हॉऽऽय डूड!

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    अप्रैल 2017
श्रेणी हॉऽऽय डूड!
संस्करण अप्रैल 2017
लेखक का नाम ईशिता आर. गिरीश





लंबी कहानी







शहर का बड़ा स्कूल। खूब बड़ी बिल्डिंग, बड़ा स्टाफ, बहुत अच्छे परिणाम और बच्चों के विकास के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम।
आज स्कूल में इन्वेस्टीचर्ज सेरेमनी है। छात्रों और अध्यापकों को साल भर के लिए जिम्मेवारियां सौंपी जानी हैं। उन्हें तगमों और ओहदों से नवाजा जाना है। वे वर्ष भर वफादारी से अपना काम करते रहने की सौगन्ध खाएंगे। प्रिंसिपल साहेब अपनी जी तोड़ मेहनत के साथ साथ, वर्ष भर इन लोगों की सौगन्ध न टूट पाए, इसका भी ख्याल रखेंगे।
एक एक बच्चा आज भी हर रोज की तरह, उजले कपड़ों में सलीके से तैयार है। सेना की सी नियमबद्धता से सब कुछ हो रहा है। हर कोना हर रोज की तरह चमक रहा है। छात्र, अध्यापक और दूसरे सभी लोग भी पूरी मुस्तैदी के साथ अपना अपना काम कर रहे हैं। किसी को कुछ निर्देश देने की जरुरत नहीं, सब कुछ बहुत अच्छे से निभ रहा है। यहां कोई भी, कोई एक भी, काम से जी नहीं चुराता। है किसी की इतनी हिम्मत? सच बस इतना है कि इस सब के बावजूद, हम सभी लोग इन्सान हैं, निरे इन्सान।
कार्यक्रम बहुत अच्छा चल रहा है। बैंड की राजसी धुनों के साथ दसवीं के छात्र-छात्राएं मंच पर आ रहे हैं, साथ में उनके सलाहकार अध्यापक। यह सभी अलग-अलग दलों का नेतृत्व करेंगे। दिव्या, रोहिणी, प्रतीक, रोहित, राज, देविका, सिमरजीत, विभिन्न विधाओं में स्वयं को साबित करने वाले छात्र, नेता बने हैं। रोहित, सिमरजीत और प्रतीक बहुत खुश हैं... बहुत बहुत खुश।
* * *
''तो फिर? क्या किया आज दिन भर?''
''......''
''कुछ बोलो भी!''
''...........''
''..........''
कुछ चुप्पी के बाद वसुन्धरा ने फिर एक कोशिश की। मन गुस्से से भर आया था। दिन भर दफ्तर में खटो, घर पहुंचो तो सब की जरूरत का टोकरा अपने सिर चढ़ा लो। रोहित घर पर गर्मियों की छुट्टियां काट रहा है। इम्तिहान की चिन्ता तो है नहीं, दिन भर ऊबा उबाया रहता है कि शाम को जब ममा घर पहुंचे तो बोरियत का सारा एहसास उन्हीं पर उतारा जाए। वसुन्धरा का मन करता है कि घर आते ही कुछ देर आराम करे, पर रोहित कुछ कहे बिना भी कुछ ऐसे देखेगा कि आराम करने के ख्याल पर ही शर्म आ जाए। भला वसुन्धरा के घर लौटने का फायदा ही क्या कि वह अपनी सन्तान के दिन भर के अकेलेपन को नजरअन्दाज कर, साहबी अन्दाज से, पलंग पर पसर जाए। और इसकी ऊब की हद  तो देखिए, वसुन्धरा कुछ पूछ रही है और साहेबजादे चुप्प।
कुछ नरम पड़ कर फिर कोशिश की,
''जतिन आया था?''
''हूं....।''
''फिर?''
''..........''
''पूछ रही हूं कुछ!'' चिड़चिड़ा कर वसुन्धरा ने कहा।
''अरे ममा, ढंग की बात करो, तब से ऐसी बातें पूछ रही हो कि बस!''
''बेटा, मैं बात करने की कोशिश कर रही हूं। अब एकतरफा तो हो नहीं सकता, जवाब तो देना पड़ेगा ना तुम्हें!''
''हमारे घर में हमेशा एसी बोरिंग बातें क्यों होती हैं? हम हमेशा एक ही टॉपिक पर बात करते हैं। अब आप पढ़ाई की बात करोगे, उपदेश दोगे! कुछ अच्छी बातें करनी चाहिऐं मम!''
''कैसी अच्छी बातें?''
''हम खुशी खुशी बात क्यों नहीं करते?''
''करते तो हैं बहुत बार, बेटा! अब इस समय?''
''अभी कोई फोन आ जाए, तब नहीं कहोगी कि थकी हुई हो। काम में लगी रहती हो, मेरे लिए ही समय नहीं है।''
फोन ज्यादातर आफिस से सम्बन्धित लोगों के होते हैं, जिन्हें उस के थके होने से कोई लेना देना नहीं होता,
''तुम करो ना कुछ अच्छी बातें!''
''बस ममा, रहने ही देते हैं!, हम हर बार शुरु करते हैं, और हर बार झगडऩे लगते हैं। मैं सोचता हूं, आपके साथ बैठ कर कुछ फ्रेश होऊंगा और फिर कुछ काम करुंगा, पढूंगा! पर मेरी लाइफ में कुछ है ही नहीं! मैं भी चाहता हूं कि हम पूरी फैमिली एक साथ बैठें, गप्पें मारें और काम करें!''
''तो गप्पे ही तो मार रही हूं मैं!'' वसुन्धरा लगभग चिल्लाई।
''ऐसे चिल्ला कर गप्पें मारते हैं? मत ही बात करो मम!''
''बस! फिर तुम कम्प्यूटर करने लगोगे!''
''.........''
''..........''
''ममा, कुछ देर तो फनी बातें करते हैं... ऐसे नहीं कि 'दिन में क्या किया?' ... 'रात में क्या करोगे?''.... फिर प्रीचिंग... 'जतिन आया था?'..... फिर प्रीचिंग... फैमिली में क्या सिर्फ ऐसी बातें होती हैं?..... 'तुमने क्या किया?' ....'यह गलत था'... 'वह ठीक होता!''...
''बच्चा! फनी बातें ऐसे सोच समझ करथोड़े ही ना होती है! फ्रेश मूड में अपने आप हो जाती हैं। मैं थक कर आई हूं बेटा, आओ कुछ देर सो लें, फिर बात करेंगे, फिर काम शुरू करेंगे।''
''... फिर मैं ट्यूशन जाउंगा... तुम जाओ... सोओ... जैसे मैंने सारा दिन काटा, अब भी काट लूंगा... फिर आप भी मत बोलना, रोहित, टी वी मत देखो... रोहित, कम्प्यूटर मत करो... रोहित, दोस्तों के साथ टाइम खराब मत करो... अगर यह सब नहीं करना है, तो घर में कुछ तो एन्टरटेनमेण्ट हो!... पापा कभी घर पर होते नहीं, आप होते हो, मेरे दोस्त भी हो, पर आपके पास कभी टाइम नहीं होता... आप लोगों से अच्छे तो दोस्त हैं मेरे।''
''.... कैसे हो गये हो तुम!......''
''ऐसे ही होता है, मम, जब भी हम बात करते हैं.... हमेशा झगड़े में खत्म होती है। हमें बात करनी ही नहीं चाहिए!''
''......''
''बोलो अब कुछ!''
''.......''
''अब आप नाराज क्यों हो गए?'' उस की बड़ी बड़ी आंखों में आंसू थे। वसुन्धरा की उस से भी बड़ी बड़ी आंखों में उससे भी बड़े बड़े आंसू थे। उस का आराम करने का समय खत्म हो चुका था, बच्चे को खुश कर के पढ़ाई शुरु करवाने की उस की कोशिश नाकाम रही थी, और उस का टीनएजर, अपने कमरे में कुछ दूर खटर पटर कर, तैयार हो कर, बस, 'जा रहा हूं' कह कर जा चुका था।
''कहां जा रहे हो?'' वह पीछे से चिल्लाई
''ट्यूशन! बोलो तो नहीं जाऊं?'' फिर वह लौट कर आया, ममा के माथे पर किस किया, ''मैं बुरा बच्चा हूं ना, मम? अगर पापा भी यहां होते, हमारे साथ बात करते, तब मैं ऐसा नहीं होता, है ना?''
पल भर को वसुन्धरा का दिल भर आया, फिर कड़ाई से बोली, ''नो एक्सक्यूजिज! तुम्हारे पापा दूर रह कर भी हमारा इतना ख्याल रखते हैं, समय नहीं दे पाते, फिर भी हमारी जरूरतों को बिना कहे समझ लेते हैं और पूरा भी करते हैं। जब भी यहां होते हैं, तुम्हें पूरा प्यार देते हैं, फिर किस कमी की बात कर रहे हो तुम?''
''हां मम, मैं पता नहीं गल्तियां क्यों करता हूं!''
''बच्चे हो, इसलिए! जाओ अब! लव यू बच्चा!''
* * *

