मैं ईश्वर को क्यों नकारता हूं?

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    जुलाई - 2017
श्रेणी मैं ईश्वर को क्यों नकारता हूं?
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम डॉ. श्रीराम लागू / अनुवाद - विनय कुमार वासनिक





प्रारंभ/दो

 

परमात्मा का मतलब एक अतिमानवीय (दैविक, मानव से परे) शक्ति है। उसने केवल संसार का निर्माण ही नहीं किया बल्कि संसार पर नियंत्रण भी करनेवाली शक्ति है तथा उस शक्ति के शरण में मुझे जाना चाहिए। यदि उस शक्ति का मुझ पर कोप (गुस्सा) हुआ तो बहुत बुरा होगा और यदि वह प्रसन्न हुआ तो मेरे जीवन का कल्याण होगा। यह परमात्मा के संबंध में अवधारणा है। इसी परमात्मा से मेरा झगड़ा है।

 

कैसे इस अवधारणा का निर्माण हुआ, इस बात पर विचार करते हुए मेरे ध्यान में यह आया कि परमात्मा नाम की शक्ति का पिछले पांच हजार सालों में कोई सबूत, किसी मनुष्य द्वारा देना संभव नहीं हुआ है, मनुष्य उसी अवधारणा पर दृढ़ विश्वास कर बैठा है, यह महत्वपूर्ण सवाल है। अब सवाल उठता है कि परमात्मा की अवधारणा कैसे उत्पन्न हुई होगी, बिल्कुल पुरातन काल से, मैं उसे पांच हजार साल कह रहा हूं, उसे गिनने की आवश्यकता नहीं है। हम वैदिक काल को सामान्यत: पांच हजार साल पहले का मानते हैं। उस संदर्भ में इसे समझना चाहिए। पिछले पांच हजार साल पहले मनुष्य बौद्धिक तौर पर किसी सामान्य स्तर पर रहा होगा। यह निर्विवाद सच है। मतलब उसे सीधे-सीधे प्राकृतिक घटनाओं का अर्थ मालूम नहीं रहा होगा? मतलब बारिश कैसे होती है?, भूचाल कैसे होता है? ज्वालामुखी कैसे फटता है? शायद इन सभी जानकारियों से वह अवगत नहीं रहा होगा और उसे लगता रहा होगा की समय-समय पर बरसनेवाली बरसात से उसकी खेती कैसी अच्छी होगी यह उसे दिखाई देता था, आकाश में बिजली की कड़-कड़ाहट से प्रकृति के सौंदर्य का अनुभव होता होगा, साथ ही वही बिजली यदि जमी पर गिर जाए तो हाहाकार होता है, वह घबरा जाता था, वह इन सभी बातों का अंदाज लेता था, इन सभी शक्तियों को नियंत्रित करनेवाली कोई दूसरी अतिमानवीय शक्ति है, वह बहुत बड़ी ताकत है तथा वह आकाश में कहीं छिपी हुई है, इस तरह की अपने मन में धारणा बना लेना उसके अल्पबुद्धि का लक्षण था, यह निर्विवाद सत्य है, लेकिन उस शक्ति के अस्तित्व का सबूत खोज निकालना चाहिए, क्या ऐसा विचार विगत पांच हजार सालों में उसे हुआ नहीं होगा? तब उसका जवाब यह है कि बिल्कुल उसे ऐसा लगा होगा, उसने इस शक्ति की खोज करने की कोशिश जरूर की होगी।

कुछ लोगों को साक्षात्कार हुआ होगा, ऐसा माना जाता था, और उसी आधार पर कुछ लोगों ने ऐसा कहा है कि, ज्ञानेश्वर को साक्षात्कार हुआ था, साक्षात देवता दिखाई दिया था, तुकाराम महाराज को साक्षात विठोबा दिखाई दिया था, ये सभी लोग मूर्ख नहीं हैप्रामाणिक लोग है, समाज के अंदर आस्था से काम करने वाले हैं, उन्हें साक्षात्कार हुआ भी होगा! इस भ्रामक धारणा को पहला धक्का विज्ञान के प्रादुर्भाव से हुआ! साक्षात्कार हुआ, मतलब क्या हुआ?

