दो कविताएँ

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    जनवरी 2018
श्रेणी दो कविताएँ
संस्करण जनवरी 2018
लेखक का नाम कुशेश्वर





दो कविताओं के साथ वरिष्ठ कुशेश्वर का कलकत्ते की जिंदगी पर एक पत्र- वक्तव्य


आपने मेरे बारे में जानना चाहा है, तो मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसे सुनकर (पढ़कर) आपको गर्व हो। हाँ, ऐसी खुशी शायद मिल सकती है जो खुशी उस माँ-बाप को मिलती है; जिसका बेटा पंद्रह-बीस साल बाद घर लौट कर आया हो
शायद यही कारण है कि इतने ही वर्षों के अंतराल पर जब आपसे फोन पर बातें हुईं तो मैंने 'दादा-पोता' वाली बात कह दी थी। इसीलिए अब वह झिझक मेरे अंदर मौजूद नहीं है और अपने बारे में संक्षेप में कुछ बातें बता सकूंगा। बस, यह समझ लीजिए कि खर-खर ताड़ के पत्ते और कांटेदार खजूर के पल्लों (डालियों) से छिदकर, ऊबड़-खाबड़ टूटे हुए रास्तों से पैरों को लहू-लुहान लेकर एक नीम-अंधेरे में लम्बा रास्ता तय किया है; जहाँ अभी भी धुंध का सिलसिला जारी है।
मुख्तसर ये कि 1969 में ('61 से '68 तक मुंबई, दिल्ली, आगरा, लखनऊ, कानपुर, वाराणसी आदि जगहों भटकने के बाद कोलकाता जब वापस लौटा तो कहानियां पढऩे का शौक लग चुका था और लिखने का भी) डॉ. माहेश्वर से मेरी मुलाकात हुई, 'कहानी' में उनकी एक कहानी 'दाग' पढ़कर। तब वे यहीं खिदिरपुर में रहते थे, साथ में तडि़त कुमार भी। धीरे-धीरे मुझे पता चला कि नक्सलवादी संस्था की साहित्यिक विंग से जुड़े कुछ लोग हैं - सूर्य नारायण, हरिहर द्विवेदी, रत्नाकर वर्मा, तडि़त, जिसके सरगना हैं डॉ. माहेश्वर। और मुझे भी शामिल कर लिया गया।
दो वर्ष बाद मैं डॉ. माहेश्वर के दल से अलग हो गया। दरअसल, वे चाहते थे सूर्यनारायण सिंह की तरह मैं भी नौकरी छोड़ दूं और पार्टी के लिए समर्पित हो जाऊं। मेरा तर्क था- सूर्यनारायण अपने गांव के बड़े किसान हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा किन्तु मेरे जिम्मे 9 आदमियों का खर्च है (पिताजी - उनकी नौकरी चली गई थी, स्टेशन मैनेजर (पावर हाउस) से, मारपीट के कारण, मां, एक गूंगा मामा, तीन छोटे भाई और दो छोटी बहनें। वो, कहां से चलेगा? अगर ये सब ही भीख मांगने लगेंगे तो मैं देश का क्या भला करुंगा? डॉ. लालबहादुर वर्मा (गोरखपुर वाले, इन दिनों इलाहाबाद में हैं) ने मुझे समझाकर वापस तो बुलाया, किंतु बात पहले जैसी नहीं रही। फिर तो वे खुद ही दिल्ली चले गए, 'मैकमिलन एण्ड कं. की टोपी पहनकर।
मैं स्थानीय तौर पर सी.पी.आई. (एम) से जुड़ा हुआ था किन्तु '73 में मेरी एक मांग पर (चौराहे के पास वेश्यालय को हटाया जाय और उनका उद्धार किया जाय) मुझसे झगड़ा हुआ कि ऐसा करने से दंगा हो जायेगा। यह तो मुझे बाद में पता चला कि चकले का सरगना पार्टी में शामिल हो गया था।
उन दिनों उम्र कम थी या दिशा सही नहीं थी, जिस कारण यह समझ नहीं पा रहा था कि मजदूर की नौकरी करते हुए ट्रेड यूनियन करना, तथा एक सुन्दर समाज की कल्पना करना कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा कि आँखों में केट्रेक्ट आ जाने पर रात में बत्तियों के गिर्द गोल इंद्रधनुषी चक्र दिखाई देते हैं। दरअसल, वामपंथ के अलावा कुछ और सोच नहीं पाता था। जब कोई 'कॉमरेड' कह के पुकारे तो सीना चौड़ा हो जाता था। तब पता नहीं था कि अधिकांश भारतवासी जातीयता, प्रांतीयता एवं भाषा की संकीर्णता से मुक्त नहीं हो पाये हैं। बादल कितना घना क्यों न हो, बरसने के बाद आखिरकार छंटता तो है ही।
