प्रपंचपूर्ण पत्रकारिता का प्रतिपक्ष

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    अप्रैल 2017
श्रेणी प्रपंचपूर्ण पत्रकारिता का प्रतिपक्ष
संस्करण अप्रैल 2017
लेखक का नाम अरुण कुमार





सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं हैं/अनिल यादव








मुख्यधारा की पत्रकारिता हो या साइबर मीडिया पर प्रस्फुटित हो रही नागरिक पत्रकारिता, इन दिनों सब पर साख का संकट है। जहाँ एक ओर पत्रकारिता लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में अपने को शेष तीन स्तम्भों से ज्यादा सुदृढ़ होने का दावा पेश कर रही है वहीं दूसरी ओर पूरी दुनिया में पिछले दो-तीन दशकों में उसकी प्रतिष्ठा तेजी से क्षरित हुई है। अखबारी पत्रकारिता एवं टीवी पत्रकारिता का बड़ा भाग पैसे और सत्ता के खेल में सम्मिलित होकर व्यक्तित्वविहीन हो गया है। इसके काट के रूप में जिस साइबर मीडिया का उदय हुआ उसमें स्थितियों एवं घटनाओं के प्रचारित विवरण का प्रतिकथन एवं दृष्टि वैविध्य तो दिखाई पड़ता है किन्तु उनका अधिकांश तथ्यों की कसौटी पर या तो अपरीक्षित रह जाता है या परीक्षित होने पर प्राय: कल्पनाप्रसूत, आवेगजन्य और अप्रामाणिक ठहरता है। जो 'आनलाइन' लेखन-सक्रियता कभी अनेक प्रश्नों का उत्तर देती प्रतीत होती थी, आज स्वयं अनेक प्रश्नों से घिर गई है। सूचना प्रौद्योगिकी और ज्ञान विस्फोट के युग में सच को लीलना-दबोचना सुविधाजनक होता जा रहा है। इस विकट समय में लेखक-पत्रकार अनिल यादव की आखबारी और साइबरी टिप्पणियों के संकलन 'सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं हैं' को पढऩा, अपने समय की जटिल सच्चाइयों को खुलते हुए देखना है।
इस संकलन में लेखक की सन् 2000-2016 के बीच विभिन्न माध्यमों से प्रसारित कुल एक सौ सात टिप्पणियां हैं जो समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य, मीडिया, खेल, जिंदगी और अलविदा नामक वर्गों के अन्तर्गत विन्यस्त हैं। विषय की विविधता के कारण जीवन के विशाल वृक्ष का हर बिन्दु इस संकलन में समाहित है। संकलन का शीर्षक आलेख 'सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है' एक फेसबुक पोस्ट के रूप में है जो ऐसे नोटों की चतुर्दिक चर्चा के उफान के दौरान प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा गया है जिन पर किसी ने लिख दिया था कि 'सोनम गुप्ता बेवफ़ा है'।
अनिल यादव के लेखन की पृष्ठभूमि में चाहे वह पूर्वोत्तर भारत का यात्रा संस्मरण 'वह भी कोई देस है महराज' हो या 'नगर वधूएं अखबार नहीं पढ़तीं' संग्रह की कहानियों या इस संकलन की टिप्पणियां, एक देशज मानस है जो बार-बार दुहराए जाने वाले झूठों और पाखण्डी प्रवृत्तियों से गहरे इतिहास बोध और प्रगतिशील दृष्टि के साथ टकराता है। इस टकराहट से भारतीय समाज की जटिलताओं के अनेक बिम्ब एक साथ झममला उठते हैं।