विज्ञान की शुरूवात लगभग चार सौ साल पहले हुई! कोपर्निकस नामक वैज्ञानिक ने पहली चुनौती दी, उसने कहा कि, सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता है, तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। बाइबल में कहा गया है कि पृथ्वी ही संसार का केन्द्रबिंदु है तथा सभी तारे-ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। धर्मगुरुओं ने उसे झूठा करार दिया कि यह आदमी पाखंडी है। कोपर्निकस ने जो कुछ बोला वह परमात्मा या धर्म के विरोध में नहीं बोला था, वह तो सत्य की खोज कर रहा था, उसके अनुभव तथा कोशिशों से उसे सत्य दिखाई दिया था, और वह यह था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। तथा उसने इस सत्य को लोगों के सामने रखने का साहस किया था और वैज्ञानिक को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। क्योंकि उसने धर्म विरोधी मत प्रदर्शित किया था, इतना यह विचार लोगों के दिमाग में पिछले तीन हजार सालों से दृढ़ हो गया था। कोपर्निकस की खोज को प्रमाण मान कर उससे आगे दूसरे वैज्ञानिकों ने काम करना शुरु किया, विशेष तौर पर गैलिलियो ने, उनके द्वारा दूरबीन की खोज ने, उसे भी पाखंडियों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था, उसने माफी मांग ली, इसलिए वह छूट गया था, परन्तु अपने खोजे गए दूरबीन से उसने सिद्ध करके दिखाया कि पृथ्वी सूर्य के आसपास घूमती है, परन्तु आदमी के मन में ईश्वर की अवधारणा इतनी गहरी पैठ कर गई थी कि विज्ञान के लिए उनको जान गंवाना पड़ी। बगैर त्याग के वैज्ञानिक धारणा से लोगों को लैस किए बगैर मनुष्य का जीवन सुखमय नहीं हो सकता था, ऐसा दिखाई नहीं देता है, क्योंकि आदमी ने ईश्वर की अवधारणा की पिछले पांच हजार सालों में इतनी प्रशंसा की है कि ईश्वर ही विश्व का पालनकर्ता बन बैठा है, जो अत्यंत दयालु शक्ति है, भक्त के बुलाए जाने से निश्चित वह दौड़ कर जाता है, इत्यादि विधान किए जाते हैं, इस तरह ईश्वर पर विश्वास करना आवश्यक हो गया, फिर भी ईश्वर के नाम पर एक के बाद एक ऐसे कितने ही धर्म स्थापित हुए। पहले केवल हिंदू धर्म ही था। बाद में क्रिश्चियनिटी आई और बारह सौ वर्ष पहले इस्लाम धर्म की स्थापना हुई, इन सभी धर्मों में ईश्वर का अधिष्ठान, यह एक ही बात समान रूप से दिखाई देती है। यह ऐसी एक शक्ति है लेकिन उस शक्ति के अस्तित्व का कहीं भी सबूत आज तक मनुष्य को नहीं मिला है। रही बात इस्लाम धर्म की, ये सभी धर्म विज्ञान के उदय के पहले से है, बहुत सारे प्राकृतिक सवालों  के जवाब आदमी को मिले नहीं थे। यही कारण है कि ईश्वर की अवधारणा की कल्पना की गई थी।

वर्तमान में बहुत सारे सवालों का हल विज्ञान ने सुलझा दिया है। सभी सवालों के जवाब मिल गए हैं ऐसा विज्ञान का दावा नहीं है। विज्ञान प्रामाणिकता और विनयशीलता का विषय है। विज्ञान ने कुछ खोज की है और कुछ खोजें की जानी बाकी है और आगे भी खोजें होती रहेगी। विज्ञान कट्टरता के साथ यह नहीं बताता कि मेरे पास सभी सवालों के जवाब है, जैसे गीता, कुरान या बाइबल में सभी सवालों के जवाब है, ऐसा बताया जाता है, जबकि विज्ञान में ऐसी कट्टरता तनिक भी नहीं है। इस विश्व का निर्माण किसने किया, इसे अब भी नहीं बता सकते है, परन्तु और कुछ सालों में संभवत: इस बात की खोज हो जाएगी, ऐसा दिखाई देता है। इन 400 सालों में धड़ाधड़ इतने सवालों के जवाब मिले हैं कि लगता है आने वाले 400 सालों में रहस्मय सभी सवालों के जवाब विज्ञान दे ही देगा।

