एक अन्य शुन: सुप कथा

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    जनवरी 2018
श्रेणी एक अन्य शुन: सुप कथा
संस्करण जनवरी 2018
लेखक का नाम प्रेमलता वर्मा





कहानी

आखिर मैने 'पहल' में प्रकार्शनार्थ अपनी 'एक अन्य शुन: सुप कथा' शीर्षक कहानी भेजने का साहस कर ही लिया!
इस कहानीं की आधार शिला अर्जेंटीना में सन 1976 से 82 तक जारी फौजी तानाशाही के हुक्म पर फौजी दमनचक्र के तहत अपने ही देशजों की भीषण यंत्रणा और नृशंस सामूहिक हत्याकांड की है; यह कहानी इसी की स्मृति के दहकते चलचित्र में भटकते एक 'बार' के बेयरे की कथा है जिसके अपने सभी अजीज उस दमनचक्र में हलाल हो गये या 'गुमशुदा' की लिस्ट में आ गये थे।
आपको भी तो अर्जेंटीना, चिली तथा पराग्वई देशों में 'सुबर्सिव' के नाम पर  30 हजार वामपंथियों,यहूदियों तथा मानवतावादी पादरियों ,ननो तथा जो लोग फौजी कुकर्म के पक्ष में नहीं थे, के नृशंस हत्याकांड और भयावह यन्त्रणा तथा यातना घर में जन्मे नवजातों को -उनकी जननी को यम के घर पहुँचने के बाद- अपने किसी फौजी सिपहो को हस्तांतरित कर देने की जघन्य घटनायें ज्ञात हुई ही होंगी।
प्रेमलता वर्मा            




                                 
रात का दूसरा दौर चुक गया था।
फीके दिनों की बेचैन रात किसी रहस्यमय पदचाप के निकट आने का संकेत दे सरकती हुई दूर चली जाती है बारबार अपनी परछाईयाँ दुहराती हुई...
रात्रि के भीतर कई तू$फान दब-पिस के फुसफुसा रहे...वे ही दु:स्वप्नों में कहीं फट भी पड़ते..., छटपट व्यथा नींद को भक्ष जातीं हैं और अपनी लपेट में उसका न जाने क्या-क्या बना डालतीं हैं....चिंदी चिंदी कर...
बार 'लोस अमीगोस? करीब खाली हो रहा है। इस तेज़ बुखारवाले वक्त के उतराव में आखिरी गाहक,एक एक कर अपनी जेब सम्भालते, कुर्सी के हत्थे पर रखे अपने कोट को कंधे पे लटका कर 'बार' से निकलते चले जा रहे हैं...
कुर्सियां एक दूसरे पे जमा के चढ़ाये जाने की शुरुआत होने ही वाली है...
बेयरे ने-जिसका नाम अतीलियो है- मेज कुर्सियां खिसका खिसका कर, पंखों की बनी फूलझाडू से उन्हें झाडऩे से पहले फूलझाडू पर अंतिम बार हाथ फेरा....। सफेद एप्रन से हाथ पोंछ के,चेहरे का बायाँ हिस्सा बांह से रगड़ अकस्मात वह फूलझाडू रोक के खड़ा हो गया...।
थकान से पस्त जिस्म में झुनझुनी चढ़ गई... दिल में एक दरदरी धड़कन उसे जाने क्यों अपने बचपन की ओर खींचे लिए जा रही है... एक बेयरे की अदनी हैसियत में रोज-रोज के विरोधाभासों को तोड़ के,एक प्यारा सा इतिहास उछल आया... चार बरस का गदबदा बच्चा अपनी माँ की पीठ को घोड़ा बना टिकटिक करता पत्थर की बनी ऐतिहासिक सीढिय़ों पर उसे चला रहा है संगमूसा के बने घोड़ों के इर्दगिर्द... सलाखों के भीतर जकड़े फौव्वारे के भीतर खड़ी संगमरमरी परियां मुंह से पानी निकाल रहीं हैं... उसी ओर वह बढ़ रहा है... फिर कबूतरों के जलूस को,दौड़ कर दोनों हाथ फैला, मुंह से फूंक निकालते हुए, फुर्र से उड़ा देता है तथा ठठा के हंसता है... उसकी यह प्यारी, मासूम हरकत देख के मुग्धमन नानी और माँ बच्चे के गाल पे चुम्बन धर,उसके हाथ में चाकलेट का एक टुकडा थमा देतीं है। दुलार से उसका हाथ पकड़ नानी उसे बेंच पर बिठा देती है।
- कितने दूर की बात है! वह कहाँ से कहाँ आ गया! अगर पता होता कि बचपन पार करने का मतलब मुसीबतों से घिर जाना होता है तो वह कभी बड़ा ही न होता... मगर यह भी क्या उसके वश की बात है? अगर घास,फूस, पेड़ बढ़ते है तो आदमी भी बढ़ता है! भला कौन इस नियम के विपरीत जा सकता है!
किन्तु यह सोचने भर से क्या नौस्टालजिया का परिहार हो सकता? कोई भी तो नहीं साथ में अपना- बहुत दूर पड़ा हुआ इतिहास बताने को!...