बहरहाल, इस बीच अनेक वामपंथी विचारधारा से जुड़े रचनाकारों से सम्पर्क हुआ जिनमें भैया विमल वर्मा, परशुराम जी अभी मौजूद हैं। मार्कण्डेय सिंह, रामवृक्ष रहे नहीं। हरिहर द्विवेदी, तडि़त, रत्नाकर कहां गये पता नहीं। सूर्यनारायण बनारस जाकर बस गए। मेरी कविताएं जो तीन जन बहुत पसंद करते थे, उनमें अलखनारायण, शलभ श्रीराम सिंह अब रहे नहीं। सुब्रतो लाहिरी ने किनारा कर लिया है। अरुण माहेश्वरी और सरला जी आज भी पार्टी से जुड़े हुए हैं और $खूब लिख रहे हैं लेकिन ये लोग इतने धनी हैं कि इनके पास मेरा आना-जाना नहीं है। वो तो हरीश भादानी (सरला जी के पिता) 'वातायन' के संपादक कोलकाता आए थे तो उनसे दो बार मिला था गोष्ठियों में। चंद्रा पाण्डेय जी से भी कभी-कभार ही मिलना होता है। जानते तो शंभुनाथ भी हैं लेकिन मुस्कुराहट और धीमे बोलने से अधिक कुछ नहीं। डॉ. प्रतिभा अग्रवाल, कुसुम खेमानी, एकांत भाई से भी परिचय है किंतु एक रेखा है जो हमारी इन लोगों के बीच खिंची रहती है। इनके कुछ अदृश्य कराण हैं कि मैं कभी किसी को अपने घर बुला नहीं पाया, न सभा-गोष्ठी की। कैसे करता-प्राइवेट कम्पनी के मज़दूर की नौकरी (जहाँ कोई पेंशन नहीं)। दो बहनों और एक भाई की शादी, पिताजी के कर्ज़ों का भुगतान, अपनी शादी, बच्चे... यानी गांव से यहाँ का खर्च इतना लम्बा हो गया कि अजगर भी छोटा लगने लगा। 'पुनर्मूशको भव:' की स्थिति में आज भी उसी खपरैल के मकान (लाईन बाड़ी) एक कमरे वाले छोटे-से घर में गुजारा करने के लिए बाध्य हूँ। रास्ते के कार्पोरेशन वाले नल से सुबह-शाम पानी उठाना पड़ता है।
वो तो स्वर्गीय मनमोहन ठाकौर की पहल थी और कवि नवल जी की मेहरबानी - 1997 में मेरी एक कविता पुस्तक 'ज्वालामुखी पर लिखा हुआ फूल' छपी, जिससे कवि के रूप में एक छोटी-सी पहचान मिली।
कभी एकांत में बैठकर अपने साहित्यिक अतीत को सोचता हूँ तो बरबस मुझे डॉ. महेश्वर याद आ जाते हैं और उन्होंने 'प्रीतम कुमार आंसू' (छद्म नाम) को हटाने की सलाह दी थी और कहा था - साहित्य से जुडऩा है और वामपंथी बनना है तो छद्म छोडऩा होगा, असली नाम को रखना होगा। चूंकि उन दिनों जाति-प्रथा को खत्म करने की चाहत बड़ी तेज़ थी प्रगतिशील रचनाकारों में जिसकी वजह से प्राय: रचनाकार अपने नाम के आगे से पदवी हटा देते थे तो मेरा भी नाम कुशेश्वर महतो से हटकर कुशेश्वर रह गया। इसी नाम से मेरी पहली कहानी 'बड़ी मछली-छोटी मछली' 'कहानीकार' में छपी थी। मुझे भी अच्छा लगा था। भुवनेश्वर, मिथिलेश्वर, कमलेश्वर, माहेश्वर, विमलेश्वर, विश्वेश्वर की कतार में अपने को खड़ा पाकर एक सिहरन-सी हुई थी मेरे अंदर। फिर तो कई बड़े नाम बिना पदवी के और देखे, प्रेमचंद, सुदर्शन, कृष्ण चंदर, महेन्द्रनाथ, ज्ञानरंजन, पुष्पराज... कुछ बाद में संजीव, संजय और भी कई-कई नाम जुड़े। तब हमने सपना देखा था - जाति विहीन, धर्म रहित, बिना काले-गोरे, ऊंच-नीच के भेदवाला सुखी मानव-समाज होगा... यदि कुछ रह जायेगा तो वह केवल दीवारों पर पुरानी तस्वीर की तरह लटका रहेगा। किन्तु सब इसके विपरीत हुआ। शीशे में मढ़ी हुई वे पुरानी तस्वीरें हर साल क्या, हर माह, हर दिन नये-नये भड़काऊ कैलेण्डरों की शक्ल में छपकर लोगों की पीठ से सीने तक चिपकती जा रही हैं।
बहुत पहले 'पहल'-78 अंक में मैंने पाब्लो नेरुदा एवं मेहमूद दरवेश की कविताएं पढ़ी थीं। उनके समीप तो क्या उनसे सौ कदम की दूर पर भी मेरी कविता नज़र आ जाये तो अपने को सार्थक समझ लूंगा। हाँ, इतना कह सकता हूं कि हावड़ा स्टेशन और नई दिल्ली के बीच में रेल लाईन बिछी है और बीच-बीच में छोटे-छोटे स्टेशन हैं, जो दोनों  ट्रेनों को अपने गंतव्य पर पहुँचाने में सहायक हैं, एक महत्त्व है। ठीक उसी भांति इस यात्रा में अपनी कविताओं को मैं बीच का स्टेशन मानता हूँ। अब यह आप पर निर्भर करेगा कि आप निर्णय करें कि मेरी 'सोच' केवल सोच है या उसमें पर्याप्त जीवन अर्थ भी।






