खींचकर वापस लाओ उन सब मरते हुए लोगों को

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    जुलाई - 2017
श्रेणी खींचकर वापस लाओ उन सब मरते हुए लोगों को
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम शिवप्रसाद जोशी





प्रारंभ/एक



गजानन माधव मुक्तिबोध की सौवीं जयंती, अक्टूबर क्रांति के सौ साल, ग़ज़ा और पश्चिमी तट पर इज़रायली $कब्ज़े की 50वीं और गुजरात दंगों की 15वीं बरसी की याद में

नोट:- इस वृतांत में पाठक का मन कुछ टूट सकता है। लेखक की तरह वो भी नाराज़ होगा। उद्देश्य एक विध्वंसकारी समय को हेडऑन देखने का है। खरोंचे सबको आई हैं और एक तबाही हमें घेर चुकी है।

''जबसे यूपी में नई सरकार आई है तबसे एक नई तरह की भीड़ प्रकट हो गई है जिसे किसी का डर नहीं है।'' ये बात किसी राजनैतिक या बौद्धिक सयाने ने नहीं कही। द इंडियन एक्सप्रेस अख़बार से ये बात अभिषेक सिंह ने कही थी। बुरी तरह घायल और जानलेवा हमले में बाल बाल बच गए सब-इंस्पेक्टर संतोष सिंह का बेटा। एसआई संतोष को 22 अप्रैल को आगरा में हिंदू लंपटों की भीड़ ने घेर कर मार डालना चाहा लेकिन वो ख़ुशकिस्मत थे कि बच गये। वो गिरोह गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को छुड़ाने पहुंचा था। हमला अब भीतर भी मार कर रहा है। धर्म-सेनाएं सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक फैल गई हैं। हिंदुत्व का कुल जखीरा अब निकाला जा चुका है। राष्ट्रवाद और देशद्रोह एक ही सूली के दो फंदे हो गए हैं। वहां गर्दन नपाइये या यहां। वे कहीं पर भी आपको दबोच लेंगे। भीड़ अब एक नया बियाबान है। लंपटों का उत्पात अब मसाला फिल्मों की हिंसा जैसा बेतहाशा और सघन हो गया है। 2002 की ये 15वीं बरसी है. आज ये देश ऐसी तस्वीरों से भर गया है जिनमें बचाओ बचाओ मत मारो के रूंधे गले हैं, जिनमें नंगधडंग दौड़ते किसान हैं, फांसी पर झूलती देह हैं, मरते जवान और यहां वहां युवा हैं, पत्थर उठाए स्कूली लड़के और लड़कियां हैं, लड़की और लड़के पर झपटते मनचले और स्वयंभू रक्षक हैं। पहल का ये अंक जब आपके पास होगा तब तक शायद इनमें से कई तस्वीरें स्मरण न होंगी लेकिन ये उस पब्लिक डोमेन में बनी रहेंगी जो निर्णायक और मुस्तैद लड़ाइयों के लिए फिलहाल सुस्ती और थकान से भरा हुआ है। यानी हमारे समय की समस्त बर्बरता समस्त संतापों की एक पूरी त$फ्सील इन तस्वीरों में नुमाया हैं। कवि सुदीप बनर्जी के शब्दों में, विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई।
राम से गाय तक और लव जेहाद या रामलीला और कश्मीर तक, हिंसा और हत्या का दुष्चक्र बना हुआ है। बलात्कार, दहेज हत्या, घरेलू उत्पीडऩ आदि की हिंसाएं अलग हैं। 2015 में उन्होंने गाय के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से मारना शुरू किया। पैटर्न एक। अब्दुल ग$फूर, अख़ला$क, जाहिद बट, नोमान, इम्तियाज़, पहलू ख़ान ये बस कुछ नाम नहीं थे। अपनी जीविका चला रहे ये साधारण नागरिक थे। भारत माता और गऊ माता के वीर सपूतों के सामने रोहित वेमुला की मां और पहलू ख़ान की मां खड़ी है। नज़दीक ही एक ऐसा मंज़र है जिसमें लड़के लड़कियां चेहरा ढके हुए और सपनों को द$फ्न कर एक निर्णायक जुनून में पत्थर लिए भाग रहे हैं। एक अजीबोग़रीब भटकाव है। नागरिकों को लग रहा है कि उनका कुछ छिन गया है, उनसे कुछ छीना जा रहा है। वे बदहवास हिंसक हो चुके हैं। इधर एक बहुसंख्यक उभार ऐसा आ गया है जो नागरिक नहीं उपभोक्ता है। वो नया बर्बर है। वह जिस धुआंधार ऐय्याशी और आध्यात्मिक शांति में मॉल घूमता, दावतें उड़ाता, कार दौड़ाता और टीवी समाचार देखता है उतना ही उन्मादी और हिंसक होकर वॉट्स एप, $फेसबुक और ट्वीट करता है। प्रमोद कौंसवाल की कविता के हवाले से कहें तो अब वास्तव में कहीं जाकर और ज़्यादा बड़े अट्टहास में ''हिंदू हिंदू कहना चिल्लाना हो गया'' है। यहां गले ही गले और दलीलों का दलदल है। ये एक मगन क्रूरता है। मीडिया और सोशल मीडिया पर ट्रॉल मॉब के समांतर सड़कों और गलियों में घात लगाए गाय भैंस से लेकर आदमी औरत सब पर झपटने को उतावली हिंसाएं हैं, सब जगह और कहां  नहीं- राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडीशा, मणिपुर, असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, जम्मूकश्मीर, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल और दिल्ली।
