और जंगल शांत हो गया

  • 160x120
    अप्रैल 2017
श्रेणी और जंगल शांत हो गया
संस्करण अप्रैल 2017
लेखक का नाम दीनानाथ मनोहर / अनुवाद - गोपाल नायडू





कहानी/मराठी





गा रही औरतों और गाय-बैलों के गले की घंटियों की आवाज साफ सुनाई देने लगी। वैसे ही वंकाबाबा उठा। दीवार के सहारे खड़ा हुआ और कमर पर हाथ रखकर आहिस्ता-आहिस्ता झोपड़ी के बाहर आया। दरवाजे के सामने से बैलगाड़ी गुजर रही थी। आँखें मींचकर उसने आदमियों को पहचानने की कोशिश की, लेकिन हिल-डुल रहे रंग-बिरंगे पत्तों के अलावा कुछ नजर नहीं आया। फिर भी वह माथे पर हथेली रख आँखें फाड़कर देखता रहा। पड़ोसी गजन की औरत कमर पर बच्चे को लिए खड़ी थी। वंकाबाबा को बेचैन देखकर बोली, ''लगता है अक्खा गाँव आया है। वो... वो गाड़ी, देखो रे बाबा, वो रहा दूल्हा....। बाबा चलो, मैं तुम्हें लेकर चलती हूँ। तेरे नातिन की शादी है।
''नहीं...नहीं, तू जा। इस बुडुअ... का क्या काम...'' बुदबुदाते हुए वंकाबाबा झोपड़ी के भीतर चला गया। दीवार के साहरे वह एक कोने में गया। हाथ के सहारे तलाशते हुए आगे बढ़ा। और ढोल का स्पर्श होते ही रुक गया। वह दो-चार कदम और आगे बढ़ा, ढोल पर उसकी उंँगलियाँ थिरकने लगी। ढोल के इंच-इंच से उसका गहरा रिश्ता था। इसके लिए आँखों की गरज नहीं थी। उसका हाथ लकड़ी पर उकेरी नक्काशी, डोर, ढोल को सहलाते हुए फिर ढोल के बीचों-बीच आ पहुंची। लकड़ी पर ठोकी हुई धातु की चौकन पन्नी पर उसके हाथ घूमने लगे। कभी वंकाबाबा ने पढ़ाई-लिखाई नहीं की थी। लेकिन उसने राणू से कई दफा पन्नी के टुकड़े पर अंकित मजमून को पढ़वा लिया था, 'श्री वंका सजन नाईक को सेंधवा में आयोजित ढोल वादन स्पर्धा में सर्वोत्कृष्ट ढोल बजाने के लिए', यही शब्द उसके कानों में गूंजने लगे। वंकाबाबा का हाथ ढोल पर आगे की ओर सरका, लेकिन सिलाई के लिए हुए चमड़े के बीच का छेद फिलहाल ही सीया गया था। चमार ने सफाई से नहीं सीया था। लेकिन वंका बाबा के हाथों ने इसे पकड़ लिया था। दोनों छोर को ठीक से मिलालकर नहीं सीया गया था। वैसे ही चर्बी को ऊपर से उमट लिया था। वंकाबाबा ने लंबी सांस छोड़ी। वह कमजोर हो गया था। इसीलिए तो उसने ढोल की सिलाई के लिए चाबू मास्टर के हष्ट-पुष्ट लड़के को भेजा था? वरना वह खुद ही चला जाता। पूरी बॉटल दी तभी वह पठ्ठा तैयार हुआ। लेकिन वह भी क्या करेगा! जमाना बदल गया है। अब नातिन की शादी है दादा को... न्यौता नहीं...