जो देना है

दिखाते हैं खूबसूरत दाँत
मंजन बेजने वाले
दिखाते हैं चमकता चेहरा
अपना चेहरा बेचने वाले

मैं क्यों दिखाऊँ दाँत अपना
दाँत पीसना मेरी आदत में नहीं शामिल
यह करतूत बन्दर की हुआ करती है
मैं तो खुलकर हँसना चाहता हूँ
हंसने में दिख जाये यदि दांत
तो उसमें मेरा क्या दोष
लगे रह गए होंगे कहीं दांतों के बीच
मकई के कुछ सफेद दाने
जो खाये थे बचपन में
कोई अमेरिकन डायमंड तो सटा नहीं रक्खा

मेरा चेहरा भी ऐसा नहीं
कि मेरी मुस्कान की लगाये कोई कीमत
एक गरीब बच्चे की मुस्कान की कीमत नहीं हो सकती
सच कह रहा हूं
मुझे ज़ोर की हंसी आ गयी थी
कि पर्दा डालने के बजाय
लोग नंगे राजा के वस्त्र का गुणगान कर रहे थे
'कहां है वस्त्र'

बस, लटक गई तलवार मेरी गर्दन पर
हर वक्त एक जासूस लगा रहता है पीछे
'इस बदसूरत चेहरे को
इतने सुंदर दांत मिले तो कैसे
इसके मोटे-मोटे होंठ
फूलों की तरह दिखते हैं क्यों
झरने की तरह इसके कंठ से
कैसे झरते हैं गीत
और शब्द जब फूटते हैं
तो लावे में बदल जाते हैं
इनमें कहीं क्रांति-बीज तो नहीं

अनगिनत तनी हुई भृकुटियां
तलाश करती हैं मेरे माथे की शिकन में
छिपा तो नहीं रक्खा इसने
किसी 'अग्नि-वीणा' का संदेश
'स्वर्ग-नगरी' का कोई नक्शा तो साथ नहीं है

मेरा विश्वास करें
मैं कोई रोबोट नहीं हूं
न छिपा है मेरे अंदर रॉडार का कोई चिप
बस, अपने पांव के नीचे महसूस किया है मैंने
 'आयला' के थिरकने का कंपन कई-कई बार

न हंसूं तो क्यों
चुप रहूं तो कैसे
हज़ारों-लाखों के दर्द की पुकार
'हुदहुद' की आंधी में
उड़ते सूखे-पत्तों के संग
चली आती हैं मेरे पास
कहती हैं-
'सोचना और केवल सोचना अविष्कार नहीं
मर जाओगे तो सब धरा रह जायेगा
जो चाहते हो जग को देना
दे डालो
अब देर न करो।

मेरी जगह

बाप रे बाप
पक गए मेरे कान
सवाल सुनते-सुनते
बताऊं मैं कैसे
दोषी है कौन
मेरा बाप
उसका बाप
या उसके बाप का बाप

अब तक लिखे गए जितने भी इतिहास
उनके पन्नों से निकला हुआ
एक भी प्रमाण
नहीं है मेरे पास
है, केवल परिहास
कि घास पहले उगी तो क्या
पांव से रौंदी जाती है
तृण की मूल ही क्या?