''मुंह लटका कर क्यों बैठा है?'' सूरज को चुपचाप देख कर रोहित बोला।
''दिन ही खराब है आज।''
आज उस का काजल से बात करने का प्रोग्राम था। काजल का फोन आया था कि कुछ प्रॉबलम है, वह बात करना चाहती थी। सूरज ने भी ट्यूशन मिस कर दी, लेकिन उसके मोबाइल पर काजल का एसएमएस था, 'कान्ट कम... ममाज फ्रैंड सा मी... गोइंग बैक, सॉरी।' फिर ट्यूशन रूम की ओर चलने लगा कि सामने सब दोस्त दिखाई पड़े ...ट्यूशन नहीं थी आज। वे सब फुटबाल ग्राउंड में एक ओर बैठ गये।
''क्या हुआ सूरज, क्लेवरवेडा पर गुस्सा नहीं उतरा?'' नन्दिनी ने पूछा।
''क्या यार! किस का नाम ले दिया! बट थैंक्स फॉर रिमांइंडिंग मी, आज के बुरे दिन की शुरुआत, क्लैवरवेडा ने ही तो की है। ठीक से इंगलिश आती नहीं! क्लास पर कंट्रोल होता नहीं! स्टूडेंटस पर गुस्सा निकालती रहती है।''
''तुम लोग उसे 'क्लेवरवेडा' क्यों बालेते हो? 'फोरवेडा' बोलना चाहिए। असली मतलब तो वही हुआ ना!'' चुपचाप उन की बातें सुन रही सुप्रिया ने कहा।
''गुड डियर! तुम रहोगी भोंदू की भोंदू! फोरवेडा बोलने से पता नहीं चल जाएगा कि किस की बात कर रहे हैं!''
सुबह ही चतुर्वेदी की कक्षा में जब यह सब लोग चुपके चुपके उन के गलत अंग्रेजी उच्चारण की नकल उतार रहे थे, तो मिसेज चतुर्वेदी ने इस बात को नोटिस कर लिया था। फिर क्या था, उसी गलत उच्चारण के साथ उन्होंने सूरज पर जो चिल्लाना शुरु किया तो पिरियड खतम होने तक रुकने का नाम ही नहीं लिया। सूरज की शिकायत यही थी कि जब पूरी क्लास बातें कर रही थी, तो क्लेवरवेडा ने केवल उसी की शामत क्यों ली! यही नहीं पैर पटकती स्टाफरुम में गई और वहां से भी देर तक उनके चिल्लाने की आवाज आती रही। पूरा दिन क्लास में आने वाले हर टीचर ने सूरज को कोसा, और जितना हो सकता था उतना उसका अपमान करते गये। सूरज के दिल में कुछ कुछ होता रहा और हर अपमान पर वह मुस्कुराता रहा। उसकी मुस्कुराहट टीचरों के गुस्से पर आग में घी का काम करती रही और वह पूरा दिन स्टाफरूम में चर्चा का विषय बना रहा।
दरअसल हुआ यह था कि, चार पांच दिन पहले सूरज ने चतुर्वेदी मैम से इतिहास की किसी तिथि के बारे में पूछ लिया था, जो अलग अलग पुस्तकों में अलग अलग छपी थी। सूरज जानना चाह रहा था कि सही कौन सी थी। उसने एक तिथि दिखाते हुए पूछा, ''मैम यह सही है?''
''अब किताब में छपी है तो सही है। व्हाट इज दिस टू आस्क? यू वेस्ट टाइम, टीचर्ज, स्टूडेण्टस।'' उनकी अंग्रेजी पर मन ही मन हंसते हुए सूरज ने दूसरी किताब दिखाई, पर मैम इस किताब में... ''शट अप! यू टेस्ट माई नॉलेज? गो, इंटरनेट चेक, यू मार्डन ब्वाय। डोन्ट डिस्टर्ब यू क्लास!!''
मुड़ते हुए उसकी नजर प्रतीक पर पड़ी तो उसे देख कुछ ऐसा इशारा कर रहा था जिसका मतलब था, ''गया क्यों था ऐसा सवाल पूछने?''
बदले में सूरज ने भी कुछ मुस्कुरा कर सिर झटक दिया, मानो कह रहा हो, ''हां यार, मूर्ख हूं मैं भी।'' उसके सिर झटकने पर मैडम चतुर्वेदी की नजर पड़ गई, बस फिर क्या था। अब तो क्लास में गलती चाहे कोई करे, सजा सूरज को ही मिलती चली आ रही थी।
''छोड़ो ना सूरज!'' सुप्रिया बोली, ''ऐसी बातें तो सब के साथ होती रहती हैं। चीयर अप ब्वाय!'' किताब पर तबला बजाते हुए, गुनगनाते हुए सिमरजीत बोला, ''नहींऽऽऽ... नहीं ऽऽऽ... सबके साथ नहींऽऽऽ.....! प्यारो! कभी माणिक के साथ कुछ हुआ? वह तो सब का राजा बेटा है।''
''बस्स! राजा बेटा ही बना रहे!'' नंदिनी बोली, ''माणिक के मुंह से हर शब्द सोच समझ कर निकलता है। किस बात से टीचर खुश रहेंगे, उसे खूब पता है।''
''तो करता रहे टीचर्ज को खुश! और तो कोई पसंद नहीं करता उसे।''
''तू पसंद नहीं करता, जीते! बाकी उसे पसंद करने वाले बड़े मिल जाएंगे। उसको पता है,साले को, कि कब कौन सा तीर चलाना है।'' सूरज बड़ी खीज से बोला।
''यार वह बस पोज करता है! सचमुच पढ़ाई उसका धर्म होता तो, वही टॉप करता। फिर अपना प्रतीक, 'मि. सिम्मबल' कैसे टॉप करता है।'' प्रतीक के कन्धे पर हाथ रख कर रोहित बोला।
ट्यूशन नहीं हुई तो यह सब लोग अपने अपने घर वापिस ना जा कर कुछ देर पंकज रेस्टरां में रुक गए थे। नाम रखने में माहिर ये लोग, पंकज को भी लोटस भइया ही कह कर पुकारते हैं। अब सूरज, प्रतीक, रोहित और सिमरजीत का नदी किनारे मस्ती करने का कार्यक्रम बना तो नंदिनी और सुप्रिया, काजल के घर की तरफ चल दीं।
* * *

रोहित घर पहुंचा तो वसुन्धरा लैप टॉप पर कुछ काम कर रही थी,
''जल्दी कैसे आ गए, बेटा?''
''ट्यूशन नहीं हुई।'' रोहित मां से कभी कुछ छिपाता नहीं है। दोनों झगड़ते जरूरी हैं, पर हैं अच्छे दोस्त... ''फिर कहां गए थे?''
''कुछ देर फुटबाल ग्राउंड में थे, फिर पंकज रेस्टरां, और फिर कुछ देर नदी किनारे।''
''ऐ! तैरते तो नहीं हो? पानी खूब रहता है, वैशाली के नीचे वाले स्पॉट में। वहीं गए थे ना?''
''हांऽऽऽआं! पर हम पांव भर गीले करते हैं, मम! रिस्क नहीं लेते बेबी! डरो नहीं!'' उसने मां को बच्चों की तरह पुचकारते हुए कहा।'' दोस्तों के साथ मस्ती करके रोहित का मूड बदल गया था।
वसुन्धरा जानती है, यही उम्र हैं सपनों के पंख लगा कर उडऩे की, और यही उम्र है सपनों को सच करने की। पर रोहित के सपने हैं क्या! क्या करेगा वह उन्हें सच करने के लिए! डर लगता है हर पल, पता नहीं एक मां के अपने कत्र्तव्यों को वह कितना पूरा कर पा रही है!!!
* * *

