नरेन्द्र जैन के सात कविता संग्रह प्रकाशित हैं। पहल में नरेन्द्र की सर्वोत्तम कविताएं समय समय पर छपीं। अपने बच्चे के लिये शेरनी का गीत को पहल ने प्रकाशित किया था। नरेन्द्र जैन ने गैब्रियेला मिस्त्राल, अर्नेस्तो कार्दिनाल, कार्ल सैंड बर्ग, निकोनार पारा, नाज़िम हिकमत की कविताओं के शानदार अनुवाद किये और काले सफेद रेखांकनों में पर्याप्त काम किया। उनके पिछले कविता संग्रह का नाम 'चौराहे पर लोहार' है जो आधार ने छापा है।
आटा
चक्की से लगातार गिर रहा था आटा गर्म आटा, जिसकी रंगत गेहूं जैसी थी मेरे हाथ पैर वस्त्रों और भौहों पर चढ़ चुकी थी आटे की एक परत कई कई तरह की रोटियाँ टिक्कड़, तंदूरी और रूमाली रोटियाँ सुलगते तंदूर की दीवारों पर चिपकी थीं रोटियाँ
और आटा लगातार कम हो रहा था कनस्तर लगातार खाली हो रहे थे दुनिया की आधी आबादी पीट रही थी खाली कनस्तर
अन्न ही अन्न था चारों तरफ और बावजूद अन्न के भुखमरी थी किसी के पास आटा था एक वक्त का किसी के पास दो वक्त का
चक्की दिन रात चलती ही रहती थी बालियों से निकले दाने लगातार गिरते ही रहते थे आटे की गंध से तेज़ थी भूख की गंध
गेहूं से आटा बनता है और आटे से रोटी ये जानते नहीं थे मासूम बच्चे हर मंगलवार की सुबह कस्बे का नगरसेठ आता था और बांटता था अपने हाथों से भूखों को खिचड़ी * * *
ड्रायवर
गिट्टी पर चलते हुए पहुंचा मैं मालगाड़ी के इंजिन के सामने मालगाड़ी खड़ी थी देर से इंजिन में बैठा था ड्रायवर मैंने कहा उससे ''बचपन से आज तक विस्मय से देखता रहा हूँ इंजिन में बैठे ड्रायवर को कार, बस, ट्रक, आटो और स्कूटर चलाते देखे हैं मैंने लोग और नहीं कर पाये वे प्रभावित और, हमेशा विस्मय का पात्र रहा है रेल के इंजिन में बैठा ड्रायवर मेरे लिये मिलती अगर रेल महकमें में नौकरी मैं होता आख़िरी डिब्बे में बैठा गार्ड या मालगाड़ी चलाता ड्रायवर कितने ही कस्बे और शहर रोज़ सामने से गुज़रते कुछ हादसे भी ज़रूर पेश आते मेरे हिस्से''
सीट पर बैठे ड्रायवर ने कहा मुझसे 'तुममें जुनून है, तुम आओ और बैठो मेरे बगल में और, देखो कैसे चलती है गाड़ी मैं तो कुछ संकेत देता हूँ वह तो अपने आप ही चलती रहती है हाँ अब पुराने दौर के इंजिन नहीं रहे नहीं तो तुम देखते कि भर भर कर अपने बेलचे में कोयला एक शख्स इंजिन में झोंक रहा होता यहाँ * * *
रंगीन शीशा
वहाँ से गुज़रते गुज़रते मैं एक घर के सामने ठिठक गया इस घर में बहुत सी खिड़कियाँ थीं और उन पर जड़े थे शीशे हर शीशा अलग अलग रंग का था शीशों के पार चहलकदमी करता वह शख्स लगातार चीख चिल्ला रहा था
मैंने सड़क पर पड़े एक पत्थर को उठाया पत्थर नुकीला था और उसकी बनावट अच्छी लगी मुझे सहसा उठाल दिया मैंने एक पत्थर बंद खिड़कियों की तरफ शीशों को तोड़ता पत्थर जा गिरा घर के भीतर
उस शख्स ने खोला दरवाज़ा और वह बाहर आया उसने आमंत्रित किया मुझे घर के भीतर मैंने देखा कि मेरे उस घर में प्रवेश होने के दौरान जड़ दिया गया था उस खिड़की पर एक रंगीन शीशा और वह नुकीला पत्थर एक शिल्प की शक्ल में सजा दिया गया था आबनूसी मेज़ पर * * *
लड़का
कमरा बहुत छोटा है जहाँ बैठकर हम दुरुस्त करते हैं कविताओं के प्रूफ कई बरसों से चला आ रहा यह क्रम हमारे दो के अलावा जब तीसरा कोई आता है तब और छोटा हो जाता है यह कमरा