वह घर के पिछवाड़े गया और जल्दी-जल्दी बाहर आया। गाँव के दूसरी छोर पर भिमु का घर है। वहाँ से ज़ोर-ज़ोर से लोगों की आवाजें आ रही थीं। मोटर-साइकल की फर-फर की आवाज गूंज रही थी। मंडप में मेहमान पहुँच गए थे। लेकिन ढोल की आवाज नहीं आ रही थी। वंकाबाबा को नहीं बुलाया है। लेकिन क्या गाँव में कोई और ढोल वाला नहीं है। वंकाबाबा की नातिन की शादी और ढोल न हो। भील की शादी में ढोल न हो। उसने सिर पर से हाथ घुमाया। इसका हल तो निकालना होगा। उसी समय उसने दोनों हाथों को झटका और भिमु के घर की विपरीत दिशा में रह रहे संभू के घर चला गया।
वंकाबाबा की कमर अभी भी मजबूत थी। लेकिन पैर के घुटने का निचला हिस्सा कुछ टेड़ा था। पैर और जांघ के बीच पैरों की एक कमान तैयार हो गई थी। इस लुकड़ी कमान की हड्डियों की लुत-लुत झुर्रियों की त्वचा लोम रही थी। वंकाबाबा के चेहरे पर अनगिनत झुर्रियों का जाल बन गया था। ठुड्डी पर दो-चार सफेद बाल, अर्ध-खुला मुंह, असहाय सा निचला होंठ लटक गया था। गहरे खोल में आँखें धंस गई थी। फिर भी इस खोल की आँखों का पानी चमक रहा था। वंकाबाबा की नजर कुछ सालों से कमजोर हो गई लेकिन उसके कान तेज थे।
भिमु के घर पर हो रहे शोर में एक और आवाज जुड़ गई थी। भोंगे की। गूंईई...ई की आवाज गाँव भर में फैल रही थी।
''अरे बाबा, भिक्या काका ने सूरत से नया रेडियो लाया है। हम जैसा बोलते हैं वैसा ही बोलता है। आशा बाई हंसी और इसे भी लिख लिया।'' गजन की लड़की ने वंकाबाबा को बताया।
लाउड स्पीकर की धुन पर गुजराती गरबा चालू था। ढफली की आवाज आ रही थी। कुछ क्षण के लिए वंकाबाबा उस आवाज में खो गया और रास्ते पर ही खड़ा हो गया।  संभा ने उसे आवाज दी। तभी वह होश में आया और सिर हिलाते हुए भीतर चला गया। दरवाजे पर रखी हुई खटिया में नहीं बैठा। पायरी चढ़ते हुए छपरी में आ गया। वह दीवार को पीठ टिकाते हुए धीरे-धीरे जमीन पर बैठ गया।
''क्या रे वंकाबाबा, नातिन की शादी और तू यहाँ! यह जानते हुए भी संभू ने पूछा।
वंकाबाबा ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। कमर की अंटी से लिपटे हुए नोट निकाला और संभू को थमाते हुए कहा, ''आधा बॉटल ला। एकदम पहली धार का माल चाहिए। नहीं तो...'' बात को बीच में काटते हुए संभा ने कहा, ''अरे वंका, तेरी पूरी उम्र चली गई मेरे हाथ का पीते हुए। संभू ने कभी खराब माल दिया है क्या? और आज तो स्पेशल माल निकाला हूँ, भिकु दादा के मेहमानों के लिए। तुझे आज जितना पीना है, पी उतना। ले, पूरी डबकी ले।''
वंकाबाबा ने कांपते हाथ से एल्युमिनियम का ग्लास उठाया। ग्लास मुंह के पास ले गया। क्षण भर के लिए रुका, आँखें मींचकर मुंह ऊपर किया और एक ही झटके में गिटक गया। जलनशील द्रव गले को जलाते हुए अंदर चला गया। ग्लास जमीन पर रख दिया। आँखें मींचकर बैठा रहा। गले की आग धीरे-धीरे कम होने लगी। और पेट में तरंगें उठने लगी। धीरे-धीरे तरंग पूरे शरीर में फैलने लगी। शरीर गरम हो गया। हाथों की कंपकंपी बंद हो गई। तनाव दूर हो गया। वंकाबाबा ने आँखें खोलकर संभू की ओर देखा। उसके चेहरे पर हंसी थी। होठों के करीब की झुर्रियां और गहरी हो गयी थी। वंका ने गिलास आगे किया और संभू ने डबकी से दारू गिलास में डाल दी। खाली डबकी को ठीक से जमीन पर रखते हुए पूछा, ''वंकाबाबा, क्या ढोल का चमड़ा सिलाकर लाया...?''