जैसे साहित्यकार त्रिलोचन हमेशा याद रखते थे कि मैं 'उस जनपद का कवि हूं जो भूखा दूखा है' वैसे ही लेखक अनिल यादव भी नहीं भूलते कि वे उस जनतंत्र के लेखक हैं जिसमें 'एक अजब किस्म का आत्मकेन्द्रित समाज बनता जा रहा हैं।1 इसमें 'स्केलेटर वाले बहुमंजिला शॉपिंग मॉल खुल रहे हैं इंटरनेशनल स्तर की सड़कें बन रही हैं, लड़कियों के बीयर बार खुल रहे हैं, ....और बलि दी जा रही है।'2 यहां धार्मिक ध्रुवीकरण के नए फार्मूले खोजनेवाले और विफलता से डरे राजनेता हैं जो आधुनिक भारत बनाने निकले हैं। उनकी उंगलियां अंगूठियों से लदी हुई हैं और वे 'हर चुनाव से पहले मठों, मजारों की परिक्रमा करते हैं, बलि देते हैं, गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान कराते हैं, वोट बिदक जाने के डर से खाप पंचायातें समेत तमाम कुरीतियों और अपराधों के खिलाफ मुंह सिले रहते हैं।3 ''भ्रष्ट सरकारों के खिलाफ नेता अक्सर दहाड़ते हुए पाए जाते हैं कि 'जनता सबक सिखा देगी' लेकिन जब जनता को भी अपने रंग में रंग लिया जाएगा तो वह सिखाने लायक कहां रह जाएगी?4
संकलन की भूमिका में लेखक ने कहा है, 'अगर कहानी, उपन्यास, कॉलम, स्क्रिप्ट, विज्ञापन, ख़बरें लिखना काफी है तो मैं एक लेखक हूं। वैसे ही जैसे राजस्व प्रशासन के आखिरी छोर की कड़ी लेखपाल होता है। वह आदमी की आजीविका और भावनाओं से जुड़ी सबसे जाहिर चीज़ धरती के टुकड़े की कानूनी स्थिति और लगान का मूल्यांकन करता है। उसकी कलम से लिखी रपट के आधार पर सरकार आपको बताती है कि इस साल धान या गन्ने का रकबा कितना है और अनुमानित उपज देश का पेट भर पाने के लिए काफी होगी या नहीं। लेकिन लेखपाल को कोई प्रेमचंद या गोर्की नहीं कहता। मैं भी लेखक नहीं हूं।5
यह सच है कि लेखपाल को कोई प्रेमचंद या गोर्की नहीं कहता लेकिन लेखक होने की यह पहली शर्त है कि वह उस जमीन के इतिहास-भूगोल और समाज को ठीक-ठीक अपनी बही में दर्ज करता हो जिसके बारे में वह लिख रहा है। गोर्की और प्रेमचंद लेखपाल की तरह अपने समय की बही लिखते हुए भी समय के पार निकल जाते हैं। उनके लिखे विवरणों में उनका समय तो धड़कता ही है पर कुछ ऐसा समयातीत भी होता है जो हर काल में उसे पढऩेवालों के अन्तस को स्पन्दित करता है। प्रेमचंद और गोर्की का लिखा एक सार्वकालिक खेत बन जाता है जिसमें हर युग के और हर तरह के पाठक अपने संस्कारों के बीज से अपनी अलग फसल उगाते रहते हैं। जो लेखक प्रेमचंद या गोर्की नहीं हो पाते वे महत्वहीन नहीं होते। वे भी अपने समय में तमाम विरोधी शक्तियों के बीच समाज को आगे ले जाने वाली शक्तियों को पहचान कर उसे साथ खड़े होते हैं। इसीलिए हर ईमानदार लेखक की एक ऐतिहासिक भूमिका होती है, इतिहास में उसके नाम को जगह मिलना या न मिलना बिल्कुल अलग बात है।
काल्पनिक या वास्तविक सोनमगुप्ता नोटबंदी के दौरान इतिहास के रोजनामचों में दर्ज हो गई। लेखक को लगता है कि जिस किसी ने नोट पर 'सोनम गुप्ता बेवफ़ा है' लिखा था वह ठुकराया आशिक हो सकता है, सोनम गुप्ता को अलम्य सुन्दरी माननेवाला कोई दिलजला हो सकता है या सोनम गुप्ता की कोई नाराज सहेली हो सकती है लेकिन इन तमाम सम्भावनाओं के साथ जो सुनिश्चित है वह यह कि नोट पर जिसने लिखा 'वह वैसा ही आविष्कारक था या थी जैसा समुद्र से आती हवा को अपने सीने पर आंख बंद करके महसूस करनेवाला वो मछुआरा या