आज बरखा नहीं हुई फिर भी अतीलियो को लगा कि सड़क गीली है...रात जरूर सूख गई है इस चढ़े पहर के उतराव पर...इस चौड़े सुरंगनुमा कैफे-बार की दीवारों के दोनों कोनो में चिपकी तस्वीरें, गाहकों के शोरशराबे से उखड़ती सी हो जातीं है...काउन्टर के पीछे ऊपर खूँटियों से लटके बड़े- बड़े लम्बे सासेज, हैम के सफेद बोरे,काउन्टर पर सजे तरह तरह के लिकर, बियर और वाईन की बोतलें तथा कांच के खूबसूरत कपों की कतार के पीछे खड़े वर्दीधारी बेयरों की बगल से कुछ दूर गाहकों के बिल छापने वाली मशीन के पीछे बैठा एकांउटेंट। कालेजियट छोकरे ज्यादातर बियर की मांग करते तथा सिगरेट के धुएं उड़ाते फुसफुसा कर अपनी- अपनी प्रेमिका की बात या अमूमन सियासत की बात छेड़ते... पढ़ाई की कापी अक्सर मेज़ पर धरी रह जाती यदि एक के बजाय दो या अनेक संख्या में हुए तो... लड़कियाँ पढऩे के मामले में कुछ ज्यादा गम्भीर और जिम्मेदार रहीं हैं हमेशा से वे किताब से नोट लेती रहतीं का$फी की चुस्की के साथ। पत्रकार भाईजान स्टैंड से सटे ऊँचे स्टूल पर बैठ गर्मागर्म 'सुबमारीनो' (गरम दूध में अधपीसी चाकलेट) की चुस्कियां लेते और फुटबाल खिलाड़ी पेस्ट्री खाने को अपनी सफेद-आसमानी धारियोंवाली कमीज और कपड़े के भारी जूतों से लैश पहुंच जाते। शनिवार की रात को गाने-बजानेवाले आते और गाहक जोड़े उठ के नाचने लगते। अनेक लोग जन्मदिन मनाने या शादी के बाद चर्च से लौटने पर  कोई-कोई वर-वधू भी अपना जलसा करने का सरसंजाम उस बार लोस अमीगोस में ही करवा लेते। मेहमानों के हिसाब से अनेक मेजें जोड़ कर रिजर्व कर ली जातीं। कई मंजिलोंवाली ऊंची ,विशाल केक काटी जाती;खाने पीने के बाद 'साम्बा' 'सालसा' या रॉक नाच होता; कभी कभी अरबी नृत्य करनेवाली नर्तकियां भी बुलाई जातीं। सुबह पांच बजे तक वह हर्षोन्माद से सरसराती समा बहाल रहती।
वह खुशहाल वक्त, ज़माना हुआ, कितना दूर चला गया!!
*
एकदम अकस्मात के तर्ज, सियासत के समुन्दर में कितनी भयानक सूनामी!!
- अरे भागो भागो...पीछे पुलिस आ रही है...
- भला क्यों? हमने क्या जुर्म किया है?
- यहाँ किसी जुर्म का सवाल नही, हम यहूदी घराने में पैदा हुए न...बस यही जुर्म है हमारा... तुमने देखा नहीं उस दिन अपनी खिड़की से... बीच सड़क पर एक जवान की छाती से निकलते लहू के फव्वारे को और उस बदजात पुलिस को जो उसके माथे पे अपना बूट जमाए, बंदूक धांय-धांय बजाये जा रहा था?...
ज़िगजैग, गलियों में भागते हुए वे 'बार लोस अमीगोस के एक कोने में घुसे हाँफते हुए...एकदम पीछे की नीम अन्धेरेवाली मेज के आगे वे बैठे...
- हाँ-अं, साइंस विभाग के प्रोफेसर मर्सेलो सुकोलोस्की को भी तो ले गये थे घसीट के और काली वैन में ठूंस दिया था...भला उनको क्यों, वे तो गणित ही पढ़ाते थे?
- यही तो असली मुद्दा है! फौजी सत्ता का मानना है कि कोई भी बौद्धिक विषय जो विचार क्षमता बढाये, खतरनाक होता है... तुझे पता नहीं? इसके अलावा क्या उन दरिंदों ने उस फ्रांसिसी नन को ही कहाँ छोड़ा... क्योंकि वह गरीबों और सताये जनों की सेवा करने जाया करती थी दरिद्र बस्तियों में... कोई भी व्यक्ति जो मानवता  के पक्ष में हो, वह प्रसीडेंट साहब के लिए सुबर्सिव ही है...
वे दो शख्स बोलने पर संयम न रख सके... डर को चबा जाने का गुस्सा इतना भारी था... अतीलियो उनकी बगल से ही गुजरा था... उसके कान में उनके सारे शब्द पड़े थे...
फिर कितने साल ईंटों की तरह मुल्क पे पड़ते उसे ध्वस्त करते गये...! आबादी का कितना बड़ा जवान हिस्सा पिस जाने के बाद, आया एक डगमगाता लोकतंत्र! सियासत के संग व्यापारी क्या चली गई? नहीं! अब तो व्यक्तिकरण का जमाना है... उस दिन रसोइया भी तो कह रहा था...ऊपरी तौर पे एक हल्का सा कहने भर को अमन...लोकतंत्र की नकाब लगाये फौजी तानाशाही के गेस्टापो, क्षद्मवेश में यहाँ भी आज मौजूद ही हैं...वे क्या किसी को चैन से रहने देंगे?
- हाँ उन्ही के चट्टे-बट्टे तो मौज करते रहेंगे... धोखाधड़ी, माफिया,अमीरों की अमीरी का अधिक से अधिक फूलना, मध्य वर्ग का गरीब वर्ग में तब्दील हो जाने का दौर क्या चुका? कौन है शिकार इसका?
- हमारी तरह के कम वेतनवाले मुलाजिम, तमाम मामूली जन और गरीब तबका ही तो! बड़े-बड़े उद्योगपतियों की तो पूर्ण चांदनी रही क्योंकि उसी किस्म के राज्याधिकारियों से उनकी  सांठगाँठ रही जो आम जनों का गला रेत, अपनी जेब भरते गये...आज भी है करीब वही हालात हैं तो हैरत क्या!