कमरे में बाहर से अंदर आते और कमरे से घर के भीतर जाने का दरवाज़ा भी है घर के अंदर होता ही रहता है बच्चों का शोरगुल हमें आदत ही हो गई है शोरगुल में कविता पढऩे की
कुछ कुछ अंतराल से घर के भीतर से चला आता है मेरे टाईपिस्ट का लड़का वह पिता की गर्दन में बाहें डालकर चिल्लाते हुए कुछ कहता है जैसे 'पापा सायकिल की हवा निकल गई' या गुड्डी रो रही है या आज स्कूल की छुट्टी है'
मैंने एक दिन कह ही दिया कि बेहद शरारती है उसका लड़का टाइपिस्ट ने मुझे देखा और बेहद संकोच से बतलाया कि वह दरअसल लड़का नहीं है, लड़की है और शुरू से ही उसे लड़का मानते आ रहे हैं लड़के की चाहत में एक के बाद एक तीन लड़कियाँ पैदा हो गईं और तीनों लड़कियों पर लगातार हावी रहती है यह चौथी लड़की क्योंकि मिली है उसे छूट लड़का होने की
आज कुछ ऐसा हुआ कि जाँचे नहीं गये मुझसे अपनी कविता के प्रूफ मैंने तमाम अशुद्धियों को वैसे ही रहने दिया। * * *
किराये का घर
जैसे उसने ढूंढ लिया हो किराये का घर और वह घर उसे पसंद आ गया हो इस तरह थकान आती है अपने माल असबाब के संग और जिस्म में घर कर जाती है
हम अंतरंग पड़ोसी की तरह रहने लगते हैं थकान को वहाँ रहते हुए देख मैं कभी कभार पूछता रहता हूं उसकी खैरियत वह मेरा शुक्रिया अदा करती है और पूछती है मुझसे मेरे हालचाल
मेरे स्नायुतंत्र, मांसपेशियों रक्त संचार माथे की दुखती रग निद्रा और मेरे दु:स्वप्नों से गहरा लगाव है उसे
हालत ये है कि जिस्म की आदत में शुमार हो गई है थकान उसका होना यहाँ किसी दोस्त के होने से कम नहीं * * *
घाटी की पुकार
घाटी पुकारती है यह घाटी की पुकार है पारदर्शी और धूप से भरी संतूर गिटार और बांसुरी की जुगलबंदी पर टिका है समूचा अस्तित्व
बहुत पुरानी है यह पुकार लगभग तीस वर्षों से एकाएक कभी सुनायी दे जाती दरअसल यह एक खामोशी है जो पुकारती है
वह घाटी कैसी होगी जहाँ से आ रही यह पुकार
शायद राजकुमार चित्रित कर सकें उसे और वह उनका सबसे बड़ा लैण्डस्कैप हो
शायद यह घाटी हमारे भीतर के भूगोल का हिस्सा हो
शायद बज रहे हों वाद्य स्मृतियों में
शायद हो यह पुकार दु:स्वप्नों की
घाटी पुकार रही है यह घाटी की पुकार है
सबसे तरल और मानवीय
(शिवकुमार शर्मा, हरिप्रसाद चौरसिया एवं ब्रजभूषण काबरा की प्रसिद्ध जुगलबंदी 'कॉल ऑफ द वैली' की स्मृति)
हमारी नाव
ये भाषा की थकान का दौर है विचार और स्वप्न की मृत्यु यहीं से शुरू होती है
कविता जैसी भी है जहाँ भी है जितनी भी है बस डूबी है अंधकार में संवाद आधे अधूरे गिरते लडख़ड़ाते हांफते
बस थोड़ा सा संगीत है कहीं जाने कैसे वो भी बचा हुआ है निर्जन में उसी किनारे बंधी है हमारी जर्जर नाव * * *
लिखावट
जब मैं पच्चीस साल का था तब मेरी हैंडरायटिंग ठीक ठाक थी अक्षर कंपकंपाते नहीं थे हालांकि उस दौर में मंगलेश डबराल की लिखावट देख ईष्र्या हो आती थी मुझे और अजीत चौधरी छोटे छोटे अन्न के दानों जैसे अक्षर लिखा करता था तब एक लय हुआ करती थी नीलाभ की लिखावट में और विष्णु नागर जल्दबाजी में लिखते थे जैसे शब्दों को ठेल रहे हो बेफिक्री से वैसे असद ज़ैदी की हेंडरायटिंग भी उनके लिखे हुए को पढऩे के लिये ललचाती रही है एक तथ्य ये भी है कि औरत की भद्दी लिखावट के कारण दूर होता गया उससे मैं
लिखावट से चेहरे मोहरे या व्यक्तित्व की पड़ताल नहीं होती मुझसे वैसे दिवंगत मित्र वेणुगोपाल की लिखावट बेहद खराब थी लेकिन उनके विचार ज़्यादा मानी रखा करते थे * * * |