मुसाफ़िर रहा होगा जिसे पहली बार नाव में पाल लगने का इल्हाम हुआ होगा। या वह आदमी जिसने इस ख़तरनाक और असुरक्षित दुनिया में बिल्कुल पहली बार अभय मुद्रा में कहा होगा, ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उसने नोट के हज़ारों आंखों से होते हुए अनजान ठिकानों पर जाने में छिपी परिस्थितिजन्य ताकत को शायद महसूस किया होगा, वो भी ऐसे वक्त में जब हर नोट को बड़े गौर से देखा जा रहा है, उसके बारे में आपका नज़रिया आपको देशभक्त, काला धनप्रेमी या स्यूडो सेकुलर कुछ भी बना सकता है।6
'सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है' के बहाने लेखक ने उन सारी सत्ताकामी कुटिल शक्तियों की ओर इशारा किया है जो अफवाहों के प्रसारतंत्र की खोज कर रोज नई कहानियां गढ़ते हैं। पाठकों-श्रोताओं की भी सादा पानी पीने की आदत छूट गई है। उन्हें सोडावाटरी सनसनाहट की लत पड़ गई है। कभी यह सोडा सोनम गुप्ता के रूप में होता है तो कभी साम्प्रदायिक सनक के रूप में तो कभी देशप्रेमियों की शिनाख़्त के रूप में।
लेखक ने अपने हर आलेख में किसी ताजी घटना के हवाले से मूल सामाजिक मुद्दों को उठाया है। इसीलिए वे कुछ घंटों का जीवन लेकर आए अखबार के अंकों या साइबरी साइटों पर प्रकाशित होने के बावजूद अभी भी प्रासंगिक हैं। यों ऐसे आलेखों के संग्रह की अपनी सीमाएं होती हैं। इस प्रकार के आलेखों का आकार संक्षिप्त और रूप निर्धारित होता है। इस ढांचे में किसी विषय की बहुकोणीय विवेचना के लिए पर्याप्त अवसर नहीं होता फिर संग्रहित होने पर इनके अंदाज और तेवर एकरस लग सकते हैं। यह भी कि बहुत पहले के लिखे गए आलेखों के सन्दर्भ पर समय की धूल चढ़ चुकी होती है और विषय की तीव्रता कम हो गई होती है। लेकिन इन सीमाओं का दूसरा पहलू सकारात्मक है।
संग्रह में प्रकाशन के कालक्रम के अनुसार आलेख क्रमबद्ध न हों तब भी उनके जरिए समकालीन इतिहास की विस्मृत हो रही घटनाओं को फिर से याद करते हुए उनका पुनर्मूल्यांकन के इस क्रम में इस पर भी गौर किया जा सकता है कि भारतीय समाज में समय के साथ परिवेश तो बदलता रहता है पर प्रवृत्तियों में वैसा परिवर्तन नहीं हो पाता। 'सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है' के आलेखों से गुजरते हुए एक एहसास भी होता है कि लेखक ने अपने जीवनानुभवों और जीवनदृष्टि से जो जनपक्ष चुना है उसके समर्थन में वह निरन्तर खड़ा रहता है जबकि प्राय: 'जनपक्ष' और 'जनप्रिय' के मध्य अन्तर्विरोध की स्थिति रही है तथा राजनीतिक बयार भी प्रतिकूल थी।
गत् पचास वर्षों में पत्रकारी आलेखों की सामग्री एवं शैली बहुत बदली है। पहले के आलेख आकार में बड़े होते थे और उनमें ओजपूर्ण शालीनता होती थी। जहां वे सत्ता के सामंती संस्कार और संवेदनहीन प्रणाली पर निर्भीकतापूर्वक उंगली उठाते थे वहीं उनमें आधुनिक लोकतांत्रिक समाज की रचना के लिए जनमानस के निर्माण का तत्व भी रहता था। पत्रकारों के जीवन की सादगी और सत्ता की जगमगाहट से दूर रहने की प्रवृत्ति उनके शब्दों को गहरी अर्थवत्ता देते थे। आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास को देखें तो यह विचित्र लगता है कि विस्तृत हिन्दी पट्टी में कभी कोई समाजसुधारक नहीं हुआ जबकि अन्य भाषाभाषी क्षेत्रों में अनेक समाजसुधारक हुए और अनेक सुधार आंदोलन चले। इसका कारण यह था कि यहां समाज को प्रगतिशील बनाने का दायित्व अप्रत्यक्ष रूप से लेखकों और साहित्यकारों पर था। पत्र-पत्रिकाएं इस दायित्वपूर्ति के माध्यम थे। इसीलिए वे समाचार प्रधान न होकर विचारप्रधान होते थे।
