सघन अनुभूतियों में रचा-बसा सजग तृतीय लिंगी समाज

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    अप्रैल 2017
श्रेणी सघन अनुभूतियों में रचा-बसा सजग तृतीय लिंगी समाज
संस्करण अप्रैल 2017
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





पुस्तक/पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा/चित्रा मुद्गल



अप्रेल, 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायामूर्ति श्री के.एस. राधाकृष्णन ने नालसा (National Legal Services Authority) बनाम भारत सरकार में निर्णय देते हुए स्पष्ट कहा कि सार्वजनिक स्थानों पर हिजड़ों को जिस तरह से अछूत माना जाता है, उन्हें अपमानित किया जाता है, उन्हें गालियां दी जाती हैं, वह गलत है अब इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है। उन्होंने आगे कहा 'तृतीय लिंगी लोगों की संख्या को देखते हुए उन्हें उनके प्रत्येक मानवीय अधिकारों (Human Rights) का प्रयोग करने की आजादी है। समाज में उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण का विकसित होना जरूरी है।' उन्होंने कहा - 1. भारतीय संविधान के भाग तीन तथा भारत की संसद तथा राज्यों की विधानसभाओं में पारित नियमों के तहत तृतीय लिंगियों की सुरक्षा के लिए उन्हें अधिकार दिए जाने जरूरी हैं, 2. तृतीय लिंगी लोगों को यह स्वतंत्रता दी जाए कि स्त्री या पुरुष के रूप में जैसा वे चाहें उन्हें जाना जाए, भारत सरकार तथा राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि वे उनके चयन को कानूनी मान्यता दें।' इस निर्णय ने तृतीय लिंगी लोगों को जीने का आधार तो दिया लेकिन समाज में उनके प्रति जो उपेक्षा और घृणा का भाव है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन अब भी नहीं आया। हां, यह जरूर हुआ कि एक बहस चली और सार्थक बहस चली जिसने हिंदी लेखन को भी प्रभावित किया। दक्षिण एशिया के देशों में पिछड़ेपन के कारण नये विचारों का अभाव-सा रहा है, कुछ ऐसा करने का विचार ही नहीं जन्मता जो अतीत के विरोध में हो। सही या गलत का भाव तो तब आता है जब हमारे मन में बेचैनी हो, जो चला आ रहा है उसे बदलने या उसमें परिवर्तन लाने की तीव्र इच्छा ही नये विचार को जन्म देती है।  दरअसल, हमारा समाज लिंग पूजक रहा है, प्राचीन मंदिरों या धरोहरों में जिस प्रकार के चित्र बनाये गये हैं, वे एक प्रकार से लिंग के महत्व को ही दर्शाते हैं। शिव मंदिरों में तो लिंग की पूजा होती ही है, हमारे भद्र समाज में शिव लिंग कहते हुए किसी की आंखें नहीं झुकती। अपितु कुंवारी लड़कियों के लिए तो यह रूढि़ प्रचलित ही है कि जो 16 सोमवार शिव लिंग की पूजा कर व्रत रखेगी, उसकी शादी शीघ्र ही होगी। इसलिए जिन घरों में लड़कियों की शादियां नहीं होती उन्हें शिव लिंग की पूजा और व्रत करने को कहा जाता है और वे बाकायदा लिंगस्नान और पूजा करके मन में प्रसन्न होती हैं। शादी होती है कि नहीं यह प्रश्न आस्था में दब जाता है। जो समाज सार्वजनिक रूप से लिंग प्रधान हो, जिसमें छोटे-बड़े, स्त्री पुरुष सबके सामने औरतों के अंगों को निशाना बनाकर गालियां दी जाती हों, उस समाज में लिंग विहीन व्यक्ति की क्या स्थिति हो सकती है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। हमारे शास्त्रों में जो चार पुरुषार्थ बताये गये हैं उसमें भी काम प्रमुख पुरुषार्थ के रुप में अवस्थित है। हजारों वर्ष पहले 'कामसूत्र' की रचना इसी समाज में हुई थी, जिसे कुछ लोग पांचवां वेद भी कहते हैं। राजा-महाराजाओं, नवाबों और तमाम छोटे-बड़े सामंतों के यहां कुछ वैद्य कामोद्दीपन के लेप और दवाइयां बनाने का ही काम किया करते थे। उनकी रोजी-रोटी का प्रमुख आधार यही हुआ करता था। हमारे धर्म ग्रंथों में बताये गए स्वर्ग में अप्सराएं बहुत सुंदर होती हैं और वे किसी को भी कामोद्दीप्त करने में सक्षम