पहल प्रारंभ/तीन
नए यथार्थ की उदास दोपहर : सौरभ राय की पाँच कविताएं
सौरभ रॉय को हाल में पढऩे का मौका मिला। इन दिनों लगातार हिन्दी कविता की नयी प्रवृत्तियों या दिशाओं पर सोचती रही हूं - खासकर स्त्री कविता की रचना प्रक्रिया और सारगर्भिता को ध्यान में रखकर। नये यथार्थ के बोचोंबीच व्याप्त पुरुष द्वेष का सामना करती ये कविताएं उदास नही दिखना चाहतीं। ये इसका विश्लेषण कर अपनी राह बनाना चाहती हैं। इस बदलते नये यथार्थ में बस स्त्री द्वेष ही नहीं पुनर्रचित हो रहा है, बल्कि 'मनुष्य के अंत' की भी मनोवैज्ञानिक चाह मुखरित हो रही है - बाज़ार हमें मृत उपभोक्ता ही बनाना चाहता है, जिसमें 'वस्तुएं' सपने की तरह तैरती रहें - जिसकी धमनियों में बस 'वस्तुओं' के लिए ही वासना हो। 'स्त्री के लिए प्रेम' एक अपहचान सी कामना भर बची है; यह प्रेम जो मनुष्य सत्य की तरह चाहता रहा है अब किन्ही और भावनाओं द्वारा विस्थापित कर दिया गया है। इसी 'स्व' के विस्थापन की सच्चाई सौरभ रॉय की इन पाँच कविताओं में देखने को मिलती है। विश्वपूंजी के आक्रामक प्रवेश के बाद, भारत का यथार्थ सामाजिक एवं आर्थिक रुप से बदलता गया है। जीवन को बाज़ार ने घेर लिया है, या कहें ग्रस लिया है। इसने नयी वासनाओं को जागृत किया है जिस कारण चीजें अपने पिछले स्वरुपों में न बची रह गयी हैं, न वे पहचानी जा रही हैं। वे अपने नये स्वरूप में मनुष्य को 'लालच' करना इस तरह सिखा रही है कि सोते जागते वह बस इन्हें पाने की कामना करता रहता है। अब मनुष्य के भीतर कुछ नहीं, सब कुछ बाहर है, ज्यादातर 'मॉल' में सजा हुआ। भीतर की गहराई विशेष मसला नहीं - वस्तुओं के आदान-प्रदान से वह संतुष्ट है, उसके लिए प्रेम के इज़हार की यहां इति हो जाती है। हमारे यथार्थ का बदला हुआ यथार्थ है - भौतिकवाद की सफलता का नया मुकाम। भीतर के प्रकाश के बजाय बाहर फैली कृत्रिम रौशनी, उसकी चमक-दमक हमें नये उत्साह से भरे रखती है, हमारी धमनियों में नयी उत्तेजना प्रवाहित करती हैं। प्रगति करगेती की एक कहानी, जिस पर उन्हें 'हंस' पत्रिका का कहानी पुरस्कार मिला था, 2015 में, वह ऐसी ही एक उत्तर आधुनिक कहानी थी जिसमें सब कुछ बाजार में ही होता है, बाजार की खातिर भी शायद। कहानी की 'पात्र', असली 'सबजेक्ट' की कहानी शुरु ही होती है उसकी मृत्यु के बाद। यानी 'डेथ ऑफ द सबजेक्ट' उस कहानी को अपनी कथात्मकता में आगे बढ़ाता है, यही स्थिति जो उत्तर आधुनिकता की दार्शनिक जमीन है, जहाँ यथार्थ एक आभास का नाम है। सौरभ राय की ये कविताएं इसी बदलते, आभासी संसार में जीते लोगों की 'त्रासदी' को चित्रित करती हैं। यहाँ लोग अपने घरों याकि अपनी आत्मा के 'अंधेरे को' समझने के बजाय बाजारों - मॉल जिसका स्थूल बिंब है, में फिसलते से दिखते है। पाँव भी अब ठोस ढंग से टिके नहीं रहे, वे फिसलते से दिखते है, एक नयी गति है इनमें, जो भीतर के अंधेरे से बेपरवाह है। आँखों की चमक 'नियोन' की जादुयी रौशनी में तब्दील हो चुकी है, ये नियोन की बत्तियां मनुष्य के चेहरों पर जैसे चिपका दी गयी हों, कभी हरे या नीले प्रकाश फेंकती हुई। ये आँखें समाज की वीभत्स हत्यारी राजनीति के असर नहीं देखती, मृत्यु नहीं देखती। इसका संबंध