कविता
उचित दूरी बनाए रखें
बहुत नज़दीक से चाँद केवल मिट्टी है और सूरज है खौलता लावा हीरा केवल कोयला, कोयला केवल जीवावशेष बहुत नज़दीक से जुगनू है कीट बहुत नज़दीक से इन्द्रधनुष है ही नहीं
बहुत नज़दीक से आदमी केवल कोशिका तंत्र आदमी की गंध, माने पसीने की बू बहुत नज़दीक से रिश्तों की गर्माहट बनती है निजता का अतिक्रमण दोस्ती हो जाती है परजीवी करुणा बनती है दया क्षमा भी बनती है दंभ
बहुत नज़दीक से ईश्वर लगता है भयावह राज्य के नज़दीक आये धर्म एक साधू बन जाता है अभिनेता, दुसरा कैपिटलिस्ट एक पूरी कौम बन जाती है आरोपी, अभियुक्त या गवाह
जंगल के बहुत करीब आये शहर जनजाति पर लगती है आंतरिक असुरक्षा की मुहर नागरिक के बहुत नज़दीक आये राष्ट्र ध्वज बनती है सूली एक छात्र बताया जाता है देशद्रोही, दूसरा आत्महंता राष्ट्रप्रेम के बहुत नज़दीक ही रहती है ब$गावत राष्ट्रभक्ति के नज़दीक, गुलामी
वर्षों लम्बी सड़कें नापी है इन ट्रकों ने छानी है धूल, सोखी घृणा और तिरस्कार यह उनकी बेरुखी नहीं अपना अनुभव है जो सचेत करता है 'कृपया उचित दूरी बनाए रखें'
सपने में बैल
सपने में सब कुछ होने लगता है गड्मड मेरा झंडा बदलने लगता है रंग केसरिया से हरा, फिर लाल, फिर नीला नीला, बर्फ में जम गए लाश की तरह नीला
मैं देखता हूँ सपने में बैल बैल पर बैठा काफ्का नाचता है बार में, नशे में धुत्त और दूसरे विश्वयुद्ध की यातना पर कविता सुनाता है रिल्के पेरिस में दिखती है बनारस की गलियां उड़ती चीलों के चोंच में हरी घास के तिनके बैल दिखता है निरीह, गाय उन्मत
सौदा लेकर आते गाँधी बाबा से बदहवास भागते टकराई अठ्ठारह सौ संतावन के गदर से बचकर निकली एक लड़की बाबा का नून बिखरा राजपथ पर, गॉगल्स के टुकड़े हुए चार एक हौली-सी आवाज़ में कहा लड़की ने - सौरी और गुम हो गई कनॉट प्लेस के एक चमचमाते मॉल में कान से रेडिओ सटाए गालिब ने हँसकर कहा होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे यहाँ पोस्टर चिपकाना मना है वाला पोस्टर लिये कबीर भटकता रहा दरबदर परेशान के इसे चिपकाये कहां और अंत में पहुँचता है संसद भवन हाँ, बस यही जगह है उचित यहाँ सचमुच कोई पोस्टर अब तनकर चिपक नहीं पाता ना समाजवाद का, ना धर्मनिरपेक्षता का, ना लोकशाही का ना इसका, ना उसका सब पड़ जाते हैं ढीले, बन जाता है झोल
सपने का हैंग-ओवर ही होगा के देखता हूँ कुछ वैसा ही, जब खुलती है आँख
एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष देश जहाँ सत्ता के बाएँ बाजू पर संघी टैटू दाहिने पर पूंजीवादी फ्रेंडशिप बैंड एक न्यायपालिका, जो पूरी तरह से अंधी भी नहीं, बस थोड़ी सी भैंगी,
जिस रफ्तार से एक कीमती कार फुटपाथ पर नींद में डूबे मजदूरों की छाती करती है पार उसकी दोगुनी रफ्तार से उसका चालक अदालत में होता है बरी
देशभक्ति के एक बड़े से हौदे में जब सारा राष्ट्र छपाक छपाक जलक्रीड़ा कर रहा है मैं अपने हाथ में एक ऐसी सूखी कविता लिये खड़ा हूँ जो बारिश में भी भीगती नहीं
चाहिए ये सब, और बाकी भी
जहाँ मैं रहूँ चाहिए होते हैं, ढेर सारे पेड़ मुझे चाहिए होती है पँछियों की आवाज़ और दरकार होती है आवारा घास की जो लॉन में नहीं उगती
नदी की चाह लगती है बड़ी उसे भूला जा सकता है फिर भी चाहिए होते हैं पत्थर, बेढब और नुकीले
भले न दिखे खेतों में बंधा हुआ पानी लेकिन बरसात में कभी दिख जायें भूले भटके मेंढक लहराते और गलफड़े
और चाहिए कोई मित्र जो बात कर सके पहाड़ों की याद दिलाये भूला कोई नाम जो जंगली फल खाए थे हमने झाडिय़ों से और करा पाए पहचान, उस फूल की जो खटमिठ्ठी की पत्तियों के बीच बीच दिख जाते थे सफेद नारंगी और अपने पिता की उपस्थिति ताकि जान सकूँ ठीक पौधे रोपने की तकनीक, पारंपरिक नुस्खे जैसे जाना, नींबू की जड़ों में 'मछली का पानी' देना कहाँ से ठाल तोड़कर पुदीना बोना पौधों में चावल का माड़ देना लेकिन तब नहीं, जब चींटी लगी हो जो लाही जितना ही है नुकसानदेह और जान सकूँ कैसे छुपायी जाती है व्यस्तता में विवशता
और चाहिए वो स्त्री आसपास जो भटकाए मेरा ध्यान अपने गिरते बालों, आँखों का इन्फेक्शन मौसम की बढ़ती उमस, और ऐसी ही कितनी रोज़मर्रा की उलझनों में क्यूंकि उसने भांप रखा है के मैं खामोश तौलता नापता रहता हूँ अपने मलाल!
रिट्रीट
आधी चाय, पूरी सिगरेट पीने के बाद आज सुबह सवेरे खयाल आया - ज़रा आज तक के अपने बीते जीवन पर नज़र डालूँ शुरू से आिखर (माने अब तलक पर) क्या क्या करा/भोगा/देखा... सारे अनुभव क्या क्या रह गया/किया नहीं/छूटा.... सारे मलाल 'फिर सोचा रहने दूँ' नॉसटाल्ज़िया अपने अतीत से संभोग की क्रिया है मुर्दा क्षणों, घटनाओं, स्थलों को नोचने खसोटने की सनक अपने पुराने समय में लौटने की बेकार होड़ एक प्रकार से मौत से भागने की चेष्टा रिट्रीट फ्रॉम प्रजेंट एंड फ्यूचर!
संपर्क : मो. 9650223928, फरीदाबाद |