रसोई में बार खाली होने के बाद रात का खाना खाते वक्त बेयरों का दल आपस में खुसुर फुसुर करता बतियाता है...
अतीलियो का मन विछुब्ध है... कुछ अधिक ही।
अब तो बार 'लोस अमीगोस' में सुबह-सुबह चंद बुज़ुर्ग ही नाश्ते के लिए जुटे होते हैं - ताश के पत्ते लेकर... एक निहायत उदास निगाह वाली अधेड़ महिला काले लिबास में रोज बिना नागा वहाँ हाजिर हो जाती है। वे हमेशा कुछ पढ़ती रहतीं हैं चश्मा लगा के। अक्सर वे अपने पर्स से एक फोटो निकाल के आँखों से लगा के उसे चूमतीं है...इन महिला के सर पे बंधा सफेद रुमाल जिस दर्दनाक सच का प्रतीक है,उससे अतीलियो परिचित है...राष्ट्रीय स्तम्भ के घेरे में सफेद रुमाल बांधे उन महिलाओं के साथ ये भी हर बुधवार को चक्कर लगातीं है जिनकी औलादें उनकी कोख से छीन- झपट के फौजी घसीट के उठा ले गये तो कभी उन्हें लौटाया नहीं सब 'गुमशुदा'...की लिस्ट में एन.एन (न जन्मे)लिख के डाल दिए गये... उन्हीं औलादों की मांग में इन माओं के खामोश चक्कर का संधान आज 25 साल से चल ही  रहा है...
-सबका अपना-अपना इतिहास है...उससे सियासत का कितना ताल्लुक है- यह पहेली ही रहती है... तानाशाह राजनीति आम लोगों का इतिहास पैदा नहीं करती मगर उसे नष्ट जरूर कर देती है...
अतीलियो रात के उस एकांत में बुड़बुड़ाता है...
*
अतीलियो के इधर उधर मंडराते विचारों का गतिमान चक्र शुरू होता है उसके बोर्डिंग हाउस के अपने कमरे से निकलते; सर,छाती, कंधा, घुटने से फुटबाल उछालते फुटबाली बालक देखते... स्टेशन की दुछत्ती के नीम अँधेरे में मोटी- मोटी छातियाँ खोल, अपने नाक सुड़कते बच्चे को स्तनपान कराती मजदूरिन... (जिसके बच्चे के लिए अतीलियो पोतड़े और कुछ कपड़े खरीद के दे देता है); कमर टेढ़ी कर दांतों के बीच खिसखिस हंसी दबोचे, चंचल आँखों में शरारत ढालती किशोरी मरियाना...और दूसरी तरफ दीवार का वह कोना जिस पर किसी बालक ने कोई गड़बड़ तस्वीर खांच रखी है...रात को सड़क के खम्भे से लग सस्ती भड़कीली पोशाक में, सस्ता मेकअप किये चेहरे पर उगी काजलवाली आँखें, बनावटी भौंहें, अधखुली जांघे और आधे से ज्यादा खुले उरोज, सिगरेट मुंह में दबाए लैम्पपोस्ट से अदा से टिक के गाहक के इंतज़ार में खड़ी बारवविताएँ, जो पार्क में चुम्बन करते जवान जोड़ों को डाह मिले विषाद से ताक लेतीं रह रह... ये सारे भड़कीले और मासूम मंजर - जिन्दगी की धडकनों के शेड्स-अपनी खोली से लेकर बार 'लोस अमीगोस' तक की राह को एकरस ऊब से बचा जाते...। सुबह तड़के और देर रात गये,अपनी नौकरी बजा कर एक कमरे के, 'घर' कहे जानेवाले, मुकाम तक पहुंचने में अतीलियो की निगाह को ये ही मंजर अटकाये रहते हैं- एक बोसीदा सकून की मानिंद...
उस तरफ भी अतीलियो नजारा कर आता कभी कदाच जहाँ चन्द्राकार       'रियाच्वैलो' नदी के मुहाने से थोड़ा सरक के आंगन- शैली में बने फासले के सामने की दीवार पर बने लहीम-शहीम बजरों  की रस्सी खींचते मजदूरों और उन्हें नरम मगर गमगीन निगाह से ताकती प्रतीक्षारत उनकी घरवालियों के शिल्प होते हैं... तथा आंगननुमा सड़क पे कोई युवती या किशोर अपनी समूची धजा को सफेदी से पोते बुत बना खड़ा रहता है... नीचे जमीन पर एक टोपी रखी रहती है जिस पर इक्के-दुक्के सिक्के और  दो या पांच पेसो के नोट राहगीर रख देते हैं.... -बिचारे ये छोकरे-छोकरियाँ! भला इस धूप में और सारे दिन बिना हिले डुले एकदम बुत का अहसास देते कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं!! यह दशा जिसे ताक के, ज्यादातर राही तो दफा हो जाते हैं! पेट भरने का यह निराला जरिया अतीलियो को गहराई से उदास कर देता है...
शनीचर-इतवार के उस मेले में वहां चौड़े गलियारेनुमा सड़क के दोनों तरफ स्टैंड पर टैंगो के सस्ते चित्र चिपके होते हैं। और उनके चित्रकार हाथ में 'माते' की कुल्हिया और आँखों में अपना चित्र बिक जाने की आशा जगाये खड़े रहते हैं। ये बिकाऊ चित्र उन अमरीकी, जापानी, योरोपीय सैलानियों के लिए होते है जिनके भेजे में कला नामकी चिडिय़ा कभी चूँ चूँ नहीं करती! मगर हर परदेशी माल की अहमियत बोलती है - चाहे वह कितनी सड़ी और वाहियात हो...