वंकाबाबा कुछ नहीं बोला। केवल जबड़ा खोलकर हंस दिया। उसे मालूम था कि संभु क्यों पूछ रहा है। संभू के मन में जो चल रहा था वही वंकाबाबा के मन में भी उमड़ रहा था। वह भी आठ-दस दिनों से। शादी तय हो जाने के दिन से वंकाबाबा भिमु की राह देख रहा था। भिमु झोपड़ी में आयेगा। दो-तीन नोट मेरे हाथ में रखते हुए कहेगा, ''काका, लख्या को बताकर रखा हूँ बैलगाड़ी में ढोल लेकर आने को। नया चमड़ा लगा लो। मेरी लड़की की शादी में वंका काका का ढोल बजना ही चाहिए। मना नहीं कहना, नातिन है तेरी काका।''
वंकाबाबा ने तय किया था भिमु को बताने का, अरे ऐसा कैसा होगा रे बाबा! अब इस बुढऊ में ताकत नहीं है। उस रंगय्या के लड़के को बुला ढोल के लिए।'
तो फिर भिमु मेरा हाथ पकड़कर कहेगा, 'काका, वंकाबाबा का ढोल न हो और शादी हो जाय? क्या हो गया तुझे। तेरे ढोल की आवाज गूंजी नहीं की अकारणी का जंगल डोलने लगता है। ये सब मत बता। महुए की आधी बॉटल पेट में गई कि ढोल उठाकर तेरे गले में डाला। अपने-आप तेरे हाथ थिरकने लगेंगे। देखना।''
गिलास होठों में लगा वंकाबाबा ने एक झटके में गले के नीचे उतार दिया। एक एक कर दिन बीतने लगे और वंकाबाबा भिमु के आने का इंतजार करता रहा। गजन की लड़की ने उसे समझाया, 'बाबा, भिमु सूरत गया है शादी ब्याह के कपड़े-लत्ते, घड़ी, रेडियो खरीदने के लिए। तेरे पास आने के लिए टाईम नहीं मिला होगा। लेकिन बाबा, बगैर तेरे अपने लोगों की शादी कैसे होगी?'
वंकाबाबा की इस पर सहमति और असहमति भी थी। लेकिन उन्होंने सिर हिलाया था। और संभू ने जब कहा, ''अरे वंका, तेरा भिमु शहर में रहकर पढ़ा है। क्यों पसंद करेगा वह इन पुराने रीति-रिवाज को? लद गए हैं पुराने दिन। देख रे बाबा, आजकल लड़के पैंटी पहनते हैं। लंबे बाल रखते हैं। कंधे पर कुल्हाड़ी नहीं रेडियो लटकाते हैं। इस पर भी वंकाबाबा ने गर्दन हिलाया और लंबी सांस छोड़ी थी। न जाने क्यों वह भिमु के आने का इंतजार कर रहा था।
शादी के लिए चार दिन शेष थे। उसी दौरान वंकाबाबा छपरी के एक कोने से उठा। भीतर जाकर उसने अंदाज से दादर की पुरानी टीन की कोठी खोली थी। कांपते हुए हाथों से उसने पेटी के निचले हिस्से में रखी हुई कपड़े की पोटली खोली और रानी का रुपये वाला हार निकाला था। रामदास महाराज के पास कांग्रेस का नेता आया था। उस समय वंकाबाबा ने ढोल बजाया था। प्रसन्न होकर नेता ने वंकाबाबा को बड़ा तोहफा दिया। वंकाबाबा ने उन रुपये से सेना बाई के लिए ब्रितानी रानी के सिक्कों का हार बनाया था। हार बनाकर एक लंबा अरसा हो गया। वंका को कुछ भी याद नहीं है। राणू की मौत सूरत के टी.बी. दवाखाने में हो गई और साल भर बाद सेनाबाई भी चल बसी। कई सालों से वंका उस झोपड़ी में अकेले ही गुजर-बसर कर रहा था। छोटा सा खेत था। उस खेत को गाँव के कोलम को बटाई पर दे दिया था। रुपये की माला को अंटी में लपेटकर पुखराज मारवाडी के पास गया। चाँदी की माला देकर कागज के नोट लेकर लौटा था। पहुँचते ही गाँव उसने छबू मास्टर के लड़के को ढोल के चमड़े की सिलाई के लिए तहसील भेजा था।