परन्तु अब सवाल खड़ा होता है कि वर्तमान में अस्तित्व में जितने भी धर्म है वे सभी विज्ञान के उदय के पूर्व के होने से वे सभी कालातीत कर दिए जाने चाहिए, यह इन सभी धर्मों की सर्वधर्मसम्भाव की खोखली कल्पना ही है। मतलब सभी धर्म समान है। परन्तु यह सच नहीं है, यह खुले तौर पर दिखाई देता है कि सभी धर्म एक दूसरे से अलग है इसलिए वे एक दूसरे से झगड़ रहे है, यह तो उनके स्थापना के समय से ही एक दूसरे से धर्म-कलह में लिप्त हैं। कलह में आदमी का खून बहाया गया। कहा जरूर जाता है कि धर्म शांति-प्रेम का संदेश देते हैं, इस बात का अर्थ मुझे समझ में नहीं आ रहा है, प्रत्यक्ष तौर पर जब हम पांच हजार सालों के व्यवहार को देखते हैं तब यह दिखाई देता है कि धर्म एक दूसरे से झगड़ रहे हैं, ये धर्म कालातीत हो गए हैं, इसलिए इन्हें 'रिटायर्ड' कर देना चाहिए। ईश्वर को 'रिटायर्ड' कर देना चाहिए। ईश्वर को 'रिटायर्ड' करने का तात्पर्य यह है कि इस अवधारणा को अपने दिमाग से निकाले बगैर निधर्मिता की अवधारणा आपके दिमाग में नहीं घुसेगी। सभी मानव जाति का एक ही धर्म होना चाहिए, जिसमें र्ईश्वर का अधिष्ठान होगा! उसमें केवल शास्त्रीय, वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा, उसमें सौंदर्य का अधिष्ठान होगा, इस तरह पूरे मानव जाति को अपने में समाहित कर सकेगा। ऐसा एक धर्म (यदि धर्म इस शब्द का उपयोग होगा तब) होगा जो पूरे समाज को धारण कर सके, उसी धर्म के लिए यहां मैं धर्म शब्द का प्रयोग कर रहा हूं। समाज को निश्चित तौर पर कुछ नीति-नियमों का पालन करना ही चाहिए।

यदि सभी धर्मों को नकारना है, तो अपने दिमाग से ईश्वर की अवधारणा को नष्ट करना होगा, तब जाकर मानवता के बिना एक ही प्लेटफार्म पर हम दुनिया को कुछ दे सकते हैं। मुझे बताइए, ईश्वर का अस्तित्व आप पांच हजार सालों से बता रहे हैं, परन्तु किस आधार पर? उनका सबूत आप क्या दे रहे हैं? नास्तिक लोगों को मैं समझ सकता हूं, लेकिन आस्तिक लोगों के संबंध में कुछ समझ में ही नहीं आता हैं, वे किस बात के बल पर आस्तिक बने हुए है? इस बात का कोई सबूत नहीं? यदि आपका कहना है कि ईश्वर नाम की कोई वस्तु है तब उसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी क्या आपकी नहीं है?

सभी तरह की श्रद्धा, वह तो अंधी ही होती है। पूज्यभाव से की गई श्रद्धा और अंधश्रद्धा ऐसा कुछ नहीं होता है। हम आंखें बंद कर विश्वास करते हैं उसे ही 'श्रद्धा' कहते है, विश्वास और श्रद्धा में बहुत बड़ा अंतर है। मेरे मित्र कुसुमाग्रज पर मेरा विश्वास है। गांधी पर मेरा विश्वस है, ऐसा मैं कह सकता हूं, परन्तु गांधी पर मेरी श्रद्धा है, ऐसा कहने पर उन्होंने जो कुछ किया है, वह सब स्पष्ट होना चाहिए अर्थात गांधी एक ऐसी शक्ति है, जो चाहे करे, न करे, ऐसा मैं उन्हें मानता हूं, ऐसा उसका अर्थ होता है। मैं ईश्वर पर श्रद्धा या विश्वास किस आधार पर करूंगा? मुझे आंखें बंद कर रखना होता है, सबसे पहले तो ईश्वर की अवधारणा पर ही विश्वास रखना होता है और फिर पूरी तरह उनके शरण जाना होता है।