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में समाचारपत्रों के सम्पादकीय पृष्ठों पर ही हिन्दी निबन्ध पला बढ़ा। हिन्दी का निबन्ध अंग्रेजी के ऐसे से रूप और अन्तर्वस्तु दोनों में बहुत अलग है। ऐसे रात्रिभोजन के साथ चलनेवाली पश्चिमी शैली की फुरसतिया बतकही है तो निबन्ध किसी विषय का सामाजिक दृष्टि से किया गया ऐसा विश्लेषण-विवेचन है जो पाठक को ज्यादा दृष्टि सम्पन्न और सम्वेदनशील बनाता है। हिन्दी निबन्ध को पत्रकारी आलेखों से तथ्यात्मक विश्लेषण एवं सृजनात्मक विवेचन का सहवर्ती गुण विरासत में मिला है।
अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है। जनसंचार माध्यमों को एक वृहदाकार तंत्र पाठकों-श्रोताओं-दर्शकों पर लगातार शब्द बरसा रहा है। इससे शब्द अपना प्रभाव खोते जा रहे हैं। सीधे-सादे ढंग से कोई ढंग की बात कहना कल की बात हो गई है। लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बिल्कुल साफ बात को भी तीखे तेवर के साथ कहना आवश्यक माना जा रहा है। मीडिया मालिकों की मंशा माहौल में किसी न किसी प्रकार की सनसनी बनाए रखने की होती है। उनका सूत्र है: अधिक सनसनी, अधिक सर्कुलेशन, अधिक दर पर अधिक विज्ञापन।
आज उन पत्रकारों के समक्ष संकट है जो सामाजिक सरोकारों से जुड़े मूल्यपरक लेखन में लगे हैं। कपटपूर्ण, सनसनीखेज और सत्ता उन्मुख होती जा रही पत्रकारिता में अब जनउन्मुख लेखन के लिए बहुत कम जगह बची है। अनिल यादव की विशेषता यह है कि वे इस बची जगह को खोज पाते हैं और यथार्थ पर ऐसे कोण से रोशनी डालते हैं कि उनका अनदेखी सी अनेक आड़ी तिरछी रेखाएं उजागर होने लगती हैं।
'डिजिटल इंडिया में टाइपराइटर' इस संकलन का पहला आलेख है। अनन्त विविधताओं और ज्वलंत विषमताओं वाले इस विशाल देश की पुरानी पेचीदा समस्याओं को डिजिटलाइजेशन की जादुई तकनीकी ताकत से छू मंतर करने का समा बांधा जा रहा है। यह आलेख उसकी ही कहानी है। पटकथा शैली में लिखे इस आलेख में राजभवन को जाती सदर सड़क के फुटपाथ पर जमाने से टाइपिंग का धंधा करने वाला बूढ़ा कृष्ण कुमार तमाशबीन भीड़ के सामने विलाप कर रहा है क्योंकि हफ्ता न मिलने से सांड़ सा बौराया पुलिसवाला बूट की ठोकरों से उसका टाइपराइटर तोड़ रहा है। फेसबुक तक पहुंची इस घटना की फोटो वायरल हो जाती है। राज्य के युवा मुख्यमंत्री को शर्म आती है। वे बूढ़े टाइपिस्ट को नया टाइपराइटर, कुछ मुआवजा और सुरक्षा का हुक्म देते हैं। फेसबुक की ताकत का डंका बज जाता है लेकिन इस डिजिटल युग में बूढ़े टाइपिस्ट की रोजी ऐसे लोगों के कारण चल रही है जो खुद अर्जियां लिख कर कंप्यूटर टाइपिंग करनेवाले छोकरों के पास नहीं जा सकते। बूढ़ा अपने अनपढ़ आरै कुपढ़ ग्राहकों की समस्या धीरज से सुनता है। उन्हें टाइप करता हैं और फिर उन ग्राहकों को उस दफ्तर का नाम और रास्ता भी समझाता है जहां के कूड़ेदानों में उन्हें जाना है।