वंकाबाबा इंतजार करता रहा, लेकिन भिमु नहीं आया। लोगों का आना-जाना चालू था। गाडिय़ाँ आ रही थी। भिमु कभी सूरत तो कभी नंदुरबार आ जा रहा था। विशेष बात यह थी कि वह धुले जाकर मंत्री को निमंत्रण दे आया था। गाँव का कोतवाल दरवाजे पर हल्दी-चाँवल रखकर आमंत्रण देकर चला गया... लेकिन भिमु नहीं आया। वंकाबाबा ने मन में गांठ बांध ली कि मंडप के पास नहीं जाने का।
संभू ने सिर झुकाये बैठे वंका के सामने रखे गिलास को फिर से भरकर उसके हाथ में देते हुए कहा, ''अरे, वंकादादा, अपन साहब है क्या? अरे अपन आदिवासी है। क्या अपुन को आमंत्रण की गरज है? तू बता... और तू तो ढोलवाला है। तेरे को क्यों न्यौता चाहिए। जहाँ शादी है वहाँ ढोल बजाने जाना ही है। लेकिन भिमु का यह तौर-तरीका ठीक नहीं है। इतना पैसा खर्च कर रहा है लड़की की शादी में। तो फिर रीत-गित क्यों छोडऩा चाहिए! आदिवासी की शादी है। और शरीर पर हल्दी लगी नहीं कि आँगन में ढोल बजना ही चाहिए। आदिवासी की शादी में ढोल नहीं... यह ठीक नहीं... यह कोई बात हुई क्या...''
वंकाबाबा ने कुछ नहीं बोला। लेकिन अब वह खुश दिख रहा था। उसके होंठो पर ही नहीं पूरे चेहरे पर हंसी पसरी हुई थी। उसकी आंखों में चमक आ गई थी। झोपड़ी के दरवाजे के बाहर उसकी आंखें दूर कहीं खो...
....दूर दराज से ढोल वाले आए हुए थे। प्रत्येक ढोल के साथ गाँव के जवान लड़के और लड़की थे। गाँव गाँव के ढोल से पूरा मैदान भर गया था। पूरे मैदान पर बैंड वालों का कब्जा हो गया था। यह एक बड़ा मैदान है। थोड़े-थोड़े अंतर पर ढोल बज रहे थे। प्रत्येक ढोल के साथ झांझ की झनक-झनक और बांसुरी की आवाज गूंज रही थी। उसके इर्द-गिर्द लड़के-लड़कियाँ नाच रहे थे... डिडिंग, डिडिंग... डिडिंग... डिशुम... डिश... ढोल की आवाज और तेज हो रही थी। रात भी बढ़ रही थी। आधी रात के बाद लोग-बाग उसके घरों की ओर जाने लगे। और एक-एक कर ढोल की आवाज़ भी कम होने लगी। मैदान में ढोल वालों की संख्या कम होने लगी। वहीं वंकाबाबा का ढोल बज रहा था। वंकाबाबा की नजर आकाश के तारों पर टिक गई थी। हाथ ढोल पर नाच रहे थे। पैर आगे-आगे बढ़ रहे थे। सुबह हो गई थी। पूर्व की ओर आसमान पर किरणों की हंसी खिलने लगी। फिर भी वंकाबाबा का ढोल बज ही रहा था। डिडिंग...