कैसे बताऊं मैं
इस धरती को दुल्हन करने में
मेरे ननिहाल की कई पीढिय़ों ने रतजगा किया है
बाबा के अनगिन पुरखों ने
मनाया आकाश को बरसों
'हां' कर दे
उनकी आंखों में उस वक्त चमक बढ़ जाती थी
जब पोपले मुंह से कहते थे -
ताजमहल से लेकर लालकिले के पत्थर तक
तोड़े और तराशे हैं
उनके ही कुनबे के लोग
किंतु-िकताबों में लिक्खा है
जाने किन-किन का नाम
पूछते हैं मुझसे लोग
क्या ढूंढ़ते हो दीवारों में
उनको यह बतलाऊं कैसे
कि ढूंढ़ रहा हूँ अपना दर
यह तो कोई पाप नहीं

चुल्लू भर गो-मूत्र पी लेने
उंगली भर गोबर खा लेने
और मुट्ठी भर पैसे दे देने से
दोष कैसे मिट जाते हैं
पुरोहित बताते हैं-
लकवा-ग्रस्त आदमी भी यदि गोदान करे
तो स्वर्ग पा जाता है

स्वर्ग की चिंता फिर कभी
पहले मुझे यहां तो जगह मिले
फ्लाई वे पर जगह नहीं बिन गाड़ी के
फुटपाथ पे मेरे भाई धक्का देते
चल हट, यहां तेरी जगह नहीं
भाषा के देसी ठर्रे में चूर
कई हैं ऐसे नन्द किशोर
जो देते हैं मुझको गाली
कर मेरी जगह तू खाली
कुछ सियार-मर्द कहते सुने जाते हैं
गदहे, घोड़ों से बैल अच्छे हैं
उन्हें बाप कहने से बचे हुए हैं हम

बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ी थी हमने
घास की नोक पर
एक छोटी-सी जगह
वह भी धूप से देखा न गया
खड़ी हो गयी मेरे विरुद्ध मेरे अस्तित्व के
'क्षण-भंगुर सी ओस की बूंद
खड़ी रहे
तान के सीना
चमके मोती जैसी
क्रोध में आकर उसने
मुझको मिटा दिया

ऐसे में है मेरी राह किधर
देख रहा हूं
लक्ष्मण-रेखा की सीमा के समीप
सितारों का मजमा है
मंत्रणा में एक भयानक आवाज़ उठ रही है
चांद सूरज का साथी ही सही
उसे किंतु ठाकुर के कुआं में डुबो देना है
मज़ा आयेगा

मैदान में भी अब जगह नहीं है
जिधर देखो उधर
बंदूक चलाने की ट्रेनिंग चल रही है
घर ही नहीं
अब दफ्तर भी होने लगे हैं भारतीय रेल के डिब्बे
जैसे अंडे के खोल में चूज़े

दूर-दूर तक दिखते नहीं निशान
बची हुई हो कहीं कोई जगह
हर जगह निश्चित है एक निशाने पर
एक-एक पेड़ पर डाल दिया गया है नंबर
इसीलिए घबराकर
जब भी निकलता हूं मैं
अपनी जगह को ढूँढऩे
तो आदमी के साथ-साथ
कई ठूंठ नज़र आते हैं खड़े हुए।

लौट कर ढूंढ़ता हूं अपनी डायरी
लिख सकूं खुद की जगह शायद
लेकिन लिखने बैठ जाता हूं
लिखते-लिखते देखता हूं
बगल में बैठना चाहती है कविता
खर्च को धकियाते हुए
नहीं बैठ पाती ठीक से
कातर दृष्टि से देखती है मुझको

जिसे देखो
वही मुझे धकेल रहा है
कोई भी अपनी जगह छोडऩे को तैयार नहीं
न अपने
न पराये
न दोस्त
न दुश्मन
न घर
न कविता
सबको जगह मैं देता हूं
सिर्फ मेरे लिए ही जगह नहीं।



संपर्क : मो. 09831894193, कोलकत्ता


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