देश को डिजिटल इंडिया में बदलकर देशवासियों के दु:खों का अंत करने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी के बारे में लेखक का सवाल है कि 'खुद मोदी की मां क्या डिजिटल इंडिया में दाखिल हो पाएंगी? ऐसी करोड़ों मांएं उनके गैर प्रधानमंत्री बेटे और उनकी संतानें?7 यह सवाल इसलिए है कि जब फेसबुक पर बूढ़े टाइपिस्ट की फोटो वायरल हो रही थी तब 'अमेरिका में $फेसबुक के मुख्यालय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी घरों में बरतन मांज कर बच्चे पालनेवाली अपनी मां की स्मृति में संताप को आंसुओं से प्रवाहित कर निर्मल होने के बाद युग की करवट से धरती पर बनी कई सलवटों का भाष्य करते सुनाई देते हैं - भविष्य के शहर नदियों के किनारे नहीं आप्टिकल फाइवर नेटवर्क के इर्दगिर्द बसेंगे और अब सोशल मीडिया के कारण सरकारों को पहले की तरह पांच साल में नहीं सिर्फ पांच मिनट में सुधरना पड़ता है।'8
गुरु गोरखनाथ ने 'स्व' को प्राप्त करने के बाह्य उपायों को व्यर्थ बताते हुए अन्तर्साधना का मार्ग प्रशस्त किया था। इस मार्ग पर चलने वाले शिष्य-साधक 'स्व' की हल्की सी सुवास पाते ही इठलाने-इतराने लगे थे। गुरु ने उन्हें हिदायत दी :
हबक न बोलिबा, ठबक न चालिबा; धीरे धरिबा पाँव।
हबक कर न बोलो यानी बेसमझे झट से यों ही मत बोल पड़ो। ठबक कर न चलो यानी अदा दिखाते न चलो। धीरे धरिबा पांव यानी धरती पर विनम्रतापूर्वक पैर रखे। गुरु गोरखनाथ के साधकों ने उनकी बात नहीं मानी। उनकी हबक-ठबक शैली आज धर्म, राजनीति, शिक्षा, पत्रकारिता सर्वत्र छा गई है। दिखावट और बनावट में मूल बातें दबती जा रही हैं। इन्हें दबाए रखना जरूरी मान लिया गया है क्योंकि जब तक ये दबी रहेंगी असल आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दे नुमाइशी विकास और धार्मिक ध्रुवीकरण की परिधि पर घूमते रहेंगे। अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग और सोच-समझ रखने वाले पत्रकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यथार्थ को केन्द्र में लाकर अनावृत करने की है।
एक रूढिग़्रस्त किन्तु आधुनिकता के अनियंत्रित उपभोग के आकांक्षी समाज में लोकतंत्र और प्रौद्योगिकी दोनों ही जड़ता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के साधन हो जाते हैं। वहां विचार और संवाद के लिए दरवाजे बंद होने लगते हैं और नफरत की दीवार ऊंची उठती जाती है। विवेकशीलता क्रूरता का शिकार होती रहती है। ऐसे में लेखन से क्या किसी सामाजिक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। 'विचार के जवाब में गोली का जमाना' में लेखक कहता है, 'अक्सर निराश लेखक बड़बड़ाते पाए जाते हैं कि हमें कौन पढ़ता है, लिखे का क्या असर होता है, समाज पर जिनका अवैध वर्चस्व है उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती! उन्हें जरा आंखें खोलकर देखना चाहिए कि दो साल के भीतर भारत और पड़ौसी देशों में कम से कम दस लेखक, ब्लॉगर, एक्टिविस्ट बंद दिमाग के लोगों के हाथों मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। बहुतों का हमलों और धमकियों के कारण जीना मुहाल हो गया है, कइयों को देश छोडऩा पड़ा है।'9
