मंच उनका सच नहीं था

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    जुलाई - 2017
श्रेणी मंच उनका सच नहीं था
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम मधुरेश





संस्मरण/

 

मोहदत्त, एक विस्मृत रचनाकार



उनसे पहली बार मिलना कालेज में सत्र शुरु हो जाने के बाद ही हुआ था। शुरु में 12 जुलाई 1970 को जो बड़ा साक्षात्कार हुआ कई नियुक्तियों वाला, उसमें वे नहीं थे। वे अगस्त में कभी आये थे और क्लास से आते-जाते बरामदे में ही उनसे भेंट हुई थी। हाथ में रजिस्टर होने से ही, नई नियुक्ति पर आए अध्यापक के रूप में उनसे अभिवादन हुआ था। फिर किसी खाली घंटे में स्टाफ रूम में उनसे देर तक बातें हुई थीं। ठीक-ठाक लंबाई के गोरे चिट्टे सिगरेट पीते मोहदत्त को मैंने बंगाली समझा था। लेकिन बाद में नाम के साथ शर्मा बताकर उन्होंने मेरी इस गलत$फहमी को दूर किया था। धीरे-धीरे उनसे निकटता बढ़ी, जिसमें आत्मीयता और अंतरंगता की एक खास गंध थी। हमारी कुछ समानताओं ने ही शायद हमें तेजी से एक दूसरे की ओर आकृष्ट किया। बरसों तक हमारी दोस्ती कालेज और बदायूँ जैसे छोटे-से शहर में उदाहरण और चर्चा का विषय रही। बाद में संबंधों में खिंचाव और बिखराव के दौर में मुझे कहीं अकेला मिलने पर बी.एड. विभाग का धर्मपाल खत्री कुछ गाते जैसे अंदाज़ में कहा था ..'दो हंसों का जोड़ी बिखर गई रे...'
मूलत: वे बदायूं जिले की तहसील इस्लाम नगर के एक गांव करियामई के थे - एक साधारण निम्न मध्यवर्गीय परिवार से। पिता उनके पंडिताई करते थे और भाई-बहनों वाला उनका खासा बड़ा परिवार था। मेरी ही तरह वे भी नौकरी छोड़ बदायूँ आए थे। उम्र में वे मुझसे कोई पांच साल बड़े थे। पारिवारिक दबावों के कारण उन्हें बी.ए. के बाद ही नौकरी करनी पड़ी थी। वे सेना में क्लर्क थे और नौकरी के ही सिलसिले में में खूब घूमे-फिरे थे। उन्होंने मुरादाबाद से एम.ए. करके बदायूं में नए सिरे से नौकरी शुरू की थी। पांच बच्चों वाला उनका भरा-पूरा परिवार था जिसमें शुरु के उनके तीन बच्चे प्राय: मेरे बच्चों की ही उम्र के थे। बदायूं जिले में ही उनका घर होने पर, जब-तब उनके परिवार का कोई व्यक्ति या अन्य संबंधी वहां बना ही रहता था। शुरु में वे शहबाज़पुर में कश्मीरी होटल वाले एक पंजाबी परिवार के पिछले हिस्से में रहते थे, जो टिकटगंज के पास ही था। शाम को नवादा या फिर स्टेशन की ओर टहलना जैसे हमारी दिनचर्चा का हिस्सा था। बाद में कालेज में प्रवेश लेने और घर आना शुरु होने पर प्रदीप सक्सेना भी जब-तब हमारे इस सांध्य-भ्रमण अभियान में हमारे साथ रहते।
मोहदत्त कविता लिखते थे और पढऩे-लिखने में उनकी रुचि थी। मोहदत्त के आस-पास ही ब्रजेन्द्र अवस्थी भी कालेज में आ गए थे, हिंदी विभाग में। शहर की तरह कालेज भी छोटा था। कुल मिलाकर बीस-बाईस अध्यापकों का स्टॉफ, जिसमें सब एक-दूसरे से पारिवारिक रूप से जुड़े थे- भले ही कुछ लोग प्रिंसिपल के अधिक निकट और विश्वसनीय होने और दिखाने की कोशिश भी करते थे। उर्मिलेश, अमीरचंद वैश्य, विपिन सक्सेना आदि तब एम.ए. के छात्र थे। निबंध और पालि के दो पेपर्स को छोड़कर शेष कक्षाएं संयुक्त होती थीं प्रीवियस और फाईनल के छात्रों को मिलाकर।
