बदरंग दीवार के पार

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    जनवरी 2018
श्रेणी बदरंग दीवार के पार
संस्करण जनवरी 2018
लेखक का नाम रजनी गुप्त





कहानी






अन्नी कितनी बार खुद को अलग अलग नज़रिए से जांचती परखती, फिर अपने  लिए तय कसौटियों पर कठोरतापूर्वक खुद को कसती और कठघरे में खुद को खड़ा करके वकीलों जैसी तेज जिरह करने लगती। ऐसा नहीं कि अन्नी इन सवालों से बेखबर हो बल्कि वह ऐसे धारदार सवालों से पूरी तरह बाखबर, चौकस, सतर्क और चौकन्नी होकर अपनी तेजस्विता की तार्किक धार से लोगों के नुकीले वारों को झेलती रहती लेकिन न तो सवाल उसका पीछा करने से रूकते और न वह अपनी तरफ मुंह बाए इन नुकीले सवालों का मुकाबला कर पाती। अक्सर उसे ऐसा लगता जैसे उसकी आंखों से जमीन से लेकर आसमान तक कोई अदृश्य सी कभी खत्म न होने वाली सीढ़ी बना ली है कि वह सीढ़ी दर  सीढ़ी पांव जमाकर ऊपर चढ़ती ही चली जा रही है पर लगता है जैसे वह तो कहीं पहुंची ही नहीं, बस जस के तस खड़ी है। तो क्या वह एक ही जगह गोल गोल चक्कर लगा रही थी जहां न आसमान तक ले जाने वाली कोई अलक्षित सीढ़ी, न सपने, न सपनों का पूरा करने वाला जज्बा बचा जैसे वक्त ने सब कुछ लील लिया हो और आंखे खोलो तो कहीं कुछ नजर ही नहीं आ रहा था। सब तरफ धुंध, धूल, सर्दी और गिरते तापमान से छाए कुहरे को भेदकर कहीं न पहुंच पाने की विवशता में पूरा दशक बीत गया। कितनी बार उसने अपने जीवन को नए सिरे से भरने, खंगालने और निचोड़कर धूप दिखाने की कोशिश की मगर अंतत: जीवन से सब कुछ सूखता चला गया।
जीवन और मौत के तांडवी खेलों से गुजरकर जीने की जद्दोजेहद करती अन्नी अपनी अंदरूनी यात्रा में मिले दुख, कचोटें, अपनों से मिले अपमानों को भूले रहना चाहती हैं मगर रूह कभी नहीं भूलने देती कि चेहरे कितने ही नकली हों, आवाजें कितनी ही नाटकीय क्यों न हों मगर एक समय ऐसा आता है जब मन की इन सच्ची आवाजों को और  दबाया नहीं जा सकता जो चीख चीखकर अपने होने का सुबूत देना चाहती है लेकिन जब वह बोल नहीं पाती तो घुटन में अक्सर ऐसा लगता मानो देवी मां के कई हाथों में कई तलवारें एक साथ उसकी गर्दन उड़ाने पर अमादा हो उठी हों।
अन्नी, अभी खुद को बचा वरना महिषासुरमर्दन हेतु बढ़ते मुखाकार की तरह वक्त तुझे निगल जाएगा, अन्नी, ओ अन्नी, अंदर की तेज आवाजें सुनकर मन घबड़ाने लगा तभी उसकी मां ने झपट्टा मारकर उसे इस जलते हवनकुंड में भस्म होने से बचा लिया। 'अम्मा, क्यों बचाया हमें? मर जाने देती तो कितना अच्छा रहता। कम से कम इन झमेलों से तो राहत मिलती। इस नरककुंड में भस्म हो जाती तो आपको भी घर बाहर के पैने सवालों से सामना न करना पड़ता।'
'अन्नी, मैंने इन सवालों की कभी कोई चिंता नहीं की और न तेरे कमलेश भाई ने फिर भी तू खामहखां खुद को जलाने पर क्यूं आमादा है?' अम्मा ने आंसू भरी आंखों से अन्नी के रूंआसे व सपाट चेहरे को देखा जहां कोमलता की जगह उचाट भाव पसरे थे। चेहरा पर सूखा राख जैसा रंग पुता हुआ था। अम्मा की बात की जवाब दिए बगैर अन्नी ने खुद को वहां से बेरहमी से काटा और धम धम करते हुए अंदर अंधेरी कुठरिया में पड़े तख्त पर ढह गयी मगर मन था कि पूरे दो दशक की जुगाली करते हुए उलझे रिश्तों के तार-तार को बेरहमी से उधेड़ता रहा। बदरंग धागों के रेशे रेशे उस काली कुठरिया की दीवारों पर चस्पां होते गए। सूने मन में अड्डा जमाकर बैठी दशकों पुरानी घटनाएं फिर से जिंदा हो उठीं।
सोलवें साल के चिकने पायदान पर पैर टेकते ही अन्नी की शादी की चर्चाएं जोर पकडऩे लगीं मगर पढ़ाई की धुनी रमाए अभी वह किसी भी तरह से शादी जैसे झमेलों में कतई नहीं पडऩा चाहती थी। इधर कमलेश भैया पर पारिवारिक सामाजिक दबाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था कि अन्नी की शादी जब तक नहीं होगी तब तक कमलेश भैया भी शादी नहीं करेंगे। कमलेश भैया व अन्नी जुड़वां भाई बहन जो थे सो कमलेश भैया संग अन्नी का रिश्ता भी खूब आत्मीयता से भरा पूरा व भरोसे के गहरे कुएं जैसा पारदर्शी था जिसमें दोनों ही अपना अक्स देख सकते थे। अन्नी जबरदस्त मेहनती है व उतनी ही मेधावी भी, ऐसा मानने के उनके पास पुख्ता सुबूत जो थे। कमलेश भैया चाहकर भी फस्र्ट डिवीजन नहीं पा सके जब कि अन्नी घर बाहर के ढेरों काम समेटते हुए भी आसानी से फस्र्ट आ जाती। इसे कमलेश भैया की समझदारी कहें या बाहरी सामाजिक दबाव कि वे शादी से मना करने वाली अन्नी को उल्टा समझाने लगे - 'लड़का एमएससी कर रहा, पढ़ा लिखा है तो नौकरी तो करेगा ही और तुम्हारी पढ़ाई का भी ख्याल रखेगा।'
