चार कविताएँ

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    जनवरी 2018
श्रेणी चार कविताएँ
संस्करण जनवरी 2018
लेखक का नाम मलय





कविता



 
सार्थकता की सीढिय़ाँ

धुएँ में अक्षर
उछलकर उभरते दिखें
पानी की धार में
लहरती लिपि नजर आये
बातों के वस्त्रों की मुद्रा में
साँस साँस फहरती दिखे
धूल उड़ते समय भी
अपनी धमक दे चले
चेहरे की झुर्रियों के बीच भी
वांछा की दृष्टि
उडऩे को पर फडफ़ड़ाए
सक्रियता से उठती सुगन्ध
कागज पर तैर तैर कर
पूरी खिलखिलाए-गुनगुनाए

कंकड़ों के बजने से भी
शब्दों की आँखें खुल जायें
और भाषा उछलकर
साथ साथ लहरने लगे
जरुर ही समझिए
हाँ भई!
अब जिन्दगी
सार्थकता की सीढिय़ाँ चढ़ रही है और
आगे बढ़ रही है

अपनी ही उम्र में

उड़ती हुई धूल
आकाश पर चढ़कर
पत्तियों पर बैठ भी जाती है
और समय को गाती है
हम सुनते नहीं हैं

हमारी उदास झुर्रियों को देखकर
कुछ कहती है धूल
हम सुनते नहीं हैं
हमारी समझ के पंख भी
मन के आकाश में
कभी नहीं खुलकर उड़ते हैं
उनके विचारों की बाहें भी
हमेशा लटकी ही रहती हैं
हम अपनी जमीन पर
होकर भी
उम्र को धुनककर
अपनी ही धुंध में
बदल क्यों लेते हैं
अपने ही हाथों से
आँखों की खिलाफत करने से
चूकते नहीं हैं क्यों?
अपनी ही उम्र में
दृष्टि को आजाद क्यों नहीं करते?
बेवशी में बँधकर क्यों रहते हैं
और इस खुलने के मौसम में
गुम सुम
क्यों बने रहते हैं?
खुलकर बाहर आने की
आहट को सुनिये!

बहार के बीच में

बहार के बीच में,
खड़े हुए लोग
फूलों को तोड़कर
फेंकने की कोशिश में लगे हैं
वे हँस हँसकर
अपने ही दाँत गिना रहे हैं,

आती आवाजों के
वाचाल अंधकार को
छुपाने की छाप सहित
पकड़ लिए जायेंगे
रँगे हाथ
और उनके ओंठों पर
शब्द चिपक जायेंगे

मैं
पानी-पानी हो जाता हूँ
इस कपट की चलन से
दूर चलता हूँ
और समय की
पदचाप सुनता हूँ
अभी पहचान के पड़ोस में
रहकर
सूखे पत्तों तक की
गाथाएँ सामने हो सुनता हूँ
कितनी कितनी हैं
परेशानियों की
आँधियाँ ही आँधियाँ हैं
हाथ देकर
उड़ता हूँ
धूल के साथ हो लेता हूँ
हार नहीं मानूँगा
बहार के बीच में
खड़े हुए लोगों से!

उनको छोड़ो

कोई कहता है
उठो
हवा की तरह
धूल को भी
धारण करो सिर पर
अपने में जकड़े हुओं को
हिला डालो
सूखी हुई जड़ों को
उखाडऩे का
क्रम रचो

कोई कहता है
तपाया गया है तो
जलन से उबले हो
फिर भी
ठंडे होकर
धार-धार बरसोगे
जमीन को हरा-भरा करोगे
यह तुम्हारा स्वभाव है

कभी भी
निराशा में नहीं रहे
मरे हुए सर्पो की तरह
हाथ लटकाकर

घूरे पर पड़ी हुई
रस्सी की तरह
उपजी चेतना से
स्थितियों में
फन उठाये
निकले हो नाग की तरह
अपने लोगों के
हजारों मुखों से बोलो
कोई उपेक्षा करे तो
ख्यालों से फुफकारो
भय तो दिखाना शुरु करो
हैरान होकर रहते हो
अपना हल ढूढ़ नहीं पाते
सबमें शामिल होते हो फिर भी
हजारों लाखों मुखों से
बोल नहीं पाते
अपने मन्तव्य को
शरीरों की
भरी कटोरियों में
घोलकर
बोल नहीं पाते हो

आँधी की तरह उठो
बादलों की तरह बरसों
ख्यालों के सर्पों से
फुफकारो

चेहरे पर आती
इस दमक से
दुनिया क्यों नहीं बदलेगी
चल निकलने से
राह क्यों नहीं बनेगी
उनको छोड़ो
जो मुँह फुलाये रहते हैं

संपर्क : मो. 94243367507/जबलपुर

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