बाबू विश्वंभर नाथ श्रीवास्तव काव्य रुचि वाले एक प्रतिष्ठित वकील थे, नई सराय के मोड़ पर। वहीं गली में उनका एक बड़ा-सा मकान था। श्रीवास्तव जी विधुर थे, गहरे आर्यसमाजी रंग में रंगे और अपने जबान होते बच्चों के साथ रहते थे। हम सब लोग उन्हें बाबूजी कहते थे। शाम को उनकी बैठक में नियमित जमावड़ा और काव्य-पाठ होता। कालेज के कई अध्यापक मैं, ब्रजेन्द्र अवस्थी, शिवनाथ अरोरा, मोहदत्त आदि वहां आ जाते जो तब सरकारी वकील थे, श्रीवास्तव जी के मित्र थे और कालेज की प्रबंध समिति के एक प्रभावशाली सदस्य थे। लेकिन उनका सबसे बड़ा परिचय एक काव्य रसिक और विनोदी प्रकृति के व्यक्ति के रूप में था। लड़कियों के एक प्रतिष्ठित इंटरकालेज राजाराम गल्र्स कालेज के, वे अध्यक्ष थे। वह शहर का इकलौता कालेज था जिसमें एक हॉस्टल भी था। श्रीवास्तव जी एक अच्छे होम्योपैथ भी थे। अपनी या बच्चों की हारी-बीमारी में उनसे दवाई मिल जाती थी। कुल मिलाकर शुरु का वह गहरे परिवार-भाव वाला दौर था।
इस जमावड़े में आपसी सोहाद्र्र बहुत कुछ एक बड़े परिवार के रुप में था। सब भरसक एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल तो थे ही, होली-दीवाली पर प्राय: ही व्यक्ति के यहां शाम को एक दिन गुझिया और दही-बड़े का आयोजन होता था। बदायूं में, शुरु में, यह दौर वहां नौकरी के प्राय: तीस साल में सबसे सुखद और स्मरणीय दौर था। मढ़ई चौक के आगे, कोतवाली के सामने बाबू राधेश्याम का बड़ा-सा मकान था। वे बकायदा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। सक्सेना होने पर भी नाम में वे उसे जोड़ते नहीं थे। रविवार  या ऐसी ही किसी छुट्टी में उनके यहां भी विचार-गोष्ठियां होती थीं, जिनमें प्राय: ही हम लोग - मैं और मोहदत्त - साथ जाते थे।
सांध्य भ्रमण वाला डेढ़-दो घंटा का हमारा समय खास तौर से साहित्यक गतिविधियों पर चर्चा का समय होता था। तब तक मेरी कोई किताब नहीं आई थी लेकिन आलोचना में एक पहचान बनने लगी थी। 'आज की हिंदी कहानी: विचार और प्रतिक्रिया' की पांडुलिपि मैं प्रकाशनार्थ गोपाल राम को भिजवा चुका था। मेरे पास आने वाली पत्रिकाओं और पुस्तकों में मोहदत्त की दिलचस्पी देखकर मेरा उत्साह भी बढ़ता था। प्राय: ही उस पढ़े हुए की चर्चा तो हम करते ही, अपने लिखे और आगे की योजनाओं की बात भी होती। मोहदत्त अंग्रेजी के अध्यापक थे। बड़े स्कालर वे भले न हों लेकिन अभिव्यक्ति का और संप्रेषण की दृष्टि से वे एक सफल अध्यापक थे - पारदर्शी, हंसमुख और अपने विषय की जानकारी की दृष्टि से चुस्त-दुरुस्त। अंग्रेज़ी साहित्य की एक बुनियादी समझ उनके पास थी। बाद में अपने विभागाध्यक्ष डॉ. शिवनाथ अरोरा के निर्देशन में उन्होंने उपन्यासकार लेविस पर पी.एच.डी. की डिग्री भी ली।
कालेज में ब्रजेन्द्र अवस्थी के आ जाने से हर वर्ष होने वाला कवि सम्मेलन बदायूं के लिए एक नई चीज़ था। उपरी तौर पर अवस्थी जी बहुत विनम्र और मिलनसार व्यक्ति थे, सामाजिक संपर्क का जिनका एक सघन संजाल था। जिले और मंडल के अधिकारियों में उनके राह-रस्म की उस कवि सम्मेलन में एक विशिष्ट भूमिका थी। प्रिंसिपल आर.पी. अग्रवाल शायद इस स्थिति के पूर्वानुमान के कारण ही अवस्थी जी के कालेज में आने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन प्रबंध समिति के कुछ प्रभावशाली सदस्यों को साथ कर अन्तत: वे कालेज में आही गए। फिर उनके आने के बाद ची•ों धीरे-धीरे बदलनी शुरु हुई और बहुत कुछ वैसा नहीं रहा जैसा था। अवस्थी जी के अपने व्यक्तित्व और उनकी कविता का प्रभाव इस अर्थ में संक्रामक था कि उनके आने से वार्षिक कवि-सम्मेलन के अलावा भी आस-पास के क्षेत्रों में छोटे-छोटे कवि सम्मेलन, गोष्ठियां या प्रबंध समिति और नगर के धनाढ्य व्यवसायी वर्ग के यहां होने वाले आयोजनों में कविता की भूमिका कुछ अधिक बढ़ गई। जितनी वह बढ़ी थी उनसे अधिक वह दिखाई देती थी। एम.ए. के बाद उर्मिलेश की नियुक्ति भी कालेज में हो गई थी। इसमें भी बाबू विश्वंभर नाथ श्रीवास्तव और जगदीश शरण रस्तोगी की एक विशिष्ट और निर्णायक भूमिका थी।