कमलेश भैया की बातों पर आंखें मूंदकर भरोसा करने वाली अन्नी को उनकी बात मानने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं सूझा। अन्नी की शादी के छह महीने बाद ही कमलेश भैया की भी शादी हो गयी और जल्दी ही उनकी सहचरी निम्मी भाभी अन्नी की राजदार बनकर घर परिवार का अभिन्न हिस्सा बनती गयी। इसके पहले कि इस त्रिकोण को खूबसूरत आकार प्रकार मिल पाता कि ससुराल गयी अन्नी के ससुराल वालों ने उसके लिए उल्टे सीधे फरमान जारी करने शुरू कर दिये - 'न, इसे अपने पति अमर संग यहीं इसी गांव में रहना पड़ेगा और हम अन्नी को आगे पढऩे की इजाजत नहीं देंगे। अमर भी ऐसा ही चाहता है सो अन्नी को यहां रहकर परंपरागत बहू की तरह वैसे ही रहना होगा, जैसा हम चाहे वरना जैसा उसका मन करे, करने के लिए आजाद है।'
आगे की ओर भी ढेर सारी जहरीली व कडुवी बातें उसके लिए कही सुनी गयी जिन्हें मुंह खोलकर कभी कमलेश भैया को वह नहीं बता पायी। अन्नी के मुंह से इतना सब सुनते ही आंखें भर आयीं उनकी और वे विचलित हो उठे तो कुछ समझने के अंदाज में भाभी ने अपने पति की तरफ देखा भर, बोली कुछ नहीं मगर संवेदना के धनी कमलेश ने अन्नी की खामोशी को समझते हुए तुरंत ऐलान कर डाला - 'अन्नी की सारी पढ़ाई का खर्चा मैं खुद उठाऊंगा और जब तक वह पढ़ाई करके अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, वह ससुराल नहीं जाएगी फिर अंजाम चाहे जो हो।' उनकी आवाज में आत्मविश्वास की खनक साफ सुनी जा सकती थी।
यह सब अन्नी के लिए बड़ी चुनौती थी उसे हर हाल में सबसे पहले अपने को बिखरने से बचाना होगा, तभी वह आगे की पढ़ाई करने लायक अंदरूनी बल जुटा पाएगी। कमलेश भैया की हर अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए उसने भी कमर कस ली और ठान लिया कि सबसे पहले उसे अपनी भावुकता और स्त्री सुलभ कोमलता को हर हाल में तजना होगा। उसे लड़की होने की मनोग्रंथि से भी खुद को मुक्त करना होगा सो हर रोज वह अपने आप से लड़ती और अपनी भावुकता की चीरफाड़ करती। अपने से लगातार चलते इस युद्ध में वह दिनोंदिन परास्त होकर लहुलुहान होती मगर फिर खुद को पढ़ाई में झोंके रहती। दरअसल ये ऐसा लगातार चलता लंबा युद्ध था जिसके दोनों सिरों पर वह खुद को बेरहमी से कटते देख रही थी उसके वजूद के कई टुकड़े कट कटकर जमीन पर बिखरते जा रहे थे। कभी शक करते पति की कटूक्तियां, गालीगलौच और उसके चरित्र पर आए दिन दागे गए लांछन उसे बेचैन कर देते तो कभी उसके ससुराल न जाने वाले फैसले पर अडिग अन्नी को अम्मा के उलाहने रात भर सोने नहीं देते मगर आधी रात बीतने के बाद वह पूरी मेहनत व एकाग्र साधना से अपने वजूद के गिरे हुए टुकड़ों को समेटकर सहेजती सिलती और फिर नए मोर्चे पर तैनात सिपाही की तरह खुद को स्टडी टेबल तक खींच लाती। तब उसके टूटे सपनों के अक्स फिर से जिंदा होने की जद्दोजेहद करते। रात के अंधेरे में अक्सर लगता जैसे वह अपने ही अंधेरों से घिरकर भागने की कोशिश करती, लेकिन ये अंधेरे साए तो उसकी ही परछाईं बनकर नमूदार हो जाता। इससे बाहर आने की कोई तरकीब नजर न आती।
क्रमश: अन्नी का वजूद फौलादी बनता गया मगर अपनी सहज इच्छाओं को गलाने की इस प्रक्रिया में अक्सर ऐसा लगता जैसे उसे किसी ने खास मोह या आसक्ति नहीं रही है, जैसे भूख न लगने पर भी हम आदतन खाना गटक लेते हैं या तमाम रूटीन काम नियम समय पर निबटाते रहते, वह भी तो उसी तरह जीने की आदत डालती जा रही है, जैसे अनायास सांसें आती जाती हैं स्वचालित मशीन की तरह, बिल्कुल वैसे ही जीती है वह। रात भर वह किताबों के भीतर बसे अक्षरों के अक्स अपने अंदर उतारती जाती मगर अक्स थे कि नए आकार प्रकार लेते हुए संजीवनी बनकर उसके प्राणों में ताजी हवा का संचार करते रहते।