 इधर भी अतीलियो टहलते हुए चला जाता एकाध दफे, और उतनी बार गमगीनी से घिरा भी... उसके दिमाग में मशहूर चित्रकार 'किन्केला मार्तिन' के रचे चित्र खुभे थे चटक पीले-लाल रंग के...अग्नि का दह्कता रंग... जिसमे मजदूर के जलपोतों के लिए भ_ी में लोहा गलाते हाथ, तमतमाया चेहरा  पिछले युग के मंजर पेश हैं...। रंग वैन गॉग के छटपटाते रंग नहीं, सीधे मौत की पीली शकल की लहूलूहान सीलें हैं...
अक्सर अतीलियो को लगता कि वह भी उन मजदूरों में एक है जो लोहा गलाते हुए, यमराज से लड़ रहा है...
*
सर्दी में सभी दृश्य जम जाते हैं ठहरे हुए चलचित्र की तरह... मगर इस शहर की रात्रियाँ कभी बासी नहीं होतीं; हर मौसम में वे दहकतीं हैं...भूख से अंतडिय़ाँ एंठने के बावजूद रात शहरी आबादी के लिए एक राहत है; $खास कर तन्हा हस्ती के लिए जिसका अब कोई नहीं रह गया...जैसे 'लोस अमीगोस' बार में काम करनेवाला यह बेयरा अतीलियो जो एक दिन रंगीन पर्वत श्रेणियों वाले देश के उत्तरी इलाके से आया था और यहीं रह गया! पुराने एरिया के बीच एक धुंधली सी सड़क की पटरी पर बसे चालीस साल पुराने हो गये 'लोस अमीगोस' बार का रिवाज़ दुहराता, निभाता वह भी चला आ रहा है बत्तीस साल से। वही, दोपहर को दफ्तर के बाद भुट्टे की तरह छूटे लोंगों की मेज पर उनकी पसंद के हिसाब से वाइन की बोतल का कार्क खोल उसे कांच के डंडीदार प्यालों में ढालना फिर खाने का आर्डर ले, रसोई से प्लेटों में खाद्य लेकर उन तक पहुंचाना। बिल अदायगी और टिप! शाम को सभी गाहकों की मनपसंद काफी-चाय, बियर, बिस्कुट और पेस्ट्री का दौर। रात में पित्सा, रावियोली, या लोहे की छड़ो पर भुने मांस की किस्मे! अरे वाह! - इस तरह रात साढ़े बारह बजे तक लट्टू जैसी चकराती भागदौड़ चुकने के बाद, बार के अन्य कामकाजियों के साथ अपना खाना पीना। फिर एक अतीलियो ही बच जाता— कुर्सियां एक पर एक जमा, उन्हें मेजो पर रखने के बाद बाहर सड़क से सटी 'बार' की पटरी साबुन- पानी से धोने के सिलसिले का जिम्मेदार बना। इस सारे सोते- जागते काम में रात के दो बज ही जाते जब उसे अपने 'घर' नाम के कमरे में पहुंचने की फुर्सत होती। उसने कभी किसी किस्म की शिकायत न की- न बार के मालिक न मैनेजर से...साल में पन्द्रह दिन की छुट्टी उसे भी-कानूनी हिसाब से-मिलती तो शायद ही वह कभी शहर से दूर कहीं जाता। सागर तट  उसकी मनभावन जगह थी; जहाँ वह रेत पर लेट आकाश की ओर मुहं उठाये धूप के साथ ही आसमान का नीलापन भी ताकते आराम महसूस कर सकता था- अहरह थकान से निजात पाके... मगर वहाँ भी कम ही गया। सागर के दर्शन चार सौ किलोमीटर दूर जा कर ही हो सकते थे न! अतीलियो जहाँ कहीं भी गया उसे सड़कों पर, पार्कों या गीली रेत में पाँव के पंजे गड़ा चलने और आसपास की जिंदगियों की भटकन पर गौर करने में अपने मन की हलचल से थाह मिलती और उससे राहत भी... 'कासीनो' भी गया मगर रूलेट पर कोई दांव लगाने नहीं, सिर्फ नजारा करने-जुआरियों को जीतते बेहद कम और हारते ज्यादा, देख कर, लौट आता...
वह और जमाना था - उसने सोचा।
तभी खड़े-खड़े उसे नीम अँधेरी सड़क पर कुछ हिलता-डोलता लगा...
कड़क सर्दी में एक फटा पुराना मफलर, गंदा सा कार्डिगन, फटी चप्पल और धूसर मोज़े तथा हाथ में घिसा हुआ दस्ताना पहने, कोई छायानुमा काया कूड़ों के बड़े-बड़े काले टिन के बने कूड़ेदान से, कूड़ों का थैला निकाल, खोल उसमे कुछ खोज रही है...ये सारे कपड़े-लत्ते उसे कूड़ेदान में मिले होंगे; अच्छे खाते-पीते घर की महिलाएं तो अपने ऊंचे बूट तक कूड़े में बाँध देतीं हैं और पुरुष अपनी पुरानी अच्छी खासी कमीजे, जैकेट आदि तक वहाँ फेंक आते हैं... 
