आँखें अब भी देखती हैं लहलहाती फसलों का सपना

  • 160x120
    अप्रैल 2017
श्रेणी आँखें अब भी देखती हैं लहलहाती फसलों का सपना
संस्करण अप्रैल 2017
लेखक का नाम अरुण होता





मदन कश्यप का कवि-कर्म



पाब्लो नेरुदा ने लिखा है कि उन्होंने किसी पुस्तक से कविता लिखने का गुर नहीं सीखा। जीवन के गहन अनुभवों ने उन्हें सूझ दी और इसी सूझ-बूझ ने उनकी कविता-यात्रा को प्रेरित किया। जीवनानुभव ही उनके सृजन का मूलधन था। वे झूठ, मक्कारी, दमन और शोषण का नाश कर सत्यं, शिवं, सुंदरम् की कल्पना करना चाहते थे। उनकी कविता के बारे में कहा जाता है - ''उनके शब्द रक्त से उत्पन्न होते थे, अंधेरे में स्पंदित होते थे तथा मुंह और होठों से निकलते थे।'' सचमुच, कविता लिखी नहीं जाती, लिख जाती है। हमारे रीतिकालीन कवि घनानंद ने स्पष्ट कहा है - ''लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहिं तो मेरो कवित्त बनावत।'' इस संदर्भ में मदन कश्यप के कवि-कर्म पर विचार अपेक्षित है।
मदन कश्यप की 'चिडिय़ा की चोंच' शीर्षक कविता 1973 में लिखी गई थी। इस कविता ने मुझे काफी प्रभावित किया था। प्रतिकूल समय तथा अराजक व्यवस्था में आम आदमी की चिंताओं को साकार करने वाली यह कविता अपनी लयात्मकता के कारण अधिक प्रभावशाली लगी। जहाँ तक मुझे मालूम है 'पहरेदार के नाम' मदन कश्यप की पहली प्रकाशित कविता है। यह कविता 1975 में आपातकाल के दौरान लिखी गई थी और उसी वर्ष उस समय की प्रसिद्ध लघु पत्रिका 'पुरुष' के पाँचवें अंक में प्रकाशित हुई थी। अंधेरे समय में किरण की एक झलक की उम्मीद ही नहीं सत्ता की क्रूरता का विरोध भी मौजूद है इस कविता में -
''मेरी भाषा अभी चीख के रूप में बची है पहेरदार
पर तुम तो बिल्कुल गूँगे बना दिये गए हो''
बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में मदन कश्यप की कविताएँ पाठकों का ध्यानाकर्षण तो करती हैं लेकिन नब्बे के दशक में हिंदी की दुनिया उन्हें कवि के रूप में मान्यता देती है। उनकी काव्यपुस्तिका 'गूलर के फूल नहीं लिखते' (1990) के काव्य प्रेमियों ने सराहा। इसके बाद उनके 'लेकिन उदास है पृथ्वी' (1992), 'नीम रोशनी में' (2000), 'कुरुज' (2006), 'दूर तक चुप्पी' (2014) और 'अपना ही देश' (2015) कविता संग्रह प्रकाशित तथा चर्चित हुए हैं। कविता, राजनीति, इतिहास, जनांदोलन और आदिवासी जीवन का अध्ययन इस कवि का कार्य क्षेत्र रहा है। व्यापक जीवनानुभव से समृद्ध यह कवि अपनी पीढ़ी का महत्वपूर्ण रचनाकार है।

                                                                   (दो)

रचनाकार अपने समय और समाज का जाग्रत प्रहरी होता है। वह समय और समाज पर पैनी न•ार रखता है। अपनी दृष्टि, अनुभव आदि के आधार पर वह युगीन संदर्भों और चिंताओं को रूपायित करने का प्रयास करता है। रचना की अर्थवत्ता और गुणवत्ता का परीक्षण भी समय और समाज की धड़कनों की सफल अभिव्यक्ति के अआधार पर होता है। कहीं यह प्रतिमान कला ही बन जाता है। लेकिन कलावादिता रचना कहाँ होती है। रचना तो वह है जिसमें ईमानदजारी और शिद्दत के साथ युग स्पंदन सुनाई पड़ता है जो मानव और मानवता को पुष्ट करे। मनुष्य विरोधी शक्तियों, आम आदमी का शोषण करने वाले, उसके अधिकारों को कुचलनेवाले तंत्र के दुश्चक्रों को बनकाब करनेवाली रचना का अलग महत्व होता है। बहरहाल, मदन कश्यप का रचनाकाल भूमंडलीकरण के फलने-फूलने का काल है। और भूमंडलीकरण? असल में यह। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एक साझा धोखा है। चमकीले शब्दों - उदारीकरण, निजीकरण, औद्योगिकीकरण आदि - के माध्यम से लूचना या मुनाफा हासिल करना मुख्य लक्ष्य बन गया। उदारीकरण की नीति ने पूँजीपति को बड़ा पूँजीपति को बड़ा पूँजीपति बनाने में मदद की तो गरीब दरिद्रतम दशा में कराहता रहा। सत्ता चाहे जितना ढिंढोरा पीटे देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। पूँजी महाशक्तिशाली और प्रबल पराक्रमी साबित हो रही है। पूँजी और सत्ता की सांठगांठ से आमजन की दुर्दशा बढ़ती जा रही है। पूँजी, बाजार और विज्ञापन की त्रयी ने इच्छित मुनाफा अर्जित किया है। दिक्कत यहाँ नहीं है कि मुनाफा हासिल हो रहा है। बड़ी चिंता रचनाकारों की यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था ने सब कुछ को 'प्रॉडक्ट' बना दिया। मानवीय नाते-रिश्ते तथा मनुष्य को भी माल में तब्दील कर दिया। पुन: यह सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नाम पर 'वसुधैव कुटुंबकम्' को नहीं बल्कि संस्कृतियों के दमन और उत्पीडऩ के कारण वर्चस्वशाली संस्कृति के आक्रामक रूप को प्रस्तुत करता है। यदि दुनिया के सभी क्षेत्रों में अमेरिकी वर्चस्व कायम हो जाए तो भूमंडलीकरण को अपना लक्ष्य हासिल हो जाएगा। इसका उद्देश्य यह भी है कि ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पश्चिमी विशेषत: अमरिकी कंपनियों का एकाधिकार बना रहे जहाँ एशिया तथा अफ्रीकी देशों के योगदान का निषेध हो। यह बात और भी है कि वर्चस्ववादी शक्तियों के विरुद्ध उठने वाली आवाज को दबाना या समाप्त कर देना भूमंडलीकृत संस्कृतिवाद का मुख्य उद्देश्य रहा है। नब्बे के बाद के हिंदी के अधिकांश रचनाकार इस परिदृश्य से वाकिफ हैं। मदन भी परिचित हैं। उनका सवाल है