नतीजा सामने था। एम.ए. में टॉप करते हुए वह देश की टॉप यूनिवर्सिटी की अखिल भारतीय परीक्षा में चुन ली गयी जिसके जरिए मिले वजीफे से अब उसके पैरों तले की जमीन ठोस रूप में दिखने लगी। आर्थिक मजबूती ने व्यक्तित्व के पीले मुरझाए पत्तों में नई जान बख्शी और मुरझाए पत्तों वाला पेड़ नए कोंपलों को सिर पर सजाकर ताजी हवा संग हिलते हुए नाचता नजर आने लगा। धीरे धीरे तेज हवाओं संग उड़ान भरने लगा अन्नी का तन मन और धीरे धीरे नई सज धज में लिखे जाने लगे अन्नी के जीवन के उजाड़ पन्ने। उसके हॉस्टल के साथ रहती इनमेट्स की जिंदा कहानियां अन्नी के सामने स्क्रीन पर चलती फिरती जीवंत रूप में नजर आतीं कि वह आंखें गड़ाए विस्मय विमुग्ध होकर नई दुनियां के इस नए रूप व नई धुन में खुद को देखते हुए मोहासक्त हो उठती। इस रंग बिरंगी दुनियां से खुद को एकाकार करती अन्नी के सामने बिंदास पन्ना खोले बैठी थी खूब स्मार्ट सी रेवती। जो उसे पहली बार देखता तो देखता ही रह जाता। नए फैशन के मुताबिक कपड़े पहन व जितनी तेजी से फर्राटेदार अंग्रेजी बोलकर सामने वाले को प्रभावित कर सकती थी, उतनी ही बातूनी, मुंहफट और जिंदादिल भी थी। वह ऐसी ऐसी बातें किया करती जिसे सुनकर अन्नी को अपना जीवन सबसे निरर्थक, रूखा सूखा, बेजान, नीरस और निगले गए बेस्वाद खाना की तरह बेमजा लगने लगा।
रेवती अपनी तिर्यक भवें चढ़ाते हुए अन्नी को अपनी जद में लेकर शुरू शुरू में तो पढ़ाई या करियर से जुड़ी जरूरी बातें समझाती लेकिन जल्दी दोनों में साझापन पनपता गया। रेवती के अन्नी की गहन स्टडी में ढली बौद्धिकता, एकाग्र अनुशासन, धैर्य, समझदारी और गंभीरता से बोले गए नपे तुले तर्क रास आते तो रेवती का मस्ती भरा 'फ्री स्टाइय लिविंग' कहीं न कहीं अन्नी के अंदर बंद संसार को साहसिकता से खोलते हुए नई खुलती दुनियां का जादू जगाने लगता। दोनों धीरे धीरे एक दूसरे के भीतर बसे खालीपन को कहीं न कहीं भरते और धीरे धीरे उसमें सखी भाव का विस्तार होता गया। वह अन्नी के भीतर बसी कोमलता के रेशे को कायदे से पकड़ लेती - 'अन्नी दी, आपने अपने चेहरे पर जो गंभीरता का लेप लगा रखा है, इसे तुरंत हटाओ वरना ऐसी कड़क सूरत देखकर दहशत होने लगती है। सच सच बताओ, क्या आपको अपने ऊपर जबरन लादी इस सख्ती से घुटन नहीं होती?'
'काहे की घुटन? जिसके हिस्से जो भी जैसा जीवन मिला है, वही है उसका अपना भाग्य। अगर वही हिस्सा मेरा कटा फटा है, तो है, सो आई कांट माईसैल्फ... विगत के हलाहल को भीतर उड़ेलते हुए उसने बड़ी निर्लिप्तता से यूं जवाब दे दिया जैसे ये सब वह अपने बारे में नहीं, किसी और के बारे में बता रही हैं।'
'गलत बात, मैंने तो अपनी मर्जी से बचपन में शादी कर ली थी मगर हमारी नहीं बनी तो साल भर के अंदर ही अलग भी हो गए। बस और क्या? पर आपने तो खामहखां खुद को बेरहमी से खारिज कर अपना जीना ही स्थगित कर दिया। ये तो गलत बात हुई न?  बोलिए न?' अन्नी की चुप्पी से बेखबर वह बोलती रही - 'वैसे मैं कल आपके लिए जींस व टीशर्ट लायी हूं, प्लीज न मत करना। आपका फेवरिट कलर है हल्का लैमन कलर...'
'ठीक है रेवती, पहनूंगी। पहनने ओढऩे में तो खासी मॉडर्न हूं मैं।' कहते हुए अन्नी हंस पड़ी।
'कितनी प्यारी लगती हैं आप यूं हंसते हुए। बस, ऐसे ही मुस्कराते रहिए। लिसन,कल मेरा एक और नया दोस्त बन गया, अमल, बहुत जहीन लड़का है। बहुत बिंदास व मस्तमौला टाइप। हमने कल खूब इंजॉय किया। ऐ, ऐसे क्यूं घूर रही हैं आप मुझे?' बोलते हुए उसकी आंखें में शरारत नाचने लगी।
'और क्या क्या किया? मूवी देखी, बाहर खाना खाया होगा और?'
'नहीं, ये सब नहीं किया हमने। ये सब तो शरीफों के लिए छोड़ रखा है हमने। हमारी तो यूं चंद लमहों में फटाफट दोस्ती हुई और महीने भर में ही हमारी नजदीकियां बढ़ती गईं।' उसने सिर मटकाते हुए विशेष अंदाज में मुस्कराहट बिखेरी।
'मतलब?'