सरदार जोगिन्दर पाल सिंह जी ने, लाइफ इन्श्योरेंस ऑफ इण्डिया में बतौर फील्ड ऑफिसर अपना कैरियर शुरू किया था। खूब मिलनसार और हंसमुख! पल में अजनबियों को दोस्त बनाने की उन की आदत, उनके व्यवसाय में बहुत सहायक रही थी। जोगिन्दर पाल जी ने खूब पैसा बनाया और खूब बहाया। पर पता नहीं क्यों, परमिन्दर कौर को वह कभी खुश नहीं कर पाए। ऐसा लगता था जैसे परमिन्दर को उनकी हर बात बुरी लगती थी... कैसे बोलते हैं, कैसे हंसते हैं... कैसे पूरा दिन ऊंचे वॉल्यूम में, शोर शराबे से भरे टी वी चैनल्स बदलते हैं।
पैसा था, खर्च होता था, पर परमिन्दर की जरूरत परेशानियों के हिसाब से नहीं निकलता था। वैसे परमिन्दर को पैसे की इतना जरूरत पड़ती भी नहीं थी। उसे जरूरत रहती थी जोगिन्दर की,... उससे मन की बात कहने की...., जो वह कभी भी कह नहीं पाई। जोगिन्दर पाल या तो खूब ऊंचे टेलीविजन के शोर में डूबा रहता, या फिर चुपचाप निकल कर चांद परजाई के घर जा बैठता। दोनों के जोर जोर के ठहाके, परमिन्दर और सिमरजीत को भी सुनाई देते। ऊपर से चान्द परजाई खिड़की से मुंह निकाल कर कहती, ''ओए परमिन्दर! तू वी आ जा।''
शुरु-शुरु में चली भी जाती थी, पर वहां तो चान्द का ऐसा दबदबा था कि परमिन्दर का पूरा व्यक्तित्व ही उसके आगे कहीं गुम हो जाता। जोगिन्दर वहां तो खूब रंगीले मूड में रहता था पर परमिन्दर अपने साथ के उसके पलों की रुखाई याद कर के मन ही मन कुढ़ती रहती। और चान्द कहती, ''हाय नी परमिन्दर कौर! तू वी किन्नी लक्की है!! जोगिन्दर पराजी इन्ने रोमैण्टिक हँगे!''
और जोगिन्दर था कि परमिन्दर के आगे माला की तरह रटता रहता, 'खाना बनाती है तो चान्द! घर सजाती है तो चान्द!! समझदार है तो चान्द!!! हर वक्त उसे यही सलाह मिलती,
''चान्द परजाई से पूछ के घर चलाना सीख।''
''परजाई को पूछ के आ, बिरयानी कैसे बनानी।''
''ओए परमिन्दर! सिमरजीत के कपड़े बदलने थे, परजाई बोल रही है, नीले वाले ज्यादा अच्छे लगने थे।''
एक दिन तो जोगिन्दर ने हद ही कर दी। बोला, ''परमिन्दर! परजाई का गुलाबी सूट है ना! परजाई बोल रही थी कि उन्होंने नहीं पहनना, किसी को दे देना है। तो मैंने कहा, परमिन्दर को ही दे दो। तू पहन लेना, तू भी अच्छी लगेगी उसमें।
'' 'भी' अच्छी लगूंगी, मतलब? उसकी उतरन पहनूंगी, तब अच्छी लगूंगी, ऐसे नहीं लगती!''
''तू ना, घमण्डी है, बोहत! परजाई जैसी ग्रेट जमानी का दिल नी समझ सकती।''
''हां हूं घमण्डी! नहीं समझना मैंने उसका दिल! ना मैंने उसकी उतरन पहननी, ना मेरे को उसके घर जाने को बोलना अब्ब!''
सिमरजीत छोटा था तब। पर उसे भी बुरा लगता कि, पापा, चान्द ताई के पास ही बैठे रहते। उनके बच्चों को बहुत प्यार करते और जीत के साथ कड़ाई बरतते। परमिन्दर और सिमरजीत ने जिन्दगी के बहुत सारे साल, इसी तरह जोगिन्दर का इन्तजार करते हुए काटे थे। परमिन्दर की जिद थी कि वह अपने बेटे को अपने तरीके से पालेगी, अपना घर अपने तरीके से चलाएगी, चान्द के नहीं। और उसकी इस जिद के कारण, मां बेटे दोनों की जोगिन्दर से अनकही दुश्मनी सी सालों से चली आ रही थी। जोगिन्दर को शिकायत थी कि परमिन्दर उसकी बात नहीं मानती, और परमिन्दर को गिला था कि जोगिन्दर अपनी नहीं चान्द परजाई की बात सुनाना चाहता है। और यह कि परजाई के नशे में डूबे उसने परमिन्दर को अपने गुणों कि ओर कभी गौर नहीं किया है।
ऐसे ठण्डे माहौल में बड़ा हुआ सिमरजीत, अपने दोस्तों की दुनिया में खूब हिला मिला था। वहां झगड़े और मनमुटाव नहीं थे। सब सबकी इज्जत करते थे, सब सबको प्यार करते थे। घर की घुटन से बाहर, इस दुनियां में बहुत सी आजादी थी, ढेर सारी सासें थीं, और सच्चा प्यार था।
* * *

नन्दिनी और सुप्रिया, काजल के यहां पहुंची तो काजल का चेहरा उड़ा हुआ था कुछ डरी हुई थी। घर का माहोल भी अजीब था। लगता था मां बेटी में कुछ कहा सुनी हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे उन दोनों के वहां पहुंचने से काजल की परेशानी बढ़ गई थी। वह झूठमूठ मुस्कुराती हुई उन्हें अपने कमरे में ले गई। वह हमेशा की तरह चहक नहीं रही थी पर सहज दिखने की पूरी कोशिश कर रही थी। लेकिन उसकी मम्मी के तेवर कुछ अजीब ही थे। उन्होंने दोनों लड़कियों की नमस्ते का जवाब भी ठीक से न दे कर उनके सामने ही काजल की ओर कठोरता से देखते हुए कुछ नाराज लहजे में कहा, ''अब गप्पों में न लग जाना। काम की बात करो और फिर पढ़ाई करो।'' फिर उन दोनों की ओर मुड़ कर बोली, ''क्यों लड़कियों! ऐसी भी क्या बातें होती है तुम्हारी, जो कभी खतम ही नहीं होती। दो दो घण्टे फोन करती हो। फिर वह काफी नहीं होता जो आमने-सामने मिलना जरूरी हो जाता है?''
मां के इस व्यवहार से काजल शर्म से पानी पानी हो गई। ये दोनों काजल की मेहमान थीं। मां को क्या जरूरत थी इनका इस तरह अपमान करने की? वह अपनी सहेलियों का सामना नहीं कर पा रही थी ना अपने बचाव में या मां के विरोध में कुछ कह रही थी। उधर नन्दिनी और सुप्रिया को अपने ऊपर शर्म आ रही थी। दोनों झटपट उठीं, सुप्रिया बोली, ''हम बस जा ही रही हैं, आण्टी, बस यह देखने आई थीं कि काजल आज ट्यूशन क्यों नहीं आई।''
आंटी नरम पड़ी, ''आई हो तो बैठ जाओ थोड़ी देर। ट्यूशन तो मैंने बन्द करवा दी इसकी। पढऩा है तो घर पर पढ़े। मेहनती बच्चों को बाहर जाने की जरुरत नहीं होती।''
जाहिर था कि काजल की आन्टी ने उसकी मम्मी को सब कुछ बता दिया था।
''अच्छा आण्टी, तो हम चलते हैं, देर हो रही है।''
काजल सिर झुकाए बैठी रही। शर्म, अपमान और गुस्से से उसका चेहरा लाल हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि इन दोनों के बाहर निकलते ही वह रो पड़ेगी। मां पूरा समय सामने थी। काजल सहेलियों को कुछ बता भी नहीं पाई। फोन स्विच्ड ऑफ था, कम्प्यूटर को हाथ लगाने की उसे इजाजत नहीं थी। अब कैसे पता चले, सूरज कैसा है। किससे मन की बात करे। इन ममा पापा के जमाने में दोस्त नहीं होते थे क्या? स्कूल घर, घर स्कूल... इस घुटन से तो मर जाएगी वह।
* * *

