परिभाषाओं का संघर्ष

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम एडवर्ड डब्लू सईद, अनुवाद : शिवप्रसाद जोशी





लेख




विख्यात फलिस्तीनी चिंतक एडवर्ड डब्लू सईद साधारण मनुष्य के निर्वासित जीवन की आवाज़ हैं और आईना भी। उन्हें गुज़रे दस साल होने को आए... 25 सितम्बर 2003 को 67 साल की उम्र में उनका न्यूयार्क में निधन हो गया था। वंचितों पीडितों और विस्थापितों की गरिमा की रक्षा के लिए सईद ने धुआंधार लेखन किया धुआंधार दौरे किए और धुआंधार भाषण दिए। वे भटकते रहे और सभ्यता के उपेक्षितों और संस्कृतियों के हाशिए पर धकेले गए लोगों के पक्ष में वैचारिक आग मुहैया कराते रहे ऐसा विलक्षण जन चिंतक तुलनात्मक साहित्य का अध्येता और इतिहासकार होना आसान नहीं है। पोस्ट कोलोनियल थ्योरी के विकास में उनका अग्रणी योगदान रहा है और फलिस्तीनी मामलों के और वहां की जनता के हक की लड़ाई की सबसे बड़ी आवाज़ों में तो वो एक थे ही। उनके व्यक्तित्व की अंतरराष्ट्रीयता का एक मुज़ाहिरा उनके नाम और परिवार से ही हो जाता है। वो खुद को मुस्लिम तहज़ीब में लिपटा ईसाई कहते थे। उनका कहना था: एक गैरअपवादी अरब परिवार में सईद नाम जिसका जुडाव पहले ब्रिटिश नाम (मेरी मां 1935 में प्रिंस ऑफ वेल्स को बहुत मानती थी, उसी साल मेरा जन्म हुआ था) से था, मैं अपने शुरुआती वर्षों में एक परेशान हाल बिखरा हुआ छात्र था: मिस्र के स्कूल में जाता हुआ एक फलिस्तानी, जिसका पहला नाम अंग्रेज़ी का है, जिसके पास अमेरिकी पासपोर्ट है और कैसी भी कोई निश्चित पहचान नहीं है।
18 से ज़्यादा किताबों के लेखक सईद का प्रस्तुत आलेख (जिसके कुछेक छोटे हिस्से पाठकों की सुविधा के लिए इस अनुवाद से बाहर रखे गए हैं) उनके लेखों के संग्रह की प्रसिद्ध किताब-रिफ्लेक्शंस ऑन एक्ज़ाईल का आख़िरी अध्याय है। इसमें आए विचार एक तरह से आज के दौर की सच्चाई को काफी पहले सामने रख देने के अद्भुत रचनाधर्मी कौशल की झलक दिखाते हैं। अमेरिकावादी चिंतक सैमुअल हंटिंग्टन के मशहूर लेख पर टिप्पणी के ज़रिए सईद ने उन तमाम स्थितियों, परिघटनाओं, विचारप्रवाहों, इतिहासों, संस्कृतियों और राष्ट्र मानसिकताओं को खंगाला है जो अपने नाना रूपों में आज हमारे समक्ष कई बार चुनौती कई बार राहत और कई बार खतरे की तरह सामने आने लगे हैं। और अगर दुनिया का एक बड़ा तबका आतंकवाद को एक बड़े खतरे के रूप में देखता है तो उसका ही एक बड़ा तबका दूसरा भी है जो अमेरिका को इतनी ही बड़ी चुनौती मानता है। सितंबर ग्यारह इतिहास और भूगोल में बहुत आए हैं और इस पर कई मार्मिक आख्यान भी हैं। लेकिन अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर का नौ बटा ग्यारह जिस भयानक शोर और विध्वंस के साथ शुरू हुआ तो इसका एक इतिहास-रेखा बन जाना लाज़िमी था। इसी रेखा के आसपास अमेरिका के विरोध की रेखा भी खिंची है जिसे आज हम एंटी अमेरिकीनिम के नाम से जानते हैं। अमेरिकी सत्ता अखिल विश्व को एक कुलीन और मनमाफ़िक टोकरी बनाना चाहती रही है जिसे वो न जाने किस और बड़े संसार में हाथों में झुलाते टहलते रहने का ख्वाब देती है, कि वो दुनिया सिर्फ उसकी है। लेकिन जैसा कि प्रस्तुत आलेख हमें बताता है और अमेरिका को आगाह करता है कि बाग का अकेला मालिक वो नहीं है। तो क्या ये ''सभ्यता का संघर्ष'' है...?! नहीं, एडवर्ड सईद कहते हैं कि यही तो इस परिभाषा का संकट है!