मोहदत्त व्यापक अभिरुचियों वाले व्यक्ति  थे। सेना की नौकरी में लंबी दूरी वाली उनकी तैनातियों ने इन दिलचस्पियों के साथ उनके अनुभव को भी एक धार दी थी। साहित्य, राजनीति, कला, स्पोर्टस और सिनेमा किसी भी विषय पर वे बात कर सकते थे- भरपूर उत्साह और जानकारी के साथ। सिनेमा देखने का उन्हें खास शौक था। अच्छे और बुरे की उनकी समझ अचूक थी। बदायूं में कोई अच्छी नई िफल्म आने पर वे पत्नी के साथ उसे देखने कभी-कभी हम कई मित्र भी इकट्ठे जाते। बरेली में जब प्रभा टाकीज़ का उद्घाटन हुआ हास्य और चरित्र अभिनेता ओमप्रकाश आए थे। उसमें लगी पहली $िफल्म राजेश खन्ना की 'आपकी कसम' थी। मैंने मोहदत्त के साथ उसे बदायूं से आकर देखा था। फिर हरमन हेस के गौतम बुद्ध के समय पर केंद्रित उपन्यास 'सिद्धार्थ' पर बनी अंग्रेजी $िफल्म भी हमने प्रभा टाकीज़ में ही देखी थी जिसमें मेनन साहब भी हमारे साथ थे।
ऐसे ही एक दिन शाम को घूमते हुए मैंने उनसे मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' की चर्चा की। फिर यह योजना बनी की इस नाटक को कालेज में मंचित किया जाए। इस योजना की चर्चा हमने प्रिंसिपल अग्रवाल से भी की। उन्होंने उत्साहपूर्वक अपनी सहमति जताते हुए हर तरह के सहयोग का आश्वासन दिया। छोटी जगह की व्यवहारिक कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए यह सुझाव भी उन्होंने दिया कि अभिनय के लिए लड़कियों को लेना ठीक होगा यानी कालिदास का अभिनय भी किसी लड़की से ही कराया जाये। पात्रों के चयन सहित काफी लंबी तैयारी और रिहर्सल के बाद अन्तत: यह नाटक कालेज-हॉल में किया गया। बदायूं के लिए यह एक नई चीज़ था। अरसे तक उसकी चर्चा बनी रही।
मोहदत्त की कल्पनाशीलता का भरपूर संकेत उस नाटक से मिला। मल्लिका के घर में पली गाय को मंच पर दिखाने के लिए एक नाद को मंच पर रखकर जंजीर को विंग के पीछे ले जाकर गाय के बांधे होने का आभास दिया गया। गांव के रंभाने के स्वर को टेप किया गया था। अनुभवहीनता और कुछ तकनीकी गड़बड़ी के कारण हैंगिग माइक्स ने ठीक काम नहीं किया। इसके कारण आवाज़ ठीक से दर्शकों तक नहीं पहुंच सकी। पीछे के दर्शकों को खासतौर पर असुविधा हुई। लेकिन हमारी अपील पर उन्होंने भरपूर सहयोग किया और जल्दी ही उस पर पार पा लिया गया। कालेज में जब यह नाटक हुआ, सुभाष वशिष्ठ तब तक कालेज में नहीं आए थे। इसके कई साल बाद उन्होंने 'रंगायन' की स्थापना की और बड़े पैमाने पर समूचे नगर को शामिल करके बदायूं में रंगकर्म और रंगचेतना के विकास का प्रयास, उसकी परिकल्पना में कहीं न कहीं 'आषाढ़ का एक दिन' का यह अनुभव भी ज़रूर रहा।
हिंदी कहानी में जब भीष्म साहनी 'चीफ की दावत' और ज्ञानरंजन 'पिता' जैसी कहानियां लिखकर अपनी परम्परा पुनरात्वेषण का प्रयास कर रहे थे, पिता को ही केंद्र में रखकर मोहदत्त ने कुछ मार्मिक और अर्थपूर्ण कवितायें लिखीं। उनकी लंबी कविता 'काल पत्रक' का हापुड़ में एकल पाठ एक अनुभव था।
अक्टूबर 1973 में दिल्ली जाते हुए एक रात हम लोग अशोक अग्रवाल के यहाँ हापुड़ में रुके थे। अशोक संभावना प्रकाशन के स्वामी और संचालक तो थे ही हमारी ही पीढ़ी के एक महत्वपूर्ण कहानीकार भी थे। उनके यहां रात्रि-भोज के बाद पन्द्रह-बीस श्रोताओं के बीच मोहदत्त ने 'कालपत्रक' का पाठ किया। यह लंबी कविता भी पिता को ही समर्पित थी: पूज्य पिताश्री को, जो आज हैं, किन्तु कल नहीं, होंगे और उन सन्तानों को जो आज नहीं हैं किन्तु कल होंगी,,, विगत अैर आगत को जोड़कर भी परिवर्तन की अपनी राह छेकी नहीं जा सकती -
अब हमारे लिए गांव नहीं रहा, पिता नहीं रहे,
