मैंने आम पाठकों के लिये लिखा है

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    जुलाई - 2017
श्रेणी मैंने आम पाठकों के लिये लिखा है
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम लक्ष्मेंद्र चोपड़ा





स्मरण/बातचीत




प्रख्यात पंजाबी साहित्यकार स्व. गुरदयाल सिंह से लक्ष्मेंद्र चोपड़ा की बातचीत



स्व. गुरदयाल सिंह पंजाबी ही नहीं संपूर्ण भारतीय साहित्य के एक अनिवार्य नाम हैं। पंजाब की सदियों पुरानी प्रेम और पारंपरिक आध्यात्मिक मिथकों की लोकरसधारा के नए शिल्प में, खुले विश्व बाज़ार की आर्थिक, सामाजिक तथा पारिवारिक समस्याओं से जूझते, उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र बहुत गहरे तक पाठकों के मन में उतर जाते हैं।
''काला चश्मा जंचदा है
जंचदा है गोरे मुखड़े ते''-

बालीबुड के किसी रंगीन सिनेमा में यह गीत पंजाब से ही आया है। पंजाब की मस्ती और सम्पन्नता के ग्लेमर की सिनेमाई तस्वीरों में सरसों के पीले फूलों से लदे मीलों लंबे खेत हैं। इन खेतों में सुनहरी कनक दानों की बालियों के बीच चमकती लंबी आयातित कारें दौड़ाते गबरु जवान हैं। इनके साथ आधुनिक न्यूनतम पोशाकों में सजी-धजी, देशी कम विदेशी ज्यादा, युवतियां कामुक नृत्य मुद्राओं में थिरकती दिख रही हैं। कुल मिलाकर विश्व-बाज़ारों की इस मौज-मस्ती की इन पंजाबी पॉप धुनों में चंड़ीगढ़ ही नहीं सात समंदर पार का लंदन भी ठुकमता जान पड़ता है। कुछ इस तरह

न घंटी बिग बैंग दी
पूरा लंदन ठुमकदा
और जद्दों बच्चे पहंदी
पूरा लंदन ठुमकदा।

इसी चमकते-दमकते पंजाब के आम जनजीवन में बहुत कुछ ऐसा भी है; जो इन रंगीन ग्लेमरस पन्नों के हाशिये में जीने वाले समाज की वेदनाओं के नाम दर्ज है। इनमें ग्रामीण तथा कस्बाई पंजाब के किसान, कारीगर, कामगार; दलित और दरिद्र आमजन हैं। उनकी दरिद्रता के कुहासे में पाखंड, छल-कपट, शोषण तथा विद्रूपताओं के विरुद्ध सामाजिक संघर्ष की जगमगाती चिंगारियां हैं। गुरदयाल सिंह जी की कृतियां पंजाबी साहित्य की इसी यथार्थवादी साहित्य के सुलगते सवालों के तंदूर की लोकचेतना से पकी हैं। यह आग उन्होंने स्वयं अपने जीवन के अनुभवों से सुलगायी है।
गुरदयाल सिंह का जन्म 10 जनवरी 1933 को ठेठ पंजाब के एक निम्न मध्यवर्गीय मेहनतकथ बढ़ई दस्तकार परिवार में हुआ था। उन्होंने स्वयं अपने आरंभिक जीवन में कई वर्षो तक बढ़ई का काम किया। विश्वविद्यालय प्राध्यापक बनने के बाद भी उनके बढ़ईगिरी के औजार उनक पास सुरक्षित थे। कारीगर जीवन के कठिन अनुभव तथा संघर्ष गाथा ही उनके रचना संसार का वास्तविक आधार बनी थी।
साहित्य में  मुंशी प्रेमचंद, मैक्सिम गोर्की, लू शुन तथा टॉलस्टाय को अपने लेखन का आदर्श मानने वाले प्रोफेसर गुरदयाल सिंह जी को भारतीय ग्रामीण समाज के किसानों कारीगरों तथा मेहनतकशों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में याद किया जाता है। उनके दस उपन्यास; ग्यारह कथा संग्रह, तीन नाटक, आठ गद्य पुस्तकों के साथ दो खंडों में आत्मकथा तथा बच्चों के लिये लिखी कई किताबें भी प्रकाशित हुई। देश-विदेश की कई भाषाओं में उनके अनुवाद हुए। उनके सभी उपन्यास तथा आत्मकथा के हिंदी अनुवाद उपलब्ध हैं। ज्ञानपीठ के अतिरिक्त उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार; सोवियत लेंड नेहरू पुरस्कार तथा पद्यमश्री से भी सम्मानित किया गया था।
