भव्य भवनों में दंभ, पाखंड और अनैतिकता की कीचड़

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    जुलाई - 2017
श्रेणी भव्य भवनों में दंभ, पाखंड और अनैतिकता की कीचड़
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





कल्चर वल्चर/ममता कालिया का नया उपन्यास
अगली बार चम्पारण सत्याग्रह पर आधारित एक नए उपन्यास पर




 

'कल्चर वल्चर' उपन्यास का विषय पिछले डेढ़-दो दशक से मेरे अंदर फडफ़ड़ा रहा है । जब भी कहीं कोई नई संस्था उठ खड़ी होती और कला, साहित्य, संस्कृति का राग अलापती हुई अपनी पारदर्शिता का दम भरती, मुझे उनका नाट्य दिखाई देने लगता है । कला, साहित्य व संस्कृति आज सरोकार न रहकर कारोबार बनते जा रहे हैं और इसके प्रबंधक, कारोबारी । इनके हाथों में संस्कृति, विकृति बन रही है और साहित्य, वाहित्य । कलाकार का शोषण, कला-जगत पर आधिपत्य इनके लिये नये किस्म की क्रीड़ा है । इस खेल के ये बड़े खिलाड़ी हैं । वैसे यह एक वृहद् विषय है कि कैसे संस्थाओं का तंत्र विचार को वस्तु और ऊर्जा को उत्पाद बनाने में असुर भूमिका का निर्वाह करता है ।'
'सााहित्य संस्कृति भवन का भी बहुत कुछ ऐसा ही हाल था । कोलकाता के बीचोंबीच मुख्य सड़क पर स्थित भवन की विशाल इमारत और व्यापक परिसर ऊपर से पक्का लगते हुये भी अंदर से खोखला होता जा रहा था । साहित्य संस्कृति भवन से दिन पर दिन साहित्य और संस्कृति, दोनों गायब होती जा रही थीं । बस भवन ही भवन बचा था ।'

ये दोनों उध्दरण ममता कालिया के सद्य प्रकाशित उपन्यास 'कल्चर वल्चर' के पूर्वकथन और पहले पृष्ठ से हैं । साहित्य और संस्कृति के पतन को लेकर ममता जी की पीड़ा इन दोनों उध्दरणों में स्पष्ट दिखाई दे रही है । साहित्य कर्म सांस्कृतिक कर्म ही है और जब संस्कृति को कारोबार में बदलने का प्रयास किया जा रहा हो तथा साहित्य को साहित्य-वाहित्य कहकर उसकी उपेक्षा की जा रही हो, तब रचनाकार का विरोध स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में उभरकर आता है ।  'कल्चर वल्चर' उपन्यास के मूल में उन चालाक और धूर्त कर्ताधर्ताओं की गतिविधियों के कारनामे हैं जो बड़े उद्देश्य के साथ आरंभ की गई संस्था को नष्ट करने पर तुले हुये हैं । इस उपन्यास की सुषमा अग्रवाल ऐसे अनेक पात्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपनी-अपनी जगह पर संास्कृतिक संस्थाओं को अपने स्वार्थ और दंभ की धूल में मिटा देना चाहते हैं । दरअसल, यह समय बड़े विचार, बड़े उद्देश्य और व्यापक सरोकारों का समय नहीं है, अब एक ओर दुनिया की सीमाएं और दूरियां सिमट रही हैं तो दूसरी ओर ये सीमाएं और दूरियां हमारे अपने स्वार्थ की दीवारें खड़ी कर रही हैं। हमारे अपने स्वार्थों का ताना-बाना जिस एकनिष्ठता के साथ बुना जा रहा है उसमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकार पीछे छूटते जा रहे हैं । इसके परिणामस्वरूप हमारी सारी संस्थाएं धीरे-धीरे भटकाव और पतन का शिकार हो रही हैं । स्वाधीनता के बाद बहुत सारी संस्थाएं व्यापक सरोकारों के साथ स्थापित की गई थीं इनका उद्देश्य अपने-अपने क्षेत्रों में अतुलनीय काम करना था । उन संस्थाओं को अपने काम करने की पूरी छूट भी दी गई थी और उसके मुखिया के रूप में ऐसे लोगों को बिठाया गया था, जो उस क्षेत्र के नामी विद्वान थे । यही कारण है कि साहित्य अकादमी के क्रियाकलापों पर उस समय के अध्यक्ष प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पुरस्कार या दैनंदिन गतिविधियों पर कोई प्रभाव नहीं होता था । इसके कई उदाहरण आज भी लोगों की जुबान पर  हैं जब नेहरू जी के विचारों का विरोध करने वाली रचनाओं को भी पुरस्कृत किया गया। क्योंकि नेहरू जी यह मानते थे कि लोकतंत्र में विचारों की स्वतंत्रता होनी ही चाहिये। कहना न होगा कि इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा अन्य विषयों को लेकर जो राष्ट्रीय अनुसंधान परिषदें स्थापित की गईं उनके अध्यक्ष एक समय तक अपने विषयों के निर्विवाद विद्वान हुआ करते थे। त्रिमूर्ति भवन, बाल भवन तथा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना के पीछे वृहत् उद्देश्य थे । एनसीईआरटी एवं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा संपादित अथवा लिखवाई गई पुस्तकों की प्रामाणिकता असंदिग्ध हुआ करती थी। भारतीय औद्योगिक संस्थान इत्यादि ऐसे संस्थान थे जिनके मुखियाओं की नियुक्ति बगैर राजनीतिक हस्तक्षेप के हुआ करती थी । लेकिन आजादी के सत्तर