कविता
चुप्पियों के विरुद्ध
क्योंकि हत्या होने से नहीं प्रतिकार करने से भंग होती है शांति सो हत्यारे अब पहले उन जगहों को निरखते हैं जहाँ से उठ सकती हैं विरोध की आवाज़ें वे कत्ल से पहले करना चाहते हैं संभावनाओं का कत्ल तुम्हारी चुप्पी को रौंद कर हो लेना चाहते हैं आश्वस्त ऐसे में चुप रहना बचपने का आसान तारीका नहीं रह गया है
असल में ज़रूरी है भीतर तक डर जाना यानी डरी हुई भीड़ में शामिल हो जाना जो तुम नहीं शामिल होना चाहते तो चुप्पी के साथ निरीहता को भी रचना होगा अपने भीतर ताकि देखने वाले को कभी भ्रम न हो कि यह रणनीतिक चुप्पी है अब ऐसी चुप्पी नहीं चलेगी जिसमें सन्नाटा बोलता हुआ-सा लगे
पर ज़रूरी नहीं कि इतने पर भी या इतने से भी तुम बच ही जाओ यह डरी हुई भीड़ तुम्हे कहीं भी घेर सकती है और कभी भी ले सकती है तुम्हारी खामोशी का इंतेहान कह सकती है लगाने को नारा किसी धर्म या किसी आका के पक्ष में फिर तो अंतत: तुम्हारी आवाज़ से ही तय होगी तुम्हारी चुप्पी!
मूर्खों का वृंदगान
मूर्ख तभी तक मूर्ख थे जब तक उन्हें पता नहीं था कि वे मूर्ख हैं जैसे ही होने की प्रतीति हुई वे मूर्ख नहीं रहे उन्होंने परिभाषा ही बदल डाली ज्ञान की युक्ति और औचित्य की कठिन राहों पर चुन दीं भय की दीवारें और चटपट निकाल लिये आस्था के कुछ आसान गलियारे
अब सब कुछ तर्क की जगह ताकत से सिद्ध होने लगा भड़भड़ा कर गिरने लगी ज्ञान की इमारतें फिर मूर्खों ने कभी तालियां बजायीं कभी जीभें दिखायीं तो कभी छातियाँ पीट-पीट कर विदूषकीय दक्षता का प्रमाण दिया
ऐसा भूचाल पैदा किया कि दौड़ते भागते ज्ञानी रास्ता ही भूल गये वे अपनी तर्कबुद्धि को परखते ही रह गये और मूर्खों ने छल-बल से सबकुछ हथिया लिया
मूर्खों के वृंदगान से बह चली ज्ञान जैसी अज्ञान की धारा और फैलने लगी चारो ओर रोशनी की सीमा होती है अंधेरे की भला क्या सीमा हो!
फिर लोकतंत्र
बिकता सबकुछ है बस खरीदने आना चाहिए इसी विश्वास के साथ लोकतंत्र लोकतंत्र चिल्लाता है सौदागर
सबसे पहले और सस्ते में जनता बिकेगी और जो न बिकी तो चुने हुए प्रतिनिधि बिकेंगे यदि वे भी नहीं बिके तो नेता सहित पूरी पार्टी बिक जाएगी सौदा किसी भी स्तर पर हो सकता है
नैतिकता का क्या वह थोड़ा यह भी बाज़ार से खरीद लाएगा और ईमानदारी यह जितनी मंहगी है उतनी ही सस्ती पांच साल में तीन सौ प्रतिशत संपत्ति बढ़ गयी ईमानदार अध्यक्ष की
सबसे सस्ता बिकता है धर्म लेकिन उससे मिलती है इतनी राशि कि उससे कुछ भी खरीदा जा सकता है यानी लोकतंत्र भी!
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