संभवत: यह वर्ष 2000 की बात है। मैं आकाशवाणी जलंधर में केंद्र निदेशक पद पर था। वर्ष के आरंभ में पंजाब के साहित्य जगत के लिये एक अच्छी खबर आयी। गुरदयाल सिंह को हिंदी के अद्भुत गद्यकार श्री निर्मल वर्मा के साथ भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा की गयी। इसके पहले वर्ष 1982 में यशस्वी पंजाबी लेखिका सुश्री अमृता प्रीतम को यह सम्मान मिल चुका था। लेकिन अमृता जी मूलत: दिल्ली में रहती थीं। इस प्रकार पंजाब के साहित्यक जगत में इस घोषणा का पंजाब के नाम पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार के रुप में स्वागत किया गया। हम उनके कालजयी उपन्यास ''मढ़ी द दीवा'' का धारावाहिक नाट्य रूपांतरण अपने श्रोताओं के लिये प्रसारित कर चुके थे।
''मढ़ी द दीवा''- यथार्थ कहन के अद्भुत वाचक गुरदयाल सिंह जी का पहला उपन्यास हैं। वर्ष 1964 में प्रकाशित इस उपन्यास के महत्व की तुलना विश्वविख्यात रूसी उपन्यासकार टालस्टाय के उपन्यास ''युद्ध और शांति'' से की जाती है। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ''गोदान'' की तरह यह उपन्यास भारतीय ग्रामीण समाज के अभावों और दरिद्रता की त्रासदियों की दुखांत महागाथा है। इस उपन्यास का नायक जगसीर कष्टों तथा वेदना के बीच पनपे मौन प्रेम की परंपरा का एक ऐसा स्वाभाविक पात्र है, जिसे सामाजिक क्रूरताओं के चलते अपने पिता की मढ़ी, अर्थात समाधि, पर आदरांजली अर्पित करने का अधिकार भी नहीं मिल पाता। भारतीय ग्रामीण समाज में दलितों के पारंपरिक शोषण के सच को बयान करता यह उपन्यास वर्ष 1964 में तब प्रकाशित हुआ था; जब संभवत: दलित साहित्य आंदोलन ने अपनी आंखें भी नहीं खोलीं थीं। मूल पंजाबी में लिखे इस उपन्यास के हिंदी तथा रूसी सहित देश-विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवादों ने अपार लोकप्रियता प्राप्त की है।
''मढ़ी द दीवा''- उपन्यास पर वर्ष 1989 में राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा इसी शीर्षक से एक फीचर फिल्म भी बनायी गयी थी। इसे विश्व सिनेमा में बहुत पसंद किया गया था।
गुरदयाल सिंह जी की साहित्य यात्रा के क्रमिक विकास को पंजाब के ग्रामीण समाज के अंदर घटने वाली घटनाओं के समानांतर समझा जा सकता है। ये घटनाऐं बिना किसी बनावट के साहित्यिक कला मूल्यों के साथ उनके संवेदनशील पाठकों के यथार्थलोक में उपन्यासों तथा कथाओं के रूप में लोकप्रिय होती रहीं। अपनी रचना यात्रा में वे स्मृतियों; परंपराओं के साथ-साथ आधुनिक खुले बाज़ार की नीतियों की विसंगतियों और समस्याओं के दस्तावेज रचते रहे।
वर्ष 1976 में प्रकाशित उनके उपन्यास ''अन्ने घोड़े का दान'' (अंधे घोड़े का दान) पर वर्ष 2011 में राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा इसी शीर्षक से एक पंजाबी फीचर फिल्म प्रदर्शित की गयी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। यह उपन्यास वर्ष 1970 के बाद पंजाब के कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश तथा उनकी नीतियों तथा अर्थव्यवस्था के कारण पंजाब के किसानों की व्यथा की कथा पर आधारित है।
