नुक्कड़ नाटक का शोकगीत

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    अप्रैल 2018
श्रेणी नुक्कड़ नाटक का शोकगीत
संस्करण अप्रैल 2018
लेखक का नाम राजेश चन्द्र





पहल प्रारंभ / दो





संस्कृति, कला और साहित्य को दो मुख्य धाराओं, यानि शासकवर्गीय और लोकधर्मी में बांट कर देखने का सिलसिला प्राचीन काल से चला आ रहा है और यह आज भी ज़ारी है। 'विरोधी धारा का थियेटर' शीर्षक के अंतर्गत अपने एक लेख में प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर कहते हैं कि 'कला और संस्कृति का विकास तब तक होता है जब तक वह धारा के विरुद्ध गतिमान रहती है। उसके साथ चल कर वह हमेशा कमज़ोर पड़ जाती है। शासकवर्ग की संस्कृति ने आज ऐसी व्यूह-रचना कर ली है कि अब अगर लोकधर्मी या शोषित वर्ग की संस्कृति को पनपना है तो वह उसके विरोध में ही पनप सकेगी वरना उसी संस्कृति का एक अंग बन कर रह जायेगी।'
दूसरे शब्दों में कहें तो, हमारी शासकवर्गीय संस्कृति जनता की संस्कृति को अपनाने, उसे अपनी संपत्ति बनाने, बल्कि उसे हड़प लेने के लिये कुछ इस तरह आगे बढ़ी है, जिस तरह एक 'शार्क' मछली छोटी-छोटी मछलियों की तरफ  बढ़ती है। सफदर हाशमी संस्कृति की इसी दूसरी यानि विरोधी धारा के संघर्ष के साथ थे। वे गरीब और मेहनतकश वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्कृति के अगुवा थे और उसी के लिये उन्होंने अपनी शहादत भी दी।
नुक्कड़ नाटकों को मूलत: प्रतिरोध का नाटक मानने की परंपरा रही है और भारत में 1965-66 में नयी कविता, नयी कहानी और नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत के साथ ही नुक्कड़ नाटकों के अस्तित्व को भी स्वीकार किया जाता है। लोककलाओं की नींव पर खड़ी इस नाट्य-विधा ने भारतीय जनता के दुख, पीड़ा, उम्मीद और आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दी तथा इसने अपने सामने आठवें दशक के जनवादी आंदोलन को गति देने, श्रमिक वर्ग को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और अशिक्षित जनता तक साहित्य पहुंचाने का वृहत्तर लक्ष्य रखा। मंचीय दुनिया की दादागिरी को कड़ी चुनौती देने के कारण एक वक्त में इसे 'गटर थियेटर' कह कर खारिज करने की भी पुरज़ोर कोशिशें हुईं। सरकारी तंत्र ने भी इसके साथ घृणा का ही रवैया अपनाया पर नुक्कड़ नाटक ने इस सबके बावजूद अपनी प्रासंगिकता बनाये रखी। 1989 में झंडापुर, साहिबाबाद में 'हल्ला बोल' नाटक के प्रदर्शन के दौरान जब सफदर हाशमी की हत्या हुई और इसके विरोध में देश भर से आवाजें उठीं, तब जाकर शासक वर्ग को इस नाट्य-विधा की ताकत का अंदाजा हुआ और उसने घृणा की अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए नुक्कड़ नाटक को एक गैरराजनीतिक, प्रचारात्मक और सहमति के नाटक के तौर पर बढ़ावा देना शुरू कर दिया। इस तरह जनता को जनसंगठनों के पीछे लामबंद करने वाले एक माध्यम को पहले तो राजनीति से विमुख एवं विकृत करने की और फिर उसे गोद लेने की सुनियोजित कोशिशें तेज हो गयीं। इस प्रक्रिया में न केवल सरकार द्वारा बल्कि कई देशी-विदेशी फंडिंग एजेन्सियों द्वारा भी नुक्कड़ नाटक में बेहिसाब पैसा झोंक दिया गया और अंतत: नुक्कड़ नाटक से प्रतिरोध का पक्ष और उसकी विश्वसनीयता दोनों ही छिन गयी।
लेकिन इस पूरे परिप्रेक्ष्य में इस ज़रूरी सवाल को हम नेपथ्य में नहीं छोड़ सकते कि नुक्कड़ नाटक को एक जनवादी क्रांति का नहीं तो कम से कम विकल्प दिखाने भर का ही ज़रिया मानने वाले और अपनी-अपनी सामाजिक-राजनीतिक पक्षधरता के कारण इससे जुडऩे वाले जन नाट्य मंच, इप्टा, सहमत और निशांत नाट्य मंच जैसे संगठन, जिनकी पहचान इसी वजह से है, क्यों पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में प्रतिरोध के इस राजनीतिक माध्यम से लगातार दूर होते चले गये हैं? हमें इस दिशा में थोड़ा ठहर कर सोचना होगा कि एक दौर में नुक्कड़ नाटक को एक जनांदोलन का स्वरूप देने वाले इन नाट्य दलों के साथ ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने अपनी धार, तेवर और सक्रियता खो दी और वे राजधानी के कुछ गिने-चुने सुरक्षित स्थलों पर वर्ष के किन्हीं खास दिनों में उत्सवधर्मिता का निर्वाह करने भर तक सीमित हो गये?