क्या सचमुच यह मुल्क उन मदारियों का है
जो बजा रहे हैं भूमंडलीकरण की डुगडुगी
और उन सपेरों का
जो बेच रहे हैं जाति-धर्म का जहर
(नीम रोशनी में, पृ. 94)

कवि को भली-भांति मालूम है कि भूमंडलीकरण केवल पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है उनका दावा बिल्कुल खोखला है कि सारी दुनिया का खान-पान, वेश-भूषा, सोच-विचार, बोली-बानी आदि एक जैसा होगा। किसी तरह का भेद-भाव न रहेगा। सभी एक ही कंपनी के कपड़े पहनें और एक ही कंपनी के खान-पान करें तो कंपनी को बड़ा लाभ तो होगा ही, देशी वस्तुओं का विस्थापन भी होगा। हम अपनी जड़ और जमीन से विस्थापित भी होंगे। भूमंडलीकरण की चालाकियों को कवि समझता है-

आप जो भाषा को खाते रहे
हमारे सपनों को खाना चाहते हैं
आप तो विचार को मारते रहे
हमारी संस्कृति को मारना चाहते हैं
(अपना ही देश, पृ. 97)

भूमंडलीकरण के असली चरित्र को मदन समझते हैं। जड़ों की तलाश कवि की कोशिश है तो जड़ों से उसे उखाडऩा भूमंडलीकरण का प्रयास है। जड़ों से उखडऩा कवि के लिए सबसे बड़े त्रासदी है। इसलिए कवि अपने रचना संसार में अपनी जड़ और जमीन को बचाने की संभावनाओं को तलाशता है।

                                                                  (तीन)

बाजार पहले भी था और आज भी है। कबीरदास हो या सूरदास कभी कवियों ने बाजार का अपने-अपने ढंग से वर्णन किया है। हमारे देश में हाट में सिर्फ समान का विनिमय या खरीद-फरोख्त नहीं हुआ करती थी। हाट-बाजार में मनुष्य-मनुष्य का संबंध मजबूत हुआ करता था। मित्र-मिलन भी होता था। पहले के बाजार में मुनाफा कमाना सर्वोपरि न था। छल-कपट, जालसाजी, धोखाधड़ी आदि की मात्रा इतनी अधिक न थी। कहीं-न-कहीं, भले ही धर्म के नाम पर क्यों न हो, मनुष्यता की चिंता जरूर थी। उत्तर उपनिवेशवादी समय में बाजार का स्वरूप बदला। परंतु भूमंडलीकरण के दौर को 'बाजार का समय' कहा गया। समकालीन कवि बाजारवादी अर्थव्यवस्था के षडय़ंत्रों का खुलासा करता है। केदारनाथ सिंह से लेकर प्रांजल धर तक की कविताओं में 'बाजारवाद' का विरोध/प्रतिरोध मुखर हुआ है। यह इसलिए कि बाजारवादी शक्तियों ने मानवता विरोधी शक्तियों ने मानवता को लील लेने का पूरी प्रयास किया है। मनुष्य के सोचने-विचारने की शक्ति तक को समाप्त करने की कोशिश की है। कहाँ तो पहले मनुष्य बाजार में जाता था लेकिन आज बाजार मनुष्य के मन-मस्तिष्ट में घुसा हुआ है। हमारा भला-बुरा, लाभ-हानि को अपने अभिभावक या मित्र नहीं, बाजार सोचने लगा है। यह ऐसा बाजार है जो हमारे सामान की ही नहीं रिश्तों की भी नीलामी करवाता है। ऐसे हालात में कवि अपने पहले कविता संग्रह की 'डालर' शीर्षक कविता में पूछता ही नहीं डालर को अस्वीकार भी करता है -

अभी तो सिर्फ सपने सस्ते हैं
नरपशु दिखा रहे हैं मनमोहन सपने
फिर भी मेरे सपनों में रोटी आती है      डालर नहीं
(लेकिन उदास है पृथ्वी, पृ. 110)

