विस्थापन की मराठी कविताएं

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    अक्टूबर-2017
श्रेणी मराठी कोना
संस्करण अक्टूबर-2017
लेखक का नाम संदीप जगदाले / अनु. सुनीता डागा





मराठी कविता/मराठी कोना-2

 

 

घर मृत न होगा कभी

 

हरराकर घर में घुसे पानी से

भर चला है घर

उसमें रहने वाले इंसान

छोड़ गए है उसे

घर साँस-साँस में समा चुका है

उसमें रहनेवाले हर एक की

क्या कोई बिना साँस के जी सकता है?

 

एक छोरी

'डूबेंगे पर हटेगे नहीं' - कहती हुई

अड़कर बैठी थी

नहीं जानती थी वह

यहाँ पर आँख के पानी से भी

अधिक ताकतवार है बाँध का पानी

पानी कमर तक चढ़ा

छोरी जिद से डटी रही

नाक के भीतर घुसा पानी और

एकाकी हो गया घर

घर को बेभरोसे छोड़ गए लोग

संग ले गए हैं

उसके साथ होने की गंध

उनकी स्मृति में अभी भी

जहाँ-की-तहाँ हैं वे सभी चीजें

जहाँ से उठाकर उन्होंने

बांधा था उन्हें पोटलियों में

और ले गए थे वे जिन्हें

बैलगाड़ी से - अपनी पीठ पर लादे हुए

 

किसी चूहे की तरह भागी

घर की स्त्री याद करती है

जल्दबाजी में कुछ भूली तो नहीं वह?

क्या-क्या भरा था किस-किस में

मन-ही-मन याद करती है

बार-बार सोचती है वह

मवेशियों को तो जैसे-तैसे

खिंच-खाँच कर ले आए हैं साथ

 

पर नहीं ला पाए वे उनका

दाना, चारा-सानी

भीग-भागकर ठूँठ हो जाएँगे अब

कुछ चीजें तो कतई याद नहीं उसे

पुन: पुन: स्वयं को मथाती है वह

गीले आटे को गूंधती-सी

फिर अचानक याद हो आता है उसे

पूरे घर को ही बिसर आई है वह

 

निरंतर बढ़ रहा है पानी

बाड़े में गड़े खूंटे ओझल होते हुए

घास के गट्ठर नीचे ढुलके हुए

कई पीढिय़ों ने पवित्र किया था

लीप-पोतकर जिसे

कीचड़-कादा बनी जमीन

भीगी-सर्दीली फूस की दीवारें

धरन तक चढ़ेगा पानी

और मर जाएगा घर

 

पर फिर भी जीवित रहेगा वह

जेहन में रहेगी घर के मुखिया के

अभी हाल ही में छवाई की हुई छाजन

हर सुबह चौंक उठेगी घर की स्त्री

चूल्हे को पोतने की

अपनी नित्य की आदत से

बच्चों को याद आएगी

कूड़े से उखाड़कर आँगन में

लगाई आम की कोंपल

 

उन्हें कभी याद न रहेगा

एक रात में घर में घुसा पानी

खड़े होंगे वे किसी दिन पानी के सामने

नजर नहीं आएगा उन्हें पानी

ज़र आएगा सिर्फ घर

बार-बार भूलते रहेंगे वे पानी को

और जीवित रखेंगे घर को!

 

सिर्फ आवाज़ दे रहा हूँ मैं

 

कबसे आवाज दे रहा हूँ मैं

फूस से छवाई किए हुए

जमीन की ओर झुके ढालू छप्पर

किस तरह से खड़े हैं स्तब्ध-मूक

कहाँ चले गए हैं वे इंसान

जो जिन्दा रखते थे इन छज्जों को

 

मैं चाहता हूँ समीप मेरे बच्चों को

कैसे अकेला बैठूँ मैं

बच्चों के बिना खाली तख्तों के सामने

जादुई पोटली की तरह

जामुन, बेर, अमरुद, इमलियों को

बस्ते से निकालकर मेरे सामने रखते

तितलियों की तरह उडऩेवाले बच्चें

कैसे अचानक लापता हो जाते हैं हर वर्ष?