वर्ष 1992 में प्रकाशित उपन्यास 'परसा' में गुरदयाल जी के पात्र पंजाब के लोकमानस में पैठ बनाते नए बाज़ार के विरोधाभासों की प्रवृतियों को एक ही परिवार में पीढिय़ों के संघर्ष की कथा रुप में पाते हैं। पंजाब के पारंपरिक पिता की भूमिका में उपन्यास के प्रमुख पात्र परसा के तीनों ही पुत्रों को तत्कालीन समाज में तेज़ी से घटती घटनाओं का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ा खेल प्रशिक्षक पुत्र विदेश में जा बसता है। आदर्शवादी पिता परसा का दूसरा पुत्र भारतीय नौकरशाही के प्रतीक एक पुलिस अधिकारी के रुप में उभरता है। जबकि परिवार का सबसे लाड़ला छोटा बेटा विकास के टूटते सपनों का शिकार हो नक्सलवादी गतिविधियों के कारण पुलिस की गोली का शिकार हो जाता है। मूल रूप से वर्ष 1957 में प्रो. मोहन सिंह की साहित्यक पत्रिका पंजदरिया से अपनी पहली कहानी ''भागांवाला'' (भाग्यवान) के साथ अपने लेखन का सफर आरंभ करने वाले गुरदयाल सिंह जी का ''परसा'' भारतीय समाज की टूटती आस्थाओं का, पलायन करती पीढ़ी के रुप में अभिव्यक्त करता है।
गुरदयाल सिंह जी का अधिकांश लेखन आज़ाद भारत में बदलती व्यवस्थाओं की विसंगतियों के बीच चकित आदर्श मूल्यों के यथार्थ की जनगाथा है जिसमें पंजाब के मालवा अंचल के मिथक आधुनिकता और पूंजीवादी बाज़ार की सोच के विरोधाभासों के साथ अलग-अलग कालखंडों में, सच जान पड़ते पात्रों और अप्रत्याशित घटनाओं के रूप में उपस्थित हैं।
गुरदयाल सिंह जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व की सहज सरलता और साफगोई पाठक, इस साक्षात्कार में महसूस करेंगे। यह साक्षात्कार वर्ष 2000 में आकाशवाणी के अखिल भारतीय कार्यक्रम के लिए रिकार्ड किया गया था।
आप लेखक होंगे? यह आभास आपको अपने जीवन में कब हुआ?
सच कहूँ; मुझे कभी भी अपने जीवन में ऐसा अहसास नहीं हुआ कि मैंने लेखक बनने के लिए ही जन्म लिया है। कारण शायद उसका यह था कि जब मैंने आरंभ में कहानी लिखना शुरु किया तो मैंने कुछ पुस्तकें पढ़ी थीं। अपने इस अध्ययन से मैं यह समझ पाया कि लेखन मूलत: एक सामाजिक कार्य है। इस प्रकार अपने लेखन को मैंने अपने सामाजिक दायित्व निभाने के माध्यम के रूप में ग्रहण किया। मैं चाहे कहानी लिखता रहा; उपन्यास लिखता रहा लेकिन मैंने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया कि मैं कोई बहुत विशेष कार्य कर रहा हूँ।
हां; यह अवश्य है कि लेखन के लिए पात्रों का चित्रण; कथा विस्तार तथा भाषा के कला-कौशल की जो आवश्यकताएं होती हैं; वह सब मैंने संसार की कालजयी रचनाओं के गहन अध्ययन से सीखने की कोशिश की। लेकिन मुझमें कोई दैवीय प्रतिभा है ऐसा मैंने कभी महसूस नहीं किया।
निश्चित रूप से यह आपकी सादगी और विनम्रता है ऐसा कहना। हर कृति; चाहे आकार में लघुकथा हो या कहानी अथवा वृहद उपन्यास; उसका एक मुख्य केंद्रीय लक्ष्य होता है। आप अपने लेखन के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं?