स्नेह नहीं रहा, कोई नाता सम्बंध नहीं रहा।
अब हमें तन्हा सबसे अलग-अलग रहना होगा।
ढह गई होगी घनघोर बरसातों में
कच्ची-फच्ची दीवारें हमारे मकानों की,
टूट-फूट गए होंगे खिड़की और रौशनदान,
खंड-खंड हो गए होंगे आल्हाखंड की कड़कें
बरसाती रातों के दर्दीले स्वर-कम्पन,
ढोला-मारू की कथायें और बिरहा के गीत,
कुम्हारों के चाक पर बने हुए बर्तन, ताल-तलैया,
आम का बाग और भुतहा इक्का-पेड़।
अब कुछ भी शेष नहीं रहा होगा,
उस गांव में जो कभी हमारा था, हम सबका था।
श्रोताओं में अशोक अग्रवाल, सुदर्शन नारंग, प्रभात मित्तल सहित कुल मिलाकर कोई अठारह-बीस लोग थे। काव्य पाठ से पहले मैंने मोहदत्त और कविता के बारे में एक संक्षिप्त वक्तव्य दिया। काव्य-पाठ के बीच, कविता के आंतरिक प्रसंगों को लेकर मोहदत्त की टिप्पणियां कविता के उत्कर्ष को बढ़ाने वाली थीं। कार्यक्रम कोई ढाई घंटे चला होगा। कुल मिलाकर वह एक अद्भुत अनुभव था- श्रोताओं के साथ स्वयं हम लोगों के लिए भी। इसके बाद फिर हम सब लोग स्टेशन गए थे, चाय की तलाश में। चाय पीते हुए भी चर्चा उस कविता की तो होती रही। वहीं अशोक अग्रवाल ने अपना फैसला सुनाकर इस कविता को वो पुस्तक रूप में छापेंगे और उसकी एक लंबी भूमिका मुझे लिखनी होगी। अक्टूबर की आधीरात बीत चली थी। सड़कर पर चलते हुए हवा की सरसराहट हल्की सी कंपकंपाहट पैदा कर रही थी। कविता की भी अपनी गर्मी होती है, यह हमें उसी रात पता चला। फिर अगले दिन हम लोग दिल्ली चले गए थे।
दिल्ली में कवि - आलोचक डॉ. हरदयाल के यहां जाने पर मोहदत्त भी मेरे साथ थे। इधर-उधर की बातों और चाय-पकौड़ी के नाश्ते के बीच मोहदत्त की अपनी पसंद की एक-दो कविताएं सुनाने का अनुरोध किया। याद नहीं मोहदत्त ने अपनी कौन-सी कविताएं सुनाई थीं। कविताओं से पहले मोहदत्त ने उन कविताओं की पृष्ठभूमि पर एक संक्षिप्त-सा वक्तव्य भी दिया था, जिस पर कुछ नाक-भौं सिकोड़कर हरदयाल ने सीधे कवितायें ही सुनाने पर जोर दिया था। हरदयाल बदायूं के पास के ही एक ब्लाक जगत से सम्बद्ध थे। कइला में रहकर ही उन्होंने इंटर किया था। वे न सि$र्फ ब्रजेन्द्र अवस्ती से भी भलीभांति परिचित थे, बदायूं में बढ़ी मंचीय गतिविधियों और कालेज के कवि-समाज की जानकारी भी उन्हें थी। मंचीय कविता के बारे में प्रचलित आम धारणा से भी वे अछूते नहीं थे। मोहदत्त द्वारा सुनाई गई कविताओं से, मुझे लगा उनकी इस धारणा में कहीं एक दरार पड़ी है।
मोहदत्त वामपंथी रूझान के कवि-आलोचक थे। जिंदगी की गहमा-गहमी में अस्थिरता और भागदौड़ के बीच, जो सुविधा पहले उन्हें नहीं मिली थी, वह शायद बदायूं में मिली। जब भोपाल से अशोक वाजपेयी के संपादन में 'पूर्वग्रह' निकलना शुरु ही हुई थी। मेरे पास पत्रिका आती थी। वामपंथी आलोचकों को भी उससे जोडऩे का संपादक का आग्रह स्पष्ट था। पत्रिका की विश्वसनीयता और विस्तार के लिए शायद यह ज़रूरी भी था। लेकिन पत्रिका के कलावादी और वामविरोधी पूर्वग्रह भी अस्पष्ट नहीं थे। शुरु के पत्रिका के छह अंक मुझसे लेकर मेरे ही सुझाव पर मोहदत्त ने एक टिप्पणी लिखी उसके  संपादकीय पूर्वग्रहों और कलावादी रुझान पर। ज्ञानरंजन से पूछकर उनकी वह टिप्पणी 'पहल' के लिए मैंने ही भिजवाई थी। फिर पता नहीं वह टिप्पणी 'पहल' में न छपकर किसी और लेखक के नाम से 'धर्मयुग' में लगभग उसी रूप में छपी। इस प्रकार 'धर्मयुग' में उसके छपने पर हमें आश्चर्य और क्षोभ होना स्वाभाविक था। स्थिति की सूचना देते हुए हमने ज्ञानरंजन से जानना चाहा कि आखिर यह हुआ कैसे? हमारी ही तरह उनके लिए भी यह क्षोभ और आश्चर्य का विषय था। उनका अनुमान था कि उनके यहां से उसे कोई ले गया और उसी ने उसे 'धर्मयुग' को भिजवाया होगा।
