दो कविता

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    अप्रैल 2018
श्रेणी दो कविता
संस्करण अप्रैल 2018
लेखक का नाम कौशल किशोर





कविता





वह रोए तो क्यों? वह हंसे तो किस पर?

मैं नहीं जान पाया उस औरत को
कब वह हंसती है
कब वह रोती है
उसका हंसना और रोना आपस में मिला है
उस फल की तरह
जो मीठा भी है और कडुआ भी

वह सवाल करती है
वह भी बड़े बेतुके
वह रोए तो किस पर?
वह हंसे तो किस पर?
वह रो रही है तो क्यों?
वह हंस रही है तो क्यों?

जिस बेटे के लिए
वह व्रत-उपवास करती है
दिन भर सीने से चिपकाए
घर-आंगन घूमती है
नगर-डगर छिछियाए फिरती है
उसे जरा देर नहीं लगती
गोद से उतार जमीन पर पटक देने में
श्राप तक दे डालती है-
जा, मर बिला जा
मांस ऐसे चूसता है कि जान चली जाए

वही मां नहीं देख सकती
बेटे को रोते-बिलखते
वह भी रोने लगती
चट उठा लेती गोद में
आंचल से ढक
उसके मुंह में डाल देती दूध
हलके हलके हाथ से थपकिया देती
लोरी सुनाती है वह सो जाय

उस औरत की गोद आज खाली है
गुम हो गए हैं उसके बेटे
रोज 'ब' रोज गुम होते जा रहे हैं उसके बेटे
वह बौखला रही है
रह-रह कर विक्षिप्त सी
वह भागती है राजपथ पर
वह नौजवान को झिझोड़ती है
उससे लिपट कर रोती है
उनमें नजर आता है अपना ही बेटा

जमीन जिस पर वह पेड़ की तरह खड़ी थी
उसर हो गई है
नदी सूखती जा रही है
वह नहीं समझ पा रही है
कि क्या हो रहा है उसके साथ
वह करे भी तो क्या करे
हर आतियो-जातियों से
वह पूछती है बेटे का पता
उसकी सलामती का हाल
इसी तरह माताएं पूछ रही हैं
अपने बेटों का पता
कहती हैं वे नहीं गए थे सीमा पर लडऩे
आदमी बनने के लिए वे गए थे पढऩे
माताएं भटक रही हैं
माथा पटक रही हैं
सांकल खट खटा रही हैं
सारे दरवाजे बन्द हैं उनके लिए

पूरी सज-धज से राजा की सवारी निकली है
ममता पागलों की तरह दौड़ती है
वह रोना चाहती है
वह हंसना चाहती है
वह अकेलेपन में जीती है
जो भी मिलता है, उससे पूछती है सवाल
बेटों का पता
उनकी सलामती का हाल
पर यह क्या?
रक्षकों ने उसे बन्दी बना लिया है
ममता कैद है
ममता खतरनाक मुजरिम है
ममता फिदायन भी हो सकती है
ममता गुस्से में तड़प रही है
ममता अपने बाल नोचती है
ममता चिग्घाडती है
ममता अट्टहास करती है
सारा देश अपने में व्यस्त है
ममता त्रस्त है!

वह हामिद था....

कई बार हम देखते हैं
उम्र छोटी होती है
पर उसके काम बड़े होते हैं
जैसे 'ईदगाह' का हामिद
वह था तो बच्चा
पर उसकी संवेदनाएं बड़ी थीं

वह गांव से इतनी दूर गया था मेले में
रंग-बिरंगे खिलौने उसे रिझाते
अपनी ओर खींचते
उसका बाल-मन उन पर अटक जाता है
अन्दर वेगवती नदी बहने लगती

पर जैसे ही उसकी भोली नजर चिमटे पर पड़ी
मन के सारे सरल भाव वाष्प बन उडऩे लगे
उसकी आंखें चुम्बक-सी चिमटे से जा चिपकी
उसे याद आई दादी
उनका रोटी बनाना,
उसकी सारी क्रिया
जैसे अंगीठी से तवा को उतारना
आग में रोटी को सेंकना
फिर तवा को अंगीठी पर चढ़ाना
इस क्रिया को बार-बार दुहराना
और यह सब करते
हाथ की अंगुलियों का जल जाना
दादी का तड़प उठना
सारे दृश्य उसके सामने सजीव हो उठे

वह लौट रहा था मेले से
गांव की ओर
खुश-खुश
उछलता-कूदता,
हंसता-खिलखिलाता
चिमटे को तलवार की तरह नचाता
वह बना लेता उसे कभी हॉकी स्टिक
तो कभी बल्ला
वह रख लेता कंधे पर गदा की तरह
उसका बचपन लौट आया था उसके अन्दर
अंग-अंग से फूट रही थी मस्ती
बेखौफ बाल-हंसी

वह हामिद था
और यही उसका अपराध था
बाबरी से दादरी तक
जिन्होंने रौंदी हैं इस धरती को
जो नरसंहार के इस खेल का
कर रहे हैं विस्तार
उन्हीं की अदालत में मुकदमा पेश था
प्रेमचंद भी उनके कठघरे में थे
उनसे भी सवाल था
कि क्यों नहीं उन्हें कर दिया जाय
साहित्य से बेदखल?
उनके खिलाफ भी गंभीर आरोप थे
कि उन्होंने क्यों लिखी कहानी 'ईदगाह'
लिखना ही था तो वे लिखते कथा अयोध्या की
राजा रामचन्द्र की विजय गाथा लिखते

हामिद गुनाहगार था
हामिद ने मेले से चिमटा चुराया था
हामिद चोर था
हामिद के खिलाफ खुफिया रिर्पोट थी
हामिद के कश्मीर से कनेक्शन थे
हामिद पत्थरबाजों में देखा गया था
हामिद के तार विदेशों से जुड़े हैं
हामिद देश के लिए खतरा है
हामिद को पेड़ न बनने दिया जाय

वे ही पेशकार थे
वे ही हाकिम हुक्काम थे
वे ही वकील थे
वे ही मुनसिफ थे
वे ही न्यायधीश थे
उन्हीं की अदालत थी

और हामिद के साथ जो हुआ
उसे सारे देश ने देखा
कि जिस चिमटे को
उसने बड़े प्रेम से खरीदा था
और जो इसी का प्रतीक था
उसे ही उतार दिया गया उसके जिस्म में
जहां बेखौफ बाल-हंसी थी
वहां ठहाके की गूंज थी

हामिद मारा गया
नहीं, नहीं, हामिद नहीं मारा गया
मारी गई संवेदनाएं
हत्या हुई भाव-विचार की
जो हमें हामिद से जोड़ती हैं
जो हमें आपस में जोड़ती हैं
जो हमें इन्सान बनाती हैं
जो हमें हिन्दुस्तान बनाती हैं।




संपर्क - मो. 08400208031, लखनऊ

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