कहा जाता है कि नुक्कड़ नाटकों में जनान्दोलनों के साथ उतार-चढ़ाव आता है और इस वक्त चूंकि किसी विराट् जनान्दोलन का अभाव दिखता है इसलिए रंगकर्मी इस माध्यम से दूर हो गये हैं। इसका तात्पर्य तो यही निकलता है कि नुक्कड़ नाट्य दलों का अपनी पक्षधरता और राजनीति से मोहभंग हुआ है और उन्हें अब शायद किसी बड़े राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद नहीं रही। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस गतिरोध की वजह क्या है? संभव है इसके पीछे नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में सरकार, कॉरपोरेट कंपनियों और राजनीतिक दलों द्वारा अन्धाधुन्ध झोंके जा रहे पैसों की महिमा हो, जिसके लालच में ये संगठन अपने प्रतिरोध का पाला बदल कर गुपचुप तरीके से सहमति के पाले में आ गये, या कि धीरे-धीरे वे अपने वृहत् उद्देश्यों से भटक कर खुली बाज़ार व्यवस्था वाली कुलीन संस्कृति के व्यामोह में फंस गये हैं।
देखा जाये तो भारत में सड़कों, मैदानों, पार्कों और भीड़ भरे चौराहों पर खेले जाने वाले मौजूदा दौर के जिन राजनीतिक नाटकों को 'नुक्कड़ नाटक' कहा जाता है, उनकी वास्तविक शुरुआत 1978 में जन नाट्य मंच की स्थापना के साथ ही हुई है और इस नाटक का स्वरूप निर्मित करने, उसे राजनीतिक प्रतिरोध के कलात्मक माध्यम के तौर पर स्वीकृति और $कामयाबी दिलाने में सफदर हाशमी की केंद्रीय भूमिका असंदिग्ध है। देश भर में फैले नुक्कड़ नाट्यकर्मियों का सफदर के प्रति सम्मान का ही एक उदाहरण है कि उनके जन्म-दिवस यानि 12 अप्रैल को प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस के तौर पर मनाया जाता है और इस अवसर पर देश भर में नुक्कड़ नाटकों के समारोह आयोजित किये जाते हैं। यह बात अलग है कि भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के विश्व-विजय अभियान के पिछले डेढ़ दशक के इस सबसे आक्रामक दौर में, जब जनता की ज़िन्दगी लगातार असंभव बनती चली गयी है और व्यवस्था का सबसे क्रूरतम रूप सामने आया है, तब प्रतिरोध की संस्कृति और उसका रंगमंच एक गंभीर किस्म के अवसरवाद और असमंजस का शिकार है और उसने व्यवस्था के समक्ष त्राण और संरक्षण की गुहार लगानी शुरू कर दी है। इससे बढ़ कर विडंबना और क्या हो सकती है कि सफदर की हत्या के केवल उनतीस वर्षों बाद ही जन नाट्य मंच ने अपनी पक्षधरता और राजनीति से लगभग किनारा कर लिया है और पिछले कुछ वर्षों से वह मज़दूर बस्तियों और कारखानों की धूल फांकने के बजाय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे ब्राह्मणवादी संस्कृति के पोषक संस्थान की चाकरी में जुटा है। जन नाट्य मंच के लिये स$फदर की विरासत बोझ बन गयी क्योंकि उसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का दिव्य, भव्य और वातानुकूलित माहौल अधिक भाने लगा। इसीलिये सफदर की स्मृति में 22वां राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस मनाने के लिये उसने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को सबसे उपयुक्त जगह माना, जहां न केवल वह अपनी पक्षधरता का प्रायश्चित कर सके बल्कि व्यवस्था से वह स्वीकृति और खोया विश्वास भी हासिल कर पाये जिसके अभाव की कसक जन नाट्य मंच के नेतृत्वकर्ताओं को वर्षों से तकलीफ देती रही है।
