हरीशचंद्र पाण्डे की कविताएं

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    जुलाई - 2017
श्रेणी हरीशचंद्र पाण्डे की कविताएं
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम हरीशचंद्र पाण्डे





अविनाश मिश्र के लेख के संदर्भ में



क़र्ज़ गाथा

नई स्वेटर क्या पहनी कि लगा
एक नए कर्ज़ से लद गया हूँ

कई लोग एकाएक सामने आगए

भेड़ों का कर्ज़ सबसे बड़ा था
वे एक-दूसरे को ठेलते-धकेलते चले आ रहे थे मुंडियां घुमाते

फिर हरे-भरे बुग्याल आगए
उनमें बिछी हरियाली का अपना दाम था

फिर वे औरतें आगईं
जिन्होंने गोले बना-बनाकर पंद्रह-बीस दिन का काम मिल-बांटकर
दो-तीन दिन में पूरा कर दिया था

कितनों का कर्ज़दार हूँ मैं
मगर एक बड़े शीशे के सामने मुस्करा रहा हूँ स्वेटर खींच-खींच कर
जैसे यह आदमकद क़र्ज़दारों के मुस्कराने का समय है
यूं तो मैं पहले ही उतार आया हूँ अपना कर्ज़ दूकानदार के पास
जबकि ऊन बनाने में उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं
उससे ऊन के दाम को लेकर ऐसी किच-किच कर बैठा
जैसे वह मछली नहीं, घडिय़ाल था तिजारती दुनिया का
और उसके गलफड़े नहीं जबड़े देखे जाने चाहिए

भेड़ों के बदन का ऊन भेड़ों के लिए था मेरे लिए नहीं
उन्हें तो मालूम ही नहीं उन्होंने किस-किस पर मेहरबानी कर डाली है
जैसे बुग्यालों ने की भेड़ों को अपनी हरी घास दे देकर
और उन औरतों का क्या कहना
जिनकी बुनाई के फंदों में जाड़ों की धूप और बतियाहट की मिश्री घुली थी

मुझ पर वास्तव में जिसका क़र्ज़ है उनमें कोई भी साहूकार नहीं
मुझसे जो वसूल कर ले गए हैं उनका मुझपर कोई क़र्ज़ ही न था

जिनको वास्तव में देना था उन्हें कुछ नहीं दिया मैंने
जिनका ऊन ही उनका खून था वे आज भी मैऽऽ मैऽऽ कर नंगे हो रहे हैं
कतारों में



मैं इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ
(पत्नी के शव को अकेले कंधे पर ले जाते हुए दाना माँझी को टीवी पर देखते हुए)

मैं बहुत देर अपने कंधे के विकल्प ढूंढ़ता रहा
पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जाकर गिरते थे

मेरे पास पैसों की ज़मीन थी न रसूख़ की कोई डाल
हाथ-पाँव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी
हाँ अनुभव था लट्ठों को काट-काट कर कंधे पर ले जाने का पुराना
मेरी बेटी के पास यह सब देखने का अनुभव था


मुझे जल्दी घर पहुँचना था
अपने घर से बाहर छूट गए एक बीबी के प्राण
घर के जालों-कोनों में अटके मिल सकते थे

मेरा रोम-रोम कह रहा था यहां से चलो
मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़
और कोई मुझसे कह रहा था तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े
बचे हुए हैं
मेरी आंखों ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को
अपने हत साथी को शिविर की ओर ले जाते देखा है ना
मेरे हाथ पैर कंधे समवेत स्वर में बोल उठे थे
यह हमारा साख्य-भार है बोझ नहीं

मैंने पल भर के लिए अपनी बेटी की आँखों में शरण ली
उपग्रह सी नाचती वह लड़की अभी भी अपनी पृथ्वी को निहार रही थी

मैं बादलों सा फट सकता था
पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी
उसने भी अपने भीतर एक बाँध को टूटने से रोक रखा था
उसके टूटने ने मुझे जाने कहाँ बहा ले जाना था