मुझमें आस्तिक बनने की संभावना है या नहीं, यह बता नहीं सकता हूं। किसी संभावना को नकार नहीं रहा हूं, वर्तमान में आस्तिक नहीं हूं, परन्तु मैं कल आस्तिक नहीं बन सकूंगा, इसे बता नहीं सकूंगा, उसकी संभावना कम ही है, बल्कि नहीं ही है। मैं स्वयं को बुद्धिप्रामाण्यवादी आदमी मानता हूं। रसेल ने कहा है कि, 'बुद्धिवादी होना यह सरल बात नहीं है, बहुत कठिन है। यदि आपने किसी सवाल को बुद्धिप्रामाण्यवाद से परखने का निश्चिय किया तब उसका विश्लेषण करते-करते जहां तक वह तुम्हें घसीटते ले जाएगा वहां तक जाने की तैयारी होनी चाहिए। वह जिस परिणाम तक ला कर छोड़ेगा उसे स्वीकार करने की तैयारी नहीं होना चाहिए। जब मैं ईश्वर नहीं हैं, इस निष्कर्ष तक गया, तब वह मेरे 'ऑग्र्युमेंट' का भाग ही होता है।

आईन्स्टाईन दुनिया का सबसे बड़ा वैज्ञानिक है! लेकिन वह दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिप्रामाण्यवादी है, ऐसा कहा नहीं जा सकता है, लेकिन आईन्स्टाईन ईश्वर को मानते हैं, इसलिए ईश्वर को नहीं मानता, या केवल माक्र्स ईश्वर को नहीं मानते, इसलिए भी मैं ईश्वर नहीं मानना, ऐसा नहीं कहूंगा। माक्र्स ने माक्र्सवाद में जो कुछ विधान दिए है, उसे भी लोगों ने ईश्वर बना दिया है, उसे भी शब्द प्रमाण मानने की मुझे आवश्यकता नहीं लग रही है। कुरान में अथवा वेद में या बाइबल में जो लिखा है वही प्रमाण, उसी तरह आईन्स्टाईन कहते है वही प्रमाण, ऐसा भी मेरा कहना नहीं है।

दूसरे या उससे कोई और बड़ा आईन्स्टाईन के रूप में जिसका वर्णन किया जाता है वह स्टीफन हॉकिंग नाम के वैज्ञानिक वर्तमान में हैं, वह पूरी तौर से दिव्यांग है, वह चलते नहीं हैं, उनका केवल दिमाग काम करता है, उनकी ऊंगलियों में थोड़ी बहुत ताकत है, उसी के भरोसे कम्प्यूटर पर काम कर रहे हैंं। पूरे विश्व का उद्गम कैसे हुआ, अंत कैसा होगा इस संबंध में उनकी खोज महत्वपूर्ण है। इस संबंध में जो संभावनाएं हैं उसे उन्होंने सिद्ध कर दिखाया है। थक जाने के बाद भी आंकड़ों के भरोसे विश्व के अस्तित्व को सिद्ध करके दिखाते हैं, उन्होंने अपने सिद्धांत जब दुनिया के सामने रखे, तब उन्होंने कहा कि उसमें ईश्वर के लिए कहां जगह है?

गणपति को हम ईश्वर मानते हैं। गाय के पेट में ईश्वर है यह भी मानते हैं। पृथ्वी पर पांच महाभूत ईश्वर से निर्माण किए हैं, ऐसा भी मानते हैं। प्रकृति को हम ईश्वर नहीं मानते हैं, परन्तु प्रकृति का ईश्वर ने निर्माण किया है यह मानते हैं। सवाल यह है कि हम ईश्वर मानते हैं इसका मतलब हम निश्चित तौर पर मानते क्या हैं? जो आदमी ईश्वर को अधिक मानता है वह बुद्धिप्रामाण्यवादी हो ही नहीं सकता है, यदि किसी को कुछ मिल जाए तो वह ईश्वर की कृपा से मिला यहीं माना जाता है। एक बात बताता हूं, मेरा भतीजा प्रभादेवी के सिद्धिविनायक की लाईन में स्कूल बस्ता पकड़कर खड़ा था, समय सुबह के 8.30 बजे थे। मैंने उसे कहा, 'अरे तू यहां क्या कर रहा है? उसने कहा, 'ग्यारह बजे मेरी परीक्षा है, मैं विनायक के दर्शन कर परीक्षा में जानेवाला हूं। मैंने उससे कहा, 'गधे, यदि तूने चार घंटे घर में बैठकर अध्ययन किया होता तो तेरी पास होने की उम्मीद अधिक होती?