29 राज्यों और सात संघ-शासित राज्यों वाले भारत देश की तस्वीर, शायद आपको याद हो नासा के उपग्रह ने खींच कर भेजी थी अप्रैल के दिनों में वो रात का नक्शा था। टिमटिमाता हुआ। नहीं उसमें सुंदरता नहीं आज की ज्वालाएं देखिए. अँधेरे में वे रोशनियां जैसे सीने पर असंख्य छेद। एक देश इतनी भयानकताएं कितनी देर संभालेगा। देश को तड़पता देखकर किसे बुरा नहीं लगेगा। उसी गहन तड़प में तो नवारुण भट्टाचार्य ने कहा था यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश. नासा की भेजी तस्वीरों में अपने मायने देखना क्या देशद्रोह होगा। मेरा देशप्रेम कोई गाय नहीं जिसे कोई दबंग लाठी से हांकता हुआ मुझसे छीन ले जाए। मेरा देशप्रेम...पता नहीं। आपको मैं कोई निशान दिखा सकता नहीं और कोई निशान उकेर सकता नहीं। हो सकता है मैं और मेरा प्रेम, किसी भूगोल की अवधारणा में अंटता ही न हो। मै क्या करूं। एक बहुत चाबुक की मार वाला महीना था अप्रैल। जंतरमंतर के नुक्कड़ नाटक में हमारी ही नंगी पीठ पर एक मुखौटा लगातार हंटर बरसाता था। एक तस्वीर ने इसी दौरान और चौंकाया. एकछत्र लता मंगेशकर थीं बीचोंबीच। वो किसी बात पर ठठाकर हंसी होंगी। बायीं ओर दिग्गज आमिर थे जिनका लेटस्ट फ़िल्मी किरदार एक ठग का बताया जाता है और दायीं ओर चमकते हुए से संघ प्रमुख मोहन भागवत थे। उन दोनों के मुंह भी ठहाके में खुले थे। द इंडियन एक्सप्रेस में 25 अप्रैल को गणेश शिरसेकर की खींची ये फोटो थी, दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड समारोह था मुंबई में। ''दंगल'' नामक अपार सफलता के लिए आमिर ने कोई ट्रॉफी ली भागवत से। पुरस्कार न लेने और पुरस्कार समारोहों में न जाने की कसम यूं टूटी।  इस तरह ''यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है उसे समझना कठिन है सहन करना और भी कठिन।'' (मंगलेश डबराल)
फ़ासीवाद अब पूरे शबाब में है और हमने अपने आसपास जो मलबा इतने दशकों से जमा होने दिया है, न सि$र्फ उससे दुर्गंध उठने लगी है बल्कि ये मलबा धीरे धीरे एक आकार लेकर हमारी हरकतों में और हमारी असहायता में पनप चुका है। मुक्तिबोध ने अपने यहां इसे शायद सबसे पहले देख लिया था। वो चीखे थे। उसकी परिणति ये शोर, हमला और हत्याएं हैं। एक बुद्धिजीवी पत्रकार अपनी विख्यात पत्रकारिता के इतिहास में डूबा हुआ अंतत: इस नतीजे पर पहुंचता है कि दिल्ली के जंतरमंतर पर बैठे किसान, नकली थे और वो सब प्रपंच था। जब इस विचार के लिए फटकारा जाता है तो वो और उग्र आत्ममुग्धता और ख़तरनाक प्रसन्नता में अपने वचन दोहराता है। यानी अण्णा हजारे की मुहिम में अपनी मोमबत्ती और समय का योगदान खर्च कर गौरवान्वित और तृप्त हो जाने वाले मध्यवर्गीय बौद्धिक चर्बीदार आलसी ने किसान के अजीबोग़रीब प्रदर्शन को वीभत्स, भौंडा और बलिष्ठ कहा। हिंदी पट्टी की किसान बिरादरी सामने नहीं आई। प्रचंड जीतों ने हिंदी राज्यों के नागरिकों को एक झटके में अपना पॉन बना दिया है। प्रतिरोध को यूं साथ नहीं मिलता लेकिन यूं वो आत्मा के चक्कर काटता रहता है। मनुष्य जीवन का इतिहास प्रतिरोध का इतिहास है। संस्कृतियां निगल जातीं सब कुछ और दुनिया एक बड़ा धब्बा ही बन कर रह जाती और इंसान कोई घिसटने वाले जीव जैसे बन जाते अगर प्रतिरोध की चेतना कहीं उनके रक्त में और अस्थिमज्जा में छिपी हुई और धंसी हुई न होती। क्योंकि सत्ताओं के चरित्र नहीं बदलने थे लिहाजा प्रतिरोध की भावना बदस्तूर है। तो ख़ुशी के सामंत और अन्यमनस्क, देखो देखो न करें कि आंदोलनकारी अकेले हैं और लौट गए हैं। वे फिर आएंगें। 
लेकिन प्रतिक्रियाएं डराती और रास्ते रोकती तो हैं ही। सत्ता और विचार के स्वामित्व के सामने वैकल्पिक विचार को जगह नहीं देनी है, उसे नहीं सुनना है, बर्दाश्त नहीं करना है। तर्क नहीं है लिहाज़ा शोर और ख़ारिज करना है। आगे चलकर हमला और हिंसा करनी है। इस तरह एक स्ट्रेटीफ़ाइड माहौल है। एक परत कहेगी, दूसरी परत कुछ और कहेगी, तीसरी परत जोर से कहेगी, चौथी परत चीखेगी, पांचवी परत हिंसक होगी और छठी परत घेर कर मार देगी। सातवीं परत भी है जो पहली परत की तरह विनम्रता और धूर्तता के मिले जुले घात से बनती है। यही रहती है, देर तक और देश का दम इसी में घुटता जाता है। एक महंगे वकील और मंत्री इसी परत के एक कोने को उघाड़कर कुछ इस तरह कहता है कि देखो हम तो ये हैं, कि हमें तो मुसलमान के वोट नहीं मिलते पर भला बताइये हमने किसी जेंटलमैन मुसलमान का कुछ बिगाड़ा है। मतलब ध्वनि ये जा रही है कि हम कुछ बिगाड़ते तो हैं लेकिन सबका नहीं. बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार, कवि-लेखक राजेश जोशी ने इसी जेंटलमैनी, मुसलमानों को मानो बख़्श देने वाली, मानसिकता पर एक ब्लॉग लिखा। पढ़ते हुए आपको असद ज़ैदी की एक कविता सहसा ही याद आ सकती है: ''वापस खींचो सारे छुरे तुमने घोंपे थे।''

''..खींचकर वापस लाओ
उन सब मरते हुए लोगों को
बिठाओ उन्हें उनकी बैठकों और काम करने की जगहों में
सुनो उनसे उनके पसंदीदा मज़ाक...

वापस लो अपनी चश्मदीद गवाहियाँ
जिनका तुमने रिहर्सल किया था
बताओ कि इबारत और दीद भयानक धोख़ा थीं
और याद्दाश्त एक घुलनशील ज़हर
फिर से लिखो अपना
सही सही नाम और काम

उन समाचारों को फ़िर से लिखो
जो अफवाहों और भ्रामक बातों से भरे थे
कि कुछ भी अनायास और अचानक नहीं था
दुर्घटना दरअसल योजना थी....''