दुनिया भर में हजारों लेखक अपनी जान को जोखिम में डालकर प्रतिरोध की संस्कृति विकसित कर रहे हैं। यदि अनेक ताकतें सारे मूल्यों और मानवीय मृदुलता को मिटाने में लगी हैं तो कुछ लोग इसकी रक्षा के लिए मर मिटने पर भी आमादा हैं। यदि बहुत लोग 'खावै अरु सोवै' में लिप्त हैं तो कुछ लोगों में 'जागै अरु रोवै' का जीन भी सक्रिय है। मनुष्य के विकास का इतिहास विरोध और बदलाव का इतिहास है। लेकिन पत्रकारी लेखन प्रत्यक्ष विरोध से पृथक जनमानस में बदलाव लाने की विधा है। यह विधा लेखक से निरन्तरता, संयम आरै प्रयोजन से प्रतिबद्धता की मांग करती है। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान और आजादी मिलने के बाद छुआछूत, मजहबी जुनून, स्त्री शिक्षा जैसे विषयों पर पत्रकारों ने अनवरत लिखा और अन्तत: एक सामाजिक जागरूकता आई। लेखकों ने पाठकों से संवाद की पगडंडी खोजी और फिर इसके सहारे मार्ग बढ़ते हुए उनका विश्वास जीता।
पत्रकारी लेखक किसी जनसंचार माध्यम द्वारा एक विशाल जनसमुदाय में अपना कथन संचारित करता है। यह कथन संचरित होने के बाद पाठक तक वांछित रूप से सम्प्रेषित हो जाए, इसके लिए आवश्यक है कि पाठक को यह विश्वास हो कि लेखक का उद्देश्य उसका अहित करना नहीं है और वह अपना पक्ष रखता हुआ भी किसी अन्य पक्ष की पैरवी नहीं कर रहा है। लेखक में रचनात्मकता के साथ वह कुशलता भी होनी चाहिए जो पाठक के साथ भरोसे का रिश्ता बना लेती है। जैसे यह सच है कि इस सृष्टि का कोई सिरननहार नहीं है वैसे ही यह भी सच है कि अधिसंख्य लोगों की आस्था है कि ईश्वर ने संसार रचा है। इसीलिए सीधे किसी के विश्वास को ठेस पहुंचाते हुए उसे वास्तविकता से अवगत नहीं कराया जा सकता। सम्प्रेषण का सिद्धान्त है कि हम किसी को नासमझ बताकर या उसे चिन्हित कर उस तक अपनी बात नहीं पहुंचा सकते। इसीलिए पत्रकारी लेखन धीरज और दक्षता की मांग करता है। अनिल यादव पाठक के दिल तक पहुंचने का रास्ता किसी साझे अनुभव का विचार के सहारे ढूंढते हैं।
सोनम गुप्ता का बेवफ़ा होना पाठक की दिलचस्पी और बाज़ार की मांग दोनों दृष्टियों से उपयोगी है लेकिन लेखक तर्क के सहारे 'सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है' का भरोसा दिलाने में कामयाब रहता है और प्रपंचपूर्ण पत्रकारिता का प्रतिपक्ष सृजित करता है।

संदर्भ सूची
1. गांधीगिरी, पृष्ठ - 179
2. आधुनिकता की बलि, पृष्ठ- 53
3. विचार के जवाब में गोली का जमाना, पृष्ठ- 265
4. लोकतंत्र के सबक, पृष्ठ - 74
5. लेखकनामा, पृष्ठ -111
6. सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है, पृष्ठ-22
7. डिजिटल इंडिया में टाइपराइटर, पृष्ठ - 18
8. वही, पृष्ठ-17
9. विचार के जवाब में गोली का जमाना, पृष्ठ- 264




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