'वही और क्या? निकटता मतलब निकटता... आवाज में वही खनक, आंखों में मस्ती का सुरूर और चाल में फिर वही सानिध्य का सुख हिलोरें लेने लगा।
'आप इतनी चुप क्यों हैं दी? प्लीज मुझे गलत मत समझना पर ये सच है कि मैं आपकी तरह एकांतवास जिंदगी कतई नहीं जी सकती। अपनी जिंदगी का हर लमहा पकड़कर पूरी तरह से जीने में यकीन है मेरा। मेरे लिए जीवन का हर पल उत्सव की शक्ल में सामने आता है जिसमें भरसक डूबकर मैं खाती पीती, नाचती गाती और परम मस्ती के सरोवर में खुद को डूबने देती हूं। बस, यही है मेरा जीवन दर्शन और आपका?'
'रेवती, अधूरे मन से जबरन रचाए गए ब्याह जैसे स्वांग को तो मिटाना ही था क्योंकि हमारी सोच के केंद्रक तो शुरु शुरु से ही अलग अलग थे और जल्दी ही हमें आपसी दूरी का अहसास भी हो गया था मगर कभी तलाक लेने की बात नहीं सोच पाई या शायद हिम्मत नहीं पड़ी जब कि हम कभी साथ नहीं रहे। यूं मेरा जीवन दो अतियों के बीच घिसटता रहा। तभी से हमने जीवन को निर्मोही नजरिए से देखना शुरू कर दिया कि ये दुनियांवी सुख मेरे हिस्से में नहीं है सो वीतरागी होती गयी खरामा खरामा...' उस रूंधे गले से कही गयी बातें कहीं दूर से आतीं सुनाई पड़ी लगीं।
'इस दौरान कोई साथी, कोई मनमीत नहीं बना आपका?' उसने आंखें मटकाते हुए पूछा।
'थे कुछ लोग जिनके अहसास ने कुछ समय के लिए समानांतर रेखाएं बनायीं जरूर मगर आसमान में अनायास बनी धुएं की काली लकीर की तरह कुछ पल के बाद अपने आप ऐसे अहसास लुप्त होते गए लेकिन वह कसैली कडुवाहट जरूर देर तक बनी रही। बाद में पता चला कि स्त्री पुरुष के बीच की दोस्ती उतनी सहज-सरल नहीं होती जैसा हम समझते हैं। दरअसल हम अलग अलग रास्तों पर चल रहे थे।' आगे कुछ और खुलकर कहने से अन्नी ने खुद को सायास रोक लिया।
'जब हम अलग अलग रास्तों पर चलेगें तो मंजिलें तो अलग होंगी ही न कोई गिल्ट न पालें। कभी कोई कायदे का मिला तो तलाक की बावत सोचा जाएगा। वैसे हमारे बीच जो याराना है, उसमें कई रंग शुमार हैं। वैसे मैंने आपके साथ नैनीताल चलने की प्लानिंग की है। देखो दी, मना मत करना। हां, मैंने पहले से ही टिकट करवा लिए।'
'बिना मुझसे पूछे ही?' उसने मजाकिया लहजे में पूछा।
'सरप्राइज रहा ना, जस्ट से यस...' आंखों में आंखें डालकर पूछा उसने।
'हूं, अच्छा चलो, देखते हैं, इंटरव्यू तो ठीक ठाक निबट गया सो कायदे से ये जॉब तो मिलनी चाहिए।'
'दी, श्योर, आपका ही होगा, इसी की ट्रीट हो जाएगा। तो कल हम निकल रहे हैं दी संग, अन्नी दी जिंदाबाद, जिंदाबाद।'
रेवती ने आंखें मटकाते हुए आंखों के इशारों में कुछ कहना चाहा तो उसके स्टायल से उचारे डायलॉग सुनकर अन्नी को जोरदार हंसी आ गयी तो वह हंसते हुए बोली - 'तू दोस्त भी मानती है और दी भी कहती है तो दोनों तो एकदम नहीं चलेगा...'
'बिल्कुल सही। अन्नी, मैंने भी कुछ ऐसा ही सोच रखा था। ओ यस, हम नैनीताल चल रहे हैं।'
मगर उसके जीवन की ये दो घटनाएं अप्रत्याशित मोड़ लेकर आयीं कि इधर पहली बार अन्नी का भैया को बिना बताए दिल्ली से बाहर निकलना और उधर भैया उसका सिलैक्शन लैटर लिए अचानक उसे सरप्राइज देने खुद भाभी संग चले आए। भैया भाभी के लिए तो अन्नी अभी भी उतनी बड़ी नहीं हुई कि बिना उन्हें बताए वो कहीं अन्यत्र अकेले घू्मने का फैसला खुद ले ले। ये उनकी कल्पना से परे था और अन्नी के लिए भी भैया का पहली बार अचानक यूं आ जाना भी तो अप्रत्याशित था सो उनके आने की खबर सुनते ही वह परेशान हो उठी और उसी रात दिल्ली के लिए लौट पड़ी मगर तब तक भैया भाभी वापस जा चुके थे तब से भाभी के मन में उसे लेकर जो गांठ एक बार बनी फिर वे उसके प्रति कभी पूर्ववत सहजता नहीं बरत पायीं। वे गाहे बगाहे भैया से अन्नी के बारे में कुछ न कुछ उल्टा सीधा कहती रहतीं-
'अब वे बड़ी हो गयी हैं, कमाने लगीं हैं सो अपनी मर्जी से रहने लगी हैं। हमने अपनी ड्युटी पूरी कर ली पर आगे की जिंदगी के बारे में तो वे खुद फैसला लेंगी। हमें नहीं लगता कि वो वापस अपनी ससुराल जाने के बारे में सोचेंगी भी?'