वर्ष बाद इनकी जो स्थिति है, वह किसी से छुपी हुई नहीं है । अब उनके अध्यक्षों तथा प्रभारियों का किसी ने नाम तक नहीं सुना, उनके काम की जानकारी तो दीगर है । विगत वर्षों में राष्ट्रीय फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान, पुणे में एक ऐसे व्यक्ति को उसका निदेशक बना दिया गया जिसका संबंध विदेशी तो क्या देशी फिल्मों की निर्मिति या गुणवत्ता से कभी नहीं रहा । वह चूंकि एक विशेष दल के साथ जुड़ा था और धारावाहिकों में काम मिलना बंद हो गया था इसलिये सोचा गया कि पुणे में निदेशक बना दिया जाये । बन तो गये लेकिन छात्रों और पत्रकारों ने जब प्रश्न पूछे तो चुप लगा गये । फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष की योग्यता और समझ को लेकर लगातार प्रश्न उठ ही रहे हैं । कहा जाता है कि उन्हें फिल्मों की कोई तकनीकी जानकारी नहीं है। इस समय राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद या अन्य किसी अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष कौन हैं, यह पूछने की जरूरत अब महसूस ही नहीं होती क्योंकि पिछले दिनों राजनीतिक विचारधारा के नाम पर जिन अनाम व्यक्तियों को महत्वपूर्ण संस्थाओं का मुखिया बनाकर बैठाया गया है, उससे इन नामीगिरामी संस्थाओं की पहचान लगातार लुप्त हो जा रही है । यह संस्थाओं के पतन का समय है । अब अपने आसपास के नाकारा लोगों को, जनता द्वारा अमान्य कर दिये गये राजनेताओं को, अपने पूर्व परिचित या निकट के रिश्तेदारों को ऐसी संस्थाओं का अध्यक्ष बनाया जा रहा है जिनकी अपने विषय में कोई समझ नहीं है । आश्चर्य इस बात का है कि इतना सब कुछ होते हुये भी मीडिया तथा जनता लगभग चुप है ? पुणे में कितने दिनों संस्थान बंद रहा, कितने छात्रों पर मुकदमेे चले, कितना सांस्कृतिक व्यवधान रहा पर कुछ टीवी चैनल और कुछ पत्रकारों के अलावा पुणे की राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत की धनी जनता ने उपेक्षा भाव ही दर्शाया।  अब सच को सच कहने का साहस कम होता जा रहा है, प्रतिरोध को विरोध मानकर सताने के तमाम हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। कमजोर व्यक्ति तथा संस्थाएं इस प्रकार के हथकंडे अपनाकर अपनी सुरक्षा का निर्लज्ज प्रयत्न करती हैं। यह मात्र संयोग नहीं है कि भारत से लेकर अमेरिका तक में अब वे लोग सत्ता पर काबिज हैं जिन्हें अपनी ही आवाज सुनना अच्छा लगता है। जो राजनीति दूसरों की आवाज दबाना जानती है, वह लंबे समय तक चल नहीं सकती। भारत जैसे लोकतंत्र में धर्म, जाति, प्रांत और भाषाओं की राजनीति अधिक समय तक नहीं चल सकती। उत्तर-आधुनिक समय में एक ओर अकल्पनीय विकास की बात की जा रही है तो दूसरी ओर अपनी जड़ों की ओर लौटने के विचार को पानी दिया जा रहा है। आधुनिकता विचार और तर्क को जन्म देती है तो उत्तर-आधुनिकता विचार और तर्क का विरोध करती है। वह पीछे की ओर लौटती है, अपनी जड़ों की ओर जाना उसे सुरक्षित लगता है। यही कारण है कि धर्म, जाति और कर्मकांड लोगों को फिर से याद आने लगे हैं। जिस वैज्ञानिक सोच को विश्वविद्यालयों के माध्यम से लागू किया गया था, वहां अब अवैज्ञानिक लोगों की भर्ती की जा रही है । विश्वविद्यालयों के मुखिया के रूप में ऐसे लोगों को भेजा जा रहा है जो ज्ञान विरोधी हों, अवैज्ञानिक सोच के साथ जड़ता का वातावरण बनाने में सहायक हों ताकि युवा-वर्ग की चेतना नष्ट की जा सके।
कहना न होगा कि साहित्य एवं संस्कृति भवन के पदाधिकारी राजस्थान के शेखावाटी अंचल के हैं, कोलकाता का ज्यादातर व्यापार इन्हीं लोगों के हाथों में है। एक समय तक इन्होंने अपने नगर ही नहीं बल्कि गांवों तक में बड़े अस्पताल और कॉलेज खोले थे, जो बिना किसी लाभ-लोभ के चलते थे । यह वह समय था जब लाभ के लिये व्यापार हुआ करते थे और यश के लिये इस प्रकार की संस्थाएं। यही कारण है कि साहित्य संस्कृति भवन के अध्यक्ष बाबूलाल माहेश्वरी यश का कार्य करने के लिये स्वेच्छा से इस प्रकार की संस्थाओं में गये थे। वे वहां आर्थिक लाभ के लिये नहीं गये थे इसलिये संस्था के सारे पदाधिकारी उनसे डरते हैं, चालाकी और बेईमानी में पारंगत सुषमा अग्रवाल भी यदि किसी से डरती हैं तो बाबूलाल महेश्वरी से ही हैं लेकिन अपमान और उपेक्षा के लिये सबसे अधिक षड्यंत्र करती हैं तो बाबूलाल महेश्वरी के विरुध्द ही। वे सुषमा की इन आदतों को जानते हैं इसलिये उनसे नाराज भी होते हैं, राय भी देते हैं और बहुत-से व्यर्थ के कामों के लिये मना भी करते हैं लेकिन सुषमा भी जानती हैं कि माहेश्वरी जी को कैसे चुप किया जा सकता है ? 