बदायूं या कहीं भी मंचीय कवियों से मोहदत्त को अलगाने वाली जो चीज़ थी वह उनका यह आलोचनात्मक एवं वैचारिक लेखन था। इसमें पर्याप्त सूझ-बूझ के साथ उन्होंने अपने समय की वामपंथी कविता को रेखांकित एवं विश्लेषित करने का प्रयास किया। जब 'पहल' का माक्र्सवादी आलोचना अंक 13 निकला मेरे सुझाव पर ज्ञानरंजन ने उनसे 'वामकविता का सौंदर्यशास्त्र' शीर्षक लेख लिखवाया। बहुत-सी पुस्तकें और पत्रिकायें मुझसे लेकर, गंभीर और लंबी तैयारी के बाद मोहदत्त ने वह लेख लिखा। उसके 'पहल' के विशेषांक में छपने से उनकी एक पहचान बनी।
गोपाल राय को लिखकर मैंने नागार्जुन का तब हाल में ही प्रकाशित संग्रह 'तालाब की मछलियाँ' उनके लिए समीक्षार्थ मंगवाया था। उन्होंने 'समीक्षा' में उनकी समीक्षा लिखी थी। राजस्थान से प्रकाशित मोहन श्रोत्रिय की 'क्यों' भी उस दौर की एक महत्वपूर्ण वामपंथी लघुपत्रिका थी। मोहदत्त की कवितायें और आलोचनात्मक टिप्पणियों उसमें नियमित छपती थीं। सत्तर के दशक में मैनेजर पाण्डेय के जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में आ जाने पर जब मेरा दिल्ली जाना होता था, मोहन श्रोत्रिय जे.एन.यू. में ही शोध कर रहे थे। एक शाम आग्रहपूर्वक हम लोगों को उन्होंने भोजन पर बुलाया। भोजन की तो अब याद नहीं हैं लेकिन उनके पहले उन्होंने हमें जो अभास दिलाया था उसकी याद आज भी बनी है। उस शाम मोहदत्त के बारे में वे देर तक बातें करते रहे थे।
मोहदत्त का यह वामपंथी रुझान ही वस्तुत: हमारे बीच पनपी और विकसित हुई अंत्तरगता का मुख्य कारक था। इसी के कारण उनके साथ कई यात्रायें भी की गई। 1974 में लखनऊ में राहुल सांस्कृत्यायन के जन्मदिन पर होने वाली राष्ट्रीय संगोष्ठी, हम लोग साथ ही गए। आगरा में रामविलास शर्मा, भीष्म साहनी, केदारनाथ अग्रवाल, अमृतलाल नागर, विश्वंभरनाथ उपाध्याय, कमलेश्वर सहित युवा पीढ़ी के अनेक लेखकों से पहली बार मिलना हुआ। उस पूरे आयोजन में इप्टा के राजेन्द्र रघुवंशी का पूरा परिवार अत्यन्त समर्पित भाव से जुटा था। उनके परिवार की महिलायें भोजन ही नहीं परोसती थीं, खाने के बाद झूठी पत्तलें भी उठाती थीं। रात में जहां बरामदे में हमारा बिस्तर लगा था, देर रात तक ऐसी ही बहस हम लोग बिस्तर में लेटे-लेटे सुनते रहे थे।
फरवरी 1979 में प्रकाशन संस्थान दिल्ली से आई मेरी पुस्तक 'सिलसिला' की पहली प्रति मोहदत्त ही शाहजहाँपुर से लेकर आए थे। राजेन्द्र मेहरोत्रा के विवाह में जाना मुझे भी था लेकिन मैं जा नहीं सका था। मोहदत्त गए थे और वहीं उनकी भेंट हरीश चंद्र शर्मा से हुई थी। वे किताब की दो प्रतियां लेकर आए थे जिनमें से एक उन्होंने मुझे देने को मोहदत्त को दे दी थी। पूछने पर उन्होंने बताया, 'आ तो दो दिन पहले ही गया था सर्दी-जुकाम की वज़ह से कालेज गया नहीं'... बीच में एक दिन शायद रविवार भी था। किताब को उलट-पुलट कर देखते हुए मैंने कहा, 'किताब तो किसी के हाथ भिजवा देते... मैं तो दिल्ली से उसके आने की प्रतीक्षा कर रहा था... हंसते हुए उन्होंने बताया कि इस किताब के कारण ही वे खासतौर से कॉलेज नहीं गए। आराम करते हुए इसे इत्मिनान से पढ़ा फिर उसकी टिप्पणी थी, 'शुरु करने के बाद उसका छोडऩा मुश्किल हो गया'... किसी आलोचना की किताब के लिए यह बड़ी बात थी। फिर इसके कुछ दिन बाद राजेन्द्र यादव का एक लंबा पत्र मुझे मिला। उन्होंने भी ऐसा ही कुछ लिखा था। जब हरीशचंद्र शर्मा ने किताब उन्हें दी, वे 'चन्द्रकांता' की भूल-भुलैया में खोए थे। लेकिन किताब खत्म किए बिना वे कुछ और कर नहीं सके। मोहदत्त के मामले में इस बात का महत्व इसलिए भी था कि किताब में चर्चित लेखकों और कहानियों का बड़ा हिस्सा उन्होंने पढ़ा नहीं था। आगे चलकर 'हिंदी कहानी का विकास' को लेकर सुभाष वशिष्ठ ने भी कुछ इसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।