सैमुअल पी हंटिंग्टन का निबंध ''सभ्यताओं का संघर्ष?'' 1993 की गर्मियों में फॉरेन अफेयर्स में छपा था। उसके पहले ही वाक्य में ये एलान था कि ''विश्व राजनीति एक दौर में प्रवेश कर रही है।'' इससे उनका मतलब ये था कि जहां हाल के अतीत में दुनियावी झगड़े वैचारिक गुटों के बीच थे और पहली दूसरी और तीसरी दुनिया के अलग-अलग दुश्मन खेमे बन गए थे, वहीं नई शैली की राजनीति विभिन्न और बिला शक टकराती सभ्यताओं के बीच संघर्ष कराएगी: ''मनुष्य जगत के बड़े विभाजनों और संघर्षों का सबसे प्रभावी स्रोत सांस्कृतिक ही होगा... सभ्यताओं का संघर्ष विश्व राजनीति पर हावी रहेगा।'' आगे हंटिंग्टन ये भी समझाते हैं कि प्रमुख टकराव पश्चिमी और गैर पश्चिमी सभ्यताओं के बीच होगा और वास्तव में अपने लेख में वो ज़्यादा वक्त, उन वास्तविक या संभाव्य बुनियादी कही जाने वाली असहमतियों पर चर्चा में गुज़ार देते हैं जो उनके मुताबिक एक तरफ पश्चिम और दूसरी तरफ इस्लाम और कंफ्युसियस सभ्यताओं के बीच हैं। जहां तक विस्तार से चर्चा की बात है तो पश्चिम समेत किसी और सभ्यता के मुकाबले इस्लाम को ज़्यादा ही तवज्जो दी गयी है।
हंटिंग्टन के निबंध को लेकर दिखायी गयी ज़्यादातर दिलचस्पी उसकी टाईमिंग की वजह से है न कि इससे कि वो वास्तव में कहता क्या है। जैसा कि हंटिंग्टन खुद कहते हैं कि शीत युद्ध के खात्मे के बाद उभरते विश्व हालात पर कब्ज़ों के लिए कई बौद्धिक और राजनैतिक कोशिशें हुईं, इसमें फ्रांसिस फुकुयामा का इतिहास के अंत का एलान और बुश प्रशासन की थीसिस शामिल है जिसमें कथित नई विश्व व्यवस्था का सिद्धांत दर्ज है... हंटिंग्टन के नज़रिए के (जो उनका मौलिक भी नहीं) केंद्र में कभी न थमने वाला संघर्ष है। संघर्ष का वो कंसेप्ट जो बिना किसी खास प्रयत्न के शीत युद्ध में धंसे विचारों और मूल्यों के द्विध्रुवीय संघर्ष से पैदा हुई राजनैतिक स्पेस में लुढक आता है। इसीलिए ये कहना गलत न होगा कि विदेश नीति पर चर्चा की प्रमुख अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफेयर्स के ग्राहकों यानी वाशिंगटन स्थित नीति और राय निर्माताओं को संबोधित अपने इस निबंध के माध्यम से हंटिंग्टन जो पेश करना चाहते हैं वो महज़ शीत युद्ध के सिद्धांत का रिसाईकिल्ड संस्करण हैं कि आज और कल की दुनिया के संघर्ष आर्थिक और सामाजिक नहीं वैचारिक हैं,और एक विचारधारा यानी पश्चिम की विचारधारा ही वो एक स्थिर बिंदु है जिसके इर्दगिर्द हंटिंग्टन की सुविधा और मर्ज़ी से बाकी सब घूमेंगे। इस तरह वास्तव में शीत युद्ध जारी है लेकिन इस बार कई मोर्चो पर। जहां कई और गंभीर और बुनियादी विचार और मूल्य पद्धतियां (जैसे इस्लाम और कंफ्युसियसवाद)आगे बढऩे और पश्चिम पर हावी तक होने के लिए के लिए संघर्ष कर रही है। हैरानी की बात नहीं, कि इसीलिए हंटिंग्टन अपना निबंध एक संक्षिप्त सर्वे के साथ पूरा करते हैं कि पश्चिम को ताकतवर बने रहने और अपने मान्य विरोधियों को कमज़ोर और विभाजित बनाए रखने के लिए क्या करना चाहिए। (उसे कंफ्युसियन और इस्लामी राज्यों में मतभेदों और संघर्षों को हवा देना चाहिए... पश्चिमी मूल्यों और उसके हितों की समर्थक अन्य सभ्यताओं पर हाथ रखना चाहिए... पश्चिमी हितों और मूल्यों को ज़ाहिर करने और वैधानिक बनाने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को मज़बूत करना चाहिए और... इन संस्थाओं में गैर पश्चिमी राज्यों की भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए।)
हंटिंग्टन ने बड़ी ढिठाई और मज़बूती से ये तर्क गढ़ा है कि दूसरी सभ्यताएं अनिवार्य रूप से पश्चिम से पंगा लेती ही रहती हैं। जीतते रहने के लिए पश्चिम को क्या करना चाहिए, ये सुझाव देते हुए वो इतने सख्त आक्रामक और कट्टरवादी हैं कि हम ये नतीजा निकालने पर  विवश है कि मौजूदा विश्व परिदृश्य को समझने वाले विचारों को आगे बढ़ाने के या विभिन्न संस्कृतियों को रिकंसाइल करने की कोशिशों के उलट, हंटिंग्टन किसी भी तरह से शीत युद्घ को जारी रखने और उसके प्रचार में वाकई सबसे •यादा दिलचस्पी रखते हैं। उनके कहे में लेशमात्र भी शक या संदेह नहीं होता। पहले पन्ने में वो कहते हैं कि न सिर्फ संघर्ष जारी रहेगा बल्कि सभ्यताओं के बीच संघर्ष आधुनिक विश्व में विकास (इवोल्युशन) के संघर्ष का सबसे ताज़ा चरण होगा। सैमुअल हंटिंग्टन के इस निबंध को ऐसे समझना चाहिए कि ये अमेरिकियों और बाकी लोगों के दिमागों में युद्धकालीन हालात बनाए रखने के हुनर का बहुत संक्षिप्त और अपेक्षाकृत बेढब ढंग से तैयार किया गया मैनुअल है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि ये निबंध पेंटागन के उन नियोजकों और रक्षा उद्योग के उन अधिकारियों की तरफ से बोलता है, शीत युद्ध के खात्मे के बाद जिनका कामधाम अस्थायी रूप से छिन गया था। लेकिन अब उन्होंने अपने लिए एक नया ठिकाना तलाश कर लिया है।
अफसोस की बात ये है कि द क्लैश ऑफ सिविलाईज़ेशन्स विभिन्न राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं को अतिरंजित और अव्यवस्थित करने के एक तरीके के रूप में फायदेमंद है... शायद हंटिंग्टन इतिहास या सांस्कृतिक बनावटों के सजग आकलन की अपेक्षा नीतिगत सुझाव देने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं, लिहाज़ मेरी राय में वो जो कहते हैं और जिस तरह से चीज़ें पेश करते हैं, वो कतई गुमराह करने वाले हैं। उनकी बहस की ज़्यादातर बातें उन दूसरे और तीसरे तर्जे के मशविरों पर निर्भर रहती है जो संस्कृतियों के व्यवहार, उनके बदलाव, उन्हें संजोने और सहेजने के तरीकों पर हमारी ठोस और सैद्धांतिक समझ के दायरे को बढऩे से रोकती है। जिन लोगों और मशविरों को उन्होंने कोट किया है, उन पर एक सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि पत्रकारिता और लोकप्रिय प्रचारक