'कभी दोनों में खटक जाती । ऐसे में सुषमा तुरंत कमर तक झुककर बाबूलाल जी को प्रणाम कर क्षमायाचना कर देती । उनकी विनम्रता उनकी व्यावहारिकता का एक हिस्सा थी अथवा संवेदनशीलता का, यह तय नहीं किया जा सकता था ।' संस्थाओं में अध्यक्ष और सचिव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, दैनंदिन के निर्णय ये दोनों ही लेते हैं। कार्यकारिणी की बैठकें तो बड़े निर्णयों के लिये ही आहूत की जाती हैं । पर सुषमा जहां फंसती हैं, जहां उन्हें चालाकी करनी होती है, जहां उन्हें अपनी मर्जी से गलत काम कराना होता है वहां वे कार्यकारिणी के पास जाती हैं जिसमें अधिकांश ऐसे व्यापारी हैं जिनके पास न तो ऐसी संस्थाओं के लिये समय है और न दृष्टि । 'कार्यकारिणी के बाकी सदस्य संस्था के सभी झमेलों को इनके सुपुर्द कर चैन से व्यापार करना चाहते थे । वे संस्था से जुड़े रहना चाहते थे पर विवादों से दूर साहित्य संस्कृति भवन का अस्तित्व उनके जीवन में एक भुनगे के समान था ।' वे मानकर चलते हैं कि व्यापार में से कुछ पैसा ट्रस्ट वगैरह को दान देना होता है तो यह भी एक प्रकार का ऐसा ही ट्रस्ट है, जो अपने गांव घर के लोगों का है इसलिये  सेठों के यहां से  पुस्तकालय के लिये जो पुस्तकें दान में आतीं उनमें अधिकांश काम की नहीं होती 'तारकेश्वर ने पुस्तक सूची वाला रजिस्टर खोलकर उनके सामने रख दिया, देख लीजिए इनमें स्कूल की आठवीं, नवीं कक्षा की पुरानी किताबें हैं, कॉमर्स की पाठ्यपुस्तकें हैं, रामचरितमानस की टीका, कल्याण के पुराने अंक हैं। इनमें आरोग्य, तिलिस्म, यौनजगत और अध्यात्म विषयक पुस्तकें थीं। शुरू के कुछ शीर्षकों पर सुषमा ने दृष्टि डाली-सौ साल कैसे जियें, जड़ी-बूटियों से उपचार, स्वमूत्र सेवन के लाभ, भूत बंगला, खूनी हवेली, सफल दाम्पत्य और यौनजीवन, कामसूत्र की व्याख्या, गीता-सार तथा स्वामी विवेकानंद'। इस प्रकार की किताबें किसी पुस्तकालय का क्या लाभ कर सकती हैं, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। प्रकाशकों से साहित्य और संस्कृति की नयी किताबों की आवक बहुत कम है, उसके लिये पैसा नहीं है, पैसा है तो व्यर्थ के कामों के लिये है। संस्था की पत्रिका 'प्रतिभा' के उन्नयन का प्रस्ताव जब भी कार्यकारिणी में आता तो वे  धार्मिक सामग्री छापने की राय देते। उनकी मान्यता है कि कोई भी संस्था व्यर्थ की कविता कहानियों को छापने के लिये पत्रिका क्यों निकालेगी? सुषमा उनकी कमजोरी को समझती हैं, वह जानती है कि ऐसे लोगों को किस प्रकार प्रसन्न रखा जा सकता है। उन्हें प्रसन्न रखने के लिये उन्हें कब क्या करना है वे पूरी कुशलता के साथ करती हैं। अपने चालाक हुनर पर उन्हें विश्वास है।
सुषमा अग्रवाल के लिये साहित्य संस्कृति भवन जीवन रेखा की तरह है, इससे अलग होने की वे कल्पना भी नहीं कर सकती। ममता जी ने एक स्थान पर बाबूलाल महेश्वरी और सुषमा की सोच के बारे में लिखा है 'बाबूलाल महेश्वरी और सुषमा अग्रवाल के लिये साहित्य संस्कृति भवन जीवन का जरूरी सवाल था। दोनों के दृष्टिकोण में यह अंतर था कि महेश्वरी जी सोचते कि अगर साहित्य संस्कृति भवन न रहा तो नगर में भारतीय भाषाओं और साहित्य का क्या होगा जबकि सुषमा अग्रवाल सोचतीं अगर साहित्य संस्कृति भवन न रहा तो मेरा क्या होगा?' सुषमा के इस सोच ने उन्हें व्याकुल और काईयां बना दिया था। वे रात-दिन भवन के बारे में ही सोचतीं, पति का कारोबार मंदा पड़ा तो वे क्लब और शराब के नशे में डूबते चले गये। लेकिन सुषमा ने उनकी कोई चिंता नहीं की बल्कि 'पति को बार में भेज सुषमा तरणताल पहुंच जातीं। सौरभ व्हिस्की के पहले पैग के साथ देखता कैसे मिनटों में उसकी तन्वंगी पत्नी, साड़ी की जगह स्विमसूट पहनकर, छपाक से पानी में कूद पड़ती। चपल मीन-सी वह पानी की सतह पर अठखेलियां करती। जब तक सौरभ अपना तीसरा पैग लेता, सुषमा वापस अपने भारतीय परिधान में सजी-संवरी नमूदार होती। मुख्य हॉल में उसके कदम रखते ही समस्त निगाहें उसी ओर उठ जातीं। पंद्रह साल में ब्याही, सोलह और अठारह साल में मां बनी सुषमा लेबर रूम के अनुभवों के बावजूद अभी किशोरी ही लगती। भगवान की ऐसी रहमत थी उस पर कि दूध, घी, मक्खन किसी की परत उसकी देह पर न चढ़ती। और तो और, नजरों का बांकपन भी अभी षोडष था। क्लब के सदस्य अपनी बीवियों की मौजूदगी भूल सुषमा के पास गुड़ के चींटों जैसे जा पिलचते, बेयरे उसे लंबे सलाम