 

कई बार देखा है मैंने उन्हें

बैलगाडिय़ों में, ट्रकों में

रात-दिन खटते हुए माँ-बाप के साथ

मेमनों की भांति हकबकाएँ

घसीटते हुए पेट से रोटी तक का

फर काटने में

जिन हाथों में चंगेटने चाहिए अक्षर

वे थाप रहे हैं कहाँ-कहाँ ईंटों को

कौन-कौनसी मेंड़ों पर

बाँध रहे हैं गन्नों के गट्ठर

 

दिखाई नहीं देता यह मुंदी आँखों को

सुनाई नहीं देता है बंद कानों को

पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी की

ग्रामसभाओं में दर्ज किया गया हैं इसे?

 

टेलीविजन पर, शिविरों में

जब बोला जाता है बच्चों को लेकर

तब क्या करते होगे मेरे यह बच्चे

टेलीविजन के उद्घोषक से भी अधिक है

क्या ईंटे थापते नन्हें हाथों की गति?

उन्हें पता भी है या नहीं कि

जोर-शोर से बोला जा रहा है

जिन बच्चों के विषय में

उनमें शामिल नहीं हैं वे

इसीलिए उनके माथे पर श्रम से

उभरे इन घटटों के लिए

कोई जगह हो ही नहीं सकती

किसी भी भाषण में

 

और मैं भी तो क्या कर रहा हूँ

ताले-जड़े घरों के सामने

सिर्फ आवाज देने के अलावा...

 

छोड़ा गाँव हमेशा के लिए

 

रखकर कलेजे पर पत्थर

उखाड़ दिया घर

बाप-दादाओं ने मिट्टी

ढो-ढोकर खड़ा किया हुआ

तोड़ दिए गड़े हुए घूटे

उठाया ईश्वर को मंदिर से

जो रमता था चारों प्रहर

संकीर्तन में

खेत पर आखिरी चक्कर काटते हुए

गंगथड़ी*के ईश्वर को हाथ जोड़ते हुए

फट गई छाती हुलसकर

अधर में लटके जीवन के भय से

पीछे मुड़-मुड़कर, जी भर-भरकर

आँखों से पीते हुए

लाँघ दिया गाँव की सीमा को

हमेशा-हमेशा के लिए

 

रौंदी हजारों दिशाएं

खोदा मिट्टी का तल-तल

छान मारा जड़ों-मूलों को

रचे नए सिरे से व्यवस्थाओं के दायरे

पुराने ईश्वर को स्थापित किया

नए देवालय में

पीटे दिन-रात टाल-मृदंग

पर न जुड़ पाया जो टूट चुका था

बीते दिनों की सौंधी-सौंधी महक

पुन: पुन: तलाशते हुए

छुपाया कलेजे से उठती हूक को

घर से बभुल के उग आने से

 

बाँध का पानी पीकर

लहलहाते रहे पराये खेत

हमार गले सूखे-के-सूखे

नाहक ही चिल्लाते रहे

'पानी हमारे हक का

नहीं किसी के बाप का'

सरकारी कचहरीयों की दहलीजों पर

रगड़ते रहे जा-जाकर नाक

झूठी भुक्कड़ नौकरियों के लिए

बेले कई-कई पापड़

नहीं बदला नसीब का फेरा

और फटी जेब लिये

फिर से गाँव में लौटना

 

आता था गाँव में दलाल

काला कोट पहने

एक दावे के पीछे

लाखों के सपनें बाँटनेवाला

भरता लबालब अपना झोला

बैठे रहते थे लोग

पाई-पैसों का हिसाब लगाते

एक तराजू से दूसरे तराजू में

खूब दौडाएं गए कागज़ी घोड़े

घर-घर में घूमा कंगाली का चक्का

ठंडी पड़ गई गपबाजी

आँखों को हरे-हरे नोटों के

खयाली सपनें दिखानेवाली

 

अब उगता है, डूबता है दिन

ओपन-क्लोज की गर्द में

चौतरे पर जमी बाज़ी में

पिसे जाते हैं ताश के साथ-साथ

आँखों में तैरते सपने

दिनभर की वंचना को

घूँट-घूँट में डुबोकर

रोज नए सिरे से मरता है गाँव

नशे में धुत्त रात्रि को

अपने सिरहाने लिए!

 

 

* गंगथड़ी - गोदावरी का किनारा

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