सफदर ने जो काम शुरू किया था- नाटक को जनता की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का, संघर्षों और स्वप्नों का माध्यम बनाने का, नुक्कड़ नाटक का वैचारिक एवं सौन्दर्यशास्त्रीय आधार तैयार करने का- वह उनकी शहादत के कुछ समय बाद ही गतिरुद्ध हो गया। जनम और सहमत जैसी संस्थाएं भी साल के कुछ दिनों में उत्सवधर्मिता का निर्वाह करने तक सीमित होती गयीं। आज वे पूरी तरह आभिजात्य संस्कृति का हिस्सा होकर रह गयी हैं और उनमें कोई वैचारिक स्फुरण या बेचैनी बची है इसका भी कोई संकेत नहीं मिलता। जनम ने मज़दूर बस्तियों, झुग्गियों, फैक्टरियों और अन्य रिहाइशी इलाकों में जाना बंद कर दिया। सफदर हाशमी की स्मृति के आयोजन को वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग और संरक्षण में करने लगे। अब उन्हें सड़कों के किनारे कंकड़-पत्थर पर, धूल-मिट्टी में नाटक करना गंवारा नहीं था। उन्हें सत्ता-संस्थानों की लाल मखमली कालीन और मान्यता चाहिये थी। कुलीन वर्गों का संरक्षण और भरोसा चाहिये था। यह एक तरह से पलायन, वैचारिक क्षरण का परिचायक था। यह व्यवस्था और ताकत की दुनिया के सामने जनवादी संस्कृति का आत्मसमर्पण था। यह उस वैचारिक कार्यक्रम को नष्ट करने की एक सोची-समझी चाल साबित हुई जिसे सफदर ने अपने खून से सींचा था। आज जनम शादीपुर के अपने बहुमंजिला भवन में सीमित होकर रह गया है।
जन नाट्य मंच सफदर हाशमी की हत्या के बाद से ही एक सांस्कृतिक दोराहे पर खड़ा रहा है। एक तरफ  सफदर की जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की परंपरा के संरक्षण का दबाव और दूसरी तरफ इलीट संस्कृति की ऐश्वर्यशाली जीवनशैली का व्यामोह उसे खींचता रहा है। सांगठनिक लोकतंत्र के सम्पूर्ण निषेध और पार्टी (सीपीआईएम) की दुर्भाग्यपूर्ण विफलताओं ने जनम को हमेशा इतनी सुविधा और स्पेस मुहैय्या कराया कि वह इस विरोधाभास को जीते हुए भी जनवादी भ्रम बनाये रख सके और अपनी इलीट लालसाओं की तुष्टि का व्यापार गांठता रह सके। एक तरफ उसने रंगमंच के एनएसडी जैसे ब्राह्मणवादी और इलीटिस्ट संस्थान से एक साहचर्य और आदान-प्रदान का सम्बंध बनाये रखा ताकि दिल्ली और देश के इलीट सर्किल में उसकी स्वीकार्यता बनी रहे, और दूसरी तरफ पार्टी के बौद्धिक-सांस्कृतिक अकाल और सन्नाटे का चालाक दोहन करते हुए जनवादी हलकों में भी उसकी केन्द्रीयता कायम रहे।
स$फदर स्टूडियो बन जाने के बाद जनम ने अपनी इलीटिस्ट कार्यशैली विकसित कर ली है। सफदर स्टूडियो उस मेहनतकश जनता के सहयोग से निर्मित हुआ था, जिसके लिये सफदर काम करते रहे, पर आज वह उस वर्ग की ब$ख्तरबंद आराम$गाह बना हुआ है, जिसके िखलाफ लड़ते हुए सफदर ने शहादत दे दी। जनम ने उसे आम जनता की पहुंच और भागीदारी से मुक्त एक इलीट द्वीप की तरह  विकसित किया है और इसका अहसास वहां जाकर कोई भी कर सकता है। दिल्ली के रंगजगत और यहां की सामान्य जनता से जनम का कोई सम्पर्क और जुड़ाव नहीं है और स्वाभाविक ही है कि वह जनता के किसी भी आन्दोलन और संघर्ष में शामिल नहीं दिखायी पड़ता। उसने चुनिन्दा दर्शकों के बीच बाबा आदम के ज़माने के कथित 'जनवादी नाटक' का उथला, प्राणहीन प्रदर्शन कर देने तक खुद को सीमित कर लिया है।
