लंबी कविता आस्तीक बाजपेयी का पहला कविता संग्रह 'थरथराहट' 2017 में राजकमल से प्रकाशित
अब क्या रह गया है, हम सब तो हार गये।
अपनी कोशिश की नाकामयाबी का सामना करने का ज़ज्बा भी
चलो, अब समय आ गया पिछली शताब्दी के कोने में हम गाँधी को बैठा कर आ गये, यह बोलकर कि देश आजाद हो गया।
क्योंकि हमें पता था कि आजादी कुर्बानी मांगती है हमने एक दूसरे को मारा उन्हीं अस्त्रों को उठाकर जिन्हें सदियों पहले अशोक ने त्याग दिया था, हम लड़ते गये और कुछ न कर पाये।
और हम छिप गये उस युद्ध से जो हममें छिड़ गया था जिसे जीतकर एक कुत्ते को छोडऩे का शर्त पर स्वर्ग जाने से मना कर चुका था युधिष्ठर।
अपने बूढ़ों के स्वप्नों को नोचकर हम परिष्कृत हो गये। अंग्रेजी बोलते-बोलते हमने हिन्दी में सोचा क्या हम स्वतंत्र हो गये?
हम कुछ तो हो ही गये होंगे ढोंगी, क्रोधी, ईष्यालु!
समय में गुँथा एक फन्दा जिसे खोलने की फुर्सत अब किसी के पास नहीं है
हम यह समझ नहीं पाये कि इस शोर से नहीं छिपेगा कि हम अकेले थे, नहीं छिपेगा कि, दूसरे भी अकेले थे। मंसूर के लिए
बहुत बच्चे जवान हो गये उस समय के बाद बादल गरज गये, पहाड़ टूट गये, समय बहा भी, थमा भी
मैं कभी मंसूर से मिल नहीं पाया, लेकिन बहुत लोगों से जिनसे मिला हूँ उतना अपनापन नहीं पाता जितना मंसूर से हवा के बीच हिल रही पत्तियाँ भी शरमा रही हैं बादल की खुली चीख के आगे, अब क्या कहना है जब खत्म हो गया तब भी कह रहा हूँ।
कितने खुश एक बच्चे की तरह हर राग में कैस की तरह दु:खी हर राग में।
शायद समय तो वह पालना है जिसमें हमें बैठाकर मंसूर कहते हैं अपनी मौलिक प्रार्थना
बूढ़े लोग ज्यादातर कितने जवान बच जाते हैं, बादल अक्सर गरजते हुए बरस भी जाते हैं।
हर बार जब हम मंसूर को सुनते हैं तो मंजी खाँ हमारे अन्दर आकर आँसू बहाते हैं और खुश हो जाते हैं। कहें तो किससे, मंसूर नहीं रहे। हम चुप रह जाते हैं और कितना शोर कर जाते हैं।
पेड़ के हिलने का वेग, चिडिय़ों की उड़ान की थकान, पितरों का वर्णन करने की असम्भावना, सब एक एक तान में, हाय, मंसूर नहीं रहे।
शायद किसी सदी के किसी ऋषि ने अपना ज्ञान शताब्दियों परे मंसूर के गले में फेंक दिया था और जब उसने देखा कि हम तो सुनते ही नहीं खुद की गाना क्या सुनेंगे, वह पलट गया।
और महफिल में मंजी खाँ और अल्लादिया खाँ को गाना सुनाने लगे और बूढ़े हो गये तो यह दोनों उनके अन्दर बैठ गये और बूढ़े मंसूर ने फिर गाना शुरू किया।
जो सुनते थे उनके तो खड़े होने की जगह नहीं बची, हॉल इतने भर गये कि फिर से खाली हो गये और बड़े उस्ताद* विनम्रता से पीछे हो गये, फैयाज़ खाँ टूटी कब्र को समेटते हुए लाचार हो गये।
कुछ समय के बाद तो कुत्ते भी भौंकना बन्द कर देते हैं।
गाय तो अब दिखती ही नहीं पता नहीं कहाँ से रोटी खाती होगी।
जब हम हर समावेश में प्राचीनत्व को खत्म कर रहे हैं तो शुक्र है कि समय का एक अंश मंसूर की आवाज़ के तले महफूज़ है।
* 'बड़े उस्ताद उस्ताद जिया मोहिउद्दीन डागर को कहा जाता है। |