होती हैं। स्वर्ग में दो चीजें महत्वपूर्ण हैं - एक सुरा और दूसरी सुंदरी। ये सारे उदाहरण बताते हैं कि हमारा पूरा समाज, धर्म और धार्मिक मान्यताएं काम संबंधों की अनिवार्यता को महत्व देती हैं, हमारे परस्पर के संबंध भी इन्हीं आधारों पर तय होते हैं इसलिए तृतीय लिंगी या हिजड़ों के प्रति जो समाज का रवैया है, वह हजारों वर्षों से चला आ रहा है, उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की इच्छा का अभाव ही रहा है। तृतीय लिंगी लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही लक्ष्मी उर्फ लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने इस पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा 'इन सभी को बचाने का मैंने बहुत प्रयास किया उनको समझाया, उनसे हमेशा बातचीत करती रही। पर कितना समझाऊंगी? कितनी चिल्लाऊंगी? और किस मुंह से? ये सब क्या भोग रही थी, वो मैं देख रही थी। पहले पुरुषों के शरीर के अंदर की औरत के मन का दम घुटना... बाद में हिजड़ा होने पर परिवार का सहारा छूटना... करीबी कोई नहीं था... समाज द्वारा किया हुआ क्रूर व्यवहार, उसकी वजह से होनेवाली तकलीफ... उत्पादन का साधन नहीं... कोई नौकरी नहीं देता था... पर जीने के लिए पैसा तो चाहिए था... फिर उसके लिए किया गया सेक्स वर्क... मन में हमेशा डर... तनाव.... हमेशा उपस्थित होने वाला सवाल... मैं कौन हूं... उसके जवाब तो मिलते ही नहीं थे, उलटा आने वाले नाना तरह के अनुभवों से मन की उलझनें बढ़ती जाती थीं। उससे आने वाला नैराश्य, संभ्रम... जिंदगी की कोई कीमत ही नहीं... ना परिवार में, ना समाज में... और फिर खुद की नजरों से गिर जाना।' तृतीय लिंगियों के लिए यह भयावह स्थिति है, जिससे रोजाना उनका सामना होता है। वे चाहकर भी इन स्थितियों से बच नहीं सकते। इन्हीं सबके बीच इसी समाज में उन्हें जीना है, भीख मांगकर, नाच-गाकर तथा शारीरिक संबंध बनाकर। घर के तिरस्कार की पीड़ा के साथ समाज की उपेक्षा और उपहास उनका पीछा नहीं छोड़ते। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने एक संगठन खड़ा कर इस लड़ाई को सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ा, उन्हें विधिसम्मत अधिकार मिले, जिसका परिणाम है कि नौकरियों से लेकर विद्यालय और महाविद्यालयों के प्रवेश आवेदन पत्रों तक में एक अलग कॉलम 'टी' अंकित कर दिया है। पर समाज की मानसिकता कैसे बदली जाए यह प्रश्न आज भी तृतीय लिंगियों के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है।
इन्हीं प्रश्नों से टकराने तथा इन पर रचनात्मक टिप्पणी करने के लिए हिंदी में महत्वपूर्ण उपन्यास आए हैं, जिनमें नीरजा माधव का यमदीप, महेंद्र भीष्म का किन्नर कथा, निर्मला भुराडिय़ा का गुलाम मंडी तथा चित्रा मुद्गल का पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा आदि प्रमुख हैं। इसी बीच लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा 'मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी!' आई, जिसमें उनके संघर्ष के विविध सोपानों को जिस प्रकार खोला है, उससे इस सामाजिक व्यवस्था के प्रति घृणा होती है। हमारी अपनी संस्कृति जिस पर हम बहुत गर्व करते हैं, के प्रति मन में धिक्कार का भाव उत्पन्न होता है। हम बड़े गर्व से कहते हैं कि विकलांगता अभिशाप नहीं है, यह किसी को भी हो सकती है, इसलिए इसका उपहास नहीं उड़ाना चाहिए लेकिन सर्वलोकप्रिय ग्रंथ 'रामचरित मानस' में तो साफ-साफ लिखा है 'काने, खोड़े, कूबड़े कुटिल कुचाली जान' यह क्या इन लोगों की वंदना के लिए लिखा गया है? यह स्पष्ट कहा गया है कि ये तीनों कुटिल और सीधे चलने वाले नहीं है। यह पहचान है विकलांग लोगों की। इसलिए हमारे समाज मे काने, भेंड़ें, अंधे, लंगड़े इत्यादि लोगों को जिस अविश्वसनीय भाव से ग्रहण किया जाता है, वह हमारी अपनी मानसिकता