह सरकार बहुत सी दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ हर साल जयपुर में प्रायोजित होने वाले पांच सितारा 'लिटररी फेस्टिवल' को भरपूर सहयोग देती है। पिछले साल आयोजकों को लिखे गए अपने विशेष संदेश में अमरीका के राजदूत टिमोथी रोमर ने कहा —
मुझे गर्व है कि अमेरीकी राजदूतावास इस आयोजन का भरपूर समर्थन दे रहा है और हमने बहुत से प्रतिभावान एवं सफल अमरीकी लेखकों को इस आयोजन से भेजा है। राष्ट्रपति ओबामा चाहते हैं कि मैं अमरीका और भारत के बीच के संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए जन-सम्पर्क को प्रोत्साहन दूं। मेरा मानना है कि यह उद्देश्य साहित्य, कला एवं संस्कृति के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है।
लेकिन हकीकत यह भी है कि अमरीकी सरकार द्वारा चलायी जाने वाली बहुत सारी तथाकथित परोपकारी संस्थाएं सिर्फ सांस्कृतिक सद्भाव बनाने के लिए नहीं बनायी गई हैं, बल्कि सरकार और उसकी खुफिया एजेंसी सी आई ए के साथ मिलकर ये पूंजीवाद के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को भी बहुत मुस्तैदी से हटाती चलती है।
1936 में स्थापित फोर्ड फाउंडेशन अपने स्पष्ट उद्देश्यों के तहत अमरीकी सरकार से मिलकर काम करती है। यूं तो इसके उद्देश्यों में जनतंत्र को मजबूत करना और अच्छे व्यवस्थापन को बढ़ावा देना शामिल हैं। लेकिन सरकार के कहने पर इसने रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन नाम की सैनिक संस्था में भी पैसा लगाया है, जो हथियार बनाने का काम करती है। 1952 में फोर्ड फाउंडेशन ने एक और संस्था कायम की, जिसका उद्देश्य था 'कम्युनिस्टों को स्वतंत्र देशों में घुसकर वहां गड़बड़ी पैदा करने से रोकना'! पचास के दशक में इसने तमाम ऐसी एन जी ओ संस्थाओं को सहायता देनी शुरू की जो सरकार के साथ मिलकर लातिन अमेरिका, ईरान और इंडोनेशिया में जनतांत्रिक सरकारों का तख्ता उलटने में कारगर भूमिका निभा रहे थे। इंडोनेशिया में इसने अमरीकी शैली का एक सैनिक स्कूल भी शुरू किया जिसके चुने हुए स्थानीय विद्यार्थियों ने सी आई ए की मदद से वहां सैनिक सत्ता लाने में अहम भूमिका निभायी। इन्हीं के परिणामस्वरूप 1965 में तानाशाही लागू होने के बाद जनरल सुहार्तो शासन में आए। सत्ता में आते ही सुहार्तो ने सी आई ए के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए अपने देश में सैकड़ों-हज़ारों कम्युनिस्ट विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया। सच यह है कि अफगानिस्तान से लेकर युगोस्लाविया और कोरिया तक दुनिया के किसी भी होने वाले संघर्ष में अमरीका का मुखर या छिपा हुआ हाथ रहा है।
अमरीकी होकर भी वहां की नीतियों के विरुद्ध बरसों से आवाज़ उठाने वाले दुनिया के प्रख्यात विचारक और लेखक नोम चोम्स्की कहते हैं कि आज के उपभोक्ता जगत के स्वतंत्र बाज़ार में खाने के सामान, मोबाइल फोनों और घडिय़ों की तरह सार्वजनिक अभिमत भी तैयार किया जा सकता है और अमरीकी सरकार में अभिमत के उत्पाद का कारखाना पिछले कई वर्षों से यह काम बहुत मुस्तैदी से कर रहा है। अपनी किताबों में नोम चोम्स्की ने जो कुछ लिखा है, उसे पढऩे के बाद दुनिया के सबसे बड़े सरमाएदार देश और इसके प्रचार-तंत्र के बारे में कुछ भी और कहना शेष नहीं रह जाता—
कुछ सप्ताह पहले मैं अपने परिवार के साथ छुट्टी वाले दिन नैशनल पार्क में गया तो वहां मुझे एक कब्र का शिलालेख मिला, जिस पर लिखा था, ''यहां (रेड) इंडियन औरत वाम्पानोआग लेटी है, जिसने अपने परिवार और अपनी ज़मीन को न्यौछावर कर दिया ताकि यह महान देश जन्म लेकर फल-फूल सके!''
निस्संदेह इसमें थोड़ी सी त्रुटि है कि वाम्पानोआग और दूसरे स्थानीय बाशिंदों ने स्वयं अपनी मर्जी से अपनी जान और ज़मीन इस सत्कर्म के लिए दी होगी। हकीकत यह है कि मानव इतिहास के सबसे बड़े कत्ले-आम के तहत उन सारे लोगों को बर्बरता से मारकर कुचला और नेस्तनाबूत कर दिया गया। और हम हर अक्तूबर में 'कोलम्बस डे' की शक्ल में उसी कोलम्बस का सम्मान करते हैं जो स्वयं लाखों की जान लेने वाला निर्मम हत्यारा था!