मिस रोज, पिछले एक दो वर्षों से अपने काम से खुश नहीं है। साइकॉलजी में उनकी डिग्री की वजह से कुछ अन्य विषयों के साथ-साथ उन्हें बच्चों की काउंसलिंग की जिम्मेवारी भी सौंपी गई थी, जिसे वे डिग्री से अधिक, बच्चों के प्रति अपने प्यार के कारण बखूबी निभाती आई थीं। वह समय था जब बच्चों का विश्वास बड़ों पर से पूरी तरह हटा नहीं था। वे प्रेम की भाषा समझते थे। अपनी इच्छाएं, पसन्द-नापसन्द उससे खुल कर कहते थे। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है।
'' तुम्हें मिस रोज की काउंसलिंग क्लास कैसी लगती है।'' मृणाल ने जागृति से पूछा, ''मुझे तो लगता है वह सब हमारी निजी बातें जग जाहिर करने के लिए ही क्लास लेती है, बस!''
''पर जो बातें वह करती है...! उबाउ!!.....उपदेश!!! शुरू में लगता है, तुम्हें समझ रही है... फिर कुछ देर में वही बोलती है, जो पेरेण्टस चाहते हैं।''
कुछ रोज पहले मिस रोज ने अपनी आदत से अलग मृणाल पर गुस्सा किया था। कहा था कि वह अपनी पढ़ाई में सुधार लाने के बारे में गम्भीर रहे। मेडिटेशन करे, उनकी सुझाई हुई पुस्तकें पढ़े, इस बार भी वह अच्छे अंक नहीं ला पाई तो फिर उन्हें कुछ और कदम उठाने पड़ेंगे। मृणाल को इसी बात पर गुस्सा आ गया था। वह अपने में कोई गल्ती नहीं ढूंढ पाती थी। अब अच्छे अंक नहीं ला पाती है तो वह क्या करे! कोशिश तो करती है ना! जरूर मां ने कुछ कहा होगा! उन्हें हमेशा उससे शिकायत रहती है। वह ऐसा नहीं समझ पाई कि मां के कुछ कहे बगैर ही इसके व्यवहार को समझ पाने की क्षमता मिस रोज में थी।
जागृति ने फिर कहा, ''मुझे तो उबाउ नहीं लगती। मां के साथ मेरी प्रॉबलम को वह कितनी अच्छी तरह समझ गईं। और उन्होंने मुझे बताया भी, मुझे क्या करना चाहिए।''
''फिर? फायदा हुआ?''
''हां! कुछ तो! तुम्हें भी तो कुछ करने के लिए कहा था मिस ने? क्या फायदा हुआ?''
''मिस ने नहीं, जरूर मां ने कहा होगा उनसे यह सब कहने के लिए। और तुम्हें भी क्या फायदा हुआ है? तुम्हारी ममी ने भी मिस रोज की कहां मानी!''
''पर मुझे तो पता चल गया ना कि मुझे मां के व्यवहार को कैसे समझना है।''
''तो जीता कौन, बताओ? तुम या मां! .... कह रही हूं, यह मिस रोज को कुछ आता जाता नहीं है! कुछ नहीं बदलता, जागृति डियर! जो पेरेण्टस चाहते हैं वही होता है बस! फिर चाहे उसमें हम लोगों को कितनी भी परेशानी हो।''

मिस रोज़ की क्लास!
''बच्चों! मैं पूरी तरह समझती हूं तुम्हारी उम्र में एक किशोर की कैसी भावनाएं होती हैं। तो जैसा तुम सोचते हो, जैसा तुम बिहेव कहते हो, तुम्हारी उम्र में बिलकुल सही है। फिर भी हमें साथ मिल कर यह देखना है कि यह सब तुम्हें किस ओर ले जा रहा है।
''... चलिए आप सब मुझे बताएं, इस हफ्ते अपने पेरेण्ट्स और टीचर्ज से कम से कम एक बार किस-किस ने झूठ बोला है?''
''........''
''किसी ने भी नहीं। ....झूठ का अर्थ सच छिपाना भी होता है। अब बताएं।''
फिर जागृति का हाथ उठा
''बहुत अच्छे, जागृति! पता है, इस समय तुम सच बोलने वाले बहुत कम बच्चों में से हो! और कोई?....?''
शीतल, आदित्य, आयुश, अक्षत, प्रेरणा... कुछ दस बच्चों के हाथ धीरे-धीरे उठे। मृणाल का हाथ भी कन्धे तक उठा। मिस रोज ने उसे अनदेखा ही किया।
''ठीक है। और कोई? ...हूँ! तो और किसी ने झूठ नहीं बोला। किसी को जरूरत नहीं पड़ी!''
''मिस! हमें कभी जरूरत नहीं पड़ती। हम पेरेण्ट्स से कभी कुछ नहीं छिपाते।'' माणिक बोला।
''मिस्टर परफेक्ट!'' सिमरजीत बुदबुदाया।
''ठीक है! ठीक है! ...अच्छा! आप लोगों में से कोई बताना चाहेगा, आपको झूठ की जरूरत क्यों पड़ी? ऐसा क्या हो जाता है कि झूठ बोलना जरूरी लगने लगता है?''
राज ने हाथ खड़ा नहीं किया, पर वही बोला, ''सच किसकी समझ में आता है, मिस? सच बताने की कोशिश बेकार होती है। डोण्ट्स के सिवाय पेरेण्ट्स ज्यादा बात नहीं करते, हमारा प्वाइंट तो समझते ही नहीं फिर सच बोल कर करना ही क्या है?''
बहुत देर से चुप बैठे बच्चों में खुसर-पुसुर शुरु हो गई। कुछ देर धीमा धीमा शोर चलता रहा। मिस रोज भी मुस्कुराती, एक ओर खड़ी उन्हें बात करने का अवसर देती रही। बड़ों पर कितना अविश्वास है इन्हें! आपस में बोलने बतियाने को इतना कुछ है और बड़ों के साथ बांटने के लिए कुछ भी नहीं। काजल अचानक उठ खड़ी हुई।
''मिस, मेरा कल ममा के साथ झगड़ा हुआ था। मैंने झूठ बोला था।'' सब उसकी ओर देखने लगे।
''मैं शाम को ट्यूशन नहीं गई थी और मैंने ममा को नहीं बताया था। उन्हें किसी और से पता चल गया।''
''ट्यूशन नहीं गई थी तो कहां गई थी?''
''.....''
''दोस्तों के साथ थी?''
काजल ने हां में सिर हिलाया।
''सच कहती, तो मां रोक लेती, यही ना?''
काजल ने सिर हिलाया, बोली कुछ नहीं। लगता था उसने बात शुरु तो की है, पर उसे आगे ओर नहीं बढ़ाना चाहती।
मिस रोज को कभी-कभी गुस्सा आ जाता है। काउंसलिंग सैशन में अब उन्हें बच्चों से वान्छित सहयोग नहीं मिलता। वह सोचती है कि शायद पहले बच्चे बड़ों का साथ चाहते थे और उन्हें समय नहीं था। और अब बड़ों और बच्चों दोनों ही को दोस्त होने का नाटक करना आ गया है। वे एक दूसरे को थोड़ा बहुत समय दे तो देते हैं पर क्योंकि बड़े सच सुनना नहीं चाहते, और फिर बच्चे सच कहते नहीं। मौज मजे की दुनिया में वे इतना आगे निकल चुके हैं कि अपनी खुशी की दुनिया की बातें वे आसानी से छिपा जाते हैं। राज ही सही कहता है, सच बोल कर करना ही क्या है!
पता नहीं, कैसी हो वह मां बाप की खूबसूरत दुनियां कि बच्चे कुछ और बरस बच्चे रह पाएं।
* * *
''मम!' रोहित चिल्लाया, ''आओ, मेरे साथ बैठो ना कुछ देर!''
वसुन्धरा का मन हुआ, कहे, ''थोड़ा काम निपटा लूं, डूडू?'' पर उसने झटपट फाइल बन्द की ओर बेटे के पास आ गई। देखा, रोहित किताबें बिखेरे बैठा तो है, पर एक घण्टे पहले जब वह इस कमरे में आई थी, किताबें लगभग उसी तरह पड़ी थीं। वह समझ गई कि रोहित ज्यादा कुछ पढ़ा नहीं था। कुछ गुस्सा भी आया, पर बोली, ''हां, बोलो। कुछ पढ़ाई हुई है? कुछ कम ही हुई होगी है ना?''
''हां, कुछ ज्यादा नहीं। कुछ सोच रहा था...''
गुस्सा आया, पर कुछ सब्र से बोली, ''क्या सोच रहे थे?'', वह बेटे के पास बैठ गई और दोस्तों की तरह उसके कन्धे पर हाथ रख दिया।
रोहित बोला, ''पता है मम, जब हम यह टॉपिक क्लास में पढ़ रहे थे तो सर ने पूछा कि फिजिक्स पढऩे में क्या इक्साइटिंग है? तो मैंने कहा कि सर, इससे हमें चीजो के मैग्नीट्यूड और फोर्स के बारे में पता चलता है।... तो सर को गुस्सा आ गया। कहने लगे ''भला इसमें क्या इक्साइटिंग हुआ!...''
''तो फिर सर ने क्या बताया?''
''वही सब जो किताब में लिखा है। रॉकेट्स, एसटीडी, जरनी टू मून, वगैरा वगैरा...। और मजे की बात यह है मम, कि यह सब कहते हुए सर की आवाज में कोई इक्साइटमेण्ट नहीं थी। सालों से एक लाइन पढ़ा कर थक गये होंगे। हा... हा... - ह ह हा...।''
वसुन्धरा मुस्कुरा दी। पल भर के लिए मन में द्वंद हुआ, कि क्या कहे! उसका बेटा अपने टीचर का मजाक उड़ा रहा है। गलत है। उसका फर्ज है कि बच्चे को बड़ों का सम्मान करना सिखाए। पर इस परिस्थिति में ऐसा कहती है तो रोहित को लगेगा कि वह भी बाकी सब मांओं की तरह उपदेश भर दे रही है, बस। वह धीरे धीरे मुस्कारते हुए बोली, ''इसमें सर की गलती नहीं है, बेटा। हमारा एज्यूकेशन सिस्टम ही इग्•ााम ऑरिएण्टिड है, तुम्हारे सर भी ऐसे ही पढ़े होंगे। अच्छा, तुम बताओ, तुम्हें मेग्नीट्यूड और फोर्स क्यों लगा?''
मैंने तो एक 'ले मैन' की तरह सोचा। अगर मैं केव में रहता, और शिकार करता, तो मुझे रोबा•ा और जरनी टू मून में क्या इन्टरेस्ट रहता! मैं तो यही सोच कर खुश होता कि मैंने स्टोन फेंकने में कितनी फोर्स का यूज किया!... तुम्हारी फोर्स मेरी फोर्स से ज्यादा कैसे!''
दोनों हंसने लगे। फिर वसुन्धरा बोली, ''पर अगर तुम केव में रहते तो फिजिक्स तो नहीं पढ़ते। इग्जाम भी नहीं देते। इस समय भी तुम्हारी इमैजिनेशन किसी भी ओर दौड़े, अपनी किताबों से अलग जवाब दोगे तो न माक्र्स मिलेंगे, न जॉब। कहीं तो प्रेक्टिकल भी होना पड़ता है।''
''प्रैक्टिकल बातें भी टीचर्ज कहा सोचने देते हैं! वे जो बता दें उससे कुछ भी ज्यादा पूछने पर इतनी इन्सल्ट करते हैं कि बस! याद नहीं, ज्योग्रफी की मैम ने किया था मेरे साथ! सबको मेरे अगेंस्ट कर दिया था।''
''मुझे पता है, बेटे! कभी कभी ऐसा हो जाता है। टीचर्ज का अपना प्रॉब्लम होता है, पढ़ाने का फ्लो टूट जाता है...।''
''कम ऑन, मा! तुम भी ना, मांओं की तरह, बिना लॉजिक के टीचर्ज की साइड ले रही हो। ममा वाली प्रीचिंग ना करो फ्रेंड बन कर मुझे बताओ, मैम ने जो किया, वह ठीक किया था?''
वह बात याद कर के वसुन्धरा के मन में आराधना के लिए दबा हुआ गुस्सा उमड़ आया। वैसे तो वसु बहुत समझदार है, फिर भी पता नहीं क्यों उसे कुछ लोगों को माफ करना मुश्किल लगता है।
आराधना, वसुन्धरा की क्लासमेट थी और संयोग से रोहित की ज्योग्राफी टीचर भी। रोहित क्लास में अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाता था। मौनसून के बारे में पढ़ते पढ़ते भी, उसके दिमाग में फिज़िकस का एयर प्रेशर घूमता रहता। उसे लगता था, बे ऑफ बेंगाल पर से, एयर को ईस्टर्न कोस्ट पर आना चाहिए, फिर वह नार्थ ईस्ट क्यों चली जाती हैं? गलत प्रश्न था। ज्योग्रफी की कक्षा में पूछा जाने लायक नहीं था। पर वह तो रोहित था, पूछ बैठा। आराधना गुस्से में पगला गई,
''ऐसा होता है, क्योंकि ऐसा होता है। हमने भी ऐसा ही पढ़ा है।''
''पर मैम, एयर प्रेशर के हिसाब से जो मूवमेण्ट होना चाहिए...।''
''शटअप!!!''
''..... ???''
घर पहुंचा तो उदास था रोहित। मां, इतनी आसानी से शटअप क्यों कह देते हैं टीचर्ज? दिमाग को सोचने देना ही नहीं चाहते। मशीनें तैयार कर रहे हैं, जो खुद सोचें समझें नहीं, अपने अध्यापक के ज्ञान को इग्जाम में जा कर लिख आए बस!!! बताओ मां, ज्ञान का सफर एक जगह रुक नहीं जाएगा?''
कोई और होता तो, वसुन्धरा अपने को इस सबसे दूर ही रखती। अपने बच्चे की जिज्ञासा किसी और तरीके से शान्त करती। पर क्योंकि आराधना उसकी दोस्त थी, तो उसने बात की, ''आराधना, रोहित से मुझे क्लास में इन लोगों की शरारतों के बारे में काफी कुछ पता चल जाता है। तंग तो करते ही होंगे!''
''टीनएजेर्ज हैं, वसु! रोहित तो वैसे भी अच्छा बच्चा है। परेशान मत हुआ करो।''
''कल शायद इसने क्लास में कुछ पूछा था। मुझे पता है, पढ़ाते हुए बीच में संदर्भ से हटकर प्रश्नों के जवाब देने कठिन रहते हैं, पूरी क्लास डिस्टर्ब हो जाती होगी ना। पर मैं चाहती हूं कि कुछ नया जानने का उसका जज्बा ठण्डा ना पड़े। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम मुझे समझा दो और मैं उसे, या फिर क्लास के बाहर, हो सके तो उसे ही...?
''क्यों नहीं, वसु! ही इज ए गुड ब्वाय, हू हैज गॉट अ गुड मदर! मैं बताउंगी तुम्हें, जरूर!''
''थैंक्स डीयर! और अपने बेटे की तरफ से मैं माफी मांगती हूं, उसे शायद अपना प्रश्न कम्यूनिकेट करना नहीं आया।''
वसु खुश थी, शाम को रोहित सुनेगा तो खुश हो जाएगा।
रोहित आया और बहुत नाराज था, ''आपको कल आराधना मैम मिली थी?''
''मिली तो थी।''
''और आपने कहा कि मैंने प्रश्न ठीक से कम्यूनिकेट नहीं किया?''
''हूंऽऽऽ... कुछ ऐसा ही!!''
''पता है, आपकी फ्रेण्ड ने आज क्लास में क्या किया? क्लास में आते ही मुझे डांट दिया। मेरी ओर देखकर कहने लगीं, 'कुछ बच्चों से प्रश्न ठीक से 'कम्यूनिकेट नहीं होता और बेकार में क्लास का माहोल बिगाड़ देते हैं।'.... मम, उनकी सारी फ्रेण्डस आकर सारा दिन मुझे इन्सल्ट करती रहीं।'' वसुन्धरा ने उसे प्यार किया और वादा किया कि वह उसके और उसके टीचर्ज के बीच में कभी नहीं पड़ेगी। वह 'उसे ग्रैनपा के पास ले गई, जो उम्र भर कॉलेज में ज्योग्रफी पढ़ाते थे। उनसे रोहित ने जाना की ध्रुवों और भूमध्य रेखा के पास पृथ्वी की गति अलग-अलग होती है, और इसी कारण ये समुद्री हवाएं गलती से नार्थ ईस्ट पहुंच जाती हैं। ग्रेनपा ने एक पुराना फिल्मी गीत भी गाया, 'निकले थे कहां जाने के लिए, पहुंचे हैं कहां, मालूम नहीं...'। उसे ग्रैनपा बहुत अच्छा लगने लगे थे। उसने फिर कभी भी आराधना मैम की क्लास में कोई प्रश्न नहीं पूछा।
* * *

