ख़ुदगर्ज़ भी हम, कमज़र्फ भी हम

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    अक्टूबर-2017
श्रेणी प्रारंभ
संस्करण अक्टूबर-2017
लेखक का नाम पलाश कृष्ण मेहरोत्रा/ अनुवाद और प्रस्तुति : राजेश नायक





प्रारंभ/चार

भारतीय मध्यम वर्ग

 

हमारा भारतीय मध्यम वर्ग देश की शहरी आबादी का सबसे बड़ा तबका है। इस बहुसंख्यक समुदाय, जिसे हम देसी मध्यम वर्ग के नाम से भी जानते हैं, का अपना अलग अस्तित्व है और अपनी अलग सत्ता भी। पिछले तीन दशकों में, खासतौर से आर्थिक उदारीकरण और संचार क्रांति के बाद, यह वर्ग उत्तरोत्तर सशक्त होता चला गया। स्वाभाविक तौर पर संपन्नता के साथ ही इसकी सामाजिक और राजनीतिक हैसियत में इज़ाफा भी हुआ। पर अपने सामाजिक सरोकारों और उत्तरदायित्वों के निर्वाह के मामले में इसकी सोच क्या है? यह शोध का विषय है। इस वर्ग विशेष के बारे में थोड़े विस्तार से बात करने पर इसकी मानसिकता, आचरण और लोकाचार के बीच का फर्क समझ में आ जाएगा और यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों के मध्यम वर्ग की तुलना में यह इतना दोयम क्यों है? इन वज़हों पर गौर किया जा सकता है।

हमारा यह वर्ग अत्यंत आत्ममुग्ध, आत्मकेंद्रित और स्वार्थी है जो अपनों के हितों की खातिर ही अपनी खोल से बाहर आता है। समाज के उपेक्षित तबके की कड़वी वास्तविकताओं से इसका कोई सरोकार नहीं है। इसके सामाजिक सरोकार का दायरा बुद्धु बक्से (टेलीविजन) पर प्रसारित होने वाले प्रमुख समाचारों और अन्य मनोरंजक  कार्यक्रमों के अंतर्गत ही है। इससे बाहर नहीं। वैसे सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में यह हर वक्त व्यस्त रहता है। हर मुद्दे पर अपनी अधकचरी राय प्रकट करना इसका पसंदीदा शगल है जिसमें इसकी प्रतिक्रियावादी शक्ल की झलक दिखाई पड़ती है। अपने अलावा जमाने पर को लानत भेजते रहना इसकी आदत है और फिर हाथ में हर वक्त अद्भुत 'अस्त्र' रहता ही है जिसे हम मोबाइल, टेबलेट वगैरह के नाम से जानते हैं।

इस वर्ग की दर्जनों परतें हैं। एक तो वह है जो अंग्रेजियत से अभिभूत है और अपनों को हिकारत से देखता है। इस पर भी यदि आप अच्छी खासी फर्राटेदार अंग्रेजी बोल लेते हैं तो फिर कहना ही क्या! क्योंकि फिर बेशक आपके सपनों की उड़ान का आखिरी पड़ाव  अमेरिका ही होगा। इससे ज़्या दा कुछ नहीं। वैसे भी भारत में हर दूसरे परिवार का कम से कम एक सदस्य वहां रह रहा है और उस परिवार के लिए यह अत्यंत गर्व की बात भी है। और फिर जब आप यह सोचने लगते हैं कि अब आपने कामयाबी का शिखर छू लिया है तो फिर आपके बच्चे अमेरिका में बसना चाहते हैं महज़ यह साबित करने के लिए कि पिछली पीढ़ी की तुलना में उन्होंने ज्यादा तरक्की कर ली है।

ज़्या दातर भारतीय जो अमेरिका में जा बसे हैं उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाना  ही नहीं था। शुरुआत में तो वे वहां प्रतिष्ठा की खातिर ही गए थे। पर अब ट्रंप उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने पर अमादा हैं और अपनी जगह वह शायद सही भी हैं। इस वर्ग की विडंबना बड़ी अजीबोगरीब है। यह भारतीय समस्या का एक हिस्सा तो है ही, भारत से अपनी दूरी भी बनाए रखना चाहता है। अपनों से इस कदर घृणा करने वाला मध्यम वर्ग कदाचित् दुनिया में दूसरा नहीं होगा। अवचेतन में हीन भावना से ग्रस्त यह वर्ग पूरी तरह अपना आत्म-गौरव खो चुका है।

भारतीय मध्यम वर्ग की बौद्धिक योग्यताएं अत्यंत सीमित हैं। हालांकि यह अनुशासित है और दफ्तरी काम-काज भी समय पर निपटा देता है लेकिन दिनों दिन हरेक कार्य दिवस पर यांत्रिक होता चला जाता है। इसका रवैया आलोचनात्मक होता जाता है और हर मुद्दे पर दोषारोपण का यह आदी भी हो जाता है। राजनीति, न्यायपालिका, प्रशासन, पुलिस आदि सभी को कोसता है पर किसी भी बात पर शायद ही अपने आप को दोषी ठहराता हो।