है। हमारी अपनी नैतिकता इन्हीं मूल्यों से निर्मित हुई है। शारीरिक विकलांगता का उपहास उड़ाने वाले हम पाखंडी समाज के लोग हैं इसलिए यह कैसे संभव है कि तृतीय लिंगी हमारी आत्मीयता के पात्र बन सकते? उनकी पीड़ा का सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि घर से लेकर समाज तक में उनके प्रति घृणा का भाव है। हम इतिहास की दुहाई तो बहुत देते हैं लेकिन उसे पढ़कर समझने का प्रयास नहीं करते, इतिहास में तो तृतीय लिंगियों के प्रति इस प्रकार का भाव नहीं था। प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल के दरवारों तक में उनकी पैठ थी और मुगलों के यहां तो वे रनिवास और सुरक्षा प्रहरियों के बीच सेतु तक का काम किया करते थे। सबसे पहले उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने एक कानून बनाया था क्रिमिनल ट्राइव एक्ट, 1871 जिसमें उन्हें जरायाम पेशा की श्रेणी में डाल दिया गया। तृतीय लिंगी कभी भी जरायम पेशा नहीं रहे, लेकिन जीविका के लिए उन्हें इस प्रकार के काम करने पड़े जो भद्र समाज के लिए अच्छे नहीं माने जाते थे। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में उन्होंने जिस प्रकार का जीवन अपनाया है, वह इन्हीं स्थितियों और सामाजिक उपेक्षा के कारण है। उपेक्षा और घृणा भाव ने उन्हें नाचने गाने से लेकर सेक्स वर्कर तक के काम में लगा दिया है। धीरे-धीरे उनकी पहचान ही यही बन गई है जिससे मुक्ति के लिए कोई भी कानून अधूरा ही साबित होगा।
सामाजिक नैतिकताएं कभी स्थायी नहीं होतीं, समय के साथ बदलती रहती हैं। एक समय बाल विवाह को श्रेष्ठ माना जाता था और विधवा विवाह का निषेध था। चौदह वर्ष में रजस्वला होने से पहले कन्या का विवाह जरूरी माना जाता था और कहा जाता था कि रजस्वला होने से पहली ही वह कन्या है, इसी उम्र में विवाह करने पर कन्यादान का फल और पुण्य मिलता है। लेकिन अब वे सारी मान्यताएं परिहास का विषय बन चुकी हैं। जवान बेटे की मृत्यु के बाद स्वयं सास ससुर अपनी बहू का विवाह करने के लिए आगे आ रहे हैं, यह शुभ लक्षण है। इतनी-सी उम्र में घर में बैठाकर किसी लड़की को उसकी आंखों के सामने नैतिकता का पर्दा टांगने से कोई लाभ नहीं था पर सामंती समाज के अहम् ने इस थोथी नैतिकता को जन्म दिया था। जिस पर प्रहार तो 19 वीं शताब्दी से ही आरंभ हो गए थे लेकिन इसके विदा होने में समय लगा। मां-बाप अपने विकलांग, मानसिक रोगी, मानसिक रुप से मंद तथा अन्य असाध्य रोगों से ग्रस्त बच्चे को जीवित रखने के लिए सारी जिंदगी खपा देते हैं लेकिन जननांग दोषी बच्चे को ऐस लोगों के हाथ सौप देते हैं, जिन्हें वे जानते तक नहीं हैं। यह एक प्रकार की सामाजिक विकृति है, जिस पर इक्कीसवीं शताब्दी में प्रश्न उठने शुरु हुए हैं। न्यायपालिका की स्वीकृति के बाद जननांग दोषियों के संगठन को अपनी मुक्ति के लिए आवाज उठानी चाहिए। हो सकता है कुछ समय तक इस आवाज को कोई नहीं सुने लेकिन अंतत: इसकी चीख सारी दुनिया में फेलेगी और लोगों का ध्यान इस ओर जाएगा। चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा' इसी गहन गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करता है। 'आंवा' और 'गिलिगडु' ने चित्रा जी को नयी पहचान दी है, यह उपन्यास उनकी पहचान को और विशिष्ट बनाता है। ऐस अछूते विषय पर वात्सल्य भाव से कोई उपन्यास हिंदी में अभी तक नहीं आया है। ऊपर जिन उपन्यासों का जिक्र किया गया है, वे तृतीय लिंगियां के दैनंदिन संघर्षों को तो व्यक्त करते हैं लेकिन जिस परिवार ने उन्हें निर्मम रुप से घर से निकाल दिया है, उनके प्रति उनके मन में कोई आक्रोश या अन्य किसी प्रकार का भाव प्रदर्शित नहीं किया गया है। चित्राजी ने इस अछूते विषय को लिया है कि जिस लड़के को जननांग दोषी होने के कारण चंपाबाई को सौंप दिया गया वह बच्चा अभी अपनी मां पर कितना विश्वास करता