कॉलेज में अवस्थी जी की बढ़ी हुई सक्रियता और उर्मिलेश की नियुक्ति के बाद स्थितियाँ बदलने लगी थीं। बदायूं में तो बड़ा कवि-सम्मेलन हर वर्ष होता ही था, बाहर भी उनका खूब जाना होता था। बाद में सुभाष वशिष्ठ के आ जाने से एक गीतकार और बढ़ गया। फिर श्रीकान्त मिश्र के आ जाने से विभाग में पाँच आदमी हो गए थे। डॉ. मित्तल के किनारे करके अवस्थी जी अब विभाग के इन्चार्ज थे, कइला के अपने अनुभव के आधार पर। शुरु के वर्षों में केवल तीन आदमी होने से मैंने एम.ए. में काव्य का पेपर भी लिखा था। लेकिन गद्य, कथा-साहित्य और नाटक के साथ फाइनल में निबंध का पेपर शुरु से ही मेरे पास रहा। निबंध को मैं हिंदी साहित्य के इतिहास से जोड़कर पढ़ाता था। कालक्रमानुसार साहित्यिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, प्रवृत्तियाँ प्रमुख लेखक और उल्लेखनीय कृतियों आदि का ब्यौरा देते हुए। इन अलग-अलग और उल्लेखनीय कृतियों आदि का ब्यौरा देते हुए। इन अलग-अलग काल-खण्डों एवं प्रमुख लेखकों पर उपलब्ध उल्लेखनीय आलोचनात्मक सामग्री का हवाला भी मैं देता था।
डॉ. ब्रजेन्द्र अवस्थी उपर से बहुत विनम्र और व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। मोहदत्त और उर्मिलेश को जब-जब वे अपने साथ कवि-सम्मेलन में ले जाते थे। इससे उन लोगों का अर्थ-लाभ भी होता था और कवि के रूप में उनकी पहचान भी बनती थी। शुरु के वर्षों में बदायूं के कवि सम्मेलन में मैं भी सपरिवार जाता था। कवियों के रात्रि-भोज में अवस्थी जी मुझे जर्बदस्ती शामिल करते थे - उर्मिलेश और मोहदत्त ही मुझे घर से ले जाते थे।
अवस्थी जी के साथ बढ़ी हुई मोहदत्त की सक्रियता से एक, बदलाव भी उनमें साफ दिखाई देता था। अब वे बिना कोई सूचना दिए एक-दो दिन को गायब हो जाते थे। शाम को घूमने के लिए कभी वे मेरी ओर आ जाते थे, कभी मैं उनकी ओर चला जाता था। चूंकि आने-जाने का रास्ता एक था, जब-तब हम लोग रास्ते में ही मिल जाते थे। अब जब-तब उनके घर पहुंचने पर पता चला कि वे घर पर नहीं हैं। कभी शहर में कहीं उनके जाने की बात कही जाती, कभी कहीं और कभी-कभी गांव या चंदौली जाने की बात कही जाती। बाद में पता चलता कि वे कवि सम्मेलन में गए थे। कवि सम्मेलनों का आयोजन छुट्टियों के दिनों में अधिक होता या फिर शनिवार को जिससे रविवार के कारण कालेज में भेंट का अवसर भी वहीं रहता था। लेकिन फिर भी अधिकतर मामलों में सच्चाई देर-सबेर सामने आ ही जाती थी।
विभाग में अवस्थी जी ने बहुत चुपचाप ढंग से उर्मिलेश को साधकर मेरे विरुद्ध एक मुहरे की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश शुरु कर दी थी। एक सत्र में निबन्ध वाला मेरा पेपर उर्मिलेश को दे दिया गया। पूछने पर पता चला कि उर्मिलेश की इच्छा उसे पढ़ाने की थी। फिर अवस्थी जी ने बहुत आत्मीयता-पूर्वक फुसफुसाते हुए और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा 'वह सबसे छोटा है और अपना छात्र भी रहा है... उसकी खुशी हम सबकी खुशी है... और फिर आपको किसी भी पेपर से क्या फर्क पड़ता है?' उस वर्ष मैंने काव्य शास्त्र और हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाया। छात्रों ने जब-तब कहा भी कि निबन्ध मैं पढ़ाता तो अच्छा था, लेकिन इसे मैंने कभी तूल नहीं दिया। अगले साल उर्मिलेश ने स्वयं ही वह निबन्ध वाला पेपर छोड़ दिया, 'भाई साहब, उसे आप ही पढ़ायें...'