शेक्सपीयर के इस ब्रह्म वाक्य - 'सारी दुनिया एक रंगमंच हैं और हम अभिनेता हैं', का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ग्रहण करें तो हमें महसूस होगा कि हम हर समय अभिनय ही तो करते रहते हैं। हम दिखावा करते हैं कि हम अपनी ज़िन्दगी जी रहे हैं जबकि हमारा आंतरिक जीवन एक रहस्य ही बना रहता है। मुखौटे के पीछे की असलियत को देखना तो दूर उसके बारे में हम सोचना भी नहीं चाहते हैं। हम तो बस जीवन के अविरल प्रवाह के साथ डूबते-उतराते, हिचकोले खाते हुए बहे चले जाते हैं।

हम तमाम तरह की बचकानी हरकतों को ही बड़ा और सार्थक काम समझकर इतराते रहते हैं। फजूल की पाबंदियां लगाने और बलात् उन्हें आरोपित करने में हम बड़ा गर्व महसूस करते हैं। हम कभी किताबों और कभी फिल्मों पर प्रतिबंध लगाते हैं और कई बार इस प्रतिबंध को हटा भी लेते हैं। इसी तरह अश्लील साहित्य को प्रतिबंधित करते हैं और फिर उसे भी पलट देते हैं। असल में अश्लील साहित्य पर पाबंदी के मामले में हमारी पितृ सत्तात्मक सोच काम करती है जिसके अनुसार सिर्फ पुरुष ही अश्लील फिल्में देखते हैं जबकि स्त्रियां महज़ संतति के लिए विवाह के बाद यौन संबंध स्थापित करती हैं। पर इस तरह के तमाम उद्धरण और आंकड़ें हैं जो एकदम भिन्न चित्र पेश करते हैं और इस दकियानूसी सोच को खारिज करते हैं। परोमिता वोहरा की वेबसाइट 'एजेंट्स ऑफ इश्क' ने स्त्री हस्तमैथुन पर एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया है जो यह दर्शाता है कि महिलाएं भी अश्लील साहित्य, फिल्मों में दिलचस्पी रखती हैं।

दरअसल हम बहुत से काम चोरी-छिपे ही करते हैं। प्रेम, रोमांस, नशाखोरी इत्यादि भी। नेटफिक्स और अमेजॉन वेबसाइट पर हम नित्य प्राय: अधनंगे और कामुक दृश्य छुप छुपकर देखते हैं और यह भी देखते रहते हैं कि हमें कोई देख तो नहीं रहा है। इतना ही नहीं हम इस बात को लेकर भी आशंकित रहते हैं कि कहीं जल्द ही इन्हें (वेबसाइट्स) प्रतिबंधित तो नहीं कर दिया जाएगा या फिर कहीं सेंसर की कैंची ही न चल जाए।

दुनिया भर में बदलाव की बयार पूरे वेग से बह रही है पर क्या मजाल कि एक झोंका भी हमारे मध्यम वर्ग को छू जाए। किसी भी मुद्दे पर तार्किक बहस में वह पडऩा ही नहीं चाहता। बगैर सोचे-समझे किसी भी सामाजिक, राजनीतिक मुद्दे पर वह विरोध में खड़ा हो जाएगा या फिर समर्थन में। भीड़ का रुख किस तरफ है इस बात पर सब निर्भर करता है। अभी कुछ दिनों पहले ताइवान में समलैंगिकता को वैधानिक दर्जा दिया गया है। कुछ वर्ष पूर्व हम भी इसे अपराध के दायरे से बाहर ले आए थे फिर पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि हम एकदम पलट गए और समलैंगिकता को पुन: अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया। इस मुद्दे पर कोई बहस नहीं छिड़ी। कुछ परिवारों और दोस्तों को छोड़ शेष मध्यम वर्ग को कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा। हमें तो बस अपने से मतलब है। इन सब बातों से क्या लेना-देना।