डिडिंग... डिशुम... डिश... की आवाज सतपुड़ा की पहाडिय़ों से टकरा रही थी। वंकाबाबा के कपड़े गुलाल से भर गए और झांझ बजा रहे गजन के जेब नोटों और चिल्लर पैसों से भारी हो गए थे। सूरज ऊपर आ गया था। तभी वंकाबाबा के गले से ढोल उतारकर एक जवान लड़के के सिर पर रख दिया गया था। गाँव वालों ने वंकाबाबा को कंधे पर उठाया और नाचते हुए उसे मंत्री के पास ले गए थे। मंत्री खुद आगे बढ़कर वंकाबाबा के गले में फूल का हाथ पहनाया था।

झटके से वंकाबाबा उठ गया। बिना किसी सहारे के वह सीधा खड़ा हो गया। उस वक्त उसके हाथ कांप नहीं रहे थे। गर्दन हिल नहीं रही थी। पैरों की कमान कम हो गई थी। पैर भी सीधे हो गए थे। संभू की छपरी से रास्ते पर आते हुए वंकाबाबा ने कहा, ''संभू तेरा कहना सच है। अरे वंकाबाबा को कौन नहीं जानता है? उसका ढोल बजने लगा कि अक्खा गाँव जमा हो जाता है। वंका ढोल बजाने वाला है...।
तेज गति से वह झोपड़ी में गया। उसने लोहे की पेटी निकाली, भीतर हाथ डालकर पुराना रंगीन शर्ट और रेशम का साफा निकाला। हमेशा की तरह बड़ी कुशलता से उसने सिर पर साफा बाँधा। झोपड़ी के बाहर आकर उसने गजन के आँगन में बैठे लड़कों को बुलाया। झोपड़ी से ढोल निकालने को कहा। ढोल को हाथ से छूकर नमस्कार किया और कंधे पर डोरी डालकर वह सीधे खड़ा हो गया। हाथ उठाकर उसने थाप मारी। ढोल के दूसरे बाजू का चमड़ा सिला हुआ था। आवाज कुछ भारी-भारी निकल रही थी। ऊपर-नीचे हाथ सरकाकर थाप देने लगा। ढोल की आवाज सुनकर संभू बाहर आया। घुटने पर बैठकर वह ढोल की डोरी तानने लगा। वंकाबाबा थेट सीधे खड़ा हो गया। उसने पेट का हिस्सा कुछ आगे किया। कमर का ऊपरी हिस्सा पीछे की ओर झुक गया। आसमान की ओर चेहरा और आंखे मिचकर वंका ढोल पर हाथ चलाने लगा था। बहुत देर बाद वंकाबाबा संतुष्ट हुआ। उसके इर्द-गिर्द, आस-पड़ोस के दो-चार लड़के इक्कठा हो गए थे। गजन की लड़की ने झोपड़ी में रखी हुई गुलाल लाकर संभू के हाथ में दिया। संभू ने थोड़ा सा गुलाल ढोल को लगाया और बाकी वंकाबाबा के माथे पर मल दिया। फटा-पुराना लेकिन चमकदार गुलाबी शर्ट और लाल साफे में वंकाबाबा को चेहरा चमकने लगा। वहीं वह जवान भी दिखने लगा। वंकाबाबा धीरे-धीरे पैर आगे बढ़ाते हुए, ढोल को घुमाते हुए मंडप की ओर जाने लगा। इस वक्त उसके घुटने की अकडऩ भी कम हो गई थी। ऊँगलियां, कंधे, कमर, पैर और सम्पूर्ण शरीर लयबद्ध था।