और याददिहानी के लिए उन शुक्ल जी तक भी लौटें जो असद की ही एक पुरानी विख्यात कविता में एक रोज़ ख़ुशगवार मौसम के दरम्यान चले आये थे। और साथ चलते उनसे ''जब रहा नहीं गया तो बोले: मेरे विचार से अब हमें इस्लामाबाद पर परमाणु बम गिरा ही देना चाहिए।'' आपको नहीं लगता कि शुक्ल जी का आह्वान अब किसी भी वक़्त पूरा होने की सूरत बन रही है? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सर्जिकल स्ट्राइक द्वितीय आ जाए या उसकी तैयारी हो जाए। यानी 2019 का चुनाव ख़तरे में है. वो या तो पहले होगा या नहीं होगा और अगर होगा तो एक रात की तरह होगा जिसमें साए मंडराते हैं और तारे अपनी बेचैनियों में टूटते हैं। अगर ये आह्वान ठीक ठीक उस तरह से भी नहीं हुआ जैसा कि ''जी,'' चाहते हैं तो आप इसे रोज़ के इधर के नज़ारों में देख सकते हैं। बल्कि शुक्ल जी में तो कभी कभी डोनाल्ड ट्रंप की आवाज़ वाली समस्त बमों की माता आ जाती है। ब्रिटिश लेखक और चिंतक टैरी इगल्टन ने अपनी किताब ''रीज़न, फेथ और रिवोल्यूशन'' में समकालीन समय में धर्म के लक्षणों का ज़िक्र करते हुए कहा: ''ईश्वर ने पाला बदल लिया है। सभ्यता छोड़ कर बर्बरता का साथ पकड़ लिया है... कह सकते हैं कि बर्बरता का नया रूप ही सभ्यता कहलाने लगा है।'' आप एक देश के भीतर इस समय एक सभ्यता के निवासी हैं। इसमें विलुप्त होते जाते बाघों का प्रोजेक्ट टाइगर भी होगा और बेशुमार बढ़ रही गायों का प्रोजेक्ट काऊ भी। आधार कार्ड भी हो जाएं या जैसा इतिहासकार डीएन झा ने कहा कि तमाम ज्ञात इतिहास में गाय का मंदिर नहीं बना, अब आगे बना दिया जाए तो कह नहीं सकते। उनकी किताब ''द मिथ ऑफ द होली काऊ'' बताती है कि गाय को धार्मिक संरक्षण की मुहिम 18वीं-19वीं सदी की तरतीबें हैं। माता का मिथ सोच समझकर रचा गया। प्रतीक से प्रहार करना आसान है। आगे प्रहार-बेला फूट ही जाती है।
समकालीन विडंबना में मुसलमान एक जाति या धर्म या समुदाय का ही प्रतिनिधि नहीं रह गया है वो हमारी कुल नागरिकता का एक सताया हुआ प्रतिनिधि है। आप उसमें से हिंदू या अन्य जाति या कौम नहीं हटा सकते। कहने का आशय ये है कि ये बहुसंख्यकवाद बनाम अल्पसंख्यकवाद की बहस छोड़ दीजिए ये सवाल पुराने पड़ गए हैं आप ये देखिए कि बहुसंख्यकवाद ही अपना ख़ात्मा करने पर तुला है। आज अगर हिंदू राष्ट्र की ललकार, निर्माण को तैयार बैठी है और $फर्ज कीजिए को वे ऐसा कर ही देते हैं तो उस समूचे हिंदूमय जगत में वे क्या झपटमारी और बरबादी बंद कर देंगे? क्या सब कुछ शांत और स्थिर हो जाएगा? या नये दुश्मन की तलाश हिंदू आकार के बीच से की जाने लगेगी और फिर मारने काटने दौड़ेंगे? इस वृतांत की शुरुआत में यूपी के युवा अभिषेक ने जो डर जताया है वो उसे इसी भीड़ से है। सहारनपुर जिले के तत्कालीन एसएसपी लव कुमार की पत्नी ने अपने बंगले में घुस आए हिंसक ल$फंगों से किसी तरह अपना घर बचाया। दैनिक भास्कर अख़बार से शक्ति डॉली ने कहा, ''मैं आइपीएस की पत्नी हूं....लेकिन सबसे ज्यादा सुरक्षित मानी जाने वाली एसएसपी कोठी पर ढाई घंटे तक जो मंज़र मैंने देखा, उससे सहम गई हूं...मैंने अपने छह व आठ साल के बच्चों की आंखों में जो ख़ौ$फ देखा, उसे भूल नहीं सकती। पहले कभी वो इतने ज़ोर-ज़ोर से चीख कर नहीं रोए, जितना उस शाम को।''  15 साल पहले के गुजरात के एक बड़े मकान की छत पर कांपती खड़ी ज़ाकिया जा$फरी को याद करें? जिनके सामने उनके अपने, बर्बरता की आग में जलाए गये थे। 78 साल की ज़ाकिया आज भी इंसा$फके लिए डट कर खड़ी हैं। स्कवॉडों ने जो आतंक मचाया उसकी चपेट में सि$र्फ मुस्लिम जोड़े नहीं आए। रोज़मर्रा की गतिविधि से लेकर खानपान, रहनसहन, पहनावा, बाध्यता, सिनेमा, किताब, कला- वे हर जगह को अपनी फ़िराक से पहले धुंधला फिर बरबाद कर देंगे। हो सकता है कुछ समय बाद सब कुछ सहज लगने लग जाए। 'वो मस्जिद कभी थी ही नहीं जो गिराई गई।' (इस संदर्भ में अंतोनियो ग्राम्शी को आप आगे देखेंगे) ये फ़ासीवाद की व्याप्ति की आखिरी कार्रवाई होगी। बहुसंख्यकवाद के भी फिर बंटवारे होंगे, जातियां होगीं। समुदाय और कुल खानदान परिवार और व्यक्ति होंगे। फिर एक सिलसिला भड़केगा। कॉरपोरेट और मीडिया, ता$कत और प्रसिद्धि बांटेंगे। मौत का कुआं कभी खाली नहीं होगा। ज़िंदगियों की सांय सांय मची रहेगी। ''बुरी ख़बर'' से निजात नहीं मिलेगी। क्योंकि ''बड़े-बड़े शक्ति-चक्र जिनमें से कई भूमिगत और अदृश्य हैं उसे बनाने में दिन-रात लगे हैं'' (मनमोहन की एक कविता से।)