करते, स्टुअर्ड उसका आदेश लेने पांच बार उसकी टेबल तक आते।' यह पूरा दृश्य एक ऐसी स्त्री का है जो सामाजिक रूप में साहित्य और संस्कृति की चिंता करती है लेकिन वास्तविक जीवन में वह उन औरतों से अलग नहीें है जो अपने शरीर को ही सब कुछ मानकर उस पर इठलाती रहती हैं। मारवाड़ी परिवारों में भी कितनी औरतें होंगी जो सुषमा की तरह रहती होंगी। व्यापारी परंपरागत जीवन शैली में विश्वास रखते हैं और मानते हैं कि इसी से वे परिवार और उसकी संस्कृति को बचाये रख सकते हैं। लेकिन सुषमा उन ढीली धोती वाले व्यापारियों से अलग थी इसलिये उसकी जीवन-शैली भी उनसे बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। 
पति सौरभ अग्रवाल पत्नी सुषमा की आदतों से परेशान थे। उनका मानना था कि रात-दिन साहित्य संस्कृति और फिर अपना शरीर सौष्ठव, यही जीवन नहीं है, स्त्री के रूप में उन्हें घर, परिवार पर भी ध्यान देना चाहिये।  लेकिन सुषमा जानती थीं कि घर में रसोइये से लेकर ड्राइवर तक साहित्य संस्कृति भवन के हैं, गमले से लेकर अन्य छोटे-मोटे सामान भवन से लाये गये हैं, गाड़ी के खर्चे से लेकर अन्य जरूरी शोैक वे वहीं से पूरा करती हैं। साहित्य संस्कृति भवन के प्रति बाह्य निष्ठा दिखाकर वे जिस प्रकार उसे लूट रही हैं, इस तथ्य से भवन का प्रत्येक कर्मचारी परिचित है लेकिन वह कहने की स्थिति में नहीं है। भवन में उनका ही आदेश चलता है, अध्यक्ष, निदेशक और कार्यकारिणी को वे अपने इशारे पर नचाना जानती हैं। वे जो चाहती हैं, वही होता है, प्रतिरोध उनके शब्दकोश में नहीं है इसलिये उनके कर्मचारी जानते हैं कि सुषमा को ना कहना, प्रश्न करना और विरोध करना, तीनों ही स्वीकार नहीं है। जिसने हिम्मत की उसने बाहर का रास्ता देखा। सुषमा के सामने बोलकर कोई वहां रह नहीं सकता। ममता जी ने सुषमा के चरित्र को इस प्रकार बुना है कि उनमें परंपरा से लेकर आधुनिकता के सारे गुण मौजूद हैं। परंपरा उनके यहां दिखावे की वस्तु है और आधुनिकता लोगों को बेवकूफ  बनाने की कला। वे दोनों में निपुण है कब उन्हें परंपरा का पालन करना है और कब आधुनिक बनना है, उनके लिये दोनों को साधना नट विद्या की तरह सहज है। सुषमा का व्यक्तित्व जिस धातु से बना है उस पर ममता जी की मजबूत पकड़ है इसलिये वे उनकी चालाकियों और धूर्तताओं को बताने में कामयाब रही हैं। सुषमा के आचार-व्यवहार से एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या कोई स्त्री बाह्य प्रदर्शन और चालाकियों से अपने परिवार को बचाये रख सकती है? सामान्यतया स्त्रियां बाहर जो भी करें पर परिवार की मजबूती से कोई समझौता नहीं करतीं। लेकिन सुषमा की व्यस्तताओं में परिवार कहां है?
यह आश्चर्य की बात हैं कि प्रत्येक बैठक में धनाभाव का रोना रोने वाले कार्यकारिणी के सदस्य सुषमा को औपचारिक ना नुकुर कहकर शांत हो जाते हैं और वे हर बार अपना काम कराने में सफल होती हैं। सुषमा की इच्छा रहती है कि 24 घंटे सातों दिन भवन में कुछ न कुछ काम चलता रहे। काम चलता रहेगा तो उनके अपने काम भी सधते रहेंगे। ममता जी ने उनके फर्जी बिलों और अनाप-शनाप धन खर्च करने के कई उदाहरण दिये हैं। जैसे भवन के संस्थापक द्वय अजुध्याजी और मनोरथ जी की मूर्तियां बार-बार बदली जा रही हैं ताकि उन्हें बदलने के लिये कारीगर लगे रहें और कारीगर लगे रहेंगे तो उनकी आय भी होती रहेगी। क्या किसी भी संस्था या स्थान पर लगी मूर्तियां बदली जाती हैं, एक बार मूर्तियां जहां लग गई वहां आजीवन रहती हैं। लेकिन सुषमा ऐसा नहीं सोचतीं 'निर्माण और पुनर्निर्माण का नशा है सुषमा को। भवन में हर समय दस-बीस मजदूर ठक-ठक, खट-खट करते दिखें तो उन्हें लगता है कि भवन प्रगति कर रहा है। कभी-कभी तो वे एक स्विचबोर्ड की जगह पांच बार बदलवाती हैं, सही जगह की तलाश में।' यही नहीं कार्यालय कर्मी बोसदा से मिलकर वे फर्जी बिल भी बनवातीं हैं 'मंत्री के इशारे पर वे ही भागदौड़ कर होटलों से निर्धारित राशि की जगह ड्योढ़ा बिल बनवाया करते थे। तथा 'इसी बीच सभागार में पर्दे बदले गये। पर्दे 6500 के आये थे जिसमें एक शून्य और लगा दी गई। शून्य की शक्ति का इस्तेमाल सुषमा अग्रवाल ने संभवत: आर्यभट्ट से ही सीखा था। उनकी यह शून्य-शक्ति किशन जी का काम कई गुना बढ़ा डालती। हर शून्य की व्याख्या में सुषमा बतातीं 'अपने शहर में डेढ़ सौ ऐसे अनाथालय हैं जहां बच्चे भूख और कुपोषण से मर रहे हैं। मैं वहां थोड़ी सहायता कर देती हूं । क्या पता कोई शिशु, भवन के सद्भाव से ही जीवन पा