है, उनके हर सुख-दुख में सुखी और दुखी रहता है, उनकी छोटी से छोटी समस्या पर चिंता व्यक्त करता है, हर बात वह अपनी बा को बताना चाहती है, उसके मन में अब भी यह विश्वास गहरे पैठा हुआ है कि दुनिया में बा ही उनकी अपनी है, बाकी के रिश्ते तो लेन-देन पर टिके हुए हैं। गहन अंधकार और निर्णायक स्थिति में भी वह अपनी बा से राय लेना चाहता है ताकि गलत रास्ते का चयन नहीं कर सके। उसे हर समय लगता है 'तेरी गोद के बिना मैं कितना अधूरा हूं।' और बा इसी विश्वास को दृढ़ करते हुए कहती है 'तू विश्वास कर सकता है तो अपनी बा पर विश्वास न डिगने दे। तू जिस नरक से गुजर रहा है, वहां मैं तेरे साथ नहीं मगर तेरे उस नरक की हर गली मेरी छाती से होकर गुजरती है।' यह विश्वास आमने-सामने नहीं वरन् चिट्ठियों के माध्यम से हो रहा है पर आत्मीयता की वह गर्माहट संवादों को जीवंत बनाती है। चिट्ठियों की एक सीमा होती है, बा और बिन्नी के बीच यह सीमा इसलिए और गहरी हो जाती है कि इन चिट्ठियों को बा को घर के हर सदस्य से छुपाना है विशेषरुप से मोटा भाई से। वह नहीं चाहता कि बिन्नी से किसी प्रकार का कोई संबंध रहे। लेकिन बा का मन है कि मानता ही नहीं, वह लगातार बिन्नी के संपर्क में रहती है। उसे लगता है कि उसने अनजाने में या मजबूरी में कोई अपराध किया है, यह अपराध बोध उन्हें सुख से जीने नहीं देता। वे बिन्नी को घर तो नहीं ला सकती लेकिन उसके प्रति जुड़ाव से अपने अपराध बोध को कुछ कम करती है। और बिन्नी स्वयं अपनी बा के लिए जिंदा है, उसके सपने को सच करने के लिए जिंदा है। एक समय वह बा का लाड़ला बेटा था, वह गणितज्ञ बनना चाहता था लेकिन समाज की मान्यताओं के आगे वह विवश होती हैं। घर के विद्रोह के आगे नत होती हैं लेकिन अपनी सांसों की खुशबू से दूर बैठे बिन्नी से जुड़ी रहती हैं। यह बा और बेटे का जुड़ाव का नायाब नमूना है जो किसी अन्य उपन्यास में नहीं आया है। इससे यह तो स्पष्ट होता है कि मां अपने अलग हुए बच्चे को कभी भूल नहीं पाती और बेटा भी चाहे कितनी ही अलग दुनिया में रह रहा हो, वह अपने परिवार से अलग नहीं हो पाता। यह बात दूसरी है कि दोनों के सामने सामाजिक मान्यताएं जिस प्रकार तलवार लेकर खड़ी रहती हैं, उनके सामने वे चुप हो जाते हैं। पर इस चुप्पी के कई मर्मांतक अर्थ निकलते हैं, जिन्हें चित्राजी ने बहुत सतर्क और संवेदनशील मन से अंकित किया है। कई बार बोलने से अधिक चुप रहने का अर्थ होता है और इस अर्थ को बिन्नी की मां भलीभांति जानती हैं। एक मां की पीड़ा जो घर में रहकर भी अपने जननांग दोषी बेटे के साथ है, जिन प्रतीकों और बिंबों का सहारा लेकर प्रत्यक्ष होती है, वे न केवल बिन्नी बल्कि उन जैसे हजारों-लाखों बिन्नियों का दर्द बनकर उभरता है।
सघन चित्र उपन्यास को कैसे बड़ा बनाते हैं, इसके कई उदाहरण इस उपन्यास में देखने को मिलते हैं। बिन्नी अपनी बा से घर की याद करते हुए उनकी बनाई हुई चीजों और उनके अनूठे स्वाद का स्मरण कर दुखी होता है। यह एक प्रकार से बा को याद करना भी है और उसके माध्यम से घर की याद कर दुखी होना भी है। दूर रहकर घर ऐसे ही याद आता है, बहुत छोटी-छोटी लेकिन मर्मांतक स्मृतियों में छनकर। और जब घर से केवल दूरी ही न हो बल्कि घर से बाहर कर दिया गया हो, तब तो यह स्मृति और तरल होकर बरस पड़ती है। बिन्नी कई बार बा को याद करते हुए उनके द्वारा बनाई गई विशिष्ट भोज्य सामग्रियों को याद करके विह्वल होता है। बा उन चिट्ठियों में अपने छोटे से बिन्नी को खोजती है, उसके बालपन को याद करती है और उसकी रुचियों को याद कर दुखी होती है। इन सबका इलाज न बा के पास है और न बिन्नी के पास। बिन्नी अब घर नहीं आ सकता और बा में इतना साहस नहीं कि वह उसे अपने पास बुला सके। बिन्नी के पिता ने तो कोई अनहोनी दुर्घटना बताकर बिन्नी की मृत्यु की घोषणा भी कर दी ताकि कोई उसके बारे में आइंदा पूछ न