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जन नाट्य मंच ने अब इन्डिया फाउन्डेशन फॉर द आट्र्स जैसी फंडिंग एजेन्सी का दामन थाम लिया है, जो भारत में फोर्ड फाउन्डेशन और रॉकफेलर फाउन्डेशन के वैश्विक साम्राज्यवादी एजेन्डे को लागू कराने वाली प्रतिनिधि संस्था है। फोर्ड और रॉकफेलर जैसी संस्थाओं के कारनामे दुनिया भर के शिक्षित लोगों को मालूम हैं और उन्हें दोहराने की बहुत जरूरत नहीं महसूस होती। ये संस्थाएं अमेरिकी हितों के अनुरूप दुनिया में हिंसा, अशान्ति, उपद्रव और अराजकता फैलाने तथा वामपंथी आन्दोलनों को पनपने न देने की अपनी बेहतरीन उपलब्धियों के लिये विख्यात हैं। जन नाट्य मंच और इन्डिया फाउन्डेशन फॉर द आट्र्स के नये गठबंधन और वैचारिक साझेदारी की औपचारिक शुरुआत हो चुकी है। यह जनपक्षधर रंगमंच का एक नया शिफ्ट है, जिसका नेतृत्व एक बार फिर से जनम कर रहा है।
जनम के अलावा निशान्त नाट्य मंच दिल्ली में एक प्रमुख समूह था, जो एक वैचारिक समझ के साथ नुक्कड़ नाटक करता था। पिछले एक दशक में उसकी सक्रियता सामने नहीं आयी। इधर पांच-सात वर्षों में दिल्ली में नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में जिस एक नाट्य-दल ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण सक्रियता दिखायी है वह है अस्मिता थियेटर ग्रुप। प्रसिद्ध रंगकर्मी अरविन्द गौड़ के नेतृत्व में अस्मिता ने सामाजिक-शैक्षणिक मुद्दों और युवाओं पर केन्द्रित अपने नये ढंग के नुक्कड़ नाटकों से एक नयी धारा का सूत्रपात किया है। ये नाटक विभिन्न जनान्दोलनों का हिस्सा बनने के अलावा स्कूलों-कॉलेजों और गली-मुहल्लों तक भी पहुंच रहे हैं। पर ये नाटक परंपरागत नुक्कड़ नाटकों से इस मायने में काफी अलग हैं कि वे जनता के सामने कोई स्पष्ट राजनीतिक दिशा नहीं रखते।
पटना में प्रेरणा एक दौर में नुक्कड़ नाट्यान्दोलन का नेतृत्व करती थी। 2000 के बाद उसका पतन होना शुरू हुआ और आज वह एक व्यक्ति-केन्द्रित एनजीओ और सत्तापोषित रेपर्टरी बन कर अपने अस्तित्व के लिये जूझ रही है। पटना इप्टा ने बहुत पहले ही नुक्कड़ नाटकों से किनारा कर लिया था और प्रोसीनियम की ओर उसका अधिक झुकाव रहा। सरकारी-गैरसरकारी अनुदान के प्रति आकर्षण के चलते नुक्कड़ नाटक का दामन पटना इप्टा ने बहुत पहले छोड़ दिया। इप्टा की अन्य इकाइयों ने भी धीरे-धीरे नुक्कड़ नाटक को अपनी प्राथमिकताओं की सूची से बाहर कर दिया। अभियान, पटना ने 2003 के बाद पटना में नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया, पर जल्दी ही वह भी एक एनजीओ में तब्दील हो गया। पटना के वामपंथी नुक्कड़ नाट्य-दल एक-एक कर सरकारी परियोजनाओं और एनजीओ के प्रोजेक्ट में शामिल हो गये और उनका वैचारिक स्खलन होता गया। ऐसा नहीं है कि अन्य समूहों ने नुक्कड़ नाटक नहीं किया। आज भी बहुतेरे समूह नुक्कड़ नाटक करते हैं, पर उनके काम का कोई राजनैतिक-वैचारिक उद्देश्य नहीं रहा, इसलिये उन्हें स$फदर की परंपरा से जोडऩा गलत होगा। बिहार में फिलहाल रंगनायक, द लेफ्ट थियेटर, बेगूसराय को छोड़ कर संभवत: ऐसा कोई समूह नहीं है, जो नुक्कड़ नाटक को व्यवस्था परिवर्तन का साधन मान कर निरन्तर काम कर रहा हो।