बाजारवादी, अर्थव्यवस्था ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है। इसमें 'यूज एंड थ्रो' की मानसिकता को प्रोमोट किया है। 'धूर्त और क्रूर सौदागरों से सजा' यह बाजार सामान से घर पाटता जा रहा है। उपभोक्ता की स्थिति यूँ बन जाती है - खरीदने वालों को अक्सर मालूम नहीं होता कि दरअसल वे अपने को बेच रहे होते हैं।
(दूर तक चुप्पी, पृ. 34)
बाजार में सब कुछ बिकाऊ है। बिकी हुई चीजें भी चुरा कर फिर से बेची जा रही हैं। बाजार में अपना वर्चस्व ही कायम नहीं किया है बल्कि इसने मनुष्य के सारे अधिकार हथियाने में सफलता हासिल कर ली है। यह एक ऐसा बा•ाार है जहाँ हम अपनी जरूरत तक को तय करने का अधिकार नहीं रखते। यह अधिकार तो बाजार के पास सुरक्षित है। इस 'लकदक बाजार' में सौदागरों की पौ बारह है। वैसे सौदागर एकाएक हमारे समय में ही नहीं पैदा हो गए हैं। वे हर काल में होते रहे हैं। लेकिन भूमंडलीकरण के सौदागरों का क्या कहना। वे अदृश्य हैं, फिर भी सर्वत्र व्याप्त हैं। सौदागर का काम है खरीदना और बेचना। लेकिन नये युग के सौदागर 'केवल छीनना जानते हैं'। कवि ने इसकी असीम शक्तियों का परिचय दिया है -
ये नये युग के सौदागर हैं
हम खेर काटते रहे (खेर - जंगली घास)
इन्होंने पूरा जंगल काट डाला
हम बृंगा जलाते रहे (खर-पतवार इक्ठा कर जलाना)
इन्होंने समूचा गांव जला दिया।
(अपना ही देश, पृ. 101)

कहना न होगा कि नब्बे के बाद के बदलते भारत तथा विश्व के विविध संदर्भों को मदन कश्यप ने उकेरने का प्रयास किया है। भूमंडलीकरण बाजारवादी समय में चीजों की बदलती शक्लें हों अथवा समय और समाज के समक्ष मँडराते संकट हों, कवि ने अपनी दृष्ट से ओझल होने नहीं दिया है। उसने बाजार और उपभोक्तावाद की चकाचौंध में हाँफती, कराहती मानवता की चीख और पुखार को अत्यंत संवेदनशील दृष्टि के साथ अंकित किया है।

                                                                   (चार)

मदन कश्यप के कविता संसार में आम आदमी, मजदूर, किसान, खेतिहर, श्रमिक आदि का जीवंत चित्रण मिलता है। कवि ने इनकी करुण गाथा ही प्रस्तुत कर अपने कत्र्तव्य को पूरा नहीं समझ लिया है। उसने इनके जीवन-संघर्ष और वर्ग-संघर्ष के माध्यम से समाज की परिवर्तनेच्छा को भी जाहिर किया है। समय और समाज में व्याप्त हताशा और अभिव्यक्त किया है। सच को बचाने की बड़ी चिंता भी जाहिर होती है। इस संदर्भ में         'नीम रोशनी में' संग्रह की 'झूठ' शीर्षक कविता का पाठ किया जा सकता है।

सच पराजित तो होता रहा है
मगर इतना हताश पहले कभी नहीं देखा
(नीम रोशनी में, पृ. 38)

लेकिन कवि हताश नहीं है। वह उन कारक तत्वों की खोज करता है जिनके कारण झूठ आबाद होता है। अन्याय प्रतिष्ठित होता है। वह 'खतरनाक समय' से मुठभेड़ करता है और पाता है-
''चारों तरफ फैला है गहरा अंधकार''
मदन का स्पष्ट मानना है कि पढ़ा-लिखा और अपने को बुद्धिजीवी कहने वाला मध्यवर्ग भी पूँजीपति वर्ग की नकल करने लगा है। उसकी क्रूरताओं में शामिल होने लगा है। लेकिन मध्यवर्ग जब बोलता-लिखता है तब क्रांति की बातें उठाता है। बड़ी-बड़ी बातें और जोर-शोर से भाषणबाजी करने लगता है। इस मध्यवर्गीय मानसिकता और अंतर्विरोध पर कवि व्यंग्य करते हुए लिखता है

आप दुख और भूख के बारे में
उतना ही जानना चाहते हैं
जितना तानाशाह और बंदूक के बारे में
आप क्रांति करना नहीं चाहते
लेकिन क्रांति होते देखना चाहते हैं
(अपना ही देश, पृ. 70)

धूमिल, रघुवीर सहाय और नागार्जुन की राजनीति चेतना की परंपरा को अपना कर चलनेवाला यह कवि कहीं व्यंग्य के माध्यम से अपने सरोकार का परिचय देता है तो कहीं आक्रोश तथा विरोध के तीव्र स्वर के माध्यम से। 'सुशासन में आपदा' एक उम्दा कविता है। बाढ़ की सिथति में सरकार किस हद तक नीचे गिर सकती है, अमानवीय हो सकती है उसे देखा जासकता है कि लोगों की जान बचाने से कहीं अधिक आवश्यक है सरकार की छवि बचाए रखना।
जनतंत्र के पहरेदार 'निर्बल पाखंडी', ढोंगी, पोंगापंथी, लफ्फाज और परम स्वार्थी बने हुए हैं। ऐसी स्थिति में जनतंत्र तो बस मजाक बन कर रह जाना स्वाभाविक है। जनतंत्र केवल व्यवस्था मात्र का नाम नहीं है बल्कि यह एक जीवन मूल्य भी है। अत: इसे सहेजना और सँवारना जरूरी है। फिलवक्त इतना की मदन कश्यप के संसार में बिना शोरगुल के विरोध प्रभावशाली ढंग से दर्ज हो जाता है और पाठकों को उद्वेलित भी करता है-