और ये कोई डरावनी उद्घोषणा या वैज्ञानिक सनसनी नहीं है जिसे समकालीन कॉरपोरेट ने चबा चबा कर हमारे लिए पेश किया है, ये ऐतिहासिक सच्चाई है। इसमें कांटे हैं और ये पथरीली उबडख़ाबड़ है, इसे निगलना आसान नहीं। अमेरिकी चिंतक नॉम चॉमस्की ने इसे डर का कारोबार कहा है. सत्ता प्रतिष्ठान डर का निर्माण करता रहता है। मीडिया उसका एक माध्यम है। डरे रहना यथास्थिति को सर झुकाए मानते रहने की घिसट है। सांप्रदायिकता और कट्टरपंथी लंपटई का विरोध इसलिए नहीं करना चाहिए कि ऐसा कर हम एक नैतिकता और एक पवित्र मनुष्यता का निबाह कर रहे होंगे, इसलिए इसका डटकर विरोध करना चाहिए कि ये दोनों ओर मार करेगी। न सिर्फ ज़्यादा और कम के बीच बल्कि अतीत और वर्तमान के बीच। ये भविष्य में भी रेंगती हुई जाएगी और वहां भी अपने ''हम'' और ''वे'' बनाकर पहले वे को खाएगी और फिर हम को। किसकी मिसाल चाहते हैं आप। क्या आज के यूरोप और अमेरिका की। अफ्रीका और अरब की और इज़रायली दमन के साए में घुट रहे ग़ज़ा की। म्यामांर, श्रीलंका या पाकिस्तान या चीन की। या इस महादेश की। कैसे। आप कहेंगे कैसे। ज़रा समझाइये। अच्छा देखिए आप एक गली का कुहराम और जले हुए मकान जले हुए खेत चौपट खेती, खदेड़े हुए पशु और एक भीषण वीरानी देखिए काम को भटकते युवाओं की। उन्हें भी देखिए जो आज किसी फ़ासीवादी सेना या समूह के गर्वीले हिंसक हैं। एक मारामारी और एक जघन्यता और एक हाहाकार और एक उत्पात में कौमों को दहलाकर, सत्ताएं वाजिब और बुनियादी सवालों को भी बक्से में बंद कर देती हैं। ये बक्सा भरता जाता है और कभी पूरा नहीं भरता। ये तिलिस्मी और अदृश्य है। इसका आकार आपको तभी दिखेगा जब आप सत्ता व्यवहार को सही ढंग से समझने की चेष्टा करने लगेंगे। तो ध्यान आपका तबाहियों और जलाई जा चुकी कोमलताओं पर रहता है, आप वहीं देखते और डोलते हैं और आपके बुनियादी अधिकार बुनियादी सवाल बुनियादी मसले उड़कर कहीं बंद हो जाते हैं। आपको फिर अपनी दैनिक बदहाली अपना बरबाद जीवन अपनी लुटीपिटी हैरानियां नहीं दिखती हैं। आपको बस एक गाय एक आदमी एक मकान एक निशान एक अजान दिखती है।
लेकिन क्या ये सब निकट भविष्य में रुक जाएगा। क्या 2019 में चीज़ें बदल जाएंगी, काले बादल छंट जाएंगें। सांस लेने का मौ$का फिर आएगा। क्या फेफड़े फिर चल निकलेंगे। आज़ाद भारत की उत्तरोत्तर त्रासदी यही रही है। सामूहिक बर्बरता जैसे एक अध्याय की तरह आती है। एक अध्याय सांप्रदायिक हिंसा का पूरा पलटा भी नहीं जाता कि दलितों पर हिंसा आ जाती है। एक और अध्याय आदिवासियों की मौतों का है जिसका एक पन्ना माओवादी रंगते हैं और दूसरा सुरक्षा बलों के दस्ते, तीसरा वे नीतियां और प्रायोजित कल्याण हैं जो उन्हें अपने घर, भूख, ज़मीन और अधिकार से बेदख़ल और बीमार करती हैं। उनका जीवन दमन के हवाले है। विरोध करने वाले लोग, मानवाधिकारों के लिए लड़ते कार्यकर्ता, नक्सली सिंपैथाइजर और मददगार कहकर बंद कर दिए जाते हैं। या खदेड़ दिए जाते हैं। लगता है माओवादी हिंसाएं और स्टेट पोषित हिंसाएं एक दूसरे का सहारा बनी हुई हैं। कितने हैं वे जो जंगल में आपसे खाली नहीं कराए जा रहे। या बात कुछ और है। क्या ये युद्ध बनाए रखना है? लेकिन दूसरा पहलू भी है। बस्तर में रिपोर्टिंग कर चुके इंडियन एक्सप्रेस के युवा पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने अपने एक लेख में बताया कि राज्य के िखलाफ सशस्त्र संघर्ष में उतरे लोग एक डेथ विश के साथ डटे हैं, सरेंडर होकर कथित सामान्य ज़िंदगियों में लौटने की असलियत उन्हें पता है लिहाज़ा वे लड़ते हुए इसलिए मर जाना बेहतर समझ रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि उनका ये बलिदान ही आने वाली पीढ़ी के लिए क्रांति की ज़मीन बनेगा। (इंडियन एक्सप्रेस, 28 अप्रैल 2017) इस बीच नक्सल आंदोलन के 50 साल हुए हैं। और कैसा तो ये नज़ारा है कि ठीक उस समय जब नक्सलबाड़ी भूगोल और चेतना से मिटी है तो इला$के के एक आदिवासी घर में अमित शाह पत्ते पर खाना खा रहे हैं। हर कौर में हड़प है। समकालीनता की यही तस्वीर बना पाए आंदोलन के 50 साल में?