मृणाल और जागृति दोनों की अपनी अपनी ममा से बिल्कुल नहीं बनती।
जागृति और ममा तो जैसे, जेलर! उनकी सख्ती के किस्से तो सभी दोस्तों में कहे दोहराये जाते हैं। उन्हें तो शायद, मिस रोज ने भी बात करने बुलाया था। शायद जागृति ने ही मिस रोज को बताया था कि मम्मी उसे सहेलियों से मिलने नहीं देतीं, किसी का फोन भी आ जाए तो पूरा टाइम सामने खड़ी रहती है, और बार बार उसे फोन नीचे रखने का इशारा करती रहती है, इससे उसे बहुत घुटन महसूस होती है।
जागृति क्लास में कभी खुलकर बात नहीं कर पाती थी। ज्यादातर लड़कियां पढ़े लिखे, अमीर परिवारों से थी। फर्राटे से अंग्रेजी बोलती थीं। जागृति के माता पिता, इतने पढ़े लिखे नहीं थे कि अंग्रेजी स्कूल में पढऩे वाली अपनी बेटी को अंग्रेजी माहोल दे पाएं। उनके घर में आने जाने वाले लोग भी उसके पिता की तरह या तो फल उगाने वाले थे, या इसी तरह का कोई और काम करने वाले। वे लोग जिस तरह की बातचीत करते, वह जागृति की सहेलियों के परिवेश में कहीं फिट नहीं बैठतीं। जब बाकी लोग अपने अपने घरों की बातें करते, तब जागृति चुप रहती। जब वह कुछ कहना चाहती, तो अक्सर गलत अंग्रेजी बोलती। सहेलियां तो उसे पसंद करती थीं, पर वह स्वयं ही अपने आप में गड़ी सी रहती। टीचर्ज से बात करते हुए तो वह और अधिक तमाशा करती। शब्दों की कमी के कारण ज्यादा बात हाथ से करती। बहुत बार वह सहेलियों की तरफ झुक कर उनसे बात पूरी करने का अनुरोध करती।
मिस रोज से बात करने के बाद तो उसकी मां और अधिक सख्त हो गई थी। उसने बड़े कड़े शब्दों में जागृति को जता दिया था, ''तुम्हें बड़े स्कूल में भेजा है कि तुम वहां पढ़ो, इसलिए नहीं कि तुम वहां के तौर तरीके सीखने बैठ जाओ। हम साधारण लोग हैं, तुम्हें हमारे ही तरीकों से रहना पड़ेगा। अपनी औकात को समझो, और उसकी हद में रहो। कोई जरूरत नहीं है, सहेलियां बनाने की।''
धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का! तौर तरीके सीखे बिना किसी भी माहौल में रहना कितनी बड़ी सजा होती हैं। अच्छा होता कि उसे अपने तौर तरीके वाले स्कूल में ही रखा जाता। मिस रोज को यह सब बताते बताते, जागृति की आंखें भर आई, और वह कुछ ज्यादा ही मुस्कुराने लगी। उस समय उसे अपने ऊपर कितनी दया आ रही थी और कितनी शर्म, पता नहीं।
* * *