उनके प्रमुख सोर्स हैं न कि स्कॉलरशिप या थ्योरी। क्योंकि जब आप चाल्र्स क्राउतहैमर, सर्गेई स्तानकेविच और बर्नार्ड लेविस जैसे परिचित झुकावों वाले प्रचारवादियों, स्कॉलरों और पत्रकारों पर निर्भर रहते हैं तो आप अपने तर्क को संघर्ष और विवाद के पक्ष में पूर्वाग्रही बना देते हैं, बजाय कि उसे सच्ची समझ और लोगों के बीच एक प्रकार के सहयोग के आधार पर परखने के, जिसकी हमारे ग्रह को ज़रूरत है। हंटिंग्टन के अधिकार में खुद संस्कृतियां नहीं है, उनके पास चुने हुए वे मुट्ठी भर अधिकारीगण हैं, जो किसी संस्कृति के लिए या उसके बारे में किसी ऐसे वैसे कथित प्रवक्ता के ऐसे वैसे बयानों में प्रकट हुई दमित अवमानना को ही तरजीह देते हैं। मुझे इसकी झलक उनके निबंध के शीर्षक में ही मिल जाती है - द क्लैश ऑफ सिविलाईजेशन्स - जो  कि उनके नहीं, बर्नार्ड लेविस के शब्द हैं। अपने निबंध द रूट्स ऑफ मुस्लिम रेज में (जो द एटलांटिक मंथली के सितंबर 1990 के अंक में प्रकाशित हुआ था - वो पत्रिका जिसने एक मौके पर अरबों और मुसलमानों की खतरनाक बीमारी, पागलपन और अस्तव्यस्तता के वर्णन से भरे आलेख छापे थे) लेविक मुस्लिम दुनिया की मौजूदा समस्या के बारे में कहते हैं - ''अब ये स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हम एक ऐसे मूड और एक ऐसे मूवमेंट के सामने खड़े हैं जो मुद्दों और नीतियों और उन्हें चलाने वाली सरकारों के स्तर से काफी दूर चले गए हैं। ये किसी भी तरह से सभ्यताओं के संघर्ष से कमतर नहीं- हमारी यहूदी-ईसाई विरासत हमारे सेक्युलर वर्तमान और इन दोनों के विश्वव्यापी फैलाव के ख़िलाफ एक प्राचीन दुश्मन की ये शायद अतार्किक लेकिन निश्चित ही ऐतिहासिक प्रतिक्रियाएं हैं। ये बहुत अहम है कि अपनी तरफ खड़े हम लोग उस दुश्मन के ख़िलाफ उतनी ही ऐतिहासिक लेकिन उतनी ही अतार्किक प्रतिक्रिया के उकसावे में न आएं।'
मैं लेविस की इस हुंकार के अफसोसनाक पहलुओं पर बहस करने में ज़्यादा वक्त नहीं गंवाऊंगा, उनके तरीकों का वर्णन मैंने कहीं और किया है- आलस्य भरे सामान्यीकरण विचारहीन ढंग से इतिहास को तोडऩा मरोडऩा, सभ्यताओं की अतार्किक और उन्मादी जैसी कैटीगरियों में बड़े पैमाने पर अवनति करना, और भी बहुत कुछ कम ही समझदार लोग होंगे जो लेविस द्वारा प्रतिपादित उस चारित्रिक मखौल का समर्थन करेंगे जो उन्होंने पांच महाद्वीपों  में फैले, दर्जनों तरह की भाषाएं बोलते, और विभिन्न परंपराओं और इतिहासों से आते एक अरब से •यादा मुसलमानों का उड़ाया है। उनके बारे में लेविस कहते हैं कि वे पश्चिमी आधुनिकता से भयानक रुष्ट हैं। मानो एक अरब लोग कोई एक व्यक्ति हो और पश्चिमी सभ्यता कोई एक जटिल मामला न रहकर महज़ एक उद्घोषणा हो। लेकिन मैं ज़ोर इस बात पर देना चाहता हूँ कि आख़िर कैसे हंटिंग्टन ने लेविस से ये तर्क उधार लिये कि सभ्यताएं एकरूप और एकांगी होती हैं, और दूसरा-दोबारा लेविस से ग्रहण करते हुए - उन्होंने कैसे मान लिया कि ''हम'' और ''वे'' के बीच दोहरेपन का न बदलने वाले चरित्र होता है।
दूसरे शब्दों में, इस बात पर ज़ोर देना मैं हर हाल में अनिवार्य समझता हूं कि बर्नार्ड लेविस की तरह, सैमुअल हंटिंग्टन एक निरपेक्ष, व्याख्यात्मक और वस्तुपरक गद्य नहीं लिखते हैं, बल्कि वो खुद एक विवादवादी हैं जिनका रेटरिक न सिर्फ सबकी सबसे लड़ाई के तर्को पर बुरी तरह टिका है बल्कि वो वास्तव में उसे भड़काते भी हैं। इसीलिए सभ्यताओं के बीच एक न्यायाधीश होने के बजाय हंटिंग्टन एक पक्ष हैं, तमाम सभी सभ्यताओं से ऊपर एक कथित सभ्यता के अधिवक्ता, लेविस की तरह हंटिंग्टन भी इस्लामी सभ्यता को कमतर आंकते हैं मानो उनके लिए उसका कथित गैर पश्चिमवाद ही सबसे ज़्यादा माने रखता है। अपने तई लेविस अपनी परिभाषा के पक्ष में कुछ तर्क पेश करते हैं - कि इस्लाम कभी आधुनिक नहीं हुआ, कि उसने कभी चर्च और राज्य के बीच फासला नहीं किया, कि वो दूसरी सभ्यताओं को समझने में असमर्थ है - लेकिन हंटिंग्टन को इस सबसे कोई मतलब नहीं है। उनके लिए इस्लाम, कंफ्युसिएनिम और दूसरी पांच या छह सभ्यताएं (हिंदु, जापानी, स्काविक-ओर्थोडोक्स, लातिन अमेरिका और अफ्रीकी) जिनका अस्तित्व अब भी कायम है, वे एक दूसरे से जुदा हैं लिहाज़ संभाव्य संघर्ष में लिप्त हैं। जिसे वो मैनेज करना चाहते हैं दुरुस्त करना नहीं, वो एक क्राइसिस मैनेजर की तरह लिखते हैं सभ्यता के एक छात्र की तरह नहीं, उनके बीच शांति निर्माता की तरह भी नहीं।
हंटिंग्टन के निबंध के केंद्र में और जिसकी वजह से ही शीत युद्ध उपरांत के नीति निर्माताओं में सहमति का संबंध बन गया है, वो ये भाव है कि बहुत सारे अनावश्यक ब्यौरों को, स्कॉलरशिप के गट्ठरों को, और अनुभवों की भारी मात्रा को काट-छांट कर एक जगह उड़ेल दिया जाए जिससे दो चार आकर्षक सहज उद्धृत करने और याद करने योग्य विचार निकाल लिए जाएं। जिन्हें फिर व्यवहारिक व्यवहार-कुशल समझदार और स्पष्ट विचारों के तौर पर पेशकर दिया जाए। लेकिन क्या ये उस दुनिया को समझने का सबसे अच्छा तरीका है जिसमें हम रहते हैं? क्या एक बौद्धिक और विद्वान विशेषज्ञ के रूप में ये बुद्धिमानी है कि दुनिया का एक सरलीकृत नक्शा तैयार कर उसे जनरलों और नागरिक कानून निर्माताओं के हाथों में दुनिया के इलाज के लिए एक प्रेसकिप्शन के तौर पर रख दिया जाए? क्या इस तरीके से वास्तव में संघर्ष और दीर्घ, हिंसक और गहरा नहीं होगा? नागरिक टकरावों को कम करने के लिए यह क्या करता है? क्या हम सभ्यताओं का संघर्ष चाहते हैं? क्या ये राष्ट्रवादी उन्मादों को एक जगह लाकर राष्ट्रवादी कत्लेआम को मोबोलाइज़ नहीं करता? क्या हमें सवाल नहीं पूछना चाहिए, क्यों कोई शख्स इस तरह का काम कर रहा है : समझने के लिए या अमल में लाने के लिए? संघर्ष की संभावना को न्यूनतम करने के लिए या उसे भड़काने के लिए?