आदिवासी इलाकों में ख़ून और बर्बरता एक तरफ, कोई एक वर्ष ऐसा बता दीजिए आज़ाद भारत के इन सत्तर वर्षों में जब किसी जघन्यता ने सामूहिक जीवन पर हमला न किया हो, जब नागरिक जीवन में खलल न पड़ी हो, जब लोग घरद्वार छोड़कर न भागे हों जब पूंजी ने अपना खेल न रचाया हो. 1990 का दशक एक बहुत देर की और बहुत इंतज़ाम वाली परिघटना है। हवाएं और धूल उड़ायी जा चुकी थीं। 90 मे तो रथ को निकलना था. रास्ता भी तो देखिए वो तत्काल नहीं बना था। पहले से बन रहा था।  2014 की छलांग सहसा और अचानक नहीं थी। इसमें एक विशाल मेंढक की उछाल और चिपचिपापन था। हिटलर की सेना पूरे असबाब और शांति और हिंसक तमन्नाओं को अपनी जेबों और इरादों में भरकर आई। 20वीं सदी जब अपने घोषित इंतकाल से पहले पूरी हो रही थी तभी ये होने लगा था। 20वीं सदी पूरी होकर भी अधूरी है। 19वीं सदी के कुछ साल अपना हिसाब मांग रहे हैं। 18वीं सदी कोड़े फटकार रही है। 21वीं सदी की किस तन्मयता की बात करते हैं आप। उसकी तो चमड़ी उधेड़ दी गई है। बर्बरता की नई सभ्यता वहां जन्म ले रही है। नई चमड़ी यही है जो आ रही है।
उत्तर-आधुनिक इस काम में एक अघोषित मदद कर रहे हैं। और ये सारी दुनिया में फैलते कट्टरपंथ के बगलगीर हो गए हैं। उन्हें नहीं पता कि ऐसा हो रहा है क्योंकि वे उत्तर आधुनिकता के नाम पर इतिहास का अंत कह रहे हैं। वे आज का भी अंत करने पर तुले हैं। ब्रिटिश पोस्ट मॉडर्न हिस्ट्रियोग्राफर कीथ जेनकिंस कहते हैं, ''हम शायद ऐसे उत्तर-आधुनिक क्षण में आ गए हैं जहां हम इतिहास को पूरी तरह भुला सकते हैं।'' नयी अर्थ सृजना में ख़ुद को खपाने वाले उत्तर-आधुनिक विमर्श के शुरुआती मार्क्सवादी विद्वान ल्योतार और बौद्रिया भी अर्थ की रिसाईक्लिंग की इस प्रवृत्ति पर चिंतित थे। वे मूल रूप से निराशावादी थे और अर्थ और इतिहास के तमाशा विखंडन से खिन्न हो चले थे। वे चिंतित थे कि उत्तर-आधुनिक ब्रेकडाउन का ये सिलसिला कहां जाकर रुकेगा। यानी चिंता ये है कि इतिहास आप भुला दीजिए और फिर एक अलग इतिहास लाइये। एक कृत्रिम संरचना. जिसमें मिथकों और किस्सों और तथ्यों का घालमेल होगा और इस तरह इतिहास की नयी खिड़की खुलेगी। एक पोस्ट मॉडर्न विंडो। जो दरअसल विंडो है ही नहीं, ये एक वॉल है। और आप जानकर हैरान होंगे कि ये वॉल ठीक वैसी ही सख़्त और ऊंची है जैसी सोवियत दौर की स्टालिनवादी दीवार जो जब मिखाइल गोर्बाच्योव के साथ गिरी तो इतनी बेआवाज़ इतनी बेइतिहास मानो आवाज और इतिहास को उसमें से पहले ही नोच कर अलग कर दिया गया हो। मानो वो कोई रिसाव हो। चेर्नोबिल और गोर्बाच्योव एक साथ गिरे। ब्रिटिश चिंतक जॉन बर्जर ने पोलिश-जर्मन स्वप्नदर्शी क्रांतिकारी दार्शनिक नेता रोज़ा लक्ज़मबर्ग की एक भावभीनी याद में उन्हें मुखातिब एक चिट्ठीनुमा टिप्पणी लिखी: ''रोज़ा तुम सही थी। तुमने पहले ही देख लिया था। तमाम तर्कयुक्ति तमाम रीज़निंग के ख़िलाफ बहस पर उतारू बोल्शेविक व्यवहार का ख़तरा। तुमने 1918 में ही कह दिया था, आज़ादी सिर्फ सरकार के सदस्यों के लिए, सिर्फ पार्टी के सदस्यों के लिए- जबकि वे बहुतायत में हैं- कतई कोई आज़ादी नहीं है। आज़ादी हमेशा वो है जो जुदा सोच रखने वाले को हासिल होगी।'' (फ्राईहाइट इस्ट इमर डी फ्राईहाइट डेस आंडेर्सडेंकनडन- जर्मन भाषा में मूल वाक्य)  भविष्य के मार्क्सवादियों के लिए कठिन समय तभी शुरू हो चुका था। लेनिन-त्रॉतस्की द्वय और रोज़ा की बहसें एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए टकराती मिलती जुड़ती बहसें हैं। बेशक बोल्शेविक क्रांति को लेकर रोज़ा के कुछ गहरे सवाल और संशय थे, बेशक लेनिन के पास उनके जवाब और स्पष्टीकरण भी उतने ही ठोस थे लेकिन रोज़ा को अंतरराष्ट्रीय वाम आंदोलन के लिए एक प्रेरणा सबने माना है। त्रॉतस्की तो बाद के दिनों में और स्टालिन के िखलाफ अपनी ऐतिहासिक लड़ाई में रोज़ा को याद भी करने लगे थे कि उनसे सैद्धांतिक विरोध के बावजूद रोज़ा को गालियां देना निंदनीय है। अक्टूबर क्रांति के नायकों में लेनिन का साथ देने वाले और क्रांतिकारी सेना का नेतृत्व करने वाले त्रॉतस्की को भी ऑफ़िशियल वाम ने भुलाया है। दुनिया के आगामी वाम नेताओं और सरकारों के लिए भी स्टालिनवाद एक लकीर थी। कुछ इस लकीर में विलीन हो गए कुछ एक बड़ी लकीर खींच कर गए। जैसे फ़िदेल कास्त्रो। बोल्शेविक सत्ता सर्वहारा नहीं अधिकारियों की सत्ता बनीं तो यही ख़तरा तो रोज़ा को था। वो कहां ग़लत थीं। आिखरकार उस सत्ता का ब्यूरोक्रेसीकरण ही तो हुआ। स्टालिनवादी कहेंगे कि वो लौह दीवार न बनती तो पूंजीवादी ताकतें सोवियत सर्वहारा को खा जातीं। अंदर लेकिन क्या मचा था। और अंतत: हुआ क्या। कहीं तो उसके बीज पनपने लगे थे न। लेनिन और त्रॉतस्की भी इसी एक बात से चिंतित थे और एक रास्ते की तलाश में थे जो सोवियत स्वप्न को अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा के स्वप्न से जोड़ सके।