मैं समझता हूं कि सैंकड़ों सदाशयी और सम्मानजनक अमरीकी नागरिक नियमित रूप से इस शिलालेख को पढ़कर बिना प्रतिक्रिया दिखाए गुज़र जाते होंगे। या शायद उनमें से कुछ संतोष भी महसूस करते होंगे कि इसके ज़रिए आखिरकार हम अपने मूल निवासियों के योगदान और उनकी कुर्बानियों को स्वीकृति दे रहे हैं। लेकिन यही शिलालेख यदि इन लोगों को जर्मनी के आउसविट्ज और डचाऊ में यहूदियों को ज़िंदा जलाए जाने वाली भट्टियों के करीब मिलता कि — यहां एक यहूदी औरत लेटी है जिसके परिवार और रिश्तेदारों ने अपना सबकुछ इस महान देश को बनाने में कुर्बान कर दिया— तो उनकी प्रतिक्रिया शायद कुछ अलग होती!
अपने इस भयानक इतिहास से गुज़र चुकने के बाद भी संयुक्त राज्य अमेरिका आज भी इतना पावन और पवित्र कैसे दिखाई देता है? नहीं, इसने अपने काले अमरीकनों या मूल निवासियों से कभी माफी नहीं मांगी और अपने बर्बर तरीकों से तौबा कर लेने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता (बल्कि अब तो पूरी दुनिया में इन तरीकों को निर्यात भी करने लगा है)! बहुत से दूसरे देशों की तरह अमेरिका ने भी अपने समूचे इतिहास को दुबारा लिख लिया है। लेकिन दूसरे मुल्कों के मुकाबले इस विधा में वह उनसे कहीं आगे निकल चुका है क्योंकि इसके लिए उसने दुनिया की सबसे ताकतवर, सबसे लोकप्रिय प्रचार संस्था को काम कर लगा रक्खा है, और इस संस्था का नाम है हॉलीवुड!
अपने बॉक्स ऑफिस के मिथकों को इतिहास की शक्ल में प्रस्तुत करने वाले इस देश की 'सच्चाई और सदाशयता' चरम तक तब पहुंची थी जब इसने दूसरे विश्व युद्ध को फासीवाद के विरुद्ध अमरीका की लड़ाई के रूप में पेश किया था। तूती की जय-जयकारों के बीच यह सच्चाई किसी को याद नहीं आयी थी कि पूरा योरोप जब फासीवाद की चपेट में था तब लम्बे समय तक अमरीकी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी थी और बाद में जब हिटलर ने यहूदियों का योजनाबद्ध जनसंहार शुरू किया था तब अमरीकी अधिकारियों ने जर्मनी से भागने वाले शरणार्थियों को अमरीका में घुसने की इजाज़त नहीं दी थी। अमरीका ने इस युद्ध में हिस्सा तब लिया था जब जापानियों ने पर्ल हार्बर पर बमबारी की थी। लेकिन यहां भी विजय दुंदुभियों में इसके उस सबसे अमानुषिक कृत्य की चीखें भी डूब गयी थी, जिसे आज हम हिरोशिमा और नागासाकी के नागरिकों पर परमाणु बम गिराए जाने की दुनिया की सबसे त्रासद विभीषिका के रूप में जानते हैं। तब युद्ध लगभग समाप्ति पर था। लेकिन इन बमों से जो सैंकड़ों-हज़ारों जापानी मारे गए थे और अनगिनत दूसरे जो रेडियोएक्टिविटी के कारण आने वाली कई पीढिय़ों तक कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों से तिल-तिलकर अपाहिज हो गए थे, विश्व शांति को कोई खतरा नहीं थे, क्योंकि वे साधारण नागरिक थे। बिल्कुल उसी तरह जैसी वल्र्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर मारे जाने वाले लोग या अमरीकी किलेबंदी से ईराक में मारे जान वाले लोग साधारण नागरिक थे। हिरोशिमा और नागासाकी की बमबारी अमरीकी ताकत के प्रदर्शन के लिए बहुत सोच समझकर की गयी थी। बाद में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमेन ने इसे 'दुनिया की सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना' का दर्ज़ा दिया था।
हमें बताया जाता है कि दूसरा विश्वयुद्ध शांति की स्थापना के लिए लड़ा गया था और परमाणु बम 'शांति का हथियार था' क्योंकि इससे तृतीय विश्वयुद्ध को रोकने में मदद मिलेगी! बेशक योरोप और अमेरिका में अपेक्षाकृत शांति रही लेकिन चीनी, कालों और अश्वेत प्रदेशों में अमरीका द्वारा छेड़े गए 'प्रॉक्सी' युद्ध को क्या हम युद्ध नहीं मानते?