एक दिन उर्दू आलोचक वीरेन्द्र सक्सेना ने घर आने पर बताया कि मेरी किताब 'सिलसिला' पर आकाशवाणी रामपुर से राजीव अवस्थी की समीक्षा आने वाली है। तरीख और समय की सूचना भी उन्होंने दी। सुनकर मेरा हैरान होना स्वाभाविक था। सक्सेना को यह जानकारी स्वयं राजीव से मिली थी। राजीव अवस्थी का बड़ा लड़का था और एम.ए. में मेरा छात्र रहा था। समीक्षा सुनकर साफ हो गया कि राजीव का उससे कुछ लेना-देना नहीं है। उसके लिए सिर्फ उसके कंधे का उपयोग किया गया है। एम.ए. में नम्बर बढ़वाने और बाद में की गई पी.एच. डी. या फिर नौकरी के लिए साक्षात्कार के प्रसंग में उसके कई किस्से तलीफों की तरह मशहूर थे। उस समीक्षा को सुनकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि यह सब मोहदत्त का करा-धरा है। कारण जो भी रहे हों, वे सीधे सामने नहीं आना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने राजीव के नाम का इस्तेमाल किया था। किताब आकाशवाणी रामपुर पर समीक्षा कैसे आई, आई भी या नहीं, यह सब कुछ रहस्य ही बना रहा।
मेरे बदायूं रहते 1971 में 'आज की हिंदी कहानी' से लेकर 1998 में 'हिंदी उपन्यास का विकास' तक मेरी बारह-चौदह किताबें आई। पहली किताब में चूंकि पैसा गोपाल राय ने लगाया था ग्रंथ प्रकाशन, पटना के नाम पर, उसकी कुछ प्रतियाँ उन्होंने मुझे भिजवाई थीं जिन्हें परिचितों एवं मित्रों को देकर उनका पैसा मैंने उन्हें भिजवाया था। तब उसकी ेक प्रति ब्रजेन्द्र अवस्थी को भी दी थी। उस पर मैंने लिखा था, 'पैसा लेकर किताब देने की मजबूरी के लिए क्षमा-याचना सहित... अपने हस्ताक्षर करके मैंने तारीख भी डाली थी। लेकिन मुझे नहीं लगता कि विभाग के किसी भी व्यक्ति ने बाद में सुभाष वशिष्ट और श्रीकान्त मिश्र को छोड़कर, मेरी कोई किताब कभी पढ़ी हो। बाद में कोई नई किताब आने पर उर्मिलेश खासतौर से िकताब खरीदता था, मुझ से, लेकिन शायद ही उसने कभी कोई किताब पढ़ी हो।
मोहदत्त से इस बीच दुआ-सलाम वाले संबंध भी समाप्त हो चुके थे। वे पूरी तरह अवस्थी जी के साथ थे और अवस्थी तथा उर्मिलेश के साथ कवि-सम्मेलनों में जाते थे। गंभीर पठन-पाठन और पत्रिकाओं में उनका लिखना बंद था। राजीव की आकाशवाणी वाली उस समीक्षा को लेकर मेरे अनुमान की पुष्टि कुछ दिन बाद हो ही गई। मोहदत्त और शायद ब्रजेन्द्र अवस्थी के संयुक्त संपादन में बदायूं से एक त्रैमासिक पत्रिका 'मंच' का प्रवेशांक प्रकाशित हुआ। उसका संपादकीय पता ब्रजेन्द्र अवस्थी का ही था - 'मनोरमा' कविनगर बदायूं। उसके संपादकीय में स्वयं अपने को क्रांतिकारी रण बांकुरें के रूप में स्थापित करने के साथ कुछ सुविधाजीवी वामपंथी लेखकों की मज़म्मत की गई थी जो अपनी पत्नी की जांघों पर सिर रखकर सोते-बैठते हैं। उस संपादकीय से यह भी लगा कि क्रांति बहुत जल्दी ही आने वाली है और 'मंच' से जुड़े लोग भी पुरानी चुंगी वाले तिराहे पर उसके स्वागत की तैयारी में हैं। पत्रिका का आखिरी धमाका यह था कि उसमें 'सिलसिला' पर चंचल चौहान की समीक्षा थी - पर्याप्त विध्वंसक जिसमें मेरे साथ ही नामवरसिंह पर भी कुछ  तीखी टिप्पणियां थीं क्योंकि मेरी किताब में कहानी की आलोचना के संदंर्भ में एक लेख नामवरसिंह पर भी था। बाद में शायद कभी प्रदीप सक्सेना ने चंचल से भेंट होने पर, उन्हें सारी वस्तुस्थिति बताई थी। 1980 में प्रेमचंद जन्म शताब्दी वाले कार्यक्रम में जो जे.एन.यू. और साहित्य अकादमी का संयुक्त कार्यक्रम था, भेंट होने पर चंचल चौहान ने बहुत आत्मीयता से मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर थपथपाते हुए एक ओर खड़े होकर कहा, 'आपकी किताब वाली समीक्षा में आपके साथ कुछ ज्यादती हुई है।'