सके। इसलिए बिन्नी के मित्रों, परिचितों और रिश्तेदारों ने यह मान लिया कि बिन्नी अब इस दुनिया में नहीं है। लेकिन बा के मन ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। उनका बिन्नी घर, परिवार और समाज के लिए मर गया है लेकिन उसके लिये वह अभी भी वैसा ही है, जैसा कि पहले था। वह बिन्नी के मन को जानती है, उसके लगाव और जुड़ाव को भी जानती है इसलिए उसकी प्रिय वस्तुओं को बनाना बंद कर देती है। बनाने पर उसे उसकी याद आती है और मन रो पड़ता है। इसलिए बिन्नी को सूचना देते हुए पत्र में लिखती है 'यकीन कर जब से तू घर से गया है, केसर वाला श्रीखंड मैंने बनाना ही छोड़ दिया है। जब भी किसी को खाने की इच्छा होती है, अमूल के पैक गिलास मंगवाकर रख देती हूं फ्रिज में। तेरी पसंद की चीजें बनाने पर तुझसे ईष्र्या करने वाला और उसके लिए मुझसे लडऩे वाला एक ही शख्स था। उसे भी खो दिया। छाती में हाहाकार समेटे सोचती हूं, क्या अभिशप्त मां हूं मैं?' यह स्थिति मोटा बाई यानी बिन्नी के बड़े भाई और भाभी के अलग घर लेकर रहने की है। बा यह सूचना क्यों दे रही है, यह बा के मन से ही पूछा जा सकता है। स्वयं को अभिशप्त मानकर उनका मन हाहाकार करता है- एक बेटा जननांग दोषी होने के कारण घर से बाहर कर दिया और दूसरा अपने आप घर छोड़कर चला गया। तीसरा अभी छोटा है और पति हृदय के रोगी हैं। स्त्री चाहे वह किसी भी उम्र की क्यों न हो, पति से दुख साझाकर संतोष का अनुभव करती है, उसे लगता है कोई है घर में जो उसकी सुनता है। वह कभी भी अपनी बात उनसे कहकर मन को हल्का कर सकती है। लेकिन बीमार पति से वह कुछ कह नहीं सकती। पेसमेकर लगाकर जीवनचर्या को ढोते हुए पति स्वयं लाचार हैं, उनसे ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता जिससे उन्हें दुख हो, हृदयाघात होने की संभावना हमेशा बनी रहती है। घर में बीमार आदमी की केवल उपस्थिति होती है, यह उपस्थिति पत्नी को उनके होने के अहसास से भरती तो हैं लेकिन कभी-कभी असहायता का बोध भी उत्पन्न करती है। पति दुखी या नाराज होकर बाहर जा सकता है, किसी से अपना दुख साझा कर सकता है लेकिन स्त्री ऐसा नहीं करती। उसका घर ही उसका अपना ऐसा कोना है, जहां बैठकर वह अपनेपन की अनुभूति से नहा उठती है। घर की चारदीवारी से बाहर वह अपने पति, बेटे या बहू के बारे में कभी कुछ नहीं कहती, हजार दुख सहकर भी नहीं। बिन्नी के दुख को वह भूली नहीं है, उसे रह-रहकर याद हो जाता है वह क्षण जिस समय चंपाबाई को उसे सौंपा था। सौंपा ही नहीं था बल्कि एक ऐसी दुनिया में जबरन ढकेल दिया था, जहां का संसार फूहड़ता की सारी सीमाओं के बाहर था। उस संसार को हमारी लिंग पूजक दुनिया ने कभी स्वीकार नहीं किया। चित्राजी बिन्नी की चिंता को व्यक्त करते हुए कहती हैं 'लिंग-पूजक समाज लिंगविहीनों को कैसे बरदाश्त करेगा? माता-पिता दोषी हैं, मगर उससे ज्यादा दोषी है, क्रूर, निष्ठुर, पाखंडी धर्म विश्लेषकों को धर्मान्धता।'
बा और बिन्नी का जुड़ाव केवल मां और बेटे का ही जुड़ाव नहीं है बल्कि घर-परिवार की सारी चिंताओं से जुड़ाव है। जिस बेटे को घर से बाहर कर दिया गया, वही बेटा आज भी घर के सदस्यों की चिंता कर रहा है। उसके मन में इस चोट का दर्द तो है कि उसे जिस तरह घर से बाहर कर दिया गया, वह ठीक नहीं था। पर इससे घर के प्रति उसके लगाव में कमी नहीं आई। बा की परेशानियों और मोटा भाई की धमकियों को सुनकर वह उनका हौसला बढ़ाते हुए लिखता है 'तू अपने भीतर को जी न। जैसे तू जीना चाहती है।' जो स्वतंत्रता उसे अपने घर में नहीं मिली, वह स्वतंत्रता और स्वायत्तता अपनी बा को देना चाहता है, परिस्थितियो के आगे वह अपनी बा को टूटने से बचाने की हरदम कोशिश करता है। एक स्त्री कब तक घर में घुट-घुटकर जियेगी, वह उस घुटन से उन्हें बाहर लाना चाहता है। वह नहीं चाहता कि उसके घर पर न रहने पर उसकी मां दुखी रहे। मां का