उधर मृणाल का घर!
''देखो बेटा, हम तुम्हें अपनी हैसियत से बड़े स्कूल में पढ़ा रहे हैं। तुम समझ रही हो ना?'' दिल ही दिल में इस बार-बार सुनी जाने वाली बात से चिढ़ कर उसने सोचा, ''तो क्यों पढ़ा रहे हो?'' प्रकट में बोली, ''हांऽऽ, पापा।''
''बेटा, हमारे पास इतना पैसा नहीं है, जितना तुम्हारी फ्रेण्ड्स के पापा लोगों के पास है। न तो हम तुम्हारी अगली पढ़ाई के लिए बड़ी बड़ी डोनेशन दे सकते हैं, न तुम्हारे ऊपर बड़ा बड़ा खर्चा कर सकते हैं। मैं तुम्हारी सहेलियों की तरह तुम्हारी रोज नई फरमाइश पूरी नहीं कर सकता। तुम्हें बहुत सारी चीज़ों के बिना ही खुश रहना सीखना होगा।''
''पापा, मैं कहां करती हूं, अपनी सहेलियों की तरह फरमाइशें?''
''फरमाइशें नहीं करती हो, तो अपने कमरे में बैठी, गंगा जमना क्यों बहाती रहती हो?'' उसकी मम्मी बेकाबू होकर चिल्लाई तो उसके पापा ने इशारे से उन्हें, चुप रहने के लिए कहा। पापा, प्यार से बात समझाना चाह रहे थे और मम्मी गुस्से से उबल रहीं थीं। मृणाल हाफ ईयरली इग्ज़ाम में एक आध पेपर को छोड़, सबमें फेल हो गई थी। उसने कुछ पेपर घर पर दिखाए भी नहीं थे। बिना साइन किए पेपर्ज स्कूल पहुंचे तो स्कूल से घर पर फोन आया था। बस इसी बात पर आशा अपना आपा खोए बैठी थी। मृणाल के घर पहुंचते ही वह एक बार उसकी पिटाई कर चुकी थी। पापा के घर पहुंचने के बाद, यह समझने समझाने का दूसरा दौर चल रहा था।
''देखो बेटा, पढ़ोगी, तो तुम्हारी जिन्दगी बन जाएगी...।''
आगे पापा और क्या-क्या बोलने वाले थे मृणाल को एक-एक शब्द पता था। वह सर झुकाए बेसब्री से, चुपचाप यह सब खत्म होने का इन्तजार कर रही थी। मां को भी लग रहा था कि पापा की इन सब बातों से, कुछ होने वाला नहीं है। इस मृणाल की बच्ची को तो खींच कर दो लगें, खाना पानी बन्द कर कमरे में बन्द करें तो इसकी भी अक्कल ठिकाने आये। पापा का क्या है, सुबह के निकले, देर शाम घर पहुंचे! दिन भर निभाना तो आशा को ही पड़ता है ना! लड़की हाथ से बाहर निकलती जा रही है। जब देखो फोन पर बतियाती रहती है, न पढ़ाई, न काम काज। बहुत बार दोनों मां बेटी साथ बैठ कर बात करती भी हैं तो उस पर अक्सर आशा को शक होने लगता है कि इस पूरी बातचीत को बड़ी सफाई से कांट छांट कर कहा जाता है, इस तरह कि छिपाए जाने वाली बात आसानी से छिपाई जा सके और यह लगता रहे कि मां को दिन की एक-एक खबर दी जा रही है। आशा को खुद पर गुस्सा आता, मृणाल पर और श्याम पर भी, बेवजह ही!
मृणाल उन दोनों की बातें सुनकर भी नहीं सुन रही थी। उनकी ओर देखती आंखें फैलाए, सिर तो हिलाती चली जा रही थी, पर मन देख रहा था बड़े-बड़े सपने। ऐसे सपने जिसमें कुछ किए बिना ही अचानक ढेर सा पैसा, ढेर सी खुशियां बिना मांगे ही मिल जाएं। शायद सपनों का राजकुमार उसे चुराकर ले जाए और उसे अपनी सपनों की दुनियां का पूरा राज उसे दे दे। उसके पास इतना कुछ हो कि उसकी यह सब अमीर सहेलियां उसकी किस्मत पर रश्क करें।
* * *