पहले तो मैं यह कहना चाहूंगा कि साहित्य, धार्मिक या राजनैतिक क्षेत्र से अलग विधा है। धर्म और राजनीति में प्रचार करते समय सीधे-सीधे आम लोगों से कहा जाता है- ऐसा करो अथवा ऐसा नहीं करना चाहिए। साहित्य में ऐसी निर्देशात्मक संभावनाएं नहीं होती हैं। लेखक अपनी रचना का जो लक्ष्य निर्धारित करता है; वो उस रचना के पात्रों; पात्रों की परिस्थितियों; जीवन की घटनाओं तथा आपसी संवादों के तार्किक चित्रण के माध्यम से रची जाती हैं।
जहां तक मेरे लेखन के लक्ष्य का प्रश्न है; वह यह है कि मैं आम इंसानों के यथार्थ जीवन को ऐसे रूप में अपने कृति में प्रस्तुत कर पाऊं कि उसमें मेरे पाठक अपने जीवन के यथार्थ की सच्चाइयों को समझ सकें। इन सच्चाइयों के माध्यम से वे अपने जीवन की समस्याओं के बारे में चेतन हो सकें। उस चेतना के द्वारा उनके मन में एक समझ विकसित हो सके कि वे अपने जीवन में जो कष्ट भोग रहे हैं इनके समाधान क्या हो सकते हैं? वे स्वयं इस बारे में सोचें।
इसका अर्थ हुआ कि अगर कोई कृति अपने पाठकों में चेतना अथवा जागरण का संचार नहीं करती है, तो आप उसे मूल्यवान नहीं मानते?
बिल्कुल सही कहा आपने। मेरा लक्ष्य हमेशा यही रहा है कि मैं अपने पाठकों के यथार्थ जीवन की वे बातें उनके सामने लाऊं, जिनकी ओर वे अभी तक स्वयं जागरूक नहीं हैं। वे समस्याएं समझें, उनका विश्लेषण करें; उन समस्याओं का हल तलाशने के लिए स्वयं संघर्ष करें। अगर मैं इसमें सफल रहा हूं तो मेरा लेखन सार्थक है।
गुरदयाल सिंह जी आप अपने लेखन में पंजाब के देशी मिथकों तथा रुप-रस की लोकपरंपराओं के सफल प्रयोग के लिए पहचाने जाते हैं। यथार्थ आपकी रचनाओं का मूल आधार है। आप अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में परंपरा और प्रयोग के सामंजस्य के संबंध में क्या सोचते हैं?
हाँ यह बात आपकी ठीक है। इस संबंध में यही कहूंगा कि मेरी कृति का लक्ष्य ही प्रधान है। वही तय करता है कि इसमें मुझे परंपरा से कितना लेना है तथा रचना के प्रभावी बनाने के लिए प्रयोग कितने करने हैं। यहां एक बात मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि केवल प्रयोग के लिए प्रयोग करना; अथवा मात्र परंपराओं के ज़िंदा रखने के लिए उनका उपयोग उचित नहीं है अगर ऐसा होता है तो मैं उसे सार्थक साहित्य नहीं मानता।
यह मान्यता है कि रचनात्मक साहित्य, विशेषकर कहानी और उपन्यास में लेखक जो कहना चाहता है, उसमें उसकी आत्मकथा तथा अनुभवों के भी तत्व होते हैं। आप अपने लेखन के संदर्भ में क्या सोचते हैं इस बारे में?