...अफ्रीका और एशिया के इलाकों के लिए यूरोप और अमेरिका की महान ताकतों में दशकों की अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता की चरम अवस्था पर उन्नीसवीं सदी के मध्य से उनके अंत तक ग्रुप आईडेंटिटी की भाषा ने एक खास गरज़ भरी उपस्थिति दर्ज करायी थी। अंधकार से घिरे महाद्वीप अफ्रीका की खाली जगहों के लिए हुई लड़ाईयों में फ्रांस और ब्रिटेन और जर्मनी और बेल्जियम ने न सिर्फ ताकत का सहारा लिया बल्कि अपने विध्वंसों को जस्टीफाई करने के लिए कई सारी थ्योरियां और रेटरिक भी निर्मित किए। इस तरह की विधियों में शायद सबसे मशहूर, सभ्य बनाने के मिशन का फ्रांसीसी कंसेप्ट, ला मिशन सिविलिज़ात्राइस है। इसके अंतर्गत विचार ये है कि कुछ नस्लों और तहज़ीबों का दूसरों के मुकाबले ज़िंदगी में ऊंचा लक्ष्य होता है, लिहाज़ा जो ज़्यादा शक्तिशाली हैं, ज़्यादा विकसित हैं, ज़्यादा सभ्य हैं उन्हें दूसरों को उपनिवेश बनाने का हक है, क्रूर ताकत या अपार विध्वंस के नाम पर नहीं जो इस मुहिम के सामान्य घटक हैं, बल्कि एक महान आदर्श के नाम पर।
... इस किस्म के तर्क के जवाब में दो चीज़ें होती हैं। एक तो यह है कि प्रतिद्वंद्वी ताकतें विदेशों में अपनी कार्रवाई को जायज़े ठहराने के लिए सांस्कृतिक और सभ्यता नियति की अपनी थ्योरी गढ़ लेती है। ब्रिटेन के पास ऐसी एक थ्योरी है, जर्मनी के पास भी है, बेल्जियम के पास, और ज़ाहिर है सहज दृष्टव्य नियति के कंसेप्ट के तौर पर अमेरिका के पास भी एक है। एक दूसरे को बल देते ये विचार प्रतियोगिता और टकराव की मुहिम को महिमामंडित करते हैं, जिसका असली मकसद है,अपनी महानता निर्मित करना, ताकत, कब्ज़ा, खज़ाना और बेलगाम स्वाभिमान हासिल करना। मैं तो यहां तक कहूंगा कि जिसे हम आज पहचान का रेटरिक करते हैं, जिसके तहत एक जातीय या धार्मिक, या राष्ट्रीय या सांस्कृतिक समूह का कोई सदस्य उस समूह को दुनिया के केंद्र में रख देता है, ये उन्माद 19 वीं सदी के आिखर में उस साम्राज्यवादी प्रतियोगिता के काल से ही निकाला है। और बदले में, ये युद्धरत विश्व के विचार को उकसाता है। जो कि ज़ाहिरा तौर पर हंटिंग्टन के आलेख की केंद्रीय वस्तु है।
...दूसरी चीज़ ये होती है, जैसा कि हंटिंग्टन ने खुद माना है, कमतर लोग, यूं कहें साम्राज्यवादी निगाह के निशान पर रहने वाले लोग, अपनी ज़बर्दस्ती बना दी गयी छवि और रिहायश को लेकर अपने विरोध के ज़रिए इस पर प्रतिक्रिया करते हैं। हम अब जानते हैं कि गोरे आदमी के खिलाफ सक्रिय सीधा विरोध ठीक उस वक्त हुआ था जब उसने अल्जीरिया, पूर्वी अफ्रीका, भारत और इन जैसी दूसरी जगहों पर कदम रखा था। इस प्रत्यक्ष विरोध के बाद दूसरे दर्जे के विरोधों की बारी आयी, राजनैतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों के संगठनों ने इस साम्राज्यवादी नियंत्रण से आज़ादी हासिल करने और मुक्ति पाने का निश्चय किया। 19 वीं सदी के ठीक इसी क्षण यूरोपीय और अमेरिकी शक्तियों में सभ्यतापरक सेल्फ-जस्टीफिकेशन के रेटरिक के फैलने की शुरूआत हुई, इसके जवाब में एक रेटरिक उपनिवेश बनाए गए लोगों में भी पैदा हुआ, ऐसा, जो अफ्रीकी या एशियाई या अरब एकता, आज़ादी और आत्म निर्भरता की बात करता था। मिसाल के लिए भारत में, कांग्रेस पार्टी का 1880 में गठन किया गया और सदी के अंत में उसने भारतीय अभिजात को यकीन दिला दिया कि सिर्फ भारतीय भाषाओं, उद्योग और वाणिज्य का समर्थन करने से ही राजनैतिक आज़ादी हासिल हो पाएगी, ये तर्क दिया जाने लगा कि ये चीज़ें सिर्फ हमारी और हमारी ही हैं और उनके विश्व के ख़िलाफ हमारे विश्व का समर्थन करके ही - यहां 'हमारे' बनाम 'उनके' की संरचना पर गौर करें - हम अपने बूते खड़े रह सकते हैं।