हर साल आती है यह बाढ़
और हर बार हमें अपनी ही नजरों में
कुछ और गिरा जाती है
कुछ और छोटा बना जाती है।
(कुरुज, पृ. 81)

बाढ़ सिरीज की कविताएँ पढ़कर वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की कविता 'पानी में घिरे हुए लोग' की याद स्वाभाविक रूप में जाती है। मदन कश्यप ने बाढ़ के बहाने अराजक व्यवस्था, भ्रष्टाचार, जनतंत्र का मखौल उड़ाने वाले तंत्र आदि के छत्र-छद्म को उघाडऩे का प्रयास किया है। एक बात और है जो कवि को जागरूकता का संकेत करती है और वह है समकाल में व्याप्त हत्यारों की बढ़ती आबादी। चर्चित कवि अरुण कमल के अनुसार- 'देखो हत्यारे को मिलता राजपाट सम्मान, जिनके मुँह में कौर मांस के उनको मगही पान।' यहाँ राजनीति में क्रिमिनलों की बढ़ती संख्या ही नहीं संसद या विधानसभाओं में उनके चुने जाने की ही बात नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था का शाणित व्यंग्य है। इसी तरह मदन भी अपने अधिकांश संग्रहों में घुन खाई व्यवस्था पर कड़ी नजर रखते दिखाई देते हैं। 'शब्दकोश में हत्यारे का अर्थ धर्मगुरु हो गया है' यह अत्यंत चिंता का विषय है। राजनीति का अपराधीकरण और अपराधीकरण की राजनीति में आमजन की स्थिति असहाय होती जा रही है। 'हत्यारा रो रहा था' कविता में संसद में पहुँचनेवाले हत्यारे सांसदों को तमाम विशेषणों के साथ महिमामंडित किया जा रहा है। जैसे, 'धर्मनिरपेक्ष हत्यारा, धार्मिक हत्यारा, जुझारू हत्यारा, जनपक्षधर हत्यारा, विनम्र हत्यारा, अक्खा हत्यारा, निष्पक्ष हत्यारा, गैरतमंद हत्यारा, जरूरतमंद हत्यारा।'
उपर्युक्त हत्यारों की किस्मों में से एक कोटि धर्मनिरपेक्ष हत्यारे की है, इस हत्यारे की कोई जाति नहीं होती, उसका कोई धर्म नहीं होता। वह हत्यारा होता है, सिर्फ हत्यारा।
लोकतंत्र के पवित्रतम मंदिर में हत्यारे का पोट्र्रेट लगाया जा रहा है। हत्यारे के वंशजों के लिए यह एक अविस्मरणीय क्षण भले हो लेकिन कवि स्पष्ट रूप से कहता है -
वह आदमी से ज्यादा
आदमीयत का हत्यारा था
सो जब-जब आदमी के साथ
आदमीयत मारी गयी
उसको याद किया गया
उसे महिमामंडित किया गया
मामला चाहे अकेले गांधी का हो
या पूरे गुजरात का
(कुरुज, पृ. 71)

                                                                  (पाँच)

हमारा समय संपर्कों का है। संपर्क साधन और स्वार्थ-साधन लगभग पर्यायवाची बनते जा रहे हैं। संबंध छीजते और टूटते जा रहे हैं। संबंध दरकते जा रहे हैं और संपर्कों का मायाजाल प्रबल होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में मदन संबंधों की ऊष्मा, नाते और रिश्तों की मजबूती तथा संबंध की महत्ता और अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हैं। सच बात तो यह है कि आत्मीय-स्वजनों, नातेदार-रिश्तेदारों, समाज के लोगों, प्रकृति, मानवजाति आदि से बिना संबंध स्थापित किए, प्रेमपूर्ण आचरण किए कवि की संवेदना का विकास नहीं हो सकता। इस दृष्टि से देखा जाए तो मदन कश्यप की कविता कम समृद्ध नहीं है। मैदान में खेलते-कूदते बच्चों को देखकर इस कवि का हृदय पूर्ण हो उठता है। नंग-धड़ंग, मैले-कुचैले बच्चे उसे 'हरियाली की तरह आकर्षक' लगते हैं। हालांकि, कवि ने इसे भी नहीं भुलाया है कि 'किन्हीं भी रचनाओं से खूबसूरत' इन बच्चों के लिए, उनके स्वाभाविक विकास के लिए इस धरती में कितना कुछ कम है - ''कि कितना कम है पानी/कितना कम है दूध/कितना कम है प्यार/बच्चों के लिए/इस धरती पर।' (लेकिन उदास है पृथ्वी, पृ. 71)
मदन दांपत्य प्रेम के कवि हैं। उनकी कविता में पत्नी के प्रति प्रेम बार-बार झाँकता नजर आता है। 'जब तुम आओगी' कविता में कवि की प्रेम चेतना का अच्छा परिचय मिलता है।
इसी तरह 'माँ की तस्वीर' शीर्षक कविता में माँ, पिता, बहन आदि की तमाम स्मृतियों और इन संबंधों से लगाव और जुड़ाव के अच्छे चित्र मिलते हैं तो 'छोटी लड़की' में अपना छोटा-शहर, अपनी दीदी, माँ आदि को छोड़ दिल्ली आ बसने के बाद भी उन्हें  भुला नहीं पाती है। हमारा समय तरह-तरह की प्रतिकूलताओं से घिरा हुआ है। अत: स्वाभाविक है कि प्रेम का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। आज प्रेम में अधिक से अधिक पाने की उम्मीद लगी रहती है। नामे और खाते के तुलनपत्र की तरह प्रेम में भी लाभ और हानि का हिसाब लगाया जा रहा है। यौन व्यापार से भरपूर इस समय में प्रेम को लेनदेन तक सीमित करनेवाले काल में कवि निराश न होकर प्रेम कविता लिखना चाहता है-