''सपनों का राजकुमार!!! तेरा दिमाग भी ना, काजल!!'' सुप्रिया हंसने लगी, इतनी सी बात पर फंस गई! ट्यूशन छूट गई और सूरज के साथ घूमना भी।''
''क्या जरूरत थी कॉपी में सपनों के राजकुमार की बात लिखने की।'' अब नन्दिनी बोली, ''जब असली है तेरा, तो उसके साथ घूमती! मजे करती!! कॉपी में क्यों लिखा? फंस गई ना अब!''
सूरज भी पास ही कहीं बैठा था। बोला, ''कुछ करो, ना गुड डियर! नन्दी! अब तुम्हीं लोग किसी तरह काजल को घर से बाहर निकाल सकते हो। सारे मिल कर पार्टी किया करेंगे। प्लीऽऽऽज!... प्लीऽऽऽज...!!''
''...ज्यादा मक्खन न लगा, सूरज! गलती तो तेरी इस काजल की है। हिन्दी की कॉपी!! मां के हाथ नहीं लगती, तो भी मदरहुड मैम के हाथ लग जाती। तब भी तो मां को पता लगता ही!
सूरज खुशामद कर रहा था। सुप्रिया और नन्दिनी, दोनों उनका मजाक उड़ा रही थीं। और काजल रोए जा रही थी, ''छी:! इतत्ती बड़ी गल्ती उससे हो कैसे गई? इसके लिए मज़ाक बन गया है, और उसे ममा पापा का सामना करना मुश्किल लग रहा है। इस सूरज को तो देखो, बात की सिरियसनेस को समझ ही नहीं रहा है, पार्टी करेंगे... पार्टी करेंगे...! सेल्फिश कहीं का!..., ''नहीं आना मुझे तुमसे मिलने! मैं यहां इतनी परेशान हूं, और तुम्हें पार्टी की पड़ी है।'' काफी देर तक दोस्त बहस करते रहे। अन्त में तय यह हुआ कि स्कूल में चल ही मैथ्स एक्सट्रा क्लासिज ज्वाइन कर ली जाए। वहां से जब तब भागना काजल के लिए कोई मुश्किल काम नहीं। एक तो उसके पेरेण्ट्स उन लोगों में से नहीं थे जो समय समय पर स्कूल आकर उसकी प्रोग्रेस की बात पूछें, और फिर काजल के सपनो का राजकुमार, मृणाल की तरह केवल उसकी कल्पनाओं में ही नहीं था! वह उसकी नोटबुक में भी था और असली जिन्दगी में भी। इतिहास गवाह है, सच्चे प्यार में लोग क्या क्या नहीं करते।''
* * *
''बोर्ड की क्लास और इन बच्चों के हाल तो देखो।'' मिसेस चतुर्वेदी बौखलाई हुई स्टाफरूम में घुसी। मिस रोज अपनी चिरपरिचित मुस्कुराहट में से बोली, ''कोई नई बात हुई है मिससे चतुर्वेदी?''
''मिस रोज, माइंड नाट! यू स्पाइल दीज़ चिल्ड्रन्ज। देयर इज व्हाट नीड टू स्पाइल देम! एण्ड गिव लव देम व्हाट दे डोण्ट वाण्ट।''
ज्योत्सना बजाज, इंगलिश टीचर, मिसेस चतुर्वेदी की खास दोस्त ने धीरे से कहा, ''डोण्ट गो रोंग, मिसेस चतुर्वेदी, यू बेटर स्पीक हिन्दी।''
मिसेस चतुर्वेदी ने खंखार कर अपने को संभाल लिया। बोली, ''ये क्लास टेन के बच्चे पढऩा ही नहीं चाहते। सब इम्पॉरटेण्ट लाइनज् अण्डरलाइन करवाई हैं, पर कुछ याद नहीं। ऊपर से ये रोहित और प्रतीक ऊटपटांग प्रश्न पूछते रहते हैं।''
''ये रोहित तो ना! इतना इरिटेट करता है कि क्या बताएं।'' आराधना बोली।
''आल आफ देम! क्या प्रतीक, क्या रोहित, क्या कोई और! बोल रहे हैं, बोल रहे हैं... पढऩा ही नहीं चाहते।''
इस उम्र में बच्चे ऐसे ही होते हैं, ''मिसेसे बजाज बोलीं, उनके अपने बच्चे इस उम्र से निकल चुके थे, ''क्यों, ममता? हमारे बच्चे भी यह सब करते थे।''
''हां, मिसेस बजाज, उम्र के साथ यह सब बातें समझ आने लगती हैं। मेरी क्लास में भी यह लोग शोर मचाते हैं, बातें करते हैं, साथ साथ पढ़ाई भी कर लेते हैं।'' ममता उर्फ मदरहुड मैम यानि कि हिन्दी टीचर बोली।
''बट मिसेस ममता, अंडरलाइन करवा कर भी याद नहीं किया, यह टॉपरर्ज के हाल हैं।''
''मिसेस चतुर्वेदी, सुना, पूरा का पूरा चैप्टर अंडरलाइन है, एक दिन में पंद्रह पन्ने, वर्ड टू वर्ड... कुछ मुश्किल नहीं था?'' सविता ने चुटकी ली तो मिस रोज़ ने बात बदल दी, ''पिकनिक पर कब ले जा रहे हैं इन्हें, मिसेस बजाज?''
''क्लास टेन को पिकनिक ले जाना, कम सरदर्द नहीं है। इतनी बड़ी जिम्मेवारी।''
* * *
पिकनिक वाले दिन, काजल और सूरज के जोड़े को सभी ने नोटिस किया। मैथ्स वाले गुप्ता सर को एकदम समझ आ गया कि काजल के अचानक एक्स्ट्रा मैथ्स क्लास ज्वाइन करने का मतलब क्या है। उन्होंने, यह भी दो जमा दो चार कर लिया कि सर दर्द के कारण, काजल को इतनी क्लास क्यों मिस करनी पड़ती है। इन दोनों की दोस्ती की जो यह चर्चा चली, उससे, दोनों की खुशियों के पर जल्द ही कतरे जाएं, ऐसी घटनाएं अपने आप ही बनती चली गई। नये केमेस्ट्री टीचर, मि. जोशी सूरज के परिवार को जानते थे। अगली ही शाम, सूरज की मम्मी, उससे सवाल जवाब कर रही थी। इधर स्कूल की ओर से काजल के पेरेण्ट्स से, उसके मैथ्स क्लास से अक्सर अबसेण्ट रहने का लिखित कारण मांगा गया था। दोनों, अलग-अलग मिस रोज के काउंसलिंग सेशन्ज अटेण्ड कर रहे थे। प्रतीक रोहित से पूछ रहा था, ''इतना सिरियस क्या हो गया है यार?''
''पता नहीं! कितने और जोड़े हैं क्लास में, यह तो आम बात है, इन्हीं दो के साथ इतनी सख्ती क्यों!''
''बदकिस्मत हैं।'' प्रतीक बोला।
''बुद्धू हैं,'' रोहित फिर बोला, ''मुझे तो आज तक लड़कियों से दोस्ती का कंसेप्ट ही समझ नहीं आया। मुझे तो उनकी बातें ही बेहूदा लगती हैं। हंसती रहती हैं, खामख्वाह!''
''सबके सामने मत कहना। सब मजाक उड़ाएंगे। मैं तो कह भी देता हूं कि मेरी गर्लफ्रैंड चण्डीगढ़ में हैं।''
''चण्डीगढ़ में है?'' प्रतीक ने आंखें फैलाईं।
''नहीं है ना! बुद्धू!!''
सहेलियों ने सहेलियों से बात की, सहेलियों ने मांओं से, मांओं ने पड़ोस में और पड़ोसियों ने जाने कहां कहां! मानों छोटे शहर के हर घर में लोगों का यही काम हो, ''भई ब्वाय फ्रेण्ड तो कइयों के होते हैं! इतना बखेड़ा हुआ है... तो जरूर कुछ....!''
माणिक घमण्ड से कहता, ''ये दोनों बड़े बेवकूफ निकले। हर काम में स्मार्टनेस होनी चाहिए, स्मार्टनेस! मुझे देखो, मैं सब तरह के मजे करता हूं। पढ़ाई करते रहो साथ साथ। पेरेण्ट्स को सिर्फ माक्र्स से मतलब होता है, फिर वे ज्यादा पूछताछ नहीं करते। बड़ों के सामने उनके पसंद की बात करनी आनी चाहिए, याऽऽऽर!''
''राजा बेटा!'' सिमरजीत धीरे से बुदबुदाया। वह माणिक को जरा भी बरदाश्त नहीं कर पाता था। माणिक कहता जा रहा था, ''पब्लिक प्लेस में गर्लफ्रेण्ड के साथ अकेले घूमते हैं कोई? और भी कई पेयर्ज होते हैं, सबको साथ साथ रहना चाहिए। शर्त लगा लो, किसी को कुछ पता नहीं चलता।'' सिमरजीत फिर दांत पीसते हुए कुछ बुदबुदाया।
काजल की घर पर पिटाई हुई। उसकी मैथ्स क्लास बन्द कर दी गई। वह चुप-चुप रहने लगी। अगले क्लास टेस्ट में मुश्किल से पास भर हुई। सूरज के साथ उसकी दोस्ती पूरी तरह टूट गई। सूरज को भी किसी हॉस्टल में डालकर उसके पेरेण्ट्स अपने कर्तव्य से मुक्त हो गए।
खैर, जो हुआ सो हुआ! बातें पुरानी हो जाती हैं...., मिट जाती हैं...., सब भूलभाल जाते हैं।

उसके बाद हुई एक गैंग फाइट!
रोहित को ऐसा था कि अपने डूज और डोण्टस को जितना हो सकता निभाता हुआ वह दोस्ती सभी तरह के लड़कों से रखता था। कुछ दिनों से ओमी, प्रतीक को लेकर रोहित से ऐसे सवाल पूछ रहा था कि रोहित को हंसी आ जाती। उसने हंसते हुए सिमरजीत से कहा भी, ''ओमी पूछ रहा है कि प्रतीक और काजल चौहान की दोस्ती कितनी गहरी है!'
सिमरजीत देर तक हो हो करके हँसता रहा था। वह बार बार प्रतीक की ओर देखता और पूछता, ''ओये सिम्मबल्ल! काजल चुहान!!! होर वी कोई नी?!!!''
प्रतीक भी मुस्कुराता रहा उसने हां या ना कुछ भी नहीं कहा। दोस्तों में छेड़छाड़ चलती रहती। रोहित और जीत बाकी सबको यह विश्वास दिलाते रहते कि काजल और प्रतीक के बीच ऐसा वैसा कुछ नहीं है। फिर एक दिन ओमी रोहित से बोला, ''समझा दे अपने प्रतीक को, काजल से दूर रहे! नहीं तो...।''
''अरे ऐसा कुछ नहीं है, ओमी।''
पर इस बार रोहित ने प्रतीक से गम्भीरता से बात की, ''प्रतीक, यार, वे लोग तो आज शाम किसी फाइट वाइट के चक्कर में हैं। तेरे पर बेकार में शक कर रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये लोग तुझे भी लड़ाई में लपेट लें। तू बात साफ क्यों नहीं कर लेता?''
प्रतीक चुप रहा।
शाम को जब ये लोग स्कूल से निकले तो चौक पर कई अजनबी चेहरों को देख कर ठिठक गये। अपनी ही क्लास के लड़के दो हिस्सों में बंटे खड़े थे। ओमी, किसी और स्कूल में पढऩे वाला उसका कजिन और प्रणव एक ओर, और केशव और अभिमन्यु दूसरे दल के साथ थे। पता चला कि प्रणव और कात्यायनी की दोस्ती को लेकर यह झगड़ा खड़ा हुआ था। क्लास के लगभग सभी लड़के किसी न किसी दल से दोस्ती निभा रहे थे। ऐसे ही होता है इन गैंग फाइट्स में, आमने सामने खुले मुकाबले से पहले दो या तीन बार चेतावनी देना जरूरी होता है, यह नियम है। ओम अपने दोस्त छेरिंग की तरफ से बहुत बार प्रणव को धमका चुका था। आज फैसले का दिन था। प्रतीक, रोहित और जीत जैसे ही वहां पहुंचे, ओमी उसकी ओर इशारा करते हुए साथ वाले लड़के के कान में कुछ फुसफुसाया। रोहित को अचानक सब समझ आ गया, वह चिल्लाया, ''प्रतीऽऽऽऽक! भाऽऽऽऽग!!!'' तीनों लड़के भाग कर स्टाप में खड़ी बस में घुस गये और गायब हो गये। बाकी लड़कों के साथ, काफी देर तक खुले बाजार में यह गैंग फाइट चलती रही।
अगली सुबह, प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर, कक्षा दस के लगभग सभी लड़के, लाइन में खड़े थे। सभी के माता पिता को बुलाया जा चुका था। बस, इन तीन दोस्तों सहित कुछ दस लड़के क्लास  में बैठे थे। बहुत सारी लड़कियां, जो झगड़े के स्थान पर मौजूद भी नहीं थीं, उन्हें भी ऑफिस में बुलाया गया था। शायद उनके माता पिता को भी फोन कर दिया गया था।
* * *