मैंने सिर्फ उनसे इतना ही कहा, 'यह आपका कैसा माक्र्सवाद है जिसमें इतनी जल्दी राय बदलने की ज़रूरत पड़ जाती है...? मैंने उनसे यह नहीं पूछा कि मोहदत्त से उनका सम्पर्क कैसे हुआ और उस समीक्षा को लिखने की उनकी क्या मजबूरी थी।
जब मोहदत्त से आत्मीयता और अन्तरंगता का लंबा दौर चला और आज जब बहुत कुछ समय की धूल-मिट्टी के नीचे दब गया है, यह विश्वास ही उस संबंध का मूलाधार था कि मंच उनका सच नहीं है। अपने समय की विद्रूपताओं को पहचानने की उनमें अचूक क्षमता थी। जब वे अपनी कविता में व्यंग्य का उपयोग करते हैं अपने समय और समाज को बदलने की उनकी गहरी इच्छा इसके मूल में होती है। मोहभंग से उपजी हताशा उनकी कविताओं में रह-रहकर उभरती है। यह मोहभंग एक ओर यदि राजनीति की जड़ता और विसंगतियों से उपजा है वहीं मनुष्य की निरूपायता की भी इसमें एक विशिष्ट भूमिका है। एक कवि के रूप में उनकी सबसे बड़ी पीड़ा यह थी... 'हम सब असफल क्रांति के जनक है...' मोहदत्त की एक कविता है 'चुम्बीथांग के डाक बंगले में बिताई एक रात' यह उनकी बहुत प्रसिद्ध या जानी-पहचानी कविता नहीं है। लेकिन कविता में ठंडा और बर्फीला क्षेत्र कैसे कैसे समूची व्यवस्था का प्रतीक बनकर आम आदमी की निरुपायता को उद्घाटित करता है, यही वस्तुत: उसे एक उल्लेखनीय कविता में बदलता है। वह स्पार्टकस और प्रोमेथियस हो सकने का सपना देखता है, उस ठंडे और बर्फीले क्षेत्र में संघर्ष और आग का सपना और फिर जब ऐसा कुछ नहीं हो पाता, ठंड से थरथराते जबड़ों की उस थराथराहट को रोकने के लिए वह अपना ही जूता अपने जबड़ों में रखकर चबाने की कोशिश करता है।
मंच के कवि लिखते हैं, पढऩे में उनका विश्वास नहीं होता। अच्छे और सौहाद्र्रपूर्ण दिनों में जब कभी अवस्थी जी से बात होती थी मैं प्राय: ही बच्चन और दिनकर का उदाहरण देता था। मंच लूटते कवियों के सिरमौर होने पर भी वे कितने पढ़े-लिखे व्यक्ति थे, यह उनकी गद्य रचनाओं से पता चलता है। बच्चन की आत्मकथा और 'प्रवास की डायरी' तथा दिनकर की 'संस्कृति के चार अध्याय' और 'लोकदेव नेहरू' के बाद यह सुनिश्चित करना मुश्किल होता है कि वे कवि बड़े हैं या गद्यकार। फोहश चुटकुलों, तालियों और दहाड़ से मंच नहीं लूटा जाता है।
मोहदत्त ने कविता के अलावा बड़ी मात्रा में गद्य लिखा है। उनके पुत्र प्रतुल गौड़ के प्रयासों से चार खण्डों में जो उनकी रचनावली आई है, उससे उनके इस गद्य के विस्तार को देखा जा सकता है। 'हिंदी की वाम कविता का सौंदर्य शास्त्र', 'जनवादी रचना की बुनियादी ज़रूरतें' या फिर 'तालाब की मछलियाँ' पर लिखी गई उनकी समीक्षा आदि यह प्रमाणित करने को पर्याप्त हैं कि उनका गद्य कैसी वैचारिक ऊर्जा से दीप्त था। कभी मैंने ही उन्हें पढऩे को कवि श्रीकान्त वर्मा के साहित्यिक निबंधों की किताब 'ज़िरह' दी थी। फिर मेरे ही आग्रह पर उन्होंने उस पर लिखा था। उस पर उनकी समीक्षा की अंतिम पंक्तियां हैं : ''जिरह' इस प्रकार के ढेर सारे बेबुनियाद कंकड़-पत्थरों को इकट्ठा करके व्यंग देने के खयाल से बताई गई ऊँची इमारत है जिसमें सत्ता प्रतिष्ठानों की भव्यता, पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पोषित पच्चीकारी और एक भाड़े के सिपाही से ज़ेहाद लडऩे वाले कलाकार की दस्तकारी है''...
क्या यह तेवर किसी मंचीय कवि का होता है? और इसकी भाषा? इसके लिखे जाते समय इस सवाल का जो जवाब था, आज भी वही है - नहीं, हर्गिज़ नहीं।

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