सुनकर वे चुप रहे। वही जानलेवा चुप्पी।
'देखिए, आपने ही उन्हें इतना ऊंचाई पर लाकर खड़ा कर दिया कि आज वे इतने बड़े महकमे में ऊंचे पद पर हैं मगर अब तो वे अपने मन की करने लगीं हैं। क्या पता, इसी तरह अचानक वे कहीं और शादी वादी कर लें। सोच लो, उनके लिए हमने क्या क्या नहीं किया, कितनों से क्या क्या नहीं सुनना पड़ा, यहां तक कि हमने अपनी सुख, सुविधा और खर्चों को काटकर उन्हें सालों पैसा भेजा मगर हाथ में पैसा आते ही वे सबसे पहले हमसे ही किनारा करने लगीं...
'गलत आरोप मत लगाओ अन्नी पर। अभी उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके लिए उसे भला बुरा कहा जाए। सुनो, ये उसकी जिंदगी है सो उसे खुद तय करने दो। तुम क्यों उसे जबरन ससुराल भेजना चाहती हो जहां से कितनी बदनामी झेलने के बाद सब कुछ तजकर वो हिम्मत करके बाहर निकली थी। कितना सहना पड़ा था उसे, नहीं क्या?'
'मगर तब तो हमने यही सोचा था कि जब ये पढ़ लिखकर कमाने लगेंगी तो पति के पास वापस चली जाएगी। वो लड़का तो आज भी इसके नाम की माला जपता है किसी और से शादी करने के लिए कभी हामी नहीं भरी उसने।'
'पर हमने तो इस बारे में कभी लड़के को कोई आश्वासन दिया नहीं, न ही उसने कभी ऐसा कुछ कहा तो वो क्यूंकर ऐसा सोचने लगेगा? अगर वो सोचता भी है तो सोचने दो। कितना तंग किया था उसने अन्नी को, सब भूल गयी क्या? बात-बात पर शक करना, गाली गलौच करना...'
'मगर अभी तक तो उनका तलाक नहीं हुआ?' सवाल पूरा जबड़ा खोले निगल जाने के लिए तैयार था।
'हां, यही तो मुसीबत है। अन्नी के मन में क्या है, नहीं पता। हमें तो ये डर लगता है कि कहीं किसी रोज वो पति नाम की तख्ती टांगे उससे पैसे मांगने न चला आया? तो क्या करेगी अन्नी? मुश्किलें पैदा कर सकता है वो।' चिंतातुर आवाज में सोचते हुए बोले।
'मगर अब वो क्यों नहीं रहना चाहती अपने पति के संग? बोलिए न, लो इस सवाल पर आप तो फिर से चुप्पी लगा गए तभी उनके पास बैठी अम्मा बीच में बोल पड़ी- 'सालों से छूटे संबंधों के तार अब फिर नहीं जुड़े पाएंगे। सुनो, इन्हें जबरन जोडऩे की कोशिश भी मत करना वरना सालों से अन्नी के प्रति वह आदमी गुस्सा व नफरत पाले पोसे बैठा है तो वो क्या उसके प्रति सहज बरताव कर पाएगा? कतई नहीं। भलाई इसी में है कि अन्नी कानूनन तलाक ले लें।' अम्मा का दो टूक जवाब सुनकर वे सकते में आ गयी।
'अम्मा, ये सब बातें आप कैसे सोच सकती हैं? आप तो इतनी पूजा पाठ करती हैं और आप ही दूसरी शादी की वकालत करने लगीं...' अपना पक्ष कमजोर पड़ते देख वे भड़क पड़ीं और फिर किसी से कुछ कहते सुनते नहीं बना।
इस तरह तारीखें खिसकती रहीं और उम्र का एक पूरा दशक शांत बहती नदी की तरह सरकता गया। दोनों अलग अलग शहरों में थीं पर आभासी दुनियां के दौर में अनायास सालों बाद जब वह फेसबुक पर रेवती से टकरायी तो फिर से उनके बीच छूटे संवाद शुरू हो गए। पहले मैसेजिंग, चैटिंग व वीडियो पर बातें भी शुरू हो गयी और इस तरह जुडऩे लगीं पुरानी छूटी बातों की कडिय़ां।
'रेवती, पहले अपना किस्सा पूरा बता। तुम्हारी कहानी तो बीच में ही छूट गयी। बोलो न?' रेवती को कुरेदने पर वह बोल पड़ी।
'लिसन, जिंदगी की भगदड़ में से जो एक बार छिटक जाता है सो गया हाथ से, पर तुम्हारी तरह न तो मैं हूं, न हो सकती हूं। तब से दर्जनों लड़़कों से दोस्ती हुई और तेजी से आगे भी बढ़े मगर फिर पहले जैसी बात नहीं बनी सो नहीं बनी। आगे की जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने के लिए चुन लिया था एक नया साथ। आई हैव फन, मस्ती एंड नो रिग्रेट...
'पर तेरा ये दूजा पति कहां टकराया था तुझसे?' अन्नी ने उत्सुकतावश कुरेदा।
'मेरी बहन का पुराना आशिक। बहन के दफ्तर में हमारी आंखें मिलीं और हम महीनों लिव इन में रहे फिर एक दिन अचानक शादी का शौक भी पूरा कर डाला।' उसने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया।
'अब कैसी चल रही है जिंदगी? तेरा ये साथ मजेदार रहा या फिर कुछ और नया जोड़ा जिंदगी में?'
'अन्नी, मैं जोड़ घटाव या गुणाभाग के घनचक्कर में नहीं पड़ती। इतना जरूर देखा था कि सामने वाला बंदा पैसे वाला हो। वो सरकारी महकमें में डायरेक्टर है। मुझसे पांच साल छोटा मगर मेरी हर शर्ते कुबूल।' कहते हुए उसने ठहाका लगाते हुए कहा 'देख रही हो मेरी वही बिंदास स्टायल, बस ऐसी ही हूं मैं, जैसी थी। तू सुना न अपनी? गैस एजेंसी वाले से तेरी दोस्ती तो शादी में बदल गयी थी, फिर कैसा रहा साथ?'