यह एक स्वाभाविक बात है कि जब एक लेखक लिखने लगता है तो उसके अपने जीवन के अनुभव उसके अंदर आते ही हैं। उसके अनुभव उसके मन में सबसे सशक्त भी होते हैं।
लेकिन एक सचेत लेखक को यह समझना चाहिए कि उसके लेखन का एक विशेष लक्ष्य है। उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि केवल उसकी मानसिक इच्छाओं के कारण, उसके जीवन के वो अंश रचना में नहीं आने चाहिए, जो उस कृति के लिए अनिवार्य नहीं हैं।
पूर्वाग्रह मुक्त?
बिल्कुल। अगर मैं केवल अपने जीवन के अनुभवों को ही रचना का आधार मानूं तो प्रत्येक कृति मात्र एक सी ही आटोबायग्राफी रचना बनकर रह जाएगी। साहित्य का सीधा संबंध हमारे समाज से है। समाज में लेखक जैसे लोग भी हैं और अलग किस्म के लोग भी हैं। जब मैं अपने पात्रों का चुनाव करता हूं, तो ये पात्र मेरे मन से अथवा अपने भीतर से नहीं उत्पन्न होते। ये पात्र; कथानक, समाज के परिवेश से आते हैं। इसलिए मैं यह मानता हूं कि लिखते समय आत्म अनुभवों के अंश तो आयेंगे ही; परंतु उनके बारे लेखक को अति सचेत होना चाहिए।
अगर लेखक की अपनी अतार्किक इच्छाऐं अथवा मानसिक भ्रम बिना परखे अकारण रचना में आएंगे तो वे कृति के साथ न्याय नहीं करेंगे। समझने वाली बात ये है कि साहित्य का संबंध समाज से ही है।
अब कुछ बातें आपके पात्रों के बारे में करें। आपने स्वयं कहा कि रचना में लेखक की आत्मकथा तथा स्व अनुभवों के कुछ अंश तो हो सकते हैं। लेकिन मूलत: वे पात्रों के माध्यम से अलग-अलग सामाीिजक अनुभवों से आते हैं। यह कहा जाता है कि लेखक का ईश्वर उसके सामाजिक अनुभवों का ज्ञान होता है। आपके कुछ उपन्यासों के पात्र हैं - जैसे ''मढ़ी दा दीवा''; आपका बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है; रूसी में इसका अनुवाद भी हुआ है। इस उपन्यास का एक पात्र है - ''जगसीर''। आपका एक उपन्यास है - ''अन्होए'' - हिंदी में ये छपा ''घर और रास्ता'' के नाम से। ''अन्होए'' का मुख्य पात्र है - ''बिश्ना''। बिश्ना पात्र काफी चर्चित भी हुआ।
बिल्कुल।
आपके उपन्यास ''अधचांदनी रात'' का एक पात्र है - ''मोदन''। गुरदयाल सिंह जी ये उपन्यास पढ़कर लगता है कि आपके ये पात्र चेतना के संकट से उभर कर यथार्थ का संघर्ष प्रस्तुत करते हैं।
ये भी लगता है कि ये पात्र मात्र कल्पना में नहीं आए हैं। इस तरह के पात्र आपको कहां से मिलते हैं। इन्हें खोजने के लिए किस तरह की लेखकीय दृष्टि की आवश्यकता होती है?