...अधिकारिक संस्कृति पुरोहितों,अकादमी वालों और राज्य की है। ये देशभक्ति, निष्ठा, सीमाओं और जिसे मैं बिलोंगिंग कहता हूं, इन सब की परिभाषाएं मुहैया कराती है। ये आधिकारिक संस्कृति ही है, जो समूची संस्कृति के नाम पर बोलती है। जो आम इच्छा को, आम मानस को और आधिकारिक अतीत में दर्ज विचार को अभिव्यक्त करने की कोशिश करती है, संस्थापकों और पाठों को, ईश्वरीय नायकों और खलनायकों को और भी बहुत कुछ। और यही संस्कृति वो सब हटा देती है जो बाहरी है या अलग है या अतीत में अनचाहा है। इसी से वे परिभाषाएं आती हैं जो बताती हैं कि क्या कहा जा सकता है या क्या नहीं कहा जा सकता, इसी से वे प्रतिबंध और दंड अभियोग आते हैं जो किसी सत्ता आकांक्षी संस्कृति के लिए ज़रूरी हैं।
ये भी सच है कि मुख्यधारा की, आधिकारिक, या श्रद्घेय संस्कृति के अतिरिक्त, विरोधी या वैकल्पिक गैर रूढि़वादी मतांतरवादी संस्कृतियां भी हैं जिनमें ऐसी कई गैर सत्तावादी प्रवृत्तियां हैं जो आधिकारिक संस्कृति से मुकाबला करती हैं। इन्हें प्रति-संस्कृति भी कहा जा सकता है, नाना प्रकार के बाहरी लोगों की जीवनचर्याओं का समुच्च-गरीब, विस्थापित (इमीग्रेंटस), बोहेमियन, कामगार, विद्रोही, कलाकार। प्रति-संस्कृति से सत्ता की आलोचना आती है और जो भी आधिकारिक और रूढि़वादी है उस पर हमला आता है। महान समकालीन अरब वि एदोनिस ने अरबी संस्कृति में रुढि़वाद और मतांतरवाद के रिश्तों का एक व्यापक लेखा-जोखा बनाया है और दोनों के बीच सतत द्वंद्व और तनाव को दिखाया है।
सभ्यता की परिभाषा तय करने के लिए उतरे सांस्कृतिक मुकाबलों में मौजूद मुश्किलों पर हाल का एक मत आर्थर श्लेसिंगर की नन्हीं किताब द डिसयुनाईटिंग ऑफ अमेरिका में मिलता है। मुख्यधारा के इतिहासकार के रूप में श्लेसिंगर ज़ाहिरा तौर पर इस तथ्य से परेशान हैं कि अमेरिका में विलय होते और बाहर से आते हुए समूहों ने अमेरिका की एकांगी आधिकारिक दंतकथा को पचड़े में डाल दिया है। (वो कथा जिसका प्रतिनिधित्व बानक्रोफ्ट, हेनरी एड्मस और हाल के ही रिचर्ड होफस्टाडटर जैसे देश के महान शास्त्रीय इतिहासकारों ने किया था।) वे समूह चाहते हैं कि इतिहास लेखन महज़ पैतृक सत्तावादियों और ज़मींदारों के हिसाब से देखे गए अमेरिका को ही न रिफलेक्ट करे बल्कि उस अमेरिका को भी अपने लेखन में प्रदर्शित करे जिसमें गुलाम, नौकर, मज़दूर और बाहर से आने वाले गरीब लोगों ने महत्वपूर्ण लेकिन अभी तक अस्वीकृत भूमिका निभायी थी। वाशिंगटन से, न्युयार्क के निवेश बैंकों से, न्यु इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों से, और मध्य पश्चिम के महान औद्योगिक खुशकिस्मतों के उपदेशों से खामोश कर दिए ऐसे लोगों के आख्यान, आधिकारिक कहानी की सहज प्रगति और उसके शांत सुरम्य चमन में खलबली मचाने आ गए हैं। वे सवाल पूछते हैं, सामाजिक बदकिस्मतों के अनुभवों को उछालते हैं, और साफ तौर पर कमतर लोगों की तरफ से दावे करते हैं - महिलाओं की तरफ से, एशियाई और अफ्रीकी अमेरिकियों की तरफ से, और विभिन्न दूसरे अल्पसंख्यकों की तरफ से, जिनमें यौन अल्पसंख्यक भी हैं और जातीय भी... और श्लेसिंगर के cri de coer से सहमत हो या न हो, लेकिन उनके इस विचार से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि इतिहास लेखन देश की परिभाषा का राजसी रास्ता है, कि बड़े पैमाने पर समाज की पहचान से ही ऐतिहासिक इंटरप्रिटेशन मुमकिन है जो यूं प्रतिस्पर्धी दावों और प्रति-दावों से हैरान परेशान है। अमेरिका आज ठीक ऐसे ही हैरान-परेशान हालात से गुज़र रहा है।
इसी तरह की बहस इस्लामी दुनिया के भीतर भी चल रही है। जो बहुधा इस्लाम के खतरे के बारे में उन्मादी चीखों, इस्लामी कट्टरवाद और आतंकवाद (पश्चिमी मीडिया में अधिकतर इससे साबका पड़ ही जाता है) की वजह से पूरी तरह नज़रों से ओझल हो जाती हैं। किसी और प्रमुख विश्व संस्कृति की तरह, इस्लाम के भीतर भी कई चकित कर देने वाली धाराएं और प्रति-धाराएं बह ही हैं। इनमें से ज़्यादातर के बारे में पूर्वाग्राही ओरियंटेलिस्ट विद्वानों को कुछ नहीं पता, उनके लिए इस्लाम खौफ और दुश्मनी की चीज़ है। वे पत्रकार भी इनके बारे में नहीं जानते जो किसी भी भाषा या प्रासंगिक इतिहासों से वािकफ नहीं हैं और उन्हीं आमफहम धारणाओं पर निर्भर रहने में ही संतोष कर लेते हैं जो पश्चिम में दसवीं सदी से बनी हुई हैं। ईरान- जो इन दिनों अमेरिका की राजनैतिक मौकापरस्ती के हमले की ज़द में आया हुआ है - वो इधर कानून, आज़ादी, निजी ज़िम्मेदारी और परंपरा के बारे में एक स्तब्धकारी बहस से जूझ रहा है और इसे कोई पश्चिमी पत्रकार कवर नहीं करता। मैंने खुद हाल ही एक किताब। (द पोलिटिक्स ऑफ डिसपोजेशन, 1994) में इस बात का ज़िक्र किया है कि इस्लामी कट्टरवाद (जैसा कि इसे पश्चिमी मीडिया में हल्के ढंग से कहा जाता है) के उभार से बहुत आगे बड़े पैमाने पर इसका सेक्युलर विरोध भी है।