कूड़े के विशाल टिन के पास ही सड़क का लैम्पपोस्ट हल्की रोशनी फेंक रहा था, अतीलियो अभी उस तरफ आँख गड़ाए ही था कि एक कार रोशनी भड़काती गुजरी तो सा$फ दिख गया— कोई  पन्द्रह-सोलह साल का छोकरा रहा होगा - नीली आंखें, घुंघराले बाल, और गोरे गालों पर चिपकी हुई मैल... अतीलियो की दरदरी धड़कन के पीछे एक छुपा हुआ डर उभर आया एवं जिस्म में थरथरी उग आई...अभी चंद साल पहले तक कोई नीली आँखों वाला ब्लांड तो कभी कूड़ा छानता नजर ही नहीं आया!! नीली आँखोंवाले तो महानगर के उत्तरी समृद्ध इलाके के सम्पन्न घरों के हुआ करते हैं!
यह डेमोक्रेसी तो राजतन्त्र से भी बदतर है...अब भी हमारी हिफाजत कहाँ है! आज भी रह गये हम कौड़ी के तीन ही तो!
*
अतीलियो की आँखे न नीली थीं न ही वह इतना गोरा ही था, किन्तु शरीर था खूब हृष्ट पुष्ट जो उसे विरासत में अपने डीलडौल वाले रूसी नस्ल वाले पिता से मिला था। उसके नाना अंदालुसीया (स्पेन का दक्षिणी प्रान्त) से आके बसे थे इस देश के उत्तरी क्षेत्र के गरम इलाके 'तुकुमान' प्रान्त में जहाँ आदिवासियों और भारतीय नस्ल के लोगों की आबादी बहाल है। अतीलियो ने वहीं जन्म लिया। माँ तो उसके बचपन में ही जमीन की पेबन्द बन चुकी थी। बाप था ट्रक चालक। उसी से अनाज के भारी- भारी बोरे, फलों और सब्जियों के वजनदार काठ के बक्सों को चढ़ाने- उतारने का काम सीखा। ट्रक से माल देश की राजधानी तक पहुंचाया जाता। रोजी रोटी कमाने का यही धंधा था। अतीलियो को भी बाप ने यही गुर सिखाया जिसमें शिकवा शिकायत की गुंजाइश उसके लिए नहीं छोड़ी। बाप उससे कहता— 'बिना मेहनत के रोटी तोडऩा हराम की बात है रे! यह बात तेरे भेजे में खूब समा जानी चाहिए, अगर तू हरामखोर नहीं,मेरा लायक बेटा है तो'! इस तरह वे लायक बेटे की परिभाषा की घुट्टी उसे पिलाते गये...
ट्रक चलाने की ड्यूटी से फारिग होते ही बाप जान का सबसे अहम लम्हा  होता- 'दामा ख्वाना' की पांच लीटरवाली वाईन की भारी बोतल खोल के बैठ जाना! बीबी की कमी इससे क्या पूरी होती भला! हाँ, जी भर वाइन का शरूर थकान को बदन से झाड़ कर यादों को चटक जरूर बना जाता... नौस्टाल्जिया की ऊभचूभ में डूबते-उतराते, अपने आप से कुछ बड़बड़ाते, बीते युग की परछाइयों से गुफ्तगू करते वे झुक के दोनों हाथों से बोतल थामे देर रात गये तक वहीं बैठे रहते-गोया 'दामा ख्वाना' ही उनकी प्रेमिका हो... अक्सर वे अतीलियो की ओर मुखातिब हो कहते— 'तेरी माँ तकदीर में बहुत तीखा मसाला भर गई - बेहद कडुवा...' फिर वे एक तरफ मेज़ पर ही लुढक जाते।
वैसे सारे दिन अतीलियो और उसके बाप में सिवा काम के घंटों के और कोई नाता बन ही नहीं पाया। बाप मरे भी तो खड़े-खड़े अपना काम निभाते। पहाड़ी इलाके में रात को चलते वक्त ट्रक रस्ते से सरक के एक गहरे खड्ड में गिर गया। उनकी लाश तक दफनाने को न मिली!
माँ तो पहले ही अतीलियो की कच्ची उम्र में, मानसिक रोगियों के सरकारी अस्पताल में एक गलत आपरेशन के सबब चल बसीं थीं।
दामा ख्वाना, वाइन, तरह तरह के लिकर तथा कोकाकोला वगैरह की बोतलें बाप के संग ट्रक से उतारते वक्त ही (राजधानी में) अतीलियो की पहचान, 'लोस अमीगोस' के चीफ रसोइये अनीबाल दुप्ला से हुई थी। अतीलियो के पुष्ट जिस्म का डीलडौल परख के 'आगे आनेवाले वक्त के लिए' उसे सही- सलामत मान उसके बाप से बात की तो उन्होंने टाल दिया अतीलियो को 'अपने काम के लिए अनिवार्य' बता के। तब वह महज़ 15 साल का था। मगर अतीलियो को एक बार-रेस्टोरेंट में काम करने का शौक तो चर्राया ही: झकाझक सफेद बुर्राक एप्रन पहन, सा$फ सुथरे लिबास में मेज़ के किनारे बैठे मेज़बानो के लिए गरम काफी, केक ले जाना और सफेद दस्तानेवाली उँगलियों से बोतल का कार्क खोल कांच के गोल कप में वाइन ढालना... फिर हर मेजबान की मेज से पाया टिप! बांछे ही खिल जाँय! वाह! भला इस मजेदार सलीके के काम की क्या तुलना ट्रक से सामान उतारने चढ़ाने से! अपने गंदे कपड़े और पसीने से गंधाते, घर लौटना और थकान से टूटते बदन को लेकर पस्त हो बिस्तर पे लुढक जाना! यह भी कोई जीना है?