मैंने ईश्वर को अपने बचपन में ही नकार दिया है। वैसे मैं कट्टर परिवार में पला बड़ा हुआ हूं, मेरा उपनयन संस्कार हुआ था, साथ ही शाम-सुबह पूजा-अर्चना करना भी उसी में शामिल था, इन सभी बातों से मुझे गुस्सा आता था, इन सभी बातों पर प्रतिक्रिया के कारण ही मैं नास्तिक बनते चला गया हंू। बचपन में एक दुर्घटना हुई, मैं जहां निवास करता था वहां विठोबा का एक मंदिर था, उसी परिसर में एक मूर्तिकार विठोबा की मूर्ति बना रहा था, उस मूर्ति के निर्माण के काम को मैं बड़े कौतुहल से देखा करता था। एक दिन मैं मेरे घर के अटारी पर खड़े उसके आने की बांट जोह रहा था, वह आ रहा है यह देख नीचे जाने निकला, सीढ़ी से उतरकर नीचे आ ही रहा था कि उसी समय एक ट्रक ने उस व्यक्ति को उड़ा दिया। मुझे सदमा लग गया, तब मेरे दिमाग में आया कि ईश्वर दयालु है और वह आदमी ईश्वर की मूर्ति का निर्माण करनेवाला, मतलब उसका परमभक्त, फिर कैसे ईश्वर ने उसे किसी मच्छर की तरह रौंद डाला? हमें, ईश्वर है, ऐसा बताया जता है, क्या वह सचमुच सच है यह विचार मेरे मन में आया, मेरा अध्ययन भी बहुत था। इन सारी बातों का परिणाम यह हुआ कि मैं नास्तिक बन गया।

आगे वयस्क हो जाने पर मुझे मेरा स्वतंत्र व्यक्तित्व प्राप्त हुआ और मैं सत्यनाराण की पूजा में नहीं बैठूंगा, वहां पैसे नहीं डालूंगा, पूजा नहीं करूंगा, ऐसा कहने लगा। अब तो नास्तिक समाज सच में बढ़ रहा है, बहुत लोग अपनी बुद्धि, विचारशक्ति का उपयोग करने लगे हैं, ईश्वर झूठ है, यह उन्हें पता चल रहा है, ईश्वर के चक्कर में जाने से आदमी  की अधिक हानि हुई है। इस तरह गर्दन पर रेंगते इस जुंआ को छोड़ देना चाहिए, उससे ही अपने उद्धार का मार्ग मिल सकेगा, यह कहनेवाला वर्ग बढ़ रहा है, परन्तु वह बड़े समाज का रूप नहीं ले सका है। ईश्वर नहीं है इस विचार का दिमाग में आने में बहुत समय लगेगा, क्योंकि छोटे बच्चों के दिमाग में बचपन से ही हम इसे डाले रहते हैं। लोगों को ईश्वर के दर्शन के लिए लंबी-लंबी कतार में खड़े देख कर मुझे चिंता होती है। अपनी मनुष्यता का अपमान हो रहा है, ऐसा लगता है।

शंकरराव चव्हाण जैसे जिम्मेदार आदमी को सत्य साईबाबा को नमन किए बगैर एक कदम आगे नहीं डालते देख मुझे चिंता होती है। यहां आदमी जानबूझकर बौद्धिक गुलामी कर रहे हैं, क्या यह सरकार चलाने लायक है? मेरा अंधश्रद्धा के संबंध में जो आरोप है, वह यही है।