यौनव्यापारियों के इस युग में
आखिर मैं क्यों लिखना चाहता हूँ एक प्रेम कविता
मुझे क्यों याद आते हैं हिंदू के कवि शमशेर बहादुर सिंह
और बांग्ला के जीवनानंद दास
(अपना ही देश, पृ. 49)

कविता के प्रेमी जानते हैं कि जीवनानंद दास की बनलता सेन एक अद्भुत कविता है जिसमें कवि की प्रेम चेतना मर्मस्पर्शी है।

                                                                    (छह)

जीवन बहुआयामी है। जीवन में बहुआयामिता उसे समृद्ध बनाती है। कविता में बहुआयामिता उसे सार्थक बनाती है। मदन की कविता के विभिन्न छोर हैं। उनकी काव्यपुस्तिका 'गूलर के फूल नहीं खिलते' से लेकर 'अपना ही देश' तक के कविता संग्रहों में विषय तथा अभिव्यक्ति में वैविध्य है। विविध भावबोध की कविताएँ पाई जाती हैं। कवि-दृष्टि में किसान, आमजन, मध्यवर्गीय अवसरवादिता, मानव मन की संश्लिष्ट संरचना, आदिवासी जन-जीवन समय तथा समाज की विडंबनाएं आदि समाहित हैं। इसी तरह यह कवि पूरी ईमानदारी से स्त्रियों के संसार में भी प्रवेश करता है। यहाँ कवि की स्त्री दृष्टि पर विचार किया जाएगा। लेकिन सबसे पहले यह उल्लेख करना उचित लगता है कि शमशेर ने स्त्री को संपूर्णता में देखा था। उन्होंने स्त्री को अपने से भी बेहतर माना। शमशेर के बाद रघुवीर सहाय, नागार्जुन अथवा त्रिलोचन ने स्त्री के किसी एक पक्ष को अधिक महत्व दिया है। चाहे वह पक्ष स्त्री जीवन की विडंबना का हो अथवा उसके प्रेममय रूप का। बहरहाल, मदन कश्यप की स्त्री दृष्टि का विवेचन अपेक्षित है। माँ, पत्नी, दीदी, बहन आदि आत्मीय संबंधों के अलावा मदन ने आम स्त्री का मनोज्ञ चित्रण किया है, कम से कम शब्दों में बहुत बड़ी कविता रचने की सामथ्र्य इस कवि के पास है। 'बहुत बड़ी कविता' से आशय व्यापक भावबोध की कविता से है। कवि को आवश्यक प्रतीत नहीं होता है कि वह ब्योरे के बाद ब्योरे प्रस्तुत करता जाए। ऐसा करने से कविता की धार चूक जाने का पूरा खतरा रहता है। मदन की कविता में फैलाव नहीं है, एक निश्चित चिंतन प्रक्रिया प्रतिफलित होती है।
'चूल्हे के पास' हो अथवा 'स्त्रियों का रोना' कविता कवि की संवेदनशीलता का उदाहरण है। ये कविताएँ जितनी मार्मिक हैं उतनी प्रभावशाली भी। स्त्री जीवन के दर्द और उसकी कराह को समझने के लिए कवि की बेचैनी भी साफ झलकती है। हजारों बरसों से चूल्हे के पास बैठी हुई औरत अपने दर्द को ढँकने की कोशिश करती आ रही है। धरती को बचाए रखने के लिए स्त्री का प्रयास स्तुत्य है।
'आंझुलिया' स्त्री का नाम है। आँझुलिया स्त्री है, दलित स्त्री है। उसका सौंदर्य अनुपम है। उसके माध्यम से प्रकृति और जीवन के अटूट संबंध को उद्घाटित किया गया है। लोक कथा की शैली में रची गई यह कविता 'पापी पुरुष' की चालाकियों को सामने लाती है। आज दलित रचनाओं में भी दलित स्त्री लगभग उपेक्षित है। ऐसी सिथति में यह कविता का महत्व और भी बढ़ जाता है।

स्त्रियों ने रची हैं दुनिया की सभी लोककथाएँ
उन्हीं के कंठ से फूटे हैं सारे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिये हैं
सितारों को उनके नाम!
(नीम रोशनी में, पृ. 18)

                                                                  (सात)