...हंटिंग्टन के लिए ''सिविलाईज़ेंशन आईडेंटिटी'' एक स्थिर और गतिरोध विहीन चीज़ है जैसे आपके कमरे के पिछवाड़े फर्नीचर में भरी कोठरी हो। ये सच्चाई से बहुत ज़्यादा दूर है, न सिर्फ इस्लामी दुनिया में बल्कि भूमंडल के समस्त क्षेत्र में, संस्कृतियों और सभ्यताओं के फर्क पर ज़ोर देते हुए- संयोग से, मैं उनके ''संस्कृति'' और ''सभ्यता'' शब्दों के इस्तेमाल को अत्यधित भोथरा पाता हूं, क्योंकि उनके लिए ये दो शब्द स्थिर और जड़ वस्तुएं हैं, जबकि वास्तव में ये उद्दाम हलचल भरी चीज़ें हैं। तिस पर उनका संस्कृतियों और सभ्यताओं के फर्क पर ज़ोर देना महज़ उस अंतहीन बहस या मुकाबले को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देना है जो उन सभ्यताओं के भीतर आने वाली संस्कृति और सभ्यता को परिभाषित करने के बारे में हैं जिनमें कई ''पश्चिमी'' सभ्यताएं भी आती हैं। ये बहसें सभ्यताओं के संघर्ष की खिल्ली उड़ाती हुई निश्चित पहचान के किसी विचार को पूरी तरह दरकिनार कर देती हैं। लिहाज़ा ये पहचानों के बीच संबंधों को भी नहीं मानती, जिसके बारे में हंटिंग्टन मानते हैं कि ये राजनैतिक अस्तित्व का एक किस्म का शुद्ध सारगर्भित तथ्य है। ये जानने के लिए आपको चीन, जापान, कोरिया और भारत के बारे में विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं है। एक अमेरिकी उदाहरण मैंने पहले दिया था। एक जर्मन मिसाल भी है। दूसरे विश्व युद्ध के अंत के समय से ही, जर्मन संस्कृति की प्रकृति को लेकर एक प्रमुख बहस होती रही है, कि नात्सीवाद क्या इसके केंद्र से उत्पन्न तार्किक वजह थी या कि वो महज़ एक त्रुटि थी।
... संस्कृतियों के टकराव को मैनेज करने और उन्हें समझाने पर ज़्यादा ही तवज्जो दिए जाने की वजह से उनके बीच अक्सर होने वाले महान, अक्सर खामोश आदान-प्रदान और संवाद का तथ्य मिट जाता है। जापानी, अरबी, यूरोपीय, कोरियाई चीनी या भारतीय-कोई भी संस्कृति हो- क्या उनका दूसरी संस्कृतियों के साथ दीर्घ, सघन और असाधारण रूप से समृद्ध संपर्क नहीं रहा है? इस आदान प्रदान का कोई भी अपवाद नहीं है। दुआ करनी चहिए कि तनाव मैनेजर, मिसाल के लिए, इस बात पर ध्यान दे पाते और विभिन्न संगीतों को मिलाने का अर्थ समझ पाते, जैसे ओलिवियर मसीहायन या तोरू ताकेमित्सु का काम है। तमाम राष्ट्रीय स्कूलों की ताकत और प्रभाव के बावजूद समकालीन संगीत में जो बात ध्यान खींचती है वो ये कि इसके किसी भी रूप के इर्दगिर्द कोई सीमा खड़ी नहीं की जा सकती। संस्कृतियां अक्सर तभी स्वाभाविक होती हैं जब वे एक दूसरे के साथ भागीदारी में शामिल होती हैं, जैसे कि एक संगीत की दूसरे समाजों और महाद्वीपों के संगीतों के विकास में असाधारण भूमिका होती है। साहित्य का भी कमोबेश यही सत्य है, जहां गार्सिया माक्र्वेज़, महफूज़ और ओई के पाठक, भाषा और राष्ट्र की थोपी सीमाओं के पार रहते हैं। मेरे अपने तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में, शक्तिशाली वैचारिक और राष्ट्रीय अवरोधों की मौजूदगी के बावजूद, साहित्यों के बीच संबंधों के लिए, उनमें शांति और सौहार्द के लिए, एक वैज्ञानिक कमिटमेंट हैं। और इस किस्म का सहयोगी और सामूहिक उद्यम संस्कृतियों के अनिर्णीत टकरावों में उलझे दावेदारों के यहां नहीं मिलता, उनके पास उस जीवनपर्यंत डेडीकेशन का भी अभाव है जो आधुनिक समाजों में, विद्वानों, कलाकारों, संगीतकारों, स्वप्नदर्शियों और पैगंबरों में मिलता रहा है, कि दूसरे के साथ सहयोग करें, उस अन्य समाज या संस्कृति के साथ - जो कितनी विदेशी और कितना दूर नज़र आती है...