'कुछ नहीं, खल्लास। मेरी किस्मत ही ऐसी निकली कि जहां भी जमीन खोदकर पानी निकालने का जतन करती हूं, वहीं से रेत व कंकड़ पत्थर निकलने लगते। पानी का दूर दूर तक नामोनिशान तक नहीं।' बोलते हुए गला रूंधने लगा उसका।
'ऐ अन्नी, दिल छोटा नहीं करते। तेरे आंसू देखकर मन खराब हो गया। तुझे तो हम आयरन लेडी कहते थे न?'
'कोई आयरन वायरन नहीं थी मैं, बस हालातों के हिसाब से ढालना पड़ा था तब मुझे। पहले वाला मेरे कैरेक्टर को लेकर धज्जियां उड़ाने में पाशविक सुख महसूसता था और गाहे बगाहे कॉलेज आकर परेशान करता था ताकि मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब हो और मैं पढ़ न सकूं। उसे बखूबी पता था कि मुझे कहां, किस जगह पर वार करके किस कदर तोड़कर कमजोर किया जा सकता है, सो वो उसी नस को दबाकर मुझे जकडऩा चाहता था मगर उसी समय मैंने खुद को आयरन लेडी में तब्दील होने दिया। तभी से मेरे स्वभाव में वैसी जिद या कठोरता या अनुशासन वगैरा शुमार होता गया।' बीते समय का टुकड़ा सामने फेंकते हुए आवाज में तिक्तता आ गयी।
'और ये दूसरा वाला? इसे चुनने में कहां कैसे चूक हो गयी तुझसे?' बातें थीं कि एक के बाद दूसरी कड़ी बनाने लगीं।
'शुरुआत में तो शादी के लफड़े में पडऩा ही नहीं चाहती थी मगर फिर पहली पोस्टिंग छोटी जगह में हो गयी जहां अकेले रहने के झमेलों से जूझना पड़ा। जो भी मुझसे मिलने आता तो आसपास के लोग हमें शक की नजरों से देखकर कानाफूसी करने लगते।  रंजन ने पहले मुझसे कहा फिर भाई से शादी को लेकर बात की। यूं तो रंजन लोकल लीडरशिप करता। गैस एजेंसी का मालिक था सो ठीक ठाक कमा रहा था। कुछ दिन ऊहापोह में रही मगर फिर भैया ने हामी भरते हुए कहा - 'कम से कम तुझसे जलता नहीं, तुझे और ऊंचाई पर देखना चाहता है, यही क्या कम है। तू जानती है, भैया के हर लब्ज को वेदवाक्य मानकर हामी भर दी।'
'फिर, आगे की सुनाओ...'
'यूं तो तुझे ये मामूली बातें लगेंगी मगर सुखासीन रंजन पूरी तरह आत्मकेंद्रित, आत्मलिप्त ऐसा आदमी निकला जिसके चारों तरफ चाटुकार रहते जो उसके इर्दगिर्द उसका महिमामंडन करते रहते। मेरी नौकरी से उसमें पैसों की निश्चिंतता आ गयी सो बैठे बैठे वह दिनोंदिन निठल्ला और नाकारा भी बनता गया। उसकी महत्वकांक्षाएं क्रमश: चुकने लगी। धीरे धीरे वह सारे दिन घर पर बैठे बैठे या तो टीवी देखता या सोता रहता। अक्सर वह गाहे ब गाहे मुझे डिक्टेट करने लगता। खुद को केंद्र में रखकर वह मुझे परिधि पर ठेलकर जिंदगी चलाना चाहता मगर जब मैंने खुद फैसला लेना शुरू किया तो उसके भीतर बैठे पुरुष, ने सत्ता, वर्चस्व, हुकूमत और हक का बेजा इस्तेमाल शुरु कर दिया। उसके कुतर्क सुनकर मुझे लगता है कि इसका वश चले तो ये मरने के समय भी मुझे मरने की तरकीब के बारे मेें समझाने लगेगा। उसकी नसीहतें सुनकर मैं चिढऩे लगी। बकवास बातें सुनकर मुझे गुस्सा आने लगा था।'
'और तुम्हारे बीच का प्यार?'
'प्यार, सुनकर हंसी आती है। इस अहसास से उसने कभी खुद को जोड़ा ही नहीं। खुद के सिवाए किसी और से  प्यार करना उसकी डिक्शनरी में था ही नहीं। जब मुझसे कोई लगाव ही नहीं तो पजैसन कहां से आता? भैया के हार्टअटैक होने पर जब ये बंदा दुख की उस घड़ी में मुझे कंसोल करने के बजाए अपने खाने पीने या सोने को लेकर फिक्रमंद था तो मेरे अंदर जबरदस्त आक्रोश जगा और उस माहौल में मैं घुटकर रह गयी। मन वितृष्णा से भर उठता। धीरे धीरे खुद को इस दुष्चक्र से निकालने की जद्दोजहद की ओर इस तरह किसी खुदमुख्तार इंसान की तरह अपनी मर्जी से जीने के लिए मैंने स्पेस लेना शुरू कर दिया।' इतना बोलने के बाद उसकी आवाज में थकान आ गयी और वह चुप हो गयी।
उसकी भरी आंखें देखकर रेवती ने इशारे से अपनी हथेलियां मिलाते हुए सहलाती आवाज में कहा '-तो क्या हुआ? हम गिरेंगे नहीं तो संभलेंगे कैसे? जीने की ताकत तो तभी बनती है जब हम बार बार कुआं खोदें, बार बार पत्थर आएंगे तो आने दो, हम नए सिरे से फिर दूसरी जगह कुआं खोद लेंगे। सुन रही है न?'