मौजूदा वक्त में हमारे देश और समाज का सबसे बड़ा संकट है सांप्रदायिकता। यह अत्यंत चिंता का विषय है कि सांप्रदायिक शक्तियाँ राष्ट्र की सत्ता पर विराजमान हैं। मानव जीवन के दुर्बल विचारों को भड़काकर, मनुष्य को मनुष्य के विरुद्ध खड़ा कर ये ताकतें सर्वनाश का बीज वपन करती जा ही हैं और मनुष्य है कि उनकी सुलगाई हुई आग में अपने को झोंकता चला जा रहा है। धार्मिक उन्माद और धर्मांधता की धधकती आग में विद्वेष का वातावरण पनपता चला आ रहा है, संस्कृति के नाम पर धार्मिक संकीर्णताएँ जड़ें फैला रही हैं। धर्मांध शक्तियों के 'डिक्टम' मानें तो हम देशभक्त हैं, उनके कुसंस्कारों, अंधविश्वासों की विवेकपूर्ण आलोचना करें तो देशद्रोही। धर्म, सत्ता, सांप्रदायिकता और पूँजी का चतुष्कोण बना हुआ है। इससे मानवता दग्ध हो रही है। 'पहल' के कवितांक में प्रकाशित 'बांके मियां' कविता में कवि ने सांप्रदायिक आतंक और मनुष्यविरोधी शक्तियों के दुश्चक्रों का खुलासा करते हुए लिखा है-

यह कैसी बदबू है
जो फैला रही है कहीं उन्माद और नीम बेहोशी
तो कहीं डर और चिंता
यह कैसा अंधेरा है
कि किसी को कुछ सूझता ही नहीं
तो किसी को बहुत दूर अंधेरे के उस छोर तक सूझता है
(लेकिन उदास है पृथ्वी, पृ. 36)

'सपनों का अंत' हो जाना सबसे गंभीर समस्या है। पाश ने भी लिखा था 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना'। मदन की सांप्रदायिकता से संबंधित कविताओं में गहरी मार्मिकता है। यह मार्मिकता हृदय को गहरे रूप में छूती है। एक तरह से सावधान भी करती है। कवि अपनी पीड़ा साझा करता है। अपनी बेचैनी प्रकट करता है। अपनी असहमति को पूरे साहस के साथ दर्ज करता है। तमाम नृशंसताओं के बावजूद वह निराश नहीं है, हताश तो कदापि नहीं है। उसके रचना-संसार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह संभावनाओं को ढूँढ़़ लेता है।

अपने यहाँ कभी तो हुई नहीं
अजान और कीर्तन को लेकर कोई अनबन
बाँस की झरनी बजा-बजाकर
हम भी गाते रहे कर्बला के शोकगीत
और उठाते रहे इमाम हुसैन का ताजिया
तुम भी नाचते रहे होली की उमंग में
गाते रहे फाग भंग की तरंग में
(लेकिन उदास है पृथ्वी, पृ. 36)
यही है असली भारत की खोज जहाँ दादी गुड की खीर लेकर मकदूम साहब के मजार पर फातिहा पढ़ाने जाती है तो छठव्रत के मौके पर खाला ने अध्र्य दिया था। ऐसी स्थिती बने रहे सदा, यह कवि का सपना है। लेकिन यह कवि आदर्शवाद का ढिंढोरा पीटना नहीं चाहता। वह ठोस जमीन के धरातल पर खड़ा है। अत: यथार्थ को विस्मृत करना नहीं चाहता।

                                                                 (आठ)

यह बिल्कुल सत्य है कि साहित्य तथा इतिहास में आदिवासियों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। जहाँ कहीं भी उनका उल्लेख हुआ असभ्य, जंगली, अमानुष आदि के रूप में। यही स्थिति दलितों की भी थी। उत्तर आधुनिक काल में दलितों और आदिवासियों के प्रति समाज का दृष्टिकोण कुछ बदला। दलितों ने अपनी दर्दभरी कहानी आक्रोश के साथ सुनाई तो आदिवासियों ने अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ी। इसके बाद 'सभ्य समाज' की सोच में कुछ बदलाव आए। आदिवासी एवं दलित जीवन के संघर्ष की अनुगूँज साहित्य में सुनाई पड़ी। इनके जीवन की सच्चाई को वही रचनाकार शिद्दत के साथ पेश कर सकता है जिसके पास आदिवासी और दलित जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव हो। जो रचनाकार इनके बीच ही नहीं रहता बल्कि इनका बनकर रहता है। ओडिय़ा के गोपीनाथ मोहंती, बांग्ला के महाश्वतो, संथाली तथा हिंदी की निर्मला पुतुल आदि ने आदिवासी जीवन के विविध संदर्भों को चित्रित किया है। इस संदर्भ में मदन कश्यप की कविता में निहित आदिवासी और दलित जीवन स्थितियों पर विचार अपेक्षित है।

आदिवासी भूख से बिलबिलाने/या बूट के नीचे दबकर छटपटाने की/लोकतांत्रिक नियति से बाहर आने की कोशिश कर रहे थे।
(अपना ही देश, पृ. 79)

'अपना ही देश' कविता संग्रह का एक पूरा खंड 'सलवा जुडूम' के अंतर्गत हैं जहाँ सात कविताएँ आदिवासी जनजीवन से संबंधित हैं। दूर से आदिवासी जीवन को देखकर कविता लिखना और जीवन अनुभव में शामिल होकर उनके दुख को अपना दुख मानना और कविता लिखने में बड़ा फर्क होता है। दोनों तरह की कविताओं में प्रथम दृष्टया अंतर परिलक्षित होता है, 'आदिवासी' कविता में 'सभ्य समाज' की आदिवासी समाज और जीवन के प्रति सोच एवं दृष्टि जाहिर होती है -

तुम्हारी स्त्रियाँ कपड़े क्यों पहनती हैं
वे तो ऐसी ही अच्छी लगती हैं
तुम्हारे बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं
(इसमें धर्मांतरण की साजिश तो नहीं)
तुम तो अनपढ़ ही अच्छे लगते हो
(अपना ही देश, पृ. 92)