मनुष्य के मन में असुरक्षा की भावना ही उसे अंधश्रद्धा के आधीन ले जाता है। कई रूपों में आदमी अंधश्रद्धा से ग्रसित होते जाता है। राजनीतिज्ञ लोग सत्ता हासिल करने के लिए इन बातों का अनुचित लाभ उठाते है। लोगों के धार्मिक भावनाओं से खेलते हुए उन्हें धार्मिक पागल बनाते हैं। देवभक्त बनाते तथा कहते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर बना लेने पर सभी समस्याओं का हल हो जाएगा। ऐसा बताना यह खुलेआम लोगों के धार्मिक भावना के साथ छलावा है और इसे राजनीतिज्ञ जानबूझकर करते हैं। उसमें सामान्य आदमी फंस जाता है, क्योंकि उसकी बुद्धि कहीं पर गिरवी रखी होती है। स्वयं की बुद्धि लगाकर यदि वह स्वतंत्र विचार करने लगा, तो यह सबकुछ नहीं होगा। आज हिंदू ही नहीं, मुसलमान, क्रिश्चयन धर्म में भी धर्मांधता का पागलपन बढ़ते जा रहा है। रशिया (सोवियत संघ) में यह प्रयोग सफल नहीं हुआ, क्योंकि धार्मिकता वहीं के निवासियों पर थोपी नहीं गयी थी। धार्मिकता या ईश्वरवाद के प्रबोधन के मार्ग से यदि वे गुजरे होते तब आज रशिया में जो सवाल उठे हैं, वे नहीं उठते।

जो आदमी ईश्वर को नहीं मानता है, उसका विचार मुझे आदर्श लगता है। फुले ने क्रांतिकारी विचार रखते हुए निर्माता की कल्पना को सामने रखा, मुझे उनके विचारों में कमी दिखाई देती है। अम्बेडकर जैसा व्यक्तित्व पक्के तौर पर कहते हैं कि 'मैं अनिश्वरवादी हूं।' वे हिंदू धर्म छोडऩे की स्थिति में स्वयं को निधर्मी नहीं, बल्कि केवल बुद्धिधर्मीय हूं कहते हैं, क्योंकि बुद्ध अनिश्वरवादी थे, बुद्ध ने ईश्वर को नकारा था इसलिए मुझे बुद्ध धर्म स्वीकार करना चाहिए, ऐसा उनका मानना है।' लेकिन इस बात से मैं सहमत नहीं हूं।

मुझे चार्वाक का विचार सबसे उत्तम लगता है। उनका जन्म पांच हजार साल पहले वैदिक काल का माना जाता है। उसने ईश्वर की अवधारणा ही नहीं, आत्मा की अवधारणा को भी नकारा था। पुनर्जन्म को नकारा था, इसलिए वह मेरे विचारों के सबसे करीब हैं।

हम जिन-जिन को अंधश्रद्धा है ऐसा मानते है, जैसे पाखंड, भानामती, करणी, जादू-टोना, ज्योतिषी देखना इत्यादि सभी अंधश्रद्धा का मूल ईश्वर इस अवधारणा में है। दैव्यशक्ति की कल्पना किए बगैर आप अंधश्रद्धालु हो ही नहीं सकते हैं। सत्य साईंबाबा हाथ फेरकर अंगूठी निकाल सकते है, तब उन्हें दैव्यशक्ति प्राप्त हुई कहा जाता है। किसी महिला के शरीर में देवी प्रवेश कराकर भविष्य कथन करने लगी, मतलब उसमें दैव्यशक्ति है। इस तरह प्रत्येक अंधश्रद्धा के मूल में दैव्यशक्ति के ऊपर ही विश्वास जताया जाता है। ऐसा विश्वास करना ही अंधश्रद्धा का मूल है। उसके मूल में दैव्यशक्ति है। इस अवधारणा को उखाड़ फेंके बगैर, तात्पर्य यह कि ईश्वर की अवधारणा को दिमाग से निकाले बगैर अंधश्रद्धा का निर्मूलन संभव नहीं है।

पांच हजार सालों से अनेक लोगों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन का कार्य किया, कार्पस, कणद, चार्वाक और अनेक संत भी हुए। आगरकर और फुले भी हुए। और आज डा. नरेन्द्र दाभोलकर। परन्तु अंधश्रद्धा कम नहीं हो रही है। पिछले पांच हजार सालों से अब तक यह और अधिक दृढ़ होते जा रही है। ईश्वर की अवधारणा हमने ही निर्माण की है। मान लो किसी लड़के को किसी एकान्त टापू पर रखा जाए, तब क्या उसके दिमाग में ईश्वर की अवधारणा आएगी? बिल्कुल नहीं।