आयरलैंड में जब समलैंगिक विवाह को वैधानिक दर्जा दिया गया तो राजधानी डबलिन की सड़कों पर सारी रात जश्न मनाया गया और फिर जल्द ही डॉक्टर लियो वराडकर आयरलैंड के नए प्रधानमंत्री चुन लिए गए जो आधे भारतीय हैं पर हमारे लिए सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि डॉ. वराडकर समलैंगिक हैं और गर्भपात समर्थक भी। वहीं दूसरी तरफ हम रेस्त्रां, बागों और अन्य एकांत स्थानों पर बैठे प्रेमी जोड़ों को प्रताडि़त करने, उन्हें पीटने में फक्र महसूस करते हैं। इसे अपना पुरुषार्थ समझते हैं। असल में हमारे सनातनी मध्यम वर्ग का विश्वास रोमांस में कतई नहीं है। वह इसे रुपहले पर्दे (फिल्मी) का विषय मानता है। इसी तरह गर्भपात के मामले में इस वर्ग का दोगलापन जग जाहिर है। कुल मर्यादा के नाम पर अपनी नाक बचाने के लिए शादी से पूर्व गर्भस्थ शिशु वध को वह जायज कर्म मानता है। तार्किक और नीतिगत कारणों से गर्भपात के समर्थन में उसकी अपनी कोई राय नहीं है। स्त्री का अपने शरीर पर कोई अधिकार है, इस बात से उसका कोई सरोकार नहीं है।

इसी तरह नशाबंदी को लेकर मुल्क में तमाम तरह की भ्रांतियां व्याप्त है। शराबबंदी का समर्थन लगातार जोर पकड़ रहा है। सभी राज्य इस दिशा में एक दूसरे से आगे बढऩे की कोशिश में है पर कई बार राजस्व का मुद्दा आड़े आ जाता है और उन्हें अपने कदम वापस खींचना पड़ते हैं। इसी तरह हमारे देश में गांजे की पैदावार बहुतायत से है और उसकी खपत भी जबरदस्त है। हमारे वृहद् साधु-समाज का एक बड़ा वर्ग इसे आध्यात्म से जोड़कर देखता है और ईश्वर का प्रसाद समझता है। फिर भी यह प्रतिबंधित है। कनाडा में गांजे को वैधानिक दर्जा देने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। अमेरिका के आठ राज्यों में गांजा उगाने और उसे बेचने पर कोई पाबंदी नहीं है। इसे वैधानिक करार दे दिया गया और यह अपराध के दायरे से बाहर है। गांजे को वैधानिक दर्जा दिए जाने की दिशा में हमारे देश में कोई विचार या बहस मौजूद ही नहीं है। यह अजीब बात है कि सरकारी ठेकों पर भगिनी भांग तो उपलब्ध है पर सहोदर भाई गांजा गायब है।

खान-पान के मुद्दों पर भी बड़ा बवाल मचा हुआ है। पशुओं पर क्रूरता के खिलाफ दुनिया भर के मुल्कों में जागरुकता बढ़ रही है और सैद्धांतिक स्तर पर लोग शाकाहार भी अपना रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ हम खान-पान के प्राचीन नियमों को नये सिरे से लोगों पर बलात् थोपने में लगे हैं। गौरक्षा के नाम पर मनुष्यों की हत्या करके गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। जबकि गायों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। पालतू के बजाय अब गायें भी आवारा पशुओं की श्रेणी में आ चुकी हैं। देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों के भीड़-भाड़ भरे इलाके में इन्हें जूठन खाते देखा जा सकता है। हमें यह बात समझ क्यों नहीं आती है कि पशुधन (भैंस को छोड़) दिनोंदिन अनुपयोगी होने के साथ आर्थिक दृष्टि से हम पर बोझ बनता जा रहा है। पर मध्यम वर्ग और सत्तासीन उनके नुमाइंदों को इन सब बातों से क्या लेना-देना। वह तो बस ग्रीष्मकालीन अवकाश की अपनी विदेश यात्राओं के छायाचित्रों को उलटने-पलटने में मगन है।

दरअसल यह एक ऐसा वर्ग है जिसका कोई वास्तविक सार्थक लक्ष्य है ही नहीं। इतना ही नहीं, यह उन तमाम उदारवादी धाराओं के स्पर्श से भी सर्वथा अछूता है जो दुनिया के अन्य मुल्कों के मध्यम वर्ग को छू रही हैं और बदलाव के लिए उन्हें प्रेरित भी कर रही हैं। पर हमारे लोग अपने पारिवारिक हितों के आगे कुछ सोचने को तैयार ही नहीं हैं। उसके सिर्फ चार बुनियादी मूल्य हैं -पैसा, स्त्री यौन शुचिता, जातीय शुद्धता और खान-पान संबंधी निषेध। इन मूल्यों के दायरे से बाहर जाने वालों के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है और कुछ मामलों में तो उन्हें जान से हाथ भी धोना पड़ सकता है। फिर चाहे वह अपनी ही बेटी या बेटा क्यों न हो। हालांकि इन मूल्यों की जकड़बंदी से ग्रस्त परिवारों के भीतर हिंसा, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, अदालती फसाद आदि भी चलते ही रहते हैं। असल में कमीनेपन से भरा हुआ यह अत्यंत अशिष्ट मध्यम वर्ग है जो किसी भी मुद्दे पर कतई कोई विचार नहीं करता और निरंतर अपनी राय भी बदलता रहता है।

