चुप्पी का समाजशास्त्र

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी कवितायें
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम जितेन्द्र श्रीवास्तव





उम्मीद थी
मिलोगे तुम इलाहाबाद में
पर नहीं मिले

गोरखपुर में भी ढूँढा
पर नहीं मिले

ढूँढा बनारस, जौनपुर, अयोध्या, उज्जैन, मथुरा, वृन्दावन, हरिद्वार
तुम नहीं मिले

किसी ने कहा
तुम मिल सकते हो ओरछा में
मैं वहाँ भी गया
पर तुम कहीं नहीं दिखे

तुम नहीं दिखे
गढ़ कुण्डार के खण्डहर में भी

मैं भटकता रहा
बार-बार लौटता रहा
तुमको खोजकर
अपने अंधेरे में

न जाने तुम किस चिडिय़ा के खाली खोते में
सब भूल-भाल सब छोड़-छाड़
अलख जगाए बैठे हो

ताकता हूँ हर दिशा में
बारी-बारी चारों ओर
सब चमाचम है

कभी धूप कभी बदरी
कभी ठण्डी हवा कभी लू
सब कुछ अपनी गति से चल रहा है

लोग भी खूब हैं धरती पर
एक नहीं दिख रहा
इस ओर कहाँ ध्यान है किसी का
पैसा पैसा पैसा
पद प्रभाव पैसा
यही आचरण
दर्शन यही समय का

देखो न
बहक गया मैं भी
अभी जो खोजने निकलना है तुमको
और मैं हूँ
कि बताने लगा दुनिया का चाल-चलन

पर किसे फुर्सत है
जो सुने मेरा अगड़म-बगड़म
किसी को क्या दिलचस्पी है इस बात में
कि दिल्ली से हजार कि.मी. दूर
देवरिया जिले के एक गाँव में
सिर्फ एक कट्ठे जमीन के लिए
हो रहा है खून-खराबा
पिछले कई वर्षों से

इन दिनों लोगों की समाचारों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है
वे चिन्तित हैं अपनी सुरक्षा को लेकर
उन्हें चिन्ता है अपने जान-माल की
इज्जत, आबरू की

पर कोई नहीं सोच रहा उन स्त्रियों की
रक्षा और सम्मान के बारे में
जिनसे संभव है
इस जीवन में कभी कोई मुलाकात न हो
हमारे समय में निजता इतना बड़ा मूल्य है
कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता उसके दायरे से

वरना क्यों होता
कि आजाद घूमते बलात्कारी
दलितों-आदिवासियों के हत्यारे
शासन करते
किसानों के अपराधी

सब चुप हैं
अपनी-अपनी चुप्पी में अपना भला ढूँढते
सबने आशय ढूँढ लिया है
जनतंत्र का
अपनी-अपनी चुप्पी में

हमारे समय में
जितना आसान है उतना ही कठिन
चुप्पी का भाष्य
बहुत तेजी से बदल रहा है परिदृश्य
बहुत तेजी से बदल रहे हैं निहितार्थ

वह दिन दूर नहीं
जब चुप्पी स्वीकृत हो जाएगी
एक धर्मनिरपेक्ष धार्मिक आचरण में

पर तुम कहाँ हो
मथुरा में अजमेर में
येरुशलम में मक्का-मदीना में
हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में
अमेरिकी राष्ट्रपति के घर में
कहीं तो नहीं हो

तुम ईश्वर भी नहीं हो
किसी धर्म के
जो हम स्वीकार लें तुम्हारी अदृश्यता

तुम्हें बाहर खोजता हूँ
भीतर डूबता हूँ
सूज गई हैं आँखें आत्मा की

नींद बार-बार पटकती है पुतलियों को
शिथिल होता है तन-मन-नयन
पर जानता हूँ
यदि सो गया तो
फिर उठना नहीं होगा
और मुझे तो खोजना है तुम्हें

इसीलिए हारकर बैठूँगा नहीं इस बार
नहीं होने दूँगा तिरोहित
अपनी उम्मीद को
मैं जानता हूँ
खूब अच्छी तरह जानता हूँ
एक दिन मिलोगे तुम जरूर मिलोगे
तुम्हारे बिना होना
बिन पुतलियों की आँख होना है।

तमकुही कोठी का मैदान

तमकुही कोठी निशानी होती
महज सामंतवाद की
तो निश्चित तौर पर मैं उसे याद नहीं करता

यदि वह महज आकांक्षा होती
अतृप्त दिनों में अघाए दिनों की
तो यकीनन मैं उसे याद नहीं करता

मैं उसे इसलिए भी याद नहीं करना चाहता
कि उसके खुले मैदान में खोई थी प्राणों सी प्यारी मेरी सायकिल
सन् उन्नीस सौ नवासी की एक हंगामेदार राजनीतिक सभा में