20वीं सदी के पहले दो-तीन दशकों की इन चिंताओं में एक प्रमुख और बुनियादी स्वर इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और दार्शनिक अंतोनियो ग्राम्शी का भी जुड़ता है। रोज़ा की तरह वे भी पारंपरिक मार्क्सवादी स्कूल से अलग एक नये वाम के लिए प्रयासरत थे। सोवियत आंदोलन से उनका भी जुड़ाव था और ग्राम्शी ने स्टालिन की पार्टी के भीतर मज़बूत होती स्थिति को भी देख लिया था। ये अलग बात है कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से त्रॉतस्की की आलोचना ही की और स्टालिन की कुछ कमियां गिनाते हुए उनका पक्ष लिया। ग्राम्शी की पैनी नज़र में स्टालिन का व्यवहार क्यों छिपा रह गया और क्यों वो पहली बार से ही उनकी सीधी आलोचना से परहेज़ करते रहे, इस पर और छानबीन की ज़रूरत है। लेकिन ये भी सच है कि स्टालिन को लेकर बाद के दिनों में उनके मन में कोई दुविधा नहीं रह गई थी और इसे लेकर इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता उनसे ख़फ़ा भी हो चले थे। 20वीं सदी के राजनैतिक सिद्धांतों में जो अग्रणी योगदान हैं उनमें ग्राम्शी की ''प्रिज़न नोटबुक्स'' शामिल हैं। ग्राम्शी ने सांस्कृतिक वर्चस्व के अपने सिद्धांत के ज़रिए बताया कि कैसे आ$िखरकार बुर्जुआ या पूंजीपति शासक वर्ग अपना आधिपत्य $कायम रख पाता है और कैसे साधारण लोग इस आधिपत्य के सूत्रों को ही कॉमनसेंस मानकर जैसा चलता है चलने दो कि मान्यता पर जैसे तैसे जिए जाते हैं। बुर्जुआ द्वारा पेश भलाई में ही उन्हें अपनी भलाई लगती है, वे विरोध नहीं करते, आदी होते जाते हैं और इस तरह विद्रोह के बजाय यथास्थितिवाद पनपता जाता है। आज हम इसी सांस्कृतिक वर्चस्व में घिरे हैं जिसके बहुत सारे शेड्स अब सघन हैं। भारत का आधिकारिक वाम सन्नाटे में है, ये हम आगे देखेंगे।
फिलहाल वापस पोस्ट मॉडर्न के मुद्दे पर आएं। ये दलील इस तरह से आधुनिकता का उत्तर ही नहीं उसका पूर्व भी है। वो अवधारणा में भले ही आज हो लेकिन उसकी सक्रियता कल से बंधी है। पोस्ट मॉडर्न अतीत की ओर लौटता आज है और भविष्य की ओर जाता अतीत। वर्तमान उसका स्थायी शत्रु है। लिहाज़ा वो भविष्य पर पहले से ही $कब्ज़ा जमा लेना चाहता है। इसके लिए वो कुछ अंत के ऐलान करता है। इतिहास कला उपन्यास के अंत किए जा चुके हैं, क्रिटिकल स्टडीज़ और नये वाम विमर्शों में सरकारों के अंत और कॉरपोरेट की हेजेमनी का ज़िक्र है लेकिन पोस्ट मॉडर्न, कॉरपोरेट को प्रतिष्ठित करने निकला विश्वव्यापी अभियान है। वो तो बिल्कुल धूल उड़ाता हुआ चल रहा है, उसे न आलोचना की परवाह न किसी क्रिटीक की। वामपंथ को तो उसने जैसे मुंह में रख लिया है। पोस्ट मॉडर्न जिस उत्तर इतिहास या जिस उत्तर सत्य का झंडा लेकर चलता है उसमें ऐसी प्रवृत्तियां सहजता से रास्ता बनाती हैं जो अपने स्वभाव और संरचना में फंडामेंटालिस्ट हैं। फ़ासीवाद उसका ईंधन है। उसी से ये संरचना हिलती डुलती और हम पर अपनी धूल गिराती है। लेकिन धूल झाड़ कर उठना हमारा दायित्व है। जब फेमेनिस्ट लेखिका डायना इलेम कहती हैं कि ''इतिहास वो नहीं है जो वो हुआ करता था'' तो जवाब में हमें मिलान कुंदेरा को याद कर लेना चाहिए: सत्ता के $िखला$फ मनुष्य का संघर्ष, भूलने के विरुद्ध स्मृति का संघर्ष है। (द बुक ऑफ लाफ्टर ऐंड फॉरगेटिंग, 1983.) स्मृति का संघर्ष हमें फटकार में ले जाता है क्योंकि हमने यानी आज की पीढ़ी, हमारे समकालीन और हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी ने 70 साल के दरम्यान, बिरले उदाहरणों को छोड़ दें, तो उस भीषणता का मुकाबला करने की बहुत कम तैयारी की जो आज विकराल है। ये प्रशंसा ये तौहीन ये मारामारी उस सब के सामने क्यों कमतर हैं जिसे ब्रेख्त ने जख़्म कहा और मोहब्बत कहा और मुक्तिबोध ने अंधेरे में कहा चॉमस्की ने चेतना कहा और विचार कहा और अरुंधति ने स्वप्न कहा और इरादा कहा और इधर देवी ने दुर्गति कहा।
तो कुछ न लिखा जाए कुछ भी नहीं?! न कविता न कहानी न उपन्यास न विचार। फिर क्या किया जाए। गद्य नया होगा। भाषाओं को एकजुट होना होगा. भारतीय भाषाओं को पारस्परिक ऊष्णता में उतरना है। हिंदी को शायद सबसे पहले, वरना वो अपनी खलबली मचाती रहेगी। नीली छतरियां मत खोलिए। पुरस्कारप्रियता और प्रदर्शनप्रियता न बढ़ाइये। नयी रोचकताओं को सहलाना बंद कीजिए। तमाशा बंद और सुखवाद पर चोट कीजिए प्लीज़। नागरिक आपसे दूर हैं वोटर आपको नहीं पहचानता। अगर हम सिर्फ हिंदी की बात करें तो एक दूसरे को आश्रय दीजिए। एकजुट होइये। ख़राब कविता और अच्छे  मनुष्य और अच्छी कविता और बुरे मनुष्य को पहचानिए. सुविधावादी न होइये कि ये स्वीकार्य ये ख़ारिज। खरपतवार किनारे कीजिए. वाम और दक्षिण दोनों खरपतवार। हिंदी में ये बहुतायत में आ गई है। गान बंद कीजिए। हिंदुवादी मत होइये। नास्तिक इस तरह से बनिये कि मखौल मत उड़ाइये। नया होइये। नव-पराक्रमी नहीं, नव-संशोधनवादी नहीं। हिंदी में मेजोरिटीवादी न बनिये, किसी भी भाषा में ऐसा मत होइये। इसे फ्ऱस्टेशन न समझिए। पत्रिकाएं बंद कीजिए या उनमें जगह दीजिए। हिंदी कहीं नहीं जा रही है। $फेसबुक पर कविता प्रशंसकों-उपासकों का निर्माण करती है। या हताश निंदकों का या वहां निहालों के बेड़े हैं। फेसबुक के बाहर भी एक फेसबुक नहीं देखते आप? कुलीन थपथपाहट की कृत्रिम बनावटें जो बैठकों और समारोहों और गोष्ठियों तक जाती हैं। यथार्थ का ऐसा वर्चुअलीकरण हुआ है। शिनाख़्त तो हमें ही करनी होगी। एक वाचाल क्रांतिकारिता और वाचाल साहित्यकारिता पहले रिएक्शनरियों फिर फ़ासीवाद की मदद करती है। प्रतीक यहां से भी उठते हैं। धुआं परिवर्तन का दिखता है लेकिन वे साए हैं। सब कुछ ढहाते हैं।