मनुष्य की गहराई से नहीं रहा - उनके जीवन के धनत्व से नहीं रहा - बस सतह से है, फिसलते सतह से, जिस पर अमूर्त रुप से वह माईकल जैक्सन के ब्रेक डाँस करते पैरों की फिसलन में शामिल है। सौरभ राय इसलिए अपने स्कूल मास्टर कार साहिब को याद करते हैं अपनी कविता में जिसमें सर कहते हंै ''भोगोवान का नाम लेने से कुछ नेय होयेगा, आदमी चिन्हों'' वही आदमी जो उपभोक्ता का संपूर्ण रुप पाकर 'भागवान' सा दीख रहा है। इसी को चीन्हने की बात हो रही है या उसकी जो खो गया, बदल गया। वह आदमी जो तार पर बैठी चिडिय़ा का 'घनत्व' को समझना चाहता था कभी। यथार्थ अपनी नयी उपस्थिति में यदि चीजो को नये स्पंदन से भर रहा है और मनुष्य को शून्यता से, और वे 'कतार में रखे गये जूतों से' 'सामूहिक अपरिचय में एक दिशा में ताक' रहे हैं तब तो वे झूठ और सच के गहरे अर्थों से खुशी खुशी विमुख हो गये हैं और हिंसा, प्रताडऩा, वर्ग भेद या लैंगिक भेद से उत्पन्न और पोषित राजनीति को कैसे पहचानेंगे और उससे लडऩे का विवेक कहां से लाएंगे। यह स्थिति हमारे यथार्थ की एक उदास दोपहर की तस्वीर है जिसकी एक प्रति सौरभ की ये कविताएं हैं। ये कविताएं पहले भीतर तक उदास करती हैं, फिर जगाती हंै, महसूस कराती है अपने इस हाथ की उपयोगिता जो 'जेब में हथौडी की तरह गड़ रहे हैं।' सौरभ रॉय की ये पाँच कविताएं हमें अपने नये यथार्थ में ढकेल देती हंै और कहती हंै इसमें पुराने भ्रमों से अब रास्ता नहीं मिलेगा आगे जाने का। हिन्दी कविता की नई दिशा भी इसी स्वीकार से मिल सकेगी। सविता सिंह
सौरभ राय कविताएं
पहाड़ों में ज्यामिति क्लास
बोर्ड पर तीन बार चॉक चलाकर उसने पूछा - बताओ, कहां कहां है त्रिभुज?
बच्चों में स्मृतियाँ टटोलीं - केक का टुकड़ा - त्रिभुज नुक्कड़ के समोसे - त्रिभुज
स्कूल की छत देवदार के पेड़ कोने वाली ताक - त्रिभुज
बिल्ली के कान खच्चर का मुँह प्रिंसिपल की नाक - त्रिभुज
वह हँसी और ले गई बच्चों को खिड़की के पास देखो पहाड़ - नेपथ्य में तीव्र से शांत से त्रिभुज
त्रिभुज आकार है संतुलन का त्रिभुज की ओर चला जाता है आकाश और लौटता है हरे जंगल बनकर
बादल बदल जाते हैं नदी में और आदमी लौटता है जैसे खोलकर तीसरी आँख
वह हँसती रही - मछुआरे का जाल - त्रिभुज बुनाई की चाल - त्रिभुज
मजदूर की पीठ माँ की कोख झुका हुआ सर - त्रिभुज
पुल का स्थायित्व तराज़ू का दायित्व ढहा हुआ घर - त्रिभुज
बच्चो - त्रिभुज आकार है संतुलन का त्रिभुज को नमस्कार करो।
मॉल
एक मशीनी हाथ मुझे दरवाज़े पर रोककर लेता है तलाशी बैग की जिप को खोलता बंद करता हुआ
कतार में लगे जूते अपने सामूहिक अपरिचय में एक दिशा में ताकते हैं
हम बदलते हैं लगातार अपने चलने का प्रयोजन गति और अंदाज़ फर्श पर हमारी नैसर्गिक चाल फिसलती है
शीशे के पार चमकती हुई एक कैजुअल कमीज़ के ऊपर मेरा चेहरा ठहरता हुआ गुज़रता है लाल रंग की बोर्ड पर जहाँ लिखा है - 'सेल'
कांच के आरपार इत्र की खुशबू नियोन जैसे आँखों वाले सुन्दर स्त्री-पुरुष;
मैं यूटोपिया में विचरता हूँ- यहाँ सब सच है यहाँ सब भ्रम है मगर सब हासिल है