जाये। क्रांति प्रेस में छपीं तथाकथित बाल पुस्तकें भी इन्हीं अनाथालयों में बांटी गई। हद तो तब हो गई जब जन्माष्टमी के अगले रोज गोयल भोजनालय का एक देयक कार्यालय में भुगतान के लिये प्रस्तुत किया गया। कॉपी के मैले कागज पर टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट में लिखा था, 700 अनाथ बच्चों को जन्माष्टमी का प्रसाद व फलाहार वितरण किया। दर 70 रुपये प्रति प्लेट 49,000 नकद भुगतान की कृपा करें।' ये कुछ उध्दरण हैं जिनकी वजह से सुषमा का साहित्य संस्कृति भवन के प्रति प्रेम झलकता है। दूसरे मारवाड़ी तो संस्था को दान दे रहे हैं और सुषमा उस दान के धन को एनकेनप्रकारेण हड़पने में लगी हुई है । कार्यकारिणी के सदस्य व्यापारी मानते हैं कि सुषमा के कारण ही संस्था चल पा रही है । वे अपनी तीक्ष्ण बुध्दि से उनके अंदर यह विश्वास जमा पाने में कामयाब रही हैं । कोई संस्था केवल एक व्यक्ति के कारण विकास नहीं करती लेकिन एक व्यक्ति उसे डुबा जरूर सकता है । सुषमा का विश्वास विकास में न होकर डुबाने में अधिक है । वे जिस समुदाय से आती हैं, उसे भलीभांति जानती भी है । दैनंदिन जीवन की चालाकियां उनके विश्वास को दृढ़ करती हैं । इसलिये तमाम परेशानियों के बाद भी उनके आसन को कोई डिगा नहीं पाया  उन्हें अपने व्यापारी भाइयों की इस कमजोरी का पता है कि सेठों के लिये संस्था से जुडऩा प्रतिष्ठा का प्रश्न है उसके क्रियाकलापों से उनका कोई लेनादेना नहीं है । इस लेने-देने का काम सुषमा भलीभांति करती हैं । जो काम सेठ नहीं कर सकते वह सुषमा करती हैं लेकिन इससे संस्था का कितना नुकसान हो रहा है, इसकी भनक तक वे किसी को नहीं लगने देतीं। कर्मचारियों को कम वेतन देकर उन्हें इस तरह दबाया गया है कि वे मुंह ऊपर उठाने में डरते हैं बोलना तो संभव ही नहीं है । कितने निदेशक आये और चले गये । जो निदेशक अपनी तर्क बुध्दि से चला उसे सुषमा ने जल्दी ही विदा भी कर दिया और जो उनसे मिलकर चला उसके ऊपर किसी प्रकार की परेशानी नहीं आने दी । पिछले निदेशक पांडे की सुषमा से अच्छी बनती थी इसलिये वे जमे रहे लेकिन नये निदेशक नवीन मिश्र जिस उम्मीद के साथ आये थे, वह उम्मीद बहुत जल्दी निराशा में बदल गई । सुषमा के आतंक ने भवन की नींव को खोखला कर दिया है और उद्देश्यों को पलीता लगा दिया है । पर वे कहें किससे? कार्यकारिणी उनकी किसी बात को सुनती नहीं और अध्यक्ष जी कुछ कहते भी हैं तो सुषमा उन्हें दबा देती है । सुषमा को यह बात जल्दी ही समझ में आ गई थी कि यह नये निदेशक नवीन मिश्र अपनी इच्छा से चलना चाहते हैं, रचनात्मक लोगों से इनके अच्छे संबंध हैं और नयी पीढ़ी इन पर भरोसा करती है । इस साहित्यिक समझ का ही परिणाम है कि भवन की पत्रिका 'प्रतिभा' की सदस्य संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, नयी पीढ़ी इसमें प्रकाशित होकर गौरवान्वित हो रही है । नवीन ने इस लुप्त-प्राय पत्रिका को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया । सुषमा को नवीन और प्रतिभा दोनों की लोकप्रियता अपने ऊपर खतरा नजर आती इसलिये वे दोनों का विरोध कर रही हैं। नवीन के विरोध में एक अजीब तरह का वातावरण सुषमा ने बना दिया था। वह जिस उम्मीद में यहां आया था वह उम्मीद अब धूमिल होती नजर आ रही है। इसलिये वह सोचता है 'वह वापस जाकर घरवालों का ताना और खाना नहीं झेलना चाहता था। इसी तर्ज पर साहित्य संस्कृति भवन मजबूर और प्रतिभाशाली लोगों का शरणस्थल बनता गया था।' यह केवल नवीन की ही पीड़ा नहीं है बल्कि भवन का हर कर्मचारी अपनी अपनी तरह से दुखी है। इस दुख का कोई उपाय किसी के पास नहीं है। इसलिये नवीन सोचता है 'यहां आकर नवीन ने अपनी बेरोजगारी तो मिटा ली किंतु जीवन नीरस कर डाला था। कहां थी यहां के कमरों में उसकी बेटियों आभा, अनुभा की दौड़-भाग, दीपा की प्रदीप्त उपस्थिति और माता-पिता का आश्वस्तकारी आवास। ये सब चेहरे उसकी स्मृति में धुंधले पड़ते जा रहे थे। नवीन को जिज्ञासा हुई कि क्या उन सब के जेहन में उसका चेहरा भी इसी तरह धुंधला पड़ता जा रहा होगा।' नवीन की यह चिंता उचित ही है, घर से इतनी दूर परिवार को छोड़कर वह यहां रह रहा है तो केवल इसीलिये कि रोजगार मिला हुआ है पर जिन सपनों के साथ वह आया था वे तो धीरे-धीरे टूटते जा रहे हैं । उन सपनों की कीमत वह किससे वसूल करेगा ? वह जो काम करना चाहता है, उसे करने नहीं दिया जाता, वह जिस प्रकार पत्रिका निकालना चाहता है उस तरह से निकालने नहीं दी जा रही, कर्मचारियों