देश के अन्य इलाकों में भी नुक्कड़ नाटक होते रहे हैं, जैसे हरियाणा में जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा। इप्टा की कुछ इकाइयों ने भी नुक्कड़ नाटक करना जारी रखा, पर उसकी वैचारिक धार समाप्त हो चुकी थी। कहने को आज भी बहुत से अन्य समूह कह सकते हैं कि वे नुक्कड़ नाटक करते रहे हैं, पर उसका वह स्वरूप नहीं बचा है, जिसकी रूपरेखा स$फदर ने प्रस्तुत की थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई महाविद्यालयों में नुक्कड़ नाट्य-दल हैं, पर कैम्पस के बाहर उनकी उपस्थिति नहीं है। नुक्कड़ नाटक को भी वहां एक फैशन की तरह करने की परिपाटी बन चुकी है। उनके नाटकों में कलावादी लटकों-झटकों का जबरदस्त प्रयोग देखने में आता है। चमत्कृत करने वाली दृश्य-रचनाएं, अतिरंजित सम्भाषण, अति-अभिनय, रस्सी, डंडा, मेकअप, संगीत और अमूर्तता का अतिशय प्रयोग दिल्ली विश्वविद्यालय के नुक्कड़ नाटकों की स्थायी पहचान या कमजोरी बन चुकी है। तब भी विषय की नवीनता के लिहाज से वे लीक तोड़ते रहते हैं। इन प्रयासों की कोई सार्थकता तब होती, जब ये नाटक कैम्पस के बाहर की दुनिया में पहुंच पाते। आज स्थिति यह है कि कॉलेज से निकलने के बाद ये छात्र नुक्कड़ नाटक अथवा नाटक से कोई जीवन्त रिश्ता नहीं बना पाते।
हाल के दिनों में दिल्ली में 'विकल्प- साझा मंच' नाम से नवगठित मंच ने फासीवाद और सत्ता की संस्कृति, कलाओं एवं रंगमंच के बाज़ारीकरण एवं उत्सवीकरण तथा कथित जनवादी धारा के रंगमंच में व्याप्त राजनीतिक-वैचारिक जड़ता और चुप्पी के विरुद्ध नुक्कड़ नाटक को माध्यम बना कर एक नयी मुहिम शुरू की है। दिल्ली के सफदर हाशमी मार्ग पर 'सफदर हाशमी रंगभूमि' बना कर विगत सफदर हाशमी शहादत दिवस यानी 01 जनवरी, 2018 से इस मुहिम की शुरुआत की गयी और अब तक उसने तीन बड़े और प्रभावी आयोजन कर दिल्ली के विचार सम्पन्न रंगकर्मियों को एकजुट करने में कामयाबी हासिल की है। यह अलग बात है कि जनम और निशान्त जैसे परम्परागत नुक्कड़ नाट्य दल अब तक इस मुहिम के साथ आने में हिचकिचाहट दिखा रहे हैं।
नुक्कड़ नाटक का सारा संकट असल में विचार और सरोकार का है। जो लोग नुक्कड़ नाटक को एक बदलाव के माध्यम के तौर पर लेकर चले थे, आज उन सबका इस माध्यम से मोहभंग हो चुका है ऐसा लगता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि उदारीकरण के बाद से बाज़ार ने इस माध्यम की ताकत को समझा और उसे हड़पने के लिये इसमें अन्धाधुन्ध फंड झोंक दिया। पैसों की बाढ़ में अधिकांश खंभे जड़ों से उखड़ गये! जो रंगमंच प्रतिरोध का माध्यम था, वह देखते-देखते सहमति और प्रचार का प्रमुख माध्यम बन गया! वास्तविक नुक्कड़ नाट्यकर्मियों ने जगह खाली कर दी तो मौके के बहुत सारे उस्ताद पैसे कमाने मैदान में उतर गये! देखते-देखते उन्होंने इसे एक खाऊ-कमाऊ इवेन्ट में बदल दिया। इसके ठेके दिये जाने लगे और नुक्कड़ नाटक का संचालक या प्रस्तोता 'कॉन्ट्रैक्टर' या दलाल हो गया! अब वह किसी भी स्रोत से मिलने वाले ठेके लेने लगा और यह कमाने का एक बड़ा ज़रिया बन गया। उन्होंने कई समूह बना लिये। बिहार, यूपी से दिहाड़ी मज़दूर बुलाये जानेे लगे, जो पेटभात पर खटने को तैयार थे। दलाल मालामाल होते रहे और कलाकार कंगाल। उनके पास माहखर्च का यही एक विकल्प दिखता था। ऐसी स्थिति के लिये बहुत सारे कारक ज़िम्मेदार हैं, पर सबसे ज़्यादा इसके लिये वे समूह और लोग  ज़िम्मेदार हैं, जिनकी पहचान ही नुक्कड़ नाटक से बनी थी। उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद तेज़ी से बदलती स्थितियों के साथ वैचारिक तालमेल न बना पाने और उससे भी ज़्यादा मध्यवर्गीय सुविधा लोलुपता के कारण रंगमंच का यह जनवादी रूप समाज से कट गया और बाज़ार तथा व्यवस्था के हाथों का एक मोहरा बन कर रह गया।