वंकाबाबा सड़क पर निकल पड़ा। वंकाबाबा ढोल के लय में तल्लीन हो गया। जैसे-जैसे वह मंडप के करीब पहुँचने लगा स्पीकर की आवाज ज़ोरों से आने लगी। मंडप में हर तरफ गद्दियाँ बिछी हुई थी। बाहर गाँव से जीप, बस और मोटर-साईकल से लाए हुए लोग गद्दी पर बैठे हुए थे। घर के दरवाजे पर औरतों का जमघट था। धुले से लाया गया बैंड बज रहा था। लड़कों का चिल्लाना-विल्लाना चालू थीं। फोटोग्राफर की भगदड़ चालू थी। इस हो-हल्ले के बीच डिस्को संगीत का शोर जारी था। मंडप से थोड़ी दूर खाली जगह पर वंकाबाबा रुक गया। शादी के मंडप में एकत्रित छोटे लड़के-लड़कियाँ उसके इर्द-गिर्द जमा हो गए थे। पास ही वे खड़े जवान लड़के भी उसके करीब आ गए। बैंड बाजे के करीब खड़े बच्चे वहीं जमे रहे। वंकाबाबा ने आंखें मिंजी और पूरी एकाग्रता से हाथ की हलचल पर केन्द्रित किया। उस बैंड की आवाज, डिस्को संगीत, लोगों का शोरगुल कम होने लगा। एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए वंकाबाबा ढोल पर हाथों को नचा रहा था। उसके मस्तिष्क में सुर-ताल ने घर बना लिया था... डिडिंग... डिडिंग... डिशुम...डिशुम...
इसी बीच उसे अहसास हुआ कि कोई ताल पकड़कर झांझ बजा रहा है। कुछ समय के बाद बांसुरी का सुर भी जुड़ गया। इर्द-गिर्द नाच रहे लोगों के पैरों की आवाज सुनाई देने लगी। वंकाबाबा के कानों में नृत्य करने वाले लोगों के कपड़ों की फड़...फड़... करती आवाजें गूंजने लगी। ढोल की दमदार आवाज गूंजने लगी थी। अब आवाज चरम पर थी। आसमान थरथर कांप रहा था। वंकाबाबा के कंधे, गर्दन, हाथ, पैर, एक लय में नजर आ रहे थे। क्या कहने हाथ के, अपने-आप ढोल पर नाच रहे थे। प्रत्येक थाप पर वंकाबाबा की कमर में एक लहर कुलांचे भर रही थी। लहर पूरे शरीर में पसर रही थी। इस लहर में वेदना और आत्मीय सुख भी था। नृत्य करने वालों की संख्या में इजाफा होने लगा। फुर्र...., किसी ने ऐसी आवाज निकाली। पैरों की आवाज़ व गति और तेज हो गई थी। अब नाचने वालों के पास देखने वालों की भीड़ एकत्रित हो गई थी। उनके बोलने की आवाज को, उनके आश्चर्य से भरी नजरों को, वंकाबाबा समझ रहा था। इसी बीच भिमु की आवाज सुनाई दी... 'अरे वंकाबाबा आ गया क्या। अच्छा हुआ, नाचों रे लड़कों.... नाचों रे'
वंकाबाबा आगे की ओर जाने लगा। वह भिमु की आवाज की दिशा की ओर बढऩे लगा। आकाश की ओर देख रहे चेहरे को उसने नीचे किया। उसके चेहरे पर संतुष्टि थी। होठों पर हंसी थी। उसने आंखें खोली और भिमु की ओर देखा...
उसके हाथ निढाल होकर नीचे आ गए थे। हाथ कंधे पर लटक रहे थे। वंकाबाबा आंखे फाड़कर अवाक सा देखता रहा... सामने भिमु नहीं था। झांझ वाला और बांसुरी वाला भी नहीं था। नाचने वाले लड़के-लड़की नहीं थे। इर्द-गिर्द भीड़ नहीं थी। दो-चार बच्चे उत्सुकता से उसकी ओर देख रहे थे... और अक्खा गाँव लाउडस्पीकर और बैंड की आवाज में डूबा हुआ था। एक पल के लिए वंकाबाबा ने महसूस किया कि उसके पैरों में ताकत नहीं है। अब वह गिर पड़ेगा...