से लेकर कार्यकारिणी तक में उसकी कोई सुनने वाला नहीं है फिर इस तरह व्यर्थ का निदेशक होने का अर्थ क्या है ? यह व्यर्थता बोध उसे अंदर से छील रहा है, वह अकेले में अक्सर सोचता है कि वह अपनी क्षमता को नष्ट कर रहा है या उसकी क्षमता नष्ट की जा रही है । भवन के पुस्तकालयाध्यक्ष तारकेश्वर ने उसे समझाया 'नवीन जी, आपको मेरी यही सलाह है आप नियमों के चक्कर में मत पड़ा कीजिये । आंख मूंदकर अपना वक्त काट लीजिये । भवन में निदेशक का पद सबसे डांवाडोल होता है । मैंने भारी-भरकम निदेशकों को भी मक्खी की तरह उड़ते देखा है । अपना सिर बचाइये और खैर मनाइये ।' साहित्य संस्कृति केंद्रित संस्थाओं में किसी निदेशक को खैर मनाने की स्थितियां क्यों आती हैं ? इसलिये कि ये संस्थाएं जिस उद्देश्य से शुरू की गई थीं अब वे उद्देश्य केवल उसके विधान तक सीमित कर अलमारियों में बंद कर दिये गये हैं । ऐसे लोगों ने इन संस्थाओं पर कब्जा कर लिया है जिनका साहित्य और संस्कृति से कोई लेना-देना नही है । वे लूटने आये हैं और लूट भी किसी की कृपा पर नहीं बल्कि जोर-जबर्दस्ती । ऐसे अधिकारी सरकारी से लेकर सहकारी संस्थाओं तक में बैठा दिये गये हैं । नवीन मिश्र की चिंता के मूल में इन संस्थाओं के हित छुपे हुये हैं, जिनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है ।
साहित्य संस्कृति भवन सुषमा का ऐशगाह है । 'परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ' जैसी स्थिति साहित्य संस्कृति भवन में सुषमा अग्रवाल की है । भवन की कार्यकारिणी से जुड़े सेठों को लगता है कि सुषमा के अलावा इसे कोई चला नहीं सकता तथा साहित्य एवं संस्कृति से जुड़े लोगों को लगता है कि यह संस्था अंदर से निरंतर क्षीण और खोखली होती जा रही है । कोलकाता में अनेक ऐसी संस्थाएं हैं जिनके पुस्तकालयों की संख्या इससे बहुत अच्छी है, पुस्तकालय में आने वाले पाठकों की संख्या में निरंतर वृध्दि हो रही है तथा बाहर से आने वाले लेखकों और कलाकारों का उचित सम्मान किया जाता है । इस प्रकार की संस्थाएं धन कमाने के लिये नहीं होती, यह कोई व्यापार का केंद्र नहीं हैं बल्कि इसके माध्यम से समाज, साहित्य और संस्कृति का वृहद् स्तर पर प्रचार किया जाता है । सुषमा की रुचि समाज कार्य में नहीं है, साहित्य और संस्कृति से उसे कोई लेना देना नहीं है । सामाजिक कार्य बिना किसी लाभ और लोभ के होते हैं । जो लोग लाभ-लोभ के लिये ऐसी संस्थाओं में पदाधिकारी बनते हैं, उनकी नीयत में शुरू से ही खोट होता है । हालांकि बहुत बड़े नामों से सुषमा की तुलना नहीं की जा सकती लेकिन इस संदर्भ में मुझे महात्मा गांधी और उनके बड़े पुत्र हरिलाल की बहस याद आ रही हैं, जिनमें गांधीजी बार-बार उन्हें सेवा करने के लिये कहते हैं और हरिलाल का विचलन सेवा कार्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। सेवा का काम बड़ा है, चाहे वह किसी छोटी संस्था की हो या देश की । सुषमा की पूरी कार्यपद्धति एक सोची-समझी रणनीति की तहत संचालित होती है। उनका लक्ष्य भवन की सचिव बने रहकर अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को साधना है। विडम्बना यह है कि उनके हित और महत्वाकांक्षाएं असीम हैं, जिन्हें पूरा करने में वे एक जीती-जागती संस्था को ही बर्बाद कर रही हैं। ममताजी ने उनकी कार्यपध्दति को अलग-अलग समय और घटनाओं के साथ रेखांकित किया है । इससे उनकी जो छवि उभरकर आती है, उससे घृणा होती है कि क्या अब संस्थाओं पर ऐसे लोगों का कब्जा है जो अपनी स्वार्थपूर्ति को ही संस्था की गतिविधि मानते हैं। 
सुषमा ने कार्यकारिणी के सदस्यों को भ्रमित कर रखा है कि उन्हें साहित्य और संस्कृति की जितनी समझ है उतनी किसी और सदस्य को नहीं। जिसमें समझ होगी वह कलाकारों और साहित्यकारों के प्रति तो उदार होगा। यह उदारता उसके पूरे व्यक्तित्व में झलकनी चाहिये। लेकिन सुषमा तो ऐसा नहीं सोचती, वह तो अपने पूरे व्यक्तित्व में अनुदार है, इतनी कठोर कि एक कर्मचारी सुखराम के मर जाने पर भी वे उसके प्रति निष्ठुर बनी रहीं क्योंकि उसने भवन की पत्रिका 'प्रतिभा' को समय पर निकालने में निदेशक का सहयोग किया था । सुषमा की नजर में यह अपराध है, वह अपनी अवज्ञा और उपेक्षा नहीं सह सकतीं चाहे इसके लिये उन्हें कितना भी निष्ठुर होना पड़े । ममता जी कहती हैं 'भवन के अस्तित्व पर मंत्री की पकड़ इतनी जबरदस्त थी जितनी घडिय़ाल की अपने शिकार पर । सुषमा अग्रवाल को घडिय़ाल का लोगो प्रिय भी था । ला कॉस्ट