आदिवासियों का गाँव छोड़कर भागना या उन्हें उनकी जमीन से बे-दखल करना ही सलवा जुडूम है। यह सलवा जुडूम अपने प्रिय सौदागरों के लिए किया जा रहा है। सत्ता किसी भी हद तक नीचे उतर कर कंपनियों के हवाले जल, जंगल और जमीन करने के लिए बावली हो चुकी है। ऐसा लगता है कि वह आदिवासियों को 'नृजातीय प्रयोगशालाओं में संस्थापित' कर देना चाहती है सदा सर्वदा के लिए। मूल बात यह कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ही सलवा जुडूम है। इन आदिवासियों के लिए जल, जंगल और पहाड़ जड़ वस्तुएँ नहीं बल्कि उनके आत्मीय स्वजन जैसे हैं। ये उनके पुरखे हैं। उनकी पूजा करते हैं।
हिंदी कविता इतिहास इसका गवाह है कि लोक तत्व से पगी हुई रचनाएँ स्थायी महत्व की होती हैं। कबीर, सूर, जायसी से लेकर निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह तक की कविताएँ लोक चेतना से संपृक्त होने के कारण अत्यंत प्रसिद्ध तथा प्रिय रही हैं। इन कवियों ने लोक में जीने, रचने-बसने के बाद उसे कविता में पिरोया है। लोक संदर्भ, लोक-कथा, लोक-गाथा आदि को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से कविता में पिरोने का सफल प्रयास भी परिलक्षित होता है। उनके सभी संग्रहों में 'बोली' के शब्द ही नहीं, लोक परंपरा के अनेक भाव अभिव्यक्त हुए हैं। लोक परंपरा के अनेक भाव 'कुरुज', 'थोड़ा-सा फाव', 'सरसों के सात दानों की कथा', 'राजा और चिडिय़ाँ', लंबी कविता 'नकछेदी तिवारी, बँटवारा और तलवार' जैसी कविताओं की भाव-भूमि लोक पर ही आधारित है।
कवि का दृढ़ विश्वास है कि लोक बचा रहेगा तो मनुष्य भी बचा रहेगा। इधर पूँजीवादी शक्तियाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अथवा साम्राज्यवाद की मिलीभगत से लोक को नष्ट करना चाहती हैं। समकालीन हिंदी कविता लोक के विनाश के प्रयास को विफल करना चाहती है। पूंजीवादी ताकतों के दुश्चक्रों से देश को बचाने अथवा उनके विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज उठाने में लोक ही सबसे बड़ा और कारगर माध्यम साबित हो सकता है। विजेंद्रत लिखते हैं - 'लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र का गहरा संबंध हमारी धरती, जड़ों और जातीयता से है। जो कविता जितनी लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र को रचेगी वह उतनी ही हमारे देशवासियों की क्रियाशीलता तथा इच्छा-आकांक्षाओं को कहेगी' (सौंदर्य शास्त्र : भारतीय चित्त और कविता, पृ. 81)
बीसवीं शताब्दी को संबोधित करते हुए कवि 'कुरुज' में लिखता है -

पल्लू में बांध लो
आकांक्षाओं के दूब-धान
प्यार का हल्दी-टूसा
और विदा लो
विदा लो इस कुकाल से
खरगीदड़ हो रहे शब्दों के भयभीत संसार से
(कुरुज, पृ. 27)

'आँझुलिया', 'गोलबंद स्त्रियों की नज्म' आदि बहुआयामी कविताओं से लोक तथा परंपरा का अंकन हुआ है। 'नकछेदी तिवारी, बँटवारा और तलवार' में यह प्रयोग देखिए -

'तलवरवा खाइए, हम को तो मन करता है
उहे पेट में घोंप कर मर जायें'
दोनों धीरे-धीरे झगड़ रहे थे कि कोई और न सुन ले
'थपकुन के भंसा में कुछ होगा'
'अब इ हमसे न होगा कि रोटी-भाग चुरावे'
'अब का करें?'
(कुरुज, पृ. 110)

'बड़ी होती बेटी' कविता में 'देर से सूतो', 'कोठी में लुका दो', 'बचाता है छिलकोइया', 'मरुए में लटका दो' आदि प्रयोग से कवि की लोक चेतना मुखर होती है। इसी तरह मदन की आदिवासी और दलित संदर्भों से जुड़ी कविताओं में आदिवासी या दलित लोक उभरता है तो किसानी सभ्यता से ग्रामीण लोक के चित्र उभरकर आते हैं।

                                                                (दस)