दुख साझा करने के लिए वह उन्हें रोज फोन करना चाहता है ताकि संपर्क-संवाद बना रहे। इसलिए उनसे जिद करता है 'तो तुझे मेरी कसम है बा। छूट दे दे मुझे प्लीज बा, प्लीज कि हर रोज सुबह-शाम मैं तुझे ज्यादा नहीं, मात्र मिनटभर के लिए फोन कर सकूं। पूछ सकूं तुमसे कि पप्पा पिछली रात अपने बड़े दीकरा की यादों से अलग हो कुछेक घंटों के लिए सो सके? कद काढ़ते बेटे में बाप बड़ी जल्दी अपना प्रतिरूप ढूंढऩे लगता है। पप्पा अपवाद थोड़े ही हैं। उनका दुख मैं पूरी  बांहें फैलाकर अपनी छाती में समेट लेना चाहूं तो भी नहीं समेट पाऊंगा। उनका यह नाकारा दीकरा जो उनके परिवार को नयी पीढ़ी की विरासत सौंप पाने में असमर्थ है, सही दावा कर सकता है कि उसकी झोली में मात्र उनकी चिंता है और उन चिंताओं के प्रति वह पूरी तरह से ईमानदार है। बा, तू तो सोने की कोशिश किया कर।' बिन्नी की ये चिंताएं पिता को छोटा करती हैं, समाज के दबाव में आदमी अपने ही बेटे को घर से बाहर कर देता है लेकिन बेटा अभी भी उनके प्रति ईमानदार है। वह हर पल अपने परिवार से जुड़ा है, जुड़ा रहना चाहता है। वह कंप्यूटर सीखता है तो अपनी बा को भी सीखने के लिए कहता है ताकि उनसे कंप्यूटर के माध्यम से जुड़ा रह सके। बा को वह अपनी हर गतिविधि से अवगत कराना चाहता है, इसलिए कि उसके मन में यह विश्वास मूलबद्ध है कि बा से अपने मन की बात कहकर वह समस्याओं से मुक्त हो जाता है।
चित्रा जी ने बिन्नी की मानव सुलभ इच्छाओं को जिस प्रकार व्यक्त किया है, उससे बिन्नी के जीने की इच्छा और गहरी होती है। यह जानते हुए भी कि वह जननांग दोषी है फिर भी ज्योत्स्ना से प्रेम करता है। उस प्रेम को वह अभी भी भूला नहीं है। इस नरक में आने के बाद भी वह ज्योत्स्ना को याद करते हुए बा को चिट्ठी लिखता है 'यह खेल स्वयं मेरी समझ में नहीं आता। यह कौन सा तिलिस्म है बा! हैरत में हूं... सबने मुझसे मुंह मोड़ लिया सपनों ने मुंह नहीं फेरा। आज भी वे मेरे पास बेरोक-टोक चले आते हैं। अंधेरा पिये हुए काली बर्फ को मंझाते। वे आते हैं तो बा, उनके संग ज्योत्स्ना भी मेरे पास चली आती है। तू कतई परेशान ना होना बा, ज्योत्स्ना मेरे लिए जिंदा है, मैं ज्योत्स्ना के लिए नहीं।' कहना न होगा कि सपने आदमी को जीवित रखते हैं, संबंधों में प्रेम सबसे ऊपर और सबसे परे है, उसकी कोई परिभाषा नहीं कर सकता, लेकिन वह मानव संबंधों में स्वयं परिभाषित हो जाता है। बिन्नी बचपन से ही ज्योत्स्ना से प्रेम करता था, वह घर आती थी और घर में उजाला पसर जाता था। वह अपने अतीत में जाकर फिर से उसे याद करते हुए बा को लिखता है 'मुझे लगता है बा, मैं कुछ बन जाता तो उससे ब्याह जरूर करता। सब कुछ बता देता उसे। कह देता, तू मुझसे फेरे भर ले ले। अपनी इच्छाएं जीने के लिए तू स्वतंत्र है। बच्चा हम गोद ले लेंगे। गोद नहीं लेना चाहेगी तो जिससे मर्जी हो, बच्चा  पैदा कर ले। खुशी-खुशी मैं उसे अपना नाम दूंगा। वे सारे सुख दूंगा जो एक बाप से औलाद उम्मीद करती है।' यह बिन्नी की दमित इच्छा है, जो बार-बार उभरकर आती है। वह जननांग दोषी होने के कारण समाज की उपेक्षा और तिरस्कार का शिकार नहीं होना चाहता। वह भी सामान्य बच्चों की तरह पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहता था, पढऩे में वह अव्वल था ही। लेकिन एक शारीरिक कमी ने उसकी पूरी दुनिया ही उजाड़ दी। जब भी वह अकेला और दुखी होता है तो बा के साथ ज्योत्सना भी चली आती है, वह अपने को उससे कभी अलग नहीं कर पाया। यदि वह कुछ बन गया होता तो वह भी सामान्य आदमी की तरह जीवन जी रहा होता। उसका यह विश्वास उसके पिता और बड़े भाई ने ही तोड़ा था। ज्योत्सना के संबंध उसे बचपन में ले जाते हैं और वह उन पलों को याद करके भावुक होते हुए बा को लिखता है 'जैसे, जैसे कभी ज्योत्सना तेरे घर में होते हुए भी तेरी उपस्थिति को भूल कच्छी-घाघरे में उठलाते हुए मेरे बरजने के बावजूद बावली-सी अपनी किशोर बाहें पसार मुझसे लिपट गई थी। ...