सागर को, सूर्य को नमस्कार करना यह संस्कार का भाग है। लेकिन यदि मैंने नमस्कार नहीं किया तो अजूबा होगा कुछ अघटित होगा, यह श्रद्धा का भाग है। पूजा को मेरा विरोध नहीं है, लेकिन पूजा आदि किसी स्वार्थ भावना से की जाती है, तब उससे मैं असहमत होऊंगा। पूजा का विरोध करने में कोई कारण नहीं दिखता है। उसके पीछे निहीत भावना क्या है, यह महत्वपूर्ण है। सागर प्राकृतिक शक्ति है, वह बहुत कुछ देती है, उस पर मेरा जीवन निर्भर है और यह सागर अब कम हो रहा है, कल उस पर मैं बोट चलाऊगां, उसके पहले उसे नमस्कर, यह सुंदर संस्कार है।

इसलिए मैं संस्कारों का विरोधी नहीं हूं। उसके पीछे निहीत भावना का है, यह महत्वपूर्ण है। कृतज्ञता व्यक्त करना सुंदर संस्कार है, बहुसंख्य लोग पूजा करते हैं कि मेरा भला होना चाहिए, आज पूजा नहीं की तो कुछ अशुभ होगा, ऐसा अनेक शिक्षित लोगों को लगता है। वर्तमान का एक उदाहरण देता हूं। मैं 30 तारीख को अहमदाबाद में था और 29 तारीख को गणपति विसर्जन हुआ, मुंबई का विसर्जन समारोह देखने एक गृहस्थ अहमदाबाद आया और 30 तारीख को महाराष्ट्र में भूकंप हुआ, तो वह बुद्धिमान डॉक्टर बता रहा था कि विसर्जन करते समय एक गणपति की मूर्ति उल्टी हो गई थी, नीचे सिर और ऊपर पैर, इसी से गुस्सा होकर गणपति ने लात मारी और यह प्रकोप हुआ, अर्थात अब गणपति की शांति के लिए एक यज्ञ होगा और उसमें 2-3 करोड़ रुपये खर्च होंगे, अब बताइए इसे कौन सी विचारशक्ति या बुद्धिमानी कही जाए?

ईश्वर की भावनात्मक पूजा करने वाले लोगों को मैं समझता हूं, उनका मैं आदर करता हूं, मेरी मां शकपका गई थी, उसे लगता था, यह प्रचंड शक्ति है, उसके पास कुछ मांगने जाना, यह उस शक्ति का अपमान है। सचमुच में जो लोग धार्मिक होते हैं, उनसे मेरा कोई झगड़ा नहीं है, परन्तु धर्म स्वयं के स्वार्थ पूरा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है, यह गलत है। वैसे मुझे ईश्वर का कोई अनुभव नहीं है, इसलिए मैंने ईश्वर है, ऐसा कहने का साहस कभी नहीं किया है।

ज्ञानेश्वर को ईश्वर साक्षात दर्शन दिए, तुकाराम को दिए, परमहंस को दिए और आप कहते हैं ईश्वर नहीं है, तब फिर क्या आप उनसे अधिक समझदार है? तब मैं कहता हूं तुकाराम, ज्ञानेश्वर को ईश्वर दर्शन हुआ होगा, मेरा मानना है कि दर्शन तुम्हें हिप्टानिझम पद्धति से करवाया जा सकता है, यह मेरा दावा है, यदि उन्हें दर्शन हुए, तो क्या वही दर्शन वे दूसरों को कराकर दिखा सके? ईश्वर दर्शन होने के बावजूद लोगों ने तुकाराम की पोथीयां पानी में डुबोई, ऐसा क्यों? क्या ज्ञानेश्वर को उत्पीडऩ सहन नहीं करना पड़ा? तब दर्शन हुआ भी तो कौन सा बहुत बड़ा काम हो गया? कौन सी जीत हुई? आज दाभोलकर के पास अनेक कार्यकर्ता सम्मोहन के द्वारा रामकृष्ण जैसा साक्षात दिखा सकते हैं, तुकाराम-ज्ञानेश्वर को जरूर दर्शन हुए होंगे क्योंकि वे लोग झूठ नहीं बोलते थे। यह मानवशास्त्र द्वारा मानी हुई कल्पना है और इस सम्मोहन के द्वारा देखा जा सकता है, लेकिन साई बाबा जैसा व्यक्ति हवा में से सोना निकालकर दिखा रहा है, तब वह जरूर बकवास जान पड़ता है, बदमासी करता है, ऐसा समझना चाहिए।

 

 

 

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