उल्लेख किया जा चुका है कि मदन कश्यप की कविता लोक बहुआयामी है। यह भी कहा जा चुका है कि इनके कविता संग्रहों में विविधताओं का अभाव नहीं है। यह विविधता विषय तथा अभिव्यक्ति दोनों स्तर पर मौजूद है। कवि शब्द चयन में अत्यंत सजगता बरतता है। कम से कम शब्दों के माध्यम से कवि प्रभावी कविताएँ रचने में समर्थ है। शब्दों की मितव्ययिता मदन की बड़ी खूबी है। 'दूर तक चुप्पी' संग्रह की सभी कविताएँ उपर्युक्त विचार को पुष्ट करती हैं। इस संग्रह की तमाम कविताएँ छोटे आकार की हैं। लेकिन, उनका अर्थ-गांभीर्य और उनकी व्यापकता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करते हैं। ऐसा नहीं है कि इस कवि ने लंबी कविताएँ नहीं लिखी हैं। लेकिन, उनकी संख्या कम है। 'दूर तक चुप्पी' की सभी कविताएँ छोटी तो हैं, विषम पंक्तियों की भी। सवाल यह है कि कविताएँ विषम पंक्तियों में क्यों लिखी गई हैं? पीथागोरस ने विषय को विशेष महत्व दिया है। यूनान में गणित, दर्शन आदि में विषम का खास महत्व है तो दर्शन में भी इसकी महत्ता स्वीकारी गई है। हमारे यहाँ भी विषम को शुभ माना गया है - 'पंचानि सप्तानि कुशलानी वार्ता:'। पाँच, सात, नौ, इक्यावन, एक सौ एक, आदि को विशेष रूप से शुभ संकेत स्वीकार किया गया। संग्रह से गुजर कर ऐसा नहीं प्रतीत होता है कि कवि ने जान-बूझकर यह प्रयोग किया है।
'लेकिन उदास है पृथ्वी', एवं 'नीम रोशनी में' भले ही काव्य मिजाज एक जैसा लगें, तथापि इन दोनों संग्रहों में भी साफ अंतर हैं। अपने पहले संग्रह में कवि की दृष्टि भारतीय जन-जीवन को आधार बनाकर चलती है, असमानताओं को खास तौर पर रेखांकित करती है। यहाँ कहीं-कहीं कविता फैल गई हैं। जबकि दूसरे संग्रह में कवि की परिपक्वता अधिक दिखाई पड़ती है। कवि का 'काल-यात्री' सजग होकर कहता है - 'मैं नहीं बेचूंगा अपने शब्द/अर्ध-संशयवादी और अद्र्ध-आत्ममुग्ध/यूरोप के विचार-बाजार में'। कवि का 'कालयात्री' 'हंसी के झरनों' एवं 'उजास की दुनिया' के लिए अनथक यात्रा कर रहा है। विचार और समझ यहाँ अधिक सधे हुए एवं परिपक्व प्रतीत होते हैं।
'कुरुज संग्रह' विकास की एक नई जमीन और नई दिशा' की ओर संकेत करता है। अपने काव्य जीवन के लगभग तीस वर्षों के अनुभव को यहाँ महसूस किया जा सकता है। कविता का वितान भी व्यापक हुआ है। पश्चिमोन्मुखी भारतीय कविता को लगभग अस्वीकार करते हुए कवि का आग्रह एशियाई कविता के प्रति है - ''योरप में तो जो लिखा, वही हो जाती कविता/एशिया में यह क्यों कर हो''। समय तथा समाज के प्रति गहरी आलोचनात्मक दृष्टि का भी परिचय मिलता है। कई कविताएँ लयात्मक हैं। परंपरा और नब्यता के सुंदर समन्वय को भी इस संग्रह में देखा जा सकता है।
मदन का पाँचवाँ कविता संग्रह 'अपना ही देश' न केवल कवि का बल्कि समकालीन कविता की दुनिया का एक अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रह है। यहाँ सर्वाधिक विषय वैविध्य है। गठी और कसी हुई इस संग्रह की कविताओं की सर्वाधिक सामथ्र्य उजागर होती है। पूँजीवादी शक्तियों पर वज्र-कठोर प्रहार के साथ-साथ संवेदना की व्यापकता विद्यमान है। कवि की जनपक्षधरता भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। भाषा में सहजता और लचीलापन सर्वाधिक है।
मदन कश्यप शब्दों का जाल बिछाने में विश्वास नहीं करते। उनकी कविता पाठकों से सीधा संवाद करती है और प्रत्यक्ष संवाद की प्रक्रिया में पाठक कविता से जुड़ता चला जाता है। कला के प्रति कवि का कोई आग्रह नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं कि उनकी कविता कलाविहीन है। 'अपना ही देश' में निम्नलिखित प्रयोग देखिए -

आसमान से बरसने लगी हैं
कोदो के भात जैसी बूँदें
अब तो बंद कीजिए गोलियाँ बरसाना
(अपना ही देश, पृ. 99)

मदन कश्यप की एक पंक्ति है - 'आँखें अब भी देखती हैं लहलहाती फसलों का सपना।' तमाम क्रूरताओं, नृशंसताओं, विडंबनाओं तथा अंतर्विरोधों से भरपूर इस भयावह समय में भी मदन की कविता निराश नहीं करती, हताश नहीं होने देती। उनकी कविता उम्मीद जगाती है, संभावनाओं के द्वार उन्मुक्त करने और संभावनाओं की तलाश करने के लिए प्रेरित करती हैं - 'अब भी बचा है दही में थोड़ी-सी चीनी की तरह फाव'। कहना न होगा कि काव्य मूल्य और काव्य विवेक को नए सिरे से उद्घाटित करने में भी इस कवि के संग्रहों का महत्व है। जो कुछ भी बचा हुआ है या जितना भी बचा हुआ है उसे बचाए रखना चाहती है मदन कश्यप की कविता -

वे बार-बार चुरायेंगे
फिर भी बची रहेगी धूप
वे छुपायेंगे रोशनी
फिर भी दिखेंगी राहें
(लेकिन उदास है पृथ्वी, पृ. 101)

कहा जा सकता है कि मदन कश्यप न केवल अपनी पीढ़ी के बल्कि समकालीन कविता के एक महत्वपूर्ण कवि है।



संपर्क: मो. 09434884339

Login