अत:अतीलियो, बाप की मौत के बाद, कुछ वक्त इधर उधर भटक लेने के पश्चात 'लोस अमीगोस' रेस्टोरेंट के मालिक से मिला। बाप के संग ट्रक को अनेक बार रेस्टोरेंट के आगे  रुकना पड़ता,तो अतीलियो ध्यान से बेयरों के तुरत- फुरत मेज़ से खाने की फरमाइश लिख के ले जाना या खाना लेके अदा से पेश होने की हरकतें देखा-परखा करता। इसलिए उससे बेयरे के काम के बारे में अनुभव को लेकर जो कुछ पूछा गया, उसने कुछ इस तरह चटपट बता दिया गोया सचमुच उसने रेस्टोरेंट में काम किया हो!
लुब्बोलुबाब,बिना किसी ना-नुच के उसे तुरंत बेयरे का काम मिल गया।
शनिवार-इतवार को 'बार में इतनी भीड़ हो जाती कि महीने में महज़ टीपों से ही अतीलियो को अपने महवारी के वेतन से ज्यादा पैसे मिल जाते।
-'बचुवे! इससे उम्र लम्बी हो जाती है!बस फिरकनी बने रहो...' बगल से गुजरता रसोइया आँख मार के बोल देता।
*
मगर अब अतीलियो दूसरी तरह सोचता है - बेयरा बन जाना कौन सी शान की बात है? दिन-रात खटो और गधे के गधे बने रहो! अपने बचे वक्त का मर्जी मुताबिक इस्तेमाल ही कहाँ हो पाता है इतना लस्तपस्त होने के बाद! फिर, हफ्ते में एक दिन की छुट्टी कोई छुट्टी है,वह भी दिन बदल बदल के? मालिक और 'चेफ' के हाथों की कठपुतली ही तो है वह और उसके जैसे दूसरे सब मुलाजिम बेयरे और बाज़ार से सामान लानेवाले! वह तो रसोइया तक नहीं बन पाया! चीफ रसोईये दुप्ला ने अपने गुर की महक तक न लगने दी उसे; सिर्फ तमाम पकवानों के नाम उसे तोते की तरह रटवा दिए! आज बत्तीस साल से मीनू भी करीब करीब वही! और अपने यूनिफार्म के बगैर तो बाहर सड़क पर अपने रोज के गाहक तक उसे नहीं पहचान पाते! अतीलियो ने कंधे झटक के अपने कान हिलाए।
आज जरूर उसमें कुछ घटित हुआ है... उसे वैसा कुछ नहीं महसूस हो रहा जो बहरहाल रोजमर्रे की लय उसके आगे पेश करती है...
रात की इस चढ़ी घड़ी में उसे कुछ अजब सा, कुछ असमान्य सा महसूस हो रहा है...खास कर कूड़ादान छानते नवउम्र छोकरे को ताक कर ...
शायद यह बढ़ती उम्र का असर होगा! श्रीमती विल्मा कहा करतीं हैं-'उम्र की ढलान पर तनहाई का रास्ता एकदम सा$फ नजर आता है, जब वह दिल की धड़कंन से चिपक जाती है...'
अब अतीलियो उम्र की पचास सीढ़ी पार करने को है। गनीमत है अब तक किसी गम्भीर बीमारी ने उसे नहीं चांपा! अगर जुए में जुटे इस बैल की जिन्दगी को रोग चांपे भी तो क्या- कौन उस पर तवज्जह देके उसे मुफ्त की रोटी तोडऩे देगा? उसके न तो आगे न कोई बीच में न ही पीछे! एक बहिन थी, वह भी...
अतीलियो ने लम्बी सांस खींची - वह बेयरा न होता तो क्या होता? चलो इस काम में लोगों से रोज़ रोज़ सम्पर्क तो होता है, भले वे न सगे हों न दोस्त...हलचल और गहमागहमी के ज्वारभाटे में तनहाई के अहसास पर कटारी धरी रहती है...
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रात जब सब मजमा उतर जाता है तो अतीलियो हाथ में झाडऩ लिए ठगा सा कुछ देर खड़ा रह जाता अनेक बार...झाडऩ लिए ही वह कुर्सी पर बैठ जाता। तब अकस्मात न जाने कहाँ के भूत-प्रेत उसकी नजरों के आगे खड़े हो जाते हैं...उसका जिगरी दोस्त कमीलो दसवीं मंजिल की खिड़की से गिर कर एक नादान पिल्ले की तरह खत्म हो गया! जीभ बाहर निकल आई थी...तो एक अतीलियो को छोड़ के सभी ने विश्वास कर लिया कि वह फौजियों की करतूत थी,कि कमीलो अपने आप से नहीं गिरा... उसे पीछे से किसी ने ढकेला जो चढ़ी रात किसी को नजर नहीं आया... कमीलो का बाप यहूदी था जिसने एक अरबी स्त्री से गांठ बांधी थी...
दोनों ही नस्लों से $फौजी सत्ता को एलर्जी...
और मानुएल? ओह! सोज़ के साथ टैंगो गानेवाला फटेहाली के दामन में कसा, अतीलियो की जान पहचान का भला युवक! गाते वक्त सुनने वाले का कलेजा काढ़ लेता! जिसे अतीलियो अपने हिस्से का खाना अक्सर खिला दिया करता! न जाने कैसे उसका सर फिरा एक दिन कि यूँही 'चे गेवारा' की प्रशंसा कर बैठा... भले उसका किसी वामपंथ से नाता न हो, उसे शक में ही पुलिस की काली वैन घसीट ले गई... मानुएल की बेसहारा माँ गम में अंधी हो गई। अतीलियो उसके लिए खाने-पीने का सामान मुहय्या कर दिया करता हफ्ते में एक दिन। मगर वे अपने बेटे का गम बर्दाश्त करने काबिल न रह पाईं और जल्दी ही खुदा के घर पनाह लेने चली गईं!