व्यवस्था के लगातार जनविरोधी होते चले जाने के लिए आज यदि समाज की प्रगतिशील ताकतों और बुद्धिजीवियों की उदासीनता और समझौतापरस्ती को जिम्मेदार ठहराया जाता है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं प्रतीत होता। आज पूरे देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मिर्चपुर की तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में दलितों को जिंदा जलाया जा रहा है, उन्हें अपमानित करने की घटनाएं बढ़ रही हैं, शिक्षण-संस्थानों में उनके प्रवेश पर पाबन्दी लगायी जा रही है, सामूहिक बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं, अल्पसंख्यक समुदायों के िखलाफ असहिष्णुता भड़कायी जा रही है, घृणा और हिंसा के राज्य-पोषित अभियान चलाये जा रहे हैं, दाभोलकर, पनसारे, कलबुर्गी, और गौरी लंकेश जैसे समाज की वैज्ञानिकता और विवेकशीलता की परम्परा के पक्ष में लडऩे वाले लेखकों-बुद्धिजीवियों की सरेआम हत्याएं की जा रही हैं, न्यायपालिका, संविधान और लोकतंत्र पर रोज हमले किये जा रहे हैं, पर समाज का यह भयावह यथार्थ न तो हमारे साहित्य में दर्ज हो रहा है और न ही रंगमंच में अभिव्यक्त हो रहा है।
भूमंडलीकरण ने हमारी सोच और संवेदना को इस तरह कुंद कर दिया है कि हम थोड़ी-सी सुविधा और पुरस्कार के लालच में अपनी आत्मा को बेचने में नहीं हिचकते। इस परिस्थिति में प्रतिरोध की संस्कृति गंभीर अवसरवाद का शिकार बन चुकी है। यहां तक कि जनतांत्रिक मूल्यों और जनसमुदायों को साथ लेकर संघर्ष करने वाली वामपंथी पार्टियों का नेतृत्व भी लगभग समर्पण की मुद्रा में है। उनकी पूरी प्रतिभा प्रतिरोध और परजीविता के बीच तालमेल और संतुलन कायम करने में खर्च हो रही है। घीरे-धीरे उनके जनसंगठनों का नेतृत्व अंदर से उभर कर आना बंद हो गया है। बौद्धिक दंभ और अवसरवादी कुटिलता के साथ यह वामपंथी नेतृत्व जिन लोगों के हाथों में है, वे समाज के बुनियादी बदलावों के संकल्प, सोच और सक्रियता से कोसों दूर हो चुके हैं। एक तरह से ये ताकतें अपने ही अस्तित्व की सुरक्षा की चिंता में इधर-उधर हाथ-पाँव मार कर समकालीन व्यवस्था में जैसे-तैसे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना चाहती हैं। कुल मिलाकर यह स्थिति पूँजीवादी विकास के वर्चस्व की जीत और प्रतिरोध की संस्कृति की शिकस्त को ही बयान करती है और इसलिए इसे चिंताजनक कहना गलत नहीं होगा।





राजेशचन्द्र नाट्य लेखक और समीक्षक हैं। 'समकालीन रंगमंच' पत्रिका के संपादक हैं। इन दिनों दिल्ली में रहते हुए एनएसडी की चालचलन नीति और थिएटर ओलम्पिक्स की व्यवस्थाओं के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। संपर्क- मो. 09871223317
 

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