मेरे लिए कष्टदायी बात ये भी है कि सभ्यताओं के संघर्ष के हिमायती उस सब को कैसे भुला देते हैं जो इतिहासकार और सांस्कृतिक विश्लेषक के रूप में हम जानते हैं कि इन संस्कृतियों की परिभाषाएं खुद कितनी विवादास्पद हैं, सभ्यताएं अपने आप में यकसां होती हैं, अविश्वसनीय रूप से नौसिखिया और जानबूझकर कमतर रखे गए इस तर्क को स्वीकार करने के बजाय हमें हमेशा ये पूछना चाहिए कि कौन सी सभ्यताएं किनके द्वारा और किन कारणों से नियोजित निर्मित और परिभाषित की गयी हैं।  हाल का इतिहास ऐसी कई मिसालों से भरा पड़ा है जिनमें यहूदी-ईसाई मूल्यों की हिफाज़त का आह्वान विरोधी और अलोकप्रिय विचारों के दबाने के लिए किया गया है। ताकि हम मान लें कि हर कोई जानता है कि ये मूल्य क्या हैं, उनकी व्याख्या किस तरह की जानी है और समाज में वे किस तरह और किस तरह नहीं लागू किए जा सकते हैं।
बहुत सारे अरब कहेंगे उनकी सभ्यता ही वास्तविक इस्लाम है, जैसा कि कुछ पश्चिमी लोग-ऑस्ट्रेलियाई और कनाडाई और कुछ अमेरिकी- नहीं चाहेंगे कि उन्हें पश्चिमी की इतनी विशाल और अस्पष्ट कैटगरी में रखा जाए। और जब हंटिंग्टन जैसे व्यक्ति ''कॉमन ओबजेक्टिव एलीमेंट्स'' की बात करते हैं जो हर संस्कृति में उपस्थित रहते बताए जाते हैं, तो वो एक साथ आकलनपरक और ऐतिहासिक विश्व को छोड़ देते हैं। वो विशाल और आखिरकार अर्थहीन कैटगरियों के भीतर शरण लेना ही पसंद करते हैं।
जैसा कि मैंने अपनी कई किताबों में लिखा है, आज के यूरोप और अमेरिका में जिसे ''इस्लाम'' कहा जाता है, वो ओरिएंटेलिम के महाज्ञान से जुड़ा है। ओरिएंटेलिम का खाका दुनिया के उस हिस्से के ख़िलाफ बैर और कटुता की भावनाओं को भड़काने के लिए खींचा गया है जो अपने तेल की वजह से सामरिक महत्व का है, ईसाई समाज का जोखिम भरा पड़ोस है और पश्चिम के साथ जिसका प्रतिस्पर्धा का भययुक्त इतिहास रहा है। फिर भी, उन मुसलमानों के लिए जो इसकी वृहद छाया में रहते हैं, उनके लिए ये वास्तविक इस्लाम से बहुत जुदा चीज़ है। इंडोनेशिया में इस्लाम और मिस्र में इस्लाम के बीच दुनिया का अंतर है। इसी लिहाज़ से इस्लाम के अर्थ पर आज के संघर्ष की क्षणभंगुरता मिस्र में प्रत्यक्ष है, जहां समाज की सेक्युलर ताकतें इस्लाम की प्रकृति को लेकर विभिन्न इस्लामी विरोध आंदोलनों और सुधारकों से टकरा रही हैं। ऐसे हालात में सबसे आसान और सबसे कम सटीक बात कोई कही जा सकती है तो वो यह है - ''ये'' है इस्लाम की दुनिया, और देखो ऐसे हैं तमाम आतंकवादी और कट्टरपंथी, और ये भी देखो कि ''वे'' हम से कितने भिन्न हैं।
लेकिन सभ्यताओं के संघर्ष के विचार का सबसे कमज़ोर पक्ष है- सभ्यताओं के बीच एक सख्त अलगाव मान लेना, उस ज़बर्दस्त प्रमाण के बावजूद कि आज की दुनिया वास्तव में मिश्रण, माइग्रेशन और मूवमेंट की दुनिया है। फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका को प्रभावित करने वाले प्रमुख संकटों में से एक, हर तरफ प्रकाशित इस वास्तविकता से निकला है कि कोई संस्कृति या समाज विशुद्ध रूप से एक चीज़ नहीं है। अच्छी खासी संख्या वाले अल्पसंख्यक समुदाय-फ्रांस में उत्तर अफ्रीकी, ब्रिटेन में अफ्रीकी और कैरिबियाई और भारतीय आबादी, अमेरिका में एशियाई और अफ्रीकी तत्व-इस विचार से टकरा रहे हैं कि खुद को यकसां कहकर गौरवान्वित होने वाली सभ्यताएं हमेशा ऐसा करते या मानते नहीं रह सकती हैं। विच्छेदित संस्कृतियां या सभ्यताएं नहीं होती हैं। हंटिंग्टन की तरह उन्हें हवा पानी बंद डिब्बों में अलग कर रखने की कोई कोशिश उनकी विभिन्नता को, उनकी विविधता को, उनकी तत्वपरक जटिलता को, उनकी उग्र संकरता को नुकसान पहुंचाएगी। जितना ज़्यादा हम संस्कृतियों और सभ्यताओं को अलग-थलग करने की कोशिश करेंगे उतना ज़्यादा हम अपने और दूसरों के बारे में कम सही होंगे। एक विलग सभ्यता का तर्क, मेरे सोचने के लिहाज़ से, एक नामुमकिन तर्क है। फिर वास्तविक सवाल ये है कि हम क्या आखिर में उन सभ्यताओं के लिए काम करना चाहते हैं, जो अलग-अलग हैं या हमें ज़्यादा सम्मिलित लेकिन शायद ज़्यादा मुश्किल रास्ता लेना चाहिए कि उन्हें हम एक ऐसी महाविशाल इकाई के रूप में देखें जिसके ओर छोर को पकड़ पाना किसी एक आदमी के बूते की बात नहीं होगी, लेकिन जिसकी निश्चित उपस्थिति को हम तत्काल भांप सकेंगे और उसे महसूस कर सकेंगे। किसी भी सूरत में, बहुत सारे राजनीतिशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, और सांस्कृतिक विश्लेषकों ने कुछ वर्षो से सम्मिलित विश्व व्यवस्था की बात करना शुरू कर दिया है। ये सच है कि वह ज़्यादातर आर्थिक होगी, लेकिन फिर भी एक साथ गुंथी होगी, उन सारे टकरावों को दरकिनार करती हुई जिनका ज़िक्र हंटिंग्टन ने हड़बड़ाते हुए और संकुचित नज़रिए से किया है।