कंपनी के उनके पर्स और उनकी जैकेट पर घडिय़ाल का हरा चित्र मानो उनके कार्यकलाप को सजीव प्रतीकात्मकता प्रदान करता । उनके पूरे व्यक्तित्व में दर्जनों दांत थे । वे किन दांतों से चबाएंगी और किन से चूर-चूर करेंगी, कहना मुश्किल था । पीठ पीछे लोग उनकी आलोचना करते, लेकिन सामने आते ही सिर हिलाने लगते ।' सुषमा के पूरे व्यक्तित्व के लिये घडिय़ाल का प्रतीक उपयुक्त ही है । जो एक बार उनके कब्जे में आ गया या उनसे डर गया उसे वे न जीने देती थी और मरने देती थी । उसका जीना-मरना सुषमा के हाथों में होता था । इसलिये भवन में नये खुले विद्यालय की प्रधानाचार्य दिशि से भवन के पुराने कर्मचारी किशनजी कहते हैं 'दिशि जी, आपको एक बात समझाएं । बड़ी मैडम की हां में हां मिलायेंगी तभी यहां रह पायेंगी । उनकी टी शर्ट पर आज आपने देखा था न क्या लोगो बना था-घडिय़ाल का। क्या बोलते उसको क्रोकोडाइल वो ही समझो मैडम के अंदर बाहर बस दांत ही दांत हैं।' दोनों उध्दरणों में उन्होंने घडिय़ाल शब्द का प्रयोग किया है यह पुनरावृत्ति नहीं है। एक में लेखिका स्वयं टिप्पणी करती हैं तो दूसरे में भवन का पुराना कर्मचारी किशन कहता है। यानी भवन से जुड़ा हर आदमी उन्हें घडिय़ाल के रूप में ही देखता और अनुभव करता है। इस देखने और अनुभव करने से डर उत्पन्न होता है, उसी डर को बनाये रखकर सुषमा भवन में अपनी मनमानी कर रही हैं ।
सुषमा का व्यवहार केवल भवन तक ही सीमित नहीं है वे बाहर से आने वाले, पुरस्कृत होने वाले लेखक के साथ भी इसी प्रकार का व्यवहार करती हैं । निदेशक अपने कमरे में बैठकर फोन पर नये लेखकों से रचनाएं आमंत्रित करते हैं तो सुषमा को यह बुरा लगता है । वे अध्यक्ष महेश्वरी जी से उनकी शिकायत भी करती हैं और चारों ओर प्रचारित करती हैं कि निदेशक केवल फोन पर बातें करता रहता है, उसकी रुचि भवन के किसी काम में है ही नहीं । वे नहीं चाहती कि भवन की पत्रिका 'प्रतिभा' का कोई नाम ले, उसकी कीर्ति फैले। वे ऐसा कोई काम नहीं चाहती जिसका लाभ दूसरों को मिले। वे हर उस काम को करती हैं जिसमें उनका नाम जुड़ा हुआ हो। यह एक प्रकार की कुंठा है, सारी घटनाओं और कार्यकलापों को केवल स्वयं पर केंद्रित कर नहीं देखा जा सकता। इससे संस्था की हानि होती है, संस्था का सार्वजनीकरण समाप्त हो जाता है और वह निजी राग-द्वेष के भंवर में फंसकर रह जाती है। भवन की स्थिति इस समय ऐसी ही है। सुषमा नहीं चाहतीं कि संस्था का विकास हो, वे केवल अपना विकास चाहती हैं। उनका विकास ही संस्था का विकास है। उनके मन में कभी यह नहीं आता कि साहित्य और संस्कृति के उन्नयन के लिये स्थापित संस्थाएं सार्वजनिक होती हैं, उनमें सार्वजनिक सहभागिता होती है तो निर्णयों में भी सार्वजनिक विचार-विमर्श होना चाहिये। उन्हें विचार विमर्श जैसी चीजों से चिढ़ है, उन्हें ऐसे लोगों से भी चिढ़ है जो संस्था के उन्नयन के लिये बिना मांगे अपनी राय देते हैं । कई बार भोले-भाले लेखक उन्हें अपनी पुस्तक भेंट करते, संस्था के बारे में दो-चार बातें कहते, कुछ समय बैठकर संस्था की गतिविधियों की चर्चा करते तो सुषमा के तेवर तुरंत बदल जाते वे ऐसा मुंह बनातीं कि लेखक बेचारा तुरंत उठ जाता। उसके जाने के बाद वे लेखक की किताबों को बोस बाबू से कहकर कचरे की तरह अपनी मेज से उठवा देतीं, मेलिंग लिस्ट से उसका नाम कटवा देती। यह गंदी मानसिकता है, जो दूसरों के प्रति तुच्छता के भाव से पैदा होती है। इस प्रकार की मानसिकता साहित्य और संस्कृति के लिये समर्पित संस्थानों में नहीं चलती। ऐसी संस्थाओं में लेखकों, कलाकारों और पाठक-श्रोताओं का आना ही उसकी सार्थकता की निशानी है। पर सुषमा जैसी सचिव के लिये इस प्रकार की सार्थकता कोई अर्थ नहीं रखती। इसलिये संस्था निरंतर डूबती जा रही है, केवल उभर रही हैं सुषमा अग्रवाल। सुषमा अग्रवाल के उभार को ममता कालिया ने बहुत छोटी और दैनंदिन की घटनाओं से रेखाकिंत किया है।