लेकिन मैं उस सभा को नहीं भूलना चाहता
मैं उस जैसी तमाम सभाओं को नहीं भूलना चाहता
जिनमें एक साथ खड़े हो सकते थे हजारों पैर
जुड़ सकते थे हजारों कंधे
एक साथ निकल सकती थीं हजारों आवाजें
बदल सकती थीं सरकारें
कुछ हद तक ही सही
पस्त हो सकते थे निज़ामों के मंसूबे

मैं जिस तरह नहीं भूल सकता अपना शहर
उसी तरह नहीं भूल सकता
तमकुही कोठी का मैदान
वह सामंतवाद की कैद से निकलकर
कब जनतंत्र का पहरूआ बन गया
शायद उसे भी पता न चला

ठीक-ठीक कोई नहीं जानता
किस दिन शहर की पहचान में बदल गया वह मैदान

न जाने कितनी सभाएं हुईं वहाँ
न जाने किन-किन लोगों ने कीं वहाँ रैलियाँ
वह जंतर-मंतर था अपने शहर में

आपके शहर में भी होगा या रहा होगा
कोई न कोई तमकुही कोठी का मैदान
एक जंतर-मंतर

सायास हरा दिए गए लोगों का आक्रोश
वहीं आकार लेता होगा
वहीं रंग पाता होगा अपनी पसंद का

मेरे शहर में
जिलाधिकारी की नाक के ठीक नीचे
इसी मैदान में
रचा जाता था प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र

वह जमीन जो ऐशगाह थी कभी सामंतों की
धन्य-धन्य होती थी
किसानों-मजूरों की चरण धूलि पाकर

समय बदलने का
एक जीवन्त प्रतीक था तमकुही कोठी का मैदान
लेकिन समय फिर बदल गया
सामंतों ने फिर चोला बदल लिया
अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का
वहां कोठियाँ हैं फ्लैट्स हैं
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से
धीरे से निकल जाता है
उस ओर
जहाँ कचहरी है

और अब आपको क्या बताना
आप तो जानते ही हैं
जनतंत्र में कचहरी मृगतृष्णा है गरीब की।

इस गृहस्थी में

देखो तो कहाँ गुम हो गई रसीद!

देखो न
तुम तो बैठी हो चुपचाप
अब हँसों नहीं खोजो
बहुत जरूरी है रसीदों को बचाकर रखना

हम कोई धन्ना सेठ तो नहीं
जो खराब हो जाएं हाल-फिलहाल की खरीदी चीजें
तो बिसरा दें उन्हें
खरीद लाएं दूसरी-तीसरी

हमारे लिए तो हर नई चीज
किसी न किसी सपने का सच होना है
हमारे सपनों में कई जरूरी-जरूरी चीजें हैं
और खरीदी गई चीजों में बसे हैं कुछ पुराने सपने

उठो, देखो न कहाँ गुम हो गई रसीद!
उसे महज एक कागज का टुकड़ा मानकर
भुलाना अच्छा नहीं होगा
वह रहेगी तभी पहचानेगा शो-रूम का मैनेजर
कुछ पुराने-धुराने हो गए कपड़ों के बावजूद
उन्हें बदलना पड़ेगा सामान

वैसे अच्छा है
तुम मुझसे ज्यादा समझती हो यह-सब
बड़े हिसाब-किताब से चलाती हो घर
लेकिन इस समय जब मैं हूँ बहुत परेशान
तुम बैठी हो चुपचाप

उठो, देखो न कहाँ गुम गई रसीद!

अरे, यह क्या
अब तो तुम्हारे होठों पर आ गयी है शोख हँसी
लगता है जरूर तुमने सहेज कर रखा है उसे
अपने लॉकर वाले पर्स में
चलो इसी बात पर खुश होकर
मैं भी हँस लेता हूँ थोड़ा-सा

यह अच्छा है इस गृहस्थी में
जो चीजें गुम हो जाती हैं मुझसे
उन्हें ढूँढ़कर सहेज देती हो तुम

मैंने अब तक किए हैं आधे-अधूरे ही काम
जो हो सके पूरे या दिखते हैं लोगों को पूरे
वे सब तुम्हारे ही कारण हैं
उनका सारा श्रेय तुम्हारा है।


जितेन्द्र श्रीवास्तव के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हैं। 'पहल' में पूर्व में भी पर्याप्त प्रकाशित हुये हैं। अपने लेखन के शुरूआती दिनों से एक सक्रिय सांस्कृतिक व्यक्ति के रूप में जाने गये। धारचूला से दिल्ली तक लगातार स्थानांतरित हुये। इग्नू में मानविकी विद्यापीठ में पढ़ाते हैं। भोजपुरी में भी प्रकाशन। प्रसिद्ध 'सोनचिरई' कविता 'पहल' में छपी थी।

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