वे प्रतीकों को त्रिशूल बना देते हैं और अगर त्रिशूल न हों तो लाठी से लेकर जबान तक एक नुकीला हथियार आजमाने लगते हैं। भारत इसी शोषण से फूटी माता बनी है, गाय का भी यही हश्र है। 20वीं सदी के तीसरे दशक में फादरलैंड की गुहार लगाकर जर्मनी इटली स्पेन फ्रांस आदि में एक बहुसंख्यकवाद पनपा था, स्थानीय और तत्कालीन विपदाओं से छुटकारे की लुभावनी कसमों ने इसे लोकप्रिय और अंतत: एक भयानक दुस्वप्न बनाया। यह नष्ट नहीं होता। यूरोप से इसके निशान मिटे तो फिर उभर आए। विष्णु खरे की कविता में कहें तो ये आज का ''दज्जाल'' है। नात्सियों के अब नवनात्सी गिरोह आ गए हैं। यूरोप कट्टर राष्ट्रवाद में झुलसने लगा है। अमेरिका में इसने घिनौने संकुचित संरक्षणवाद और और नवउपनिवेशवाद की शक्लें बना ली हैं। दक्षिण एशिया में ये पूंजीवाद और आर्थिक उदारवाद और सांप्रदायिक विभाजनवाद के साथ उतरा। इसकी कई उपश्रेणियां बनी। सबने खून मचाया। जातिवाद और जमींदारी और ठेकेदारी और राजे रजवाड़े और आगे चलकर कॉरपोरेट और मीडिया, दमन की नई भट्टियां बन गए. बहुसंख्यकवाद की चक्की इनके ऊपर चलती रही। कोई आवाज़ नहीं आई। दक्षिण एशिया का न जाने कितना खून अरब सागर और हिंद महासागर में बहा है।
कौन आगे आएगा। इस पर तो विमर्श हो चुका। इस फासीवाद के आगमन और निगमन की भयानकताएं भी आ चुकीं। अब क्या करेंगे। कौन से टूल्स से हराएंगे इसे। क्या यूरोप की ओर देखेंगे। या अपनी कोई प्रतिरोध प्रणाली विकसित करेंगे। उसे समवेत करेंगे। ऐसा तो नहीं होगा कि हमें उनकी ज़रूरत है क्योंकि दोनों पक्षों का काम चलेगा, जैसे अमेरिका और पश्चिमी ताकतों का काम, एक शत्रु के बिना नहीं चलता इसलिए नॉम चॉमस्की ने मीडिया में जिसे ''मैनुफैक्चरिंग कंसेंट'' (1988) कहा है वो राजनैतिक सामरिकता में मैनुफैक्चरिंग द एनिमी है। तालिबान और अलकायदा से होते हुए आईएस उसका नया नाम है। उसके पास जखीरे हैं और लड़ाई से सराबोर इलाका है। हथियार कंपनियां दिवालिया नहीं होने पाई हैं। इस दरम्यान एक से एक धुरंधर कॉरपोरेट पनप उठे हैं और हथियारों का कारोबार कृपापूर्वक जारी है। एक बंदूक का हत्था अगर सरकार के पास है तो उसका मुंह किसी गिरोह के पास है। या वाइसेवरसा। इतनी बड़ी बंदूक है ये। और बम का तो आप पिछले दिनों देख ही चुके हैं, वो मदर ऑफ ऑल बॉम्ब्स। उसे खाली यूं ही नहीं किया गया- शौक में या शान में या दबंगई में, उसे इसलिए भी खाली किया गया कि और बम चाहिए. कारोबार सूखने नहीं देना है। ये गठजोड़ है। चॉमस्की ने कहा, हम भाड़े के लोग बनते जाते हैं जिन्हें अगले आदेशों पर कहीं भी किसी पर भी टूट पडऩा है।
वापस उस बात पर लौटते हैं कि हिंदुस्तानी मैदान में फ़ासीवादी मौजूदगी को लेकर जो नादानी या संशय या इसे न मानने की जो दलीलें हैं, वे फ़ासीवाद के उदय और उसकी इधर आपदाओं के साए में, थोड़ा दूर चलकर टूट जाती हैं क्योंकि वे ख़ुराफ़ात के मूल आशयों को नहीं पकड़तीं. सीपीआईएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात के हाल के उद्गार ''देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उसमें यह कहना उचित नहीं कि फ़ासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है,  उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है'' की समीक्षा करते हुए युवा लेखक पत्रकार और ब्लॉगर धीरेश सैनी ने अपने एक लेख में करात से कुछ बातें पूछीं:  ''वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है, कहते हुए आप अरसे तक दलितों और स्त्रियों के सवालों से मुंह मोड़ते रहे। आपके नेतृत्व से वे ग़ायब रहे और फिर तमाम संघर्षों के बावजूद आप उन तबकों में विश्वसनीयता खोते रहे। एक सवाल आपसे लगातार और अब सच्चर आयोग का हवाला देकर पूछा ही जाता रहा है कि आखिर बंगाल में इतने बरसों के शासन में मुसलमान और दूसरे कमज़ोर तबकों की हालत इतनी दयनीय क्यों रही। यह भी कि आदिवासी क्षेत्रों में जब भयंकर दमन शुरु हुआ, तो आप कहां खड़े थे? सोनी सोरी तो नक्सलवादी नहीं थीं। यदि वे नक्सल या संघ की भी कार्यकर्ता होतीं तो भी एक स्त्री की योनि में पत्थर भर देने के कृत्य के इतना चर्चित हो जाने के बावजूद आप की महिला विंग तक ख़ामोश क्यों बनी रहीं? क्या वजह है कि आपके पास बुद्धिजीवियों का बड़ा जखीरा होने के बावजूद मुश्किल मसलों पर ख़ामोशी छा जाती थी और अरुंधति जैसे ऑथेंटिक स्वर आप बर्दाश्त नहीं कर पाते थे? क्या आप जानते