सीढिय़ाँ मेरे पाँव के स्पर्श से चल देती हैं आकाशगंगा की ओर फ्लोर दर फ्लोर दो चोर आँखें तारामंडल में मंडराती हैं मेरी चीज़ें लगातार पुरानी पड़ जाती हैं फोन के स्क्रैच पर उँगलियों का मैल जमने लगता है खटकने लगती है नाक को जैकेट में रची बसी अपनी देह की गंध
बोलिंग एले में एक भारी गोला अकेला लुढ़कता हुआ बोतलों की कतार से टकराकर विजयी होता है टेलीस्क्रीन देती है जापानी में जीत की बधाई
आँखों में थ्रीडी ऐनक लगाए एक बच्चा आता है मेरे पास और पूछता है हाथ पकड़कर बाहर निकलने का रास्ता।
तुम्हारी हँसी
दरवाज़े पर लहराते परदे-सी तुम्हारी हँसी
मैं बढ़ाता कदम - और फैल जाती तुम्हारी हँसी पानी पर कच्चे तेल की तरह
सुबह के समय जब ज़मीन पर नहीं बनतीं परछाइयाँ अंडे में धूप-सी उतर जाती खिड़की के खुलने सी लपकती वापिस और पगडण्डी-सी चलती देर तक साथ तुम्हारी हँसी पृथ्वी पर बीज-सी झरती जामुन जैसी आँखों में भर आता स्वाद और नीले पड़ जाते देखो- मेरे दाँत।
हाथ बड़ी मुसीबत
कन्धों से लटके दो हाथ बड़ी मुसीबत है - भरते है कानों में उलजुलूल खयाल
कितनी भी कोशिश करुँ ये लगते हैं देह से थोड़ा अलग - देह चाहती है बैठी रहना धरती से पीठ टिकाकर ये खींचते हैं दाढ़ी चटकाते हैं ऊँगली खुजाते हैं सिर भींचते हैं मुट्ठी!
लोगों से मिलते हुए मैं अक्सर हुआ हूँ शिकार हाथों की राजनीति का- छाती पर बाँध इन्हें मैं लगने लगता हूँ बुद्धिजीवी पीछे जकड़कर होता हूँ चोर शर्मिंदा और कमर पर टिकाकर हाथ जैसे कोई शासक पड़ जाता हूँ थोड़ा सा भारी
हाथों के पीछे शक्ल ढकी रह जाती है। रात के गाढ़े एकांत में जब देह नींद में पडऩे लगती है ढीली हाथ जेब में पड़े हथौड़े की तरह गड़ता है कमर के नीचे सिरहाने दुखती है बांह की पेशी निकली रहती हैं कुहनियाँ अँधेरे को करवटों में फेंटती हुई।
बगल के पसीने की गंध से लेकर बढ़ते नाखूनों की खुरच तक अंतरिक्ष में पसरे हुए हाथ बड़ी मुसीबत है- और उससे बड़ी मुसीबत कि लिखी है ये कविता भी इन्हीं हाथों ने।
कार सर का ट्यूशन
शहर में किसी-से पूछ लीजिये बतला देगा - कार सर का नाम
रांची यूनिवर्सिटी की प्रोफेसरी छोड़कर घर बैठे पढ़ाते थे गणित निकलते थे इनके यहाँ से बीसों आईआईटी टॉपर!
'माथा बाचाके!' ओवर ब्रिज के नीचे रेलवे यार्ड से सटा था उनका दो तल्ले का मकान गराज को बदल दिया था जिसके छोटे से क्लासरूम में ऊपर टिमटिमाती थी पिचहत्तर वाट की ट्यूबलाइट और दीवारों में आती थी नीले पोचाड़े की त्रिकोणमिति-गंध
'कूट वाला नोटबुक लाओ!' - पूरी क्लास में थी बस एक ही मेज़ अक्सर पैरों का कॉपी धरे बीतती थी शाम और प्लास्टिक स्टूल के पाँव लचकते थे सो अलग।
मेज़ पर दर्ज थीं पुरानी प्रेम-घोषणाएं और यथासंभव मिटाये जाने के बावजूद दिख पड़ती थी चित्रकारी कामसूत्र की किताबों को मात देती हुई। कैलकुलस की तरह अनंत की खोज था साल भर का जीवन - अलग-अलग स्कूलों के आये लड़के-लड़कियाँ लिमिट का चिन्ह लिखते हुए आँख मिलाने से बचते थे
प्रेम की सबसे सुन्दर जगह ट्यूशन है यूनिफार्म से बहार एक सामूहिक मिलन-स्थान।
'आरे फॉरमुला को गुली मारो हाम इसकुल टीचार नेय है!' सामने ग्रिल पर सुतली से बंधी रहती थी स्लेट जिसपर हमारे लाये गये सवाल लिख वे चले जाते थे सिगरेट पीने सड़क पर राह गुज़रते भिखारी से कहते - 'भोगोबान का नाम लेने से नेय होगा... आदमी चीनना सीखो!'