हंटिंग्टन जिस बात को आश्चर्यजनक ढंग से नज़रअंदाज़ कर देते हैं, वो है पूंजी का भूमंडलीकरण। जिसका उल्लेख साहित्य में भी होता रहा है। 1980 में विली ब्रांड्ट और उनके कुछ सहयोगियों का एक आलेख आया था, उत्तर-दक्षिण: अस्तित्व रक्षा का कार्यक्रम (नॉर्थ-साउथ: अ प्रोग्राम फॉर सरवाईवल)। इसमें लेखकों ने बताया है कि दुनिया अब दो विशाल असंतुलित क्षेत्रों में बंट गयी है: एक छोटा सा औद्योगिक उत्तर, जिसमें यूरोपीय, अमेरिकी और एशियाई आर्थिक ताकतें आती हैं और दूसरा विशाल दक्षिण जिसमें पूर्व तीसरी दुनिया के अलावा बड़ी संख्या में नए और अत्यधिक गरीब मुल्क आते हैं। भविष्य की राजनैतिक समस्या ये होगी की उनके संबंधों की कल्पना कैसे की जाए क्योंकि उत्तर और अमीर होता जाएगा, दक्षिण गरीब से गरीबतर और दुनिया और परस्पर निर्भर। मैं ड्यूक पोलिटिक्ल साईटिस्ट आरिफ दिरलिक के निबंध का एक अंश कोट करूंगा जो हंटिंग्टन के कवर किए ज़्यादातर मुद्दों को ज़्यादा सटीक और ज़्यादा यकीनी ढंग से पेश करता है :
भूमंडलीय पूंजीवाद से पैदा हालात, पिछले दो तीन दशकों में, खासकर अस्सी के दशकों में, स्पष्ट हो चुके एक विशिष्ट फिनोमेना को समझाने में मदद करते हैं - लोगों की वैश्विक आवाजाही (और इसीलिए संस्कृतियों की भी), दुर्बल पड़ती सीमाएं (समाजों में, और सामाजिक वर्गों में भी), समाजों में गैर बराबरी और भेदभाव की पुनरावृत्तियां जो एक समय उपनिवेशी संदर्भों से जुड़ी थी, समाजों के भीतर और बाहर सब जगहों का बारी बारी से एकरूपीकरण और खांचाकरण, भूमंडलीय और स्थानीय की इंटरप्रिटेशन, और तीन दुनियाओं और राष्ट्र-राज्यों के संदर्भ में पेश दुनिया का विसंगठनीकरण, इनमें से कुछ प्रवृत्तियों ने समाज के भीतर और बाहर मतभेदों की बराबरी भी दिखाई है और समाजों का लोकतांत्रिकीकरण भी। विडंबना ये है कि इस विश्व हालात के प्रबंधक खुद मानते हैं कि उनके (या उनके संगठनों) के पास अब स्थानीय को ग्लोबल के रूप में पेश करने की ताकत है, पूंजी के प्रभा चक्र में विभिन्न संस्कृतियों को ले जाने की ताब है। (महज़ उन्हें चकनाचूर कर देने और उत्पादन और उपभोग की ज़रूरतों के मुताबिक उन्हें फिर से बनाने के लिए) और यहां तक कि, पूंजी के अभियानों के प्रति उत्पादकों और उपभोक्ताओं को ज़्यादा जवाबदेह बनाने के लिए राष्ट्रीय सीमाओं के पार सबजेक्टिविटीज़ को पुनर्गठित करने की ताकत भी है।
वे जो इसमें शामिल नहीं होते या वे ''टोकरी मामले'' (पढ़ें रद्दी की टोकरी) जिनकी इन अभियानों में अनिवार्यता नहीं है - जो प्रबंधकों की गिनती के मुताबिक दुनिया की आबादी का चार बटा पांचवां हिस्सा हैं- उन्हें उपनिवेशित करने की ज़रूरत नहीं है, वे हाशिये पर भेज दिए जाते हैं। नये लचीले उत्पादन ने ये संभव किया है कि अब देसी मज़दूरों या विदेशी उपनिवेशों के श्रमिकों के खिलाफ किसी कड़ी हिंसा की ज़रूरत नहीं है। ऐसे लोग और ऐसी जगहें जो ज़रूरत (या मांगों के अनुरूप नहीं ठहरते या अनुरूप होने लायक स्थितियों से बहुत दूर चले गए हैं, वे खुद को इसके रास्तों से हटा हुआ पाते हैं उपनिवेशीकरण और आधुनिकीकरण की थ्योरी के बोलबाले के दौर से •यादा अब यकीनी तौर पर ये कह देना आसान है कि : गलती उनकी है।
(क्रिटिकल इंक्वायरी, विंटर 1994, 351)
इन हताश कर देने वाली और खतरनाक वास्तविकताओं के परिप्रेक्ष्य में, ये शुतुरमुर्गी सुझाव होगा कि यूरोप और अमेरिका में रहने वाले हम लोगों के दूसरे लोगों को किनारों पर धकेलकर अपनी सभ्यता को संभालना चाहिए, अपने प्रभुत्व को सुदृढ़ करने के लिए लोगों के बीच टकरावों को बढ़ाना चाहिए। वास्तव में हंटिंग्टन यही चाहते हैं। और उसे आसानी से समझा जा सकता है कि आिखर क्यों उनका निबंध फॉरेन अफेयर्स  में प्रकाशित हुआ था और क्यों कई सारे नीति-निर्माता इसकी तरफ झुक आए, अमेरिका को एक नए समय और नए पीडि़तों के बीच शीत युद्ध की मानसिकता का विस्तार करने की इजाज़त देने के लिए। इससे ज़्यादा असरदार और फायदेमंद वो नयी भूमंडलीय मानसिकता है जो हमारे समक्ष आये खतरों को समस्त मनुष्य जाति के नज़रिए से देखती है। ये खतरा भूमंडल की अधिकांश आबादी को अत्यंत गरीब और निर्भर बना देने का है। स्थानीय, राष्ट्रीय, जातीय और धार्मिक भावनाओं के उग्र उभार का खतरा है जैसा कि बोस्निया, रवांडा, लेबनान, चेचन्या और दूसरी जगहों में न•ार आता है। साक्षरता में गिरावट, और एक नयी निरक्षरता के आगमन का खतरा है जो संचार के इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर, टेलीविज़न और नये भूमंडलीय सूचना सुपर हाईवे पर टिकी हुई है। मुक्ति और प्रकाश के महान आख्यानों के टुकड़े कर उन्हें खांचों में ढाल देने और उनके अंतत: गायब हो जाने का खतरा है। परंपरा और इतिहास के ऐसे भयानक रूपांतरण के समक्ष हमारा सबसे कीमती सामान है- समुदाय, समझ, सहानुभूति और उम्मीद की भावना का विकास।






द्वारा श्री केपी जोशी, लोअर अधोईवाला, निकट एमडीडीए कॉलोनी, चंदर  रोड, देहरादून,
उत्तराखंड - 248001

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