हैं कि लेफ्ट के लिए सरकार बना पाने से ज्यादा मूल्यवान अगर कुछ है तो विश्वसनीयता ही है? और क्या आप जानते हैं कि ताज़ा प्रकरण में आप वही खो रहे हैं?'' पता नहीं वे कौन से कांड होंगे जिनसे करात मान लेंगे कि लीजिए साब ये रहा अपना चिरपरिचित पढ़ा रटा फ़ासीवाद। ये है इसकी पोशाक ये इसका रंग ये इसका चेहरा। यानी वो फ्रांसीसी लेखक फ्रांक पावलो$फ की उस कहानी की तरह ''सुबह का रंग भूरा'' होने का इंतज़ार करेंगे जिसमें एक सत्ता की फ़ासीवादी सनक एक रंग से तमाम गतिविधियों, पशुओं, पुस्तकों, इमारतों को रंग देना चाहती है। वो रंग भूरा चुना गया है। अपने यहां कौनसा रंग होगा जब करात कुछ डूब कर निर्णायक कहेंगे। या फिर वो जूलियन बान्र्स के उपन्यास, ''द नॉयज़ ऑफ टाइम'' के किरदार शोस्ताकोविच की तरह अपने भीतर कुछ भटकेंगे। वाम को नया होना होगा। वो इस बालहठ में नहीं रह सकता कि हम तो ख़ुद को रिइन्वेन्ट नहीं करेंगे। नहीं कीजिए ऐसा लेकिन लड़ाई तो नई बनाइये। अपने टूल्स की दशा तो देखिए। मार्क्स और लेनिन के कौन से सूत्र का आपको इंतज़ार है जो रासायनिक फुर्ती से आपको क्रांतिध्वज सौंप देगा।
इस ऑफ़िशियल वाम से दक्षिणपंथ की संगति पीछे कहीं पर्दे के पीछे जुड़ती है। इस तार को देखना होगा। अतिवाद परस्पर विलीन हो जाता है। बड़बोले, मुंहफट, ज़हरीले और भाषा और क्रिया में दनदनाते संत साध्वी नेता मंत्री, हरियाणा यूपी से लेकर केरल तक, बंगाल से लेकर राजस्थान गुजरात तक एक फ़ासीवादी सामंजस्य बनाते हैं। आवरण कैसा भी ओढ़ा दीजिए। दल कोई भी उकेर दीजिए। इसे आप 'इलेक्टोरल फ़ासिज़्म' कह सकते हैं। लोकतंत्र के भेष में ये खेल दूसरा है। और इसमें अगर सत्ता के अलावा किसी की संस्थागत साझेदारी है तो वो है मीडिया। दमन पुराने और नये रूपों में हैं। विघनटकारी टीवी धारावाहिक, टीवी समाचार चैनलों की शाम की बहसें, चुनाव, विज्ञापनों से झांकती अख़बारी हेडलाइनें, आधार कार्ड, मिड-डे मील, मनरेगा, पुरस्कार, साहित्य, फ़िल्में, कलाएं, कृषि कल्याण, रस्सियों में झूलते और ट्रेनों से कटते किसान, बंकरों और छावनियों और चौकियों में मरते सैनिक, आत्महत्या करते छात्र, आंदोलन, शिक्षकों की पिटाई, वोटिंग मशीनें, आजादी के नारे, अभिव्यक्तियां, स्वच्छ भारत- एक धूल उड़ाता जुलूस जैसा निकला हुआ है और आम लोग या तो तन्मय हैं या क्रोधित हैं या पंक्तिबद्ध हैं। वे कब उठेंगे। विष्णु खरे की कविता ''दज्जाल'' बताती है: ''जब उसका दहशतना$क चेहरा सामने आएगा/  और वह वही सब करेगा जिसके िखलाफ उतरने का/ उसने दावा और वादा किया था/ बल्कि और भी बेख़ौफ उरियानी और दरिन्दगी से/ तो अगर तबाही से बचे तो ख़ून के आँसू रोते हुए अवाम/ ज़मीन पर गिर कर छटपटाने लगेंगे/ किसी इब्ने-मरिअम किसी मेहदी किसी कल्कि की दुहाई देते हुए/ जो आए भी तो तभी आएँगे जब कौमें पहले ख़ुद खड़ी नहीं हो जाएँगी/ दज्जाल की शनाख़्त कर शय्याद मसीहा के िखलाफ।''
फ़ासीवाद के लक्षणों के बारे में लिखा जा चुका है। उन्हें दोहराने का औचित्य नहीं। एंगेल्स, ग्राम्शी, ब्रेख्त, उम्बर्टो इको से लेकर इरफान हबीब, अरुंधति रॉय और जयरस बानाजी तक फ़ासीवादी प्रवृत्तियों और उसके उदय और उभार के बारे में लिख चुके हैं, समकालीन चिंताओं में ये बातें आ चुकी हैं। भाषा और विचार को नयी और स्वप्नदर्शी जगह देने वाले हमारे समय के महत्त्वपूर्ण चिंतक-संपादक और उपन्यासकार ने कहा है, ''सर्वोत्तम लड़ाइयां ख़ुद से लड़ी जाती हैं और वे हमें उपयुक्त बनाती है।'' यानी एक नयी रूपरेखा की ज़रूरत है। रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने कहा था, ''आधुनिक सर्वहारा वर्ग किसी किताब या थ्योरी में पेश किसी प्लान के हिसाब से अपना संघर्ष नहीं चलाता है। आधुनिक कामगार का संघर्ष इतिहास का एक हिस्सा है, सामाजिक तरक्की का एक हिस्सा है और इतिहास के बीचोंबीच, तरक्की के बीचोंबीच और लड़ाई के बीचोंबीच हमें सीखना होगा कि हमें कैसे लडऩा है।'' रोज़ा के इशारे को राजनैतिक सामाजिक सांस्कृतिक स्तरों पर लें। राजनैतिक लड़ाई का स्वरूप फिर से तय करना होगा। ज़रूरी समन्वयों और कच्चे गठजोड़ों की तात्कालिकता का हश्र देख लिया गया है। इसका अर्थ ये नहीं है कि गठजोड़ छोडऩे होंगे, बल्कि तात्कालिकता को तोडऩा होगा और उन गठजोड़ों से सावधान रहना होगा जो आपकी लड़ाई और समझ को ले उड़ेंगे। एक स्थायी, पारदर्शी और ज़िद भरी संरचना बनानी होगी। एक नया वाम चाहिए होगा। अब इसे चाहिए कि सो कॉल्ड उपदेश विरोधी खिन्नता में न पढ़ा जाए। इसे एक उस चाहिए के अंदाज़ में पढ़ें जैसा देवीप्रसाद मिश्र की कविता कहती है: ''सत्य को पाने में मुझे अपनी दुर्गति चाहिए।'' इस वृत्तांत की स्पिरिट, 18वीं सदी के जर्मन कवि फ्ऱीडरिश गॉटलीब क्लोपस्टोक की एक कविता से भी जुडऩा चाहती है:-
ह्योर आउफ सू बेबन! बेराइटे डिश सू लेबन!  आउफरश्टेहन /
बंद करो कांपना! तैयार करो ख़ुद को जीने के लिए! उठो फिर से।

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