मानुएल कम्युनिस्ट नहीं था न यहूदीयत का पालक, बस 'चे गवारा' का नाम लेना उसका सबसे गम्भीर कसूर निकला कि उसे जान के लाले पड़ गये! अतीलियो को, 'लोस अमीगोस' बार में बैठने वाले एक पुलिस वाले से ही पता चला कि मानुएल को पु_े से मार मार उसका हलाल किया गया... मुंह में बंदूक की नाल घुसेड़ के बारबार यातना देने वालों ने दुहराया—'हरामी के पिल्लेे, ले 'चे  'गेवारा' का नाम उचार न ऊंची आवाज़ में रंडी की औलाद!'
उन दिनों फौजी हिटलरशाही सत्ता का एकमात्र तर्क था कि वामपंथी और यहूदी दोनों ही सुबर्सिव लोग थे इसलिए उनका बेहिचक खात्मा कर देना चाहिए! 'अगर सौ में पांच भी कसूरवार निकले तो सौ का खात्मा जायज है...'
 अतीलियो के पूरे शरीर में दहशत की सुरसुरी बबूल के कांटें सी उग आई थी... पहली बार उसने अपने रक्त- मांस के भीतर असली हकीकत से साक्षात्कार किया! उसे बखूबी याद है- पहले अखबारों और रेडियो में इस बाबत कुछ बने बनाये समाचार होते -ज्यादातर फौजी तन्त्र के हमदार पक्षधारी... इसके अलावा 'बार लोस अमीगोस' की हलचल ने शुरू-शुरू में उसे गहराई से हकीकत जानने नहीं दिया था... धीरे-धीरे छात्र-छात्राओं का 'बार' में आना कम,फिर बंद होता गया... उनकी जगह वर्दीवाले ज्यादा बढ़ गये... उनमें से कोई वर्दीधारी उठता और एक एक कर सभी मेजों के पास राउंड लगाता, बैठे आम लोगों को घूर के देखता तथा अक्सर ही उनसे उनका पहचान-पत्र मांग के कई बार देखदाख, उससे उनकी शकल का मिलान करता... कुछों का पहचान-पत्र लौटा देता, एकाध को अपने पीछे चलने का इशारा करता... निश्चय ही पीछे चलनेवाले को कभी भी लौटने की नौबत न आई... खुदा न खास्ता, मेज़ पर जो उनके पंजे से बच जाते, वे लम्बी सांस ले 'बार' में फिर पाँव न धरने की कसम खाते - 'गुमशुदाओं' की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज होने से बचने के लिए...
अतीलियो के ऊपर फौजी तलवार नही लटकी- क्योंकि उस चुप्पे से शख्स को एक तो 'इनोफेंसिव' समझा गया... जिससे किसी का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, जो किसी के तीन-पांच में नहीं रहा.., अपने काम की व्यस्तता में, बड़े अदब से हर मेज के आगे पेश होता... एक पुराने मेजबान जिनका साबका मिलिट्री सत्ता से था, रोज ही 'बार लोस अमीगोस' में तशरीफ लाते थे और वर्षों से अतीलियो को जानते थे जिसने उनकी खातिर में कभी कोई कमी या चूक न की। इस नाते  भी अतीलियो फौजी गेस्तापों की कड़ी खूंखार  नजर से बच गया...
रात के उस मनहूस सन्नाटे में अतीलियो की स्मृति में एक नाम पीड़ा के साथ गूंजा-अतेना! हाँ अतीलियो की मौसेरी बहिन अतेना! एक काफी उम्रवाले रिटायर्ड फौजी ने उसकी इज्जत लूटी थी... उस निहायत शर्मनाक हादसे का बोझ सह न पाने पर अतेना ने खुदकुशी कर ली थी...
- और कार्लोस की बहन नोरा? उसकी सुराहीदार गर्दन में बंधा सुर्ख रुमाल तथा उसकी मस्त चाल ने अतीलियो का मन मोह लिया था! कितना अच्छा 'सालसा' नाच नाचती थी नोरा! अतीलियो के सपने में वह रोज आने लगी थी... उसे बाहों में भर लेने पर उसे अपने कुछ 'विशिष्ट' होने का अहसास होता जैसे वह ऊंचा और ऊंचा होता जा रहा हो बादलों को छू लेने तक...! आईने के सामने खड़ा हो वह मुस्करा देता नोरा की सूरत याद कर...। वही नोरा एक दिन दीवानगी कर बैठी...! कार्लोस की, सड़क पर ही, एक रंगरूट ने गोली चला हत्या कर दी थी जरा सी बात पर...! नोरा बदहवासी से चीखती हुई, सीधे 'गुलाबी भवन'(राष्ट्रपति भवन) दौड़ती गई और फाटक पर पूरा दम लगा के चीखी -'हत्यारो! तुमने मेरे मासूम भाई की जान ले ली! क्या मिला तुम्हे? क्या बिगाड़ा था उसने तुम्हारा? अरे,भडुओ! तुमको शैतान जह्ननुम की चक्की में पीसेगा...देख लेना!'
नतीजे में जो हुआ उसे बेहतर कहना ही नहीं...
उस दिन के बाद नोरा कभी न लौटी...
अतीलियो का, चर्च में नोरा को सफेद लिबास में ब्याह की अंगूठी पहनाने का सपना वहीं दफन हो गया हमेशा को...इसके बाद प्रेम शब्द से ही उसे खौफ हो गया!