'ए छेले... आम कितना का...' 'ट्रेन कोटार सोमोय आभी टाइम है...' बजती थी ट्रेन की सीटी और अन्दर झांककर पूछते थे- 'हुआ?'
'मैथामेटिक्स को देखना सीखो तीन ठो तो डाईमेंशेन है!' ग्रिल से लटकती स्लेट पर नहीं लिखा कभी तीन लाइन से अधिक और बदल जाता था पिंजरे-सा कमरा एक जीवंत ग्राफ में- आँखों के वर्टेक्स से हाथ निकलकर बन जाता था हाईपॉटन्यूस जिसपर फिसलते हुए समझ जाते थे हम ढलान की गहराई
थीटा गज़ल के तबले-सी बजती थी शून्य थी एक अभेद्य संसार की खिड़की जिसमें झाँक वे नचाते थे सवालों को 'एक' की जादूई-छड़ी से
फ्रैक्शन को उलट देते थे रेतघड़ी की तरह ढूंढ निकालते थे स्क्वायर रूट किसी गुप्तधन का और प्रोबबिलिटी हल करते हुए निपोरते थे दांत जैसे जीत रहे हों जुए में पैसा
'जितना भेरियेबल है उतना इकुएशेन बानाओ' 'जीरो से डिभाइड तुम्हारा माथा खाराप है?'
वेक्टर लगाकर सुलझा देते थे कॉम्प्लेक्स नंबर के सवाल और लाग टेबल में देखकर बतलाते थे छज्जे पर बैठी चिडिय़ा का घनत्व।
हमारी नोट्स उतारती कलम अक्सर फिसल जाती थी उनके छज्जे तक चढऩे में - बूलियन अलजेब्रा पर बिखेरे देती थी बाल बिरसा चौक की लड़की और नयी फिल्म की नायिकाएं होने लगीं थीं मेज़ पर दर्ज़; अंगूठे पर नाचते थे कलम धोनी के हेलीकाप्टर शॉट की तरह कि अच्छा खेल रहा है रांची का छोरा नाम रौशन करेगा!
वैसे देखा जाये तो हममें रांची का कोई नहीं था जब एक कोई निकालता था आईआईटी तो 'हमारा लड़का क्रैक किया' छपता था रांची के अलावा कई गाँवों टाउनबाजारों के लोकल अखबारों में
बाहर लगी रहती थीं साईकिलें जिनमें किसी एक पर बैठे उँगलियों में सिगरेट दबाये ट्रिन-ट्रिन घंटी बजाते थे- 'तुमलोग का कुछ नेय होगा अपना गाँव लौट जाओ गोरू दूहो!'
ऐसे तबसरों पर जवाब देने से नहीं चूकता था इकोनॉमिक्स का नितीश सुनाता था अक्सर नॉनवेज चुटकुले एक साथ दबती थी उसकी आवाज़ और आँख डिमांड सप्लाई की तरह; अद्भुत हुनर था उसमें बिना कहे कह देने का - स्वीकार करना चाहूँगा सीखी है उसकी कॉमिक टाइमिंग से मैंने भी थोड़ी सी कविता।
छोड़ दिया था नितीश ने बीच में ही आना लेकिन मैं जाता रहा उनके यहाँ आखिर तक- एकसाथ चमत्कृत और हताश और आईआईटी की परीक्षा लिखने के बाद अब जान गया कि नहीं निकलेगा और भी अधिक- सिर्फ मिलने के लिए या डाउट लेकर।
रिजल्ट निकलने के बाद कई सालों तक रांची रहा और हर बार - ओवरब्रिज के ऊपर से गुजरते हुए नीचे खड़ी साइकिलें दिख भी जातीं कार सर नहीं दिखे।
सौरभ राय एक नये कवि की खोज है। उन पर अलग से प्रसिद्ध कवियत्री सविता सिंह ने टिप्पणी भी की है जो छापी गई है। संपर्क - मो. 09742876892, बैंगलुरु
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