ये बहुत अच्छा सवाल है आपका। ये सभी पात्र मेरे परिवेश से मुझे मिले हैं। परंतु बात ये है कि जब मैं एक व्यक्ति को पात्र के रूप में अपनी कृति में लाता हूं; तो उसका रूप मेरी कृति के लक्ष्य अनुरूप बदलता भी है। यही लेखकीय कौशल है। ये पात्र आम जीवन के यथार्थ के निकट होना चाहिए। अगर कृति के पात्रों के जीवन में पाठक समाहित नहीं होते तो ऐसे पात्र का कोई महत्व नहीं रहता। इसलिए मेरे पात्र व्यक्ति के रूप में मेरे परिवेश में ही हैं। उनको अपने साहित्य का पात्र बनाने के लिए मुझे बहुत कुछ उनमें डालना होता है। परिवेश से उनके संबंधों की रक्षा करते हुए अपनी कृति के लक्ष्य के अनुरूप में लिखता हूं। कई बार इन संबंधों की भी लेखक अपने ढंग से कृति की कहन के अनुरूप व्याख्या भी करता है।
लेखकीय समस्या है ये?
बिल्कुल। जैसे अभी आपने बिश्ना पात्र की बात की। यह सही है वे मेरे बहुत नज़दीक थे। लेकिन जब मैंने उन्हें पात्र के रूप में प्रस्तुत किया तो उनकी बहुत सी बातें मैंने छोड़ दीं; जो अगर उपन्यास में आ जातीं तो पाठकों का ऐसा लगता कि ऐसा आदमी जीवन में हो ही नहीं सकता।
इसलिए ये कुछ लेखकीय समस्याऐं हैं जिनका प्रत्येक लेखक को सामना करना पड़ता है। प्रत्येक रचनाकार को अपने-अपने ढंग से इसका समाधान करना होता है - लेकिन रचना के लक्ष्य के अनुरूप।
आपकी रचनाओं में ग्रामीण संस्कृति की जड़ों की ओर वापसी का संदेश मिलता है। मैं आपके दो उपन्यासों का उदाहरण देना चाहूँगा -
आपका एक उपन्यास है पंजाबी में - ''अन्ने घोड़े का दान'' और (अंधे घोड़े का दान), ''रेते दी इक मुठ्ठी'' (रेत की एक मुठ्ठी)
आपके जो पात्र गांव से शहर की ओर गए हैं; वे शहर में नहीं रच-बस सके। वे शहरी जीवन में नहीं समाहित हो पाये और वापस गांव लौटे। अब जबकि पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था बदल रही है। विश्वग्राम की अवधारण आ रही है। आधुनिक विश्व बाज़ार की इस संस्कृति के बारे में आप क्या सोचते हैं अपने लेखन में?
मैं बिल्कुल साफ शब्दों में कहना चाहता हूं कि ये जो ग्लोबलाइज़ेशन की समस्या हमारे सामने आ रही है; वो किसी भी रूप में मानवीय मूल्यों को स्थापित नहीं कर रही हैं। ये हमारी सामाजिक समस्याएं हल करने अथवा उनका समाधान खोजने में पूर्णत: असफल हैं। जैसे अभी आपने मिसाल दी - ''अन्ने घोड़े का दान''। उसका जो मुख्य पात्र है।
मेलु?
जी मेलु। वो रोजी-रोटी कमाने के लिए अपने गांव से शहर आता है। शहर में रिक्शा चालक है मेलु। शहर में भी रोज़गार नहीं है। आवश्यकता से ज्यादा रिक्शा हैं; फिर आटोरिक्शा आ जाते हैं। शहर में काम नहीं है, वह वापस गांव जाना चाहता है; शायद गांव में कुछ काम मिले। वहां भी काम नहीं है; उसके पिता शहर जाने को तैयार हैं - किसी काम के लिये।
यह जो बाजार की व्यवस्था है; वह किसी भी रूप में हमारी एक अरब की आबादी की समस्याओं का हल नहीं दे पा रही है। इसी कारण आम लोग संघर्ष करते हैं। रोज़गार के लिए गांव से शहर जाते हैं वे। बड़े शहरों में रहने की जगह नहीं है। कलकत्ता, बाम्बे और दिल्ली में इतने बड़े स्लम्स हैं; जो सारी दुनिया में कहीं नहीं मिलते। अगर यह व्यवस्था अच्छी हो तो आम आदमी की इतना कठिन जीवन जीने की कोई आवश्यकता न हो।
व्यवस्था के बारे में आपने बात की तो उसी संबंध में एक प्रश्न है, जो आपके लेखन से जुड़ा हुआ है। आपके उपन्यासों में आपके पात्र अपने रक्त संबंधियों की अपेक्षा गैर पारिवारिक मित्रों के अधिक निकट हैं। ऐसा लगता है कि आप न केवल सामाजिक; प्रशासकीय और आर्थिक व्यवस्था बल्कि पारिवारिक व्यवस्था को भी एक चुनौती के रूप में ग्रहण करते हैं। लगता है आपका लेखन वंचित आम आदमी के विरुद्ध खड़ी हर तरह की क्रूर सत्ता को चुनौती देता है?