तूने मुझे एक बार यह कहकर भी डांटा था, छोकरी सयानी हो रही है दीकरा, थोड़ा दूर रहाकर। हर बात समझाने की नहीं होती, खुद से समझने की भी होती है। मसें भीग रहीं तेरी।' मां का इशारा एक चेतावनी भी थी। बिन्नी भी समझता ही था पर कई बार नासमझी समझदारी पर भारी पड़ी है 'नासमझी से निकल तू समझदार होने के लिए क्यों कहती रहती थीं। नहीं जानती थी तू बा, समझ में दाखिल होते ही सपने दम तोड़ देते हैं यानी जीवन दम तोड़ देता है। ज्यादा समझदार आदमी जीवन में हार भी जाता है। लेकिन बिन्नी जीवन में हारकर भी जीवन नहीं हारना चाहता था। ज्योत्सना उसके लिए सपना है, फिर भी वह उस सपने को जीना चाहता है। इसलिए ज्योत्सना अब भी उसके जीवन में है, उसकी याद करता है और उसके बारे में बा से पूछता है। तृतीय लिंगी समाज में आने के बाद उसे पूनम मिली-पूनम जोशी, जिसकी उपस्थिति 'खिले घाम-सी खिली हुई उसकी अल्हड़ उपस्थिति के गुनगुनेपन की आदत रही है मुझे।' उसकी उपस्थिति में वह ज्योत्सना को नहीं ढूं्ढ़ता, यह ईमानदारी उसके अंदर है। पर पूनम इस उपेक्षित समाज में उसके लिए खिली घाम-सी थी। कुहरे, बादल और सुन्न कर देने वाली ठंड में खिली घाम जीवन देती है, ऊष्मा देती है और अपने प्रकाश में जीवन-मार्ग प्रशस्त करती है। पूनम भी बिन्नी के जीवन में ऐसी ही है, जो रात-दिन उसकी चिंता करती रहती है। उसके सुख में सुखी और दुख में दुखी रहती है। स्थानीय विधायक के यहां उसे नौकरी दिलवाने का माध्यम भी पूनम ही थी। पूनम उसे प्यार करती है, यह अनहोनी नहीं है। समलिंगी और तृतीय लिंगी समाज में ऐसे संबंध वर्जित नहीं माने जाते। पश्चिमी देशों में तो समलिंगी संबंधों को मान्यता भी मिल चुकी है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस दिशा में उजाले की तरह है। तृतीय लिंगी समाज अपनी कमियों, उपेक्षाओं और सामाजिक घृणा को ऐसे ही पूरा करता है। पूनम जोशी और बिन्नी के संबंधों में जो आत्मीय भाव है, वह परिवार संस्था की याद दिलाता है। समलिंगी समाज की तरह तृतीय लिंगी समाज में भी पति-पत्नी बनकर रहना और उसी तरह जीवन यापन करना आम बात है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा 'मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी' तथा प्रदीप सौरभ का उपन्यास 'तीसरी ताली' उपन्यास में ऐसे संबंधों के बारे में विस्तार से बताया गया है। चित्रा जी की विशेषता यह है कि वे सूचना नहीं देतीं बल्कि उन संबंधों का भाव निरूपण करती हैं। संबंधों को जीने से जीवन की बहुत बड़ी कमी पूरी होती है, पूनम और बिन्नी अच्छी तरह इससे परिचित हैं। इसलिए पूनम हर वह चीज बिन्नी को देना चाहती है, जो उसके पास नहीं है और बिन्नी सोचता है 'जब भी मैं उसे कोई उपहार देना चाहूंगा, खूबसूरत काली भरी हुई कच्छी शाल दूंगा। रंग-बिरंगी सिंधी कढ़ाई में कांच का गझिन काम धागों में गुंथी हुई कांच की अशर्फियों में झिलमिलायेंगे उनके लुनाई पगे चेहरे के अक्स।' यह सूचना वह बा को देता है इसलिए कि पूनम के पास कोई अपना नया शाल नहीं है जो हैं वे सर्दियों में जन्मे हुए बच्चों की कृपा का फल हैं। यानी वे शाल बच्चों के जन्म पर बधाई देने, नाचने-गाने के उपलक्ष्य में मिले हैं, जो पुराने हैं। इन शालों को देखकर बिन्नी को नफरत-सी होती है, वह जिसे चाहता है वह किसी का ओढ़ा हुआ और किसी का दिया हुआ शाल क्यों ओढ़े? ये बहुत बारीक चित्र हैं, जिन्हें मानवीय संंबंधों की ऊष्मा में ही देखा और समझा जा सकता है। प्रेम के लिए ताजमहल की अपेक्षा दो मीठे और मन से निकले शब्द भी पर्याप्त होते हैं।