'एक बात बताऊं, भैया के न रहने पर मेरा मनोबल, मेरी ताकत भी जाती रही यहां तक कि मेरी जिजीविषा ही चुक गयी...'
'अरे, अन्नी, ऐसे मत बोल। पता नहीं कितनी सांसें बची हैं अभी जिंदगी की? तेरा जिंदा रहना जरुरी है हम सबके लिए' सुनते ही हंस पड़ी वह - 'लिसन रेवती, जिसका जिंदगी से मोह न रहा हो, वो भला मौत से क्या डरेगा? पहले ऐसा जरूर लगता था कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ फिर सोचती कि अगर मैं इतने उठापटक से न गुजरी होती तो जीवन के इतने अनुभवों को भला कैसे देख समझ पाती? कि यहां भावनाओं का सौदा होता है। आए दिन रिश्ते बदलते देखे हैं। हमारी सोच व संवेदनाएं भी हमेशा एक जैसी नहीं रह पाती। यानि सब कुछ नश्वर है। खैर, अपनी सुना, तेरा बेटा तो अब खूब बड़ा हो गया जिसे फेसबुक पर देखा था उस दिन।'
'हां, जब हमारे अपना बच्चा नहीं हो पाया तो हमने उसे एडॉप्ट किया। मेरा मन था कि कोई मुझे ममा कहकर बुलाए सो एक दिन अचानक निर्णय ले लिया पर तूने तो नया कुछ नहीं जोड़ा न अपनी जिंदगी में?' वह कुरेद कुरेद कर पूछने लगी।
'हां, मैं भी बेबी एडॉप्ट करना चाहती थी पर वो इसके लिए कतई तैयार नहीं था। हम अक्सर तमाम तरह के कहे अनकहे डरों और असुरक्षाओं के तंग घेरे में कैद बेमजा जिंदगी जीते रहे और तूने जिंदगी को आगे ले जाने का फैसला कर लिया। मेरा हर एक्सपेरीमेंट हर बार फेल होता पर तू हर बात जीतती रही। जितनी बार नए सिरे से जिंदगी संवारने की कोशिश की मगर हर बार वही हताशा, वही नाउम्मीदी हाथ लगी यानि जिंदगी मेरी मुट्ठी में नहीं आनी थी सो नहीं आयी मगर अब अतीत के मुर्दो पर लाठी मारने से क्या होने वाला? खैर, मेरी छोड़ मगर तू तो लकी रही, यस यू आर द विनर ऑफ द डिकेड...'
सुनते ही बहुत जोर का ठहाका लगाते हुए बोल पड़ी वह - 'न, अन्नी, ये पूरा सच नहीं है। हमारी ये जिंदगी तभी तक बोझिल लगती है जब तक हम तमाम उसूलों को अपने कंधों पर ढोने का ठान लेते हैं। जब जिस घड़ी हम खुद की बनाई हदबंदियों को ओढऩे बिछाने लगते हैं तो वहीं जिंदगी अझेल बन जाती है। सोचते जरूर है कि हमने अपने मन का किया होता तो जिंदगी शायद मीठे रस का झरना बन सकती थी, मगर ये पूरा सच नहीं है। अब मेरी हकीकत सुन, गोद लिया बेटा नालायक निकल गया और 10 वीं में दो बार फेल हो गया तो हम तनाव में जीने लगे फिर किसी तरह उसे तकनीकी शिक्षा दिलाने की कोशिश भी की ताकि वह बिजनेस वगैरा करके खुद के बूते जीना सीख ले मगर वहां भी नाकामयाबी हाथ लगी। कभी पुचकारती भी तो कभी डांटती फटकारती। लेकिन हमारी नसीहतें सुनकर वह बुरा सा मुंह लेकर आक्रामक तेवर अपना लेता फिर ऐसे ही एक दिन किसी बात पर डांटने पर अचानक वह बिफर पड़ा-
'आपकी लव मैरिज ठीक ठाक चल रही थी तो मुझे खामहखां क्यों बीच में ले आए आप लोग? मुझे पता है कि आप मुझे जरा भी प्यार नहीं करते तभी तो अपनी प्रापर्टी मेरे नाम नहीं कर रहे। मुझे लगता है कि मैं आप दोनों के गले की हड्डी बन गया हूं तभी तो आपकी रासलीला ठीक से नहीं चल पा रही... सुनते ही अचानक रंजन ने आपा खो दिया और तैश में आकर जोर से तमाचा जड़ दिया लेकिन तब से वह गायब है। पूरे 6 महीने बीत गए।' कहते हुए उसने लंबी उसांस भरी।
'वाकई दुखद रहा ये तो। सच तो ये है जिंदगी जीने का कोई तयशुदा फार्मूला तो है नहीं कि ऐसा ऐसा करने से ऐसा ऐसा सुखद नतीजा निकलेगा ही। हम सब अपनी अपनी सोच समझ से आगे बढऩे के लिए एक कदम आगे बढ़ाते हैं मगर ऐन मौके पर जिंदगी पीछे से पलटवार करने लगती और हम मुंह के बल गिर पड़ते' ...अन्नी ने ऐसा कहते हुए पता नहीं उसे दिलासा दी या खुद को पर उसके बाद कुछ देर खामोशी तनी रही फिर दुबारा बोलने लगी-
