ग़ज़ल
(1)
कौन संज़ीदा है खेतों बस्तियों के वास्ते जंग जारी है मुसलसल कुर्सियों के वास्ते इक तरफ़ पूजा-हवन है, इक तरफ़ जलसे, जुलूस इक तरफ़ मोहताज लाशें लकडिय़ों के वास्ते बेवज़ह हरगिज़ नहीं बनती तो सेरोगेट मां कोख बेची है अपाहिज बेटियों के वास्ते पुलिस में सेना में हैं क्यों न दें मस्ज़िद में अजान तोड़ दो थोथे नियम सब लड़कियों के वास्ते सिर्फ वादों से ग़रीबो के दिलों को जीतना उनके एजेन्डे में है ये सुर्खियों के वास्ते दाना माझी की तरह इस दौर को ढोते हुए और क्या कर पाएंगे हम पीढिय़ों के वास्ते हो सके तो माफ़ करना यूं भी शरमिन्दा हैं हम जो कभी कीं ही नहीं उन गल्तियों के वास्ते मुस्कराएंगे वो महफ़िल में जो गुलदस्तों के साथ मर मिटेंगे लोग इक दो झलकियों के वास्ते बाढ़ में सब बह गया कुछ रह गए बूढ़े दरख्त जो किनारों पर बंधे थे कश्तियों के वास्ते
(2)
इतना है बस सुकून कि बेघर नहीं हैं हम लानत है ज़िन्दगी को कि पत्थर नहीं हैं हम या इसलिए भी लोग हमें जानते नहीं मज़दूर हैं वज़ीर या अफ़्सर नहीं हैं हम गो बुतपरस्त हों न हों इन्सांपरस्त हैं ज़िन्दा हैं इसलिए भी कि क़ाफ़िर नहीं हैं हम उड़-उड़ के नापते हो हमें आस्मान से क्या अब ज़मीन के भी बराबर नहीं हैं हम मिल जाएं तो गहराइयों में सीपियों के बीच इल्ज़ाम सर न आए कि शायर नहीं हैं हम यूं कश्तियों को बांधने वाले दरख्त हों बनते, बिखरते रेत के पैकर नहीं हैं हम नाकारा हों बदकार हों कंगाल हो कुछ हों इस दौर के लिहाज़ से बदतर नहीं है हम गर बाज बन न पाए तो इतना भी सोचियो क्यूं आपकी मर्ज़ी के कबूतर नहीं हैं हम
(3)
बादलों के रंग मौसम की अदा को देखना ऐ अदीबो वक्त की आब-ओ-हवा को देखना बुतपरस्ती इक तरफ़ फ़िरक़ापरस्ती इक तरफ़ क्या खुदी को देखना अब क्या खुदा को देखना छिल गए झंडे जुलूसों से ही सड़कों के बदन हादसों में पल रही घायल फ़िज़ा को देखना सिर्फ जुमलों से ही जीतेंगे तो मज़लूमों के दिल मन लुभाती ताज़दारों की कला को देखना किसने फूकीं बस्तियां ये रह गए बच्चे यतीम हो सके तो जुर्म की इस इन्तहा को देखना दफ्तरों से छू हुई थी और संसद में बिकी गो कहीं टकरा ही जाएगी हया को देखना एक सूरत लाख जलवे फिर अदाएं बेशुमार आप को देखा है तो अब किस बला को देखना
(4)
न खुदा से कोई गुरेज है न खुदी का कोई मलाल है कि जिए हैं जिसके कहे पे हम उसी ज़िन्दगी का मलाल है कहीं मुफ़लिसों की पुकार है कहीं अस्मतों का बाज़ार है जो नज़र बचा के गुज़र गई उसी बुज़दिली का मलाल है कोई बम गिराने के शौक में कोई जन्नतों के जुनून में ये चले हैं जिसके चले ही सब उसी काहिली का मलाल है जली बस्तियों के कबाड़ में जो बुझे-बुझे से पड़े हैं घर जो दिलों में जल के ही मर गई उसी रोशनी का मलाल है जिसे बोलने का भी हक नहीं कि समंदरों में नमक नहीं जो बुझे है रेत की प्यास में बस उसी नदी का मलाल है मैं हूं भूख के बनवास में तू है दिलबरों के हुजूम में मुझे रोटियों से गिला नहीं तुझे आशिकी का मलाल है
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