'मेरे हाथों का वह जादू कहाँ है? इस ढोल के आवाज की वह शक्ति कहाँ है? अरे, ये भील के बच्चे हैं। क्या उनके पैर पत्थर के हो गए हैं। कहां है भिमु... कहाँ है भिमु?
वंकाबाबा ने झट से आंखे मींच ली। और ज़ोर से मींच ली। उसे महसूस होने लगा कि हार बेचकर इस फटे ढोल को सिलवाकर लाया। लेकिन अब इसका कोई उपयोग नहीं... उसका चेहरा आकाश की ओर उठ गया, आंसुओं से तरबतर चेहरा गर्मी में चमकने लगा। बहुत देर... वह वैसे ही खड़ा रहा....
आहिस्ता-आहिस्ता उसकी उँगलियाँ हिलने लगी। ढोल की आवाज उसके कानों में गूंजने लगी। वंकाबाबा धीरे-धीरे रास्ते पर आया। जिस रास्ते से आया था उसी से वापस लौटने लगा। वह झोपड़ी के पास आया। लेकिन उसने आँखें खोलकर झोपड़ी की ओर नहीं देखा। वह उसी तरह आगे बढ़ता चला गया। गाँव के झोपडिय़ों के पीछे गिर पड़ा। ढोल की आवाज सुनकर संभू झोपड़ी के बाहर निकला। वंकाबाबा के चेहरे को देख एक लंबी सांस छोड़ते हुए चुपचाप भीतर चला गया।
रात अंधेरी होने लगी। तभी आहिस्ते-आहिस्ते लाउडस्पीकर की आवाज भी शांत हो गई थी। गाँव भी शांत हो गया। सिर्फ और सिर्फ गाँव के बाहर, टेकड़ी के किनारे, जंगल घूम रहा था... डिडिंग...डिडिंग... डिशुम...डिशुम.... की आवाज सतपुड़ा पर गूंज रही थी। उस ताल पर आकाश के तारें टिम-टिमा रहे थे।
अगले दिन फिर सूर्य पूर्व से आया। झाड़ों की पत्तियों को चीरते हुए सूरज की किरण जमीन को चूमने लगी। पूरा जंगल शांत था। रात के अंधेरे के साथ ढोल की धड़कन खामोश हो गई थी...


दीनानाथ मनोहर आज़ादी के पहली पीढ़ी के कार्यकर्ता और लेखक हैं। जन्म नाशिक में हुआ और स्कूली शिक्षा के बाद सोमेश्वर बांध में नौकरी करने लगे और पगार कम देने के खिलाफ उम्र के 17 वें साल में यूनियन का गठन किया। नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ समय के लिए सिग्नल कोर में वायर्लेस ऑपरेटर की नौकरी की। वहाँ से इस्तीफा देकर सामाजिक-राजनीतिक यात्रा से सहयात्री बन गए। फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। लगातार आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाई। चाहे फिर भाषा के आधार पर प्रांत की रचना हो, सतपुड़ा पर्वत बचाओ आंदोलन हो, शाहदा परिसर में श्रमिक संगठन में सुधीर बेडेकर, कुमार शिलाळकर के साथ आदिवासियों के जायज हकों के लिए एक अरसे तक सक्रिय भूमिका अदा की। और साथ ही उन्हें एक घुमंतू के रूप में देखा जाता है। मराठी साहित्य में दीनानाथ का स्थान बड़ा है। उन्होंने 'रोबो', 'सीमांत', 'आंदोलन', 'प्रदेश साकल्याचा', कबीरा खड़ा बाज़ार में, आदि चर्चित उपन्यास पाठकों को दिए और इन उपन्यासों को हाथों-हाथों लिया गया। इसी तरह कहानी, विज्ञान कथाएँ, पर्यावरण, किसानों की आत्महत्या, आदि सम सामयिक समलों पर भी पुस्तिका लिखी। उम्र के 75वे पड़ाव में नंदुरबार में बस गए हैं। फिलहाल लिखने-पढऩे में ही बहुत व्यस्त रहते हैं।


संपर्क : गोपाल नायडू  मो. 09422762421

Login