दूसरे विश्वयुद्ध के बारे से अमरीका ने जिन देशों से युद्ध किया है या लड़ाई लड़ी है, उसमें कोरिया, क्यूबा, लाओस, वियतनाम, कम्बोडिया, ग्रेनाडा, लीबिया, एल साल्वाडोर, निकारागुआ, पनामा, ईराक, सोमालिया, सुडान, युगोस्लाविया और अफगानिस्तान प्रमुख हैं। इस सूची में अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका के देशों में अमरीका की लुकी-छिपी राजनीति और भाड़े के तानाशाहों द्वारा तख्ता पलट अंजाम कराने वाली वारदातों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसमें लेबनॉन में अमरीकी शह पर इस्राइल के युद्ध को भी छोड़ नहीं सकते, जिसमें हज़ारों लोग मारे गए थे। इसमें मध्य एशिया में अमरीका की दखलअंदाज़ी और आठवें दशक में दस लाख व्यक्तियों की जान लेने वाले अफगानिस्तान के हादसे को भी गिनना होगा। और हमें इस सूची में उन हज़ारों की संख्या को भी जोडऩा होगा जो अमरीका द्वारा चालित प्रतिबंधों और घेराबंदी के कारण ईराक और दूसरे प्रदेशों में मारी गयी...
किसी भी देश में जनमत का यथार्थ बहुत भुरभुरा होता है और सरकार एवं मीडिया के 'अमेरिकन ड्रीम' में यकीन रखने वाली अमरीकी जनता भी इसका अपवाद नहीं है। पक्षपाती मीडिया और सत्ता से मिलकर काम करने वाले टेलिविजन के जरिए जनता की आंखों में धूल झोंकने और सुदूर प्रदेशों में युद्ध अथवा संघर्ष के बीज बोकर उसे विश्व शांति के नाम पर दुनिया में खपाने में अमरीका की राजनीतिक सत्ता माहिर है। यही कारण है कि बहुत से विचारक आज अमरीका को 'वार मोंगरिंग नेशन' या युद्ध एवं अशांति फैलाने वाले देश की संज्ञा देते हैं। लेकिन झांसा देकर जनमत बटोरने की नीति के बावजूद हमें अमरीकी सत्ता और वहां की जन-आकांक्षा के बीच फर्क ज़रूर करना होगा। अमरीकी सत्ता की मानसिकता में परिवर्तन वहां की जन-आकांक्षा के उत्थान से ही सकता है। और ऐसे में वहां प्रतिरोध की ज़मीन तैयार करने वाले विचारकों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो उठती है।
2003 में हॉवर्ड फास्ट और एडवर्ड सईद की मृत्यु से अमरीका में नागरिक प्रतिरोध के दो महत्वपूर्ण आधारस्तंभ एक के बाद एक गिर गए। एक साधारण मजदूर के घर में जन्मे हॉवर्ड फास्ट ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा फासीवाद और जन-विरोधी नीतियों से लड़ते हुए गुज़ारा था। एडवर्ड सईद अमरीका में फिलिस्तीन राज्य की स्थापना के सबसे बड़े समर्थक थे। सुखद यह कि इन दोनों दिग्गजों से आगे भी नोम चोम्स्की और हॉवर्ड ज़िन जैसे लेखकों और विचारकों की एक लम्बी कतार है जो बहुत कारगर ढंग से हॉवर्ड फास्ट और एडवर्ड सईद के अभियान को आगे बढ़ा रही है।
इस दुनिया के बेहतर भविष्य के लिए हम एक तरफ महात्मा गांधी की संशोधित पंक्तियों की ओर लौट सकते हैं कि 'ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे, क्योंकि ये (बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि ) क्या कर रहे हैं' तो दूसरी ओर हमारी शक्ति हैं फैज़ की ये पंक्तियां कि —
जिन के सर मुंतज़िर-ए-तेग-जफा  हैं उनको
दस्त-ए-कातिल को झटक देने की तौफीक मिले!
फिलहाल पूंजीवाद का यह 'अमेरिकन ड्रीम' बहुत तेज़ी के साथ अपनी विश्वव्यापी अश्वमेध यात्रा पर निकल चुका है और इस रथ को मोडऩे या रोक देने की कुव्वत या ताकत किसी देश या संस्थान में दिखाई नहीं दे रही है। अरुंधती राय कहती हैं कि आज 'पूंजीवाद संकट में है' लेकिन हमारा मानना है कि पूंजीवाद हमेशा से संकट में रहा है, क्योंकि यदि वह संकट में न होता तो पिछली कई शताब्दियों से समूची दुनिया में कभी तेल, तो कभी सोने-चांदी तो कभी प्राकृतिक संपदा या जाति, नस्ल और शक्ति के नाम पर ये अनगिनत लड़ाइयां न लड़ी जातीं। देखना यही होगा कि जन के प्रति हमारा यह अनंत आशावाद भविष्य में कितनी यातनाएं दे चुके और कितनी जिंदगानियों की बलि लेने के बाद आखिरकार करवट लेगा, क्योंकि कहा तो मियां 'ग़ालिब' ने भी है कि—
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना!
आमीन!





















सम्पर्क :- 101, वरुणि अपार्टमेंट, 285-286 आदर्श नगर, जयपुर-302004

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