हम दोनों एक नि:शब्द यात्रा पर निकल पड़े
यात्रा लंबी थी मेरी बच्ची के पाँव छोटे
तितलियों के पाँव चलने के लिए होते भी कहाँ हैं
वे तो फूलों पर बैठते वक्त निकलते हैं बाहर
मेरी तितली भी मेरे कंधों के छालों की ओर देख रही थी बार-बार
ये सब तो वे घाव थे जिन्हें उजाले में देखा जा सकता है और अंधेरे में टटोला

हम दोनों चुप थे मौन बोल रहा था
मौन का कोई किनारा तो होता नहीं
सो कंधे पर सवार मौन भी बोलने लगा था
- महाराज! आज इतनी ऊँचाई पर क्यों सजाई गई है मेरी सेज?
शबरी के लाड़ले क्या इसी तरह जताते हैं अपना प्यार?
आज ये कहां से आगई इन बाजुओं में इतनी ताकत?
तुम्हारा गया हुआ अंगूठा वापस आ गया क्या?

सभी काल अभी मौन की जेब में थे
रस्ता बहुत लंबा था
मेरे हाथ पैर कंधे सब थक रहे थे
याद आगए वे सारे हाथ
जो दान-पात्रों के चढ़ावों को गिनते-समेटते थक जाते
मेरे जंगल के साथी पेड़-पौधों ने मेरी थकान को समझ लिया था
उन सबने मेरे आगे अपनी छायाएं बिछा दीं

मैं ग़मज़दा था मगर आदमी था अस्पताल से चलते समय
पर रस्ते में ये कौन कैसे आगया
कि मैं दुनिया भर में एक दृश्य में बदल दिया गया

... हाँ मैं अब एक दृश्य था
मैं सभ्यता के मध्यान्ह में सूर्यग्रहण का एक दृश्य था
इस दृश्य को देखते ही आँखों की ज्योति चली जानी थी
अनगिनत आँखों का पानी भर जाने पर एक ऐसा दृश्य उपजता है
यह आँखों के लिए एक अपच्य दृश्य था
पर इसे अपच भोजन की तरह उलटा भी नहीं जा सकता था बाहर

यह हमारी इक्कीसवीं सदी का दृश्य था
स्वजन-विसर्जन का आदिम कट पेस्ट नहीं
जब धरती पर न कोई डाक्टर था न अस्पताल न कोई सरकार

यह मंगल पर जीवन खोजने के समय में
पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था
ग्रहों के लिए छूटते हुए रॉकेटों को देख हमने तो यही समझा था
कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियाँ शुरू हो गई हैं
पर किसी भी दिन ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कंधा हूँ
पता नहीं मैं पत्नी का शव लेकर घर की ओर जा रहा था
या इंसानियत का शव लेकर गुफा की ओर

मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए
उन्हें जीवित आदमी का दर्जा दे दिया गया है1
जिन्होंने ये काम किया है उन्हें बता दिया जाय
कि दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है

***

आदिवासी दाना मांझी की पत्नी अमांग ओडीशा के कालाहांडी जिले के भवानीपटना के एक अस्पताल में टीवी के इलाज के लिए भर्ती थी। उसके इलाज, उसकी मृत्यु व उसको ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था को लेकर तमाम आरोपों-सफाइयों के बावजूद यह एक निर्विवाद सत्य है कि दानामांझी को अपनी पत्नी के शव को कई किलोमीटर तक अपने कंधे पर ले जाते हुए दुनिया ने देखा। साथ में 11 वर्षीय बेटी चौला थी।

1. न्यूजीलेंड सरकार ने वानगनुई नदी को तथा उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने गंगा व यमुना नदी को एक जीवित आदमी का दर्जा दे दिया है। इन नदियों को क्षति पहुँचाने वाले पर उन्हीं धाराओं में मुकदमा चलेगा जैसा इंसान को नुकसान पहुंचाने पर चलता है।

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