'रेवती, एक बात तो साफ है अमूमन वे स्त्री को अपने अंदरूनी अहसास का अभिन्न हिस्सा बनाने से कतराते हैं जब कि स्त्री उसे अपने भीतर इतना बड़ा स्पेस देती जाती और उस अहसास को इतने रंगों और महक से भरती जाती कि ऐसा करते हुए वह अपने हिस्से के स्पेस को कम से कम करते हुए खुद को शून्य पर ला पटकती। कुछ समय बाद पता चलता कि जिसकी खातिर स्त्री ने अपना सब कुछ कुर्बान कर डाला, वह पुरुष  तो केवल स्त्री द्वारा बनाए घेरे के बाहरी आउटलाइन तक ही रह गया। जोखिम उठाकर स्त्री के अंदरूनी घेरे के अंदर आने का हौसला ही नहीं जुटा पाते वे। शायद सुरक्षित दूरी पर खेलना रास आता है उन्हें जबकि स्त्री पुरुष की महक से बौरा उठती है लेकिन पुरुष दूर से ही उसके अहसास को महसूस तो करेंगे पर रहना चाहेंगे हमेशा आजाद, हर बंधन से मुक्त, किसी भी कमिटमेंट से परे।' वह दूर देखते हुए तटस्थ नजरिए से लंबा भाषण देती जा रही थी किसी ज्ञानी की तरह।
'वाह, कितनी शानदार फिलॉस्फी अन्नी दी, ग्रेट। वह स्त्री के वजूद को नकार नहीं पाता पर दूर से उसे महसूस करने को लालायित रहता। न तो वह स्त्री शक्ति से इंकार कर पाता और न उसे पाने के लिए उतनी जबरदस्त इच्छा शक्ति अपने अंदर जगा पाता जबकि हम औरतें रिश्तों की औपचारिक दीवारें लांघकर जोखिम उठाकर भी उस तक जा पहुंचतीं मगर वे स्त्री से मिले हर तरह के स्पेस पर आन बान शान से चलते और बाद में उसे हासिल कर उसी को तबज्जों देना बंद कर देते। फिर शादी के बाद तो वह महज पति की आश्रिता बनकर रह जाती।' और मुद्रा में सोचते हुए रुक रुककर बोलती जा रही थी - 'पर तेरा करियर तो ठीक ठाक रहा है। दर्जनों सेमिनारों में शिरकत करने देश विदेश की यात्राएं करती है, बुद्धिजीवियों के बीच तेरा उठना बैठना है। तूने जीवन को नया अर्थ देने की कोशिशें तो की हैं न? मुझे देख, कितनी तरह के एक्सपेरीमेंट करके देख लिया फिर भी खाली ही रहा जीवन का पन्ना, नथिंग न्यू...
'हूं, नए को तलाशने में नाहक ऊर्जा जाया मत करे। अब इस स्टेज पर आकर समझ आया कि हमें अपने जीवन को भरने या खुशियां पाने के लिए न तो पतिनुमा टैग लगाने की जरूरत है और न ही बच्चे वगैरा बल्कि ये सबतो बाहरी चीजें हैं जबकि खुशियां तो हमारे भीतर दबे हीरे की खान की तरह हैं जिन्हें समय समय पर तलाशना तराशना पड़ता है। एक और बात, अब इस स्टेज पर आकर ये बखूबी समझ में आ गया कि अपनी खुशियों के लिए हमें अब किसी भी पुरुष की मुखापेक्षी होने की जरूरत नहीं। बात बात पर उन पर निर्भर रहने के जमाने गए। हम दोनों एक दूसरे के पूरक है और अपने आप में कंपलीट भी, हैं न डियर?' इस बार बोले गए शब्दों में आत्मविश्वास की लौ जगमगा रही थी।
'यस, अब तो सौ बात की एक बात कह दी। सौ परसेंट खरी बात; बेशक हमारी जिंदगी के रंग बदरंग जरूर हो गए पर दीवार के उस पार नया सूरज भी तो झांक रहा है, नहीं क्या? यार हम साथ साथ हैं और रहेंगे भी।'
कहते हुए दोनों ने आभासी दुनियां में एक दूसरे के गले मिलने वाले स्माइलीज की अदला बदली की। अनायास धूमिल झरोखे से ठंडी हवा का झोंका आया जिसमें बेला की महक शुमार थी। आत्मीयता की महक से सराबोर अन्नी बोल पड़ी - 'तू ठीक कहती है रेवती। टिपिकल ट्रेडीशनल राह पर चलना तो हमारी फितरत में कभी था ही नहीं और उन घिसे पिटे रास्तों पर चलना हमें रास नहीं आया। शायद वे परंपरागत मूल्य हमारे लिए बने ही नहीं थे सो हमने इनका मोह तजने में पल भर की देरी नहीं की। हम विशिष्ट तो हैं ही और रहेंगे भी जिसे तूने कभी इंटैलेक्चुअल कीड़ा नाम दिया था, याद है न?'
'हां, ये ऐसा कीड़ा है जो एक बार दिमाग में रेंगने लगता फिर ताजिंदगी साथ नहीं छोड़ता, मरते दम तक, हमारी दोस्ती की तरह?' फिर दोनों को समवेत हंसी से माहौल महक उठा।
'चल, बहुत देर हो गयी। जल्द ही मिलते हैं, अपनी उसी पसंदीदा जीटी रोड पर लंबी वाक पर। हमारी ये जुगलबंदी जीने के लिए जरूरी रसायन है जिसे हर हाल में बचाए रखना है। तू कल मिलेगी न वहीं, उसी खुली सड़क पर?'
'श्योर... हल्के अंधेरे में स्याह उनके चेहरों पर बिछी थी सुकून की लकीरें। हवा अभी भी फूलों की मादक महक लिए सब जगह बेफिक्री से आवारागर्दी कर रही थी।

संपर्क: मो. 9452295943, लखनऊ

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