निदेशक नवीन मिश्र की अनुपस्थिति में साहित्य संस्कृति भवन में हड़ताल हुई तथा भवन के बेहद निष्ठावान कर्मचारी सुखराम की सदमे में मृत्यु हुई। एक महीने बाद जब नवीन लौटा तो उन्हें दोनों सूचनाएं दी गईं पर उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ। जिस भवन के निदेशक को अपनी संस्था में हुई हड़ताल और कर्मचारी के मरने पर आश्चर्य नहीं हो, उसके ठंडेपन को क्या कहा जाये? निदेशक कहीं भी हो, उसका जुड़ाव अपनी संस्था के प्रति रहता ही है, यदि उपयुक्त जानकारियों का अभाव होता है तो वह कुछ लोगों से तथ्य इकठ्ठे करता है, यह सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन नवीन ने ठंडेपन के साथ दोनों घटनाओं को सुना। ऐसा कैसे संभव है? कहना न होगा कि सुखराम की मृत्यु उनकी पत्रिका 'प्रतिभा' को शीघ्र प्रकाशित करवाने के अपराध में हुई। प्रतिभा को शीघ्र प्रकाशित करवाने का दायित्व नवीन का था। सुखराम की गलती यह थी कि  उसने सुषमा की मर्जी के बिना नवीन के कहने पर कार्य किया। भवन की स्थितियों में निश्चित ही यह अपराध है, सुषमा ऐसे किसी व्यक्ति को क्षमा नहीं करती जो उनकी इच्छा के विरुध्द या उन्हें बगैर पूछे किसी दूसरे का कार्य करे। उपन्यास उस कलकत्ते में लिखा गया है जहां 19वीं शताब्दी से आज तक चेतना के गीत गाये जाते रहे हैं, जहां नवजागरण की अलख भारत में पहली बार जगी, जहां शिक्षा, संस्कृति, गीत-संगीत और वैचारिक प्रतिबध्दता सबसे अधिक है, उस कलकत्ता में साहित्य और संस्कृति के नाम पर एक अकेली सुषमा अग्रवाल वह सब करती रहे जो किसी भी सामाजिक संस्था के लिये शोभनीय नहीं है। सवाल यह है कि ममता जी ने हड़ताल तो करवाई और लाल झंडे के नीचे ही करवाई लेकिन लाल झंडा तो संघर्ष और विजय का प्रतीक है, फिर भवन में उन्हें जीत क्यों नहीं मिली? सुषमा जैसे हजारों लाखों अत्याचारियों को समाप्त करवाने का काम लाल झंडे और उसके हरावल दस्ते ने किया है । कलकत्ता में अकेली सुषमा इतनी ताकतवर नहीं हो सकती कि कर्मचारियों को गुलाम बनाये, संस्था को निजी जागीर और निदेशक जैसे प्रतिष्ठित लेखक संपादक को निरीह। ममता जी जब उपन्यास की समापन किश्त लिख रही थीं तो मेरी उनसे फोन पर बात हुई थी। वे उसके अंत को लेकर असमंजस में थीं। पूरा उपन्यास पढ़कर मैं उसके अंत से सहमत हूं इसलिये कि भवन के अध्यक्ष की मृत्यु के बाद सुषमा को गलत बात पर टोकने वाला पूरी कार्यकारिणी और भवन के पूरे परिवार में अब कोई नहीं बचा। शहर के बेधड़क बुध्दिजीवी शर्मा जी के द्वारा उन्होंने यह संकेत दिलवा भी दिया कि 'बाबूलाल जी के न रहने पर तो वे आपके और ज्यादा काम आयेंगे।' बहुत समझदारी के साथ मंच से उतरते हुये सुषमा ने आंखों पर काला चश्मा लगा लिया। काला चश्मा इस बात का प्रतीक है कि उनकी आंखों की चमक को कोई देख और परख न सके। मंच पर जो आंखें पानी से भरी दिख रही थीं उनमें पानी नहीं था उनमें विजय की चमक थी जो भविष्य के प्रति आश्वस्त कर रही थी।
'कल्चर वल्चर' उपन्यास पढ़ते हुये जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे मन बैठता जाता है । एक अकेली महिला पूरे भवन को कैसे अपनी मुठ्ठी में कसकर पकड़े हुये है कि उसकी सांस ही निकल रही है । साहित्य संस्कृति के रिश्ते मानवीय होते हैं, ये केवल भवन और नगर तक सीमित नहीं होते बल्कि बहुत दूर तक अपना प्रभाव छोड़ते हैं । ममता जी ने उपन्यास को जिस  कसावट के साथ लिखा है उसमें भवन के उद्देश्य कुछ ही पृष्ठों में दम तोडऩे लगने हैं, पूरे उपन्यास में सुषमा की चालाकी, बेईमानी, अपसंस्कृति, दूसरों की  कमजोरियों से लाभ उठाने की कुप्रवृत्ति तथा अपने लाभ और यश के लिये भवन पर कब्जा करने की लालसा इत्यादि ने भवन के कर्मचारियों की निरीहता के प्रति आक्रोश, निदेशक की लाचारी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न की है और सुषमा के प्रति घृणा, पूरी तरह घृणा। सुषमा जैसे कितने चरित्र अपने दंभ और ईष्र्या से भरकर बड़ी-बड़ी संस्थाओं को नष्ट कर रहे हैं । अपने स्वर्णिम अतीत से चमकती-दमकती संस्थाएं बुझती जा रही है, बाहर से भव्य लेकिन अंदर से खोखली संस्थाएं हमारे समय का यथार्थ हैं । उदारीकरण के बाद व्यापारियों, राजनेताओं एवं कथित समाजसुधारकों का एक तंत्र विकसित हुआ है जिसमें स्थायी मूल्यों, विचार केंद्रों तथा साहित्य और संस्कृति जैसे गंभीर विषयों के लिये कोई जगह नहीं है । जब चिकित्सा एवं शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण कल्याणकारी विभाग निजी हाथों में सौंप दिये गये तब हो सकता है कि साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, सभी अनुसंधान परिषदें एवं अन्य गर्व करने योग्य संस्थाएं भी निजी हाथों में सौंप दी जायें तब सुषमा अग्रवाल जैसी कोई कुशल नटिनी इनका संचालन करेगी और उन मूल्यों को अंगूठा दिखायेगी जिन्हें हम पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजते चले आये हैं ।


कल्चर वल्चर (उपन्यास - ममता कालिया) किताब घर

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