 काफी साल गुजरे उसके जीवन में जब एवेलिन आई। मगर तब तो बारह से अक्सर सत्रह घंटे नौकरी बजा के अतीलियो रह किस लायक गया था कि उसे सिनेमा ले जाता या नाचघर, या किसी मंहगे रेस्टोरेंट में खिला पिला सकता! मनोरंजन के ये दरवाजे तो उसके लिए बंद ही थे!
ऊब के वह किसी नये साथी के साथ चली गई।
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अतीलियो ने 'बार के बाहर, सड़क के पार वाली दीवार पर निगाह दौड़ाई - कोई पन्द्रह साल का छोकरा दीवार पर इश्तेहार चिपका रहा था। अतीलियो खुद भी तो शायद इसी उम्र में यही किया करता था.. दुनिया अपनी जगह पर वैसी ही है जैसे आज से सालों पहले थी! बस कुछ नई सी लगती धाराएं जो पुरानी धाराओं का ही बदला रूप हैं, समय को बढ़ाने-घटाने में हाथ बढ़ाया रहतीं हैं...
अतीलियो ने एप्रन से माथे का पसीना पोंछा—'अरे! उसे तो बुखार है!' उसे अपनी यह हकीकत पिरा गई! मगर वह लोहे का तो बना नहीं!
उसने अपने को ढाढस बंधाया ।
अब उसने फूलदार झाडू उठाई तो जैसे उसे कोई रूहानी सुरक्षा मिली... मगर देह ने साथ नहीं दिया... बुखार सांप काटे के जहर के समान तेज़ी से जिस्म को नापने लगा...
अकस्मात अतीलियो को लगा कि नोरा छाया रूप में उसके आगे खड़ी है...
अतीलियो ने अपना माथा झटका - 'नहीं नहीं...यहाँ कोई नहीं है...वे दिन बीत गये कभी के...अब हम लोकतंत्र में हैं...'
किन्तु सवाल फिर भी खौलते रहे... आज की ही तो वह तारीख है और वही महीना जब वे राक्षस नोरा का बाल खींच घसीट ले गये थे और वह कुछ न कर सका...पत्थर बना खड़ा बस सुना भर...
आखिर खड़ा रहा न गया तो मेज पर चढ़ी कुर्सियों में से दो को नीचे उतार, एक पर बैठ , दूसरे पर पाँव  धर अतीलियो अधलेटा सा हो आया...  बत्तियां उसने बुझा दीं... बाहर की हल्की रोशनी जरा- जरा सा छन के आ रही थी... आज वह बोर्डिंग हाउस के कमरे में नहीं जाएगा। उसका अपना घर तो कभी बना नहीं...जब चाहा, वह बनने से पहले ही ढह गया... अलस्सुबह बोर्डिंग से निकल आना और रात दो बजे तक यहीं बने रहना... सिर्फ चंद घंटों के लिए वापस लौटने का कोई तुक नहीं...
दो कुर्सियों के बीच उसे कोई समझ कौंध गई... नींद ने आ घेरा... शायद तेज़ बुखार से...।
अब बाहर घुप्प अँधेरा और भीतर भी...
अतीलियो सपना देख रहा है...कोई जलसा है किसी की शादी का...'बार 'लोस अमीगोस' में खूब बड़ी से मेज के बीचोबीच रेशमी कागज़ से ढका हुआ बड़ा सा ऊंचा केक धरा हुआ है...वर-वधू चर्च से वापस सीधे बार में प्रवेश करते हैं... वधू का मुख सफेद रेशमी स्कार्फ से ढका हुआ है... दूल्हा उसकी कमर अपने हाथ से लपेट नाचता है... दूल्हे की तरफ अतीलियो की निगाह जाती है—'अरे! यह तो वही फौजी है जो नोरा को घसीट के ले गया था!! अतीलियो के हाथ से 'नोर्टन' ब्रांड वाइन की बोतल छूट गिर जाती है और उसकी छिटकन दुल्हे राम के वस्त्र पर पड़ जाती है...!
'अबे! हरामी के पिल्ले बदजात! तूने यह क्या किया! देख अभी तुझे मजा चखाता हूँ!' कह के दूल्हे ने अतीलियो के टेटूये कस के दबाये और हाथ उस पे कसता गया... इस बीच वधू ने अपना घूँघट ऊपर उठा कर दुल्हे को उसका गला घोंटने से मना किया...
- 'अरे! यह तो  मेरी नोरा है!!'
तभी केक का कवर हवा में अपने आप खुल गया...
- उफ! हाय यह केक तो कार्लोस का कटा सिर है!!
अतीलियो की निगाह अपने आप ऊपर उठी - दुल्हे के पिता की तरफ जो सकते में आये मेहमानों के आगे तालियाँ बजा रहा था जोर जोर से...
- बाप रे! ...जनरल मासेरा!!
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   सुबह तड़के जब 'बार लोस अमीगोस' की सफाई करनेवाला आया तो उसने अतीलियो का सर दो कुर्सियों के बीच लुढ़का हुआ पाया...
अतीलियो नोरा के पास दूसरे संसार में पहुंच गया था।


नोट: जनरल मासेरा - सं 1976 से 82 तक चलने वाले फौजी दमनचक्र का सिरमौर -यन्त्रणा में सिद्धहस्त हत्यारा।
'सालसा' और 'साम्बा' - दो लातिन अमरीकी लोकनृत्यों के नाम।






प्रेमलता वर्मा हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका हैं। मलयज की बहन हैं। कई दशक पूर्व इलाहाबाद छोड़कर प्रवासी हुई और दक्षिण अमरीका के देशों में रहीं। इन दिनों अर्जेन्टीना में है और वहीं से पहल के लिए यह कहानी भेजी है। संपर्क : premalataverma@yahoo.com, BUENOS AIRES, ARGENTINA

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