''प्रतीक बदल गया है, यार। घमण्डी हो गया है।''
''होता है ऐसा! सब कुछ है उसके पास! सब कुछ, जो उसे घमण्ड करने को चाहिए।''
''टॉपर है, हर एक्टिविटी में सबसे आगे, कराटे ब्लैक बैल्ट, अच्छा सिंगर!!! अरे यहां तक तो हमें भी उस पर नाज था! बट, दिस! दिस!!''
''चल अब, ठीक है डूड, उसकी लाइफ है।''
''पर रोहित, हमें इग्नोर करना?! हमें? हम चाइल्डहुड फ्रेंडज हैं, डूड!''
''शै:!''
''शै:!''
सिमरजीत और रोहित टहलते हुए, इस तरह दिल का गुबार निकाल रहे थे। आज उनके बचपन के दोस्त ने उनसे झूठ बोला था। और झूठ भी किसलिए? उनका पीछा छुड़ा, वह उस माणिक के साथ घूम रहा था, जिसका वह म•ााक  उड़ाया करते थे। यह भी कोई बाई हुई भला!
रोहित, जीत को समझा रहा था, ''ठीक है ना जीत! वह भी अब बाकी लड़कों के ग्रुप में आ गया है। उसे भी अब माणिक के पास घूमने की जरूरत पड़ गई है। हमारे साथ वह अब क्या करेगा!''
''हांऽऽऽ!! हम तो बोर हैं ना!''
फिर दोनों चुपचाप चलते रहे। इस बार रोहित बोला, ''वह इतना अजीब कैसे हो गया? वह झूठ क्यों बोल रहा है? सच बता देता, तो हम क्या पीछे पीछे आते?!''
इस बार जीत रोहित को समझा रहा है, ''जाने दे रोहित, तू खुद ही सोच, ऐसी सिट्यूएशन में वह बिचारा झूठ नहीं बोलता तो करता क्या!''
''सही बोल रहा है।''
''वैसे बुलाता तो है हमको, मतलब याद तो करता है।''
''ये क्या बुलाना हुआ? हम क्या अब माणिक जैसे हो जाए?''
''चल लोटस भइया के यहां चलते हैं। अपना रिवाइवल प्वाइंट कहते थे ना हम इसे, जब हम सब साथ होते थे!'' दोनों ठण्डी ठण्डी आहें भरते रहे।
रिवाइवल प्वाइंट, पंकज रेस्टोरेण्ट! यही भी दोनों पुरानी बातें याद करते रहे।
''जीत! याद है वह गैंग फाइट?''
''याद है, रोहिते!!''
''याद कर, जीत, प्रतीक भी उस फाइट में होता, अगर हमने उसे वहां से भगा न दिया होता।''
''हां यार! रोहित! तू सही बोल रहा है, यार!''
''और यह प्रतीक, साला! तब भी कैसा चुप्प रहा। हम सबसे कहते जा रहे हैं, प्रतीक ऐसा नहीं, प्रतीक वैसा नहीं!''
''ओ हम दोन्नो ही खोत्ते हैं...!'' जीत ठेठ पंजाबी तरीके से बोला, ''हम खोत्ते हैं रोहित्ते! हमारे को ही कहानी समझ में नी आई।''
पता नहीं हो क्या गया  है! दिन पहले जैसे बिलकुल नहीं रह गये। उस गैंग फाइट के बाद ज्यादा लोगों को भले ही सब कुछ शान्त लगने लगा, लेकिन रोहित और सिमरजीत के लिए सब कुछ बदल गया। प्रतीक सचमुच काजल चौहान के साथ घूमने लगा तो पहले जैसी परेशानी से बचने के लिए वह माणिक के भीड़भाड़ वाले बड़े ग्रुप में घूमने वाले तौर तरीके अपनाने लगा। दोनों ही बातें किसी भी तरह रोहित जीत के गले नहीं उतरती। प्रतीक को जाने दें, भूल जाएं, वैसा भी नहीं होता। उसका फोन आता है, वे बात नहीं करते... और फोन नहीं आता है, वे चिड़चिड़ाएं रहते हैं। अब गलती प्रतीक की है क्या?.... पता नहीं भई!!! अपने ऊपर भी दोनों को शक होने लगता है कभी कभी। जीत फिर फिर कहता है, ''हम सच्ची खोत्ते हैं, ओए रोहित्ते! खुश रैहणा हम्म को नी आत्ता तो सिममबल कीऽऽ करे  बिचारा?!''
''सिम्मबल नहीं! 'प्रतीऽऽऽऽक सक्सेना' बोल 'प्रतीऽऽऽऽक सक्सेना!!!''
''...........''
''..........''
* * *

छोटे शहर में, छोटे छोटे मेले भी लगते हैं, और कभी कभार बड़े-बड़े फन फेयर भी। बड़े-बड़े फन फेयर्•ा में बड़ी-बड़ी भीड़ भी होती है।
माणिक बहुत सारे लड़के लड़कियों के साथ मेले में घूम रहा है। बड़े ग्रुप की बड़ी सहूलियत हैं। जरूरत के हिसाब से कभी लड़के लड़कियों के अलग अलग ग्रुप बन जाते हैं, तो कभी साथ साथ घुल मिल जाते हैं। खूब शोर है, खूब मजा है। खूब रंगीन माहोल है।
पंकज रेस्टोरेण्ट में भी कई सारे नये लोग हैं। पुराने लोगों को कुछ  पता नहीं। बस कोने वाली मेज पर दो लड़के मुंह सुजाए बैठे हैं।
''मुझे नहीं अच्छा लगता यह सब!''
''मुझे भी नहीं।''
''पहले के दिन अच्छे थे। है ना?''
''पिज्जा खाएगा?''
''हां, तो और क्यों बैठे हैं हम यहां?''
''नहीं यार, वैसे बता, वो सब कम्फरटेबल तो होंगे? कैसे खुश रहते होंगे?''
''कम्फरटेबल ही होंगे! कुछ और बात कर ना, यार!''
''तू कुछ बोल।''
''..............''
''..............''
''अच्छा, पिज्जा के साथ कोक मंगवा लें?''
''दांत तोडूं तेरे? मंगवा ना यार!''
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अचानक एक बड़ा सा ग्रुप रेस्टोरेण्ट में आया। प्रतीक कोने वाली मेज पर आया, ''रोहित, यार, अरे जीत! साथ रहो ना यार, तुम दोनों।''
''हम साथ ही तो हैं।''
''हमारे साथ रहो।''
''नहीं, प्रतीक, दम घुटता है, यार! मैं तो लड़कियों के सामने ठीक से हँस भी नहीं पाता।''
''रोहित, तू भी नहीं आएगा?''
''नहीं!''
''पक्का?''
''पक्का।''
प्रतीक मुड़ा, जोर से पुकारते हुए बोला, ''माणिक! चलो यार, यहीं आ जाओ सारे। अगर ये नहीं आ रहे हमारे साथ, तो हम आ जाते हैं, इनके साथ।''
पंकज रेस्टोरेण्ट, बहुत सारे लड़के लड़कियों के शोर से पूरा का पूरा भर गया।
अब मुस्कुराने की बारी लोटस भइया की थी, रोहित और जीत एक बार फिर खिलखिलाते, दोस्तों से घिरे घिरे!
चलो जी, एक और किस्सा खत्म हुआ.....।



श्रीमती ईशिता आर. गिरीश हिमाचल के कुलू अंचल से आती हैं। यह अंचल हिन्दी की एक नई फुलवारी है। पहल ने यहां के अनेक नये रचनाकारों को प्रकाशित किया है जिसमें से कई लगभग अज्ञात और अनाम थे। ईशिता पहल की पुरानी पाठक हैं और अब लेखिका बनी हैं। 9 अगस्त 1968 जन्म। घर में साहित्यक वातावरण गहरा था। 1987 से कहानी लेखन में अभिरुचि पैदा हुई। एक उपन्यास प्रकाशित। तैलचित्र भी बनाती है। अंग्रेजी की अध्यापिका होकर हाल ही में सेवानिवृत्त।  ishshita@yahoo.com, mob. 09816970519

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