हां यह बात मैं सही मानता हूं। दरअसल इस नई व्यवस्था के विसंगत अंश हमारी पारिवारिक ज़िंदगियों और रिश्तों में भी आ रहे हैं। परिवारों में संपत्ति के स्वार्थी झगड़े संबंधों में दरार बनकर उभर रहे हैं। यही दरारें पंजाब के लोकजीवन में भी देखने को मिल रही हैं। भाइयों के रिश्तों में भी - जैसे मोदन है।
आपके उपन्यास 'अधचांदनी रात' का पात्र मोदन?
जी; मोदन जब जेल से आता है; वापस आपने घर। तो वह देखता है कि वह जिन लोगों तथा कारणों से जेल गया था, उसके भाई, उन्हीं सबसे मिले हुए हैं। क्यों मिले हुए हैं? उनके मन में पूंजी आधारित इस नई व्यवस्था ने कई भ्रष्ट लालसाएं पैदा कर दी हैं; ज़मीन के लिए, पैसे के लिए। जहां भी उन्हें अपने स्वार्थ मिलते हैं वे लालचवश उनसे संबंध जोड़ लेते हैं। इसीलिए परिवार के बाहर मित्र खोजे जाते हैं क्योंकि समाज में अकेले तो रहा नहीं जाता। इसलिए मैं मानता हूँ कि यह नई व्यवस्था का ही एक अलग किस्म का विसंगत रुप है। इस विसंगति के विरुद्ध जो पात्र आते हैं वे स्वाभाविक रूप से उस भ्रष्ट, व्यवस्था का विरोध करते हैं जो उन्हें समाज के मानवीय मूल्यों से तोड़ रही हैं।
आप अपनी लंबी लेखन यात्रा के अनुभवों के आधार पर नए लिखने वालों को क्या कहना चाहेंगे?
मैं दो बातें जरूर कहना चाहूंगा :-
एक - लेखन कोई साधारण कार्य नहीं है। लेखन बहुत परिश्रम और सजगता की मांग करता है। यह सजगता हमारे आसपास के परिवेश तथा आम जीवन के अध्ययन में होनी चाहिए।
दूसरी बात- आज ज़िंदगी की भागदौड़ इतनी ज्यादा हो गयी है कि उसमें से भी लेखक भी अपने को अलग नहीं कर पाता। जबकि यह बहुत ही आवश्यक है कि लेखक इस प्रक्रिया में सदा सचेत रहे।
ये दो ही बात हैं जिनका ध्यान रखना होगा, अन्यथा वे अच्छा नहीं लिख पाएंगे।
अंतिम जिज्ञासा - आप अपने साहित्य में जीवन की वैसी स्थापना कर पाये हैं, जैसी आप अपने जीवन में एक लेखक के रूप में चाहते रहे हैं?
हां, मैं मानता हूं कि मैंने जो चाहा वह अपने ढंग से कर पाया हूँ। हालांकि इसका कोई निश्चित मापदंड नहीं है। यह अवश्य कहूंगा, मैंने अपने आम पाठकों के लिए लिखा है, जीवन की गहरी से गहरी बातें सरल साधारण ढंग से कहने की कोशिश की है।

16 अगस्त 2017 को गुरदयाल सिंह जी की पहली पुण्यतिथि है।

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