चित्रा जी ने तृतीय लिंगियों की राजनीतिक चेतना को जिस रूप में चित्रित किया है, उससे उनके अंदर का आक्रोश प्रकट होता है। राजनेता चाहते हैं कि तृतीय लिंगियों को जीरो श्रेणी में आरक्षण मिले, वे अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना चाहते हैं 'मूल मकसद यही है। चारों ओर प्रदेशों से आरक्षण की मांग उठने लगेगी तो उनकी पार्टी को समाज की आंख में जमे तिल की शल्यक्रिया करने में आसानी होगी। खौलते आक्रोश को हम सोशल मीडिया से जोड़ देंगे।' पर बिन्नी इसके लिए तैयार नहीं है। उसकी स्पष्ट मांग है कि 'मैं आप सबकी ससम्मान घर वापसी चाहता हूं। ...बजरिए बिरादरी को। शपथ लीजिए यहां से लौटकर आप किसी लिंग दोषी नवजात बच्चे-बच्ची को, किशोर-किशोरी को, युवक-युवती को जबरन उसके माता-पिता से अलग करने का पाप नहीं करेंगे। उससे उसका घर नहीं छीनेंगे। उपहासों के लात-घूंसों से उसे जलील होने की विवशता नहीं सौंपेंगे। जलालत का नरक भोगकर भी कुछ नहीं सीखे आप? नहीं जानते। कौन लोग करते हैं आपका इस्तेमाल? वो, जो आपको इंसान नहीं समझते। आपके जीने-मरने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अंधेरे के बावजूद वो अपनी मैयत को कंधा देने नहीं पहुंचते। आंसू नहीं बहाते। रूढि़ नियति की है। जीवित रहते धिक्कार की चप्पलों से वे आपकों पीटेंगे। मरणोपरांत वे आपको अपनी ही बिरादरी से पिटवायेंगे। जिनके नवजात शिशुओं को ढूंढ़-ढ़ांढ नाच गाने आशीषने पहुंचते हैं आप, उन्हीं के घर दूसरे रोज पहुंचकर देखिए? घर का दरवाजा आपके मुंह पर भेड़ दिया जाएगा। इस अवमानना को झेलने से इंकार कीजिए। कुली बनिए। मिस्त्री बनिए, ईंट-गारा ढोइये, जो चाहे सो कीजिए, पायेंगे मेहनत के कौर की तृप्ति। आरक्षण निदान नहीं है। आत्मचेतना बुनियादी अधिकारों की मांग का पहला पायदान है।' बिन्नी घर वापसी और अपने श्रम की ताकत पर मनुष्योचित जीवन जीने पर बल दे रहा है। वह चाहता है कि जननांग दोषी वैसे ही विकलांग है जैसे हाथ पैर और आंखों का न होना। वे लोग भी तो घर रहकर ही जीवन जीते हैं फिर जननांग दोषी को यह अधिकार क्यों नहीं? उन्हें जिस नरक और बेशरमी की दुनिया में फेंका जाता है, उससे मानवीयता शर्मशार होती है। अपने घर के बच्चे को इस प्रकार एक ऐसी जमात में फेंक देना, जिनका लोग उपहास करते हैं, सेक्स वर्कर के रूप में इस्तेमाल करते हैं, रात-दिन एक दूसरे को गालियां देते हैं, बिन्नी को इस सबसे नफरत है। पर राजनेता ऐसा नहीं चाहते। कोई भी राजनेता समस्या का समाधान नहीं चाहता बल्कि समस्या को जीवित रखना चाहता है ताकि उसकी रोटियां सिकती रहें और वह सत्ता पर काबिज रहे। बिन्नी जैसे ईमानदार लोग अपने ही लोगों की बेशर्मी पर राजनीति नहीं करना चाहते, वे समस्या का स्थायी समाधान चाहते हैं। बिन्नी का घर और विशेष रूप से मां से जो लगाव है, उसकी प्रतिध्वनि उसके भाषण में स्पष्ट सुनाई देती है। वह नहीं मानता कि उसका कोई अपराध है, वह जीना चाहता है जैसे और लोग जीते हैं। चित्रा जी ने उसके इस स्वर को तेज आवाज दी है, जिससे सब उसकी बातों को सुन सकें। जिन घर-परिवारों ने अपने जननांग दोषी बच्चों को निकाल दिया है, वे एक बार फिर सोचें, अपनी राय बदलें और सामाजिक नैतिकता जो हजारों लाखों को बेघर कर जीने का नाटक कर रही है, उसे जितना जल्दी हो सके समाप्त करें।
चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास एक नई बहस चलाता है, अंदर से कुरेदता है और अपने मनुष्य होने पर प्रश्नचिंह लगाता है। हमारे आसपास के वे लोग जो सड़कों पर, व्यस्त चौराहों पर, बच्चे होने पर या घर में कोई अन्य उत्सव होने पर नाचने-गाने, आशीषने चले आते हैं तब क्या हम उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा व्यवहार एक इंसान दूसरे इंसान के साथ करता है? नहीं करते तो इस उपन्यास के बिन्नी की आवाज ध्यान से सुनिये 'कन्याभ्रूण हत्या के दोषी माता-पिता अपराधी हैं। उससे कम दंडनीय अपराध नहीं जननांग दोषी बच्चों का त्याग।'



संपर्क : मो. 09421101128

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