ऐसी मध्ययुगीन मानसिकता वाले मध्यम वर्ग में इत्मीनान से जीवन-यापन करने के लिए भैंस जैसी मोटी खाल की ज़रूरत है। शायद यही वजह है कि हम उसे पालते-पूजते भी हैं और फिर वैसे भी यह सिर्फ भारतवर्ष में ही पाई जाती है। और यह तथ्य शायद कम लोग ही जानते होंगे कि ज्यादा मात्रा में भैंस का दूध पीने से बौद्धिक क्षमता क्षीण होती है। बहरहाल हमने अपने इस वर्ग को दुस्साहसी पर संकीर्ण रूप दे दिया है जो किसी भी व्यक्तिगत उपलब्धि को कटुतापूर्ण नकारात्मक अंदाज़ में ही ग्रहण करता है।

अंग्रेजियत से अभिभूत मध्यमवर्ग की अपनी एक अलग दुनिया है। वह हर दम दुनिया भर में बिखरे अपने अंग्रेजी बोलने वाले साथियों से होड़ करने में ही लगा है। यह वर्ग भारतीयता से कटा हुआ है या फिर उसके बारे में कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं है। इस वर्ग के लोग भारत के उसी हिस्से में रहना पसंद करते हैं जहां अंग्रेजियत का बोलबाल है। यह वर्ग कल्पनालोक में विचरण करता है। ऊंचे पहाड़ों या गोवा जैसे समुद्र तटों पर रहना इसे अच्छा लगता है। इस वर्ग के लोग इंसानों से अलग-थलग अपना जीवन व्यतीत करते हैं और एक अजीबोगरीब विचार के साथ जीते हैं कि 'भारत उन्हें समझता ही नहीं है।' इसके एकदम उलट एक गैर अंग्रेजी भाषी वर्ग भी है जो बालीवुड (फिल्मी दुनिया से संबद्ध सब कुछ), टीवी सीरियल और भौंडे वैभवशाली वैवाहिक आयोजनों में ही मगन है। यह तमाम तरह के $गैर-ज़रूरी सामान की खरीदारी में भी व्यस्त रहता है। और फिर वैसे भी रोजमर्रा के जीवन में तेजी से खपने वाली उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार हमारे द्वार पर कब का आ चुका है। हमारे इर्द-गिर्द हर तरह का हाट-बाजार है पर हमारी उन्नति एवम् उत्कर्ष में मददगार साबित होने वाले उपक्रम नहीं है।

प्रगतिशील होने के लिए तमाम पूर्वग्रहों से मुक्त एक स्वस्थ मस्तिष्क का होना बहुत ज़रूरी है और इसके साथ ही विशाल हृदय भी चाहिए। पर हमारे पास दोनों ही नहीं है और इसीलिए हम सिर्फ अपने निहित स्वार्थों की खातिर लिजलिजी नैतिकताओं से चिपके हुए हैं। हमने उन वास्तविकताओं की तरफ से मुंह फेर लिया है जो कई दशकों से जस की तस है। टूटी सड़कें, खस्ताहाल बसें, कचरे से अटी पड़ी गलियां, बजबजाती नालियां, टायलेट और हर तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार आदि हमें कुछ नहीं दिखाई देता। पर यह ज़रूर दिखता है कि लड़कियां, महिलाएं क्या पहनें हैं और उन्हें क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं। हम कोई सार्थक बदलाव की दिशा में बढ़ रहे हैं ऐसा कहीं नज़र नहीं आता। पर हां! नियमित रूप से हम अपना मोबाइल हैंडसेट ज़रूर बदल रहे हैं।

भारत इसलिए नहीं बदला क्योंकि इसका मध्यम वर्ग बदलना ही नहीं चाहता। और आखिर में एक बात और - जब किसी मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस खत्म हो रही थी तभी किसी गायक ने ट्वीट किया कि 'सच्चा दोस्त वही है जिसके पास वीड (चरस, गांजे के लिए प्रयोग में आने वाला अंग्रेजी शब्द) है पर जो दोस्त ट्वीट करे वह सबसे बेहतर है।'

इस मौके पर भारतीय मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए आईसीएसई पाठ्यक्रम में शामिल शेक्सपीयर के मशहूर नाटक जूलियस सीजर का उद्धरण काफी मौजू है कि 'खोट हमारी किस्मत में नहीं बल्कि खुद हममें है। क्योंकि हम मामूली लोग हैं।'

 

 

 

लेखक स्पीकिंग टाइगर द्वारा प्रकाशित संग्रहणिका का 'हाउस स्पिरिट : ड्रिंकिग इन इंडिया' के संपादक हैं। अमेरिका में रहते हैं। सुप्रसिद्ध अंग्रेजी कवि अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा की संतान हैं।

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